मंगलवार, 30 जून 2015

ईश्वर समदर्शी

ईश्वर समदर्शी है। उसकी दृष्टि में सभी जीव एक समान हैं। वह किसी भी जीव के साथ पक्षपात नहीं करता। यह तो हम इंसान हैं जो पक्षपात किए बिना मानते ही नहीं हैं। यह लोकोक्ति शायद इसीलिए कही गई है-
'अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे।'
अर्थात अंधे को रेवड़ियाँ बाँटने को दे दी तो वह बार-बार अपनों को ही देने लगा।
           यह कोई हंसने वाली बात नहीं है। इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। कमोबेश हम सभी की  यही स्थिति है। हमें अपने से बढ़कर कुछ दिखाई ही नहीं देता। मैं, मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा परिवार- बस यहीं तक हमारी दुनिया सीमित है। इन्हीं के लिए हम जीते हैं, इन्हीं के लिए हम सोचते हैं और इन्हीं सबके लिए संसार के अच्छे-बुरे सारे कारोबार करते हैं। हम कूप मण्डूक यानि कुँए के मेंडक की तरह हैं जो उसी कुँए को अपना संसार मान लेता है जहाँ वह रहता है। वहीं पर वह खुश रहता है। उससे बाहर निकलने के विषय में वह सोच ही नहीं पाता। उसे बाहरी दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता।
         मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जाता है। उसमें ईश्वरीय गुण अपनाने की भरपूर क्षमता है पर वह उन्हें अपनाना नहीं चाहता। वह तो स्वार्थ और मोह के कारण अंधा हो जाता है। अपने पैदा किए हुए बच्चों के साथ भी वह समानता का व्यवहार नहीं कर पाता। कोई बच्चा उसे अधिक प्रिय होता है और किसी की वह शक्ल भी नहीं देखना चाहता। कभी बेटे के मोह में अपनी बेटी के साथ अन्याय कर बैठता है तो कभी झूठे अहम के कारण आपसी सामंजस्य नहीं बिठा पाता। दूसरों का हक छीनते, उनका गला काटते, भ्रष्टाचार में लिप्त होते, अनाचार-अत्याचार करते हुए न उसका दिल काँपता है और न पसीजता है। न उसके मन में समाज का डर होता है और न ईश्वर का।
           अन्तिम अवस्था में चाहे उसे अपने दुष्कर्मों पर पछतावा करना पड़े क्योंकि जिनके लिए वह सब स्याह-सफेद करता है वही प्रियजन उसका साथ नहीं निभाते। समय बीतते वह अकेला हो जाता है और उसके मन को क्लेश होता है।
         उसने छुआ-छात, जात-पात, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि की दीवारें खड़ी कर दी हैं। वह स्वयं नहीं जानता कि कुछ समय के लिए मिले इस मानव जीवन को वृथा गंवाकर अंतकाल में उसे पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलेगा।
        परमात्मा का अंश यह मनुष्य जब संसार में आता है तो उस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे गहन अंधकार से मुक्ति दो। मैं दुनिया की चकाचौंध में न फंसकर तेरा ध्यान करूँगा। शायद दुनिया की हवा ही कुछ ऐसी है कि जिसके लगते ही वह अपने वचन भूल जाता है। तब दुनिया के आकर्षणों से घिरा वह प्राथमिकताओं से विमुख हो जाता है। फिर वह न तो सम रह पाता है और न समदर्शी।
         यदि मनुष्य ईश्वर की भाँति समदर्शी बन जाए तो सभी जीवों यानि पानी में रहने वाले जीवों ( जलचर), आकाश में उड़ने वाले जीवों (खेचर) तथा पृथ्वी पर रहने वाले जीवों (भूचर) के साथ एक जैसा व्यवहार करेगा। किसी को मारकर खा जाने या हानि पहुँचाने के विषय में सोचेगा ही नहीं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वह अपने लिए चाहता है। सब जीव उसके लिए अपने जैसे ही हो जाएँगे। यदि मानव ऐसा सब कर सके तो वास्तव में समदर्शी बन सकता है।

