सोमवार, 31 अगस्त 2015

आवेश से बचें

भावनाओं के क्षणिक आवेश में बहकर हम किसी ओर का नहीं स्वयं का ही नुकसान कर लेते हैं। यह आवेग एक प्रकार से ज्वर के समान होता है जिसके ताप में जलते हुए हम स्वयं ही कष्ट प्राप्त करते हैं। इससे बाहर निकलने का रास्ता भी हमें स्वयं ही खोजना होता है।
        हम आवेश में क्यों आ जाते हैं? यह हमारा नुकसान क्यों और किसलिए करता है? इन प्रश्नों को हल करना बहुत आवश्यक है।
          एक कहानी पढ़ी थी कि एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी अपने छोटे से बच्चे के साथ किसी गाँव में रहते थे। उनकी आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। एक बार ब्राह्मणी स्नान करने के लिए नदी पर गई तो ब्राह्मण को। शिशु की देखभख के लिए कह गई। ब्राह्मणी के जाने के बाद उसे श्राद्ध लेने के लिए उसे राजमहल से न्योता आया।
          अब वह परेशान कि बच्चे को कहाँ छोड़े? ऐसा सोचते हुए उसके मन में विचार आया कि अपने पुत्र की तरह पाले हुए नेवले को बच्चे की रक्षा में छोड़कर चला जाता हूँ। ऐसा करके वह राजमहल चला जाता है। इसी बीच एक साँप बालक की ओर बढ़ता है और नेवला उसे मार देता है।
        जब ब्राह्मण वापिस आता है तो नेवले के मुँह पर लगे खून को देखकर दुखी होता है। उसे लगता है कि इस नेवले ने मेरे बच्चे को मार दिया है। ब्राह्मण उसे उसी क्षण मार देता है। पर घर के भीतर जाकर साँप को मरा हुआ देखता है तो सब समझ जाता है। अपने पर परोपकार करने वाले नेवले को मारकर पश्चाताप करता है।
        इसी प्रकार क्षणिक आवेश में आकर हम अपनों को स्वयं से दूर कर लेते हैं। उस समय हम कहते हैं जीवन भर इसकी शक्ल नहीं देखेंगे। घर-परिवार में किसी की जरा सी गलती या स्वयं में हुई गलतफहमी के कारण किसीका त्याग कर देना समझदारी नहीं कहलाती।
          इसी प्रकार दोस्तों में कभी-कभी होने वाले मनमुटाव के कारण अपने प्रिय दोस्तों से जानलेवा दुश्मनी तक लोग निभाने लगते हैं।
          नौकरी अथवा व्यापार के क्षेत्र में भी यदाकदा अपरिहार्य कारणों से मतभेद हो जाते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम उन लोगों को अपना शत्रु ही मानकर बैठ जाएँ।
         यह आवेश हमारे सोचने समझने की शक्ति का शत्रु होता है। जरा-सा गुस्सा आने पर हम अपने वश में नहीं रहते और दूसरे को दोषी मानते हुए उससे किनारा कर लेते हैं। चाहे उसके लिए बाद में मन-ही-मन कितना ही दुखी व परेशान क्यों न होना पड़े। हम कठोर बनकर दुनिया को अपने फैसले पर डटे रहते हुए दिखाना चाहते हैं। अपनी नाक नीची न हो जाए इस के लिए हमें चाहे हानि ही क्यों न उठानी पड़ जाए पर हमारी जिद्द पूरी होनी चाहिए।
          इस आवेश से हम बच सकते हैं यदि पुनर्विचार कर लें तो। ईश्वर ने मनुष्यों को बुद्धि का वरदान दिया है जो हमें सृष्टि के सभी जीवों से विशेष बनाता है। यदि हम इस नेमत का सदुपयोग नहीं करेंगे तो मनुष्यों और पशुओं में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। मनुष्य अपने विवेक से काम लेकर बहुत से अनावश्यक कष्टों से बचकर निकल सकता है। इसी लिए कहते हैं-
           'अविवेक: परमापदां पदम्।'
अर्थात अविवेक सभी मुसीबतों की जड़ है। अत: अपने निर्णय विवेक से लेने चाहिए। बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखना चाहिए जिससे हमें अपनों से दूर रहकर उनके वियोग में वर्षों तक घुलना न पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

