सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

दुःख से बचना

दुख और सुख मनुष्य के अभिन्न मित्र हैं। कभी सुख साथ निभाने आता है तो कभी दुख दनदनाते हुए आ जाता है। इन दोनों पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। उसके चाहने अथवा न चाहने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ये तो यथासमय आकर अपना मधुर और रौद्र रूप दिखा जाते हैं। इन दोनों के व्यूह में फंसा हुआ बेचारा मनुष्य मात्र मूक दर्शक बना सब कुछ सहन करने के लिए विवश हो जाता है।
           सुख का समय आने पर मनुष्य के साथी अपने-पराए सभी लोग बनना चाहते हैं। उसकी समृद्धि को देखकर उसके इर्द-गिर्द गुड़ पर मक्खियों की तरह मंडराने वाले बहुत से लोग भी आ जाते हैं। उसका प्रशस्ति गान करके उसके दिमाग को वे सातवें आसमान पर चढ़ा देने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बाद में उसकी निन्दा करने से बाज नहीं आते कि सुख-समृद्धि के आ जाने पर इसका दिमाग खराब हो गया है अथवा घमण्डी हो गया है। यह तो अपने बराबर किसी को नहीं समझता।
          उनकी परीक्षा केवल दुख के समय की जा सकती है। तभी कहा है-
विपद कसौटी जो कसें ते ही साँचे मीत।
इस पंक्ति का अर्थ है मुसीबत में जो साथ निभाते हैं, वही वास्तव में अपने होते हैं। इसलिए इनकी परख दुख की कसौटी पर की जाती है।
           उस समय वे स्वार्थी लोग अपना  समय व्यर्थ गंवाए बिना शीघ्र किनारा कर लेते हैं। फिर ऐसा व्यवहार करते हैं मानो उनसे कभी जान-पहचान भी नहीं थी। वे हमारे सामने से नजरें चुराकर, कन्नी काटकर निकल जाते हैं। ऐसे स्वार्थी बन्धु-बान्धवों से सावधान रहना मनुष्य के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है। आँखों से मोह-माया आदि की पट्टी हटा करके इन सबको पहचानने की आवश्यकता होती है ताकि कभी भी कोई उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ न कर सकें, उसका शीशे की तरह नाजुक हृदय टूटकर चकनाचूर न हो सके।
            जीवन में दुख को रोकने का एकमात्र उपाय यही है कि समय रहते यदि इस सच को स्वीकार कर लिया जाए कि इस असार संसार में सदा के लिए हमारा कुछ भी नहीं है, पहले भी हमारा कुछ भी नहीं था और भविष्य में भी हमारा कुछ नहीं रहेगा। यदि इस भाव को अपने अन्तस् में आत्मसात् कर लिया जाए तो फिर मन को कम कष्ट होता है। अन्यथा मनुष्य ऐसी विपरीत परिस्थितियों के आने पर अपनों द्वारा किए गए ऐसे अकल्पनीय व्यवहार से मानो टूटने लगता है।
          इस प्रकार अपने विवेक का सहारा लेकर मनुष्य यह समझ जाता है कि संसार के ये सभी पदार्थ उसे केवल भोगने के लिए मिले हैं, दिल से लगाने के लिए नहीं मिले। जिसके ये सकल पदार्थ है वह कभी भी उन्हें वापिस ले सकता है। जैसे यात्रा करते समय हम उस स्थान विशेष का ध्यान रखते हैं और यात्रा समाप्त होते ही उससे निस्पृह होकर अपने रास्ते चल पड़ते हैं। तब उस स्थान अथवा वहाँ की वस्तुओं के प्रति हमें मोह नहीं रहता। उन्हें बिना किसी परेशानी के छोड़ देते हैं।
             ओशो का कहना है कि दुख पर ध्यान दोगे तो हमेशा दुखी रहोगे, सुख पर ध्यान देना शुरू करो। दरअसल तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी पूँजी है।
           ओशो के इस कथन का तात्पर्य है कि हम जिसको बारबार याद करते हैं, वह हमें मिल जाता है। यदि दुखों को पुन: पुन: स्मरण करेंगे तो वे रूलाने के लिए हमारे पास आएँगे। इसके विपरीत यदि सुखों का स्मरण करेंगे तो सुख हमें खुशियाँ देने आ जाएँगे। अत: ध्यान हमारी सबसे बड़ी पूँजी है। यदि हम उठते-बैठते, सोते-जागते चौबीसों घण्टे ही ईश्वर का ध्यान करेंगे तो उसे पा लेंगे। फिर चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होकर मुक्त हो जाएँगे।
          सुख और दुख के क्रम को दिन और रात की तरह मानते हुए सहन करना चाहिए। मन में सदा यह विश्वास बनाए रखना चाहिए कि दुख के बाद सुख भी आएँगे। इसलिए सुख की आशा में दुख की काली घनी अंधेरी रात के बीत जाने की परीक्षा धैर्यपूर्वक करनी चाहिए और ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 28 फ़रवरी 2016

बुजुर्गों की देखभाल

आयु प्राप्त होने पर मनुष्य जब बुजुर्ग हो जाते हैं तो उन्हें बहुत अधिक देखभाल की आवश्यकता होती है। वे छोटे बच्चों की तरह संवेदनशील हो जाते हैं। बात-बात पर तुनक जाते हैं, रूठने-मानने और जिद करने  लगते हैं। बच्चों की जरा-सी भी अनदेखी सहन नहीं कर पाते। इसलिए हर बात पर वे बिफर जाते हैं। किसी भी प्रकार की मनपसन्द बात न होने पर चीखने-चिल्लाने लगते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि कोई भी उन्हें नहीं चाहता, वे घर के सदस्यों पर बोझ हैं। इस प्रकार विचार करते हुए कभी-कभी अनावश्यक-सी बात हो जाने पर रोने लगते हैं।
           उनका शरीर अशक्त होने लगता है।  शरीर कमजोर हो जाने के कारण उनका साथ छोड़ने लगता है। उन्हें अपने कार्यों को करने में भी परेशानी होने लगती है। हर छोटे-बड़े कार्य के लिए उन्हें दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है। जो व्यक्ति बच्चों को पाल-पोसकर, पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाते हैं, जब उन्हीं से अपने लिए बेरुखी का व्यवहार पाते हैं तो सहन नहीं कर पाते। तब वे टूटने लगते हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं।
           इसलिए वे मनसिक रूप से स्वयं को असहाय अनुभव करने लगते हैं। तन और मन दोनों से आहत होने पर रोग शीघ्र ही उन पर आक्रमण करने लगते हैं।
            उस समय उन्हें अपनों के साथ की बहुत आवश्यकता होती है। आयु के इस पड़ाव में यदि उनके अपने बच्चे भी उनकी परवाह नहीं करेंगे तब उन बुजुर्गों की दुर्दशा होने लगती है। बच्चों का नैतिक दायित्व है कि इस असहाय अवस्था में उनकी लाठी बनें। उनकी सेवा-सुश्रुषा करें।
           जिन बच्चों को समय रहते माता-पिता संस्कारी बनाते हैं वे अपने कर्त्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ते बल्कि उस असहाय अवस्था में उनकी सभी जरूरतों को पूरा करते हुए उन्हें अकेलेपन के अहसास से दूर रखते हैं।
            बच्चे अपने माता-पिता की सारी धन-सम्पत्ति, व्यापार आदि को जायज-नाजायज तरीके से हथिया लेते हैं, उन्हें ईमोशनली ब्लैकमेल भी करते हैं। तब फिर उन्हें असहाय अवस्था में दर-बदर की ठोकरें खाने के लिए बेसहारा छोड़ देते हैं।
           इसीलिए कुकुरमुत्ते की तरह स्थान-स्थान पर 'ओल्ड एज होम्स' खुलते जा रहे हैं। कई सरकारी होम्स भी हैं। इनमें से कुछ होम्स में बुजुर्गों को मुफ्त सुविधाएँ दी जाती हैं और कुछ होम्स में वृद्ध शुल्क देकर रहते हैं। केवल महिलाओं के लिए भी होम्स हैं। शारीरीक रूप से असमर्थ और बीमार वृद्धों के लिए होम्स हैं। इनके अतिरिक्त स्वयंसेवी संस्थाएँ भी बुजुर्गों की सहायता के लिए तत्पर रहती हैं।
         कुछ ओल्ड होम्स में एक निश्चित राशि देकर वृद्ध लोग रह सकते हैं। वहाँ उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा जाता है। आवश्यकता होने पर उनको चिकित्सा की सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जाती हैं।
          पुलिस स्टेशन पर भी सीनियर सिटीजन का रिकार्ड रखा जाता है उसके लिए उन्हें वहाँ पंजीकरण करवाना होता है। फिर समय-समय पर पुलिस उनकी देखभाल करती है। इनके अतिरिक्त विद्यालयों में भी ऐसे कार्यक्रम चलाए जाते हैं। बच्चे ऐसे अकेले रहने वाले बुजुर्गों के घर जाकर उनके साथ समय व्यतीत करते हैं। उनकी परेशानियों को दूर करने का यत्न करते हैं।
           सीनियर सिटीजनों को रेल और हवाई यात्राओं के किराए में छूट दी जाती है। इसी प्रकार बैंक और पोस्ट आफिस में जमा किए गए धन पर अतिरिक्त ब्याज दिया जाता है। उनकी सुरक्षित वृद्धावस्था के लिए मेडिक्लेम पालिसी भी उपलब्ध हैं। जिससे वे अपना ईलाज करवाकर स्वय को सुरक्षित अनुभव कर सकते हैं।
            बैंक वृद्धों की पार्पर्टी पर उन्हें लोन भी देते हैं जिससे उन्हें जीवन यापन करने में सुविधा हो सके।
         ऐसे नालायक बच्चों से भी माता-पिता को भरण-पोषण का अधिकार भारतीय संविधान देता है। बजुर्गों के संवैधानिक अधिकार निम्नलिखित है-
        मेंटेनस एंड वेलफेयर आफ पेरेंटस एडं सीनियर सिटीजनस एक MWPSCA के अनुसार बच्चों का बुजुर्गों के प्रति दुर्व्यवहार की स्थिति में शीघ्र ही कानूनी रूप से उनके बच्चों अथवा नाती-पोतों(grand childern) से उनकी देखभाल के लिए राशि दें। इसका पालन न करने पर ₹5000 का जुर्माना तथा तीन माह तक की जेल की सजा का प्रावधान है। उन्हें माता-पिता की जयदाद से बेदखल किया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

