गुरुवार, 30 जुलाई 2015

गुरु पूर्णिमा पर

गुरु शब्द अपने में बहुत गम्भीर अर्थ समेटे हुए है। गुरु अपने गुरुत्व के कारण महान होता है। भारतीय संस्कृति गुरु को ईश्वर का रूप मानती है जो अपने शिष्य को मुक्ति के द्वार तक ले जाता है। वास्तव में गुरु कहलाने का उसे अधिकार होता है जो सदा अपने शिष्य का हित साधे और उसका सर्वांगीण विकास करे। गुरु अपने साथ-साथ शिष्य का लोक व परलोक सुधारने के लिए सदैव यत्नशील रहता है। शिष्य यदि अपने गुरु से योग्यता में आगे निकल जाए तो उसे वास्तव में प्रसन्नता होती है।
         गुरु और गुरुडम में बहुत अंतर होता है। यही अन्तर मैं आप मित्रों को बताना चाहती हूँ। उन सभी तथाकथित गुरुओं को गुरु की पदवी से कदापि सुशोभित नहीं किया जा सकता है जो गुरु शब्द के मायने ही नहीं जानते। वे गुरु कहलाने के योग्य नहीं हैं जो शिष्यों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाएँ और स्वयं दिन-प्रतिदिन लोगों को बहका-फुसला कर सुख-समृद्धि के साधन जुटाएँ, जायज-नाजायज तरीकों से एक के बाद एक अपने लिए आश्रमों का निर्माण करते जाएँ, धन-दौलत के अंबार लगाते जाएँ, अनेकों मंहगे वाहनों की लाइन लगाते जाएँ।
         आज इस भौतिकतावादी युग में गुरु कहलाने वालों की आपस में होड़ रहती है।  दूसरों से स्वयं को बड़ा दिखाने के लिए छल-प्रपंच का सहारा लेते हैं। ऐश्वर्यों की बढ़ोत्तरी के लिए जुगत भिड़ाते रहते हैं। वे सोचते हैं कि इस प्रकार के कृत्यों को करके वे महान गुरुओं की श्रेणी में आ जाएँगे, यह उनकी भूल है। अपने कदाचार के कारण समाचार पत्रों, टीवी व सोशल मीडिया की सुर्खियों में रहना इसी का ही परिणाम है।
           गुरु धारण करने से पहले अच्छी तरह से सोच-विचार करना चाहिए। मात्र चमक-दमक देखकर किसी तथाकथित गुरु से प्रभावित न हों। उनको ज्ञान व उनके आचरण की कसौटी पर परखें। यदि वे इस कसौटी पर खरा उतरें तभी गुरु बनाना चाहिए अन्यथा नहीं।
           गुरु को परखने की कसौटी यही है कि वह मन और वचन से एक हो अर्थात उसकी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए।
       महाभारत के उद्योगपर्व में हमें स्पष्टत: समझाया गया है कि कैसे गुरु का त्याग करना चाहिए-
गुरोरप्यलिप्तस्य    कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते॥
अर्थात दम्भी, कार्य-अकार्य को न जानने वाला, कुपथगामी गुरु का परित्याग करना चाहिए। इन दोषों से युक्त गुरु को वाल्मीकि रामायण दण्ड देने का विधान करती है।
           गुरु यदि ढोंगी हो, कामुक हो, व्यभिचारी हो, समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो, ज्ञान से अधिक भौतिक ऐश्वर्यों को बटोरने वाला हो तो ऐसे गुरु का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।
         यदि शिष्य मोहवश गुरु का त्याग न करना चाहे तो  उसमें इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह अपने गुरु को सन्मार्ग पर ला सके। गुरु मछंरदास जब राह भटक गए थे तब उनके शिष्य गोरखनाथ जी संसार के जंगल में भटके गुरु को वापिस लेकर आए थे।
         आज गोरखनाथ जैसे शिष्य ढूँढने से भी नहीं मिलते। वे गुरु धन्य हैं जिन्हें ऐसे योग्य शिष्य ईश्वर की कृपा से मिल जाएँ।
          आँख मूँदकर हर किसी को ही गुरु मानकर उस पर भरोसा करना उचित नहीं है। गुरु बहुत महान होता है। सद् गुरु का मिलना बहुत ही कठिन है परन्तु यदि आज के युग में ऐसा गुरु मिल जाए तो समझिए जीवन सफल हो गया।
चन्द्र प्रभा सू
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बुधवार, 29 जुलाई 2015

