शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

देखती हूँ मुड़कर

देखती हूँ मुड़ कर जिन्दगी से बस हिसाब माँगती हूँ
कोई माकूल जवाब अब मिल जाए इसी आशा में हूँ
अतीत के पन्ने बारबार बेतहाशा बैठी यूँ पलटती हूँ
समझ नहीं पाती कि मैं क्या-क्या तलाशती रहती हूँ

शायद इस जन्म में अपनी मदद को यूँ हाथ बढ़ाती हूँ
अपने-पराये की समझ मैं अपने मानस में नहीं पाती हूँ
काश वो भी मुझे जाने जिसे मैं दिलोजान से चाहती हूँ
पल-पल इंतजार की सूनी घड़ियाँ बस यूँहीं  बढ़ाती हूँ

हो सकता है जिन्दगी का कोई ऐसा पल उसे यूँ छू जाए
मेरे अंतर्मन के अनकहे शब्द उसे ही यह अहसास कराए
उसके मानस को किसी विधि ही सही आशा बींध जाए
मेरे अंत:करण की अथाह गहराई बस वो भी समझ पाए

बिन माँगे मोती की तरह कुछ पल में मेरी झोली भर जाए
मेरा यह बालमन कभी आहत न हो ऐसी यह दुआएँ पाए
इस पगले-दीवाने को बस दुनिया की खुशियाँ यही भाए
गम के आँसुओं से मीलों दूर यह अपना ही बसेरा बसाए

स्नेह की बाती दिन-रैन अपने अंतस में बसाती हूँ जलाए
चाहती हूँ मैं बस अब हरपल मुझे कोई समझता ही जाए
अलग-थलग दुखी रह कर जीना मुझे न कभी भी सुहाए
झूम-झूम कर मीत को यह अनोखी मीठी रागिनी सुनाए

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

संयुक्त परिवार

संयुक्त परिवार में विघटन छोटी-छोटी बातों को लेकर होता है। बच्चों व बड़ों की असहिष्णुता इसका मुख्य कारण होता है। दोनों ही पक्ष जब अपने-आपको सही ठहराते हुए दूसरों की बात नहीं सुनना चाहते तो समस्या बहुत बढ़ जाती है।
         संयुक्त परिवारों में बच्चे सुरक्षित रहते हैं। बच्चे, जिनके लिए माता-पिता इतनी मेहनत करते हैं पता भी नहीं चलता कि वे हँसते-खेलते, लड़ते-झगड़ते कब बड़े हो जाते हैं। माता-पिता यदि अपने काम पर जाते हैं तो बच्चे दादा-दादी या अन्य परिवार जनों के साथ रहते हैं तो उनका समुचित विकास होता है। उनको अकेलेपन का सामना नहीं करना पड़ता। नौकरों के सहारे रहकर उनके संस्कार व उनकी तरह का व्यवहार नहीं सीखना पड़ता।
        बजुर्गों को भी अकेलेपन का दंश नहीं झेलना पड़ता। उनका समय बच्चों के साथ बिना परेशानी के बीत जाता है।
        कुछ परिवारों में जब विघटन की स्थिति बनती है तो मन को पीड़ा होती है। घर का बेटा यदि  समझदारी से काम करे तो घर की इज्जत बनी रहती है और परिवार भी टूटन से  बच सकता है।
बजुर्गों को केवल सम्मान व बच्चों का साथ चाहिए होता है। यदि उन्हें यथोचित सम्मान व थोडा वक्त  दे दिया जाए तो संयुक्त परिवार कभी न टूटे।
         कुछ बजुर्ग अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं होते। वे सामंजस्य बैठाने में अपनी तौहीन समझते हैं। वे सोचते हैं कि बहु आयी है तो वह घर-बाहर की सभी जिम्मेवारियों को भी निभाए और वे अपना  शासन जमाएँ। सास-ससुर स्वयं में बदलाव लाने के बजाय बहु अर्थात् नये सदस्य से सामंजस्य करने की आशा रखते हैं।ऐसे परिवारों में विघटन की समस्या अधिक रहती है।
       कई परिवारों में अपनी स्वतन्त्रता व हठ के कारण लड़कियाँ ससुराल में अपने अमर्यादित  आचरण से  रहती हैं। सास-ससुर को अपने  माता-पिता  जैसा आदर नहीं देतीं। घरेलू कामकाज भी नहीं करना चाहतीं। वे सोचती हैं कि हम नौकरी करके पैसा कमाती हैं तो घर के काम क्यों करें? सभी परिवारों में नौकर-चाकर नहीं होते कि हुक्म  चलाएँ और काम चल जाये।
       लड़की के माता-पिता का अनावश्यक हस्तक्षेप भी पारिवारिक बिखराव का कारण बनता है। उन्हें चाहिए कि अपनी बेटी को आपसी तालमेल के साथ परिवार में मिलकर रहना सिखायें। अपने परिवार की ही तरह बेटी के परिवार को भी समझें और सकारात्मक रुख रखें।
       आज के इस भौतिक युग में बच्चे समझदार हो रहे हैं वे संयुक्त परिवार की अहमियत को जानने लगे हैं। उन्हें यह लग रहा है कि यदि बड़े-बजुर्ग साथ रहेंगे तो वे व बच्चे सुरक्षित होंगे। इसलिए वे संयुक्त परिवार की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।
      परिवार के विघटन में अहं आड़े आता है चाहे वह बच्चों का हो या बड़ों का। बड़ों की अगर गलती हो तो भी बच्चों को नजरअंदाज करना चाहिए यदि पारिवारिक विघटन रोकना हो तो। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है और बड़ों को भी अपनी गलती का अहसास हो जाता है।