सोमवार, 29 जून 2015

दुविधा की स्थिति

जीवन में बहुधा दुविधा के ऐसे पलों से हमें दो-चार होना पड़ता हैं तब लगता है कि हमारी सोचने-समझने की शक्ति साथ नहीं निभा रही। उस समय समझ में नहीं आता कि हम क्या करें और क्या न करें?
         प्रतिदिन के जीवन का एक उदाहरण लेते हैं। प्रायः हम सभी नौकरी, व्यापार, पढ़ाई आदि के लिए प्रतिदिन यात्रा करते हैं अथवा घर के आसपास बाजार आदि में खरीददारी के लिए जाते हैं या फिर किसी से मिलने जाते हैं। हमें स्थान-स्थान पर चौराहे दिखाई देते हैं। यदि हमें रास्ते की सही जानकारी होती है तो हम ठीक मार्ग का चुनाव करके अपने गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं।
         इसके विपरीत यदि उचित मार्ग ज्ञात न हो तो हम वहाँ सड़क के किनारे खड़े नहीं रहते और न ही वापिस लौटकर आते हैं। उस समय उचित मार्गदर्शन के लिए उस स्थान विशेष की जानकारी वाले किसी सज्जन से परामर्श करके सही मार्ग को चुन कर, उस पर चलते हुए अपने गन्तव्य पर पहुँच जाते हैं।
        इस उदाहरण से यह समझ आता है कि यदि जीवन में कभी ऐसी स्थिति आती है जब हम सही या गलत को न समझ सकें तो सबसे पहले तो हमें दृढ़तापूर्वक मन को व्यवस्थित करके एकान्त में विचार करना चाहिए। गहन चिन्तन करते हुए समस्या के हर पहलू पर जब हम विचार करेंगे तब संभवतः उसका समाधान निकाल पाने में समर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार विचार करने से यदि दुविधाजनक स्थिति से उभर सकें तो बहुत अच्छी बात है।
         यदि परिस्थितिवश किसी कारण से स्वयं से हल न ढूँढ पाएँ तब हमें किसी विवेकशील व्यक्ति के पास जाना चाहिए और अपनी दुविधा उसके समक्ष रखनी चाहिए। उनसे विचार-विमर्श करने पर अवश्य ही कोई सकारात्मक हल निकल आएगा। जिसके अनुसार व्यवहार करके हम अपनी दुविधा पूर्ण स्थिति से मुक्त हो सकते हैं।
          समझदार सज्जन व्यक्ति से अपनी किसी भी तरह की परेशानी को साझा करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। ऐसे व्यक्ति पर पूर्णरूप से भरोसा किया जा सकता है। ये लोग धीर-गम्भीर व शुभचिन्तक होते हैं। वे इधर की बात उधर नहीं करते। हर किसी के रहस्य को  हमेशा गोपनीय रखने की उनमें सामर्थ्य होती हैं। ऐसे गुणीजन न तो अहसान जताते हैं और न ही दुनिया में ढिंढोरा पीटते हैं। उन्हें तो किसी प्रकार के प्रतिफल की कामना नहीं होती। इसीलिए इन विश्वसनीय लोगों पर अपने हृदय की गहराइयों से भरोसा करना चाहिए।
          दुविधा होने पर स्वार्थी मित्रों व बन्धुओं के पास जाकर विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए। वे अपने स्वार्थ को सर्वोपरि मानते हैं। हो सकता है उनकी सलाह काम आ जाए पर बाद में उसका ढिंढोरा पीटकर दूसरे के सामने सदा ही अपना अहसान जताकर नाक में दम कर देते हैं। फिर वे सहायता करने का फल भी चाहेंगे और अपने जायज-नाजायज कार्यों की सफलता के लिए सहायता भी चाहेंगे। तब लगता है इनसे यदि परामर्श न लिया होता तो अच्छा था, कम-से-कम अपमानित होने से तो बच जाते।
         जब भी कभी दुविधा की स्थिति हो तो अपने विवेक पर भरोसा करना चाहिए या फिर किसी सज्जन विद्वान की शरण लेनी चाहिए स्वार्थी मित्र या बन्धु की नहीं। ऐसा करने से हम अपनी परेशानी से उभर सकते हैं तथा पूर्ववत् खुशहाल जिन्दगी जी सकते हैं।

