गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वागत है नववर्ष

स्वागत है नववर्ष
तुम एक बार फिर से
मुस्कुराते हुए आ रहे हो
अपनी मनमोहिनी छटा बिखेरते हुए।

तुम्हारे आने का
उल्लास धरती पर
चहुँ ओर दिखाई देता है
हर मन नई आस लिए बाट जोहता है।

अब सब सोचते हैं
शायद कुछ नया होगा
नव नवीन वादों से हटकर
सबके जीवन में हो जाएगा सुधार।

चाहते हैं रोक सकें
वह क्रन्दन, वह बन्धन,
वह भ्रष्टाचार, वह रिश्वतखोरी,
वह अनाचार, वह कदाचार मिल सब।

कोई कृष्ण धरा पर
अस्मत की रक्षा और
आततायी के विनाश हेतु
शायद आ ही जाए सुदर्शन चक्र लिए।

भूखों को अन्न
नग्नों वस्त्र देने वाला
कोई दानवीर एक बार
फिर से अवतरित हो जाए इस साल।

हो जाए किसी विध
आतंक का घिनौना रूप
इस जहाँ से कोसों कोस दूर
बच जाए मानवता शर्मसार होने से।

तुम्हारे आ जाने से
चारों ओर खुशियों का
साम्राज्य छा जाए बस
आशा करते हैं मिलकर सब जन।

नव निर्माण हो
नव-नूतन विहान हो
नव सृष्टि का विधान हो
नव उड़ान भरने के लिए नव पंख हों।

आओ नववर्ष आओ
चारों ओर होने वाले इस
जीवन संगीत को सुनो जरा
तुम्हारे आने की खुशी में हैं सब उत्सव।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

अलविदा 2015

अलविदा कहते हैं तुम्हें सन 2015 तुम्हें और सन 2016 तुम्हारा स्वागत करने के लिए हम पलक पाँवड़े बिछाए बैठे हैं। हमने योजनाएँ बना ली हैं, दोस्तों को दावत दे दी है और जश्न की पूरी तैयारी कर ली है। बस तुम जल्दी से आ जाओ, अब और प्रतीक्षा नहीं।
            जाता हुआ वर्ष बहुत कुछ सिखा जाता है। सबसे पहले वह आत्म मन्थन करने की प्रेरणा देता है जिससे पूरे वर्ष का अपना चलचित्र हम देख सकें। उसके लेखे-जोखे के विवरण की समीक्षा कर सकें। जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए, उनके विषय में हम विचार कर सकें। वे कभी प्रसन्नता देते रहे तो कभी खून के आँसू रुलाकर चले जाते रहे।
          इन सभी के बीच में डूबता-उतरता जीवन अपनी निर्बाध गति से चलता रहता है। पल-पल करके समय काटना तो बहुत दुष्वार हो जाता है परन्तु वर्षों वर्ष बीत जाते हैं। पीछे मुड़कर देखो अथवा सोचो तो लगता है कि कल ही की बात है। बीता हुआ सब समय मानो एक स्वप्न के जैसा लगने लगता है।
