रविवार, 31 जनवरी 2016

बाबुल की दुलारी बेटी

बेटी किसकी बन पाई है रे अपनी
सभी कहते उसको  धन पराया है

परअंगना जाने का मोहक सपना
घुट्टी में ही उसको मिल जाता है

न यह घर तेरा है, न वह घर तेरा
कहते-सुनते ही यह बीत जाता है

न जाने कैसे उसका जीवन सारा
फिर भी वह पराई ही रह जाती है

पनीरी की तरह वह बाबुल घर से
पिया के अंगना  बस अरमानों से

उखाड़कर वह रोप ही दी जाती है
दो नावों पर सवार होकर बटती है

अपने इस लघु जीवन में खटती है
अपना अस्तित्व खोजती रहती है

न बाबुल का अंगना था कभी मेरा
न साजन का घर बन पाया सवेरा

किस दर जाऊँ निज मन बहलाऊँ
विधना  तूने यह क्या लिख डाला

चक्की के दो पाटों में बस पिसती
रही जीवन में बूँद-बूँद कर रिसती

शिकवा कैसे कर सकी किसी से
कौन सुने पीर  पराई-सी उसी से

रिश्तों के मकड़जाल में उलझती
नहीं उसकी यह गुत्थी सुलझती

दोनों ही घरों का मान है वह बस
दोनों ही घरों की शान है वह बस

यूँ चलता जाता जीवन का खेला
अब आ गया चला-चली का मेला

अपना भरा-पूरा घर  उसका चाहे
बेटी  अब भी माँ की गोद ही चाहे

चाहे  कितनी हो पिया की प्यारी
बेटी तो बेटी है बाबुल की दुलारी।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 30 जनवरी 2016

बुद्धि का कुण्ठित होना

हमारी बुद्धि तब कुण्ठित होती है जब हम सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं और सत्संगति में जाकर उसे तीव्र नहीं कर लेते और उसे सुविचारों से पोषित नहीं करते। हम जितना अधिक अध्ययन करेंगे, हमारी बुद्धि को उतना ही अधिक भोजन मिलेगा। तभी हमारे विचारों में भी परिपक्वता आ जाएगी।
           मनीषी कहते हैं कि ज्ञानार्जन की कोई आयु नहीं होती। किसी भी आयु में मनुष्य किसी भी जीव से कुछ सीख सकता है। मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह आजन्म कुछ-न-कुछ सीखकर अपनी ज्ञान-पिपासा को शान्त कर सकता है।
           हमारी बुद्धि को भी जंग लग सकता है,  हालांकि यह बुद्धि लोहा नहीं है। कभी-कभी मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने वालों को अथवा दूसरे की कही हुई बात को उस समय न समझ सकने वालों को हम कह देते हैं कि तुम्हारी बुद्धि को जंग लग गया है, तुम्हारी मति मारी गई है, तुम्हारी अक्ल घास चरने गई है, तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है इत्यादि।
