गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

सुख की खोज

हम सुखों को खोजने में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि बड़ी-बड़ी खुशियों की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं। उस चक्कर में अपनी छोटी-छोटी खुशियों की ओर ध्यान नहीं दे पाते, उन्हें अनदेखा कर देते हैं। पर शायद अनजाने में ही यह सब हो जाता है। वैसे तो सभी अपने जीवन में खुशियाँ ही चाहते हैं। कोई भी दुखों का सामना नहीं करना चाहता।
        वास्तव में खुशियों के पल जीवन में पलक झपकते ही बीत जाते हैं। या यूँ कहें कि रेत पर मछली की तरह हमारे हाथ से फिसल जाते हैं। शायद इसलिए हमें ऐसा लगता है कि हम कभी सुखी रह ही नहीं पाए। सुख आए भी तो जल्दी चले गए और दुख अधिक समय तक हमें घेरकर परेशान करता रहा।
        यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करती हूँ। मान लीजिए घर में किसी की शादी एक माह पश्चात है। वह पूरा महीना योजनाएँ बनाते, खरीददारी करते, सबको न्योता देने, मेहमानों की आवभगत करते एवं शादी के फंकशन में भाग लेते हुए बीत गया। हमें वह एक महीना ऐसा लगता है मानो बहुत थोड़ा-सा समय था जो पलक झपकते हुए सपने की तरह बीत गया।
      इसके विपरीत बीमारी, दुर्घटना अथवा अन्य किसी कारण आए हुए दुख के समय एक-एक दिन तो क्या पलभर भी भारी हमें लगने लगता है। इस तरह सुख का समय हमें कम लगता है और दुख के समय ऐसा लगता है कि वह रबर की तरह खिंचता ही जा रहा है।
        हमें जीवन में छोटी-छोटी खुशियों को ढूँढ कर उन पलों को समेटना है। उन नन्हीं खुशियों को गंवाना नहीं है। वे हो सकती हैं- प्रतिवर्ष आने वाले जन्मदिन और शादी की साल गिरह, बच्चे का मनचाहे स्कूल में दाखिला या कैरियर चयन, कक्षा में अच्छे अंक लाना, घर में किसी छोटी-बड़ी वस्तु की खरीददारी, घूमने जाना, व्यस्तता में कुछ पलों को चुराकर सिनेमा देखना या शापिंग करना अथवा डिनर के लिए जाना।
        मेहमानों के घर में आने या स्वयं मेहमान बनकर जाना भी तो खुशियाँ देता है। इन सभी पलों को समेटने का यत्न करें। इन खुशियों का आनन्द भोगिए।
        घर-परिवार में बड़ी खुशियाँ  तो अपने समय पर ही आती हैं। जैसे बच्चे का जन्म, शादी-ब्याह, नया घर या गाड़ी खरीदना, व्यापार या नौकरी में सफलता आदि। ये सभी सुख या खुशियाँ नित्य प्रति जीवन में नहीं आते।
        सुखों को ढूँढने के लिए जंगलों, तीर्थों या तथाकथित गुरुओं के पास कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। किसी के पास इस समस्या का हल नहीं मिलेगा। यदि किसी के पास हल होता तो दुनिया में भटकाव की स्थिति न होती। हम इसके विषय में जानकारी जुटाने के लिए कदापि उत्सुक नहीं होते।
         ईश्वर हमारे पूर्वकृत कर्मों के अनुसार जो भी सुख व दुख देता है उन्हें धैर्यपूर्वक भोगते हुए यदि हम बड़ी और छोटी सभी खुशियों का आनन्द ले सकें तो जीवन चैन से बीतेगा। नहीं तो अनावश्यक रूप से तनावग्रस्त रहेंगे जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
       सबसे प्रमुख बात यह है कि हर खुशी या सुख का भोग करते समय हम प्रभु को धन्यवाद देना न भूलें जिसने हमें छप्पर फाड़कर खुशियाँ दी हैं।