आतंक का कोई धर्म नहीं

आतंक की कोई भाषा नहीं होती। उसका कोई धर्म नहीं होता। केवल आतंक फैलाना उसका एकमात्र उद्देश्य होता है। आतंकवादी के माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-रिश्तेदार, गुरुजन, घर-परिवार, समाज, धर्म, दर्शन आदि कोई भी नहीं होते। आतंकवादी मानवता के शत्रु होते हैं।
        आतंकवाद मानवता की जड़ों को पल-पल खोखला करता रहता है। इस उन्माद के कारण दूसरों पर अमानवीय अत्याचार करना,  अन्याय करना, दूसरों के जीवन से खिलवाड़ करना तो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
      सभी धर्म आपस में प्रेम, भाईचारा, सद्भावना, सहिष्णुता का मार्ग दिखाते हैं अलगाव या विद्वेष का नहीं। कोई भी धर्म कभी भी किसी एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से नफरत करना या लड़ना नहीं सिखाता। इकबाल की यह पंक्ति याद आ रही है-  
     मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।
        हमारे समक्ष ये प्रश्न मुँह बाये खड़े हैं कि फिर धर्म के नाम पर यह मार-काट क्यों? अत्याचार क्यों? इंसान एक-दूसरे के खून का प्यासा क्यों? समझ नहीं आता कि इंसान दिन-ब-दिन असहिष्णु क्यों बनता जा रहा है?
       धर्म के नाम पर आतताइयों की जमात तैयार करने वाले मानवता के शत्रु होते हैं। हम किसी को इजाजत नहीं दे सकते कि वह मासूम बच्चों को धर्म के नाम पर झोंक दे। उनके माता-पिता को सारे जीवन का गम देकर निराश्रित कर दे।
        वह धर्म कदापि नहीं हो सकता जो मनुष्य को बुराई के रास्ते पर ले जाए। वे तथाकथित धर्मगुरु भी बहिष्कृत करने योग्य हैं जो जन साधारण को ईश्वरीय ज्ञान से मालामाल करने के स्थान पर उन्हें कुमार्ग या पतन की ओर प्रवृत्त करें।ऐसे धर्मगुरुओं का सामाजिक रूप से बहिष्कार होना चाहिए उन्हें सिर पर नहीं बिठाना चाहिए।
      आज पूरा विश्व इस धार्मिक उन्माद का शिकार है। जगह-जगह बम विस्फोट करवाना या मानव बंब बनाकर दूसरों के साथ उनकी भी हत्या सभ्य कहे जाने वाले समाज को शोभा नहीं देता।
          यह धार्मिक उन्माद जहर की तरह फैलता है जो देश व समाज की जड़ों को खोखला करता है। यदि समाज का विघटन होगा तो हमारी ही हानि है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या विरासत दे सकेंगे? पर यदि देश को इस विष से नहीं बचाएँगे तो देश रसातल की ओर जाएगा। तब हम सब देशवासियों का अस्तित्व भी नहीं बच सकेगा। स्वयं अपनी व अपने देश एवं समाज की रक्षा के लिए इन धर्म विरोधी गतिविधियों से किनारा करना ही श्रेयस्कर है।
      जो मानवता का विरोधी हो वो धर्म नहीं हो सकता और जो आत्मोन्नति का पथ न दिखा सकें वो धर्मगुरु नहीं कहला सकता। इन दोनों को तिरस्कृत व बहिष्कृत कर देना चाहिए क्योंकि ये सम्मान के योग्य नहीं होते। इसलिए यथासंभव इनसे किनारा कर लेना चाहिए।
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मंगलवार, 28 जुलाई 2015

