शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

द्वंद्व सहन

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में द्वंद्व सहन करने पर बल दिया है। समझने वाली बात है कि यह द्वंद्व किस चिड़िया का नाम है। द्वंद्व का अर्थ है विरूद्ध स्वभाव वाली स्थितियों को सहन करना। हम इनका विषलेषण इस प्रकार  कर सकते हैं- सुख-दुख, हर्ष-शोक, लाभ-हानि, जय-पराजय, मान-अपमान आदि। इसी प्रकार सर्दी-गर्मी, दिन-रात आदि प्राकृतिक द्वंद्वों को भी नित्य प्रति सहन करना पड़ता है।
          ये सभी स्थितियाँ हमारे जीवन में क्रम से आती हैं। दूसरे शब्दों में-
'चक्रनेमि क्रमेण नीचैयुपरि गच्छति दशा' अर्थात् जिस प्रकार पहिए के चलने पर उसमें में लगे हुए अरे(तीलियाँ) ऊपर और नीचे होती रहती हैं, उसी प्रकार ही हमारे जीवन में सुख और दुख की स्थिति होती है।
     ये स्थितियाँ हमारे जीवन में निरंतर आती रहती हैं। यह क्रम अनवरत चलता रहता है। कभी सुख-समृद्धि के हिंडोले में झूलते हुए जीवन का आनन्द लेते हैं और कभी दुख-परेशानियों में घिर कर व्यथित होते हैं।
        जीवन में ऐसा समय भी आता है जब हम उन्नति की पराकाष्ठा को छूते हैं और फिर ऐसी पटखनी खाते हैं कि जमीन में लग जाते हैं।
         स्पष्ट शब्दों में हमें भगवान कृष्ण ने समझाया गया है कि ये सारे द्वंद्व मानव जीवन में बारी-बारी से आते हैं। कभी हमें सुख मिलता है कभी दुख। कभी हम उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं तो कभी कठोर श्रम करने पर भी अवनति के गर्त में गिरते हैं। जब कभी हमारा यश चारों ओर फैलता है तब हम आसमान में उड़ने लगते हैं। हम अपने झूठे अहंकार में डूबकर अपने चारों ओर एक अभेद्य-सी दीवार खड़ी कर लेते हैं। तब हम हर किसी को कीट-पतंगों की भाँति समझते हैं। हम भूल जाते हैं कि ऐसा करने से हम निश्चित ही अपयश के भागीदार बनेंगे। इस स्थिति से यथासंभव बचना चाहिए।
         काम-धंधे में कभी-कभी हमें आशा से बढ़ कर लाभ मिलता है तो कभी सावधान रहते हुए भी अचानक हानि उठानी पड़ जाती है। इस स्थिति के लिए हम तैयार भी नहीं होते परंतु फिर भी हमें यह कष्ट झेलना पड़ता है। 
        बदलते मौसम में सर्दी-गर्मी आदि ऋतुओं को झेलना मनुष्य की मजबूरी है। दिन-रात प्रतिदिन अपना संदेश देते रहते हैं। आंधी-तूफान, अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि प्राकृतिक द्वंद्वों को भी सहन करना पड़ता है। ये सब भी समयानुसार ईश्वर की इच्छा से इस सृष्टि पर मानव जीवन में आते रहते हैं। इनसे बच पाना संभव नहीं होता बल्कि सामना करना पड़ता है।
        निष्कर्षत: हम अपने जीवन में इसी प्रकार इन सभी द्वंदों को सहन करते हैं। ये सभी स्थितियाँ हर मनुष्य के जीवन में उसके कर्मों के अनुसार अवश्यमेव आती हैं। इनका सामना करना हमारी मजबूरी है क्योंकि हमारे पास और कोई चारा नहीं है। इसलिए इनका सामना सम होकर अर्थात् एक समान रह कर करना चाहिए।
        ईश्वर की शरण में जाने और उसकी उपासना करने से ही इन द्वंद्वों को सहन करने की शक्ति मिलती है। उसी से गुहार लगाओ, उसी का स्मरण करने से ही सच्चा सुख और शांति मिलती है। इसलिए उसकी शरण में जाना ही एकमात्र विकल्प है।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