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

मन मन्दिर

मानव शरीर में मन एक बहुत पवित्र स्थान है। हमारे ऋषि-मुनि इसे मन्दिर की संज्ञा देते हैं। उसमें ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठा करके उसकी आराधना की जाती है।
      विचारणीय है कि यह मन मन्दिर कैसे बने? इसे मन्दिर को बनाने का तरीका क्या है? इस मन को मन्दिर बनाने का बहुत ही सरल उपाय भुलेशाह जी ने हमें सुझाया है। वे कहते हैं-
'भुलया रब दा की पाना एत्थे पुटना ओत्थे लाना।'
इसका अर्थ है कि ईश्वर को पाना बहुत ही सरल है। मन को इधर से हटाकर उधर प्रभु की ओर मोड़ दो।
          हम सभी जानते हैं कि चावल की खेती करते समय उसे एक स्थान पर बोया जाता है। कुछ समय पश्चात उसे वहाँ से उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है। उसी तरह मन को सांसारिक बंधनों से विमुख करके ईश्वर की ओर उन्मुख करना पड़ता है।
       कहने के लिए बड़ा सरल व सीधा-सा उपाय है यह। परन्तु पूरा जीवन बीत जाता है इस चंचल मन को साधते हुए। यह ऐसा बेलगाम घोड़ा है जो हमारे वश में आता ही नहीं। इसको काबू में रखने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में उपाय बताये हैं-  अभ्यास और वैराग्य।
       इसे नियन्त्रित करने के लिए पहला उपाय है निरन्तर अभ्यास करना। मन को बार-बार ईश्वर की आराधना में प्रवृत्त करना। वह इधर-उधर भागेगा पर उसे पुनः वापिस लेकर आना। दूसरा उपाय है वैराग्य यानि सांसारिक पदार्थो से आसक्ति का त्याग। सभी सांसारिक कार्यों को करते हुए असार संसार में उसी प्रकार रहना जैसे जल में कमल रहता है।
        हमारा मन एक ऐसा पात्र है जिसमें प्रभु के प्रति श्रद्धा व भक्ति के भाव होने चाहिएँ। हम लोगों ने अपने मन को ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों का आश्रय बना रखा है। जब तक ये सभी वहाँ घर बनाकर रहेंगे तब तक ईश्वर का निवास नहीं बन सकता।
        जैसे किसी पात्र में हमने कोई वस्तु डालनी हो तो पहले यह विश्वास करना पड़ता है कि वह खाली हो। यदि उसमें पहले से कुछ डालकर रखा हो तो नया पदार्थ उसमें नहीं आ सकेगा। इसलिए बर्तन को पहले खाली करना पड़ेगा और धोकर सुखाना होगा तभी नया पदार्थ उसमें आ पाएगा।
        उसी प्रकार हमें अपने मन में विद्यमान इन सभी दुर्गुणों को वहाँ से दूर करके मन रूपी पात्र को खाली करना होगा। फिर उसमें उस मालिक के नाम की लौ जगानी होगी तभी वह धुल-पुछकर स्वच्छ होगा। ईश्वर का वास हमारे मन में तभी हो सकता है यदि उसमें प्यार, भाईचारा, दया, ममता,  आपसी विश्वास, परोपकार आदि सद् भावनाओं का उदय होगा।
          ईश्वर हमारे इस मन में सदा ही वास करता है पर हम अपने अहम व दुर्गुणों के कारण उससे दूर होते जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब हम न उसे अपने अंतस में महसूस कर सकते हैं और न ही उसकी चेतावनी एवं उत्साह वर्धक प्रेरणा को सुन  पाते हैं। वह तो हमारी रक्षा हर कदम पर करता है पर हम उसकी कृपा को समझते ही नहीं हैं।
        जब हम अपने मन को सद् गुणों से प्रकाशित करेंगे तभी वास्तव में सही मायने में वह चमकता हुआ मन्दिर बन जाएगा। तब हम वहाँ हम अपने प्रभु को प्रतिष्ठित कर सकेंगे। तभी इस गीत की पंक्ति को सार्थक कर सकेंगे-
'तेरे पूजन को भगवान बना मन मन्दिर आलीशान।'