रविवार, 30 अगस्त 2015

पीर पराई जानते

पीर पराई  जानते तो न हसते मुक्त हंसी
दूसरों को दुख देकर न करते अट्टहास

अपना गम तुमको इतना बड़ा लगता है
कभी  दूसरों के गम  पर जरा सोच लो

सबसे अलग मत रहो तुम इस जहान में
रहने दो मत कुरेदा करो दूसरों के जख्म

गम हरे हो जाएँगे उस गरीब  लाचार के
अपनी खुशहाली का मत करो अभिमान

ऊपर जो बैठा है उसको भी तू न भाएगा
नजर जो टेढ़ी हो गई फिर न बच पाएगा

तब न छुप सकेगा इधर-उधर भरमाएगा
यहाँ-वहाँ फिरता हुए न ठिकाना मिलेगा

दूसरों के घावों पर लगाता  चल मलहम
दूसरों आह पर मत बनाना आशियाना

राख के ढेर में अगर यह  बदल जाएगा
कोई नहीं सुनेगा तब तेरी चिल्ल पौं को

जानलेवा बन न पाएँ अब तेरी घबराहटें
संभल जा और समय के फेर को समझ

अटल नियम ये इस संसार का ले मान
सबको खुशियाँ बाँटेगा तभी तो पाएगा

कुछ नहीं बिगड़ता बिखरे बेरों का मान
बन सकेगा प्यारा सबका ही दिल जीत।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

शनिवार, 29 अगस्त 2015

बेटियों की माता-पिता के प्रति चिन्ता

बेटियाँ सोचती हैं कि उनके माता-पिता की यदि उचित देखभाल हो तो वृद्धाश्रमों (old homes) की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यदि बेटे उनकी सेवा नहीं कर सकते तो वे अपने माता-पिता की सेवा कर पाएँ। हर बेटी को अपने माता-पिता से बहुत ही प्यार होता है। वह उन्हें कष्ट में नहीं देख सकती। यदि वे कष्ट में होते हैं तो वह बेचैन रहती है उसका मन किसी काम में नहीं लगता। वह उनकी हर प्रकार से देखभाल करना चाहती है।
          हमारे समाज का ढाँचा कुछ इस प्रकार का है जिसमें बेटों को ही माता-पिता की देखभाल व सेवा-सुश्रुषा का दायित्व निभाना होता है। माता-पिता संस्कार वश बेटी के घर न रहना चाहते हैं और न ही  उनसे आर्थिक मदद लेना चाहते है। अपनी इस जिम्मेदारी को बेटे निभा पाते हैं या नहीं। यदि नहीं निभाते तो क्यों? यह विचारणीय है।
         वृद्धावस्था में जब शरीर अशक्त होने लगता है तब मनुष्य को किसी अपने के मजबूत कन्धों के सहारे की आवश्यकता होती है। जिन परिवारों में बेटे माता-पिता की सुविधाओं का पूरा ध्यान रखते हैं, उनकी अच्छी तरह से देखभाल करते हैं, उनके स्वास्थ्य पर नजर रखते हैं वहाँ तो सब ठीक-ठाक रहता है।
          इसके विपरीत जहाँ बजुर्गों को सदा ही अनदेखा किया जाता है वहाँ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जो माता-पिता अपने सभी बच्चों का पालन-पोषण व शिक्षा-दीक्षा कराते हैं, उनकी सारी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, उनको सारे बच्चे मिलकर पाल नहीं सकते। उनको बुढ़ापे में असहाय छोड़ देते हैं। उन्हें पैसे-पैसे का भी मोहताज बना देते हैं। कैसा दुर्भाग्य है यह?
          बेटियाँ जब अपने भाइयों को माता-पिता की अवहेलना करते देखती हैं तो उनके मन में पीड़ा होती है। वे चाहती हैं कि वे अपने माता-पिता का दायित्व उठाएँ। हालाँकि बहुत-सी बेटियाँ अपने माता-पिता की धन से सहायता करती हैं, उनका ध्यान भी रखती हैं और उनको मानसिक रूप से अहसास कराती हैं कि वे उनके साथ हैं।
         परन्तु यह तो समस्या का समाधान नहीं है। हर बेटी को विवाह के पश्चात अपने ससुराल जाना होता है। उसे वहाँ माता-पिता के रूप में मिले सास-ससुर मिलते हैं। बहू बनते ही उसे अपने पति के माता-पिता की ढेरों कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। वह भूल जाती है कि उसके माता-पिता भी किसी के सास-ससुर हैं। वे भी अपनी बहू की आँखों में खटक सकते हैं। यदि इस चेन में थोड़ा परिवर्तन कर लिया जाए तो बहुत-सी समस्याएँ स्वयं ही सुलझ जाएँगी।
          अन्य समस्याओं के साथ यह भी एक समस्या है कि शादी के पश्चात बेटों को भी अपने माता-पिता में कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। जिन माता-पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया और योग्य बनाया, वे ही अब अनकी आँख में किरकिरी की तरह खटकने लगते हैं। अपने सास-ससुर उन्हें अच्छे लगते हैं अपने माता-पिता नहीं। जबकि अपने माता-पिता की वे सारी धन-दौलत चाहते हैं पर जब उनकी सेवा करने का समय आए तो कोई और उन्हें देखे। ऐसी सोच की कोई भी प्रशंसा नहीं कर सकता।
         पारिवारिक ढाँचे में ऐसा व्यवहार तो किसी भी तरह से फिट नहीं बैठता। बेटियाँ यदि अपने सास-ससुर को माता-पिता की तरह मानकर उनकी कमियों और उनकी रोकटोक को नजरअंदाज कर लें तो बहुत सुधार हो सकता है। बेटियाँ जब अपने माता-पिता की नापसंद बातों को सहन कर सकती हैं और न चाहते हुए मानती भी हैं तो सास-ससुर की बातों पर झिकझिक क्यों होती है?
           संयुक्त परिवारों के रहते वृद्धों की देखभाल की समस्या नहीं होती थी परन्तु एकल परिवारों के चलते यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। यदि बेटा- बहू, बेटी-दामाद सभी अपने-अपने दायित्वों का निर्वहण करें और घर के बजुर्गों की सुचारू रूप से देखभाल करें तो न ओल्ड होम्स की आवश्यकता रहेगी और न  वे उपेक्षित अनुभव करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