            इस सबको कहने का मात्र यही अर्थ होता है कि उस समय विशेष पर वे अपनी बुद्धि का वैसा प्रयोग नहीं कर रहे होते जैसा किसी समझदार मनुष्य को उस परिस्थिति में करना चाहिए।
         कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि लम्बे समय तक इसे सुविचारों से पोषित न किया जाए तो इसमें मोह-माया व स्वार्थपरक भावों का जंग लग जाता है। तब ये भाव मनुष्य को चैन से नहीं बैठने देते बल्कि उसे भटकने के लिए विवश कर देते हैं। यह स्थिति कभी भी सुखदायक नहीं हो सकती।
          मनुष्य जब खाली बैठकर सोचता है तो उसके मन के विचारों का ताना-बाना उसे परेशान करता रहता है। इसका प्रभाव उसके मन और मस्तिष्क पर पड़ता है। उसकी विवेकशील बुद्धि उसे विचलित कर देती है।
         यदि अपनी बुद्धि का उपयोग हम अपने परिवार, देश, समाज और धर्म के लिए करते हुए सकारात्मक कार्य करते हैं तो यह बुद्धि का सदुपयोग करना कहलाता है। अर्थात् उस समय हम बुद्धिमान कहलाते हैं। समाज में अग्रणी बनकर हम पूज्य हो जाते हैं।
         इसके विपरीत यदि हम इस बुद्धि को अपने देश, धर्म, परिवार अथवा समाज के विरुद्ध नकारात्मक कार्यों में लगाने लगते हैं तो इसका दुरूपयोग करते हैं। तब मनुष्य तोड़फोड़, भ्रष्टाचार, अनाचार व कदाचार के कार्य करते हैं। उस समय वह मनुष्य विशेष विघटनकारी बनकर द्रोही कहलाते हैं। समाज के लिए एक अभिशाप बन जाते हैं। उन्हें हर तरफ हिकारत की नजर से देखा जाता है। हो सकता है अपनी कुटिल चालों से कुछ समय तक वे दूसरों को प्रभावित कर सकें, परन्तु अन्तत: उन सब कृत्यों के दुष्परिणामों को उन्हें भोगना ही पड़ता है।
            ये लोग देश, धर्म व न्याय के शत्रु बन जाते हैं। सब कुछ होते हुए भी इधर-उधर भागते हुए और छिपते-छिपाते हुए, ये सारा जीवन गुमनाम रहकर बिता देते हैं। उनसे किनारा कर लेने में ही सबको अपना भला दिखाई देता है।
          लोमड़ी जैसी चालाक बुद्धि किसी भी व्यक्ति को पसंद नहीं आती है। सबका प्रिय वही मनुष्य बनता है जिसकी बुद्धि का सरल व्यवहार स्वाभाविक रूप से दूसरों के हृदयों को छू जाए।
          सदैव सकारात्मक कार्यों में अपनी बुद्धि को नियोजित करना बुद्धिमानी होती है। इसे हम सद् बुद्धि कहते हैं। नकारात्मक सोच रखने से बुद्धि कुटिल बन जाती है। इसलिए यथासम्भव बुद्धि को कुटिलता से बचते हुए इसे सरल और सहज बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को लोग अपनी सिर आँखों पर बिठाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