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

स्त्री को दोयम दर्जा

स्त्री को हमेशा से ही दोयम दर्जा दिया जाता है। पुरुषवादी सोच उस पर हमेशा हावी रही। कहने को तो वह लक्ष्मी है, सरस्वती है, दुर्गा-काली है पर क्या जीवन में उसे वाकई वह मुकाम मिल पाता है? शायद नहीं। जब तक पुरुष के हाथ की कठपुतली बनकर रहे तो वह सती-सावित्री व पूज्या कहलाती है परंतु यदि वह अपनी इच्छा से कोई भी कार्य करना चाहे तो न जाने किन-किन विशेषणों से उसे नवाजा जाता है।
     हमारे ग्रंथ उसे चाहे देवता का ओहदा दे दें पर दूसरी तरफ उसे यह कहकर भी उसे कम अपमानित नहीं किया जाता है-
स्त्रिय: चरितं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्य:।
अर्थात् स्त्री का चरित्र देवता नहीं जान सकते तो मनुष्य कैसे समझें?
      रामायण काल को ही देखें जिन्हें हम भगवान कहते हैं उनका अपनी पत्नी के प्रति कैसा रवैया था। जो पत्नी सीता ने चौदह वर्ष उनके साथ वनों में भटकी, उनसे बदला लेते रावण की कैद की जिल्लत भोगी पर जब राज्य भोगने का समय आया तो उस निर्दोष को गर्भावस्था में बिना दोष बताए जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया गया। राम ने सीता के परित्याग के बाद कैसा जीवन जिया इस विषय की चर्चा करना मैं आवश्यक नहीं समझती। उधर दूसरी ओर लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला और भरत की पत्नी माण्डवी को बिना किसी अपराध के दण्ड भुगतना पड़ा।
      इसी तरह महाभारत के समय भी उसे पुरुष ने अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते बलि का बकरा बनाया गया और जुए तक में दाँव पर लगाया गया। चाहे सत्यवादी हरिश्चन्द्र की पत्नी तारामती हो जिसे बेच दिया गया या गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या हो उसे जड़वत जीवन बिताना पड़ा। कितनी ही पत्नियों को उनके पतियों ने अकारण बिना बताए सोते हुए ही छोड़ दिया सारा जीवन पीड़ा भोगने के लिए।
         इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से जहाँ उसके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया गया। उसके जज्बातों से खिलवाड़ किया गया। कहने भर को वह आज आजाद है, उसकी मर्जी से सब कुछ होता है पर यह वास्तविकता नहीं है। वह आज भी पुरूष की गुलामी भोगने को विवश है। उसका अपना अस्तित्व टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने को विवश है।
      पता नहीं पुरुषवादी सोच बदलेगी या नहीं। नारी की उसके हिस्से की खुशियाँ बरकरार रहेंगी या नहीं।
       मैं बहुत आशावादी हूँ। मेरी सोच भी बहुत सकारात्मक है परंतु जमीनी हकीकत से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। अपने ईर्दगिर्द जब यह सब घटता है तो मन में चुभन महसूस होती है। ये उदगार उसी मानसिक व्यथा का कुछ अहसास भर हैं। इसीलिए आपके साथ इन विचारों को साँझा कर रही हूँ। जानती हूँ कि भाषा थोड़ी कटु हो गई है पर मन की व्यथा का यथार्थ चित्रण है। आशा है आप सब उसी भाव से इसे पढ़कर कुछ सोचने को विवश होंगे।
       यह भी आवश्यक नहीं कि आप मेरे विचारों पर अपनी मोहर लगाएँ। पर इस लाइन पर सोचिए अवश्य।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