भाई-बहन का संबंध

रक्षाबन्धन पर विशेष-

भाई बहन का संबंध ईश्वर की ओर दिया गया एक अनमोल उपहार है। ये दोनों अर्थात् भाई और बहन एक-दूसरे के पूरक हैं।भाई यदि घर की शान है बहन घर का मान होती है। बहन के लिए भाई का और भाई के लिए बहन का प्यार अमूल्य होता है।
     भारतीय संस्कृति में बहन एक अनमोल बंधन है। मृत्यु पर्यन्त भाई इस रिश्ते को अपने कर्तव्य के अनुसार भलीभाँति निभाता है। इसी रिश्ते के प्रतीक-स्वरूप रक्षाबंधन व भैयादूज त्योहार हैं। ये सामाजिक त्योहार भाई-बहन के प्रगाढ़ बंधन के प्रतीक हैं। रक्षाबंधन जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है में बहन भाई को राखी के स्वरूप में रक्षाकवच बाँधती है और भाई उसे यथाशक्ति उपहार देकर आयु पर्यंत रक्षा करने का वचन देता है। भैयादूज पर बहन भाई के माथे पर तिलक लगाती है भाई सामर्थ्यानुसार बहन को उपहार देता है। भाई चाहे छोटा हो या बड़ा हमेशा बहन का सहारा बनता है।
    यद्यपि आज के भौतिकतावादी युग में ये संबंध भी अछूता नहीं रहा। कहीं-कहीं किन्हीं परिवारों में धन-संपत्ति को लेकर भाई-बहन के संबंधों में कुछ कड़वाहट अवश्य आई हैं। पर वे परिवार अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
       यहाँ मैं एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि जिस धर्म में अपने रक्त संबंधों में विवाह की अनुमति है वहाँ भी सगे भाई-बहन में विवाह निषिद्ध है।
      इस कथन का यही तात्पर्य है कि भाई-बहन का संबंध बहुत ही पवित्र है इसे दोनों को ही सच्चे मन से निभाना चाहिए।
        यहाँ हम यह भी जोड़ सकते हैं कि भारतीय संस्कृति में यदि सगी बहन न होते हुए किसी को युवती को बहन मान लिया जाता है तो उसके साथ भी ताउम्र वैसा ही संबंध निभाया जाता है जैसा रिश्ता सगी बहन के साथ निभाया जाता है।
      ईश्वर भाई और बहन के इस रिश्ते की पवित्रता बनाए रखे।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