माता-पिता का सम्मान

माता-पिता इस संसार में मनुष्य के लिए ईश्वर के समान होते हैं। मनुष्य यदि जीवन पर्यन्त उनकी सेवा-सुश्रुषा करता रहे तब भी उनके वह उनके उस ऋण से उऋण नहीं हो सकता जो उसे इस धरा पर लाने का उपकार वे उस पर करते हैं।
           माता-पिता चाहे अमीर हों अथवा गरीब, पढ़े-लिखें हों या अनपढ़, समाज में ऊच्च स्थान रखने वाले हों या नहीं पर वे अपने बच्चों के लिए आदर्श होते हैं। केवल योग्य बच्चे ही माता-पिता का मान नहीं होते, माता-पिता भी बच्चों का मान होते हैं। उनका यथोचित सम्मान करना सन्तान का कर्त्तव्य है। जो बच्चे माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहण नहीं करते उन्हें समाज में वह सम्मान नहीं मिलता, जो उन्हें उनकी योग्यता और प्रतिभा के लिए मिलना चाहिए।
          कोई भी सभ्य समाज ऐसे नालायक बच्चों को सम्मानित नहीं करता जो स्वयं तो जीवन की सभी सुविधाओं का भोग करें, गुलछर्रे उड़ाएँ और उनके बेचारे माता-पिता दरबदर की ठोकरें खाएँ, बदतर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाएँ, पैसे-पैसे के मोहताज होकर दो जून के खाने के लिए तरसें अथवा अपने ही नाती-पोतों से मिलने के लिए तड़पते रहें। ऐसे जीवन की कल्पना कोई नहीं करत
            माता-पिता का सम्मान करना हर मनुष्य का नैतिक दायित्व है। भगवान गणेश की तरह उनके चरणों में सारे संसार को नाप लेने वाले और भगवान राम की तरह उनके आदेश को पत्थर पर लकीर मानने वाले श्रवण कुमार ही इस संसार में वास्तव में सुखी और समृद्ध कहलाते हैं।
          उनके सुख के लिए वे क्या कह रहे हैं, इस बात पर ध्यान देते हुए उनकी राय को सम्मान पूर्वक स्वीकार करें। यदि अपने बच्चे उन्हें सम्मान नहीं देंगे तो अन्य लोग भी उनकी अवहेलना करेंगे, जिसे किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता।
          यथासम्भव अपने समय में से थोड़ा समय निकालकर उनसे बातचीत करके उनकी परेशानियों को जानने का यत्न करना चाहिए। उनके दोस्त और प्रियजन यदि उनसे मिलने के लिए घर पर आएँ तो उनसे अच्छी तरह बोलें। उनके साथ अवांच्छित मेहमान की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए।
            वृद्धावस्था में हर मनुष्य अपने अनुभवों या जीवन में घटित घटनाओ को बारबार साझा करना चाहता है। वह चाहता है कि सभी उसके अतीत से प्रेरणा लें, कुछ सीखें। इसलिए यदि वे एक ही कह