          यूँ देखो तो वही वादे, वही वादा खिलाफी, एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना, वही महंगाई का रोना, वही अनशन, वही जलूस, वही दूसरों पर टीका-टिप्पणी, वही अत्याचार-अनाचार आदि कुछ भी तो नहीं बदलता। हर वर्ष एक नई उम्मीद दामन थामे चली आती है परन्तु फिर मिलते हैं वही ढाक के तीन पात, यानि कि निराशा ही हाथ लगती है।
          चारों ओर जहाँ भी नजर घुमाओ वही संत्रास मुँह बाए खड़ा सब कुछ लील जाने के लिए तैयार मिलता है। इस सबसे बच पाना बहुत कठिन होता है। न चाहते हुए भी वह आड़े आ जाता है। बस अपने आप को समेटकर बच-बचाकर निकल जाने का असफल प्रयास करते हुए लोग चारों ओर दिखाई देते हैं। शेष बच जाता है उनका सौभाग्य जो उनका कितना साथ निभा पाता है, कहना कठिन होता है।
            नव वर्ष में कदम रखने से पूर्व हमें गम्भीरता से आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि जो योजनाएँ पिछले वर्ष बनाई थीं, इस बीते वर्ष उनको सफलता पूर्वक क्रियान्वित कर पाए अथवा नहीं। यदि हम मनचाही योजनाओं को पूर्ण कर सके हैं तो निश्चत ही यह समय अपनी पीठ थपथपाने का है। आनन्द मनाने का है। यह घमण्ड करके आसमान में उड़ने का विषय नहीं है।
           यदि हम अपनी योजनाओं को पूर्ण करने में असफल रहे तब वाकई यह समय चिन्ता करने का है। उस स्थिति में विमर्श करना बहुत आवश्यक है। उस असफलता पर बिसूरने के स्थान पर उन कारणों को खोजना है जो निराशा करने वाले हैं। अपनी गलतियों को सुधारकर हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है। तभी हम सफलता की ऊँचाइयों को पा सकेंगे।
         बीते वर्ष की अपनी असफलताओं को सफलता में बदलने के लिए दोगुणे उत्साह और हिम्मत से जुटना जरूरी है। इस तरह फिर अगला नव वर्ष जब आएगा तो हमारे मन कोई पछतावा नहीं होगा।
         भारतीय परम्परा रही है कि नव वर्ष का स्वागत वे यज्ञ-हवन करके करते हैं। इस दिन दान देने की परिपाटी भी है। यह नव वर्ष क्योंकि विदेशियो की तर्ज पर मनाया जाता है, इसलिए इस दिन डाँस-पार्टियाँ की जाती हैं। क्लबो में या होटलों में जाकर, धन व्यय करके, देर रात तक जश्न मनाया जाता है। कुछ लोग इस दिन को मनाने के लिए अन्यत्र देश अथवा विदेश में जाते हैं।
         यह नव वर्ष हम सबके लिए नित नए आयाम लेकर आए। सबके लिए खुशियाँ, अच्छा स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि लेकर आए। इसी कामना के साथ हमें इसका स्वागत खुले मन से प्रसन्न होकर करना श्रेयस्कर है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