जो सुख छज्जू के चौबारे

मनुष्य चाहे संसार के किसी भी कोने में घूम ले, मौज-मस्ती कर ले, स्वर्ग जैसे आनन्द भोग ले पर सुख उसे अपने घर में आकर ही मिलता है। घर से दूर यदि चले जाओ तो थोड़े दिनों के बाद ही अपने घर की याद सताने लगती है। उस समय मन करता है कि उड़कर अपने आशियाने (घर) में वापिस पहुँच जाएँ।
         इसका कारण है सृष्टि के रचयिता परमात्मा ने घर को एक धुरी बना दिया है। इसके इर्द-गिर्द हम गोल-गोल घूमते रहते हैं। घर से निकलते हैं तो दफ्तर, स्कूल आदि जाते हैं। समय बीतने पर शाम को या दोपहर को लौटकर वापिस आ जाते हैं। शापिंग के लिए बाजार जाते हैं, शादी-ब्याह में सम्मिलित होते हैं, पार्टी करते हैं, घूमने-फिरने के लिए देश-विदेश कहीं भी जाते हैं फिर लौटकर घर ही आते हैं। कहीं भी जाओ पर ठौर घर ही है।
         घर के सदस्यों में कितना मनमुटाव क्यों न हो, खूब लड़ाई-झगड़े होते हों, जूतम पैजार भी होती हो, चाहे वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद न करें परन्तु फिर भी घर का मोह ऐसा है जो उन्हें बाँधे रखने में सफल होता है। जहाँ शाम ढली और रात हुई वहाँ मन घर भागने के लिए बेचैन होने लगता है।
         अपना घर चाहे आलीशान महल हो, फ्लैट हो, झोंपड़ी हो या टूटा-फूटा हो यानि कि कैसा भी हो घर तो घर ही होता है। यह हर  मनुष्य के लिए एक विश्राम स्थली होता है। सारे दिन की थकान घर आ आने के बाद गायब होने लगती है।
        यदि घर बनाने का चलन न होता हो शायद हम सभी खानाबदोश लोगों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटक रहे होते। जहाँ रात होती वहीं जमीन पर सो जाते और प्रातः होते ही फिर घूमन्तुओं की तरह चल पड़ते। तब हमारे पास ये सभी सुख-सुविधाओं के साधन भी न होते जैसे अब हमने अपने घरों में जोड़ रखे हैं। इस युग में हम उस जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते जहाँ न सुख-सुविधा के साधन थे, न घर जैसी सुरक्षा थी और न ही इतने अच्छे यातायात के ही साधन थे।
           ईश्वर ने हम पर बहुत ही उपकार किया है। मालिक ने जैसे दिन के बाद रात हमारे विश्राम के लिए बनाई है वैसे ही घर बनाने की परिकल्पना ने मनुष्य को आराम करने का एक स्थायी स्थान दिया है। जहाँ आकर वह बिना रोकटोक अपनी मनमर्जी से रह सकता है और जुटाई हुई सुविधाओं का भोग कर सकता है।
       अपने घर आने के बाद जो सुख मनुष्य प्राप्त करता है वह बलख और बुखारे जैसे समृद्ध स्थानों में भी नहीं मिलता। इसी बात को छज्जू भक्त ने इन शब्दों में कहा है-
      'जो सुख छज्जू दे चौबारे
        ओ न बलख न बुखारे।'
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