शिष्य भी महान

गुरु की महत्ता का गुणगान प्रायः हम सभी करते हैं परन्तु शिष्य के महत्त्व की चर्चा करते समय हम कंजूस हो जाते हैं। यदि शिष्य है तभी गुरु है। शिष्य के बिना गुरु का आधार नहीं और गुरु के बिना शिष्य अपूर्ण है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है और दूसरे के बिना पहला।
        वैसे यदि हम विचार करें तो पाएँगे कि गुरु के साथ-साथ शिष्य का महत्त्व भी कम नहीं है। गुरु का कार्य है कच्ची मिट्टी के समान शिष्य को अपने सद् विचारों के अनुरूप ढालकर, मनचाहा आकार देकर उसे योग्य बनाए। शिष्य का कर्तव्य है कि गुरु प्रदत्त ज्ञान को जीवन में ढाले और उसका विस्तार करे। इसी प्रकार ही गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहण होता है। दोनों को ही यश प्राप्त होता है।
       यदि गुरु चरित्रवान होगा तो उसके शिष्यों में भी वही संस्कार आएँगे और वे सुसंस्कृत बनेंगे। इसके विपरीत यदि गुरु अपने गुरुत्व को ताक पर रखकर दुराचारी, अनाचारी व पथभ्रष्ट होगा तो शिष्य उससे भी बढ़कर कुमार्गगामी होंगे। कहने का तात्पर्य है कि जैसे माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव बच्चों पर पड़ता है उसी प्रकार गुरु के संस्कारों का प्रभाव भी शिष्यों पर होता है।
         इसीलिए गुरु से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जीवन को शिष्यों के समक्ष उदाहरण की भाँति प्रस्तुत करे ताकि उसके शिष्य उसके बताए मार्ग पर चलकर गौरव अनुभव करें। उन्हें अपने गुरु के कुमार्गगामी होने अथवा उसके कुकृत्यों के कारण समाज में तिरस्कृत न होना पड़े।
        मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे शिष्य को पाकर कौन ऐसा-सा ऐसा गुरु होगा जो निहाल नहीं होगा। हर गुरु ऐसा ही शिष्य पाने की कामना करता है जो उसके जीवन को धन्य कर दे और युगों-युगों तक उसे इतिहास में अमर कर दे।      
        गोरखनाथ जैसे शिष्य धन्य हैं। उन्होंने तो अपने गुरु मछन्दर दास को ही तार दिया। वे राज्य पाकर भोग-विलास में डूब गये थे। गोरखनाथ जी को अपने गुरु के इस आचरण पर दुख हुआ और वे उन्हें उस जीवन से बचाकर वापिस वैराग्य जीवन में लौटा लाए।
      शिष्य बालक आरुणि की जंघा पर गुरु सो रहे थे। आरुणि को एक कीड़े ने काट लिया। वह पीड़ा से व्याकुल हो गया। वह केवल इसलिए हिलाडुला नहीं कि गुरु की नींद न खुल जाए।
         गुरु आचार्य चाणक्य को भी चन्द्र गुप्त मौर्य जैसे शिष्य की ही तलाश थी जो बिना कोई प्रश्न किए अपने गुरु के हर आदेश का अक्षरशः पालन करके उनके अखण्ड भारत के स्वप्न को साकार कर सकता।
        गुरु श्री विरजानन्द जी भाग्यशाली थे जिन्हें स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसा शिष्य मिला। उन्होंने अपने गुरु को भी इतिहास में अमर कर दिया।
       इतिहास ऐसे योग्य शिष्यों के महत्त्वपूर्ण कार्यों के उदाहरणों से भरा हुआ है जिनके कारण उनके गुरु अमर हो गए। आज भी हम उन अभूतपूर्व प्रतिभाशाली शिष्यों को याद करके श्रद्धावनत हो जाते हैं जिन्होंने अपने गुरुओं को अमर कर दिया। बस उनको ढूँढने की आवश्यकता है।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