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

जीवन यज्ञ

हमारा जीवन एक यज्ञ है जिसे हम प्रतिदिन अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मिलकर करते हैं। यज्ञ को करने के लिए जिस प्रकार औषधीय गुणों से युक्त सामग्री व समिधाओं की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन यज्ञ को करने के लिए अपने दुर्गुणों को दूर कर सद् गुणों की आहुति देनी होती है। तभी हमारे जीवन यज्ञ की सुगन्ध दूरदराज तक फैल सकती है। हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जैसे-जैसे हमारे सुकृत्यों की चर्चा चारों ओर फैलेगी उतनी ही प्रशंसा हमें मिलेगी।
       हमारे अंतस में जितना अधिक सद् गुणों का विकास होगा उतने ही हमारे मनो मस्तिष्क में विद्यमान दुर्गुण जीवन यज्ञ की अग्नि में भस्म होते जाएँगे। फिर हमारा अंत:करण उतना ही शुद्ध व पवित्र होता जाएगा।
       यज्ञ में घी की आहुति भी दी जाती है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि हम अपने जीवन में स्नेह की चिकनाई बांटें। संसार के सभी जीवों को अपना मानते हुए उनके साथ प्यार का व्यवहार करें। हमेशा ही इस बात को याद रखें कि वही व्यहार हमें वापिस मिलेगा जो हम दूसरों के साथ करेंगें। सृष्टि का नियम है- 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे।'
         इसलिए भी जीवन में सतर्क रहना बहुत आवश्यक है। प्रेम व भाईचारे की भाषा मूक पशु-पक्षी तक जानते व समझते हैं। उन्हें जरा-सा प्यार करो तो वे हमारे ही हो जाते हैं।
      इस जीवन यज्ञ के पुरोधा हमारे माता-पिता हैं जिनको अपने जीवनकाल में प्रसन्न रखना बहुत आवश्यक है अन्यथा इस यज्ञ के खण्डित होने का भय रहता है।
       सम्पूर्ण प्रकृति भी यज्ञोमय है। उसका यह यज्ञ सृष्टि के आदि से अब तक निरंतर चलता जा रहा है। इसीलिए हम सभी जीवों का अस्तित्व विद्यमान है। वह हमारी भौतक माता के समान ही हमारी सारी आवश्यकताओं को बिना कहे पूर्ण करती है।
        अत: हम उसे माता कहते हैं। बदले में हम उसे सदा दूषित करते हैं फिर भी वह हमें क्षमा कर देती है।
        यज्ञ कुण्ड के चारों ओर जल छिड़का जाता है जो पवित्रता का प्रतीक है। जल से जो भाप बनती है वह भी लाभदायक होती है। उसी प्रकार हमें भी यथासंभव दूसरों की सहायता करके उन्हें शीतलता प्रदान करनी चाहिए।
       यज्ञ जिस प्रकार वायुमण्डल को शुद्ध करता है उसी प्रकार हमारा भी यह दायित्व है कि हम अपने वायुमण्डल को शुद्ध रखें। अपनी मूर्खताओं के कारण उसे दूषित न करें। यदि हम उसे हानि पहुँचाएँगे तो उसका दुष्परिणाम बाढ़, तूफान, भूकम्प, रोगों आदि के रूप में हमारे सामने आएगा। तब हम व्यर्थ जोड़तोड़ करने लग जाते हैं और भ्रष्टाचार आदि को अनजाने ही बढ़ावा देते हैं।
        यज्ञ से कई रोगों से बचा जा सकता है। उसी तरह जीवन यज्ञ को नियमपूर्वक करने वाला संतुलित व सात्विक जीवन जीने वाला जीव अनेक व्याधियों से बचा रहता है।
        इस यज्ञ की पवित्र अग्नि से मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि वह जीवन की आग्नेय शक्ति को जल रूपी धैर्य से सदा बांधकर रखें। अकारण मनुष्य अपनी शक्ति का ह्रास न करे बल्कि अपने भीतर की आग का सदुपयोग करे। उससे शक्ति सम्पन्न होकर देश, धर्म व समाज के लिए हितकारी कार्य करता हुआ अपना यह नश्वर जीवन प्रभु को समर्पित कर दे।