आईना आँखें

आँखे हमारा आईना होती हैं। ये जो आँखे हैं, बहुत ही दुष्ट और नालायक हैं जो कभी हमारा कहना नहीं मानतीं। ये आँखें बहुत चुगलखोर होती हैं जो न चाहते हुए भी हमारे मन के भावों की सबके समक्ष चुगली कर देती हैं। चाहे ऊपर से कितना ही न न करते रहें परन्तु इनकी बदौलत सबकी चोरी पकड़ी ही जाती हैं।
          सुख, खुशी, दुख, सन्तोष, ईर्ष्या, क्रोध, वात्सल्य आदि मानव मन के सभी भाव और सारी संवेदनाएँ, उसकी इन आँखों से ही प्रकट होती हैं। जब भी मनुष्य के जीवन में खुशी हो या गम आते है तब मौका मिलते ही ये तालाब की तरह भर आती हैं। गंगा-यमुना की धारा की भाँति ये बहने लगती हैं अथवा फिर बादलों की तरह बरसने लगती हैं। जहाँ मन के विपरीत कोई घटना अथवा बात हो जाए वहीं ये छलकने लगती हैं।
          नीली, कजरारी और बड़ी-बड़ी खूबसूरत आँखें कवियों के काव्य के लिए सदा ही प्रेरणा का स्त्रोत रही हैं। इनकी गहराई में डूबते-उतरते हुए कवियों ने इनके सौन्दर्य को लेकर बहुत से काव्य लिखे हैं। यत्र तत्र उन सभी काव्यों की सराहना भी की गई है। उनको पढ़कर ऐसे कवियों को दाद दिए बिना कोई नहीं रह सकता।   
           इनकी चितोरी चितवन से कोई बच नहीं सकता। इनके कटाक्ष बाण किसी को भी घायल कर सकते हैं। न जाने कितने ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों की गहन तपस्या इन्होंने भंग की है। आज भी इनके सौन्दर्य से किसी संसारी व्यक्ति का बच पाना सम्भव नहीं है।
          गम्भीरता का भाव लिए आँखे व्यक्ति के मन की पवित्रता और गहराई को प्रकट करती हैं। सरलता और सहजता के भाव वाली आँखे मनुष्य के हृदय की विशालता को दर्शाती हैं। बच्चों की तरह चंचल आँखें मानव मन की चंचलता का परिचायक होती हैं। क्रूरता या निर्दयता के भाव वाली आँखों से सभी बचना चाहते हैं। क्रोध से भरी हुई आँखों से डरकर लोग सहम जाते हैं और किनारा करने में अपनी भलाई समझकर कहीं भी छुप जाते हैं।
         किसी अपने के मिलन अथवा वियोग के समय ये अनायास ही बिन बुलाए हुए मेहमान की तरह टपक पड़ते हैं। प्रसन्नता आने पर हमारा साथ देते हैं। अत्यधिक कष्ट के समय आकर ये मनुष्य के मनोबल को कमजोर बनाते हैं।
           ये आँसू किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को कमजोर बना सकते हैं। स्त्री या पुरुष दोनों पर ये समान रूप से अपना प्रभाव छोड़ती हैं। कठोर कहे जाने पुरुष भी असहनीय कष्ट या किसी अनहोनी के समय अपने इन आँसुओं को रोक नहीं पाते, तब उनकी तथाकथित कठोरता कहीं गायब हो जाती है।
           स्त्रियों को तो वैसे भी कमजोर और करुणामयी कहा जाता है। इसलिए उन पर हर स्थिति का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक होता है। इसीलिए उनके आँसू किसी-न-किसी बात पर छलक आते हैं। पुरुष प्राय: दोषारोपण करते हैं कि स्त्रियाँ इन आँसुओं का अपनी बात मनवाने के लिए हथियार के रूप में इस्तमाल करती हैं। हालांकि यह कहना उनकी सच्चाई पर प्रहार करना ही होता है। निस्सन्देह इसके अपवाद भी हो सकते हैं।
         मक्कारों के घड़ियाली आँसुओं से सावधान रहने की बहुत आवश्यकता होती है। पता नहीं इन पर पिघल जाने वालों की पीठ में कब ये छुरा घोंप दें, कुछ नहीं कहा जा सकता। स्वार्थी लोग प्राय: ऐसे ही चकमा देते हैं।
         ये आँसुओं से भरी आँखे वास्तव में दो हृदयों को जोड़ने के लिए एक पुल का कार्य करती हैं। इनकी माया अपरम्पार है। जो व्यक्ति इनके जाल में उलझ गया वह तो समझो काम से गया। जो इनसे बचकर निकल गया वह संयमी कुछ भी कर सकने में समर्थ होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 28 जनवरी 2016