इंसान नाशुकरा

इन्सान बड़ा ही नाशुकरा जीव है। उसे हम एहसानफरामोश अथवा कृतघ्न कोई भी नाम दे सकते हैं। अपने प्रति किए गए अहसान को बहुत ही जल्दी भूल जाता है। जब उसे आवश्यकता होती है तो वह गधे को भी बाप बनाने से नहीं चूकता। सारा समय आगे-पीछे घूमता रहता है। उसके पूरा हो जाने पर नज़रें मिलाने से भी परहेज करता है।
         आज के इस भौतिक युग में अनेक लोग हमें अपने आसपास ऐसे दिखाई देते हैं जिनके जीवन का मन्त्र है-
   जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ो उसे ठोकर मारकर गिरा दो।
ऐसे स्वार्थियों के कारण ही समाज में लोग  परस्पर विश्वास खोते जा रहे हैं। एक-दूसरे की सहायता करने से कतराने लगे हैं। घनिष्ठ संबंधों में भी संदेह घर कर रहा है। भाईचारा व मित्रता भी कहीं-कहीं शत्रुता में बदलने लगी है। ये स्थितियाँ समाज के लिए हानिकारक हैं।
       कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम बीमार संबंधों वाला समाज सौंपेंगे? हम उनका स्वस्थ विकास कैसे कर पाएँगे? हमें अपनी बिमार मानसिकता से छुटकारा पाना होगा तभी स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा।
         ईश्वर ने सृष्टि में इंसान को सबसे श्रेष्ठ जीव बनाया है परंतु हमने अपनी मूर्खताओं से उस पर दाग लगा दिया है। जिसने संसार में उसे भेजा, दुनिया के सभी ऐश्वर्य दिए, उसे वह पृथ्वी पर आते ही किनारे कर देता है। थोड़ा-सी धन-संपत्ति पाकर वह गर्व से फूला नहीं समाता। अपने इसी अहम के कारण वह उसकी सत्ता को भी चुनौती देने की धृष्टता करता है। भूल जाता है कि उसका अपना कुछ भी नहीं है। जिस धन-संपत्ति, रूप-सौंदर्य, शक्ति आदि पर वह इठलाता फिरता है, वे सब भी उसके अपने नहीं हैं। वे सब उसे साधन के रूप में प्रभु ने दिए हैं। वह सदा ही उसके रहमोकरम पर है।
      व्यर्थ के अभिमान में आकर वह अपनों को ही चोट पहुँचा बैठता है। कहने का तात्पर्य है कि वह किसी का भी कृतज्ञ नहीं होता। यही कहता है कि किसी ने उसके लिए किया ही क्या है? उसने अपने बलबूते पर सब साधन जुटाए हैं। किसी को श्रेय देने का प्रश्न नहीं उठता। ईश्वर की हस्ती को भी नकारकर स्वयंभू बन बैठता है।
       मनुष्य भूल जाता है कि सभी ऐशो आराम जिस मालिक ने दिए हैं वह उन्हें वापिस भी ले सकता है। उसकी लाठी की आवाज़ नहीं होती पर जब वह चलती है तो बड़ी गहरी चोट लगती है। फिर चोट लगने पर वह तिलमिलाता है और सभी को पानी पी पीकर कोसता है। अपनी गलती न मानकर दूसरों को दोष देता है।
         होना तो यह चाहिए कि जो भी कोई व्यक्ति हम पर उपकार करे या राई भर भी हमारी सहायता करे उसका धन्यवाद करना चाहिए। यथासंभव दूसरों की सहायता का यत्न करना चाहिए। इसी प्रकार आदान-प्रदान से ही समाज चलता है। दूसरों के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करना एक मानवीय गुण है। हमें ऐसे उपयोगी गुणों का त्याग नहीं करना है।
       मैं सभी मित्रों से अनुरोध करती हूँ कि उस दाता के उपकार को हमेशा याद रखिए। अपने वृथा अभिमान को त्याग कर सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते ईश्वर का धन्यवाद करें। वही सच्चा सहायक है, उसी की शरण में जाएँ। ऐसा करने पर ही जीवन में सच्चा सुख मिल सकता है।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

जीवन-मृत्यु में झूलता मनुष्य

जीव इस संसार में जन्म लेता है और अपने कर्मानुसार ईश्वर प्रदत्त आयु भोगकर इस दुनिया से विदा लेता है। वह जीवन और मृत्यु के बीच में झूलता रहता है।एक शरीर से मुक्त होने के बाद उसका जन्म कब हो कोई नहीं जानता। हमारे ग्रन्थों का मानना है कि जो पुण्यात्मा होते हैं उनका पुनर्जन्म एक शरीर को छोड़ते ही हो जाता है। कुछ लोगों के कर्म ऐसे होते हैं जो वायुमंडल में वर्षो तक भ्रमण करते रहते हैं उन्हें नया शरीर नहीं मिलता। उन्हें हम भूत-प्रेत के नाम से पुकारते हैं। शेष अन्यों को अपने कर्मानुसार निश्चित अवधि के पश्चात पुनर्जन्म मिलता है। वह निश्चित अवधि क्या है व किस समय नया जन्म मिलेगा इस विषय में हमारी यह मानुषी बुद्धि नहीं जान पाती। किस स्थान पर हम जन्म लेंगे यह सब भी भविष्य के गर्भ में सुरक्षित है।
       एवंविध मृत्यु कब और किस पल आ जाए यह भी एक रहस्य है। ईश्वर के अतिरिक्त इस भेद का ज्ञान ही किसी को नहीं हो पाता। हम मनुष्यों के लिए तो इसे जान पाना असंभव-सा है। बड़े-बड़े ज्ञानी व ॠषि-मुनि इस रहस्य को खोजने में सारा जीवन बिता देते हैं फिर भी इस सार को समझने में असमर्थ रहते हैं।
        सारांशत: हम कह सकते हैं कि हमारी बुद्धि अथवा हमारी सोच से परे है इस पुनर्जन्म का रहस्य समझ पाना। इसे भले ही हम न जान सकें पर इतना निश्चित मान सकते हैं कि हम सभी इस धरती पर कुछ निश्चित समय के लिए आते हैं।
      ईश्वर ने हमें अपने कर्मों के अनुसार जो भी समय हमें दिया है उसका सदुपयोग करना चाहिए। अन्यथा हमारा जीवन इस पृथ्वी पर बोझ बन जाएगा। मृत्यु के समय हमें पश्चाताप करने का समय भी नहीं मिल पाएगा। अंतसमय में जीवन व्यर्थ गंवाने का क्षोभ मन में लेकर इस संसार से विदा होकर नवजीवन की ओर जाना होगा।
           हम चौरासी लाख योनियों के चक्र में पड़कर इस संसार में ही आवागमन करते रह जाएँगे।ऐसे तो मुक्ति का कोई भी रास्ता नहीं निकल सकेगा।
       घर, परिवार, धर्म, देश और समाज के   प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह हमें नित्य ही निष्ठापूर्वक मन, वचन और कर्म से करना चाहिए। इसमें किसी भी प्रकार का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। 
       इस असार संसार में कौन पहले विदा लेगा और कौन बाद में, यह एक अनसुलझी पहेली है। अपने किसी प्रियजन से वियोग कभी भी हो सकता है यह हमें हमेशा याद रखना चाहिए। जीवन में न जाने कौन-सी रात आखिरी होगी इसलिए सबसे मिल-जुलकर रहना चाहिए। अपने झूठे अहम के नशे में इस संसार के भौतिक रिश्ते-नातों की गरिमा और मर्यादा खंडित न होने पाए इसका ध्यान रखना आवश्यक है। हमें यह विश्लेषण समय-समय पर करते रहना चाहिए।
       ईश्वर को हमें अपने जीवनकाल में हर कदम पर पल-पल स्मरण करना चाहिए जिससे अंतकाल में जब उसके पास जाने का समय आए तो उस प्रभु से नजरें चुराने की कदापि आवश्यकता महसूस न हो। इस संसार से विदा लेते समय हमारे मन में परमपिता से मिलने की प्रसन्नता का अनुभव हो। यह मलाल न रहे कि काश समय रहते हम चेत जाते तो हम बहुत कुछ कर सकते थे।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