रविवार, 28 जून 2015

खरबूजे को देखकर

खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। यह उक्ति हम मनुष्यों पर सटीक बैठती है। हम मनुष्य एक-दूसरे की नकल बहुत शीघ्र कर लेते हैं।
      दूसरों के अच्छे कामों को बहुत पसंद करते हैं परन्तु जब उन्हें अपनाने की बारी आती है तो हम आनाकानी करने लगते हैं। हम सोचते हैं कि ये सभी कार्य दूसरे करें या दूसरों के घर से इनकी शुरुआत हो।
         इसके विपरीत दूसरों के गलत कार्यों का बिना परिणाम सोचे-समझे हम एकदम से नकल करने लगते हैं। पड़ोसी के घर बेइमानी या रिश्वत का पैसा बहुत आ रहा है और उनकी सुख-समृद्धि में अचानक बढ़ोत्तरी हो रही है। यह बात हम पचा नहीं पाते और चल पड़ते हैं उसी गलत राह पर। इसी प्रकार भ्रष्टाचारी, चोरबाजारी, दूसरों का गला काटकर अपने वैभव को बढ़ाने में हम पलभर भी नहीं गंवाना चाहते। इसके लिए हमें कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। इसका परिणाम कुछ भी होगा देखा जाएगा वाली हमारी प्रवृत्ति बनती जा रही है। बिना सोचे-समझे हम हर जगह अपनी नाक घुसेड़ते रहते हैं।
         पड़ोसी या मित्र के घर नई गाड़ी, बड़ा फ्रिज, बड़ा टीवी, महंगा मोबाइल आदि आ जाएँ या वे नया घर खरीद लें तो हमारे दिन-रात का चैन खो जाता है। पता नहीं  हमारी नाक कैसी है जो जरा सी बात पर कटने लगती है। फिर बस कवायद शुरु हो जाती है उसे खरीदने की चाहे हमारे पास पैसा है या नहीं। हमें कर्जा भी लेना पड़ेगा तो कोई समस्या नहीं पर हमारी तो नाक ऊँची हो जाएगी।
          गिरगिट तो मुसीबत आने पर रंग बदलती रहती है परन्तु हम इंसान तो पल-पल में अपना रंग बदलते रहते हैं। हमारे लिए हर समय एक जैसा ही रहता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए गधे को भी बाप बनाने में परहेज नहीं करते। उसके लिए खड़े-खड़े पचासों बयान बदल देते हैं जिसकी आवश्यकता ही नहीं होती। चाहे सुनने वाला हमारी मक्कारी समझकर हमारी पीठ पीछे मजाक ही क्यों न उड़ाए। हम सोचते हैं कि अब वह हमारी मुट्ठी में है। हम सोच लेते हैं कि हमने उसे उल्लू बना दिया है पर यह नहीं समझ पाते हैं कि अनजाने में हमारा ही उल्लू बन गया है।
        रत्नाकर डाकू (महर्षि वाल्मीकि) और अंगुलीमाल डाकू (जो महात्मा बुद्ध का शिष्य बना) जैसे कुछ ही लोग होते हैं जो सज्जनों की संगति में आकर अपने कुमार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर आ जाते हैं। इन्हें हम अपवाद के रूप में मान सकते हैं।
          इस संसार में प्रायः ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो सच्चाई व ईमानदारी के रास्ते को छोड़कर किसी भी कारण से या लालचवश शार्टकट अपनाने के कारण कुमार्गगामी बन जाते हैं। समय बीतने पर जब उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है या उनकी पोल खुल जाती है तब वे दुखी हो जाते हैं। सबसे नजरें चुराते हुए वे अपने आप को सबसे काटकर अकेला कर लेते हैं।
          हमें खरबूजे की तरह रंग बदलने वाला बनने के स्थान पर अपने असूलों पर डटे रहना चाहिए। जो अपने नियम-कानून का पालन करता है वही विश्व में पूजनीय होता है। हमें अपने विचारों की दृढ़ता बनाए रखनी चाहिए जिससे हमारी अपनी एक संयमित छवि सबके समक्ष आ सके। हम अपना सम्मानित स्थान संसार में बनाए रख सकें।

