शनिवार, 30 मई 2015

उन्मुक्त गगन में उड़ने वाले

उन्मुक्त गगन में उड़ने वाले
बादलों से परे जा नील गगन को
बारबार छूने की होड़ करते मेरे अंतस
तुम अब ऐसे निश्चेष्ट और उदास से बैठे हो

तुम्हारे स्वर्णिम पंखों पर
बहुत गर्व था अब तक मुझको
लगता है वे कतर दिए गए हैं शायद
तुम्हारी उड़ान पर प्रतिबंध लगाने के लिए

हो सकता है उन लोगों को
न भाया हो स्वचछंद विचरण
तुम्हारे नयेपन का अदम्य साहस
इसीलिए तुम्हें जकड़ना चाहते हैं बेड़ियों में

कभी परिवार का वास्ता
तो कभी समाज का भय दिखा
और कभी धर्म की रूढ़ियों में बांध
वे तुम्हें सदा जीवन में मात देते जा रहे हैं

तुम ऐसे नादान हो कि
उनके बुने जाल में फंसते
छटपटा रहे हो अनवरत ही
यह मकड़जाल न जीने देगा तुम्हें पलभर

तोड़कर इन खोखले
बंधनों की जंजीरों को तुम
अपना मानस तैयार कर लो
एक नयी सुबह अब आने को मचल रही है

बाहें पसार करके
उसके स्वागत की करो
तैयारियाँ बहुत जोश व होश से
न बहका सके कोई तुम्हारे मानस को अब।

शुक्रवार, 29 मई 2015

चिन्ता

चिन्ता को चिता के समान कहते हैं। चिता पर रखा शरीर एक बार जलकर नष्ट हो जाता है पर यह चिन्ता पल-पल मनुष्य को जलाती है। नराभरण ग्रन्थ कहता है-
        चिन्तायाश्च चितायाश्च बिन्दुमात्रं विशेषत:।
        चिता दहति निर्जीवं चिन्ता जीवन्तमप्यहो॥
अर्थात चिन्ता और चिता में केवल बिन्दु का अंतर है परन्तु चिता निर्जीव को जलाती है और चिन्ता जीवित को।
         हम सब जानते हैं कि चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं होता। इसके समान शरीर को सुखाने वाली और कोई वस्तु नहीं है। होनी तो होकर ही रहती है और हमारे कहने से वह टलने वाली भी नहीं है।
            फिर भी यह इंसानी कमजोरी है जो हरपल मनुष्य को घेर कर रखती है। उसका सुख-चैन सब हर लेती है। यद्यपि घर-परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति चिन्तित रहना उनके परस्पर प्रेम का परिचायक है। तथापि अनावश्यक चिन्ता कभी-कभी अकारण ही विवाद का रूप ले लेती है। आजकल बच्चे-बड़े सभी इसे अपने कार्यों में दखलअंदाजी समझते हैं। वे सोचते हैं कि हम समझदार हो गए हैं फिर हम किसी के प्रति जवाबदेह क्यों?
