रविवार, 30 नवंबर 2014

वसुधैव कुटुम्बकम्

'वसुधैव कुटुम्बकम्' का अर्थ है सारी पृथ्वी अपना घर है और 'आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पण्डित:' अर्थात् सभी लोगों को अपने समान समझने वाला विद्वान है।
       ये उक्तियाँ सार्वभौमिक सत्य हैं व सारी मानव जाति के लिए हितकारी हैं। यदि पूरा विश्व इन्हें आत्मसात कर ले तो अन्याय, अत्याचार, आतंकवाद, युद्ध जैसी जटिल समस्याएँ स्वयं ही समाप्त हो जाएँगी। ऐसा होने पर किसी भी देश को असीमित सैन्य बल की आवश्यकता नहीं रहेगी। मुँह बाए खड़ी आतंकवाद जैसी समस्याओं से निपटने की जरूरत नहीं पड़ेगी वे खुद-ब-खुद ही समाप्त हो जाएँगी।
      कोई किसी पर अत्याचार या अन्याय भी नहीं करेगा। सबको अपने समान समझने का मतलब है कि हम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा हम अपने लिए चाहते हैं। यह एक आदर्श स्थिति है जिसकी अनुपालना हम सब का धर्म है।
      आज चारों ओर सभी यही कहते सुनाई पड़ते हैं कि खून सफेद हो गए हैं, कोई किसी को फूटी आँख नहीं सुहाता, लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं आदि। ऐसे नकारात्मक विचारों से सभी के हृदय व्यथित होते हैं। जनमानस की यह पीड़ा दूर करने के लिए विश्व बंधुत्व की इस परिकल्पना को सार्थक रूप दिया जा सकता है।
       ऐसी भावना यदि विश्व में रहने वाले सभी मनुष्य अपना लें तो सभी मिलजुल कर रहेंगे। उस समय कोई किसी का शत्रु नहीं रहेगा। रहेगा तो मात्र भाईचारा। ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना कितनी सुखद है? यह नामुमकिन तो शायद न हो पर असंभव जैसी तो अवश्य है। खैर, अच्छा सोचने में तो हमारा कुछ नहीं बिगड़ता। चलिए ईश्वर से इस शुभ की प्रार्थना करें।

शनिवार, 29 नवंबर 2014

स्वच्छता

शोच या स्वच्छता अर्थात् तन और मन को स्वच्छ रखना । धर्म के दस लक्षणों में से यह एक है। हमारे ग्रन्थ कहते हैं कि शरीर की सफाई बहुत आवश्यक है। यदि उस ओर ध्यान न दिया जाए तो मनुष्य के पास से दुर्गन्ध आने लगती है व वह कई रोगों का घर बन जाता है। कोई भी उसके पास बैठना पसंद नहीं करता, यथासंभव उससे किनारा करना चाहते हैं।
      कहते हैं- स्वस्थ शरीर में ही ईश्वर का निवास होता है। मनुष्य का शरीर स्वस्थ होगा तभी वह अपने पारिवारिक, नैतिक व धार्मिक दायित्वों का निर्वहन कर सकेगा। ईश्वर की उपासना करने के लिए पहली शर्त शरीरिक स्वास्थ्य  है।
       शरीर के साथ मन की स्वच्छता भी उतनी ही आवश्यक है। मन स्वस्थ होगा तो तभी उसमें मानवोचित गुणों का समावेश होगा। जिस व्यक्ति का मन अच्छा होता है उसे किसी तीर्थयात्रा या नदी स्नान करने की जरूरत नहीं होती। संत रैदास ने कहा था- मन चंगा तो कठौती में गंगा अर्थात् मन अच्छा है तो पानी रखने वाले उनके कटोरे में साक्षात गंगा है।
        हमारे सद् ग्रन्थ हमें हमेशा सुमना या अच्छे मन वाला बनने की प्रेरणा देते हैं।
        तन और मन की स्वच्छता के साथ-साथ अपने परिवेश की सफाई भी आवश्यक है। अपने घर को सजा-संवार करना बहुत शुभ होता है। ऐसे घर में सकारात्मक ऊर्जा रहती है। वहाँ रहने वालों तथा घर में आने वाले मेहमानों का मन भी प्रसन्न होता है। अपने घर को साफ रखना बहुत अच्छी बात है। पर ऐसा नहीं करना चाहिए कि अपने घर की सफाई करके कूड़ा कूड़ेदान में न डाल कर बाहर सड़क पर फैंक दिया जाए। ऐसा करके हम अपने नगर को, अपने देश को दूषित करते हैं। चारों ओर गंदगी होने पर्यावरण प्रदूषित होता है, कीटाणुओं का जन्म होता है जिससे बिमारियाँ फैलती हैं।
        अपने घर की भाँति देश भी हमारा घर है। इसे सजाना और संवारना भी हमारा कर्त्तव्य है। देश स्वच्छ होगा तो चारों ओर खुशहाली का वातावरण बनेगा। देशवासी बीमारियों से बचेंगे। जो लोग विदेशों की चमक-दमक की चर्चा करते हैं उनके मुँह पर भी ताले लग जाएँगे। इसीलिए कुछ दिनों से देश में स्वच्छ भारत अभियान बहुत जोरों पर है।
       हमें स्वयं ही तय करना है कि अपने तन और मन की शुचिता के साथ-साथ घर व देश की स्वच्छता की ओर भी हमें ध्यान देना है तभी हमारी साधना सफल हो सकेगी।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