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

झूठा अहम

हम अपने घर के दरवाजे व खिड़कियाँ बन्द करके रखते हैं। सूर्य आता है, हमारे द्वार पर खड़ा रहता है और दस्तक देता है। अब यह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम अपना दरवाजा खोलें या नहीं। चुपचाप मौन खड़ा वह हमारी प्रतीक्षा करता रहता है। अपने प्रति हमारे द्वारा की गई अपेक्षा या उदासीनता को देखकर वह हमसे कोई गिला-शिकवा किए बिना ही वापिस लौट जाता है।
       सूर्य ने कभी इसे अपने अहम का प्रश्न नहीं बनाया। यदि हमारे इस व्यवहार से सूर्य अपना अपमान समझ लेता तो हम लोगों की तरह हमारी शक्ल दुबारा न देखने की कसम खा लेता। अब सोचिए यदि ऐसा हो जाए और सूर्य अगले दिन से ही उदय होने से इन्कार कर दे तो क्या स्थिति हो जाएगी? चारों ओर हाहाकार मच जाएगा। सम्पूर्ण पृथ्वी पर शीत का ही साम्राज्य हो जाएगा। चारों ओर बर्फ-ही-बर्फ जम जाएगी। फिर हर तरफ त्राहि-त्राहि मच जाएगी। हम सभी जीवों का जीवन तत्काल ही समाप्त हो जाएगा।
       ईश्वर निर्मित सम्पूर्ण सृष्टि इस प्रकार हमारी बेवकूफियों व गुस्ताखियों को नजरअंदाज करके हमें ईश्वरीय नेमतों से मालामाल करती है।
       जब प्रकृति हमारी गलतियों की हमें सजा नहीं देती, वह क्षमाशील हो सकती है तो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हम मनुष्य क्यों नहीं? यह प्रश्न रह-रहकर मन को पुनः पुनः उद्वेलित करता है।
        किसी ने जरा-सा कुछ कह दिया या हमारी ओर ध्यान नहीं दिया तो हम यह मानने लगते हैं कि अमुक व्यक्ति ने हमारा अपमान कर दिया है। उसे हमारी रत्ती भर भी परवाह नहीं है। चाहे यह सब अनजाने में ही हुआ हो। ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम अपना शत्रु मान चुके हैं वह इस सबसे अनजान हो। परन्तु हम अनावश्यक ही नकारात्मक विचारों की गाँठ मन में बांधे  सोच-सोचकर व्यर्थ ही परेशान होने लग जाते हैं।
        उस समय हम आपे से बाहर होकर किसी भी प्रकार हर हालत में उससे बदला लेने के लिए मचलने लगते हैं। कभी उसका चेहरा न देखने की कसम तक खा लेते हैं।
       अपने अहम के कारण हर किसी को भी देख लेने और हर कदम पर दूसरों को नीचा दिखाने वाली प्रवृत्ति के कारण हम बदले की आग में जलते रहते हैं। ईर्ष्या और क्रोध की अग्नि में जलते हुए हम अपने दुश्मन स्वयं ही बन जाते हैं। तब हार्ट अटैक, बी पी, शूगर, डिप्रेशन जैसी नामुराद व लाइलाज बीमारियों को हम अनायास ही न्यौता दे बैठते हैं। उस समय दिन-रात एक करके परिश्रम से कमाए गए धन को और अपने अमूल्य समय को हम डाँक्टरों के हवाले करते हैं। राई को पहाड़ बनाकर निरर्थक ही हम अपने और अपनों के दुख का कारण बन जाते हैं। अपने स्वास्थ्य व धन की हानि करते हुए अपनी मानसिक शांति भंग करते हैं।
         उस समय ग्रन्थों द्वारा समझाए गए ये वचन भूल जाते हैं कि अहंकार करने वाले का कभी भला नहीं होता। उसका अंत  हमेशा ही भयानक होता है। इतिहास के पन्नों में ऐसे लोगों के नाम सदा के लिए दफन हो जाते हैं। युगों तक कोई भी उनका नाम सम्मान से नहीं लेता।
        हमें यथासंभव अपने झूठे अहम से स्वयं को बचाना चाहिए ताकि किसी प्रकार के मानसिक व शारीरिक आघातों से दूर रह सकें। हम प्रकृति की तरह क्षमाशील बनकर अपने जीवन को संतुलित रखने में समर्थ हो सकें।

