शनिवार, 31 दिसंबर 2016

जन्मदात्री माँ

माँ मनुष्य की जीवनदात्री होती है। वह उसके लालन-पालन में अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखती। वह चाहती है कि उसके बच्चे सदा सन्तुष्ट और प्रसन्न रहें। इसके लिए वह अपना सारा जीवन घर और बच्चों को दे देती है। प्रयास यही करती रहती है कि बच्चों को किसी तरह की कोघ कमी न रहे। उन्हें बहलाने के लिए नानाविध उपाय वह करती रहती है।
         कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो खाने-पीने के पदार्थ, खिलौने या पैसे आदि भौतिक वस्तुएँ लेकर प्रसन्न हो जाते हैं। फिर वे सब कुछ भूलकर उस आनन्द में खो जाते हैं। पर इसके विपरीत भी कुछ बच्चे होते हैं जिन्हें इन सबसे कोई वास्ता नहीं होता उन्हें केवल माँ की गोद ही चाहिए होती है। माँ उन्हें कितना भी बहलाने का प्रयास करे सब निष्फल हो जाता है।
         अन्ततः उसे उस हठी बच्चे को गोद में उठाना ही पड़ता है। उसे अपनी गोद में उठाकर वह निहाल हो जाती है। उसे प्यार करती है और पुचकारती है। फिर खाने-खेलने की भी सारी वस्तुएँ  भी उसे दे देती है। सबसे बढ़कर अपना अमूल्य समय उस बच्चे को देती है।
         सभी माताओं की ही तरह यह एक माता भी अपने घर के दैनन्दिन कार्यों को निपटाने में व्यस्त थी। घर में उसके चारों बच्चे लड़ाई-झगड़ा करके शोर मचा रहे थे।  माँ उनके झगड़ने और शोर करने से बहुत परेशान हो रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह काम करे या बच्चों के झगड़े सुलझाए।
          काम छोड़कर वह बच्चों के पास आई। उसने एक बच्चे को दस रुपए का नोट दिया और कहा- 'बाहर जाकर कुछ खा लो।'
         फिर दूसरे बच्चे को खिलौने देकर कहा- 'इनसे खिलौनों से खेलो और शान्त हो जाओ।'   
         उसके बाद तीसरे बच्चे को खाने के लिए फल और मिठाई दी ताकि वह उन्हें खाए और फिर झगड़ना भूल जाए।
       चौथे बच्चे को बहलाने की माँ ने बहुत यत्न किया। उसे पैसे, खिलौने और फल आदि देने का प्रयास किया। परन्तु वह बच्चा माँ की गोद में आने के लिए रोता रहा। आखिरकार माँ ने बच्चे को गोद में उठा लिया। उसे खाने के लिए फल और मिठाई दी और फिर खेलने के लिए खिलौने भी दिए।
         इसी तरह वह जगज्जननी भी हम सब मनुष्यों को अलग-अलग कार्यों में उलझा कर रखती है। इससे हम मनुष्य उसे भूलकर अपने आनन्द में डूब जाते हैं, मौज-मस्ती में मस्त हो जाते हैं और उस जगत माता से दूर होते जाते हैं।
         इसके विपरीत जो मनुष्य इन सारे सांसारिक आकर्षणों के मोह को छोड़कर, केवल इस संसार की माता यानी उस परमपिता परमात्मा को ही पाने की जिद ठान लेता या कामना करता है, ऐसी सन्तान को वह माँ अपनी गोद में उठा लेने के लिए विवश हो जाती है। अपनी गोद में स्थान देने के साथ-साथ वह उन्हें सब कुछ ही प्रदान कर देती है।
         मनुष्य की अँगुली थामकर उसके चौरासी लाख योनियों के चक्र को काट देती है। इस भव सागर से पार ले जाने के लिए अपना वरद हस्त उसके सिर पर रख देती है। उस माँ की असीम कृपा से जीवन का परम उद्देश्य मुक्ति मनुष्य को प्राप्त हो जाता है यानी वह जन्म-जन्मान्तरों के जीवन और मृत्यु के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को पा जाता है।
         इस सबको प्राप्त करने के लिए एक मनुष्य को बहुत ही ईमानदारी से अपना प्रयास करना पड़ता है। मात्र प्रदर्शन करने से मन में सच्चे भाव नहीं आ सकते। अपनी माता की प्रिय सन्तान बनने के लिए मनुष्य को अपने कर्मों के प्रति सजग रहना होता है। सारा जीवन यही यत्न करना चाहिए कि माता के प्रति अपने सभी दायित्वों का निर्वहण वह उचित प्रकार से करे।
         उसका प्रयत्न यही होना चाहिए कि वह अपनी माता की सेवा-सुश्रुषा में कोई कमी न आने दे। इससे माता उससे सन्तुष्ट रहेगी और उसे अपने आशीर्वाद की दौलत से मालामाल कर देगी। माता से मिलने वाले इन शुभाशीषों की बदौलत वह दुनिया की हर जंग जीत सकता है। इसके साथ ही उसे हर कदम पर सफलता और बन्धु-बान्धवों का सहयोग भी मिलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

वैराग्य की अति पराकाष्ठा

वैराग्य की पराकाष्ठा मनुष्य का अपने शरीर तक से मोहभंग करवा देती है। वह इस असार संसार के साथ-साथ स्वयं अपने को भी विस्मृत कर देना चाहता है। इसीलिए कह बैठता है-
              'क्या तन मांजता रे आखिर
                माटी में मिल जाना।'
अर्थात इस शरीर को क्या माँजना इसने तो मिट्टी में मिल जाना है।
        इस पंक्ति के अनुसार श्री को सजाना-संवारना व्यर्थ है। लोग नाहक ही इस शरीर पर चौबिसों घण्टे ध्यान देते रहते हैं। इसे खूबसूरत दिखाने के लिए हरसम्भव प्रयास करते हैं। ब्यूटी पार्लर में हजारों रुपए व्यय करते हैं। जिम जाते हैं, योग के नाम पर एक्सरसाइज़ करते हैं, डायटिंग करते हैं, प्लास्टिक सर्जरी करवाते हैं। यानी शारीरिक सौन्दर्य बना रहे इसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
           शारीर को दिन-रात सजाने के चक्कर में वे अपने अहं कार्यों की ओर से विमुख हो जाते हैं। इसलिए उन्हें अपने घर और परिवार के दायित्वों से अधिक अपने शरीर की ओर ध्यान देना अधिक उपयुक्त लगता है।
           ऐसे विचार रखने वालों की इस धरा के किसी भी कार्य-कलाप में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। वे सभी कार्यों को करते समय निर्लिप्त रहते हैं। परन्तु कभी-कभी कुछ लोग इन सांसारिक दायित्वों से किनारा भी कर लेते हैं। इसे पलायनवादी प्रकृति भी कहा जा सकता है। भौतिक संसार के सभी रिश्ते-नातों से स्वयं को दूर करते हुए मनुष्य ईश्वर के समीप होने लगते हैं। दिन-रात वह प्रभु का नाम जपने में स्वयं को व्यस्त रखना चाहते हैं।
         यह शरीर हमें ईश्वर ने एक साधन के रूप में दिया है। जिसके माध्यम से हम इस संसार में अपने हिस्से के दायित्वों को पूर्ण कर सकें। यदि हम इसकी सार-सम्हाल नहीं करेंगे तो यह रोगी हो जाएगा। तब न ईश्वर की भक्ति होगी और न ही सांसारिक दायित्व पूरे हो पाएँगे। दूसरे शब्दों में -
     माया मिली न राम' वाली हमारी स्थिति हो जाएगी।
          घर में हम वाहन रखते है तो समय-समय पर उसका परीक्षण करवाना, उसमें ईंधन डलवाना, नित्य उसकी साफ-सफाई रखना आवश्यक होता है अन्यथा वह कबाड़ बनकर हम पर बोझ बन जाता है। इसी प्रकार शरीर को यदि साफ-सुथरा न रखा जाए, इसे समय पर भोजन न दिया जाए तो यह भी अपने और अपनों पर रोगी होकर बोझ बन जाता है।
         इसलिए इसका स्वस्थ रहना बहुत ही आवश्यक है। इस शरीर को बेशक आप साध्य न माने पर यह ईश्वर तक जाने का साधन तो है ही। हमारे सभी ऋषि-मुनि इस शरीर को साधन मानकर इसका पूरा ध्यान रखने का परामर्श देते हैं।
         यह सच है कि हमें केवल इस शरीर के लिए ही नहीं जीना चाहिए। मात्र इसी को सजाते-संवारते रहें और इसकी देखरेख के लिए ही पानी की तरह पैसा बहाते रहें। सारा-सारा दिन ब्यूटी पार्लर में जाकर सजते रहें अथवा नित नए बालों के स्टाइल बनवाते रहें। उस पर विभिन्न प्रकार के इत्र या परफ्यूम या डियो डालकर इसे नकली सुगन्ध से महकाते रहें। इस तरह इसको खूबसूरत दिखाने के चक्कर में हम दीन-दुनिया भूल जाएँ। घर-परिवार के दायित्वों से मुँह मोड़कर नित्य ही कलह-क्लेश करते रहें।
           इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सच है कि शारीरिक सौन्दर्य कुछ सीमित समय के लिए ही रहता है। जहाँ मनुष्य आयु को प्राप्त करने लगता है अर्थात वह वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है वहीं उसके चेहरे पर झुरियाँ आने लगती हैं। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होने पर अथवा किसी रोग के आ जाने पर भी शरीर की सुन्दरता मुँह मोड़ने लगती है।
          उस समय जिस शरीर की सुन्दरता पर हमें बड़ा मान था वह साथ निभाने से इन्कार कर देती है। तब हमारा यह सुन्दर शरीर सामान्य-सा रह जाता है। इसीलिए गुणीजन कहते है कि इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। यह हमारा सौन्दर्य स्थायी नहीं है। जब यह नहीं रहता तब हमें बहुत दुख होता है।
          अति वैराग्य की चर्चा को यदि हम छोड़ भी दें तो भी इस बात का विशेष ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि यह शरीर ही सब कुछ नहीं है इसके पीछे भागने का कोई लाभ नहीं होता। इसके अंदर रहने वाली उस आत्मा के विषय में भी सोचना चाहिए। तभी हम सब अपने मानव होने के धर्म को सार्थक करके अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

योगी और भोगी की रात

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं-
       या निशा  सर्वभूतानां  तस्यां  जागर्ति संयमी।
       यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥
अर्थात सब प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उसमें संयमी जागृत होता है। जिन विषयों में जीव जागृत होते हैं, वह मुनि के लिए रात्रि के समान हैं।
         भगवान कृष्ण हमें समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि रात्रि का समय योगी और भोगी सबके लिए होता है। भोगी अपने भोगों में व्यस्त रहते हैं और उस समय को व्यर्थ गंवाते हैं। योगी अपने उस समय का सदुपयोग करते हैं। वे ईश्वर की उपासना करते हुए अपना परलोक सुधारते हैं।
          मनुष्य रात्रि में अनेकानेक व्यवहारों में संलग्न रहते हैं। कुछ लोग इस समय अपनी कामेच्छाओं की पूर्ति करते हैं। अन्य क्लब, पार्टी अथवा पब आदि में व्यस्त रहते हैं। चोर-डकैत अपने कुत्सित कार्यो को अंजाम देते रहते हैं। स्मगलर आदि अपने माल को इधर-उधर करने की जुगत भिड़ाते रहते है। कुछ लोग अपनी नाइट ड्यूटी करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि दुनिया में सभी प्रकार के स्याह-सफेद कारोबार रात के समय में ही किए जाते हैं।
       योगी जनों की इन सांसारिक व्यापारों में कोई रुचि नहीं होती। उनका मन केवल हरि भजन में रमता है। रात्रि के उस एकान्त में जब प्राय: लोग सो जाते हैं, वे उठकर अपनी साधना करते हैं, प्रभु भजन करते हैं। तब शोर-शराबा नहीं होता और वातावरण शान्त होता है। उस मालिक के ध्यान में मन खूब रमता है, जिसने इस ससार की रचना करके हम सब जीवों पर बहुत उपकार किया है।
         संसार में रहने वाले सभी जीवों की वृत्ति ईश्वर की साधना करने में नहीं लग पाती। वे दुनिया की चकाचौंध में खोए रहते हैं। दुनियावी सुखोपभोग में उन्हें आनन्द आता है। वे समझते हैं कि ईश्वर की उपासना करने के लिए उनका समय अभी नहीं आया है। जब वृद्धावस्था आएगी तब हरि भजन कर लेंगे। वे भूल जाते हैं कि यदि बचपन से प्रभु के ध्यान में मन नहीं लगाया तो बुढ़ापे में जब शरीर अशक्त हो जाएगा व अस्वस्थता के कारण मन भटकने लगेगा तब तो उस मालिक का स्मरण नहीं कर पाएँगे।
          सारी आयु संसार के ताने-बाने में उलझे हुए कब यहाँ से विदा लेने का समय आ जाएगा, पता ही नहीं चल पाएगा। अन्तकाल में पश्चाताप करने की मोहलत भी वह परम न्यायकारी नहीं देता। उसका विधान बहुत कड़ा और पक्षपात रहित है। उसमें दया की कोई गुँजाइश नहीं होती। सीधा और सरल-सा उसका गणित है कि जैसे कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा।
           वह समय-समय पर चेतावनी देता रहता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसके अनुसार चल करके लौकिक एवं पारलौकिक सुख की प्राप्ति करते हैं अथवा उसे अनसुना करके केवल इहलौकिक ऐश्वर्यों को भोगते हैं। परलोक की चिन्ता को बिसरा देते हैं।
         ईश्वर हमें अपने जीवन को सुधारने के लिए बहुत अवसर देता है। बारबार वह दुख और कष्ट रूपी बाधाएँ हमारे रास्ते में खड़ी करता है, ताकि हम उसे याद करते रहें। हम हैं कि बस जहाँ सुख आया उससे मुँह मोड़ लेते हैं। अहंकार से भरकर हम आत्मप्रशंसा करते नहीं अघाते।
         इन सबका विश्लेषण करते हुए ही संयमी जन सदा ईश्वर की उन्मुख होते हैं। दुनिया के सभी कार्य-कलाप उसी को समर्पित करते हुए वे उस मालिक सदा याद करते हैं। इसीलिए जन साधारण का रात्रि काल उनके लिए विशेष होता है। उसका सदुपयोग वे जगत्पिता का ध्यान करते हुए करते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 28 दिसंबर 2016

रिश्ते निभाना

संसार में रहते हुए सांसारिक रिश्ते निभाना बच्चों का खेल कदापि नहीं है। यहाँ कदम-कदम पर अग्नि परीक्षा में खरा उतरना पड़ता है। रिश्तों की दौलत हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर की ओर से हमें उपहार में मिलती है। उसे सम्हालना हमारे हाथ में होता है। हम चाहें तो उस पूँजी को अपने सुकृत्यों और अपने सद् व्यहार से बढ़ा सकते हैं और चाहें तो अपने झूठे अहम व दुर्व्यवहार से घटा सकते हैं।
          रिश्तों की गरिमा बनाए रखने के लिए बहुत सारे समझौते कदम-कदम पर करने पड़ते हैं। जो सामंजस्य नहीं बनाना चाहते वे इस पूँजी को गँवाकर ठन-ठन गोपाल हो जाते हैं।
         परिवार में तन, मन और धन जुड़ाव अथवा विघटन के कारण होते हैं। अपने माता-पिता अथवा अन्य संबंधियों की सेवा तन से या इस शरीर से करेंगे तभी चारों ओर वाहवाही होगी। लोग कहेंगे कि फलाँ व्यक्ति सबके लिए बड़ी हाड़तोड़ मेहनत करता है।
        मन से यदि दूसरो के लिए कुछ किया जाए तो उसका प्रभाव सब पर पड़ता है। यदि अनमना होकर अथवा घास काटते हुए किसी के लिए कुछ किया जाए तो वह भार बन जाता है। ऐसा करने से न तो सेवा करने वाले को खुशी मिलती है और न ही करवाने वाले को।
           रिश्तों को जोड़ने के लिए धन की बहुत आवश्यकता होती है। बिना धन के घर आए किसी मेहमान की आवभगत नहीं हो सकती। घर में बड़े-बजुर्गों के स्वास्थ्य और उनकी अन्य आवश्यकताओ को पूरा करना धन के बिना सम्भव नहीं हो सकता। अपने जीवन यापन के लिए भी इसके बिना एक कदम भी नहीं चल सकते।
           जहाँ अन्य सभी रिश्ते तन, मन और धन से ही निभाने सम्भव हो पाते हैं वहीं सबसे महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध में तो ये तीनों बेहद जरूरी होते हैं। बच्चों के संदर्भ में यानि उनके लालन-पालन में भी इन तीनों का योगदान आवश्यक है। उनकी पढ़ाई-लिखाई, जीवन में उन्हें सेटल करना और शादी-ब्याह में इन तीनों तत्वों  का ही योगदान होता है।
         अन्त में मैं पति-पत्नि के रिश्ते की गरिमा की चर्चा करना आवश्यक समझती हूँ जहाँ इन तीनों की महती आवश्यकता होती है। सबसे पहले तन यानि शारीरिक सम्बन्धों की पवित्रता होनी चाहिए। दोनों में से यदि एक भी पक्ष विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाएगा तो यह पवित्र रिश्ता कदापि नहीं निभ सकता। दोनों ओर की पारदर्शिता होना इस रिश्ते की पहली शर्त है।
           दोनो का मन से जुड़ाव जब तक न हो तो भी सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं चलते। यदि दोनों में कोई भी एक अपने जीवन साथी को छोड़कर किसी अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध न रखते हुए भी भावनात्मक लगाव रखेगा तो भी रिश्तों की पवित्रता भंग होती है। इसका सीधा-सा अर्थ हुआ पत्नी घर में और प्रेयसी मन में अथवा पति घर में व प्रेमी मन में। इन दोनों के ये सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं निभ पाते। लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव, अबोलापन आदि गृहस्थी की नींव को खोखला करते है। इनके अतिरिक्त आपसी पारदर्शिता के अभाव में वहाँ विघटन की सम्भावना हमेशा बनी रहती है।
         धन भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है गृहस्थ जीवन का। यदि धन-सम्पत्ति के विषय में दोनों एक नहीं हैं और मेरा पैसा, मेरा पैसा करते रहते हैं तो वहाँ समस्याएँ अधिक बढ़ जाती हैं। एक-दूसरे को यदि समय पर धन न दिया जाए तो करोड़ों-अरबों रूपए भी व्यर्थ होते हैं। फिर चाहे कितनी भी लीपा-पोती कर लो रिश्ते दरकने लगते हैं। वहाँ  रिश्तों की मिठास चुकने लगती है और कटुता का साम्राज्य हो जाता है।
        तन, मन और धन की शुचिता आपसी सम्बन्धों के लिए नितान्त आवश्यक है। इनमें पारदर्शिता रखने वाले अपनी गाड़ी प्रसन्नता पूर्वक चलाते हैं और अन्य रोते-कल्पते और शिकवा करते रहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

दिन और रात

दिन के बाद रात और रात के बाद दिन यही प्रकृति का नियम है। सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर ने यह विधान हमारे लिए बनाया है। सूर्य प्रातःकाल होते ही उदय होता है तब दिन होता है। जब चन्द्रमा अपने लावलश्कर के साथ प्रकट होता है तब रात्रि होती है। संध्या समय होने पर सूर्य अस्त हो जाता है और प्रातः होने पर चन्द्रमा विदा ले लेता है।
          सूर्य व चन्द्र के उदित और अस्त होने का यह क्रम निर्बाध रूप से निरन्तर चलता रहता है। इसमें कहीं कोई त्रुटि नहीं होती। न ही उन दोनों को प्रतिदिन कोई काम पर जाने का आदेश देता है और न ही कोई अलार्म उन्हें जगाता है। कभी इन दोनों ने यह नहीं सोचा कि हम प्रतिदिन अपनी ड्यूटी करके थक गए हैं, चलो इंसानों की तरह चार दिन की छुट्टी करके आराम कर लें अथवा देश-विदेश में कहीं भी घूम आएँ या किसी हिल स्टेशन की सैर कर आएँ।
           कल्पना कीजिए यदि ऐसी स्थिति कभी आ जाए तब क्या होगा? सूर्य के न होने पर चारों ओर बर्फ का साम्राज्य हो जाएगा। हम गरमी और प्रकाश पाने के लिए छटपटाएँगे। दिन नहीं होगा और चारों ओर अंधकार की चादर बिछी हुई दिखाई देगी। नदियों और नालों का सारा पानी जम जाएगा। हम पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसेंगे। खाना खाने के लिए भी हमें परेशानी होने लग जाएगी।
         इसी प्रकार चन्द्रमा के न होने पर रात नहीं होगी। उसकी शीतलता से हम वञ्चित हो जाएँगे। सूर्य का प्रचण्ड प्रकोप हमें सहना पड़ेगा। इस प्रकार इन दोनों में से किसी एक के भी अवकाश पर चले जाने से सारे मौसमों और सारी ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा जाएगा और सब अस्त-व्यस्त हो जाएगा।
         एवंविध सूर्य और चन्द्रमा के न होने की अवस्था में सारी सृष्टि में त्राहि माम वाली परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इसी प्रकार अन्य प्राकृतिक संसाधनों के न होने पर भी स्थिति बिगड़ जाएगी। ईश्वर ने हम मनुष्यों को हर प्रकार का सुख और आराम देने के लिए सारा मायाजाल अथवा आडम्बर रचा है।
           हमारे लिए उस मालिक ने दिन और रात बनाए हैं। इसका उद्देश्य यही है कि अपने स्वयं के लिए और घर-परिवार के दायित्वों को पूर्णरूपेण निभाने के लिए दिन भर जीतोड़ परिश्रम करो। जब थककर चूर हो जाओ तब रात हो जाने पर चैन की बाँसुरी बजाते हुए घोड़े बेचकर सो जाओ। अगली प्रातः तरोताजा होकर फिर से अपने काम में जुट जाओ।
           मनुष्य सारा दिन हाड़ तोड़ मेहनत करके जब थकहार कर घर आता है तब उसे आराम करने की बहुत आवश्यक होता है। अगर ईश्वर ने रात न बनाई होती तो मनुष्य सो नहीं पाता। नींद न ले पाने के कारण अनिद्रा से परेशान होकर वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता। फिर डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए बहुमूल्य समय व धन की बरबादी होती।
          सूर्य का उदय होना हमें नवजीवन का संदेश देता है और उसका अस्त होना जीवन के अंतकाल का परिचायक है। सूर्य और चन्द्र दिन और रात के प्रतीक हैं जो हमें समझाते हैं कि जीवन में दुखों एवं कष्टों से पूर्ण रात कितनी भी लम्बी हो उसके बाद प्रकाश आता है। सूरज और चंदा की तरह जीवन में भी दिन और रात की तरह सुख एवं दुख की आँख मिचौली चलती रहती है। इसलिए जीवन में हार न मानते हुए आगे बढ़ो।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 26 दिसंबर 2016

दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार

मनुष्य को व्यवहार कुशल बनना चाहिए। उसमें इतनी समझ अवश्य होनी चाहिए कि हर व्यक्ति के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। सज्जनों और विद्वानों के साथ सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए अर्थात उनके समक्ष सदा विनम्र होकर ही रहना चाहिए। उनकी तरह सहृदय बनकर रहना चाहिए।
        दुर्जनों के साथ तो किसी भी तरह से सज्जनों जैसा व्यवहार किया ही नहीं जा सकता। इसका कारण यही है कि वे ऐसे व्यवहार के योग्य नहीं होते। एक विद्वान ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा हैं कि दुष्ट के साथ सदा दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए-
                शठे शाठ्यं समाचरेत्।
इसी बात को हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि-
            ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए।
         लोगों का ऐसा मानना है कि एक दुष्ट व्यक्ति साँप की ही तरह जहरीला होता है। उसके साथ कितना भी अच्छा व्यवहार क्यों न किया जाए, मौका मिलने पर वह डंक मारने से बाज नहीं आता। यानी साँप को कितना भी दूध क्यों न पिलाओ, वह तो अपनी औकात दिखा ही देता है। अर्थात वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता बल्कि डंक मार ही देता है।
       कहने का तात्पर्य है कि यदि किसी दुष्ट व्यक्ति के साथ नरमी का बर्ताव किया जाएगा तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाएगा। वह समझेगा कि मेरे साथ जो सरलता का व्यवहार कर रहा है, वह मनुष्य डरपोक है अथवा कायर है। उसमें इतनी सामर्थ्य ही नहीं है कि वह किसी को सजा दे सके। इसीलिए वह विनम्रता का प्रदर्शन कर रहा है।
         दुष्ट के साथ किसी कटु अनुभव के कारण ही शायद अन्य विद्वान ने अपना मत रखते हुए कहा है-
                 आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति:।
अर्थात् दुष्टों के साथ सरलता का बर्ताव करना वास्तव में नीति नहीं कहलाती।
          नीति यही कहती है कि दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए। उसके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे उसे ऐसा प्रतीत न हो कि सामने वाला कमजोर हैं या उसका प्रतिकार कर सकने में उसमे समर्थ नहीं है।
        वैसे सभी सज्जन यही चाहते हैं कि उन दुष्ट लोगों को सुधारने का एक अवसर दिया जाना चाहिए। सोचने की बात है कि मात्र एक अवसर मिलने पर क्या वास्तव में उनमें सुधार हो सकता है?
         ऐसा प्रतीत होता है कि शायद वे इस तथ्य को समझ ही न सकें कि उन्हें सुधरने की आवश्यकता है। वे स्वयं को महान मानते हैं। इसलिए अपने आचार-व्यवहार में वे कोई बदलाव नहीं करना चाहते।
         यदि उनमें सकारात्मक परिवर्तन हो सके तो सुधारकों के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी अन्यथा इसे समय की बरबादी ही कहा जाएगा।
        दुष्ट को यदि क्षमा कर देंगे तो वह हमारा उपहास करेगा और कहेगा कि हम में हिम्मत नहीं है, उससे डर गए है। उसका शायद साहस बढ़ जाएगा। वह हमारी क्षमाशीलता को कमजोरी समझकर और अधिक अत्याचार करने का यत्न करेगा। इसलिए उसका प्रतिकार करना बहुत ही आवश्यक होता है।
        अपवाद सर्वत्र उपलब्ध हो सकते हैं। इतिहास की खोज करने पर ऐसे व्यक्तित्व मिल जाएँगे। रत्नाकर डाकू (वाल्मीकि) व अंगुलीमाल डाकू दोनों ही महात्माओं की संगति में महान बने। अपने जीवन में आदर्श बनकर उन्होंने समाज को दिशा और दशा देने का कार्य किया। अँगुलियों पर गिने जा सकने वाले ऐसे कुछ ही लोग समाज में मिलेंगे।
      संस्कृत और हिन्दी की कुछ उक्तियों को आपके समक्ष रखते हुए यह विवेचना मैंने की है। अब आप सुधीजनों को विचार करना है कि हमें ऐसे दुष्ट लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? सज्जनों के प्रति अपने व्यवहार पर अंकुश रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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