जेब या धन

मनुष्य का व्यवहार उसकी जेब में पड़े धन के अनुसार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैसे-जैसे उसकी धन-संपत्ति में वृद्धि होती है उसके व्यवहार के परिवर्तन को हम अनुभव कर सकते हैं।किसी विद्वान ने सत्य कहा है- 'मनुष्य एक समय में एक ही चीज भर सकता है- दिल या जेब।'
     एक उदाहरण से समझते हैं-
     धन के हैं तीन नाम परसु परसा परसराम।
इसका तात्पर्य यह है कि जब इंसान के पास धन-समृद्धि नहीं होती तब लोग उसका नाम भी ठीक से नहीं पुकारते। परसराम के स्थान पर उसे परसु कहकर पुकारते हैं। यह वह काल है जब मनुष्य परिस्थितियों के कारण दुनिया की अवहेलना का शिकार होता है। भुक्तभोगी होने के कारण वह दूसरे की मजबूरी को समझता है। उसके मन में दया, ममता, सहानुभूति आदि मानवोचित गुण निवास करते हैं।
          थोड़ी-सी धन-सम्पत्ति कमा लेने पर उसे लोग परसु के स्थान पर परसा बुलाने लगते हैं। इस अवस्था में पहुँच कर मनुष्य धीरे-धीरे अपने-आपको दूसरों से अलग समझने लगता है। वह सोचता है कि उसे किसी से मतलब रखना आवश्यकता नहीं और फिर दूसरों से कन्नी काटने लगता है। सबसे दूर होने लगता है।
      सौभाग्य से जब इंसान के पास प्रभूत धन-वैभव आ जाता है तो समाज में उसका एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन जाता है। लोग उसे सम्मान से परसराम कहकर पुकारते हैं। फिर उसका दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगता है और वह अहंकारी होने लगता है। अपने बराबर वह किसी को नहीं समझता और स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा मानने लगता है। वह अपने माली, ड्राइवर, नौकर तक का नाम लेने में हेठी समझता है। इंसान को इंसान नहीं समझता। संबंधों में केवल स्वार्थ को ही देखता है। वह सबसे दूरी बनाकर रखता है और किसी की परवाह नहीं करता।
     हम स्पष्टरूप से कह सकते हैं कि जब मनुष्य की जेब खाली थी तब सभी प्रकार की संवेदनाओं से युक्त होता है परंतु जेब भरने के बाद वह सबसे आँखें चुराने लगता है व मानवोचित गुणों से दूर होता जाता है। उसकी सोच पूर्ण रूपेण बदल जाती है।
       वास्तव में ज्यों-ज्यों मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उन्नति करे तो उसे फलदार व छतनार वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसकी छाया में असहायों व जरूरतमंदों को पनाह मिल सके।