कुम्हार का चाक

उस कुम्हार का चाक चले दिन रैना
पिस के उसमें सब जग करता बैना
बच न पाए यहाँ पर देखो कोई सैना
पल छिन में छिन जाता है सब चैना

भाग सका न कोई इसके तीखे नैना
चुहुल नहीं बस चलना इसको हैना
घूम घुमन्तु चर चर करता है ये पैना
देखे चहके ओर चहुँ रे यह बिन नैना

जीव मेरा उड़ना चाहे फैलाकर डैना
नहीं चाहता पिसना बनकर ये मैना
फिर फिर आए फिर फिर जाए दैना
न पूछे उससे पर खोता जाता जैना

तराश रहा पकड़ हाथ हथौड़ा छैना
गढ़ता जाता यूँ मूरत सब ऐना गैना
प्राण फूँक इनमें बस बन जाता शैना
तोड़े चाहे मोड़े बोल जाए तब टैना।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

दहेज की समस्या

दहेज का प्रचलन दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। हर दूसरा व्यक्ति पहले से बढ़चढ़ कर प्रदर्शन करना चाहता है। सब समाज में अपनी नाक ऊँची करना चाहते हैं। खुद ही सोचिए कहाँ पहुँचेंगे हम?
       अपनी बेटी को कोई परेशानी न हो इसलिए माता-पिता रेस में भागते रहते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी बेटी को ससुराल में सम्मान मिले, दहेज के नाम पर अपमानित न होना पड़े। और इससे भी बढ़कर पानी की तरह पैसा बहाकर वे समाज में प्रदर्शन करना चाहते हैं। सामान्य परिवार शादी में खर्च करने के लिए सालों उधार चुकाते रहते हैं। कभी-कभी अपनी सम्पत्ति भी बेचते हैं। कहने का अर्थ है अपनी सारी जमा पूँजी होम कर देते हैं। अपने बुढ़ापे में मोहताज हो जाते हैं।
       दहेज शब्द आज रूढ़ हो गया है। इसका अर्थ लोगों ने ठीक से न समझकर अनर्थ को न्योता दे दिया है। दहेज के लालच में स्त्रियों पर यदाकदा अत्याचार अर्थात् आग में जलाना, शारीरिक यातना आदि खबरें टीवी व समाचार पत्रों में पढ़ने को मिल जाती हैं। है। इसका कारण है दहेज शब्द के सही अर्थ को समझकर न समझना है। हमारे ग्रन्थ कहते हैं कि माता-पिता ज्ञान, विद्या और उत्तम संस्कार आदि गुण अपनी बेटी को भेंट करें।
       प्राचीन काल में माता-पिता विवाह के समय बेटी को घर-गृहस्थी की आवश्यक वस्तुएँ देकर विदा करते थे। आज तो इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। इसकी जिम्मेदार लड़कियाँ स्वयं भी हैं जो सोचती हैं कि सारी धन-सम्पत्ति तो भाई को दी जाती हैं तो वो अपना हिस्सा क्यों न लें। इस कारण वे मुँह खोल कर अपनी शादी में खर्चा करवाती हैं।
     समृद्ध परिवारों में समस्या नहीं हैं पर आर्थिक रूप से सामान्य परिवारों को सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
        मैं युवा पीढ़ी से अनुरोध करती हूँ कि अपने हौसले बुलंद रखे व अपनी कमाई के भरोसे अपनी गृहस्थी बनाने की ओर कदम बढ़ाए। इससे समाज को इस कोढ़ से बचने में सहायता मिल सके।