प्रकृति के अनुसार मनुष्यों की श्रेणियाँ

आसपास रहने वाले या काम करने वाले बहुत से लोगों के साथ हमारा संपर्क होता है। सबकी प्रकृति अलग-अलग होती है। हर व्यक्ति के आचरण और व्याहार में हमें विभिन्नता दिखाई देती है। जिस प्रकार मनुष्य रंग-रूप में एक जैसे नहीं दिखाई देते उसी प्रकार उनकी आदतों में भी अन्तर स्पष्ट ही लक्षित होता है।
         सामाज में रहते हुए वे सब के साथ कैसा व्यहार करते हैं? समाज उनकी स्थिति कैसी है?  उसके अनुसार उन्हें हम चार श्रेणियों में इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं- 1. उदार   2. दाता   3. कंजूस 
4.  मक्खीचूस।
          सबसे पहले हम उदार लोगों की चर्चा करते हैं। ये महानुभाव सारी पृथ्वी के जीवों को अपने हृदय से लगाकर रखने का जज़्बा रखते हैं। ये परोपकारी लोग सभी के चहेते होते हैं। हर व्यक्ति इनसे अपना संपर्क साधना चाहता है। ये निस्वार्थ भाव से सबके सुख-दुख में साथ निभाते हैं। लोग इनके पास अपनी परेशानियों के साथ आते हैं और प्रसन्न होकर वापिस लौटते हैं। किसी के रहस्यों को सार्वजनिक करके उसे उपहास का पात्र नहीं बनाते। बहुत ही गम्भीर व सज्जन इन लोगों को महापुरुषों की तरह समाज पूजता है।
            दूसरे प्रकार के लोग दाता होते हैं जो दान देने में कभी पीछे नहीं हटते, सदैव तत्पर रहते हैं। सामाजिक एवं धार्मिक सभी प्रकार की संस्थाओं को वे दिल खोलकर दान देते हैं। जहाँ किसी जरूरत मंद को देखते हैं बिना किसी को पता चले उसकी सहायता करते हैं। अपने-पराये का भेदभाव किए बिना ही बादलों की तरह निस्वार्थ भाव से मदद करने में हिचकिचाते नहीं हैं। लोग अपने कष्ट के समय में इनकी उदारता से कृतार्थ होते हैं। समाज में इन लोगों का एक स्थान होता है। अपने सरल स्वभाव के कारण ये लोग हर जगह पर सम्मानित किए जाते हैं।
         तीसरे प्रकार के लोग कंजूस होते हैं। वे हर किसी से मोलभाव करते रहते हैं। अपने घर-परिवार, पत्नी और बच्चों की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। अतिथि सत्कार करने में भी घबराते नहीं हैं परन्तु पैसे को दाँतों से पकड़ते हैं। सामने इनका लिहाज करते हुए चाहे कोई कुछ न कहे पर पीठ पीछे कंजूस कहकर मजाक अवश्य ही उड़ाते हैं।
        चौथे प्रकार के लोगों को आम भाषा में मक्खीचूस कहते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो न खाते हैं और न खाने देते हैं। हर समय पैसे को लेकर झिकझिक करते रहते हैं। इनके लिए कहा जाता है-
        'चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाए।'
ये लोग अपने धन पर साँप की तरह कुंडली मारकर बैठे रहते हैं। लोग पीठ पीछे तो क्या सामने भी इनको चिढ़ाते हैं। पर इन चिकने घड़ों पर कोई असर नहीं होता। ये लोग दाँत निपोर कर रह जाते हैं। इनसे घर-परिवार के जन व भाई-बन्धु आदि सभी परेशान रहते हैं। किए गए अपमान का भी इन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये जस के तस ही रहते हैं। जीते जी ये किसी की जरूरत को पूरा नहीं करते। परिवार के लोग आवश्यक वस्तुओं के लिए भी तरसते रहते हैं और ये उसे फिजूलखर्ची बताकर अपना पल्लू झाड़ लेते हैं। पर इनकी मृत्यु के बाद इनके घर के लोग उस पैसे को बिना दर्द के उड़ाते हैं।
          हमें स्वयं तय करना है कि हम किस श्रेणी का बनना चाहते हैं। सबकी आँखों का तारा बनकर हम सुख भोगना चाहते हैं या लोगों के व्यंग्य बाणों को सहन करना अपनी नियति बनाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