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

प्राणों का महत्त्व

उपनिषद कथा है कि प्राचीन काल में  इन्द्रियों के मध्य अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने  के लिए झगड़ा हुआ। आँख, नासिका, कान (श्रवण शक्ति), जिह्वा(बोलने की शक्ति), मन और प्राण सभी अपने आप को श्रेष्ठ बता रहे थे।
        अंत में वे सभी प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और उन्हें अपने विवाद का कारण बताया। उन्होंने उन सबको कहा कि जिसके शरीर से चले जाने के बाद सब समाप्त हो जाए वही श्रेष्ठ है। सबने इस सुझाव पर अमल किया।
       सबसे पहले आँखें शरीर से एक वर्ष के लिए बाहर गयीं। लौटकर उन सबसे पूछा कि तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे। उन्होंने ने उत्तर दिया- जैसे एक अंधा व्यक्ति कानों से सुनता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआ और मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।
       फिर नासिका (सूँघने की शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे? उन्होंने ने उत्तर दिया- जैसे न सूँघते हुए व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, वाणी से बोलता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम भी जीवित रहे।
        फिर कान (श्रवण शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?  उन सब ने उत्तर दिया- जैसे एक बहरा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम जीवित रहे।
             फिर वाक्(बोलने की शक्ति) बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- तुम  तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे। उन्होंने ने उत्तर दिया- जैसे एक गूंगा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।
          फिर उसी तरह मन ने एक साल बाद लौटकर पूछा- तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे? उन्होंने ने उत्तर दिया- जैसे बिना मन के बच्चा आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआह, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।
       अंत में प्राण शरीर से बाहर निकलने लगे तो ऐसा लगा कि सब कुछ समाप्त हो रहा है। उस समय सभी इन्द्रियाँ एक साथ चिल्लाने लगीं कि मत जाओ, मत जाओ। तुम्हारे बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम चले जाओगे तो सब समाप्त हो जाएगा। तुम्हीं हम सब में श्रेष्ठ हो।
        यह कथा हमें प्राणों का महत्त्व समझा रही है कि उनके बिना इस शरीर का कोई मूल्य नहीं। नश्वर शरीर में रहने वाली अनश्वर आत्मा को हम भूल जाते हैं। शरीर के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और इसी को सजाते-संवारते रहते हैं। इस बात को भी नजरअंदाज कर देते हैं कि रूप-यौवन जल्दी ही ढल जाएगा। यह आत्मा युगों-युगों तक रूप बदलती रहती है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।

बुधवार, 26 नवंबर 2014

जन्मभूमि

जिस धरती पर हमने जन्म लिया, जिसकी मिट्टी में धूलधूसरित होते हुए बड़े हुए, जिसके अन्न-जल से पुष्ट हुए वह हमारी माता है। इसीलिए हम इसे जन्मभूमि कहते हैं।
       जन्मभूमि हमारी अपनी जन्मदातृ माता की तरह सभी कष्ट सहन करके हमें जीवन की सारी खुशियाँ देती है। हमें स्वर्ग के समान सभी प्रकार के सुख-साधन देती है। हम इस धरा पर अत्याचार करते हैं अर्थात् अपने पैरों से इसे रौंदते हैं, जीभर कर कूड़ा-कचरा फैंकते हैं, अपना बोझ उस पर डालते हैं, बड़े-बड़े भवन बना कर हरियाली नष्ट करते हैं, पर्यावरण व प्रदूषण की समस्याएँ पैदा करते हैं। फिर भी यह हमसे नाराज नहीं होती बल्कि हमारा बोझ सहती है।
        ऐसी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने से मन में पीड़ा होनी चाहिए। अपनी धरती, अपना देश हमें प्रिय होना चाहिए। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम लक्ष्मण से यही आशय व्यक्त कर रहे हैं-
न मे सुवर्णमयी लंकापि रोचते लक्ष्मण।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
     अर्थात् भगवान राम कहते हैं- हे लक्ष्मण मुझे सोने की लंका भी रुचिकर नहीं हैं। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
      अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से हर व्यक्ति को प्यार होना चाहिए। जिस मनुष्य को इनसे प्यार नहीं वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं। उनकी अवहेलना करने वाला हमेशा निन्दनीय होता है। जिस इंसान को अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से प्यार नहीं वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं।