नजर से न गिरना

बहुत कठिनाई से प्राप्त इस अमूल्य मानव जन्म में मनुष्य को कुछ ऐसे कार्य कर लेने चाहिए जिससे वह युगों-युगों तक याद किया जाता रहे। ऐसा कोई भी कार्य भूले से भी नहीं करना चाहिए कि वह देश, धर्म, समाज, घर-परिवार अथवा मित्रों की नजर से गिर जाए।
         हमारे ऋषि-मुनि और मनीषी कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के फेर की अग्नि से तपकर कुन्दन बने इस जीव को अपने शुभकर्मों की बदौलत यह मानव का चोला मिलता है। अनेक संघर्षों और कष्टों को भोगने के उपरान्त मिले इस जीवन को यूँ ही व्यर्थ गँवा देना तो समझदारी नहीं कही जा सकती।
         प्रयत्न यही करना चाहिए कि अपनी विवेक बुद्धि जो मनुष्य को सृष्टि के सभी अन्य जीवों से महान बनाती है, का सहारा लेकर वह ऐसी योजनाएँ बनाए जो सृष्टि के सभी जीवों लिए कल्याणकारी हों, किसी के लिए विनाशकारी कदापि नहीं हो। ईश्वर की बनाई हुई प्रकृति अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, रंग-रूप, जात-पात आदि सबका बिना भेदभाव किए समान रूप से सबका हित करती है और जीवन देती है।
         ईश्वर सभी जीवों के लिए उनके जन्म से लेकर उनकी मृत्यु पर्यन्त सम्पूर्ण समय के लिए सारी व्यवस्थाएँ करता है। उन्हें झोली भर-भरकर नेमते देता है। अब यह हम सब पर निर्भर करता है कि हम अपनी झोली में उस मालिक की दी हुई कितनी नेमते सुविधा पूर्वक समेट सकते हैं।
          यदि हमारी झोली सत्कर्मों को करने से मजबूत है तब उसमें ईश कृपा अधिक-से-अधिक समेटी जा सकेगी। यदि दुष्कर्मों को अधिकता से करने के कारण हमारी झोली कमजोर हो चुकी है तब ज्योंहि नेमते डाली जाएँगी त्योंहि वह फट जाएगी या चिथड़े-चिथड़े हो जाएगी। फटी हुई उस झोली में मनुष्य चाहकर भी मालिक की दी हुई सारी नेमते  नहीं सहेज पाएगा। उसकी वह फटी हुई झोली खाली-की-खाली रह जाएगी।
मनुष्य उन सब नेमतों को अपनी झोली से बाहर गिरते हुए मात्र मूक द्रष्टा बनकर देखता रह जाता है, कुछ उपाय नहीं कर सकता।
          मनुष्य जब तक अपने आचार-व्यवहार में बदलाव नहीं लाता तब तक वह  इस संसार में किसी का भी प्रिय नहीं हो सकता तो उस परमपिता परमात्मा का कृपापात्र वह कैसे बन सकता है? उसकी कृपादृष्टि हम सब पर बनी रहनी बहुत आवश्यक है।
         कोई भी मनुष्य इस संसार में अपने किसी प्रिय व्यक्ति की नजरों से गिरना नहीं चाहता। उसका यथासम्भव यही प्रयास होता है कि किसी भी विधि से वह सबका प्रिय बन जाए। उसके लिए वह नाना विध उपाय करता ही रहता है।
          परन्तु वह ईश्वर जो हमारा माता-पिता, भाई-बन्धु सब कुछ है, उसकी नजरों  में ऊँचा उठने के बारे में हम विचार ही नहीं करते। हम सभी मनुष्य सदा ही मनमानी करते हैं। स्वेच्छाचारिता वाला व्यवहार करते रहते हैं। हम अपने हृदयों को सदैव अपनी इच्छा से कलुषित करते रहते हैं। इस बात का हमें जरा भी ध्यान नहीं आता कि जब हम इस असार संसार से विदा लेकर उसके दर पर जाएँगे तो उससे नजरें कैसे मिला सकेंगे।
         इस भौतिक जीवन के अपने माता-पिता के सामने अपनी नजरें झुकाने का मौका देने वाला कोई काम हम नहीं करते। हम सदा गर्व से अपना सिर ऊँचा रखना चाहते हैं।
         यदि उस मालिक की नजरों में गिरना नहीं चाहते तो समय रहते ऐसे कर्म कर लीजिए ताकि अन्तकाल में पश्चाताप करने की आवश्यकता न पड़े अपनी नजरें झुकाकर नहीं बल्कि अपनी नजरें उठाए स्वाभिमान पूर्वक अपना सिर ऊँचा करके उस परमपिता के पास जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