हंसी-मजाक

हंसी-मजाक परेशानियों भरे माहौल से छुटकारा पाने का बहुत अच्छा साधन होता है। दूसरों को प्रसन्न रखना बहुत अच्छी आदत है। इससे वातावरण खुशगवार हो जाता है। कोई मनुष्य कितनी भी परेशानी में क्यों न हो वह मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता। हंसते-खेलते रहने से जीवन जीना आसान हो जाता है।
        मुँह बिसूरकर रहने वालों से लोग बोर हो जाते हैं। सारा समय गिले-शिकवे करने या अपना दुखड़ा रोते रहने वालों से सभी किनारा करना चाहते हैं। वे अपनी मनहूस-सी बनाई सूरत से किसी को भी आकर्षित नहीं करते। उनके पास यदि कुछ समय तक बैठा जाए तो इंसान उकताने लगता है। सामने उनका दुख सुन करके सहानुभूति जताने वाले पीठ पीछे उन्हीं का मजाक उड़ाते हैं और नमक-मिर्च लगाकर चटकारे लेते हैं।
         किसी दूसरे का मजाक एक सीमा तक करना चाहिए। वह सीमा क्या है? उसका निर्धारण कौन करेगा? इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढना बहुत आवश्यक है। मजाक की सीमा हमें स्वयं ही तय करनी है। मजाक उस सीमा तक करना चाहिए जब तक उसे दूसरा उसे बर्दाश्त कर सके। उसके बाद उसका मजाक नहीं बनाना चाहिए। इससे अनावश्यक ही बदमजगी बढ़ती है और वातावरण बोझिल हो जाता है।
          वैसे तो मजाक करने के लिए विषयों की कोई कमी नहीं हैं। ऐसा आवश्यक नहीं कि पास बैठे हुए किसी व्यक्ति विशेष का मजाक बनाया जाए। कुछ लोग दूसरों की शारीरिक अपंगता का मजाक बनाते हुए उन्हें उनकी उस कमजोरी के नाम से यानि अंधा (नेत्रविहीन), काना (एक आँख न होना), लंगड़ा ( टाँग न होना), गधा ( मूर्ख), उल्लू (मूर्ख) आदि पुकारते हैं। यह बहुत ही गलत व अमानवीय व्यवहार कहलाता है। किसी की कमजोरी पर हंसना ईश्वर का अपमान करना होता है क्योंकि उनको भी हमारी ही तरह ईश्वर ने बनाया है।
        स्वयं का मजाक करना सबसे अच्छा होता है। दूसरों का मजाक बनाने वाले अपना मजाक बनते देख प्रायः बौखला जाते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी उनका मजाक बनाए। ऐसा दोहरा मापदण्ड तो नहीं चल सकता। अपने लिए अलग नियम व दूसरों के लिए अलग नियम इसे समाज तो नहीं मानेगा। सीधी-सी बात है कि यदि आपको मजाक सहना पसंद नहीं तो करिए भी मत। यदि मजाक करेंगे तो मजाक का निशाना बनने की हिम्मत भी रखिए। उस समय खुन्दक खाने या चिढ़ जाने का क्या लाभ होगा?
          यदि आपको मजाक बनना अच्छा नहीं लगता तो दूसरे की टाँग मत खींचिए। नहीं तो फिर याद रखिए कि जैसै को तैसा (tit for tat) तो हो ही जाता है। कभी-कभी सेर को सवा सेर भी टकरा ही जाता है। तब बगलें झाँकने से अच्छा है पहले से ही सम्भल जाना चाहिए।
          जैसे हर बात की अति बुरी होती है वैसे ही मजाक की अति भी अच्छी नहीं मानी जाती। जो हमेशा मजाक करते रहते हैं उन्हें लोग टोक देते हैं कि भाई कभी तो सीरियस हो जाया करो। लोग उनको मसखरा  समझते हैं और पीठ पीछे उनकी हंसी उड़ाते हैं।
         हंसी-मजाक केवल मनोरंजन की सीमा तक ही उचित होता है। इसके पश्चात वातावरण को अशांत व बोझिल ही बना देता है। समझदार लोगों को चाहिए कि वे अप्रिय स्थितियाँ न आने दें और यदि किसी असावधानी वश ऐसा हो जाए तो उन कारणों को दूर करने का उपाय कर लेना  चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

