शनिवार, 31 जनवरी 2015

संत समाज का आईना

संत समाज का आईना व मार्गदर्शक होते हैं। साधु-संतों की जाति नहीं पूछी जाती बल्कि उनका ज्ञान परखा जाता है। इसीलिए कहा है-
'जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।'
       जिसे हम वास्तव में संत कहते हैं वह संसार के बंधनों से मुक्त होता है। ऐसा वह झूठ-फरेब, ईष्या-द्वेष, मोह-माया आदि सांसारिक बंधनों में नहीं बंधता। वह सभी को अपने समान समझता है। वह किसी आडंबर या नाम की इच्छा नहीं रखता।ऐसे संत ही समाज का आभूषण कहलाते हैं। वे अनाम रहकर आत्मोन्नति के लिए समाज से कटकर जंगलों, पर्वतों या गुफाओं साधना करते हुए कैवल्य प्राप्त करते हैं। और यदि समाज में रहते भी हैं तो भौतिक ऐश्वर्यों का त्याग कर समाज की भलाई के कार्य करते हुए संसार से विदा लेते हैं।
       कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में मनस्वी जनों को परिभाषित किया है। वे कहते हैं कि वास्तव में मनस्वी संत फूलों की तरह होते हैं जो या तो शहर में रहते हैं तो सबके सिरों पर विराजमान होते हैं या फिर जंगलों में ही तपस्या करते हुए बिना किसी से प्रशंसा की अपेक्षा किए, किसी की नजर में आए बिना नष्ट हो जाते हैं-
कुसुमस्तबकस्यैव द्वे वृत्ती तु मनस्वीनाम्।
सर्वेषां मूर्ध्नि वा विराजयेत् वने वा विशीर्यात्।
         संत समाज में अपने सत्चरित्र और  गुणों से सर्वत्र अपनी सुगंध फैलाते हैं। सदा संतों को हम उनके सद् गुणों, संयम, आचार-व्यवहार, उनकी कथनी-करनी के एकरूप होना आदि गुणों से पहचान सकते हैं।
       संत को पहचान कर, जाँच-परख कर उस पर विश्वास करना उचित होता है। दूसरे लोगों की चिकनी-चुपडी बातों में न उलझकर अपने विवेक पर भरोसा कीजिए। आपकी तर्क की कसौटी पर जो खरा उतरे उसे संत मान अनुसरण करें अन्यथा सब छोड दें।
       जो संत समाज को सही दिशा नहीं दे सकता अथवा दिग्दशर्क नहीं बनता तो ऐसा वह त्याज्य है व सम्मान प्राप्त करने के योग्य नहीं हो सकता। संत की कोई उपाधि नहीं होती। न ही उसके लिए कोई मापदंड होता है। उसके लिए किसी विद्वत परिषद के गठन की भी आवश्यकता नहीं होती।
      संत यदि केवल पुस्तकीय ज्ञान या कुछ सिद्धियों के बल पर जन सामान्य को प्रभावित करता है परन्तु यदि उसका आचरण अनुकरणीय नहीं है तो वह सर्वथा त्याज्य है।
      पुस्तकीय ज्ञान तो गधे पर लादे बोझ की तरह होता है। यदि उसे पढ़कर उस पर मन, वचन व कर्म से आचरण न किया जाए तो वह भार बन जाता है। तभी कहा है-
        ज्ञानं भार: क्रियां विना।
अर्थात् यदि जीवन क्रियात्मक न हो तो ज्ञान भार बन जाता है।
साधु-संतो की कसौटी उनके सद् गुण और सदाचरण होती है। अपने विवेक रूपी निकष पर कसकर ही संतों को अपने सिर का ताज बनाएँ और अपने जीवन को धन्य करने का यत्न करें।

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

बच्चों में झूठ की आदत

घर में माता-पिता तथा विद्यालय में अध्यापकगण बच्चों में झूठ बोलने की समस्या से परेशान हैं। सोचने वाली बात है कि ये नन्हे-मुन्ने इस आदत के अभ्यस्त कैसे हो जाते हैं? उन बेचारे नौनिहालों को तो यह भी नहीं पता होगा कि वे दिन-प्रतिदिन कितनी भयावह बिमारी का शिकार हो रहे हैं? हमें अब यह सोचना हमारा कर्त्तव्य है कि बच्चों में पाई जाने वाली इस असत्यवादिता पर लगाम कैसे लगाई जाए जिसके कारण वे मासूम हर स्थान पर डाँट-फटकार का सामना करने से बच जाएँ।
      यदि गहराई से सोचें तो इस समस्या की जड़ तक पहुँचने में हमें बिलकुल भी कठिनाई नहीं होगी क्योंकि इसका कारण हम सभी हैं। अब आप सब हैरान हो रहे हैं न मेरी सोच पर। वास्तव में हमें अपने गिरेबान में झाँकने की आवश्यकता है। छोटा बच्चा अपने आसपास के माहौल को बड़ी बारीकी से देखता है। उससे बहुत कुछ सीखता है।
       सबसे पहले अपने घर की बात करते हैं। बच्चे की सबसे पहली पाठशाला उसका घर होता है। अपने घर में जैसा देखता है उसे ही ब्रह्म वाक्य मान लेता है। घर में उस झूठ का व्यवहार दिखाई देता है। इस वाक्य पर चौंकिए नहीं। प्राय: घर में हर छोटी-बड़ी बात को हम एक-दूसरे से छिपाने की कोशिश करते हैं। इस प्रयास में बारंबार झूठ बोलते हैं। किसी मित्र, पड़ौसी या संबंधी से हम नहीं मिलना चाहते तो कहला देते हैं घर नहीं हैं। घर में इस प्रकार झूठ का व्यवहार देखकर बच्चा उस व्यवहार को सत्य मानकर उसी राह पर चल पड़ता है। जाने-अनजाने हमें अपना असत्य व्यवहार अच्छा लगता है परंतु मासूम बच्चे जब वैसा असत्य व्यवहार करता है तो हम उस पर आगबबूला हो जाते हैं। उसे भला-बुरा कहते हैं, डाँटते-डपटते हैं और जीभर करके उसको कोसते हैं। वह मासूम बेचारा समझ ही पाता अपनी उस गलती को।
       इसी भाँति अपने आसपास हो रहे ऐसे कार्यकलाप उसके विचारों को और अधिक हवा देते हैं। धीरे-धीरे बच्चा झूठे आचरण का इतना आदि हो जाता है कि वह अपनी सुविधा के लिए विद्यालय में अपनों की बिमारी या मौत की झूठी खबर सुनाने में भी परहेज नहीं करता। नित नए बहाने बनाने में वह अपनी शान समझता है।
       विद्यालय में गृहकार्य करके न जाने, परीक्षा में कम अंक आने पर जब उसे माता-पिता के बुलाने पर टालमटोल करने के बहाने बनाता है। माता-पिता के जाली हस्ताक्षर करके वह विद्यालय में डाँट खाने से बचने की कामयाब-नाकामयाब कोशिश करता है। घर में अपनी असफलताओं की चर्चा न करके उन्हें छिपाता है।
          जब तक घर में उसकी असलियत पता चलती है तब तक बहुत देर हो चुकती है। तब बच्चे का सुधार नामुमकिन तो नहीं कठिन अवश्य हो जाता है। इस बात को अवश्य याद रखिए कि इस संसार में बच्चा जब जन्म लेता है तब वह मासूम होता है। इस दुनिया के छल प्रपंचो से अनजान होता है। उसे छल-कपट के संस्कार हमीं देते हैं।
        उन भोलेभाले बच्चों पर हम अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का अनावश्यक दबाव न डालें जिसके कारण भी हमसे छुपाने के चक्कर में भी वह असत्यवादिता को अपना सखा बना लें और दिन-प्रतिदिन हमसे दूर होते जाएँ।

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

मैं हठी हूँ और मेरा बाल मन भी है हठी

मैं हठी हूँ और मेरा बालमन भी है हठी
देखते हैं किस की हठ पुग जाएगी अब।

कहता है वो मुझसे चाँद ही ला दो मुझे
पानी में परछाई से ही बहला दूँगी तुझे।

छूना चाहता बादलों से परे आकाश को
मैं थमाती हूँ इक फीता उसी नादान को।

उड़ना चाहता है पंख फैलाए पक्षी-सा वो
पल में ही नाप आया सारी धरती है वो।

बहुत खुश नाचना चाहे वन मयूर-सा वो
सोचती हूँ गुनगुना दे कोई मधुर धुन वो।

कह दो चाहतें हैं असीम नहीं मानता वो
उन पर नहीं होता वश उसका जानता वो।

किसकी मर्जी है ये सब समझ पाएगा वो
फिर-फिर कर अब एक चाबुक माँगता वो।

इधर-उधर न भटके उसको थाम लेगा वो
अपनी मंजिलों को सदा ही पहचानता वो।

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

युवाओं का अकेलापन

युवावर्ग में आज अकेलेपन की समस्या घर करती जा रही है। इस भौतिक युग में जीवन में आपाधापी इतनी अधिक  बढ़ गई है कि आज युवा अपना मार्ग सुनिश्चित ही नहीं कर पा रहा।
         युवा आज बहुत महत्त्वाकांक्षी है। वह अपना कैरियर बनाना चाहता है वही उसकी प्राथमिकता है जो उचित भी है। इस भौतिक युग में समय के साथ ताल मिलाकर चलना वह बखूबी जानता है। वह उच्च शिक्षा प्राप्त करके दूर आकाश की ऊँचाइयों को छूना चाहता है। देश-विदेश जहाँ भी उसे मौका मिलता है अपने लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ जाता है। इसलिए इस ओर वह इतना अधिक व्यस्त है कि जीवन के अन्य सभी पहलुओं की ओर नहीं देखना चाहता तथा उनके साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा।
      जितना ही वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है उतना ही अकेला होता जा रहा है। दिन भर सिर्फ काम और काम। कभी मीटिंग और कभी टूर। सवेरे घर पर समय से निकलने के बाद घर वापिस लौटने का कोई समय नहीं। बस इसके अतिरिक्त और कोई गतिविधि नहीं और न ही कोई सामाजिक जीवन। शादी-ब्याह, पार्टी, तीज-त्योहार कुछ भी निभाना समय के अभाव के कारण बहुत कठिन हो जाता है। यह भी उनके अकेलापन का बड़ा कारण बन जाता है।
       अपने व्यावसायिक कार्योँ में व्यस्त रहने वाला युवावर्ग स्वयं अपने लिए न समय निकाल पाता है और न ही अपने बारे में सोच पाता है। अपने कैरियर के लिए सजग युवा तरक्की और तरक्की की आशा में अपनी उम्र की बढ़ती आहट को नहीं सुन नहीं पाता।
       अपने जीवन साथी के विषय में सोचने का समय उसके पास नहीं है और यदि विवाह के बंधन में बंध जाता है तो जीवन की भागदौड़ में जीवनसाथी व बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पाता। तब व्यर्थ की तकरार में उनका समय व्यतीत होता है जिसके बढ़ जाने पर तालाक तक के हालत पैदा हो जाते हैं।
        तालाक के बाद कुछ युवा पुनर्विवाह कर लेते हैं और कुछ अपने कटु अनुभवों के बाद अकेले रहना पसंद करते हैं।
        बहुत सी स्थितियों में युवा को अपना भविष्य संवारने के लिए घर-परिवार से दूर दूसरे शहर या विदेश में इच्छा से या अनिच्छा से नौकरी करने के लिए अकेले ही जाना पड़ता है। यह वह स्थिति है जब अकेलापन उसका साथी बन जाता है।
        कुछ युवा सही समय पर अपने अहम के कारण दूसरों में कमी निकालते रहते हैं जिससे आयु बीत जाने पर अकेले हो जाता है। कभी-कभी परिस्थितिवश पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी अंतत: वह अकेला रह जाता है।
        कुछ युवा आजकल स्वेच्छा से अकेलेपन का वरण करते हैं उनके ऐसा करने के पीछे कोई साख कारण नहीं होता।
       युवा पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु के बाद दूसरा साथी बच्चों के लिए या अन्य किसी कारण से पुनः विवाह न करके अकेला रहने का निर्णय कर लेते हैं।
        युवा स्वेच्छा से एकाकी रहना चाहता है,  अपना भविष्य बनाना चाहता है, उसके पास यह सब सोचने का समय नहीं है यह सब ठीक है। परन्तु युवावस्था के पश्चात जब वृद्धावस्था की ओर वह बढ़ता है तब उसके पास अपना कहने के लिए कोई नहीं होता। तब तक माता-पिता इस लोक से विदा ले चुके होते हैं और भाई-बहन अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो जाते हैं। इस प्रकार वह दिन-दिन अकेला होता जाता है। तब उस समय अपने जीवन की ओर मुड़ कर देखना ही शेष बचता है।

सोमवार, 26 जनवरी 2015

वृद्धों का अकेलापन

अकेलापन मनुष्य के लिए अभिशाप होता है। सामाजिक प्राणी यह मनुष्य अकेला रहे इसकी कल्पना करना भी बहुत कठिन है। फिर भी सत्य है कि अनेकों लोग अकेले ही जीवन जीने के लिए विवश हैं। इसके कारणों की समीक्षा करनी पड़ेगी।
        अपने जीवन साथी की मृत्यु होने के कारण दूसरे साथी का अकेला हो जाना स्वाभाविक है। इस स्थिति में यदि घर-परिवार का या बच्चों का साथ मिल जाए तो वह सौभाग्यशाली होता है। जब कभी अपनों के बीच रहते हुए यदि अबोलापन हो या एक-दूसरे को स्वीकार अथवा समर्पण करने की भावना न हो तब भी मनुष्य अकेला हो जाता है।
       जिस घर में केवल बेटियाँ होती हैं वे विवाहोपरान्त अपने-अपने घर की जिम्मेदारियों व्यस्त हो जाती हैं तब अपने अकेले रह रहे माता या पिता को समय नहीं दे पातीं। ऐसे में उनको अकेले हो जाना पड़ता है।
        आज के इस भौतिक युग में रोजी-रोटी के चक्कर में बच्चे घर से दूर अपने शहर को छोड़कर दूसरे प्रदेश में नौकरी की मजबूरी में चले जाते हैं। विश्व की दूरी भी कम होने के कारण बच्चे अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में चले जाते हैं। माता या पिता के पास अकेले रहने के अलावा चारा नहीं बचता क्योंकि बच्चे वापिस आ नहीं सकते और किन्हीं अपरिहार्य कारणों से माता या पिता वहाँ जा नहीं सकते तब भी अकेलापन नासूर बन जाता है।
        ऐसे भी भाग्यहीन परिवार भी हैं जहाँ पूर्वजन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप वे जीवन में संतान का मुख नहीं देख पाते। संतान के अभाव में घर सूना-सा लगता है। अपने अहम के कारण या परिस्थितिवश किसी बच्चे को गोद भी नहीं लेते वे भी जीवन में अकेले रह जाते हैं। जब दोनों साथियों में से एक काल कवलित हो जाता है तो दूसरा साथी निपट अकेला रह जाता है।
         जीवन में यदि दुर्भाग्य की अधिकता हो तो इकलौते या एक से अधिक बच्चों की दुर्घटना में असमय मृत्यु हो जाती है तब माता या पिता में से जो पीछे बच जाता है अकेला रह जाता है।
        विधवा या विधुर का अकेलापन तो मजबूरी होती है परन्तु कुछ लोग अपनी इच्छा से भी अकेलेपन का चुनाव करते हैं। विवाह की आयु में अहंकारवश दूसरों में कमियाँ ढूँढ़ते रहते हैं। आयु बीत जाने पर निपट अकेले रह जाते हैं। उनके भाई-बहन जीवन में सेटल हो जाते हैं और अकेलापन उनका मित्र बन जाता है।
      घर-परिवार की जिम्मेदारियों को निपटाने में कुछ लोग व्यस्त रहते हैं। इसलिए अपने विवाह के प्रति उदासीन रहते हैं। जब दायित्वों से मुक्त होते हैं तब तक उनके विवाह की आयु बीत जाती है। अपने-अपने पारिवारों में सभी इतना व्यस्त हो जाते हैं कि अपने लिए बलिदान करने वाले के बारे में नहीं सोचते। इस प्रकार त्याग करने वाला सबके होते हुए अकेले रह जाता है।
      धन लोलुपता इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्य स्वार्थ में अन्धा हो चुका है। कभी-कभी कुपुत्र माता-पिता की धन सम्पत्ति उनकी इच्छा से या धोखे से हथिया कर उन्हें घर से बेघर कर दरबदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देते हैं।
       कुछ लोग बिल्कुल अकेले हैं या भरापूरा परिवार होते हुए भी वे अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं अथवा सामाजिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर निपट अकेले हैं। वृद्धावस्था की मजबूरी के कारण घर से बाहर जाना कठिन हो जाता है तब न किसी से बातचीत और न ही कहीं आना-जाना।
         आप सभी सुधीजनों से मेरा अनुरोध है कि जहाँ तक हो सके अपने बच्चों को संस्कारी बनाने के साथ-साथ अन्यों को भी माता-पिता की सेवा करने की प्रेरणा दें। हम सभी यदि अपने इस सामाजिक दायित्व का निर्वहण करते हुए इस समस्या से बचा जा सके।