शनिवार, 27 जून 2015

बतरस

दूसरों की निन्दा करने में हम सबको बड़ा ही रस मिलता है। इस रस को कहते हैं बतरस। दूसरों के राई जितने दोषों को हम बढ़ा-चढ़ाकर, नमक-मिर्च लगाकर पहाड़ जितना बड़ा बना देते हैं। इस निन्दा पुराण का वाचक महोदय तो आनन्दित होते ही हैं  और श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। दोनों चटखारे लेकर इसका मजा लूटते हैं।
           विद्वानों का कथन है कि दूसरों की निन्दा करने से बड़कर कोई और अवगुण नहीं है। जितनी अधिक दूसरों की निन्दा करते हैं उतने ही हम अपने दोष या पाप बढ़ाते हैं। अर्थात अपने पापों की गठड़ी उतनी अधिक बड़ी करते रहते हैं। जिसकी निन्दा करते हैं उस बेचारे को तो पता ही नहीं होता कि उसकी पीठ पीछे हो क्या रहा है। वह तो अपने जीवन के दैनन्दिन दायित्वों को पूर्ण करने में व्यस्त रहता है और हम अकारण ही अपने दोषों के बोझ को बढ़ाते हैं।
          हम अपने सारे आवश्यक कार्यों को तिलांजलि देकर बस इस क्षुद्र कार्य में व्यस्त होकर जीवन की रेस में पिछड़ते रहते हैं। अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से न निभा पाने के लिए घर-बाहर, कार्यालय आदि में हर ओर से तिरस्कृत होते हैं।
            विचारणीय बात यह है कि इस निन्दा पुराण की मंडली में निन्दक धीरे-धीरे अपना विश्वास खो बैठता है। उसके साथी सोचने लगते हैं कि आज यह दूसरों की निन्दा हमारे सामने कर रहा है तो निश्चित ही हमारी निन्दा औरों के सामने करता होगा। चाहे उनकी निन्दा करने का कोई कारण हो या न हो पर आदत से लाचार वह कोई-न-कोई अपने मतलब की बात निकाल ही लेगा और इससे उनकी बदनामी होती रहेगी। फिर उसके वे प्रिय संगी-साथी धीरे-धीरे उससे किनारा करने लगते हैं। वह अकेला होते हुए सोचने लगता है कि उसके ऐसे किस दोष के कारण उसकी मित्रता में दरार आ गई है कि मित्रों ने उसे अकेला छोड़ दिया। वह अपनी निन्दा करने की आदत में इतना अधिक रच-बस जाता है कि अपने इस घृणित कार्य में उसे कोई दोष नहीं दिखाई देता।
         सबसे मजे की बात यह है कि पहले दूसरों की निन्दा करने में अमूल्य समय को नष्ट करने वाले साथी अंत में यह कहकर एक-दूसरे से विदा लेते हैं- 'किसी को यह बताना मत। हमें क्या लेना देना दूसरों की फिजूल बातों से। हमने तो बस प्रसंगवश यह चर्चा कर ली है। अब यह बात हम तक सभी तक सीमित रहनी चाहिए।'
           होता यह है कि जिसकी बुराइयों के पहाड़ बना दिए जाते हैं उसके पास सभी बातें कभी-न-कभी तोड़-मरोड़कर पहुँच ही जाती हैं। उस समय चुगलखोर बगलें झाँकने लगता है और व्यर्थ सफाइयाँ देने में जुट जाता है। तब उसकी बहुत किरकिरी होती है। फिर वह महाशय अपना मुँह छिपाते फिरते हैं। सोचिए क्या लाभ हुआ अपना समय व्यर्थ गंवाने और दोस्तों में बदनाम होने का?       
          सदा दूसरों की आलोचना या टीका-टिप्पणी करने में जो अपना बहुमूल्य समय हम बरबाद करते हैं उसके स्थान पर कुछ सकारात्मक कार्य करके आत्मोत्थान कर सकते हैं।
         आत्मविश्लेषण करके हम उस समय का सदुपयोग कर सकते हैं। दूसरों की निन्दा-चुगली करने के स्थान पर अपनी कमियों को ढूँढ-ढूँढ कर दूर कर सकते हैं। अपने इस मानव जीवन को व्यर्थ गंवाने के दंश से मुक्त हो सकते हैं।