मतिभ्रम

बहुधा हम सबको मतिभ्रम हो जाता है। इस मतिभ्रम का अर्थ है कि वास्तव में जो वस्तु नहीं होती, किसी और वस्तु में उसके होने का अहसास हमें होने लगता है। जैसे साँप को रस्सी समझ लेना अथवा रस्सी को ही साँप समझकर डर के कारण चिल्लाने लग जाना। अंधेरे स्थान पर किसी और के होने की कल्पना करके डरने लग जाना। बैठे-बैठे बिना किसी कारण अचानक चौंक जाना। इन सभी काल्पनिक मनोभावों को हम मतिभ्रम की श्रेणी में रख सकते हैं।
         इस मतिभ्रम के कारण कभी-कभी हमें लगने लगता है कि हमारे पास शायद कोई है अथवा हमारे पास से कोई गुजरा है। यानि कि हमने किसी परछाई को देखा है। कभी-कभी हम अनावश्यक अनिष्ट की कल्पना भी इसी मतिभ्रम के कारण करने लगते हैं। साधारण भाषा में इसे हम अपने मन का वहम अथवा नजरों का धोखा भी कह सकते हैं।
         सुप्रसिद्ध रामायणी कथा के कथाकार महाकवि तुलसीदास जी को भी ऐसा ही मतिभ्रम हो गया था जब वे मायके गई हुई अपनी पत्नी के पास अंधेरे में खिड़की के रास्ते गए थे। उस खिड़की पर एक साँप लटक रहा था। तुलसीदास जी उस साँप को रस्सी समझकर उसके सहारे से कमरे में चले गए। उनकी पत्नी ने उन्हें उस समय ताना दिया कि मेरे प्यार में अंधे होकर, साँप को रस्सी समझकर तुम मेरे पास चले आए, यदि ईश्वर से ऐसी लौ लगाई होती तो बेड़ा पार हो जाता।
          तुलसीदास जी के जीवन का टर्निंग प्वाइंट था यह। दुनिया से विरक्त होकर साधना करते हुए  जनमानस में लोकप्रिय, देश-विदेश में समान रूप से पूजनीय, घर-घर में श्रद्धापूर्वक गाई जाने वाली रामायणी कथा के रचयिता बनकर वे सदा के लिए इतिहास में  अमर हो गए।
         जब तक यह भ्रम एक सीमा तक रहे तब तक ठीक रहता है। इसके बढ़ जाने पर मनुष्य वहमी हो जाता है। वह एक ही ट्रेक पर चलने लगता है। खाने बैठेगा तो खाता चला जाएगा। हाथ धोने लगेगा तो हाथ धोता ही चला जाएगा। नहाने लगेगा या साबुन को घिसने लगेगा तो घंटों नहाता रहेगा अथवा साबुन घिसता ही चला जाएगा। कभी-कभी मनुष्य के मन में यह भावना भी घर कर जाती है कि कोई उसे खाद्य पदार्थ या पेय पदार्थ में जहर देकर मार डालेगा। इसलिए वह किसी पर भी विश्वास नहीं करता।
           कहने का तात्पर्य यही है कि इसकी अधिकता या अति हो जाने पर मनुष्य पागलपन की ओर कदम बढ़ाने लगता है। कब वह अपना मानसिक सन्तुलन खो देगा पता ही नहीं चलता। प्राय: ऐसे लोगों को अन्य जन या साथी पागल कहकर चिढ़ाने लगते हैं। इस कारण वे अपना आपा खोने लगते हैं, गाली-गलौच करते हैं और कभी-कभार मारपीट करने पर भी आमादा हो जाते हैं।
          इस मतिभ्रम से बचने के उपाय किए जा सकते हैं। मनुष्य को अकेले बैठकर अनावश्यक विचार प्रवाह में डूबना-उतरना नहीं चाहिए। परिवारो जनों और मित्रों सबके साथ मिल-बैठकर अपनी समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए। अनावश्यक पिष्टपेषण करने से बचना चाहिए।
         घर के सदस्यों का सहानुभूति पूर्वक व्यवहार मनुष्य को इस सकट से उबार सकता है। डाँटने-डपटने अथवा लानत-मलानत के स्थान पर प्यार से समझाकर उस मनुष्य को इस अवसाद या मतिभ्रम से बचाया जा सकता है।
          यथासम्भव सज्जनों की संगति में रहना चाहिए। समय मिलने पर अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना। इससे मनुष्य का आत्मिक बल बढ़ता है। तब वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य से नहीं डरता। उसे मतिभ्रम होने की स्थिति से सामना करने की सामर्थ्य आ जाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 27 दिसंबर 2015