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

विधवा विवाह

विधवाओं की दुर्दशा के बारे में बहुत सुना व पढ़ा मन को अतीव पीड़ा हुई। पता नहीं अपने घर की इज्जत को इस तरह प्रताड़ित होते हुए देखकर लोगों के मन क्यों नहीं फटते? खाने-पीने को मोहताज, स्वास्थ्य की सुविधा से वंचित ये विधवाएँ कहीं-कहीं भिक्षा माँग कर जीवन यापन कर रही हैं। सभ्य समाज के लिए यह बड़े शर्म की बात है कि उसका एक अंश इतनी बदहाली में गुजर बसर कर रहा है और वह मौन होकर इस अन्याय की ओर से आँख मूँद कर सो रहा है।
       हमारे भारत की संस्कृति तो ऐसी नहीं थी कि अपने प्रिय जन को इस प्रकार असहाय छोड़ दिया जाए। चाहे वह माँ हो, बहु हो, बेटी हो अथवा बहन हो उसे इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करना भी अपराध ही है।
      विधवा का पुनः विवाह किया जा सकता है। प्राचीन काल में विधवा विवाह हुआ करता था। आयु प्राप्त विधवा की बात मैं नहीं कर रही परंतु अल्प वय विधवा के पुनः विवाह की अनुमति हमारे ग्रन्थ देते हैं।
       अथर्ववेद के मंत्र १८.३ में कहा गया है कि मैंने विधवा युवती को जीवित मृतो के बीच से अर्थात शमशान भूमि से ले जाई जाती हुई तथा पुनर्विवाह के लिए जाती हुई देखा है। वह पति विरह जन्य दुःख रूप घोर अंधकार से द्रवित थी इसलिए उसे पूर्व पत्नीत्व से हटाकर दूसरा पत्नीत्व प्राप्त करा दिया है। यह मन्त्र हमें समझा रहा है कि विधवा का पुनः विवाह किया गया।
       अथर्ववेद के ही अन्य मन्त्रों 9/5/27-28 में कहा गया है कि जो स्त्री पहले पति की मृत्यु के पश्चात जब पुन: दूसरे पति को प्राप्त करती है तो पुन: पत्नी होनेवाली स्त्री के साथ दूसरा पति एक ही गृहस्थलोक में वास करने वाला हो जाता है। अर्थात् दोनों पति-पत्नी के रूप में अपनी गृहस्थी चलाते हैं।
       पति की मृत्यु के बाद  देवर से भी पुनर्विवाह के प्रमाण ऋग्वेद १०/४०/२ और निरुक्त ३/१४ में भी मिलते हैं।
     वेदों के यह प्रमाण सिद्ध करते हैं कि वेदों में विधवा विवाह को महापाप नहीं मानते थे अपितु पुनर्विवाह की अनुमति थी। इस प्रकार विधवा को उसके पूर्ण अधिकार के साथ जीवन व्यतीत करने की अनुमति थी। उन्हें घर से अलग रहकर यातनाएँ सहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था।
       आज इक्कीसवींम सदी के प्रगतिशील युग में इस प्रकार की रूढ़ियों को तोड़कर असहनीय यातनाओं को झेलने को लाचार इन विधवाओं के पुनर्वास व उनको यथोचित सम्मान  देने की महती आवश्यकता है।

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

हर वस्तु का महत्व

हर वस्तु की हमारे जीवन में अपना ही स्थान व उपादेयता होती है। इसलिए किसी छोटी-से-छोटी वस्तु की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए तिनके जैसी तुच्छ चीज जिसको हम फूँक मारकर उड़ा देते हैं, पर जब यही तिनका आँख में गिरता है तो बड़ा कष्ट देता है। कितने समय तक आँख में लाली रहती है, उसमें भयंकर पीड़ा होती है यानी कि- 'पीड़ घनेरी होय।'
       हम अपने घर में देखते हैं कि हम वस्त्रों की सिलाई के लिए हमेशा सुई का प्रयोग करते हैं वहाँ तलवार का प्रयोग नहीं कर सकते। अगर ऐसी मूर्खता करने की सोचेंगे तो जग में हँसी का पात्र बनेंगे।
          हर वस्तु चाहे वह छोटी हो या बड़ी उसका अपना महत्त्व होता है। एक के होते हुए हम दूसरी को नजरअंदाज नहीं कर सकते। हमें घर-परिवार में सभी वस्तुओं की आवश्यकता होती है। किसी एक के भी जरूरत के समय न होने पर हम परेशान हो जाते हैं, जो सामने पड़ता है उस पर झल्लाते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं। जब तक आवश्यक वस्तु को हम जुटा नहीं लेते हमें चैन नहीं मिलता।
          इसी प्रकार अपने जीवन में मिलने वाले सभी जनों की भी हमें आवश्यकता होती है। अगर हम यही सोचते रहेंगे कि अमुक व्यक्ति छोटा है हमें उसकी जरूरत क्योंकर पड़ने लगी? तो हम गलत सोचते हैं। घर में कामवाली या नौकर के बिना हम एक दिन बिताने में असहाय अनुभव करते हैं। इसी तरह ड्राइवर, धोबी, माली, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन आदि के बिना भी जिन्दगी नरक बन जाती है।
        मात्र केवल बड़े लोगों से दोस्ती करेंगे और छोटों का तिरस्कार करेंगे तो जीवन दुष्वार हो जाएगा। यही मानकर चलिए कि हमें सबकी आवश्यकता है। इसलिए छोटे लोगों को भी उतना ही सम्मान दें पैर की जूती की तरह न समझें।