इंसान गलतियों का पुतला

इंसान गलतियों का पुतला है। वह बार-बार गलती करता है और उसका परिणाम आने पर पश्चाताप करता है। समय बीतने पर वह फिर पहले जैसा बन जाता है। यदि वह गलती न करे तो भगवान के समान ही हो जाएगा। जाने-अनजाने मनुष्य बहुत-से अपराध करता रहता है जिनका दण्ड उसे भोगना पड़ता है।
         कभी-कभी किसी मनुष्य का एक दोष भी उस पर भारी पड़ जाता है। परन्तु प्रायः एक दोष उसके गुणों के समूह में उसी प्रकार छिप जाता है जैसे चन्द्रमा पर लगे हुए एक दाग को लोग अनदेखा कर देते हैं। निम्न श्लोकांश में यही भाव है-
          'एको हि दोषो गुणसन्निपाते
          निमज्जति इन्दो किरणेष्विवांक:।'
चन्द्रमा के शीलतता, प्रकाश आदि गुणों के साथ-साथ उसकी सुन्दरता भी महत्त्वपूर्ण है। उसका सौंदर्य तो अनेक कवियों और लेखकों के लिए सदियों से प्ररेणा का स्त्रोत रहा है। वह बच्चों का प्यारा चंदा मामा है। माँ बच्चे को सुलाने व बहलाने के लिए भी चंदा का सहारा लेती है। कितने ही गीत व बच्चों की कविताएँ उसे लक्ष्य करके लिखी गई हैं। ऐसे चंदा में जो एक दाग है उसे लोग नजरअंदाज कर देते हैं। इसने तो वैज्ञानिकों को भी अपनी ओर बहुत ही आकर्षित किया है वे भी इसकी खोज करने के लिए बार-बार उपग्रह भेजते हैं।
          इसी प्रकार जिन लोगों में गुणों की अधिकता होती है उनके एकाध दोष को भी चन्द्रमा के एक दोष की तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। केवल उनके गुणों को ही महत्त्व दिया जाता है दोषो को नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि जो व्यक्ति गुणों की खान हैं उनका एक दोष कष्ट का कारण नहीं बनता।
         गुणीजनों के गुण परखे जाते हैं। यदि वे कसौटी पर खरे उतरते हैं तो फिर लोग उन्हें अपने सिर आँखों पर बिठाते हैं। उनके उन्हीं गुणों को अपनाने के लिए लोग सदैव आतुर रहते हैं।
         अपने घर-परिवार, मित्रों-बन्धुओं व देश-समाज के सभी दायित्वों को वे पूर्ण करते हैं। कुछ दायित्वों को निभाने में हमारा स्वार्थ जुड़ा होता है। परन्तु महान लोगों के सभी कार्य निस्वार्थ होते हैं वे देश, धर्म व समाज के हितों को सर्वोपरि रखते हैं। प्राणीमात्र का हित साधने के लिए वे आतुर रहते हैं। परोपकारी, जनकल्याण की भावना रखने वाले सहृदय लोग वास्तव में महान लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसी भाव के कारण ही वे सबके प्रिय बन जाते हैं। जन मानस उनका अनुकरण करता है। वे सभी के बन्धु बन जाते हैं।
         बच्चा माता-पिता के पास बेझिझक होकर अपनी समस्या रखता है।उसे पता होता है कि उसकी समस्या का निदान वे बिना उसका उपहास किए कर देंगे। उसी प्रकार लोग उन्हें अपना शुभचिन्तक मानते हुए निसंकोच अपनी समस्याओं को उनके मार्गदर्शन में सुलझाते हैं। वे जानते हैं कि उनकी समस्याओं को किसी के सामने प्रकट नहीं किया जाएगा और न ही उनका मजाक नहीं बनाया जाएगा।
         मनुष्य को सदा उसके गुणों के कारण ही पहचाना जाना जाता है। उसके सद् गुण उसे महान बनाते हैं। ऐसे लोगों को यत्न पूर्वक खोजना चाहिए और उनकी संगति करनी चाहिए। बड़े भाग्य से ऐसे गुणीजनों के संसर्ग का अवसर हाथ आता है। इनके संपर्क में आने पर मनुष्य बिना किसी के कहे अपनी कमियों को दूर करने का यत्न करता है। उन्हीं की तरह बनने में अपना सौभाग्य समझता है।
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सोमवार, 27 जुलाई 2015

डॉ अबुल कलाम के देहावसान पर

हमारे भारत के ग्याहरवें राष्ट्रपति डा. अबुल कलाम के देहावसान पर विशेष-
जीवन उसी का सफल है जिसके इस संसार से विदा लेने पर दुनिया को दुख हो। इस मरणधर्मा संसार से हर व्यक्ति को विदा लेनी पड़ती है अर्थात उसका अंत निश्चित है। इसीलिए इस पृथ्वी को मृत्युलोक कहते हैं। इस मृत्युलोक में जो जन्म लेता है चाहे वह मनुष्य है, पशु-पक्षी है, पेड़-पौधे हैं यानि की सम्पूर्ण चराचर जगत अपना-अपना समय पूरा करके इस संसार से विदा ले लेता है। अपना समय से तात्पर्य यह है कि अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर जो आयु निर्धारित करके धरा पर भेजता है वही उसका अपना समय कहलाता है।
         इस असार संसार से विदा लेने का कोई-न-कोई बहाना बन जाता है। उसे हम बीमारी, दुर्घटना, हार्टफेल आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि भी जीव की मृत्यु के कारण बन जाते हैं। इस संसार में जन्म लेने के पश्चात से ही जीव धीरे-धीरे पल-पल करके मृत्यु की ओर बढ़ता रहता है। फिर भी इस सत्य से वह अंजान बना रहना चाहता है।
       ईश्वर से सदा डरते हुए समाज के हितार्थ कार्यों को करता हुआ मनुष्य खुशी-खुशी इस दुनिया से विदा ले। उसके मन में किसी प्रकार का कोई मलाल शेष न रहे। उसे यह संतोष रहे कि वह इस संसार में आने के अपने उद्देश्य को भूला नहीं अपितु अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर निरन्तर कदम बढ़ता जा रहा है।
           हम इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि हमारा यह शरीर नश्वर है। इस असार संसार में जो जीव जन्म लेता है उसे अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिला हुआ समय पूर्ण करके इस दुनिया से विदा लेनी पड़ती है। इसमें जीव की इच्छा या प्रसन्नता कोई मायने नहीं रखती।
       हम इस बात को भी भूल नहीं सकते कि हमारा यह शरीर तो एक रथ के समान है जो इस शरीर में विद्यमान आत्मा को एक साधन के रूप में मिला है। इसमें बैठे यात्री आत्मा को वह इस सृष्टि की यात्रा करवाता है। अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर प्रदत्त आयु पूर्ण करने के उपरान्त ही यह शरीर रूपी रथ आत्मा को उसके लक्ष्य मोक्ष तक ले जाता है। यदि इस रथ में पर्याप्त ईंधन न डाला जाए, इसका रख-रखाव सुचारू रूप से न किया जाए तो रथ अपनी गति से नहीं चल सकता।
         मनुष्य खाली हाथ इस संसार में आता है और खाली हाथ ही यहाँ से विदा लेता है। जन्म और मृत्यु के बीच का उसका समय ऐसा होता है जिसमें वह और और पाने के लिए भटकता रहता है। आयु पर्यन्त वह कोल्हू के बैल की तरह ही खटता रहता है। यह दिन-रात का भटकाव उसका सुख-चैन सब छीन लेता है। वह बिना समय व्यर्थ गंवाए संसार में सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है।
       वह इस दुनिया के सारे भौतिक सुख अपनी झोली में डाल लेने के लिए आतुर रहता है। पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही उसे सब मिलता है। मनुष्य इस सत्य को भूल जाना चाहता है या नजरअंदाज करना चाहता है कि भाग्य से ज्यादा और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता।
         वह प्रभु मनुष्य को सोचने पर विवश कर देता है कि वह इस संसार में खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही उसे यहाँ से जाना है। इस संसार से अपने साथ केवल अपने अच्छे व बुरे कर्मों का लेखा-जोखा लेकर जाता है जो जन्म-जन्मान्तर तक उसके साथी बनते हैं। आने वाले जन्मों की सुख-समृद्धि या बदहाली का कारण बनते हैं।
         समय रहते यदि मनुष्य जाग जाए तो अपने लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े करने के स्थान पर वह अपने लिए सुख-शांति का पुरस्कार प्राप्त कर सकता है।
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रविवार, 26 जुलाई 2015

वास्तविकता में रहना

हम जैसे हैं वैसे ही दुनिया के सामने रहेंगे तो हमारा एक स्थान व सम्मान बना रहता है। मुखौटा लगाकर प्रदर्शन करने से लाभ के स्थान पर हानि अधिक होती है।
        हम वास्तव में कुछ और हैं परन्तु दिखावा हम कुछ और करेंगे तो कुछ समय के लिए तो वाहवाही लूट सकते हैं पर जब  पोल खुल जाएगी तो उस की स्थिति की कल्पना कीजिए। तब हमारे पास बगलें झाँकने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं बचता।
         सत्य को कभी भी किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती और झूठ के पाँव नहीं होते। झूठ सत्य को बैसाखी बनाकर चलता है। कसमें खाकर झूठ को सत्य का लबादा ओढ़ाना असंभव है। सोचने वाली बात है कि यह बैसाखी कब तक सहायता करेगी। इसके लिए मुझे कबूतर का सयानापन याद आ रहा है जो सोचता है कि उसने आँखें बंद कर ली हैं तो सामने आई हुई बिल्ली चली गई है। पर ऐसा नहीं होता।
        धन-संपत्ति, विद्वत्ता, बल, अपनी वंशावली आदि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करने से कोई महान और लोकप्रिय नहीं बन जाता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मान लीजिए हमारे पास धन-सम्पत्ति का अभाव पर हम ऐसा पोज़ करते हैं कि हमारे बराबर कोई अमीर नहीं है। बहुत दिनों तक हम सच्चाई को छुपा नहीं सकेंगे जब हमारी तंगहाली का साथियों को पता चलेगा तो वे किनारा करने के साथ-साथ गालियाँ देंगे और कोसेंगे। यदि साथियों को वास्तविकता का ज्ञान होता तो यह स्थिति न बनती। सत्यता से की हुई मैत्री अधिक अच्छी होती है न कि बाद में लानत-मलानत हो।
         इसी प्रकार विद्वत्ता का ढोंग करने वालों की पोल भी शीघ्र खुल जाती है। यहाँ मैं महाकवि कालिदास का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहती हूँ। विद्वानों का वेश पहनकर उन्होंने परम विदुषी से विवाह तो कर लिया पर उनकी पोल शीघ्र खुल गई और उन्हें घर से निकाल दिया गया।
        शक्तिहीन शक्ति का प्रदर्शन कितना भी कर ले पर वास्तविकता के सामने ही उसकी किरकिरी हो जाती है।
         इसीलिए कहते हैं कि बादल वही गरजते हैं या प्रदर्शन करते हैं जो बरसते नहीं है और जो बरसने वाले बादल होते हैं उन्हें गरजने की आवश्यकता नहीं होती। वे आते हैं छमाछम बरसते हैं और सबको तृप्त करके चले जाते हैं।
          बढ़ा-चढ़ाकर अपने गुणों का बखान करने से गुणहीन गुणवान नहीं बनते, अल्पज्ञ विद्वान नहीं बन जाते, शक्तिहीन शक्तिशाली नहीं हो सकते और धन-सम्पत्ति का अनावश्यक प्रदर्शन समृद्धि नहीं दिलाती। इसीलिए ये मुहावरे कहे गए हैं-
        थोथा चना बाजे घना।
        अधमरी गगरी छलकत जाए।
हमें कबूतर की तरह वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए बल्कि अपने अन्दर ऐसे गुणों का समावेश करना चाहिए अथवा इतनी योग्यता बढ़ानी चाहिए कि प्रदर्शन करने की आवश्यकता ही न रहे। लोग हमें ढूँढते हुए आएँ हम दुनिया के पीछे न भागें। हम जैसे हैं वैसे ही स्वीकार करने के लिए सबको विवश होना पड़े।
          दुनिया को झुकाने वाला बनने की क्षमता हम में होनी चाहिए न कि झुकने वाली तथाकथित लाचारगी। मेरा तो यही मानना है कि हमारे पूर्वकृत जन्मों के कर्मों के अनुसार भाग्य से जो हमें ईश्वर ने दिया है उसके लिए शर्मिन्दा नहीं होना चाहिए। इस जन्म में ऐसे कर्म कर लेने चाहिए कि हमें आने वाले जन्मों में वह सब मिले जो हम चाहते हैं।
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शनिवार, 25 जुलाई 2015

प्रलोभनों से बचें

समाज में रहते हुए मनुष्य को नानाविध प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है। जो लोग उनसे प्रभावित हुए बिना अपने रास्ते पर चलते रहते हैं वे जीवन की ऊँचाइयों में छूते हैं। इसके विपरीत जो उनके झाँसे में आ जाते हैं वे अपना मार्ग भटक जाते हैं। उनमें से कुछ लोग कभी-कभी भटकते हुए किसी सज्जन की संगति पाकर सन्मार्ग की ओर मुड़ जाते हैं।
           परन्तु कुछ ऐसे हठी प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके लिए हम कह सकते हैं कि उन्होंने अपने सही रास्ते पर लौटकर न आने की कसम खा ली है। ऐसे ही ये लोग भ्रष्टाचार, अनाचार, आतंकवाद, स्मगलिंग, चोरी-डकैती, कालाबाजारी आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं।
         इन लोगों की ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर कुछ लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं। जितना गहरे वे पैठते जाते हैं उतना ही अधिक दलदल में डूबते जाते हैं। तब उनके पास वापसी का रास्ता ही नहीं बचता, सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है कि यदि वे उस नरक से बाहर निकलना भी चाहें तो उनके साथी ही उन्हें ऐसा करने नहीं देते और यदि वे किसी तरह जबरदस्ती वहाँ से बाहर निकलने की सोचें तो उन्हें जान से मार डालते हैं।
          इसीलिए सयानों ने कहा है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है। यह अक्षरश: सत्य है। इसका कारण शायद यही रहा होगा कि एक दुष्ट बहुतों के लिए घातक होता है। उसकी देखा देखी कई और लोग कुमार्गगामी हो जाते हैं।
         एक दृष्टान्त यहाँ देना चाहती हूँ। अपने बच्चे को सही रास्ते पर लाने के लिए पिता ने एक उपाय किया। उन्होंने बढ़िया सेब की एक टोकरी ली। उसमें एक सड़ा हुआ सेब रख दिया। शीघ्र ही उस सड़े हुए सेब के कारण बाकी अच्छे सेब भी खराब होने लगे। तब उस बच्चे को कुसंगति की हानि समझ में आई। उसने गलत रास्ते पर न जाने का पिता को वचन दिया।
        यह घटना यही समझाती है कि एक खराब सेब बढ़िया सेबों को शीघ्र बरबाद कर सकता है। एक मछली तालाब को गंदा कर सकती है। उसी प्रकार एक दुर्जन व्यक्ति भी अन्य बहुत से लोगों का जीवन दाँव पर लगा सकता है। अपना जीवन तो वह नष्ट करता ही है अपने साथियों को भी बरबाद कर देता है।
         ऐसे लोग केवल अपने स्वार्थों को साधते हैं। वे किसी की भावनाओं का कभी सम्मान नहीं करते। वे विषधारी सर्प की तरह होते हैं जिसे कितना भी दूध पिला लो उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे कभी भी किसी को भी डंक मार सकते हैं।
         उन पर विश्वास करना सबसे बड़ी मूर्खता होती है। न उनकी दोस्ती अच्छी होती है और न ही दुश्मनी। उनका कोई भरोसा नहीं कि कब वे खेल-खेल में किसी के प्राणों का हंसते हुए हरण कर लें।
       अत: सबको सावधानी बरतने की या सतर्क रहने की बहुत आवश्यकता है। अपने विचारों में दृढ़ता लाना ही समस्या से बचने का उपाय है। तभी मनुष्य को सुख-शांति मिलती है और वह चैन की नींद सो सकता है।
       कहने का तात्पर्य यह है कि कुमार्ग से सन्मार्ग की ओर लौटना असंभव तो नहीं कठिन अवश्य होता है। हो सके तो प्रभु से सद् बुद्धि की याचना करते हुए उसे सन्मार्ग पर ले जाने की प्रार्थना करें। ऐसा करने से लोक-परलोक दोनों सुधर जाएँगे। मनुष्य अपने लक्ष्य मोक्ष की ओर कदम बढ़ाता है।
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शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

प्राकृतिक सौंदर्य

रंग-बिरंगे सुन्दर
फूलों की मीलों फैली
यह मनमोहक-सी सुगन्ध
देती है खुशी पर जब हम इसे पाना चाहें

एक वृक्ष से उड़ते
दूसरे पर जाकर बैठते
पक्षियों का मधुर कलरव
कर्णप्रिय हो सकते हैं गर हम सुनना चाहें

नदियों और झरनों
का कलकल करता नाद
पुकार रहा है बार-बार वहाँ
हमको अपने पास पर हम जाना तो चाहें

ऊँचे घने इन पेड़ों से
छन-छनके आता प्रकाश
आँखमिचौली का खेल खेलता
आस में बैठा है पर हम खेलना तो चाहें

खट्टे-मीठे, सुनहरे
हरे-लाल, कच्चे-पके ये
भाँति-भाँति के रसीले फल
हमारे आगमन पर उत्सव मनाना चाहें

ये घने जंगलों की
खुशगवार मस्तियाँ
मुरझाना नहीं है चाहतीं
दिखाना चाहती हैं गर वहाँ जाना चाहें

वे कहना चाहते हैं
जंगली कहकर अब
न नकारो शहरों से दूर
आ जाओ सब गर प्रकृति का नेह चाहें।
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बुधवार, 22 जुलाई 2015

मनुष्य एक मुसाफिर

मनुष्य इस असार संसार में एक मुसाफिर (यात्री) की तरह है। वह यहाँ आता है, रहता है, अपने हिस्से के कार्य निपटाता है और फिर इस संसार से विदा लेकर चल पड़ता है एक नए पड़ाव की यात्रा के लिए। उसकी इन अनन्त यात्राओं का क्रम तब तक जारी रहता है जब वह अपने स्थायी निवास परम धाम मोक्ष को नहीं प्राप्त कर लेता।   
          हम सब लोग यात्राएँ करते रहते हैं। इसलिए सभी भली-भाँति यह बात जानते हैं कि जब कभी हम किसी होटल या रिसार्ट में कुछ दिनों के लिए ठहरते हैं। वह हमारा स्थायी निवास नहीं होता। हम उस स्थान को दो-चार दिन ठहरने के लिए किराए पर ले लेते हैं। जब निश्चित अवधि समाप्त हो जाती है तब उसे खाली करके वापिस अपने घर लौट आते हैं। उस समय हमारे मन में उस स्थान को छोड़ने का कोई दुख नहीं होता। हम खुशी-खुशी उस स्थान को छोड़ कर लौटते हैं।
          इसका तात्पर्य यही हुआ कि उस स्थान विशेष से हमें कोई मोह नहीं होता। हम यही सोचकर जाते हैं कि हमने कितने दिन वहाँ रुकना है। हम घूमते-फिरते हैं और मौज-मस्ती करके आनन्दित होते हुए लौट आते हैं।
         यह संसार भी एक होटल या रिसार्ट की तरह ही है जहाँ हम कुछ समय के लिए आते हैं। वह अवधि हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर हमें देता है। उस अवधि के पूर्ण हो जाने पर इस संसार को छोड़कर जाना होता है। हम इस संसार को अपना घर मान लेते हैं। इसलिए इससे विदा लेना नहीं चाहते। यदि कोई हमें कह दे कि हमारी आयु के कुछ दिन शेष बचे हैं तो सुनकर अच्छा नहीं लगता। हम उसे बुरा-भला कहने में संकोच नहीं करते।
         किसी गीत की पंक्ति मुझे इस विषय पर याद आ रही है-
'यह दुनिया मुसाफिर खाना सराय
  कोई आ आए कोई चला जा रहा।'
इस दुनिया में आकर हमें अपने कर्मानुसार सांसारिक रिश्ते-नातों का उपहार मिलता है। उनमें हम इतना अधिक खो जाते हैं कि दीन-दुनिया को भुला बैठते हैं। हमारा सारा व्यापार इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहता है और हमारे प्राण भी इन्हीं में ही बसते हैं। उन्हीं को लेकर हम अपनी एक दुनिया बना लेते हैं। हमारा जीना-मरना सब उनके लिए होता है। सब पाप-पुण्य और छल-फरेब हम उन्हीं के लिए करते हैं।
          ऋषि-मुनि और विद्वान हमें समय- समय पर सचेत करने का प्रयास करते रहते हैं कि यह मोह-माया मात्र मृगतृष्णा है और कुछ नहीं। जाग जाओ और उस प्रभु में अपना ध्यान लगाओ। पर हम ऐसी नींद सो रहे हैं कि जागना ही नहीं चाहते। इसीलिए किसी ने कहा है-
      उठ जाग मुसाफिर भोर भयी
      अब रैन  कहाँ  जो  सोवत है।
      जो  सोवत  है वह  खोवत  है
      जो  जागत  है सो  पावत  है।।
ये पंक्तियाँ हमें जगा रही हैं कि अब तो उठ जाओ आलस्य छोड़ो। यह सोने का समय नहीं है। प्रभु की कृपा पाने का यह समय है उसे व्यर्थ न गंवाओ। जब हमारा यह शरीर अशक्त हो जाएगा तब चाहकर भी उस मालिक का ध्यान नहीं कर पाओगे केवल पश्चाताप करते रह जाओगे। इसलिए अभी से सावधान हो जाओ। जो जागता है वही परमेश्वर का कृपापात्र बनता है। जो सचेत नहीं होना चाहता वह इस संसार में बहुत कुछ गंवा देता है उसे जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिलता। वह चौरासी लाख योनियों के फेर में भटकता रहता है।
          सुधीजन जानते हैं कि ईश्वर लगन और भावना चाहता प्रदर्शन नहीं इसलिए सच्चे मन से उसका स्मरण करना चाहिए। तभी भवबंधन से मुक्ति संभव है।
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