बच्चों मेँ हिंसक प्रवृत्ति

बच्चों में आजकल हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। वे दिन-प्रतिदिन असहिष्णु बनते जा रहे हैं। पहले बात-बात चाकू-छुरे निकाल लेना तो आम बात थी। आजकल बहुत से बच्चे पिस्तोल व तमंचे भी रखने लगे हैं जिनका प्रयोग वे बिना हिचकिचाहट के शान दिखाते हुए करते हैं।
        विदेशों में ऐसी हुई बहुत-सी घटनाओं की चर्चा हमने टी.वी. पर देखी-सुनी है और समाचार पत्रों में पढ़ी है। वहाँ स्कूलों के बच्चों ने अपने साथियों की गोली मारकर हत्या कर दी। कभी-कभी उन्होंने अपने उन अध्यापकों की भी हत्या कर दी जो उनके जीवन के मार्गदर्शक हैं। इन घटनाओ के विषय में जानकर मन में पीड़ा होती है कि आखिर ये बच्चे बनना क्या चाहते हैं? ऐसी घटनाएँ अपने देश भारत में भी यदा-कदा होने लगी हैं। शायद यह पश्चिमी देशों का प्रभाव है।
         साथियों को छुरा घोंप देने अथवा गोली मार देने पर उन्हें कौन से स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति होती है? इसके पीछे कौन-सी मानसिक विकृति कुलाँचे भरती है? यह कभी समझ में नहीं आ सका।
          किसी को जान से मारना हद दर्जे की क्रूरता है। बच्चों में आपसी भाईचारा और प्यार बहुत अधिक होता है। बच्चे जब बड़े हो जाते तब उनमें बड़ों की देखा-देखी स्वार्थ की भावना घर कर जाती है। यह स्वार्थ हिंसक नहीं होता। वह बस अपने और अपनों के इर्द-गिर्द सिमट जाता है। उसमें हिंसा कदापि नहीं होती। नृशंता का यह भाव बच्चों में आ जाना वास्तव में बहुत ही चिन्ता का विषय है।
        मुझे इस विषय में एक कारण जो समझ में आ रहा है, वह यह हो सकता है कि बच्चे  जितने कार्टून सीरियल टी.वी. पर देखते हैं, उनमें हिंसा की भरमार होती है। विडियो गेम जो उनके लिए बनाए जाते हैं वे भी इन बच्चों में हिंसक वृत्ति को ही जन्म दे रहे हैं।
उनकी भाषा भी सुसंस्कृत नहीं होती। दृश्य और श्रव्य माध्यमों का असर जल्दी होता है। शायद इसीलिए बच्चों को ऐसे हिंसक भाव हम अनजाने में ही परोस रहे हैं।  इन सबके अतिरिक्त बच्चो के खिलौने भी उनमें हिंसक वृत्ति को जन्म देते हैं।
          शक्तिमान, स्पाइडर मैन आदि सीरियल भी हिंसा को ही पोषित करते हैं और कुछ नहीं। इनके अलावा ऐतिहासिक सीरियल भी कमोबेश हिंसक विचारों को ही बढ़ाते हैं। उन्हे देखकर बच्चो के मन में भी ऐसे ही हीरो बनने की इच्छा बलवती हो जाती है। उन्हें यही लगता है कि कोई जरा-सा भी सिर उठाए तो उसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। इस तरह आराम से जिन्दगी जी जा सकती है।
        कभी-कभी घर-परिवार अथवा समाज से मिलने वाले तिरस्कार से बच्चे कुँठाग्रस्त होकर भी इस प्रकार हिंसा के मार्ग पर चल पड़ते हैं। यहाँ बदले की भावना प्रमुख कारण होती है। ऐसे बच्चों को प्यार व दुलार की आवश्यकता होती है। उन्हें सही दिशा दिखाना हमारा कर्त्तव्य है।
         अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए इस हिंसक वृत्ति पर लगाम लगाना बहुत आवश्यक है। घर में माता-पिता का कर्त्तव्य बनता है कि हिंसा से भरपूर कार्टून के स्थान पर संस्कार देने वाले कार्यक्रमों को देखने के लिए प्रोत्साहित करें। ऐसे सीरियल कम-से-कम समय के लिए देखने दें। उन्हें बार-बार समझाएँ कि हिंसा से किसी का भला नहीं होता बल्कि नुकसान होता है। मिल-जुलकर भाईचारे से रहने के लिए शिक्षित करें। स्कूल या खेल के लिए जाते समय चौकस रहें कि बच्चे ऐसा कोई हिंसा करने वाला हथियार अने साथ न ले जाएँ।
           विद्यालय में अध्यापकों को भी चाहिए कि जहाँ बच्चे में हिसक प्रवृत्ति पनपती दिखाई दे, वहीं फौरन उनके मिता-पिता तथा स्कूल अथारिटिस को सूचित करें। इससे सम्भवत:इस मनोवृत्ति पर लगाम लगाई जा सके। समय-समय पर कौंसलर के पास ले जाने से बच्चे के मन में आए कुंठा अथवा एग्रेसिव भावों को नियन्त्रित किया जा सके।
          ऐसे बच्चों के लिए सरकार ने सुधारगृह बनाए हैं। कई कानून भी बनाए गए हैं। समाजसेवी संस्थाएँ भी अपने स्तर पर इन्हें सुधारने का प्रयास कर रही हैं।  इस प्रकार सबके सम्मिलित प्रयास से ही हम अपनी भावी पीढ़ी को इस विनाश से बचा सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

इच्छाएं असीम

मानव मन सदा ऊँची उड़ान भरता रहता है। इसका कारण है कि उसकी इच्छाएँ उसका साथ देती हैं। मनुष्य की वे इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। एक इच्छा पूरी करने के लिए मनुष्य दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करता है। उसे जब पूरा कर लेता है तब उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता।
           यह खुशी तो कुछ ही समय बाद उसका साथ छोड़कर छूमन्तर हो जाती हैं। इसका कारण है कि एक कोई और ही नई इच्छा मुस्कुराते हुए उसके सामने आकर खड़ी हो जाती है और मनुष्य को लुभाने लगती है। वह उसके जाल में फंसा ठगा-सा रह जाता है। तब फिर दुबारा से आरम्भ हो जाता है कठोर परिश्रम करने का वही चक्र जो उसकी रातों का चैन छीन लेता है और उसे भटकने के लिए विवश कर देता है।
           इच्छाओं की यह आँखमिचौली एक मृगतृष्णा है। इसके पीछे आखिर कब तक मनुष्य भागता रहेगा? इस भटकन का क्या कभी अन्त होगा? ये इच्छाएँ मनुष्य को कब सताना छोड़ेंगी? ये प्रश्न वास्तव में गम्भीरता से विचारणीय हैं।
               जब तक जीवन हैं संसार के आकर्षण मनुष्य को लुभाते रहते हैं। मनुष्य उनके हाथ की कठपुतली बना बस बेबस निहारता रहता है।
          मनुष्य जब तक इच्छाओं का गुलाम बना रहेगा तब तक सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत इच्छाओं को जब वह अपना दास बना लेता है तब वे उसके पीछे-पीछे चलती हैं। वे उसका अनुसरण करती हुईं उसे अपने शिकंजे में जकड़ने में कामयाब नहीं हो पातीं और न ही उसे अपना गुलाम बना पाती हैं। उस समय वे उस स्वामी के आदेश का पालन करती हैं।
         बारबार सताने वाली इन इच्छाओं में से कुछ को मनुष्य अपने जीवन में पूर्ण कर लेता है। जो इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं उनके लिए वह प्रसन्न हो जाता है। जिन इच्छाओं को वह किसी कारण से पूर्ण नहीं कर पाता उनके विषय में बैठा हुआ केवल योजनाएँ बनाता रहता है। यह भी कोई आवश्यक नहीं कि वे सभी इच्छाएँ उसकी पहुँच में हों। वह हाथ बढ़ाए और उन्हें पके हुए फल की तरह वृक्ष से तोड़कर खा ले। चुटकी बजाते हुए उन्हें वह सरलता से  पूरा कर पाए।
         ऐसी बहुत-सी इच्छाएँ होती हैं  जिन्हें मनुष्य मृत्यु पर्यन्त भी पूरा नहीं करने में सफल नहीं हो पाता। वही इच्छाएँ उसके सन्ताप का कारण बन जाती हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते वह उन्हीं ही के विषय में सोचता रहता है और चर्चा करता रहता है और आहें भरता रहता है। ये उसके जी का जंजाल बन जाती हैं।
         दूसरों के पास जब वह सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाएँ देखता है तो उन्हें पाने की उसकी इच्छा बलवती होने लगती है। उस समय वह उन्हें जुटाने की फिराक में यह भी भूल जाता है कि उन सबको पाना शायद उसके बूते से बाहर की बात है। दूसरों की होड़ करते समय अपने सीमित साधनों को अनदेखा करना उचित नहीं कहा जा सकता।
          इच्छाओं के पीछे जीवन भर भागते रहने से मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती। एक के बाद एक इच्छाएँ उसे मुँह चिढ़ाती रहती हैं और बड़े सुनहरे सपने दिखाती रहती हैं। उनकी ओर से सावधान रहते हुए अपने मन की शान्ति भंग न करके, सन्तोष रखना चाहिए। यदि कुछ मिल गया तो ठीक और यदि न मिले तो भी बढ़िया वाली वृत्ति सुखदायी होती है।
          जो मनुष्य को अपने भाग्य से मिल रहा है, उसे पाकर सन्तोष करते हुए उसे ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। उसे जो इस जीवन काल में नहीं मिला उसके लिए शुभकर्मों को करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। अधिक पाने के लालच में अपने वर्तमान को दाँव पर नहीं लगा देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