रंगमंच सी दुनिया

रंगमंच-सी ये दुनिया बस खेल खिलाती है
हम सबको यूँ मोहरा बना नाच नचवाती है

डोरी थामे बैठा वह तो मंद-मंद मुस्काता है
पल-पल कर बस सब चैन चुराता जाता है

चाहे-अनचाहे किरदारों में फंसाता जाता है
निशि-दिन मनमाना अभिनय ये करवाता है

मनाही की गुंजाइश कभी नहीं ये बचाता है
जैसा चाहे जो भी चाहे खेल हमें खिलाता है

वो ही जाने अपनी माया भेद नहीं बताता है
पार न पाएं  गुणीजन ऐसी उसकी माया है

छल छल जाता छलिया छवि महकाता है
वेद पुराण एकमत हो यह गाथा सुनाता है

नतमस्तक हो हर जन ही शीश झुकाता है
मान-मनोव्वल करते-करते इसे रिझाता है।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

भाई-बहन संबंध

भाई बहन का संबंध ईश्वर की ओर दिया गया एक अनमोल उपहार है। ये दोनों अर्थात् भाई और बहन एक-दूसरे के पूरक हैं।भाई यदि घर की शान है बहन घर का मान होती है। बहन के लिए भाई का और भाई के लिए बहन का प्यार अमूल्य होता है।
     भारतीय संस्कृति में बहन एक अनमोल बंधन है। मृत्यु पर्यन्त भाई इस रिश्ते को अपने कर्तव्य के अनुसार भलीभाँति निभाता है। इसी रिश्ते के प्रतीक-स्वरूप रक्षाबंधन व भैयादूज त्योहार हैं। ये सामाजिक त्योहार भाई-बहन के प्रगाढ़ बंधन के प्रतीक हैं। रक्षाबंधन जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है में बहन भाई को राखी के स्वरूप में रक्षाकवच बाँधती है और भाई उसे यथाशक्ति उपहार देकर आयु पर्यंत रक्षा करने का वचन देता है। भैयादूज पर बहन भाई के माथे पर तिलक लगाती है भाई सामर्थ्यानुसार बहन को उपहार देता है। भाई चाहे छोटा हो या बड़ा हमेशा बहन का सहारा बनता है।
    यद्यपि आज के भौतिकतावादी युग में ये संबंध भी अछूता नहीं रहा। कहीं-कहीं किन्हीं परिवारों में धन-संपत्ति को लेकर भाई-बहन के संबंधों में कुछ कड़वाहट अवश्य आई हैं। पर वे परिवार अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
       यहाँ मैं एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि जिस धर्म में अपने रक्त संबंधों में विवाह की अनुमति है वहाँ भी सगे भाई-बहन में विवाह निषिद्ध है।
      इस कथन का यही तात्पर्य है कि भाई-बहन का संबंध बहुत ही पवित्र है इसे दोनों को ही सच्चे मन से निभाना चाहिए।
        यहाँ हम यह भी जोड़ सकते हैं कि भारतीय संस्कृति में यदि सगी बहन न होते हुए किसी को युवती को बहन मान लिया जाता है तो उसके साथ भी ताउम्र वैसा ही संबंध निभाया जाता है जैसा रिश्ता सगी बहन के साथ निभाया जाता है।
      ईश्वर भाई और बहन के इस रिश्ते की पवित्रता बनाए रखे।

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

दीपावली के बाद

कल दीपावली का त्योहार हम सबने पारंपरिक तरीके से व बड़े उत्साह से मनाया। आशा है ईश्वर की कृपा आप पर पूरा वर्ष बनी रहेगी।
      अब नये वर्ष के लिए हमें एक सकारात्मक व सार्थक योजना बनानी है जिससे आने वाला 2015 हमारे लिए नयी खुशियाँ लाए। हमने जो-जो योजनाएँ पिछले वर्ष बनायी उनके विषय में विचार करना कि उन्हें हम कितना पूरा कर पाए। योजनाएँ अगर पूरी हो गईं तो ठीक है और जो किसी कारणवश पूर्ण नहीं हो पायीं उन पर मनन करना आवश्यक है। हमारा यत्न यही होना चाहिए कि उन्हें अविलम्ब पूरा करके आगे बनाई योजनाओं पर जुट जाएँ।
       यदि हम इस प्रकार कर पाते हैं तो अपने जीवन की गाड़ी को सहजता से चला सकते हैं अन्यथा घसीटते हुए थक-हार जाते हैं।
     ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आप सभी की मनोकामनाओं को पूर्ण करे और सबके जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर करे।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

फिल्मी गानों के डाक्टरी नाम

किसी मित्र ने वाटस एप पर ये फार्वड किया था। कुछ हिंदी फ़िल्मी गीत जो कुछ बीमारियों का वर्णन करते हैं। आप भी एन्जॉय कीजिए-

गीत - जिया जले, जान जले, रात भर धुआं चले
         बीमारी - बुखार

गीत - तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही
          बीमारी - हार्ट अटैक

गीत - सुहानी रात ढल चुकी है, न जाने तुम कब आओगे
          बीमारी - कब्ज़

गीत - बीड़ी जलाई ले जिगर से पिया, जिगर म बड़ी आग है
         बीमारी - एसिडिटी

गीत - तुझमे रब दिखता है, यारा मैं क्या करूँ
         बीमारी - मोतियाबिंद

गीत - तुझे याद न मेरी आई किसी से अब क्या कहना
          बीमारी - यादाश्त कमज़ोर

गीत - मन डोले मेरा तन डोले
         बीमारी - चक्कर आना

गीत - टिप-टिप बरसा पानी, पानी ने आग लगाई
         बीमारी - यूरिन इन्फेक्शन

गीत - जिया धड़क-धड़क जाये
         बीमारी - उच्च रक्तचाप

गीत - हाय रे हाय नींद नहीं आये
         बीमारी - अनिद्रा

गीत - बताना भी नहीं आता, छुपाना भी नहीं आता
         बीमारी - बवासीर

और अंत में

गीत - लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है
         बीमारी - दस्त