सोमवार, 24 अगस्त 2015

बगुला भक्त

बगुला भक्त उसे कहते हैं जो ईश्वर की भक्ति का ढोंग करता है। वह समझता है कि यदि वह ऐसा करेगा तो सारे संसार में उसकी वाहवाही होगी और ईश्वर भी उससे प्रसन्न हो जाएगा। शायद वह अपने प्रदर्शन के मद में इतना खो जाता है कि दुनिया को धोखा देते देते मालिक को भी धोखा देने से बाज नहीं आता। वह इस सारे ढोंग का इतना आदी हो जाता है कि यह सब उसके जीवन के  व्यवहार का मात्र एक हिस्सा बनकर रह जाता है।
        ऐसा ही कार्य बगुला भी करता है जब उसे अपने शिकार मछली को पकड़ना होता है। वह एक टाँग पर पानी में खड़ा हो जाता है मानो बहुत बड़ी साधना कर रहा हो। मछली उसके इस फरेब को सच मानकर निशंक होकर उसके पास चली जाती है। ज्योंहि उसका भोजन मछली उसके पास से गुजरती है तो वह झट से उसे दबोच कर खा लेता है।
         बगुला भक्तों का भी यही कार्य होता है। वे भी अपने क्षणिक लाभ के लिए दूसरे लोगों को अपने जाल में फंसाते रहते हैं। इन लोगों की ऐसी हरकतों के कारण सच्चे साधू-सन्तों पर से भी जन साधारण का विश्वास उठता जा रहा है। इन्हीं बगुला भक्तों के लिए कहा गया है-
            'भगत जगत को ठगत।'
ये ऐसे भक्त होते हैं जो भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर ठगते हैं। उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाते हैं। उनकी मेहनत की कमाई पर ऐश करते हैं।
          दूसरों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाते हैं पर स्वयं एक के बाद एक आश्रम बनाते जाते हैं। महंगी कारें खरीदना भी इनका शगल होता है। अपने लिए हर प्रकार की सुख-सुविधाओं को जुटाते हैं।
          साधना का प्रदर्शन करके लोगों को अपने वश में करने की ठग विद्या में ये निपुण होते हैं। तभी तो लोग इनके भ्रमजाल में फंसते है और इन्हें बहुत बड़ा गुरू मान लेते हैं जबकि ये गुरु नहीं गुरूघण्टाल होते हैं। वास्तविक सच्चे गुरुओं का पासंग भी नहीं होते। इनका भी अपना प्रचार तन्त्र होता है। अपने खरीदे हुए गुर्गों से अपनी वाहवाही कराते रहते हैं और लोगों को मूर्ख बनाते रहते हैं।
           सच्चे भक्तों को इस प्रकार के प्रपंचों को रचने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे सच्चे, सरल, निस्वार्थ सेवी, जन-जन का कल्याण करने वाले होते हैं। इन साधु स्वभाव वाले सन्तों की उन दुर्जनों से किसी प्रकार से तुलना नहीं की जा सकती। ये सन्त समाज के लिए कलंक होते हैं।
         सच्चे भक्तों में धन्ना जाट थे जिन्होंने ने हठ ठान लिया था कि जब तक ठाकुर जी भोग नहीं लगाएँगे तब तक वे खाना नहीं खाएँगे और कहते हैं ठाकुर जी भक्त की जिद के सामने हार गए।
         रविदास जी थे जिन्हें गंगा स्नान के लिए साथियों ने कहा तो वे बोले - 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' यानि मन पवित्र हो तो उनके पानी का पात्र जिसका प्रयोग जूते गाँठते समय करते थे, वह पानी गंगाजल बन जाता है।
        भुल्लेशाह कहते हैं- 'रब दा की पाना ऐत्थों पुटना ओत्थे लाना।' यानि ईश्वर को पाना चाहते हो तो मन को संसार से विरक्त कर ईश्वर की ओर लगा दो। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि ऐसे अनेक महान भक्त हैं जिन्होंने प्रभु के साथ सच्ची लौ लगाई दुनिया की परवाह नहीं की।
         सच्चे संत तो समाज के दिशादर्शक होते हैं। वे अपनी भक्ति की मस्ती में सदा डूबे रहते हैं। उन्हें धन-दौलत और भौतिक ऐश्वर्यों से कुछ लेना देना नहीं होता। इसलिए यह निर्णय सुधीजनों का है कि वे बगुला भक्त अथवा सच्चे भक्त (साधु) में से किसकी शरण में जाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP