बुधवार, 30 सितंबर 2015

अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर विशेष

अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस (International day of older persons) 1 अक्टूबर पर विशेष-

पितर पक्ष यानि श्रादों का पक्ष इन दिनों चल रहा है। आप सभी मित्रों से अनुरोध है कि जो साक्षात जीवित पितर आपके अपने घर में विद्यमान हैं उनके विषय में विचार कीजिए। यदि आपको श्राद्ध करना ही है तो उन जीवितों का कीजिए। श्राद्ध का यही तो अर्थ है न कि अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक अन्न, वस्त्र, आवश्यकता की वस्तुएँ तथा धनराशि दी जाए।
        आपके घर में जो माता-पिता आपकी स्वर्ग की सीढ़ी हैं उन्हें वस्त्र दीजिए, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें धन दीजिए, उनके खानपान में कोई भी कमी न रखिए, उनके स्वास्थ्य की ओर सदा ध्यान दीजिए। यदि वे अस्वस्थ हो जाते हैं तब उनका अच्छे डाक्टर से इलाज करवाइए तभी आपका श्राद्ध करना सही मायने में सफल हो सकेगा।
           यदि जीवित पितरों की ओर से विमुख होकर मृतकों के विषय में सोचेंगे तो आपका सब किया धरा व्यर्थ हो जाएगा। जो पुण्य आप ऐसा करके कमाना चाहते हैं वह सब पाप में बदल जाएगा और आप अपयश के भागीदार बन जाएँगे। उसका कारण हैं कि आप पितरों के उपयोग में आने वाली जो भी सामग्री उन तथाकथित ब्राह्मणों के माध्यम से मृतकों को भेजना चाहते हैं वह तो उन तक नहीं पहुँचेगी। वे ब्राह्मण तो इसी भौतिक जगत में खा-पीकर उसका उपभोग कर लेंगे।
           आज अधिकांश ब्राह्मण नौकरी अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। उन्हें ऐसे भोजन की आवश्यकता नहीं है। बहुत से ब्राह्मण आजकल शूगर जैसी बीमारियों से ग्रसित हैं। वे हर भोज्य पदार्थ को नहीं खा सकते बल्कि खाने में परहेज करना पड़ता है, मीठे का तो खासकर। इन दिनों वे इतने व्यस्त रहते हैं कि बुलाने पर कह देते हैं कि थाली घर भिजवा दो।
          ऐसे ब्राह्मणों के पीछे फिरते हुए लोग अपने घर में आने के लिए अनावश्यक ही उनकी मिन्नत चिरौरी करते हैं।
         परन्तु अपने घर में विद्यमान ब्राह्मण स्वरूप माता-पिता को दो जून का भोजन खिलाने में शायद उनके घर का बजट गड़बड़ा जाता है। इसीलिए उनको असहाय छोड़ देते हैं और स्वयं गुलजर्रे उड़ाते हैं, नित्य पार्टियों में व्यस्त रहते हैं, शापिंग में पैसा उड़ाते हैं। फिर उनके कालकवलित (मरने) होने के पश्चात दुनिया में अपनी नाक ऊँची रखने के लिए लाखों रुपए बरबाद कर देते हैं और उनके नाम के पत्थर लगवाकर महान बनने का यत्न करते हैं। इस बात को हमेशा याद रखिए कि माता-पिता का तिरस्कार कर ऐसे कार्य करने वाले की लोग सिर्फ मुँह पर प्रशंसा करते है और पीठ पीछे निन्दा।
          माफ कीजिए मैं कभी ऐसे आडम्बर में विश्वास नहीं करती। मुझे समझ में नहीं आता कि आपने किसके सामने स्वयं को सिद्ध करना है? आपका अंतस तो हमेशा ही धिक्कारता रहेगा। अगर समाज में इस बात का लौहा मनवाना है कि आप बड़े ही आज्ञाकारी हैं, श्रवण कुमार जैसे पुत्र हैं तो उनके जीवित रहते ऐसी व्यवस्था करें कि जीवन काल में उन्हें किसी प्रकार की कोई कमी न रहे। इससे उनका रोम-रोम हमेशा आपको आशीर्वाद देता रहे। उनके मन को  अनजाने में भी जरा-सा कष्ट न हो।
         हमारे ऋषि-मुनियों और महान ग्रन्थों ने माता और पिता को देवता माना है। उस परमात्मा को हम मनुष्य इन भौतिक आँखों से देख नहीं सकते परन्तु ईश्वर का रूप माता-पिता हमारी नजरों के सामने रहते हैं। जो बच्चे माता और पिता की पूजा-अर्चना करते हैं अर्थात सेवा-सुश्रुषा करते हैं उनके ऊपर ईश्वर की कृपा सदा बनी रहती है। ऐसे बच्चों का इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 29 सितंबर 2015

अमीर और गरीब की खाई

अमीर और गरीब की खाई को पाटना शायद उतना ही कठिन है जितना धरती और आकाश का मिलना। दोनों ही एक धुरी पर निश्चत दूरी बनाकर रहते हैं।
        धरती और आकाश के विषय में कहा जाता है कि एक स्थान पर ये मिल जाते हैं जिसे क्षितिज कहते हैं। यह वास्तविकता है या हमारी आँखों का भ्रम है इस पर विचार करना आवश्यक है।
         जब हम नजर उठाकर ऊपर आकाश की ओर देखते हैं तो हमें वह दूर-दूर तक दिखाई देता है। उसी तरह जब हम धरती की ओर देखते हैं तो हमें उसका ओरछोर भी नहीं समझ आता। खुले प्रदेश में जाकर जब हम बहुत दूर तक देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है मानो धरती व आकाश परस्पर मिलने लगे हैं। वास्तव में ऐसा नहीं होता, वे दोनों कभी भी नहीं मिलते। यह केवल एक आभासी रेखा है अर्थात हमारी अपनी ही नजरों का धोखा होता है।
         जिस प्रकार धरती और आकाश नहीं मिल सकते उसी तरह अमीरी और गरीबी की खाई को पाटना बहुत कठिन कार्य है। आज इक्कीसवीं सदी के भारत में इन दोनों वर्गो का अन्तर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। अमीर अधिक-अधिक अमीर बनते जा रहे हैं और गरीब नित्य ही अधिक गरीब होते जा रहे हैं।
          हम यहाँ किन्हीं आँकड़ों की बात नहीं करेंगे। इस लेख के माध्यम से केवल इतना ही यहाँ कहना चाहती हूँ कि हमें इन गरीबों के प्रति सदा सहिष्णुता का व्यवहार करना चाहिए। ये भी उस ईश्वर की सन्तान हैं जिसने अमीरों को और हम सभी मनुष्यों को बनाया है। इस भौतिक संसार में माता-पिता के लिए सभी बच्चे एक जैसे होते हैं चाहे वे गोरे या काले हों, स्वस्थ या रोगी हों, मोटे या पतले हों।
          जिस जगत माता ने इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों को उत्पन्न किया है वह तो अपने किसी भी जीव के साथ भेदभाव नहीं करती। वह अपने सभी बच्चों को उनके कर्मों के अनुसार यथासमय सब कुछ देती है। इसलिए उसे बिल्कुल सहन नहीं होता कि हम मनुष्य-मनुष्य में भेद करके उसकी सत्ता को चुनौती दें।
            उसके बच्चों से नफरत करें अथवा उन्हें धिक्कार कर परे हटा दें।
         ऐसी धन-सम्पत्ति जो न तो इहलोक और न ही परलोक में उनका साथ निभाती है, उसे प्राप्त करके पाकर मनुष्य  घमण्डी हो जाते हैं। वे अपने बराबर किसी को नहीं समझते। वे सोचते हैं कि उन्होंने धन क्या कमा लिया उन्हें लाइसेंस मिल गया है कि वे किसी के भी साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं। तभी वे किसी ऐसे इन्सान को इन्सान नहीं समझते।
         गरीब आदमी पर तो वे अविश्वास करते हैं। उन्हें चोर-उचक्का समझते हैं। उनको छोटा आदमी कहकर सदा उनका तिरस्कार करते हैं। पर सच्चाई तो यह है कि उनका एक कदम भी इनके बिना नहीं चल सकता। वे बेशक उनकी वफादारी पर सन्देह करते हैं।
         ईश्वर ने उन पर इतनी कृपा की है और उन्हें सुख के भरपूर साधन दिए हैं तो भी वे इतना नहीं करते कि इन लोगों की यथासंभव सहायता करें। वे यदि चैरिटी करये हैं तो उसका उद्देश्य केवल दूसरों की वाहवाही पाना होता है। उन्हें यह बात सदा ही स्मरण रखनी चाहिए कि इन लोगों की दुआओं से ईश्वर उन्हें और सुख व समृद्धि देगा।
           धरती और गगन की तरह ही अमीर और गरीब में दूरी नहीं बनानी चाहिए। इन दोनों को सदा सद्भावना के धागे से जुड़कर रहना चाहिए। पूरे समाज के हित के लिए इन पिछड़े लोगों का उत्थान आवश्यक है। इस दिशा की ओर पहला कदम बढ़ाने की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 28 सितंबर 2015

मानव जीवन समझौता

मानव जीवन समझौते का ही दूसरा नाम है। जीवन के हर क्षेत्र में कदम-कदम पर उसे समझौता करना पड़ता है। यदि वह अपनी शर्तों पर जीवन जीना चाहे अथवा अकड़कर रहे और किसी के साथ भी सामंजस्य बिठाने में आनकानी करे तो वह ठूँठ वृक्ष की भाँति टूट जाता है। यदि वह हरे-भरे पेड़ की तरह थोड़ा झुक जाता है या समझौता कर लेता है तो अपने जीवन में सफल हो जाता है।
          अपने घर-परिवार में मिलजुल करके रहने वालों की गृहस्थी बड़ी अच्छी चलती है। वहाँ की स्थिति यह होती है कि आपसी मतभेद कितने ही क्यों न हों परन्तु सभी परिवारी जन एक-दूसरे व्यक्ति की कमियों को सहन करते हुए जीवन में सदा आगे बढ़ते जाते हैं। उन्हें जीवन बहुत ही सहज व सरल लगता है।
          लड़ाई-झगड़े का वहाँ कोई काम नहीं होता। सब कुछ निश्चित ढर्रे पर ही चलता रहता है। न किसी से गिला और न किसी से शिकायत वाला माहौल सबको प्रेरित करता है। उस घर के बच्चे आज्ञाकारी व संस्कारी होते हैं और बड़े सभी सदस्यों के साथ समभाव रखने वाले होते हैं। इन्हीं घरों में रहने वालों को स्वर्ग जैसा आनन्द आता है। यही घर दूसरों के लिए आदर्श बनते हैं। लोग उनके सद्भाव के उदाहरण देते नहीं थकते।
          इसके विपरीत ऐसे घर भी हैं जिनमें सभी लोग अपनी मनमानी करते हैं, वहाँ कोई भी सामंजस्य पूर्वक नहीं रहता। कोई दूसरे को सहन नहीं करना चाहता। एक-दूसरे की कमियाँ निकालकर उनकी छिछालेदार करने में ही सुख ढूँढते हैं। उन घरों में कभी शान्ति नहीं रह सकती सिर्फ कलह-क्लेश रहता है। उनके इन व्यर्थ के झगड़ों की आग में घर के सभी परिवारी जन झुलसते रहते हैं वहाँ नरक के समान अशान्ति रहती है। किसी भी सम्बन्धी या मित्र को वहाँ जाकर अच्छा नहीं लगता इसलिए कोई भी वहाँ जाना पसंद नहीं करता बल्कि किनारा करते हैं।
          आफिस और व्यापारिक संस्थानों में यदि बॉस या मालिक अपनी मनमानी करे और कर्मचारी अपनी तो उस संस्थान का ईश्वर ही मालिक होता है। ऐसे संस्थानों में हड़ताल और तालाबंदी होती है। वहाँ कार्य ठीक न होने के कारण घाटे होते हैं।
         इसके विपरीत जिन संस्थानों में सब लोग एक परिवार की तरह मिल-जुलकर काम करते हैं, अपने सुख-दुख एक-दूसरे के साथ साझा करते रहते हैं,  वे संस्थान  सदा उन्नति करते हैं। वहाँ पर मालिक भी हमेशा प्रसन्न रहते हैं और कर्मचारी भी  खुश रहते हैं।
           जिस देश या राष्ट्र में सत्तापक्ष और प्रजा साथ मिलकर नहीं चलते हैं वहाँ पर लूट-खसौट, भ्रष्टाचार व अनैतिक कार्य अधिक होते हैं। लड़ाई-दंगे होना वहाँ कोई नई बात नहीं रह जाती। उस राष्ट्र में चारों ओर आराजकता का साम्राज्य रहता है। कोई किसी के कहने पर नहीं चलता। ऐसे देश पर शत्रु आसानी से अपना कब्जा कर लेते हैं।
          परन्तु जिस राष्ट्र में परस्पर सौहार्द रहता है वह सदा आगे ही बढ़ता है। वहाँ राजा खुश रहता है और प्रजा खुशहाल। वहाँ सुख-समृद्धि की वर्षा निरन्तर होती है। ऐसे ही देश दूसरे राष्ट्रों को झुकाने की सामर्थ्य रखते हैं।
         इसी प्रकार किसी भी धार्मिक अथवा सामाजिक संस्था के सभी कार्य यदि आपसी समझबूझ से होते हैं तो वे संस्थाएँ  निश्चित ही जनोपयोगी कार्य करती हैं। अन्यथा झगड़ों में उलझकर बंद हो जाती हैं या फिर कोर्ट-कचहरी के चक्करों में सिमट कर रह जाती हैं।
          आपसी समझौते की बुनियाद पर काम करते हुए हम जीवन में सफलता की ऊँचाइयों को छूते हुए कुछ भी कर गुजरते हैं। परन्तु मनमानी करते हुए हम रेस में पिछड़कर बाजी हार जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 27 सितंबर 2015

पिता की महानता

आकाश की ऊँचाई सदा से उसकी महानता का प्रतीक रही है जिसे छूना शायद मनुष्य के लिए नामुमकिन है। उसे छू पाने की होड़ लगाते हुए पक्षी ऊँचे और अधिक ऊँचे तक उड़ने का प्रयत्न करते हैं परन्तु वे आकाश की ऊँचाई तक पहुँच ही नहीं पाते तब उसे छू लेना बड़ी दूर की बात हो जाती है। हाँ, इस प्रयास में उनके पंख अवश्य टूट जाते हैं। वे लहूलुहान भी हो जाते हैं, थककर चूर हो जाते हैं। फिर वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कभी-कभी कुछ पक्षी अपने प्राणों की आहुति तक दे देते हैं।
        आकाश का गहरा नीला रंग आरम्भ से ही कलाकारों, चित्रकारों और रचनाकारों के लिए सदा प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। जब प्रातःकाल सूर्य भगवान का आविर्भाव होता है तब वहाँ पर छाई हुई लालिमा देखते ही बनती है। उस समय आकाश पर छाया वह अंधेरे का साम्राज्य हमारे देखते-देखते सूर्य के प्रकाश से ओझल हो जाता है। उसका निखरा हुआ नया रूप हमारे सामने आ जाता है।
           मध्याह्न काल (दोपहर) में सूर्य के प्रचण्ड तेज से दमकते आकाश की छवि कुछ अलग-सी दिखाई देती है। उस समय उसकी चमक को हम देखने में समर्थ नहीं हो पाते क्योंकि सूर्य के तेज से हमारी आँखे चुँधियाने लगती हैं।
         रात्रि में अंधेरा होता है आसमान काले रंग का दिखाई देता है। उस समय हमें ऐसा लगता है मानो काली चादर पर किसी ने चमकते हुए चाँद और सितारे टाँक दिए हों। रात में झिलमिल करती हुई इस चादर की छवि को निहारने का आनन्द कुछ अलग प्रकार का होता है।
         आकाश को कुछ समय के लिए जब बादल ढक लेते हैं तब उसके बाद निकलने वाले इन्द्रधनुष की छटा निहारते ही बनती है। चमकता हुआ आसमान और उस पर दमकता हुआ सात रंगों से सजा इन्द्रधनुष सबका मन मोह लेता है।
        ऐसी महानता और ऊँचाई वाले आकाश से भी बड़ा स्थान शास्त्रों ने पिता का माना है। पिता मनुष्य को इस पृथ्वी पर लाने वाला होता है। वह अपने बच्चे का पालन-पोषण करता है। उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है। उसे पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाता है ताकि वह सिर उठाकर सब लोगों के सामने गर्व से खड़ा हो सके। जब बच्चा योग्य बनकर अपने दायित्वों को निभाने लगता है तब पिता गर्व से फूला नहीं समाता।
          पिता अपनी सन्तान के माध्यम से  अपने सारे सपनों को साकार करना चाहता है। जब दूसरे लोग उसके बच्चे को होनहार अथवा योग्य संतान कहकर प्रशंसा करते हैं तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। पिता सदा संतान का शुभचिन्तक होता है। वह अपने सारे कष्टों और अभावों के  बावजूद संतान का हित साधता है।
         जिस प्रकार आकाश को छू पाना किसी के लिए भी असम्भव है उसी प्रकार पिता की महानता को छू सकना बच्चों के बस की बात नहीं होती। संतान के लिए जो कार्य पिता करता है उससे मनुष्य उऋण नहीं हो सकता चाहे आयुपर्यन्त उसकी सेवा करता रहे। बच्चे पिता के ऊँचे कद के बराबर नहीं पहुँच सकते। इसलिए पिता की महानता और उसकी ऊँचाई का सम्मान करते हुए उससे होड़ न करके उसे हर प्रकार से प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सू
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शनिवार, 26 सितंबर 2015

दूसरों की सहानुभूति बटोरना

दूसरों की सहानुभूति बटोरने में कुछ लोगों को बहुत मजा आता है। इसके लिए वे हर रोज नए-नए बहाने तलाशते रहते हैं। कभी अपने स्वास्थ्य का रोना रोते रहते हैं तो कभी अपनी नाकामयाबी का।
            कुछ लोग हर समय ही दूसरों के सामने अपने स्वास्थ्य अथवा अपनी मजबूरियों का रोना रो करके दूसरों को यह बताना चाहते हैं कि वे अकेले दुनिया में ऐसे हैं जो सबसे अधिक परेशान हैं। उन्हें इस बात को याद रखना चाहिए कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे कोई परेशानी न हो। किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो कोई धन-संपत्ति के न होने से दुखी है। कोई बच्चों के कारण परेशानी में है तो कोई व्यपार-नौकरी के साथियों से कष्ट में हैं।
         बहुत-सी बेटियाँ विवाह के उपरान्त से ही अपने ससुराल के लोगों की बुराई करके मायके में सहानुभूति पाना चाहती है। ऐसा करके वे अपने ससुराल पक्ष का अपमान करती हैं। कुछ लड़कियाँ अपने पति की बुराई अपने माता-पिता के सामने करके उसका सम्मान कम करवा देती हैं। वे भूल जाती हैं कि ऐसा करके वे अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए माता-पिता से धन-सम्पत्ति बटोर सकती हैं पर अपने पति व अपने घर को बदनाम कर देती हैं।
          सास अपनी बहू की बराई करके अपने घर-परिवार तथा अपनी सखियों में सहानुभूति बटोरती है और बहू अपनी सास की बुराई करके अपने मायके व सहेलियों में सहानुभूति बटोरने का यत्न करती है। इस प्रकार पर से कीचड़ उछालकर वे एक-दूसरे की गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं।
          कुछ पुरुष साथी महिलाओं की सहानुभूति पाने अथवा उनसे दोस्ती करने के लिए अपनी पत्नी के विषय में झूठी और मनगढ़न्त कहानियाँ सुनाकर उसके चरित्र को कलंकित करने से नहीं हिचकिचाते। उनकी पत्नी यदि सामने आ जाए तो उनकी पोल खुल जाती है।
         इसी प्रकार कई महिलाएँ भी कमोबेश इसी प्रकार का व्यवहार करके यानि अपने पति व अपने घर की बुराई करके दूसरे पुरुष मित्रों से अनावश्यक अतरंगता बढ़ाने का यत्न करती हैं। इस प्रकार करके पुरुष एवं महिलाएँ समाज में हंसी का पात्र बनते हैं और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध चलने का दोषी बनते हैं।
          कभी-कभी मित्र भी अपने दोस्तों की भावनाओं का मजाक उड़ाते हुए उनसे जब तब अपना मतलब पूरा करने का प्रयास करते हैं।
           असली मुद्दे की बात यह है कि जो भी लोग इस प्रकार से दूसरों की जायज-नाजायज तरीकों से सहानुभूति पाना चाहते हैं  वे भूल जाते हैं कि जब सच्चाई सामने आती है तो बहुत ही शर्मसार होना पड़ता है।
       कहने का तात्पर्य है यह है कि झूठ के पैर नहीं होते और सच्चाई कभी छुप नहीं सकती। सच और झूठ में कभी सच का पलड़ा भारी हो सकता है तो कभी झूठ का। पर अन्त में सत्य सात पर्दों से मुस्कुराता हुआ बाहर आ ही जाता है। तब झूठ का लबादा उतर जाता है।
         अपनी स्थिति के विषय वास्तविक जानकारी देना उपयुक्त होता है। इससे न तो अपनी स्वयं की हेठी नहीं होती है और न ही रिश्तों की गरिमा नष्ट होती है। रिश्तों में सद्भाव बढ़ाने के लिए नफरत और झूठ का नहीं प्यार और सच्चाई का छौंक लगाएँ। ऐसा करने से रिश्तों की गर्माहट कम नहीं होती बल्कि और एक-दूसरे के प्रति विश्वास बना रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

जीत की कामना

जीत की कामना हर व्यक्ति करता है अपने जीवन में कोई भी हारना पसंद नहीं करता। हालांकि हार और जीत दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो नदी के दो किनारों की तरह कभी मिल नहीं सकते। वे आवश्यक दूरी बनाकर रहते हैं।
          एक समय में मनुष्य को जीत या हार दोनों में से कोई एक ही मिल सकती है। यह उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपने सिर पर जीत का सेहरा बाँधना पसंद करता है अथवा फिर हारकर अपना मन मसोसकर रह जाता है।
           खेल में जीत और हार के मायने अलग होते हैं क्योंकि वहाँ न जीत स्थायी होती है और न हार। वहाँ तो दोनों ही पक्ष आमने-सामने होते हैं जिनमें एक हारेगा और दूसरा जीतेगा। जिन्दगी की इस रेस में ऐसा नहीं होता। हम दोनों हाथों में लड्डू की तरह जीत और हार को एकसाथ लेकर तो आनन्दित नहीं हो सकते। यदि यहाँ जीत का लक्ष्य लेकर चलेंगे तो हार से बच सकने का रास्ता खोजने में आसानी होगी।
          जीवन के खेल में हर कोई जीत के लिए लड़ता है। अपने प्रतिद्वन्द्वी को धोबी पछाड़ देने का यत्न करता है। हार जाने की कल्पना एक छोटा बच्चा भी नहीं कर पाता जिसे शायद इसका अर्थ भी ठीक से नहीं पता होगा। जब भी वह हारने लगता है तो रोने लगता है और दूसरों पर धोखा देने का आरोप लगाने लगाता है और फिर खेल छोड़कर भाग जाता है।
         जीतने वालों के हौंसले बुलन्द रहते हैं। वे अपने लिए आदर्श स्थापित करते हैं और दूसरों के आदर्श बनते हैं। ये निर्भीक लोग चुनौतियों का डटकर सामना करते हैं और उन्हें अपने पक्ष में करके ही दम लेते हैं। आकाश की ऊँचाई, सागर की गहराई, पर्वतों की रुकावट उनके मार्ग में बाधा नहीं बनती। वे एक छोटी-सी नौका से विशाल सागर पार कर लेते हैं। साइकिल से विश्व भ्रमण तक कर लेता है। एक बार जीत की आदत हो जाने पर बार-बार मनुष्य को इसका स्वाद चखने की इच्छा होती है।
            इसके विपरीत हार जाना बहुत ही सरल होता है। हाथ पर हाथ रखकर निठल्ले बैठ जाओ, जरा भी उद्यम न करो तब हार निश्चित है। घर वाले उठते-बैठते सदा लानत-मलानत करते रहते हैं। सारा समय नाकामयाबियों के किस्से सुनाकर उसे अपमानित करते हते हैं। मित्रमंडली हारे हुए व्यक्ति का साथी बनने से इन्कार कर देती है। तब भी यदि वह हार का ठिकरा अपने सिर पर फोड़ने से बाज नहीं आए तो ईश्वर ही ऐसे लोगों की रक्षा कर सकता है।
           हारने वाला अपने जीवन से निराश रहता है। अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक दायित्वों का निर्वहन न कर पाने के कारण मनुष्य सदा दूसरों के सामने अपना मुँह छिपाता फिरता है। उसके अपने पत्नी व बच्चे तक उसका साथ नहीं देते। वह अलग-थलग पड़ जाता है। उसे सदा के लिए ही नकारा घोषित करके अपनों से दूर कर दिया जाता है।
          सयाने कहते हैं- 'हारे को हरि नाम।' अर्थात जो व्यक्ति हार जाता है उसके पास परमात्मा की शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता।
           कुछ लोग हार जाने के डर से रेस का भाग ही नहीं बनते ऐसे ढुलमुल चरित्र वाले लोग पिछड़ जाते हैं। उनका नाम भी कोई नहीं लेता।
            जीत साहस, कठेर परिश्रम एवं निडरता का प्रतीक है और हार आलस्य, डर और भगोड़ेपन का। जो मनुष्य जितना आत्मविश्वास पूर्वक आगे बढ़ता जाता है वह उतनी ही बाधाओं को पार करता हुआ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। यही जीते हुए लोग इतिहास के पन्नों में युगों-युगों तक अमर हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

दरवाजे पर धूप

घर के दरवाजे पर
खड़ी धूप देखो आज
फिर से दस्तक दे रही है
मुझे बारबार ही जगाती जा रही है

कहती है उठ जाओ
और अब जुट जाओ तुम
अपनी दुनिया के कारोबार में
जब देर हो जाएगी तब क्या करोगी?

तुम्हारे सभी साथी
प्रतीक्षा किए बिना ही
तुम्हें पीछे छोड़ कर वहाँ
नित्य आगे बढ़ते जा रहे हैं पग-पग

चलो आलस्य छोड़ो
आगे बढ़ती जाओ तुम
कदमताल करते हुए अब
उनके कदमों से कदम मिला लो जरा

उनींदी आँखों को मैं
खोलने के प्रयत्न में हूँ
सोचती हूँ अब उठ जाऊँ
धूप ने मुझे आईना दिखला दिया है

अपने साथियों को
आवाज देती हूँ कि वे
जरा रुक जाएँ मेरे लिए
पर यह क्या किसी को फुरसत नहीं

किसी ने मेरी ओर
पलटकर देखा ही नहीं
मैं मायूस अकेले चलती
जा रही हूँ तेज कदमों को बढ़ाते हुए

शायद ऐसा ही
होता है दुनिया में
जो पिछड़ जाए उसे
कोई हाथ बढ़ा करके नहीं थामता है

समझ गई हूँ मैं
संसार का ये बहुत
दुखदायी चलन है यहाँ
खुद चलो, खुद बढ़ो तभी तो जीत है

समय रहते ही
खुल गई हैं आँखें
नहीं तो झूठे भ्रम में
जीती रहती सदा के लिए इस जग में।
चन्द्र प्रभा सूद
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