शत्रुता करना सरल

शत्रुता करना जितना सरल होता है, उसका परिणाम भोगना उतना ही कठिन होता है। मित्रता करना और उसे निभाना दोनों ही कठिन कार्य कहे जाते हैं। अपने अतिप्रिय मित्र को भी पलभर में अपना दुश्मन बनाया जा सकता है पर दुश्मन को अपना बनाना टेढ़ी खीर होता है। उन दोनों में परस्पर विश्वास हो जाना असम्भव नहीं पर कठिन अवश्य होता है क्योंकि अविश्वास की एक रेखा उनके मनों में छुपी रहती है। इसलिए उन दोनों में पूर्ण समर्पण का भाव नहीं आ सकता है।
          शत्रुता अथवा दुश्मनी करना मनुष्य के मन के कटु भावों की परिणति होती है। किसी व्यक्ति विशेष के विरूद्ध अपने मन में जितना अधिक ईर्ष्या, घृणा आदि विचारों को एकत्रित करते जाते हैं, उतना ही उसके प्रति क्रोध और नफरत बढ़ती जाती है। यही सारे दुर्भाव आगे चलकर दुश्मनी को जन्म देते हैं। हालांकि दुश्मनी का कोई बीज नहीं होती परन्तु फिर भी किसी-न-किसी कारण से वह बोयी जाती है।
          समाज में हम अपने आसपास देखते हैं और किस्से भी पढ़ते-सुनते हैं कि दुश्मनी की यह आग पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। इसके चलते न जाने कितने ही मासूम मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। पता नहीं ऐसे क्या कारण होते हैं जो ऐसी दुश्मनियाँ निभाई जाती हैं। इससे किसी भी पक्ष का हित नहीं होता। दोनों ही ओर के पक्षों को यह आग जलाकर रख देती है।
       इस विषय को लेकर बहुत-सी फिल्में बन चुकी हैं और टीवी सीरियल भी बने हैं। यदा कदा ऐसी घटनाएँ हमें समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलती हैं और टीवी चैनलों पर भी इनकी चर्चा होती रहती है।
         जर, जोरु और जमीन प्राय: शत्रुता के कारण माने जाते हैं। आज भी इन्हीं को हम दुश्मनी की जड़ मान सकते हैं। जर का अर्थ है धन सम्पत्ति, जोरु का अर्थ है पत्नी और जमीन का अर्थ है जयदाद।
          धन-सम्पत्ति और जमीन-जयदाद के लिए तो सगे भाई-बहन भी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। न्यायालय की शरण लेकर अपना समय और धन दोनों ही नष्ट करते हैं। बरसों लग जाते हैं इनका फैसला होने में। इसके लिए वे ईश्वर तुल्य अपने माता-पिता से धोखा करने और उन्हें दर-बदर करने में भी बाज नहीं आते। ऐसा घोर पापाचरण करते समय उन लोगों को पता नहीं उनकी आत्मा नहीं कचोटती।
           अपनी पत्नी की मान-मर्यादा की रक्षा करना हर पति का ही कर्त्तव्य होता है। किसी दुष्ट के कुदृष्टि डालने पर खून तक कर दिए जाते हैं। रामायणकाल और महाभारतकाल इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। जहाँ इस दुस्साहस के लिए भयंकर युद्ध लड़े गए और इतना विनाश हुआ।
           इतिहास के पन्नों में भी दुश्मनी की ऐसी घटनाओं की भरमार है जहाँ दो देशों में किसी भी कारण से अनावश्यक ही युद्ध हुए और दोनों ओर के असंख्य लोग काल कवलित हो गए।
          आज भी दो देशों में युद्ध का कारण दूसरे की जमीन पर कब्जा करना ही होता है। यही प्रतिस्पर्धा दोनों देशों में चलती रहती है कि मैं तुमसे अधिक शक्तिशाली हूँ। हमारे पास आधुनिक युद्ध सामग्री तुमसे अधिक है। यानि कि दो देशों में शक्तिप्रदर्शन भी इस शत्रुता का एक कारण बन जाता है।
          मेरे विचार में अधिकांश दुश्मनियाँ जाति के मद और अपनी नाक को बचाने के लिए की जाती हैं। और भी देखें तो कुम्भ के मेलों में पहले स्नान करने के नाम पर ही साधुओं के अखाड़ों में भी अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करने के लिए लट्ठ चल जाते हैं।
           कहने का तात्पर्य यही है कि इस दुश्मनी के अजगर को अपने जीवन से निकाल फैंकने में ही सबका भला है। इसे ढोल की तरह अपने गले से लगा लेने पर अपना ही नुकसान होता है। हमारी अपनी मानसिक शान्ति नष्ट होती है जो अमूल्य है, इसके लिए मनुष्य जगह-जगह भटकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 27 जनवरी 2016

आत्मसम्मान

अपना आत्मसम्मान हर मनुष्य को बहुत प्रिय होता है। उस पर होने वाले तनिक से प्रहार को भी वह सहन नहीं कर पाता। यह आत्मसम्मान न हुआ मानो शीशा है जो जरा-सी चोट लगने पर किरच-किरच होकर बिखर जाता है। आत्मसम्मान कोई शरीर नहीं है परन्तु फिर भी हर बात पर घायल हो जाने के लिए बेताब रहता है।
          वास्तव में सम्मान की कामना हर व्यक्ति करता है। कहते हैं कि जहाँ मान व सम्मान न मिले वहाँ भूलकर भी नहीं जाना चाहिए। फिर आत्मसम्मान की बात कुछ अलग ही है। जिस व्यक्ति को अपना आत्मसम्मान प्रिय नहीं है, वह तो इन्सान कहलाने के योग्य भी नहीं है। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
                मानो हि महतां धनम्।
अर्थात् मान ही महान लोगो का धन है। दूसरे शब्दों में कहें तो मनस्वी अपने जीवन को अभावों में जी लेंगे पर अपने स्वाभिमान को ठेस नहीं लगने देंगे। उनके लिए उनका मान ही सर्वोपरि होता है, अन्य शेष कुछ भी नहीं।
          इसे नाक का प्रश्न भी कहा जाता है। स्वाभिमानी किसी को भी अपनी पगड़ी उछालने नहीं देते। आग जब अपने तेज में होती है तो सभी उससे डरते हैं, पर जब वह राख बन जाती है तो चींटियाँ भी उस पर चलने लगती हैं।
          स्वाभिमानी व्यक्ति टूट सकते हैं पर किसी के आगे अनावश्यक रूप से झुकते नहीं है। वे चाहते है कि उन्हें कोई खाने के लिए दे चाहे न दे परन्तु उनके आत्मसम्मान को ठेस न लगाए। वे दुनिया के हर सुख व ऐश्वर्य को इसके लिए बलिदान कर सकते हैं। महाराणा प्रताप, गुरु गोबिन्द सिंह आदि स्वाभिमानी व्यक्तियों के बलिदानों से इतिहास के पन्ने भरे हुए हैं जिन्होंने अपने देश, धर्म व समाज के लिए अपनी व अपने बच्चों तक की परवाह नहीं की। इसीलिए वे आदरणीय हमारे हृदयों में बसते हैं। हम उनके लिए प्रात:स्मरणीय विशेषण का प्रयोग करते हैं।
          इसके विपरीत वे लोग भी होते हैं जो अपने आत्मसम्मान को ताक पर रखकर अपने तुच्छ स्वार्थो को महत्त्व देते हैं। उन्हें कोई कुछ भी कह ले, चिकने घड़े की तरह उन पर कोई असर नहीं होता। ऐसे लोगों के लिए कहा जाता है -
           बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैय्या।
अर्थात् वे हर रिश्ते या सम्बन्ध को केवल पैसे के तराजू पर तौलते हैं। इसीलिए उनके मायने अलग ही होते हैं। उन्हें लोग डीठ, चापलूस, चिकना घड़ा अथवा चाटूकार आदि विशेषणों से नवाजते हैं। ये लोग अपनी तथाकथित प्रशंसा को सुनकर बस दाँत निपोरकर रह जाते हैं।
        दुनिया भाड़ में जाए, इनके स्वार्थों की पूर्ति बस किसी भी तरह से होनी चाहिए। ये किसी भी हद तक गिरकर अपना काम्य पाना चाहते हैं। ऐसे ही लोग अपने स्वार्थ पूर्ति करने में इतने अन्धे हो जाते हैं कि अपने देश व धर्म का सौदा करने से भी बाज नहीं आते। अपने ही देश के गुप्त दस्तावेजों को चन्द टुकड़े लेकर शत्रु देश को बेच देते हैं। उन्हें तनिक भी यह भय नहीं लगता कि शत्रु देश यदि अपने देश पर आक्रमण करेगा और न जाने कितने वीरों को उनके कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। देश पर युद्ध का अनावश्यक बोझ बढ़ जाने से उन्नति के कार्य प्रभावित हो जाएँगे। ऐसे देशद्रोही लोग पकड़े जाने पर सारी आयु सलाखों के पीछे व्यतीत करते हैं। अपने देश व अपनों के लिए कलंक बन जाते हैं।
         मनुष्य को अपनी इच्छाओं को अपनी मेहनत के बलबूते पर पूर्ण करना चाहिए। स्वार्थों को अपने ऊपर इतना अधिक हावी नहीं होने देना चाहिए कि वह कुमार्ग पर चलकर तिरस्कार का पात्र बन जाए। अपना आत्मसम्मान बचाए रखने का यत्न करना चाहिए, उसे किसी भी मूल्य पर गँवाना नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 26 जनवरी 2016