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

जीवन का आनन्द

जीवन का आनंद वही ले पाते हैं जो कठोर श्रम करते हैं आलस करने वाले या सुविधाभोगी नहीं। जिन्हें पकी-पकाई खीर मिल जाए वे खीर बनाने का रहस्य नहीं जान सकते। उसके लिए कितना श्रम करना पड़ता है, कितनी प्रकार की सामग्रियाँ जुटाई जाती हैं? उसको बनाने वाले की भावना या उसके प्यार के मूल्य को वे उतना नहीं जान सकते।
       ठंडी हवा का सुख उसी व्यक्ति को समझ में आ सकता है जो बाहर की गरमी में तपकर आया है, अपना पसीना बहाकर आया है या परिश्रम करके थका हुआ है। जो मनुष्य दिन भर कूलर या एसी में बैठा हुआ गरमी में खूब ठंडक का आनन्द ले रहा है वह हवा की शीतलता के वास्तविक सुख  का अहसास नहीं कर सकता।
       फूलों की खूशबू उसी व्यक्ति को मोहित करती है जो फूलों का आनंद लेना जानता है। सारा दिन इत्र, डियो आदि में नहाया रहने वाला प्राकृतिक सुगंध से दूर होता जाता है। उसे फूलों से सुगंध के स्थान पर दुर्गन्ध का आभास होता है।
        दिनभर शीतल पेय पीने वाले, फ्रिज और वाटर कूलर ठंडे जल पीने वाले वास्तव में जल की शीतलता के वास्तविक सुख से वंचित रहते हैं। गरमी में तपकर आए हुए व्यक्ति को मटके या नल का जल मिल जाए तो वह भी उसके लिए अमृत तुल्य होता है।
       माता-पिता के मेहनत से कमाए धन पर ऐश करने वाले पैसे की कीमत नहीं जानते। पर यदि दुर्भाग्य से उन्हें जब कभी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर पापड़ बेलते हुए बहुत कठिनाई से धन कमाना पड़ता है तब उन्हें उसकी कीमत पता चलती है।
       कहने का तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य सुविधाभोगी हो जाता है तो वह वास्तविकता से बहुत दूर चला जाता हैं। जमीनी हकीकत से मुँह मोड़ लेता है।
       ईश्वर न करे यदि अस्वस्थ होने पर या दुर्भाग्यवश कभी किसी भी कारण से सुविधाओं से वंचित होना पड़े अथवा कभी जीवन की सच्चाइयों से दो-चार होना पड़े या उनका सामना करना पड़े तो हालात बड़े कठिन हो जाते हैं।
      इन्हीं स्थितियों से जीव जगत को बचाने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में द्वन्द्व सहन करने का सदुपदेश दिया था। हमें सभी सुविधाओं को भोगते हुए विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए सन्नद्घ रहना चाहिए और प्रतिदिन ईश्वर द्वारा दी गई नेमतों के लिए उसका धन्यवाद करना चाहिए।

सोमवार, 24 नवंबर 2014

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्

उपनिषद् का उपदेश है कि हमारा शरीर एक रथ है। हमारा शरीर एक वाहन ही तो है जो चलता रहता है और हमें भी चलाता है। इसमें यदि कोई रुकावट आ जाए यानि इसमें रोग आ जाए, एक्सीडेंट हो जाए या किसी कारण से चोट आ जाए तो सब अस्त-व्यस्त हो जाता है। मृत्यु आने पर जब यह निष्क्रिय हो जाता है। जैसे गाड़ी के नष्ट हो जाने पर उसे भंगार में फैंक देते हैं उसी प्रकार इस शरीर को मृत्यु के पश्चात श्मशान में जाकर जला देते हैं।
        इससे यही समझ आता है- 'जान है तो जहान है।' यदि शरीर स्वस्थ है तो हम दुनिया के किसी भी काम को करने में समर्थ होते हैं परंतु इसके अस्वस्थ होते ही चक्का जाम जैसी स्थिति हो जाती है। हम स्वयं को असहाय समझने लगते हैं। ऐसा लगता है मानो हमारे साथ-साथ पूरी दुनिया भी स्थिर हो गयी है।
     महाकवि कालिदास ने सत्य कहा है- 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् हमारा शरीर धर्म(कर्म) का साधन है। शरीर स्वस्थ है तो हम अपने सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण कर सकते हैं। शरीर के अस्वस्थ होने पर हमें किसी से बात करना या किसी भी प्रकार के शोर को सुनना नहीं चाहते बल्कि चिड़चिड़े हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
       इस प्रकार कष्ट की स्थिति में हम किसी भी काम को करने में असमर्थ हो जाते हैं। हम भगवद् भजन भी नहीं कर सकते। वह भी तभी कर सकेंगे जब हम स्वयं स्वस्थ होंगे। शरीरिक कष्टों के आने पर और उस परेशानी के चलते हम प्रभु को स्मरण भी न करके उसे अपने कष्टों के लिए उलाहने देते हैं।
        शरीर का स्वस्थ रहना बहुत हमारे लिए बहुत आवश्यक है। इसके लिए हमें स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना चाहिए। उचित आहार-विहार पर ध्यान देना आवश्यक है। इसे सजा-संवार कर रखना चाहिए। मात्र शरीर को सब कुछ समझ कर चौबीसों घंटे इसी शरीर की सेवा में लगे रहकर शेष सभी दायित्वों से मुँह नहीं मोड़ना अनुचित है।
      हमारा यह शरीर साधन है साध्य नहीं। नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानकर दीन-दुनिया भूल जाना उचित नहीं। किसी विद्वान ने इस विषय में कहा है-
  'क्या तन माँजता रे आखिर माटी में मिल जाना'
       समय बीतते यह शरीर विकारों से युक्त हो जाता है। इसका सौंदर्य भी कुछ निश्चित समय के लिए ही होता है। जहाँ तक हो सके शरीर से आगे सोच कर इस संसार में आने के उद्देश्य(मोक्ष) को प्राप्त करने की ओर कदम बढ़ाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाने के लक्ष्य में सफलता प्राप्त करें।