शनिवार, 24 जनवरी 2015

शरीर में रहने वाला आलस्य शत्रु

आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। संस्कृत में एक सूक्ति है-
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः।
उस महाशत्रु को अपने जीवन में स्थान न दें। आलसी व्यक्ति सदा ही अपने जीवन में असफलता का मुख देखता है। वह नाकारा व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं होता। उसे समाज में सम्मान नहीं मिलता। घर-बाहर सर्वत्र उस महारथी को दरकिनार कर दिया जाता है। उसे यही कहा जाता है कि इसके होने न होने से कोई लाभ नहीं। या फिर कहते हैं जाकर आराम करो तुम्हारे बस का कुछ नहीं है। इस प्रकार वह भीड़ में भी अकेला रह जाता है।
       जरा से शारीरिक सुख के लिए इतनी हाय-तौबा? इंसान यह नहीं सोचता कि आलस्य करने से कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आलसी व्यक्ति भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहता है। इसमें उसे कोई हिचक नहीं होती। इसीलिए यह उक्ति कही गई है- 'दैव दैव आलसी पुकारा।'
       आलसी का मानना होता है कि जिसने पैदा किया है वही सबका पेट भरता है। यह ठीक है कि वह ईश्वर सबका पालन-पोषण करता है व कोई कमी नहीं रखता। पर शायद ये लोग भूल जाते हैं कि मुँह के सामने पड़ी थाली को मात्र देखने से पेट नहीं भरता। उसके लिए भी मेहनत करनी पड़ती है और हाथ बढ़ा कर कौर तोड़ कर मुँह में डालना पड़ता है तभी पेट भरता है। ऐसे लोगों के लिए मलूकदास जी का निम्न दोहा रामबाण होता है-
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
यह सोचना कि अजगर को बिना मेहनत किए भोजन मिल जाता है और पक्षी को बिना श्रम दाना मिलता है उचित नहीं। भोजन की तलाश में उन्हें भी स्थान-स्थान पर भटकना पड़ता है और अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ईश्वर निस्संदेह सबका ध्यान रखता है पर साथ ही मेहनत करने के लिए भी कहते हैं।
         परिश्रम करने के लिए प्रेरित करती यह उक्ति देखिए-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
अर्थात् केवल शेखचिल्ली की तरह सोचते रहने से इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, परिश्रम करने से ही सफलता मिलती है। बिना उद्यम किए हम एक कदम भी नहीं चल सकते।
      आलस के कारण जो परिश्रम करने से जी चुराते हैं वे जीवन की रेस में पिछड़ जाते हैं। अपनी व पारिवारिक दैनन्दिन आवश्यकताओं को जब वो पूर्ण नहीं कर सकते तो धार्मिक व सामाजिक दायित्वों का निर्वहण करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अभावों में जीवन व्यतीत करते इन लोगों को अपनी पत्नी व बच्चे तक नहीं पूछते।
        ऐसा नारकीय जीवन बिताने से तो अच्छा है कि उठो, परिश्रम करो और फिर मनचाही सफलता प्राप्त करो। सारी मुसीबतों की असली जड़ इस आलस्य को छोड़कर उद्यम करें। घर-परिवार व समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाकर गौरवशाली बनें और सिर उठाकर चलें। इस प्रकार करने से इस जीवन के सभी कार्य सुखपूर्वक सम्पन्न करने का संतोष मिलेगा जो अमूल्य है।
         यह सत्य है कि हम सभी कभी न कभी आलस्य से ग्रसित हो जाते हैं परन्तु फिर भी अपने जीवन की महत्वपूर्ण योजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करके अपने मार्ग को प्रशस्त करें।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