        पद्मपुराण का कहना है कि कुटुम्ब की चिन्ता से ग्रसित व्यक्ति के श्रुत ज्ञान, शील और गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार कच्चे घड़े में रखा हुआ जल।
         चिन्ता के कई कारण हैं- बच्चों की पढ़ाई, उनका सेटल होना, शादी, स्वास्थ्य, किसी सदस्य का घर देर से आना, पड़ोसी की समृद्धि या उनके घर कोई नई वस्तु का आना, धन-समृद्धि की कमी अथवा घर में खटपट रहना आदि।
           हमारे नेताओं को देखिए जिन्हें देश की बहुत चिन्ता रहती है और उस चिन्ता में घुलते हुए वे दिन प्रतिदिन दुबले होते जा रहे हैं। व्यवसायियों को हमेशा कर्मचारियों और हर प्रकार के टैक्स की चिन्ता रहती है जो स्वाभाविक भी है।
        भूतकाल में जो हो चुका है उसे छोड़ देना चाहिए। उससे शिक्षा अवश्य लेनी चाहिए पर उसको पकड़कर घुलते रहना या चिन्ता करना बुद्धिमानी नहीं कहलाती।
          इसी प्रकार भविष्य के गर्भ में क्या है? कोई भी सांसारिक व्यक्ति नहीं जानता। इसलिए उसे ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। नाहक चिन्ता करके सभी परिजनों को कभी व्यथित नहीं करना चाहिए। अत: भविष्य में आने वाले संभावित अनिष्टों की चिन्ता करने वालों की शांति भंग हो जाती है।
         बस केवल उसी के विषय में विचार कीजिए जो हमारे सामने प्रत्यक्ष विद्यमान है। वर्तमान की तथाकथित चिन्ता ही बहुत है संतप्त रहने के लिए।
         मनुष्य को नदी की तरह गंभीर होना चाहिए। नदी को पार करने में जो मनुष्य लगा हुआ है वह जल की गहराई की चिन्ता कभी नहीं करता। उसी तरह जिस व्यक्ति का चित्त स्थिर है वह इस संसार सागर के नाना विध कष्टों का सामना करने पर भी उनसे नहीं घबराता। उनका दृढ़ता पूर्वक सामना करता है।
         यह सिद्धांत हमेशा स्मरण रखिए कि समय से पहले और भाग्य से अधिक न किसी को मिला है और न ही मिलेगा। फिर हमारे कर्म प्रधान हैं जो हमें सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख एवं समृद्धि देते हैं। तो फिर चिन्ता करके बदहाल क्यों होना?
       अपनी सारी चिन्ताएँ उस जगत जननी माता के हवाले करके निश्चिंत हो जाइए जैसे बच्चे अपनी माता से अपने दुख बाँट कर चैन की नींद सो जाते हैं। शेष ईश्वर सब शुभ करेगा।
       

गुरुवार, 28 मई 2015

शब्द ब्रह्म

भारतीय विद्वान शब्द को ब्रह्म यानि ईश्वर का रूप कहते हैं। इससे भी अधिक बढ़कर ब्रह्मविद्योपनिषद का कथन है- 'जिस शब्द में लय होती है वह परब्रह्म कहलाता है।'
         शब्द संस्कार होता है जिसकी अपनी एक पहचान होती है। हमें यत्न यही करना चाहिए कि शब्द का उच्चारण शुद्ध किया जाए। इस बात को हम इस प्रकार कह भी सकते हैं कि शब्द का अशुद्ध उच्चारण सीधा-सीधा ईश्वर का अपमान है।
          शब्द को नाद भी कहते हैं जिसका ब्रह्म की तरह कोई आकार नहीं होता वह भी उसकी तरह सर्वत्र व्यापक होता है। उस ध्वनि में व्यवधान पैदा करने का अर्थ होता है वायुमण्डल की तंरगों को दूषित करना। यहाँ संगीत के सुरों की चर्चा कर सकते हैं जिनके साथ यदि छेड़छाड़ की जाए तो वे बेसुरा राग अलापते हैं। वे इतने कर्णकटु लगते हैं कि हम उन्हें वहीं रोक देने के लिए शोर मचा देते हैं।
        इसी प्रकार भौतिक संसाधन टीवी, फ्रिज, किसी भी तरह की कोई गाड़ी, कोई भी मोटर आदि यदि स्वर यन्त्र की खराबी से भयानक शब्द करने लगें तो हम अनमने से हो जाते हैं और उसे वहीं बंद करके सुधारने का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार कनफोड़ू संगीत भी हमारी सहनशक्ति को झकझोर देता है। जब तक वह बंद नहीं हो जाता या हम उससे दूर नहीं चले जाते बेचैन रहते हैं। यहाँ तो हम उनके सुधार का उपाय कर सकते हैं पर प्रदूषित वातावरण का सुधार तो नहीं कर सकते। मात्र भाषण देकर हम औपचारिकता का निर्वहण कर लेते हैं फिर बस अपना कार्य समाप्त हो गया समझ लेते हैं।
         सत्य यही है कि ब्रह्माण्ड में शब्द विचरण हमेशा करते रहते हैं। शब्दों का शुद्ध उच्चारण वातावरण को शुद्ध रखता है और अशुद्ध उच्चारण उसे प्रदूषित करता है। जिससे निश्चित ही हम सबकी अपनी हानि होती है।
        शब्द का अशुद्ध उच्चारण यदि किया जाता है तो वह कर्णकटु हो जाता है अथवा कानों को चुभता है। हम भारतीय वैसे भी मानते हैँ कि यदि मन्त्र का उच्चारण अशुद्ध किया जाए तो वह सुफल देने के स्थान पर विनाश तक कर देता है।
        शब्द चमत्कार से भरा होता है। यह भावना को मूर्तरूप देकर साकार करता है। बोलते समय उचित शब्द का चयन करना भी किसी साधना से कम नहीं है। गलत शब्द का प्रयोग दूसरे को मानसिक आघात व पीड़ा दे सकता है। इस प्रकार इसकी बड़ी ही विचित्र महिमा है। अर्थवान शब्द की अपार शक्ति होती है। इसी प्रकार अशुद्ध बोलते हैं तो अशुद्ध ही लिखते हैं। कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है और लेने के देने पड़ जाते हैं।
        एक उदाहरण देखते हैं। मान लो हमने किसी को जाने से रोकना है तो हम कहेंगे- 'रुको, मत जाओ।' परन्तु हमने कह दिया- 'रुको मत, जाओ।' तो हो गया झगड़ा। हमने उन्हें रोकने के बजाय जाने के लिए कह दिया।महाकवि कालिदास विवाह से पूर्व महामूर्ख थे। विवाह के उपरांत जब दोनों पति-पत्नी एक कमरे में बैठे थे तो ऊँट की आवाज सुनकर उन्होंने उष्ट्र के स्थान पर उट्र कहा तो उनकी विदुषी पत्नी ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था।
         इस प्रकार हमारी छोटी-सी गलती के कारण बहुधा अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जब हमें न चाहते हुए भी मुँह छुपाना पड़ जाता है। कभी किसी के सामने झेंपना न पड़े इसीलिए शायद 'पहले तोलो फिर बोलो' उक्ति का प्रचलन हुआ होगा।
        आजकल प्रचलन होता जा रहा है यह कहने का कि मैंने ऐसा नहीं कहा था पर मेरी बात को गलत समझ लिया गया। हम हर दूसरे दिन टीवी पर देखते हैं या फिर समाचार पत्र में पढ़ते हैं। यह सब इसी दोषपूर्ण बोलचाल का परिणाम है। बाद में हमे अपने पक्ष में सफाई देते फिरते हैं या क्षमा याचना करते रहते हैं।
          वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि शब्द सौरमंडल में विचरण करते रहते हैं। हमें अपने शब्दों का प्रयोग नापतोल कर करना चाहिए। यथासंभव शब्द का शुद्ध उच्चारण करके वातावरण को दूषित होने से बचाना चाहिए।
     
     

बुधवार, 27 मई 2015

माला

ईश्वर की आराधना या जाप करने के लिए हम एक सौ आठ मनकों की माला अपने हाथ से फेरते हैं। जाप करने के लिए माला रूद्राक्ष, तुलसी, स्फटिक या ऊन से बनी हुई कोई भी हो सकती है।
        कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर हमें गिनकर नेमते नहीं देता तो उसका नाम हमें गिनकर नहीँ लेना चाहिए। मैं भी मानती हूँ कि गिनकर जाप नहीं करना चाहिए। आप उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते हुए दिन-रात मालिक का स्मरण कीजिए। पर नियम का पालन भी आवश्यक है।
          प्रत्येक ज्योतिर्विद अथवा तान्त्रिक जब भी किसी कष्ट को दूर करने का उपाय बताते हैं तो एक माला से लेकर सवा लाख माला तक का जाप प्रायः बताते हैं। इसके अपवाद स्वरूप कभी-कभी इससे अधिक भी बता देते हैं।
          भारतीय विद्वानों का मानना है कि जाप करते समय जपसरिणी का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। माला में एक मनका जो गाँठ लगा हुआ होता है उसके ऊपर एक फुम्मन सा बना होता है उसे जप सरिणी कहते हैं। इसका यह अर्थ होता है कि यह 108वाँ मनका है। वहीं से माला को घुमा दिया जाता है और वह आखिरी मनका नम्बर एक हो जाता है।
         अपने विचार मैं आप सुधीजनों के समक्ष रखते हुए इतना ही कहना चाहती हूँ कि हम सांसारिक लोग हैं। दिनभर हम दुनिया के पचासों पचड़ों में फंसे रहते हैं। अत: उनका प्रभाव हमारे मन एवं मस्तिष्क पर पड़ता है। ईश्वर का स्मरण करते समय भी वे हमें परेशान करते हैं। इस दुनिया में जिसने हमें भेजा है उस मालिक का नित्य ही स्मरण करना हमारा दायित्व है।
         कबीरदास ने कहा था-
माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि के मन का मनका फेर।
इस दोहे के माध्यम से वे कह रहे हैं कि वर्षों माला फेरते रहे पर मन हेराफेरी करता रहता है।
       इसलिए हाथ के पकड़े मनके को छोड़कर हमारे अंतस में निरन्तर चलने वाली माला को फेरो। अर्थात अपने श्वासों की माला पर ध्यान लगाकर मन को साधकर प्रभु का ध्यान करना चाहिए।
         यदि हम बिना माला के एक घंटे के लिए जाप करने की सोचेंगे तो मेरा मानना है यह संभव नहीं हो पाएगा। अभी हम इतने बड़े तपस्वी नहीं हैं कि एक घंटे के समय के जाप करने के नियम का पालन कर सकें। हर थोड़ी बाद घड़ी देखने से मन नहीं रमेगा। यदि एक घंटे का हम अलार्म लगाएँगे तो ध्यान इसी में रहेगा कि शायद अभी घंटा नहीं हुआ, अलार्म नहीं बोल रहा आदि। इसके अतिरिक्त जाप कहीं और छूट जाएगा और हम सपनों में कहीं खो जाएँगे या दुनिया के व्यवहारों में भटक जाएँगे। इसलिए माला से जाप करने के उपरान्त जितना चाहे और भी जाप कर सकते हैं इस प्रकार बिना गिनती का जाप करना भी संभव हो सकेगा
          इसलिए मन लगे या न लगे अपना नियम अवश्य निभाना चाहिए। मन को साधने में तो बड़े- बड़े ऋषि-मुनियों को भी बरसों लग जाते हैं। हम लोग साधारण मनुष्य हैं। नियमपूर्वक जो भी कार्य किया जाता है धीरे- धीरे उसमें मन रमने लगता है। उसी की कड़ी है माला से जाप करना। यदि हाथ में माला होती है तो भटकते हुए मन को मोड़ना सरल हो जाता है।
         सभी लोग अपनी सुविधा एवं निमय के अनुसार ईश्वर की आराधना करने में स्वतन्त्र हैं। किसी पर भी किसी को कोई जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। मेरे मन में कुछ विचार आए थे इसलिए उन्हें आपके साथ साझा किया है।

मंगलवार, 26 मई 2015

जप

निराकार या साकार जिस भी इष्ट का नाम स्मरण करने के लिए आप जो आराधना करते हैं उसे जप करना कहते हैं । इस संसार में उसने हमें अपनी उपासना करने के लिए अवतरित किया है।
        जपयोग की साधना से धीरे-धीरे मन स्थिर होने लगता है। यदि किसी विशेष मन्त्र के जप का प्रावधान न किया हो तो 'ऊँ' का जप कर सकते हैं जो निरापद व सर्वश्रेष्ठ है।
जप के प्रकार-
1. वाचिक(वैखरी) जप- वाचिक जप में मन्त्र का उच्चारण कितनी भी जोर से कर सकते हैं। इससे प्रारम्भिक अवस्था में चंचल मन को व्यवस्थित करने में सहायता मिलती है। मन को स्थिर करने के लिए सामूहिक वैखरी जप भी बहुत प्रभावशाली होता है।
2.  उपांशु जप-  मन्त्र को फुसफुसाते हुए उपांशु जप किया जाता है। इसमें होंठ हिलते हैं पर ध्वनि नहीं होती। यह जप किसी अन्य को सुनाई नहीं देता पर स्वयं जपकर्त्ता इसे सुन सकता है। यह जप मानसिक जप की श्रेणी में आता है। जिस स्थान पर शोर अधिक हो वहाँ इस जप से मन को स्थिर किया जा सकता है।
3. मानसिक जप- यह जप मन में मौन रहकर किया जाता है। इसमें न ध्वनि होती है और न ही होंठ हिलते हैं। इस जप को करने से शब्द नहीं होता। उसकी आवाज स्वयं को भी नहीं सुनाई देती। जिसका मन स्थिर हो जाता है वह इस जप को करते हैं। इस जप से आत्म साक्षात्कार तक पहुँच सकते हैं।
4.  लिखित जप- लाल, नीली या हरी किसी भी स्याही का प्रयोग करके एक निश्चित संख्या में मन्त्र लिखा जाता है। जहाँ तक संभव हो अक्षर छोटे व सुन्दर तरीके से लिखने चाहिएँ। लिखित जप के साथ-साथ मानसिक जप भी करना चाहिए।
5. तालव्य जप-  कुछ विद्वान मानते हैं कि तालु के साथ जीभ को मोड़कर लगाकर फिर जप करना चाहिए। यह भी मानसिक जप ही होता है और इससे भी मन स्थिर रहता है।
       जप करते समय दो बातों का विशेष रूप से ध्यान देना होता है- पहला है मन्त्र का शुद्ध उच्चारण करना। दूसरा जप के साथ एक-एक मनका सरकाना। ये कार्य चेतना को विकसित करने और स्थिर करने के लिए आवश्यक हैं। कुछ समय पश्चात अपने अंतस में ही एक लय और ताल का अनुभव होता है। सोते समय यदि जप किया जाए तो विचारों की अधिकता बाधक बनती है तब मन्त्र व माला दोनों रुक जाते है और तालमेल बाधित हो जाता है।
        जो लोग हमेशा शंकालु, परेशान या बेचैन रहते हैं उन्हें जपयोग से लाभ होता है। जप को कहीं भी कभी भी किया जा सकता है।  
          किसी निश्चित समय पर किया गया नियम पूर्वक जप लाभदायक होता है। भीड़ में या शोर वाले स्थान पर जप करते समय माला का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
         विद्वानों का मानना हैं कि जप करते समय जपसरिणी का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यदि मन व्यग्र हो तो जप का लाभ नहीं मिल पाता कहा गया है-   
              'व्यघ्रचित्तो हतो जप:'
अर्थात चित्त की व्यग्रता से जप बेकार हो जाता है।
       अजपा जाप क्रियायोग का आधार है। इसमें कुशलता प्राप्त करने के लिए साधक को प्रत्याहार, धारणा और एकाग्रता की आवश्यकता होती है। इस जप में पूर्णता प्राप्त करने वाले के संस्कारों का क्षय हो जाता है। तब मन पूर्णरूप से एकाग्र होने लगता है। यह ध्यान योग की सीढ़ी है।
       जप करते समय सुविधाजनक आसन में बैठना चाहिए। यदि बैठना संभव न हो तो सीधे लेटकर शवासन में जप करना चाहिए।

सोमवार, 25 मई 2015

योगदर्शन

योग हमारे ऋषि-मुनियों के द्वारा दी गई एक अमूल्य देन है। योग अपने आप में एक समूचा दर्शन है। आजकल कुछ लोग इसे उछल कूद करने का माध्यम समझ रहे हैं जो उचित नहीं है। टीवी के सामने खड़े होकर या सीडी देखकर हाथ-पैरों को हिला लेना मात्र योग बन गया है। जिसको आज ये आधुनिक लोग योगा की संज्ञा देते हैं वास्तव में वह योग नहीं है वे योगासन कहलाते हैं।
          योग एक बहुत गंभीर विषय है। इसकी अनुपालना करना इतना सरल कार्य नहीं है। महर्षि पातंजलि ने योगशास्त्र में योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्रणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठों का पालन करते हुए मनुष्य समाधि के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करता है। इनमें पहले पाँच अंगों को बहिरंग कहते हैं और अंतिम तीन को अंतरंग। इन आठ अंगो के कारण ही इसे अष्टांगयोग कहते हैं।
        मनुष्य का सारा जीवन व्यतीत हो जाता है यम और नियम का पालन करते हुए पर उनकी पूर्ण रूप से अनुपालना नहीं कर पाते। जिस प्रकार नींव के बिना यदि घर बनाया जाए तो वह बहुत दिन तक टिक नहीं रह सकता उसी प्रकार यम और नियम के बिना समिध तक पहुँच पाना असंभव होता है। योग की पहली सीढ़ी यम हैं इसके पालन के बिना नियम की अनुपालना नहीं हो सकती। इन दोनों के पालन से अंत:करण पवित्र होता है। इनके पालन के बिना प्राणायाम भली-भाँति होना कठिन है। अब इन अंगों की संक्षिप्त जानकारी लेते हैं -
1. यम- महर्षि पातंलि योगदर्शन में कहते हैं-
    अहिंसासत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:
अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह न करना) ये पाँच यम हैं। मन, वचन व कर्म से इनका पालन करना चाहिए। सारा जीवन ईमानदार कोशिश करने पर भी इनका पालन असंभव-सा है।
2. नियम- योगशास्त्र के अनुसार नियम हैं-
शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्चप्रणिधानानि नियमा:।
      अर्थात शौच(तन और मन की स्वच्छता), संतोष, तप, स्वाध्याय और प्रणिधान (सर्वस्व ईश्वर को अर्पित करना)। पाँचों नियमों का पालन इन पाँचों यमों के साथ-साथ ही करना होता है।
3. आसन- योगाभ्यास करते समय उपयुक्त आसन का चुनाव करके बैठना चाहिए। साधक प्रायः पद्मासन में ही बैठते हैं। आसन में बैठते समय तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- 1. मेरुदंड, ग्रीवा और मस्तक को बिल्कुल सीधा रखना चाहिए। 2. नासिकाग्र पर या भृकुटि में दृष्टि रखनी चाहिए। 3. यदि आलस्य न सताए तो आँखें मूँदकर बैठ सकते हैं। इस प्रकार योगाभ्यास किया जाता है।
4. प्राणायाम- श्वास के आरोह व अवरोह का निरोध करना प्राणायाम कहलाता है। इसी बात को योगशास्त्र कहता है-
    तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:      प्राणायाम:।
देश, काल और संख्या के संबंध से बाह्य (कुम्भक), आभ्यन्तर(रेचक) और स्तम्भन वृत्ति(रोकना) वाले तीनों प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते हैं। प्राणायाम सिद्ध होने पर विवेक को कुंठित करने वाले अज्ञान का नाश होता है और मन स्थिर होता है।
5. प्रत्याहार- अपने-अपने विषय के संयोग से हट जाने और इन्द्रियों का चित्त के रूप में अवस्थित होना प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं और साधक बाह्य ज्ञान से दूर होता जाता है।
6. धारणा- योगशास्त्र कहता है- 
           देशबन्धश्चित्तस्य धारणा
अर्थात चित्त को किसी भी एक ध्येय स्थान पर स्थित करने को धारणा कहते हैं।
7.  ध्यान- ध्यान के विषय में योगशास्त्र ने कहा है-  तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।
अर्थात ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता को ध्यान कहते हैं।
8. समाधि- एकाग्र ध्यान धीरे-धीरे समाधि की ओर प्रवृत्त करता है। तब ध्याता, ध्यान और ध्येय एक हो जाते हैं।
       स्थूल पदार्थ में समाधि 'निर्वितर्क' कहलाती है और सूक्ष्म में समाधि 'निर्विचार' कहलाती है। यही समाधि ईश्वर विषयक होने से मुक्ति प्रदान करती है।
       इस संक्षिप्त विवेचन से यह समझ आता है कि योग एक बहुत ही गहन विषय है। इसके प्ररंभिक अंगों यम और नियम का पालन आजीवन करना होता है। यह योग मनुष्य के मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। इसकी अनुपालना करके ही जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिलती है।

रविवार, 24 मई 2015

नदी की चाहत

माँ धरती ने और पर्वत ने
बहुत समझाया था नदी को
कि हठ छोड़ दे वह अपना
जिद न करे सागर को पाने की

पर नदी है कि सबसे दूर
दीन-दुनिया को भुला कर
बेखबर भागती जा रही है
अपने मनमीत सागर से मिलने

होश नहीं है उसको अपना
और न ही इस जहान का
निर्लज्ज-सी बनती हुई औ
अपने होशो-हवास खोती हुई

पत्थरों-चट्टानों से ठोकरें खाती
बांधों से रोकी जाती हुई वह
गंदे नालों व कूड़े-करकट से
सतायी जाती हुई बार-बार वह

आंधी, तूफानों और बारिशों के
प्रहारों को झेलते हुए निशि-दिन
बिना थके बिना इधर-उधर देखे
अपने प्राणों की परवाह किए बिना

आराम की चिन्ता से कोसों दूर
अनवरत द्रुतगति से भागती हुई
पता नहीं कितने दिनों या वर्षों की
लम्बी यात्रा कर और फिर न जाने

कितनी असह्य दूरियाँ पार कर
पहुँच रही है अब सागर के पास
वह जानती है इस बात को भी
सागर में एकाकार होने से तो

उसका अस्तित्व मिट जाएगा
उसकी पहचान गुम हो जाएगी
उसका मीठा पानी खारा हो
पीने लायक भी नहीं रह जाएगा

पर पता नहीं कैसा जुनून है
यह कैसी चाहत है उसकी
जिसने उसके जीवन का
सारा सुख-चैन ही छीन लिया है

सब बलिदानों का मात्र केवल
एक ही परिणाम है यह
सागर की टूटकर चाहत करना
ओर बस सिर्फ उसके बारे में सोचना

फिर उसको बस पा लेने का
भूत सवार सिर पर हो जाना
अंत में उसको पाकर उसमें
लीन हो जाना ही लगता है शायद

उसके जीवन का यह एक
सुनहरा सपना-सा ही तो है
जिसे पाना उसने अपना लक्ष्य
बना मनचाहा वरदान पा लिया है

कुछ भी मुश्किल नहीं है पाना
यदि ठान लो अपने मन में तो
सब रास्ते बनते जाएँगे आप ही
थोड़े कष्टों के बाद में ही तो आखिर

नदी की तरह इस संसार में
मंजिल मिल ही जाती है सबको
नहीं शक कि यत्न करने वालों की
इस जग में कभी भी हार नहीं होती है।

शनिवार, 23 मई 2015

किससे माँगे

आज यदि इस बात पर चर्चा करें कि हम किससे माँगे तो आप सब शायद मुझे पागल कहेंगे। यही कहना चाहेंगे कि हमें पास सब कुछ है तो हमें किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं है। हमारे बड़े-बजुर्ग कहा करते थे- 'सौ दाँदिए को भी एक दाँदिए की जरुरत पड़ जाती है।'
अर्थात कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिसके पास सौ बैल हैं ऐसे समृद्ध व्यक्ति को भी एक बैल वाले से उसका बैल उधार माँगना पड़ जाता है।
       हम सब दुनिया की हर वस्तु पाना चाहते हैं। उसके लिए जी तोड़ परिश्रम भी करते हैं। जब हम अपना मनचाहा प्राप्त कर लेते हैं तब हमारी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता। हमें ऐसा लगता है कि हमसे अधिक भाग्यशाली और दुनिया में कोई नहीं है।
         इसके विपरीत यदि हम अपनी कामना की पूर्ति में असफल हो जाते हैं तब थक हारकर उदास हो जाते हैं। उस समय हमें ऐसा लगने लगता है कि हमारे जैसा बदकिस्मत कोई और इंसान नहीं है। हम निराशा के गर्त में डूबने लगते हैं। ऐसी स्थिति में हम ईश्वर को दोष देते हैं। उसे कोसते हैं कि वह हमें खुशियाँ नहीं देना चाहता। पता नहीं किस जन्म का बदला हमसे ले रहा है।
        विचार करने योग्य बात यह है कि वह प्रभु बहुत ही न्यायकारी है। किसी के भी साथ अन्याय नहीं करता। हमारे इस जन्म और पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार देर-सवेर हमें अवश्य दे देता है। इसलिए कहते हैं-
        'उसके घर में देर है अंधेर नहीं।'
        हमारे समक्ष प्रश्न यह उठता है कि हम अपनी कामनाओं की पूर्ति करने के लिए किससे माँगे? यदि सासांरिक रिश्ते-नातों से माँगेंगे तो वे अपनी सामर्थ्य के अनुसार एकाध बार हमारी सहायता करेंगे। हर इंसान की अपनी सीमाएँ होती हैं। उन्हीं सीमाओं में रहकर ही वह सहायता कर सकता है। यहाँ भी भेदभाव देख सकते हैं।
        जिससे उन्हें भविष्य में कुछ पाने की आशा होती है उनकी सहायता अगणित बार कर सकते हैं। वैसे जिनसे उनको स्वार्थ सिद्ध होने की उम्मीद नहीं होती उसकी एक बार ही सहायता करके न जाने कितनी बार अहसान जताएँगे। यदि व्याज पर पैसा उठाने की सोचें तो पूरा जीवन उसे चुकाने में बीत जाता है।
           बैंकों से यदि सहायता लेने की सोचेंगे तो वहाँ भी सरलता से काम नहीं होते। वहाँ भी सौ अड़ंगे लगाए जाते हैं। वे भी उन्हीं लोगों के पुनः पुनः सहायक बनते हैं जहाँ से कुछ प्राप्ति होती है। चाहे वे उनका दिया हुआ पैसा लौटाए या नहीं।
         आम आदमी के तो नाक में दम कर देते हैं। उन्हें तो दो-चार हजार रुपयों के लिए भी अदालत में घसीटेंगे, उनके घर नीलाम कर देंगे, गाड़ी उठाकर ले जाएँगे। परन्तु करोड़ों रुपयों का उनका बकाया न चुकाने वालों की जी हजूरी करते हैं क्योंकि उनसे लाभ लेने होते हैं।
         इसलिए मेरे विचार में माँगना है तो जगत के पिता उस परमात्मा से माँगो जो बिना कहे ही हमारी झोलियाँ अपनी नेमतों से भरता रहता है। वह निस्वार्थ भाव से अपने खजाने हम सब पर लुटाता है। कभी भी किसी पर अपना अहसान नहीं जताता। न ही वह सांसारिक लोगों की तरह दुनिया में जगह-जगह गाता फिरता है कि मैंने अमुक व्यक्ति की सहायता की है। देखो मैं कितना महान हूँ?
         वह चुपके से हमारी कामनाओं को पूर्ण करने के लिए हमारी सहायता कर देता है या कोई ऐसा माध्यम बना देता है कि बिना कष्ट के हमारा कार्य हो जाता है और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं लगती।
          मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि माँगना है तो उसी मालिक से माँगो जो देकर पछताता नहीं है। हम एक कदम उसकी ओर बढ़ाते हैं तो वह हमारी सहायता करने में में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। वही हमारा सच्चा बन्धु है उसी का पल्लू पकड़ लो तो फिर उद्धार हो जाएगा।