रविवार, 23 नवंबर 2014

बड़ा होने का अर्थ

बड़े होने का अर्थ केवल आयु में या लम्बाई (कद) में बढ़ना नहीं अपितु अपने अंतस् में गुणों का संग्रह करना है। ज्यों-ज्यों मनुष्य की आयु बढ़ती है उसके अनुभवों के खजाने में वृद्धि होती जाती है।महापुरुषों का कथन है कि समाज के मार्गदर्शन के लिए अपने विचारों को सबके साथ साझा करना।
     यदि मनुष्य आयु में वृद्ध हो पर उसमें समझदारी न हो तो वह सम्मान के योग्य नहीं होता। उसके अल्प ज्ञान के कारण लोग उसकी अवहेलना करते हैं क्योंकि वह व्यक्ति किसी का दिशानिर्देश नहीं कर सकता। वह स्वयं अपने पर और दूसरों पर बोझ की तरह होता है।
       ऐसे ही लोगों के लिए कवि ने कहा है-
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
     इस दोहे का अर्थ है कि खजूर के पेड़ की तरह बड़े अर्थात् लंबे होने का कोई लाभ नहीं। ऐसा पेड़ पथिक को छाया नहीं दे सकता और उसका फल भी इतनी दूर यानी ऊँचाई पर लगता है जिसे हाथ बढ़ाकर कोई तोड़ नहीं सकता। इस वृक्ष के फल खाकर कोई अपनी भूख शांत नहीं कर सकता।
       पेड़ की उपयोगिता तभी तक है जब तक वह विश्राम करते यात्री को छाया दे। और भूख से परेशान व्यक्ति को फल खिलाकर उसका पेट भरे। खजूर का पेड़ बहुत ज्यादा लंबा होने के कारण ये दोनों ही परोपकार के कार्य नहीं कर सकता। इसलिए इस पेड़ उचित गौरव नहीं मिलता।
      इसी प्रकार आयु बढ़ने पर उस व्यक्ति को सम्मान नहीं मिलता जो विद्वत्ता व व्यवहारिक ज्ञान से परे है। जिसके पास बैठकर किसी को सद् परामर्श या ज्ञान न मिले तो वह इस धरा पर बोझ की तरह ही है।
     जहाँ तक हो संभव हो हर प्रकार की समृद्धि व योग्यता बटोरते हुए छायादार व फलदार वृक्ष की तरह स्वयं को बनाएं खजूर के पेड़ की तरह नहीं ताकि समाज में आप एक सम्मानित स्थान बना सकें।

शनिवार, 22 नवंबर 2014

सरस्वती का खजाना

हमारे पास जो भी धन-समृद्धि है उसमें हम जितना जोड़ते जाते हैं वह उतनी ही बढ़ती जाती है। समय बीतते उनमें कई गुणा की बढ़ोत्तरी हो जाती है। हम अपना धन विभिन्न-विभिन्न योजनाओं में लगाते हैं, जमीन-जयदाद या हीरे-जवाहरात खरीदते हैं तो समय बीतते वह अधिक-अधिक हो जाता है। हम उसे दिन-प्रतिदिन और-और बढ़ाने की जुगत में लगे रहते हैं।
     इसके विपरीत उसे जितना खर्च करते हैं उतना ही वह कम होता जाता है।यदि कोई मनुष्य व्यसनों में फंस जाए तो उसका कुबेर जैसा समृद्ध खजाना भी खाली हो जाता है।
      ईश्वर की महिमा कहिए विद्या की देवी सरस्वती का खजाना बड़ा ही विचित्र है जो खर्च करने पर बढ़ता है और जोड़ने पर नष्ट होता है।किसी विद्वान ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में इसी बात को कहा है-
          अपूर्वो  हि  कोशोsयं  विद्यते  तव  भारति।
          व्ययतो वृद्धमायाति क्षयमायाति संचयात्॥
       कहने का तात्पर्य है कि देवी सरस्वती का यह खजाना बाकी खजानों से बिल्कुल अलग है। इसको यदि हम बाँटेगे तो यह कई गुणा बढ़ जाएगा। पर यदि हम यह सोचें कि हमने बड़ा श्रम करके इसे अर्जित किया है तो दूसरों के साथ क्यों बाँटे तो यह हमारी मृत्यु के बाद हमारे साथ ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए कई मूल्यवान विद्यायें विद्वानों की स्वार्थपरता के कारण नष्ट हो गयी हैं।
       वैसे हम सभी ने अपने अध्ययन काल में अनुभव किया होगा कि जिन प्रश्नों को हम साथियों को समझाते थे वे हमें शीघ्र स्मरण हो जाते थे। ऐसे ही विद्या बढ़ती है। अपने अनुभवों को या अपने ज्ञान को हम जितना अधिक बाँटेंगे उतना ही हमारे ज्ञान में वृद्धि होगी।
       अपनी धन-संपत्ति को किसी के साथ बाँटे या न बाँटे पर अपने ज्ञान व अनुभवों को प्रसारित करने में कंजूसी न करें।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