गुरु कौन

ज्ञान देने वाले को हम गुरु कहते हैं। ज्ञान अगाध होता है उसकी कोई सीमा नहीं होती। उस असीम ज्ञान रूपी अमृत को हम किसी से भी प्राप्त कर सकते हैं यानि कि शिक्षा देने वाला कोई भी जीव हो सकता है। वह कोई मनुष्य भी हो सकता है और अन्य कोई जीव यानि पेड़-पौधे या पशु-पक्षी भी हो सकता है।
       हम चींटी जैसे छोटे से जीव से भी ज्ञान ले सकते हैं और शेर जैसे शक्तिशाली जीव से भी। आप कहेंगे क्या मूर्खतापूर्ण बात कही है। मेरी बात को सहजता से स्वीकार मत कीजिए पहले उसे अपनी तर्क की कसौटी पर परखें।
        रामायण में आपने पढ़ा होगा कि भगवान राम पेड़-पौधों से सीता जी के विषय में पूछते हैं पर जटायु ने उन्हें दिशानिर्देश दिया। हनुमान जी को वानर मानते हुए भी उन्हें  भगवान की तरह पूजते हैं। रामचरितमानस में काक भुशुण्डी ने ईश्वर भक्ति का उपदेश दिया। भगवान विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में मनुष्य रूप के अतिरिक्त मत्स्य, वराह आदि अन्य जीव भी हैं।
        भगवान बुद्ध के विषय में लिखी गई जातकमाला में उनके पशु-पक्षियों के रूप में अवतरित होकर ज्ञान देने का चित्रण है। इससे प्रेरणा लेकर हम महात्मा बुद्ध के उपदेशों का जीवन में पालन करके आत्मिक उन्नति कर सकते हैं।
       यह आवश्यक नहीं हैं कि हम किसी मनुष्य को ही गुरु मानकर उसे अपनाने के साथ-साथ उसके दुष्कर्मों पर परदा डालें। हमें अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए बहुत ही सूझबूझ से काम लेना चाहिए नहीं तो व्यर्थ ही भटकना पड़ता है जिसका कोई अंत नहीं होता।
         गुरु सहिष्णु, ईमानदार, सत्यवादी, संयमी,  सदाचारी, अपरिग्रही होने के साथ-साथ मन, वचन व कर्म से भी एक होना चाहिए। तभी वह सही मायने में गुरु कहलाता है। हम उसे ईश्वर तुल्य मानकर उसकी पूजा करते हैं।
      उसकी कही गई हर बात का प्रभाव दूसरों पर होता है। जो वस्तुतः गुरु होता है उसे किसी प्रकार की सुरक्षा, हथियारों या सेना की आवश्यकता नहीं होती। यदि वह इस कसौटी पर खरा न उतरे तो गुरु कहलाने का अधिकारी नहीं है।
        हमारे ग्रन्थों में गुरु का बखान अनेकशः मिलता है। कसौटी पर कसने के पश्चात ही किसी को गुरु बनाना चाहिए। आँख मूँद करके भेड़ चाल नहीं करनी चाहिए। न ही अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए अवांछित गुरु का साथ ही करना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं तो इसका दुष्परिणाम भोगने के लिए भी हमें तैयार रहना पड़ेगा।
        अपने ग्रन्थों को यदि गुरु बनाकर उनका पारायण किया जाए तो मनुष्य को कोई भटका नहीं सकता। इनसे अच्छा गुरु और कोई नहीं हो सकता।
      सिख पंथ 'गुरु ग्रन्थ साहब' को ही अपना गुरु मानते हैं। कहने मात्र से ही पता चलता है कि गुरु  कोई मनुष्य विशेष नहीं बल्कि ग्रन्थ है। इसी तरह अपने सद् ग्रन्थों को गुरु मानकर उनका पारायण करके अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
         गुरुपद बहुत ही महान होता है इस पद का अपमान करने वालों को अपनी दूरदृष्टि से पहचान कर उनसे किनारा करना चाहिए। अपना खून-पसीना एक करके कमाए धन व अपने बहुमूल्य समय को नष्ट होने से यथासंभव बचाएँ।