तीर्थों की परिकल्पना

तीर्थ स्थान की परिकल्पना कुछ मुट्ठी भर स्वार्थी लोगों की मनोवृत्ति का परिणाम है। उन्होंने सीधे-सादे धर्मभीरू लोगों को किए गए पापों को नष्ट करने का लालच देकर अपना हित साधने का प्रयास किया है। वे इस सत्य को भूल गए कि-
         अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् जो भी अच्छे या बुरे कर्म मनुष्य करता है, उन्हें भोगना पड़ता है। यानि कि उन कर्मों को भोगे बिना उनसे मुक्ति सम्भव नहीं।
         शायद यही कारण है कि मनुष्य दुष्कर्म करने में जरा भी गुरेज नहीं करता। उसे लगता है कि गंगा जी में डुबकी लगा लेंगे या तीर्थ कर आएँगे अथवा पाप की कमाई का कुछ अंश दान कर देंगे तो हम पापों के दुष्परिणाम से बच जाएँगे। काश ऐसा हो सकता। जब उन कर्मों का परिणाम असह्य कष्टों के रूप में भुगतना पड़ता है तो इन्सान टूट जाता है। उसे अपने चारों ओर घटाटोप अंधकार दिखाई देता है। उस समय वह त्राहि त्राहि करता है।
          'प्रसंगाहरणम्' ग्रन्थ का कथन है कि विमल मति वाले विद्या तीर्थ में, साधु सत्य तीर्थ में, मलिन मन वाले गंगा तीर्थ में, धनाढ्य दान तीर्थ में, कुलवधुएँ लज्जा तीर्थ में, योगी ज्ञान तीर्थ में और राजा युद्ध तीर्थ में स्नान करके पापों का क्षय करते हैं।
          कहने का तात्पर्य यही है कि निरन्तर अध्ययन करने वाले ज्ञानी और सत्यवादी लोग पापकर्म से बचे रहते हैं। जो राजा अपनी प्रजा का हित साधने में जुटा रहता है वह अनुचित कार्य नहीं कर सकता।
          'पद्मनन्दि पञ्चविंशति:' ग्रन्थ में विद्वान कवि कहते हैं-
         आत्मबोधशुचितीर्थमद्भुतं
              स्नानमत्र कुरुतोत्तमं जना:।
          यन्न यात्यपरतीर्थकोटिभि:
                क्षालयत्यपि मलं तदन्तरम्॥
अर्थात् आत्मबोध पवित्र एवं अदभुत तीर्थ है। हे ज्ञानियो! इसमें अच्छी तरह स्नान कीजिए। क्योंकि दूसरे करोड़ों तीर्थों से भी आन्तरिक मल का प्रक्षालन नहीं होता। 
         इस श्लोक में यही समझाया है कि करोड़ों तीर्थो में भटकने से भी अपने पापो का क्षय नहीं होता। अपने अन्त:करण को शुद्ध कर लेना ही सबसे बड़ा तीर्थ है। जो मनुष्य आत्मज्ञान को जान लेता है, उसके सभी कर्म शुद्ध होते हैं, पापकर्म की वहाँ गुँजाइश ही नहीं रहती।
        इसी तरह का भाव महाभारत में भी वेदव्यास जी ने कहा है कि जो दान लेने से मुक्त है, जिस किसी से भी सन्तुष्ट है तथा जो अहंकार से रहित है, वही तीर्थों का फल पाता है।
         विचारणीय है कि तीर्थ स्थान कहते किसे हैं? महाकवि कालिदास ने अपने 'कुमरसमभवम्' महाकाव्य में इस विषय में कहा है -
        यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्ष्यते।
अर्थात् महापुरुषों का निवास स्थान ही तीर्थ कहलाता है।
          महापुरुषों का निवास इसलिए तीर्थ स्थान बन जाता है कि उनका संसर्ग पाकर मनुष्य अपने अंतस की सभी बुराइयों को छोड़कर सन्मार्ग पर चलने लगता है। तब वह कुकर्मों करने से बच जाता है। फिर उसे अनावश्यक दुख-तकलीफों का सामना नहीं करना पड़ता।
           यदि शान्ति चाहिए अथवा ईश्वर प्राप्ति लक्ष्य है तो भी वे हमारे अपने मन में ही मिलते हैं, कहीं बाहर जाकर खोजने से कदापि नहीं। अपना इहलोक और परलोक दोनों को सुधारने के लिए और कष्टों-परेशानियों से बचने के अपने अंतस को ही तीर्थ के समान शुद्ध और पवित्र बनाना चाहिए। उन तथाकथित तीर्थों में भटककर अपना समय और परिश्रम से कमाए हुए धन दोनों को ही बचाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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प्रेम का मार्ग

प्रेम का रास्ता बहुत ही कष्टकर होता है। इसके साथ-साथ बहुत तग अथवा संकरा भी होता है। एक समय में इसमें से एक ही व्यक्ति गुजर सकता है, दो नहीं। इसी भाव को दोहे के इस अंश में कहा गया है-
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाए।
अर्थात् प्रेम की गली में बहुत संकरी है, उसमें इतना स्थान ही नहीं है कि उसमें से दो लोग एकसाथ समा सकें।
         जब तक दो व्यक्तियों में तेरा और मेरा का भाव रहेगा तब तक प्रेम नहीं हो ही नहीं सकता। जब वे दो जिस्म और एक जान बन जाते हैं तब सही मायने में प्यार होता है। यह बहुत ही गूढ़ विषय है। जब दो लोगों में ऐसा प्यार हो जाता है तो वहाँ समर्पण की भावना होती है। वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को बिन कहे और बिन सुने समझ जाते हैं। मीलों दूर बैठे हुए भी एक-दूसरे की खैर-खबर रख सकते हैं, जिसे हम टेलीपैथी कहते हैं। वह उनमें स्वत: विकसित हो जाती है।
          यह सब दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान होता है। जहाँ चूक हो गई वहाँ मनुष्य चोट खा लेता है। फिर उसे सुधारने में वर्षों व्यतीत हो जाते हैं।
         प्रेम की यह गहरी परिभाषा है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार से दो अलग-अलग शख्सियत बनकर इस मार्ग में नहीं रहा जा सकता है। सच्चा प्रेम अपने अस्तित्व को अर्थात् स्व को मिटाकर दूसरे में एक हो जाना होता है। यह सम्बन्ध प्रतिदान नहीं माँगता बल्कि पूर्ण समर्पण भाव इसमें होता है।
         प्रेम कुछ लेना नहीं जानता, वह तो बस देना ही जानता है। इसीलिए सबको अपना बना लेता है। यदि लेनदेन की या बदले की भावना यहाँ हावी गई तो फिर वह प्रेम नहीं रह जाता बल्कि व्यापार बन जाता है। इस प्रेम को विशुद्ध ही रहने दें, इसमें विष न घोलें।
         पति-पत्नि का प्रेम भी सही मायने में ऐसा ही होना चाहिए। दोनों में तेरा-मेरा न होकर हमारा होना चाहिए। दोनों के सुख-दुख सब एक होने चाहिए। जब तक तन, मन और धन से वे दोनों एक नहीं होंगे उनका प्रेम अधूरा रहेगा। परस्पर का यह अधूरापन हमेशा नुकसान देता है।
         दोनों में समझौता हो जाना कोई शुभ लक्षण नहीं है। जहाँ समझौता टूटा वहीं पर बिखराव होने लगता है। तब परिवार टूटने लगते हैं और आपसी सम्बन्ध दरकने लगते हैं। लम्बे समय तक दोनों को साथ निभाना होता है। इसलिए जीवन में परस्पर प्रेम और  विश्वास को बनाए रखना पति-पत्नि दोनों का कर्त्तव्य है।
          आज युवा पीढ़ी ने इस प्यार को एक व्यापार बना दिया है। उनके लिए इस प्यार के मायने केवल मौज-मस्ती है।प्यार के नाम पर वे उच्छृंखल बनते जा रहे हैं। जहाँ तक उनका स्वार्थ पूरा होता रहता है, बस वहीं तक प्यार होता है। उसके बाद फिर तू कौन और मैं कौन? वे इस बात को बिल्कुल भूल गए हैं कि प्यार देने और समर्पण का नाम है। इसमें स्वार्थ का कोई काम नहीं है।
          एकपक्षीय प्रेम सदा ही घातक होता है। इसके चक्कर में हत्याएँ व आत्महत्याएँ भी हो जाती हैं। एसिड अटैक भी इसी का ही परिणाम है। यथासम्भव इससे बचना चाहिए और दूसरो को बचाना चाहिए।
           ईश्वर से प्रेम का आधार भी पूर्ण समर्पण है। उससे लौ लगाने का अर्थ है उसमें एकाकार हो जाना। यह वही प्यार है जो मीराबाई ने दुनिया की परवाह न करके अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर भगवान कृष्ण से किया। राधा ने भी सच्चे मन से भगवान कृष्ण से नाता जोड़ा। हमारे ऋषि-मुनि इसी प्यार की बदौलत असार संसार के सारे कारोबार से स्वयं को विलग कर लेते हैं।
          जब तक इस प्यार में तड़प न हो, तब तक मनुष्य इस संकरे रास्ते पर चल ही नहीं सकता। दोनों के मैं को छोड़े बिना यह पवित्र प्रेम सम्भव नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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