रविवार, 26 अप्रैल 2015

मरणधर्मा जीव

जीव मरणधर्मा है। मरणधर्मा का अर्थ है कि जिसका जन्म इस पृथ्वी पर हुआ है उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है अर्थात उसका अंत निश्चित है। इसीलिए इस पृथ्वी को मृत्युलोक कहते हैं। इस मृत्युलोक में जो जन्म लेता है चाहे वह मनुष्य है, पशु-पक्षी है, पेड़-पौधे हैं यानि की सम्पूर्ण चराचर जगत अपना-अपना समय पूरा करके इस संसार से विदा ले लेता है। अपना समय से तात्पर्य यह है कि अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर जो आयु निर्धारित करके धरा पर भेजता है वही उसका अपना समय कहलाता है।
         इस असार संसार से विदा लेने का कोई-न-कोई बहाना बन जाता है। उसे हम बीमारी, दुर्घटना, हार्टफेल आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि भी जीव की मृत्यु के कारण बन जाते हैं।
       इस पृथ्वी पर आने वाले हर मनुष्य के कुछ सपने होते हैं। वह अपने घर-परिवार, अपने माता-पिता व पत्नी-बच्चों के लिए सपने देखता है जिन्हें जी जान लगाकर वह पूरा करने का यत्न करता है। बहुत से सपनों को वह अपने जीवन में पूरा भी कर लेता है। पर जो सपने अधूरे रह जाते हैं उनके लिए उसके मन में मलाल रहता है। इसलिए वह जुगत भिड़ाने की फिराक में रहता है।
        इस संसार में जन्म लेने के पश्चात से ही जीव धीरे-धीरे पल-पल करके मृत्यु की ओर बढ़ता रहता है। फिर भी इस सत्य से वह अंजान बना रहना चाहता है कि एक दिन उसे इस संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा। यदि वह मृत्यु को सदा याद रखे तो दूसरों पर अत्याचार और अनाचार कभी न करे। चौरी, डकैती, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त न हों।
        मनुष्य सदा ही सबके हित के कार्यों को करता रहे। हर किसी जीव को अपना समझते हुए भाईचारे का व्यवहार करे। ईश्वर से सदा डरते हुए समाज के हितार्थ कार्यों को करता हुआ मनुष्य खुशी-खुशी इस दुनिया से विदा ले। उसके मन में किसी प्रकार का कोई मलाल शेष न रहे। उसे यह संतोष रहे कि वह इस संसार में आने के अपने उद्देश्य को भूला नहीं अपितु अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
      मनुष्य हर क्षण मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता जाता है। बीमारियों, परेशानियों या दुखों के आने पर वह तिल-तिल करके मरता रहता है। पर फिर भी उसकी जीने की इच्छा (जिजीविषा) बलवती रहती है। वास्तव में मनुष्य की मृत्यु उसी दिन हो जाती है जब उसके मन में किसी भी कारण से जिजीविषा समाप्त हो जाती है अथवा जिस दिन उसकी उम्मीदें व सपने मर जाते हैं। उसका स्वयं पर विश्वास नहीं रहता अर्थात उसका आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है।
       जब तक आयु शेष हैं तब तक अपने सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने का यत्न करना चाहिए। अन्यथा जब मृत्यु समक्ष होगी या अन्तिम समय आएगा तब अपनी असफलताओं पर दुख होगा। फिर पश्चाताप करने का समय भी नहीं होगा। ईश्वर से क्षमा याचना करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकेंगे। तब अपने दायित्वों या सपनों को पूरा करने के लिए और थोड़े से समय की मोहलत भी उस मालिक से नहीं मिलेगी।

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

खुशियाँ बाँटिए

दोनों हाथों से खुशियों को बटोरिए और बाँटिए। फिर देखिए जीवन में कितना सुकून मिलता है। आज की भागमभाग वाली जिन्दगी में यदि कुछ पल खुशियों भरे मिल जाएँ तो किसी का भी जिन्दगी का सफर सुहाना हो सकता है।
       दूसरों को खुशियाँ तभी बाँटी जा सकती हैं यदि मनुष्य पहले स्वयं प्रसन्न रहना सीख जाएगा। उसके लिए पहले अपने जीवन में संतोष का होना ही बहुत आवश्यक है। संतोष रूपी धन जब जीवन में आ जाता है तो शेष सभी धन मिट्टी के समान लगने लगते हैं। तब फिर भौतिक पदार्थों के लिए व्यर्थ भटकने की मनुष्य को कदाचित आवश्यकता नहीं रहती। जब मन दुख और परेशानी से व्यथित होता है तो वे भाव उसके चेहरे पर प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं। उसी प्रकार सन्तुष्टि का भाव भी मनुष्य के चेहरे पर स्पष्ट रूप से छलकता है।
       असार संसार के आकर्षण मनुष्य को ललचाते हैं। उनको और और पाने की चाहत उसे गुमराह कर देती है। तब मनुष्य अनजाने में गलत राह या कुमार्ग पर चल पड़ता है जिससे वापसी असम्भव तो नहीं परन्तु कठिन अवश्य हो जाती है। मनुष्य सभी प्रकार के सच-झूठ व छल-प्रपंच करने लगता है। अपनी सफेदपोशी की पोल खुल जाने का डर उसे विचलित करता रहता है। फिर उसका पीड़ित हो जाना तो समझ में आता है। ऐसा दिशाहीन होता हुआ मनुष्य अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मारता हुआ परेशानियों के जंगल में चौबीसों घंटे व्यर्थ ही इधर-उधर भटकता रहता है।
       जब हमारे मन को ये ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि शत्रु डसने लगते हैं तब वह बेचैन होकर बेबस पक्षी की तरह फड़फड़ाने लगता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई हमारा दिन-रात का सब सुख-चैन हर रहा है। तब सारा समय हम दूसरों को गाली-गलौच करने या कोसने में व्यतीत करते हैं।
      ऐसी स्थिति में मन की शांति नष्ट हो जाती है जो वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। जब मन ही शांत नहीं होगा तो हम भी प्रसन्न नहीं रह सकते। फिर ऐसे में अपने घर, परिवार, मित्रों व बच्चों सबको खुशी कैसे दे सकते हैं?
      यह आवश्यक नहीं कि हम लाखों-करोड़ों खर्च करें तभी दूसरों को खुश रख सकते हैं। दूसरों के दुख को बांटकर उन्हें प्रसन्न कर सकते हैं। उनके कष्ट के समय इतना अहसास भर दिलाना ही उनकी खुशी के लिए बहुत होता है कि हम उनके साथ हैं।
       अपनी सामर्थ्य के अनुसार दूसरों के छोटे-छोटे अभावों को दूर करके हम उन्हें खुशियाँ दे सकते हैं। असहायों के लिए दीनबन्धु बन सकते हैं। अपने व्यवहार को संतुलित करके भी हम अन्यों को संतुष्ट कर सकते हैं। अनाथालय, अंधविद्यालय, ओल्ड होम आदि जैसे स्थानों पर जाकर उनके साथ कुछ पल बिताकर उन्हें खुशियाँ दे सकते हैं।
        खुशियाँ फूलों की भाँति कोमल होती हैं जो चारों ओर अपनी सुगन्ध से सबको सुवासित करती हैं और अपने सौंदर्य से सबको मोहित कर लेती हैं। इन्हें निस्वार्थ भाव से बांटने पर दूसरों को प्रसन्नता तो मिलती ही है अपना मन भी खुश व शांत रहता है। ऐसा करने एक आत्मतुष्टि का भाव रहता है कि हमने सकारात्मक कार्य किया। यथासंभव अमोल खुशियों की चाँदनी बिखेरते रहने का यत्न हम सभी को करना चाहिए।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

जिद

जिद यानि हठ किसी का भी समाज के भले के लिए नहीं होता। इस जिद की बलि बहुत कुछ चढ़ गया। इतिहास साक्षी है उस विनाश का जो जिद के कारण न चाहते हुए भुगतना पड़ा।
       राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ इन तीनों प्रकार के हठों ने साम्राज्यों को सम्पूर्ण विनाश के कगार पर पहुँचा दिया।
         राजहठ के विषय में हम सब जानते हैं। प्राचीन काल के राजाओं के हठ से हम में से कोई अंजान नहीं। रावण, दुर्योधन, कंस आदि के हठ के कारण देश का इतना नुकसान हुआ जिसका भुगतान अभी तक हम सब कर रहे हैं। हिटलर व औरंगजेब के कारनामे आज भी इतिहास के पन्नों में मिल जाएँगे। ये नाम तो मात्र केवल प्रतीक रूप हैं। और भी बहुत से राजा हुए जिनके हठ के कारण अनर्थ हुए।
        आज राजा तो नहीं रहे पर राज्य चलाने वाले सत्ताधीश तो विद्यमान हैं ही। उनके हठ से हम सभी परिचित हैं। रूस, अमेरिका, इजरायल,  ईराक,  ईरान, चीन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि देशों को भी इस श्रेणी में रख सकते हैं जिनके हठ से हम भली-भाँति परिचित हैं।
         त्रिया हठ किसी से छुपा नहीं है। यदि भगवती सीता स्वर्ण मृग लाने की जिद न करती तो शायद रामायण का युद्ध न होता। ऐसे ही द्रौपदी यदि हठ न करती तो शायद महाभारत का युद्ध टल जाता और वह विनाश न होता जिसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास के पन्नों में दफन हुए हैं जिन्हें हम खोजकर पढ़ सकते हैं।
        वैसे तो घर-परिवार में भी त्रियाहठ के उदाहरण यत्र-तत्र मिल जाते हैं। जिस घर में स्त्री का हठ प्रबल हो जाता है वह घर कभी खुशहाल नहीं रह सकता। और जिस घर में पुरुष अपने मुखिया होने के अहसास के कारण हठ करता है वहाँ पर सुख-शांति कभी नहीं रहती। दोनों ही स्थितियों में घर-परिवार टूटने के कगार पर आ जाता है।
         माता-पिता, भाई-बहन एवं बच्चों में परस्पर मनमुटाव हो जाता है। रिश्तों में अनचाहे खटास आ जाती है। यदि पति-पत्नी में से कोई भी एक अपने हठ पर अड़ा रहे तो घर टूट जाते हैं। जिसकी परिणति तलाक से होती है। उसका दण्ड उनके निर्दोष बच्चे भुगतते हैं जो बेचारे इस सब से बेखबर होते हैं।
        बालहठ से तो हम सबका प्रतिदिन ही सामना होता है। आज माता-पिता ही बच्चों को हठी बना रहे हैं। यही बच्चे बड़े होने पर जब अपनी जायज-नाजायज जिद मनवाते हैं तो माता-पिता अपनी गलती न मानकर उन्हें भला-बुरा कहते हैं, दोष देते हैं और अपने भाग्य को कोसते हैं। उस समय जब बच्चे हाथ से निकल जाते हैं तब पश्चाताप करने का कोई लाभ नहीं होता। उल्टा वे स्वयं की ही हानि करते हैं।
       ऐसे जिद्दी बच्चे जहाँ कहीं भी जाते हैं एक नई मुसीबत खड़ी कर देते हैं। आस-पड़ोस, विद्यालय हर स्थान से उनकी शिकायतें ही माता-पिता को सुननी पड़ती हैं। कोई मित्र या संबंधी ऐसे बच्चों को अपने घर में पसंद नहीं करता। सामने मुँह पर लोग कुछ नहीं भी कहेंगे पर पीठ पीछे ऐसे माता-पिता की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने बच्चे को अच्छे संस्कार नहीं दिए।
      बालहठ जब परवान चढ़ता है तो बड़े-से-बड़े साम्राज्य तक को हिलाकर रख देता है।
       जहाँ तक हो सके इस जिद या हठ से किनारा ही किया जाना चाहिए। इस जिद ने बहुत कुछ की बलि ली है। अपने व अपनों को सुख-शांति से जीवन व्यतीत कराने के लिए इससे बचना श्रेयस्कर है।