शुक्रवार, 26 जून 2015

ईश्वर से क्या मांगें

हम उस ईश्वर से क्या मांगें जो बिना माँगे ही हमें हर प्रकार से मालामाल कर देता है। दिन हो या रात वह सदा हमारी ही चिन्ता में रहता है। हम उसकी इस दयालुता को समझ पाने में असमर्थ रहते हैं।
          हमारे ऋषि-मुनि हमें कहते हैं सबके मंगल की कामना की परमात्मा से करो-
      सर्वे भवन्तु सुखिन:
           सर्वे सन्तु निरामया:।
      सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
           मा कश्चित् दुखभाग्भवेत्॥
अर्थात सभी लोग सुखी रहें, सभी स्वस्थ रहें, सभी कल्याण को देखें और किसी के पास कोई कष्ट न आए।
        यदि ऐसी कामना सभी मनुष्य करने लगें तो स्वार्थ परमार्थ में बदल जाएगा। मैं, मेरा घर, मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी गाड़ी, मेरा व्यापार आदि की संकुचित भावना से हम ऊपर उठकर व्यष्टि (सब) के बारे में सोचेंगे तो निश्चित ही ईश्वर प्रसन्न होता है। उसे स्वार्थी लोग पसंद नहीं है।
         वह सबके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। इसलिए चाहता है कि उसकी बनाई इस सृष्टि के साथ हम भी वैसा ही व्यवहार करें। उसमें भेदभाव न करें।
         जो भी हमारे समाज सुधारक हुए हैं उन्होंने समाज की दिशा और दशा बदलने के लिए अपने दिन-रात का सुख-चैन गंवा कर कार्य किए। सदा यत्न करते रहे कि सभी के हित को साध सकें। वे बिना किसी भेदभाव के निस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में जुटे रहे।
         इसी प्रकार  परोपकारी लोग भी अपने घर-परिवार के साथ-साथ सबकी भलाई के कार्य करते हैं। तभी वे इस संसार में अग्रणी बन जाते हैं और युगों तक स्मरण किए जाते हैं।
        रंग-रूप, जाति-पाति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि के बंधनों से परे रहते हैं। सभी इनकी नजर में बराबर रहते हैं। तभी ये लोग समाज में कल्याण के कार्य कर पाते हैं। और हम लोग उनके धैर्य की परीक्षाएँ लेते रहते हैं।
       कभी उन्हें विष देकर, कभी सूली पर लटका कर, कभी पत्थर मारकर या कभी उन्हें अपमानित करके सुकून महसूस करते हैं और उनके इस दुनिया से विदा लेने पर उनकी प्रशंसा में गीत गाते हैं।
          कबीर दास जी इसी तरह सबके मंगल की कामना करते हुए कहते हैं-
       कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर।
       न  काहू से  दोस्ती  और न  काहू से बैर॥
अर्थात इस संसार रूपी मंडी में कबीर दास जी सबका हित चाहते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। उन्हें न किसी से शत्रुता है और न ही मित्रता। सभी उनके अपने हैं कोई पराया नहीं।
        इस प्रकार यदि हम सभी प्राणियों का हित साधने के लिए ईश्वर से याचना करेंगे तो हम भी उन सब में आ जाएँगे। तब हमें अपने स्वयं के लिए अलग से मांगने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। हमारे मन को असीम शांति का अनुभव होगा जिसके लिए हम साधु-संतो के पास, तीर्थ स्थानों पर और जंगलों में भटकते रहते हैं पर वह हमें कहीं नहीं मिलती।
         हमें ईश्वर से भौतिक सुख-समृद्धि न मांगकर धैर्य, जिजीविषा, सद् बुद्धि और परोपकार की शक्ति आदि मांगनी चाहिए। ऐसी विद्या मांगनी चाहिए जो हमें प्रभु तक हमें पहुँचा सके। इन सबके साथ ही हमें हर समय और हरपल उसकी उपासना करने की सामर्थ्य की याचना करनी चाहिए।

गुरुवार, 25 जून 2015

मेरे मन कुछ और है

मेरे मन कुछ और है मालिक के कुछ और। हम सबके जीवन में प्रायः ऐसा ही होता है। हम कल्पना कुछ करते हैं और विपरीत परिणाम आने पर हक्के-बक्के रह जाते हैं। न चाहते हुए भी हमें अपरिहार्य स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
          हम तो सदा ही ऊँची उड़ान भरना चाहते हैं पर वह मालिक जानता है कि हम मुँह के बल गिर जाएँगे या हमारे पंख जल जाएँगे। इसीलिए वह हमारी रक्षा करने के लिए हमें झटका दे देता है। उसकी महिमा को हम अज्ञानी नहीं समझ पाते। हम बस मात्र अपने स्वार्थो की पूर्ति करना चाहते हैं। तभी तो हम हमेशा उसकी महानता को अनदेखा करके उसे पानी पी-पीकर कोसते हैं और अपना शत्रु तक मान बैठते हैं। जबकि वह परमपिता तो खुले मन से बाहें पसार कर कदम-कदम पर हमारी रक्षा ही करता है।
         वह हमें दुनिया में भेजने के पश्चात हमारी सारी आवश्यकताओं को हमारे कहे बिना कहे ही पूर्ण कर देता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इतने एहसान हम पर करता है पर हमें जताता भी नहीं है। इसके विपरीत यदि किसी मनुष्य पर हम राई जितना उपकार करते हैं तो उसे पहाड़ जितना बढ़ा-चढ़ाकर हर जगह गाते फिरते हैं। हम उस व्यक्ति से यही आशा करते हैं कि जीवन भर वह हमारे अहसान के बोझ के नीचे दबा रहे और हमारे सामने अपनी नजर नीची रखे। वह मालिक जीवन पर्यन्त पहाड़ जितने उपकार हम पर करता रहता है परन्तु कभी उनका अहसास तक नहीं कराता।
          हम हर समय झोली पसारे उससे धन-दौलत, अच्छा स्वास्थ्य, आज्ञाकारी संतान, सुख-समृद्धि, अच्छी नौकरी या खूब चलता व्यापार, उच्च शिक्षा, बढ़िया-सी गाड़ी, बड़ा-सा बंगला, नौकर-चाकर आदि न जाने क्या-क्या माँगते रहते हैं। फिर भी उसी का तिरस्कार करते हैं, उसकी कद्र नहीं करते। कभी सोचिए कि हम कितना गलत सोचते हैं और इसका प्रायश्चित कीजिए।
       दुनिया में रहते हुए कभी कोई पारिवारिक जन, मित्र, संबंधी, पड़ोसी या कोई अन्य व्यक्ति हमारी सहायता करता है तो पचासों बार हम उसका धन्यवाद करते हैं और उसकी प्रशस्ति में  गाते नहीं थकते। परन्तु उस प्रभु का जो झोलियाँ भरकर, बिन माँगे ही नेमते देता रहता है, उसका न तो हम कभी धन्यवाद करते हैं और न ही कभी उसकी स्तुति करते हैं। यहाँ हम अनायास कंजूस हो जाते हैं।
           हमें यह अहसास ही नहीं होता कि हमें उस मालिक का सच्चे मन से गुनगान करना चाहिए। कहते हैं कि यदि सुख में हम परमपिता को याद करें तो दुख हमारे पास नहीं आएँगे। कहने का तात्पर्य यह है कि हम बिना दिखावे के अपने हृदय की गहराइयों से मालिक का स्मरण करेंगें तो दुख या शूल भी हमारे लिए फूल की भाँति बन जाएँगे। हमें उनसे कष्ट नहीं होगा बल्कि वे हमारे मार्गदर्शक बनकर हमें उन्नति के पथ पर ले चलेंगे।
          वह एक दाता सब जीवों को उनकी योग्यता व पूर्वजन्मों के कृत कर्मों के अनुसार समय-समय पर देता रहता है। हम सब कुछ शीघ्र प्राप्त कर लें इस कारण उतावले रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता। भाग्योदय का समय जब आ जाएगा तब हम यदि मिट्टी को भी हाथ लगाएँगे तो वह भी सोना बन जाएगी। अतः समय की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कीजिए और अपने परमपिता परमात्मा पर पूर्ण विश्वास रखिए वह कभी हमें निराश नहीं करेगा। हमारे कर्मानुसार उसके घर में देर हो सकती है पर अंधेर नहीं हो सकती। देर-सवेर वह हमारी सभी मनोकामनाओं को पूरा करता है।
        अपने अंतस की गहराइयों से अपनी त्रुटियों की क्षमायाचना करते हुए उसके समक्ष विनत हो जाइए। वही भव सागर से पार लगाएगा और माता के समान अपनी गोद में स्थान देगा।

बुधवार, 24 जून 2015

स्वप्न

स्वप्न मनुष्य जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हैं। अब तक रहस्य बना हुआ है कि ये स्वपन मनुष्य को क्यों आते हैं? हम यहाँ दिवा स्वप्न की चर्चा नहीं करेंगे।
          जब इंसान सोता है तो उसे स्वप्न आते हैं। उनसे कभी हमें प्रेरणा मिलती है और कभी चेतावनी। इन स्वप्नों के माध्यम से शुभ-अशुभ घटनाओं की जानकारी मिलती है। कभी-कभी हम सवेरे उठते हैं तो तरोताजा महसूस करते हैं और कभी परेशान होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ स्वप्नों में हम जीवन का आनन्द लेते हैं, घूमते-फिरते हैं, उड़ते फिरते और तैरते हैं, जीवित या मृत, मित्रों-संबंधियों से मिलते हैं।
           कुछ विद्वान मानते हैं कि ये सपने हमारे आसपास के वातावरण से प्रभावित होते हैं और कुछ विद्वानों का मानना है कि सपनों में हम अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। हम कह सकते हैं कि स्वप्न विकारयुक्त या निर्विकार होते हैं।
           सपनों का भी एक शास्त्र होता है। विश्व के सभी विद्वान इसे मानते हैं। इन सपनों का विश्लेषण करते हुए विद्वानों ने कुछ सिद्धांत बनाए हैं पर स्वप्न शास्त्र पर कोई प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है। यह इतना जटिल एवं विस्तृत है कि इस विषय पर किसी ग्रन्थ को लिख पाना संभव नहीं। इतने प्रकार के स्वप्न सभी लोगों को आते हैं कि उन्हें पुस्तकाकार रूप आज तक नहीं दिया जा सका।
           विद्वानों का मानना है कि यदि एक ही रात में शुभ और अशुभ आएँ तो जो घटना या प्रसंग स्वप्न के अंत में दिखाई दे तो उसके अनुसार फल मिलता है। वैसे कहा जाता है कि प्रातः काल यदि शुभ स्वप्न दिखाई दे तो उसके बाद सोना नहीं चाहिए। इसके विपरीत यदि अशुभ स्वप्न दिखाई तो पुनः सो जाना चाहिए। सपने सच्चे होते या झूठे यह हमेशा विवाद का विषय रहा है।
         हम कुछ ऐसे सपने भी देखते हैं जो बेसिर पैर के होते हैं। उनका ओरछोर समझ में नहीं आता। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह सब अंधविश्वास के कारण उत्पन्न होते हैं और अप्रामाणिक होते हैं।
           भारतीय मनीषियों ने तीन अवस्थाएँ मानी हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में स्वप्न दिखाई देते हैं परन्तु सुषुप्ति अवस्था में स्वप्न नहीं आते। उस समय जीव गहरी नींद का आनन्द लेता है।
         तात्पर्य यह है कि स्वप्न इन स्थूल आँखों से नहीं देखे जाते बल्कि यह सूक्ष्म विषय है। भारतीय मनीषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से इनका विश्लेषण किया है। पुराणों में भी शुभ और अशुभ स्वप्नों की चर्चा मिलती है।
         यह भी माना जाता है कि जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जीव को स्वप्न में दिखाई देते हैं। कभी-कभी टेलीपेथी के माध्यम से भी मन का जुड़ाव होने से स्वप्न में विचारों का आदान-प्रदान हो जाता है। यदि स्वप्नों के डर से मनुष्य नींद न ले तो वह पागल हो जाएगा।
          यदि एक स्वप्न बार-बार आए तो वह किसी घटना विशेष का सूचक होता है।
कुछ सपने हमारे गम्भीर रहस्यों को भी सुलझाते हैं जिन्हें हम जागते हुए सुलझाने में असमर्थ होते हैं।
         वास्तव में ये स्वप्न एक ऐसी पहेली हैं जिसे विद्वान अपनी-अपनी योग्यता से सुलझाने का प्रयास करते रहते हैं। मनुष्य में भी अपने स्वप्नों का अर्थ जानने की उत्सुकता बनी रहती है। यह शास्त्र हमेशा से ही अनुसंधान का विषय रहा है और भविष्य में भी इस पर चर्चा होती ही रहेगी ऐसा विश्वास है। इनके पीछे भागते हुए परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।