पूजापाठ व्यक्तिगत

धर्म-कर्म, पूजा-पाठ आदि प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है। किसी दूसरे को इसमें दखलअंदाजी करने का कोई अधिकार नहीं है। कौन किस धर्म या सम्प्रदाय को मानता है या किस विशेष देवी-देवता की आराधना करता है इसे व्यक्ति विशेष को ही विचार करने दें तो अधिक उपयुक्त होगा।
      कोई सकार ईश्वर की उपासना करता है और कोई निराकार की। कोई कर्मकाण्ड करता है, ईश्वर को नवधा भक्ति से रिझाने का यत्न करता है तो कोई केवल योग के माध्यम से उस तक पहुँचना चाहता है और कोई मात्र जप-तप का मार्ग अपनाता है। कहने का अर्थ है तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र किसी भी मार्ग को अपनाकर प्रभु तक पहुँचने के लिए मानव यत्नशील है। किसी भी मार्ग को अनुचित कहना शोभनीय नहीं है। यह जरूरी नहीं कि हम दूसरे व्यक्ति की सोच से सहमत हों।
       विश्व में अनेकों धर्म हैं और उनकी अनुपालना करने वाले भी असंख्य लोग हैं। इसमें झगड़े वाली कोई बात है ही नहीं। ये सभी धर्म मानव के उत्थान की चर्चा करते हैं। उसे यही समझाते हैं कि ईश्वर को पाना ही उसका अंतिम लक्ष्य है।
     वह  ईश्वर एक है उसका हम अनेकानेक नामों से स्मरण करते हैं। वेद कहता है-
एको हि सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
अर्थात् ईश्वर एक है उसे विद्वान अलग-अलग नामों से संबोधित करते हैं।
       इस विषय में हम एक भौतिक उदाहरण लेते हैं। व्यक्ति एक है पर उसे बेटा, मित्र, पिता, भाई, मामा, चाचा, ताऊ, दादा, पति, फूफा, मौसा आदि उसके अनेक संबोधन हैं। इन सबके अतिरिक्त उसके कार्यक्षेत्र के अनुसार भी कई अन्य नामों से अभिहित किया जाता है। जब एक सांसारिक व्यक्ति को हम इतने नाम दे सकते हैं तो जिसने ऐसे अरबों-खरबों जीवों को उत्पन्न किया हैं उसके असंख्य नाम होना तो स्वाभाविक ही है।
       सभी धर्म उस प्रभु तक पहुँचने का मार्ग मात्र हैं। इसलिए सभी धर्म समान हैं तथा उनकी श्रेष्ठता से इंकार नहीं किया जा सकता।
        मान लीजिए हमने अपने देश भारत की राजधानी दिल्ली जाना है। बताइए कैसे जाएँ? रेल से, बस से, हवाई जहाज से, अपनी कार से या अन्य कोई और ट्रक-टेम्पो आदि वाहन हो सकता है। इनमें से किसी भी साधन से देश या विश्व के किसी भी कोने से दिल्ली आया जा सकता है।
      अनगिनत मार्ग हैं इस भौतिक प्रदेश में पहुँचने के लिए। वैसे ही ये सभी धर्म हैं जो अपने-अपने तरीके से उस परमसत्ता तक जाने का मार्ग दर्शाते हैं।
        सभी धर्म मानवता, सौहार्द, दया, करुणा, प्राणीमात्र से प्यार करना, अहिंसा आदि मानवोचित गुणों को पालन करने का पाठ पढ़ाते हैं। लड़ाई-झगड़े या नफरत करने की आज्ञा हमें कोई भी धर्म नहीं देता।
        कुछ मुट्ठी भर इंसानी दिमाग धर्म के नाम पर नफरत फैलाते हैं जो किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।
        किसी भी धर्म को नीचा दिखाकर उन धर्मावलम्बियों का अपमान करना कदापि उचित नहीं। लोगों को लालच देकर या जोर- जबरदस्ती धर्मांतरण करना किसी भी तरह उचित नहीं।
       अब यह हमारी मेधा पर निर्भर करता है कि हम उस मार्ग पर चल कर अपना जीवन सफल बना पाते हैं या नहीं।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

गृहस्थाश्रम का महत्व

भारतीय पारिवारिक व सामाजिक परिवेश में गृहस्थ आश्रम का महत्व शेष तीनों आश्रमों-  ब्रह्मचर्य आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम से अधिक है। इसका कारण सीधा-सा यह है कि गृहस्थ आश्रम अन्य तीनों आश्रमों का पालन करता है।
        ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा ग्रहण की जाती है। विद्यार्थी अभी आजीविका कमाने के योग्य नहीं होता। इसलिए वह अपना भरण-पोषण नहीं कर सकता और अपने माता-पिता पर आश्रित रहता है।
        वानप्रस्थ आश्रम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सामाजिक कार्यों में जुटने  का समय होता है। सारी आयु संघर्ष करने के उपरांत घर-परिवार की कमान अपने योग्य बच्चों को सौंपकर ईश्वर की ओर उन्मुख होने का प्रयास करना आवश्यक होता है। अत: रिटायर्ड लाइफ  व नाती-नातिनों के साथ जीवन का आनन्द उठाना एक अलग ही अनुभव होता है।
         सन्यास आश्रम में घर-परिवार का त्याग करके समाज को दिशा देने का कार्य किया जाता है। सन्यासी स्वाध्याय करके मनन करते हैं व ईश्वर की उपासना में जुटे रहते हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ये समाज के पूज्य गृहस्थियों पर ही आश्रित रहते हैं।
         गृहस्थी का मूल आधार पति-पत्नी होते हैं।  इन दोनों के संबंधों में जितनी अधिक मधुरता होगी घर-परिवार में उतना ही सौहार्द होगा।प्रश्न यह है कि पति-पत्नी के संबंध कैसे हों? महाकवि कालिदास ने शिव व पार्वती को आदर्श पति-पत्नी मानते हुए उनकी स्तुति की है-
    वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
    जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।
अर्थात् जिस प्रकार शब्द और अर्थ आपस में मिले होते हैं, उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता वैसे ही माँ भगवती और भगवान शिव की एक-दूसरे के बिना कल्पना करना संभव नहीं है। ऐसे शिव और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ।
         हमारे भारत में आदर्श पति-पत्नी के उदाहरण स्वरूप शिव-पार्वती, राम-सीता आदि का उल्लेख किया जाता है। आदर्श मानते हुए हम उनकी पूजा करते हैं।
        गृहस्थी की गाड़ी चलाने वाले पति-पत्नी का आपसी व्यवहार संतुलित, दुराव-छिपाव रहित, निष्ठापूर्ण, सामंजस्य पूर्ण और परस्पर मित्रवत् होना आदर्श स्थिति है। दोनों को अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर एक-दूसरे का सच्चा हमसफर बनना चाहिए। यदि गुरू नानक देव जी के शब्दों में कहें तो उचित होगा- 'एक ने कही दूसरे ने मानी। नानक कहें दोनों ज्ञानी।'
       इस तरह के परिवारों में सुख,शांति व समृद्धि का वास होता है। बच्चे आज्ञाकारी व यशस्वी होते हैं। हम सभी प्रबुद्ध जन मन से विचार करेंगे तो ऐसा समझ में आएगा कि आधुनिक परिवेश में आज सद्गृहस्थियों की बहुत आवश्यकता है। सामाजिक ढांचा चरमराने न पाए इसका हमें ही ध्यान रखना है।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

पर निन्दा

मानवीय कमजोरी है कि वह अपने गुणों का बढ़ा-चढ़ा कर बखान करता है और अपने दोषों को नजरअंदाज करता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण उसे नगण्य प्रतीत होते हैं और उनके दोषों को पहाड़ की तरह बढ़ा-चढ़ा कर बताने में उसे आत्मिक सुख का अनुभव होता है।
       हम दूसरों की कमियों को उजागर करने में कोई कोर-कसर नहीं रखना चाहते। उन्हें नमक-मिर्च लगाकर चटकारे लेकर सुनाते हैं। हम हमेशा इस बतरस का आनन्द उठाते हैं। जब अपनी बारी आती है तो उसे सहन नहीं कर पाते। तब दूसरों को भला-बुरा कहकर या गाली-गलौच करके अपनी भड़ास निकालते हैं।
       वैसे देखा जाए तो इंसान गलतियों का पुतला है। जाने-अनजाने पता नहीं वह कितनी गलतियाँ करता है और जिनका प्रायश्चित्त भी उसे करना पड़ता है। कभी-कभी उसे उनका मूल्य भी चुकाना पड़ता है। यदि निम्न दोहे को याद रखा जाए तो मनुष्य दूसरों के छिद्रान्वेषण करने के बजाय अपनी कमियाँ देखेगा-
         बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोए।
         जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोए॥
       स्वयं को खोजने पर ही ज्ञात होता है कि हम स्वयं भी बहुत-सी गलतियाँ करते हैं और बार-बार उन्हें दोहराते भी हैं। यदि इंसान गलती न करे तो वह भगवान बन जाएगा। भगवान हर दोष एवं हर विकार से परे है। परन्तु मनुष्य चाहकर भी दोषों-विकारों से मुक्त नहीं हो पाता और कभी लालचवश और कभी स्वार्थवश रास्ते से भटककर दोषी बन जाता है।
        समस्या केवल यह है कि दूसरों की निन्दा करना हमें अपना शगल लगता है। इस बात को हम भूल जाते हैं कि दूसरे की ओर जब हम एक अंगुली उठाते हैं तो बाकी चार अंगुलियाँ हमारी ओर उठी रहती हैं। जिसका सीधा-सा तात्पर्य है कि वे हमें चेतावनी दे रही हैं कि हम संभल जाएँ क्योंकि हम दूसरों के बनिस्बत चार गुणा अधिक गलतियाँ कर रहे हैं।
      फिर भी हम समझ नहीं पाते और पुनः पुनः गलतियों को दोहराते हैं।
        निम्न दोहे में हमें समझाया है कि निन्दा करने वाले से घबराना नहीं चाहिए उसे अपने बहुत पास रखना चाहिए-
          निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाए।
         पानी औ साबुन बिना निर्मल करे सुभाए॥
निन्दक दूसरों को उनकी कमियाँ बताकर उन्हें सुधरने का मौका देता है। वैसे तो सफाई का कार्य साबुन और पानी से करते हैं पर निन्दक हमारा शुभचिंतक होता है जो उनके बिना ही हमारे स्वभाव को निर्मल बना देता है।
      दूसरों के दोषों को बताते-बताते वह स्वयं को भूल जाता है और एक के बाद एक गलती करता रहता है। दूसरे तो अपनी गलती को सुधारने का यत्न करते हैं पर वह अपनी ही धुन में रहता हुआ पतन की ओर बढ़ता है।
       अपने दोषों पर गहरी नजर रखकर उन्हें दूर करने का प्रयास करना समझदारी है। दूसरों की निन्दा-चुगली में अपना समय बरबाद न करके सकारात्मक कार्यों में लगाना चाहिए जिससे हम सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।
        दूसरों की निन्दा-चुगली करने वालों से ईश्वर कदापि प्रसन्न नहीं होता। अत: आत्मोत्थान करने वालों को इस बुराई से यथासंभव बचना चाहिए।