शठे शाठ्यं समाचरेत्

विद्वान कहते हैं दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्।' या दूसरे शब्दों में कहा जाए कि- 'ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए।' इसका कारण है दुष्ट साँप की तरह होता है उसके साथ कितना भी अच्छा करो वह मौका आने पर डंक जरूर मारता है।
     यदि दुष्ट के साथ नरमी का बर्ताव करेंगे तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाएगा। तभी कहते हैं- 'आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति:।' अर्थात् दुष्ट के साथ सरलता नहीं बरतनी चाहिए। ऐसी नीति अपनानी चाहिए जिससे उसे यह न लगे कि हम कमजोर हैं या उसका प्रतिकार नहीं कर सकते।
      वैसे हम चाहते हैं कि उन लोगों को सुधारने का एक मौका दिया जाना चाहिए। पर वास्तव में एक अवसर मिलने पर उनमें सुधार हो सकता है क्या? यदि हाँ तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी अन्यथा समय की बरबादी।
      दुष्ट को यदि हम क्षमा करेंगे तो वह हमारा मजाक उड़ायेगा और कहेगा कि हम में हिम्मत ही नहीं है उसका सामना करने की। हमारी क्षमाशीलता को वह हमारी कमजोरी समझकर और अधिक अत्याचार करेगा।इसिलए उसका प्रतिकार आवश्यक है।
     अपवाद हर विषय में मिल जाते हैं। वाल्मीकि व अंगुलीमाल डाकू दोनों ही महात्माओं की संगति में महान बने तथा उन्होंने समाज को दिशा देने का कार्य किया। पर ऐसे कुछ लोग अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
      यहाँ मैंने तीन उक्तियों को आपके समक्ष रखा है। अब आप विचार करें कि हम ऐसे लोगों से कैसा व्यवहार करें?

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

अति सर्वत्र वर्जयेत्

अति कभी भी अच्छी नहीं होती फिर वह किसी भी कारण से हो। कहते हैं-
अति भली न बरसना अति भली न धूप।
अति भली न बोलना अति भली न चुप॥
      यह दोहा हमें समझा रहा है कि यदि वर्षा अधिक होगी तो चारों ओर जलथल हो जाएगा। बाढ़ के प्रकोप जान-माल की हानि होगी। बीमारियाँ परेशान करेंगी। अनाज बरबाद होगा और मंहगाई बढ़ेगी। इसी तरह सूर्य के प्रकोप से चारों ओर गर्मी की अधिकता होगी। सूखा पड़ेगा और हम दाने-दाने के लिए तरसेंगे।
        दूसरी पंक्ति में कवि चेतावनी दे रहा है उन लोगों को जो बहुत बोलते हैं। अनावश्यक प्रलाप करते समय वे प्रायः मर्यादा की सीमा लांघ जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे न कहने वाली बात कह देते हैं जो झगड़े-फसाद का कारण बनती है। ऐसा व्यक्ति हवा में रहता है और झूठ-सच भी करता है। शुरू-शुरू में तो हो सकता है उसकी वाचालता अच्छी लगे परंतु कुछ समय बीतने पर वह भार लगने लगता है।
       इसके विपरीत बिल्कुल चुप रहने वाले को भी लोग पसंद नहीं करते। उसे घमंडी, अव्यवहारिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। यह सत्य है- 'एक चुप सौ सुख' या 'एक चुप सौ को हराए'। चुप रहना बहुत बड़ा गुण है। यह हमारे धैर्य व सहनशीलता का प्रतीक है पर अति चुप हमारा अवगुण बन जाता है।
        इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, धन लिप्सा, पद लालसा, आदर्शवादिता, सच्चाई, ईमानदारी, आग्रह-विग्रह आदि में से किसी भी गुण-अवणुण की अति बहुत दुखदायी होती है।
         हर गुण की जीवन में आवश्यकता है पर जब अति होकर वह हमारे लिए झंझाल बन जाए तो उसका त्याग करना चाहिए। क्योंकि- 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' अर्थात् अति को हर जगह छोड़ देना चाहिए या यूँ कहें यथासंभव अति से बचना चाहिए।