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

कन्या बचाओ

कन्या बचाओ मुहिम बहुत जोरों से चल रही है। भ्रूणहत्या का विरोध भी बहुत मुखर रूप से किया जा रहा है। सोशल मीडिया व सामाजिक संगठनों ने इस समस्या के विरोध में कमर कस ली है। सरकार व न्यायालय भी इस समस्या पर बहुत गंभीर हैं।
         इक्कीसवीं सदी में जहाँ लड़कियों व लड़कों को हर क्षेत्र में समान अवसर प्राप्त हैं वहाँ लड़की को गर्भ में ही मार देना बहुत ही अमानवीय है। इससे लड़की व लड़के का अनुपात बिगड़ जाएगा तब अन्य तरह की समस्याएँ समक्ष आएँगीं।
       हमारे देश में कई प्रदेशों में कन्या भ्रूण हत्या का महापाप प्रचलन में है। शायद इसका मुख्य कारण है स्त्रियों को समाज में उचित सम्मान न मिलना जो उन्हें मिलना चाहिए। दहेज जैसी कुरीतियाँ और बलात्कार जैसी घटनाओं का सभ्य समाज में बढ़ना भी इसके कारण हैं। साथ ही तथाकथित धर्म के ठेकेदारों ने यह भ्रांति फैलाई हुई है कि पुत्र कुल का उद्धार करने वाला है। समझ नहीं आता कि जहाँ परिवार में शायद ही अपने परदादा का नाम किसी को पता हो वहाँ कौन सा कुल तरेगा? किसी भी कारण से आज अपने माता-पिता की सेवा जो बच्चे नहीं कर पा रहे वे कौन-कौन से पितरों को पार लगाएंगे? और फिर जो पितर इस दुनिया से विदा लेते ही न जाने कितने जन्म ले चुके होंगे उनको तारना कैसा मजाक है?
        हम अपने आदी ग्रन्थों वेदों में पुत्रियों के विषय में उनके विचारों को जानने का प्रयास करते हैं। वहाँ केवल पुत्र की कामना नहीं की गई बल्कि य की भी कामना की गयी है। वेदों ने हमेशा ही नारी को यथोचित सम्मान दिया है। उसे सदा प्रात: कालीन उषा के सामान प्रकाशवती, सम्राज्ञी अन्नपूर्णा, सदा गृहिणी, स्नेहमयी माँ, वीरांगना, वीर प्रसवा आदि से संबोधनों से पुकारा जाता था।
ऋग्वेद १०.१५९.३– मन्त्र में कहा है कि मेरे पुत्र शत्रुओं का नाश करने वाले हों और पुत्री भी तेजस्वनी हो।
ऋग्वेद ९/६७/१०- में प्रार्थना की है कि प्रति प्रहर हमारी रक्षा करने वाला पूषा हमें कन्यायों का भागी बनायें अर्थात् कन्या प्रदान करे।
यजुर्वेद २२/२२– मन्त्र में विजयशील सभ्य वीर युवकों के पैदा होने की कामना की है साथ ही बुद्धिमती नारियों के उत्पन्न होने की भी प्रार्थना की गई है।
अथर्ववेद १०/३/२०- मन्त्र में ऋषि कहते हैं  कि जैसा यश कन्या में होता हैं वैसा ही यश मुझे प्राप्त हो।
        हमें समझना चाहिए कि विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ हमें नारी का सम्मान करने की शिक्षा देते हैं। उसके बिना पुरुष एक कदम भी नहीं चल सकता। मेरी सभी सुधी जनों से प्रार्थना है कि वे बेटी की सुरक्षा का यत्न करें। इस दुनिया में उसकी बहुत आवश्यकता है। वह घर को व देश को दिशा देने वाली है, स्वर्ग बनाने वाली है। सामाजिक संगठन, सरकार व कानून तो अपना काम कर रहे हैं, साथ ही हमें भी सजग रहना है।

शोले फिल्म के डायलॉग संस्कृत में

सराहनीय प्रयास है शोले फिल्म के डायलॉग का संस्कृत में अनुवाद करना। मैं अनुवादक के विषय में नहीं जानती। आपके साथ इसे साँझा कर रही हूँ। आनन्द उठाइए।

१.बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना
    हे बसन्ति! एतेषां श्वानानां पुरत: मा नृत्य।

२.अरे ओ सांबा, कितना इनाम रखे हैं सरकार हम पर?
   हे साम्बा! सर्वकारेण कति पारितोषिकानि अस्माकं कृते उद्घोषितानि?

३.चल धन्नो आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है
   धन्नो! (चलतु वा) धावतु अद्य तव बसन्त्या: लज्जाया: प्रश्न: अस्ति।

४.जो डर गया समजो वो मर गया
   य भीत:भवेत् स: मृत: एव मन्यते।

५.आधे इधर जाओ आधे उधर जाओ और बाकी हमारे साथ आओ
   केचन पुरुषा: अत्र आगच्छन्तु केचन पुरुषा: तत्र गच्छन्तु शेषा: पुरुषा:       मया सह आगच्छन्तु।

६.सरदार, मैने आपका नमक खाया है
   हे प्रधानपुरुष! मया तव लवणं खाद्यते।

७.अब गोली खा
   अधुना गोलीं  खाद।

८.सुअर के बच्चो...।
   हे सुकराणाम् अपत्यानि...।

९.तेरा क्या होगा कालिया?
   हे कालिया तव किं भवेत् ?

१०.ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर
    ठाकुर, यच्छतु मह्यं तव करौ।

११.हम अंगेजो के जमाने के जेलर है !
    अहं आंग्लपुरुषाणां समयस्य कारानिरीक्षक: अस्मि।

१२.तुम्हारा नाम क्या है बसंती?
    बसन्ति किं तव नामधेयम् ?

१३.होली कब है, कब है होली?
    कदा होलिकोस्तव:, कदा होलिकोस्तव:?