दूसरों की गलती

दूसरों की गलतियों को यत्नपूर्वक खोजते हुए हम छिद्रान्वेषी बन जाते हैं। स्वयं को दूध का धुला मानकर हम चैन की बंसी बजाने लगते हैं। यद्यपि व्यवहारिकता में ऐसा नहीं होता। इस सृष्टि में कोई भी मनुष्य सर्वगुण सम्पन्न नहीं है।हर मनुष्य में कोई-न-कोई कमी अवश्य होती है। यदि किसी मनुष्य में कोई बुराई नहीं होगी तो वह ईश्वर तुल्य बन जाएगा।
         बुराइयों और बुरों को खोजना कोई समझदारी का काम नहीं है। हममें पता नहीं कितनी बुराइयाँ होंगी जिनके विषयमें हम सोचते नहीं हैं। उस ओर से अपनी आँखे मूँद लेते है। इसीलिए कहा है-
        बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोए
        जो मन खोज आपना मुझसे बुरा न कोए॥
अर्थात मैं बुरे व्यक्ति को ढूँढने निकला परन्तु मुझे कोई भी बुरा नहीं मिला। जब मैंने अपने भीतर, अपने मन में खोजा तो मुझे पता चल गया कि मुझसे बुरा कोई और नहीं है। अर्थात मेरे अंदर बुराइयों की कोई कमी नहीं है।
        दूसरों में बुराई की खोज करते हुए हम अनजाने ही अपने अंतस में बुराइयों को जमा करने लगते हैं। यह जान ही नहीं पाते कि कब मानवीय मूल्यों को ताक पर रखते हुए, आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बाँधकर हम कूप मण्डूक की तरह बन जाते हैं। तब हमें स्वयं की बुराइयाँ नजरअंदाज करने की आदत पड़ जाती है।
         सच बात तो यह है कि मनुष्य को अपने मित्रों और बन्धुओं को सदा उनकी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों के साथ ही स्वीकारना होता है। अगर वह ऐसा नहीं कर सकता और दूसरों की बुराइयों को ढूँढकर सदा उन्हें अपमानित करता रहता है तो सबसे कटकर अलग-थलग पड़ जाता है। हर व्यक्ति यथायोग्य सम्मान चाहता है, अनादर नहीं। सभी लोग उस व्यक्ति को अहंकारी कहकर स्वयं ही किनारा कर लेते हैं। कोई भी उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगा।
        मनुष्य जैसा करता है वैसा ही फल पाता है। यानि मनुष्य को जीवन में वही मिलता है जो वह बोता है। यदि वह नफरत की खेती करेगा तो उसे नफरत मिलेगी और प्यार व अपनेपन की खेती करेगा तो उसके हिस्से में प्यार व अपनापन ही आएँगे। इसीलिए निन्दक अपने करीब रखने की सलाह दी गई है ताकि साबुन और पानी के बिना हमारी बुराइयों को दूर करके हमें एक अच्छा इन्सान बनने में मदद करे।
         कभी-कभी मनुष्य सोच लेता है कि उसने बड़ी सावधानी से लुक-छिपकर अपने गलत कार्य को अंजाम दिया है। किसी को क्या पता चलेगा? हमेशा उसकी सफेदपोशी बनी रहेगी, पर ऐसा होता नहीं है। उसकी की गई बुराई स्वयं ही उसका रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है। तब वह हतप्रभ हो जाता है।
       हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि हम दूसरों की बुराइयों की ओर ध्यान न दें। जैसा वे करेंगे स्वयं उसका भुगतान कर लेंगे। हम दूसरों को समझा सकते हैं पर विवश नहीं कर सकते। हमें केवल अपने दोषों की ओर देखना है और यथासम्भव उनको यत्नपूर्वक ढूँढकर दूर करना है। मनुष्य चाहे तो उसके लिए कुछ भी कर पाना असम्भव नहीं है।
         सार रूप में यही कह सकते हैं कि अपनी बुराइयों को तो हर हाल में हमें दूर करना पड़ेगा। यह शुभ कार्य हम आज ही कर लें चाहे वर्षों या कई जन्मों के पश्चात। इनसे मुक्त हुए बिना हम कभी मुक्त नहीं हो सकते। तब जन्म-मरण के चक्र में फंसे हम मनुष्यों को फिर चौरासी लाख योनियों में  भटकना ही पड़ता है। मनुष्य को उससे कोई नहीं बचा सकता।
चन्द्र प्रभ सूद
Twitter : http//tco/86whejp