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

सुख की चाह

दुनिया में हर मनुष्य सुख चाहता है। कोई भी नहीं चाहता कि उस पर या उसके प्रियजनों पर दुख की छाया भी पड़े। अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना किसी भी प्रकार उचित नहीं। संसार में सुखी रहने का मूलमन्त्र है अपने आचार-व्यवहार में थोड़ा-सा परिवर्तन करना।
         यह संसार असार है। इस भौतिक जगत में अनेकों कष्ट व परेशानियाँ मनुष्य को झेलनी पड़ती हैं। ऐसा नहीं है कि हमेशा ही उसे दुखों का सामना करना पड़ता है या उसे केवल सुख ही मिलते हैं। सुख और दुख दोनों पहिए के अरों की भाँति ही क्रमानुसार हमारे जीवन में आते हैं। इनसे बचना नामुमकिन है।
        सुख जब आता है तो हमारी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता। हम चाहकर भी छुपा नहीं पाते। उस समय सभी साथ चलने को तैयार हो जाते हैं। वह समय तो मानो पंख लगाकर उड़ जाता है। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत कम समय के लिए हम सुखी थे।      
         इसके विपरीत जब कष्ट का समय होता है तो हमें तौबा बुलवा देता है। हमारे अपने ही हमसे कन्नी काटने लगते हैं और हमारा खुद का अपना साया भी साथ छोड़ देता है। उस समय एक-एक पल हमें एक-एक युग की तरह महसूस होता है। तब वह कष्टप्रद समय रबर की तरह खिंचता हुआ-सा लगता है। हमें ऐसा लगता है कि इस जीवन में हमें दुख-ही-दुख मिल रहे हैं और सुख नहीं।
       ईश्वर बहुत न्यायकारी है। वह हमारे कर्मों के अनुसार ही सुख और दुख हमारी झोली में डालता है। उसके यहाँ इस संसार की तरह हेराफेरी नहीं होती और न ही वह किसी के साथ पक्षपात करता है। इसलिए उसे उसे कभी दोषी नहीं ठहराना चाहिए। जो गलती करेगा उसे ही सजा मिलेगी किसी मासूम को नहीं। जहाँ तक हो सके अपने मन में यह बात अच्छी तरह बिठा लेनी चाहिए कि वह बहुत दयालु है। वह माता की भाँति सदा हमारी रक्षा करता है।
       हम अपने बच्चों या अधीनस्थ लोगों को उनकी गलती सुधारने के लिए सजा देते हैं उसी प्रकार वह मालिक हमें अपनी गलतियाँ भोगने व कुंदन बनाने के लिए दुखों व परेशानियों की अग्नि में तपाता है।
वह अंतर्यामी है व सर्वव्यापक है। हम जो भी अच्छे या बुरे कार्य संपादित करें उसे हाजिर-नाजिर मानकर करें। हमें इस बात को कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जो भी काला-सफेद हम करते हैं वह देख रहा है। इसीलिए समयानुसार हमें उसका भुगतान करना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं-
    'कर्म गति टारे नहीं टलती' और 'समय बड़ा बलवान है'
'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।'
इन सूक्तियों का अर्थ है जो कर्म हमने किए हैं वे अवश्य भोगने पढ़ते हैं। वे किसी भी प्रकार टलते नहीं हैं। समय बहुत बलवान है वह हमें माफ नहीं करता।
          जो यह कहता है कि तीर्थयात्रा कर लो या गंगा स्नान कर लो पाप कट जाएँगें वह झूठ बोलता है। पाप तो भोगने से ही कटते हैं। कर्मफल भुगतना बहुत कष्टदायक होता है व तौबा बुलवा देता है। ईश्वर तब तक सुखों व दुखों से मिलवाता रहता है जब तक हमारे पूर्वकृत कर्मों का फल का फल हमें मिल न जाए।
        दुख का समय ईश्वर की उपासना व जाप करते गुजारें तो दुख कम नहीं होता पर उसे सहन करने की शक्ति अवश्य  मिलती है। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि सुख और दुख दोनों में ही ईश्वर की भक्ति करने के लिए समझाते हैं।