बात को बारबार दोहराएँ तो भी ऐसे सुनना चाहिए जैसे पहली बार सुन रहे हैं। इसके लिए उनकी उनकी हमेशा प्रशंसा करने में कंजूसी नहीं दिखानी चाहिए। माता-पिता सदा ही सन्तान के भले के लिए कार्य करते हैं। बच्चों का दायित्व बनता है कि वे उनके उपकारों को हमेशा याद रखें।
            इस आयु में उन्हें उदास कर देने वाले बुरे समाचारों को उनसे साझा नहीं करना चाहिए बल्कि उनको अच्छे समाचार सुनाने चाहिए ताकि वे प्रसन्न रहें। उनके अतीत में घटित दुखदायी यादों को यदि वे याद भी करें तो उन्हें उन यादों से बाहर निकालने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें बहलाने के लिए रिश्तेदारों या मित्रों से मिलवाना चाहिए। उन्हें बारबार अहसास कराना चाहिए कि वे उनके जीवन में महत्त्व रखते हैं। यदि वे निराश हों और स्वयं को किसी लायक न समझें तो भी उन्हें गौरवान्वित करना चाहिए। उनकी अमूल्य सलाह और निर्देश को स्वीकार करते हुए उन्हे घर के मुखिया ही मानते रहना चाहिए।
          माता-पिता की आयु का सम्मान करते हुए उनके साथ ऊँची आवाज में बात नहीं करनी चाहिए। उनसे चर्चा करते समय फोन दूर रखना चाहिए और कानाफूसी नहीं करेनी चाहिए। उनकी बात काटकर या उनके विचारों को न घटिया बताकर उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। न उनकी बुराई करने से बचना चाहिए और किसी अन्य यदि बुराई करे तो प्रतिरोध करना चाहिए। इसी तरह माता-पिता को भी किसी के सामने अपने बच्चो की बुराई नहीं करनी चाहिए। उन्हें घूरना या उनके सामने पैर नहीं पटकने चाहिए, अपने पैर या पीठ उनकी ओर करके भी नहीं बैठना चाहिए। ये सभी अवगुण बड़ों के अपमान करने के कारक कहलाते हैं
             माता-पिता हमारे अपने हैं, हम उन्हीं का अंश हैं। इसलिए उन्हें अपने सुख, दुख और अपनी प्रार्थनाओं में शामिल करना चाहिए। चाहे वे हमारे लिए कुछ कर पाएँ या नहीं परन्तु उनको सम्मान देने का यह भी एक तरीका है। उनके शुभाशीषों से ही मनुष्य को यश और आत्मिक सुख मिलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

धन्यवाद करना सीखें

इन्सान हर समय कभी ईश्वर से और कभी उसकी बनाई हुई दुनिया से सदा शिकायत करता रहता है। वह तो मानो धन्यवाद करना ही भूल गया है। पता नहीं वह इतना नाशुकरा कैसे है?
            मनुष्य हर समय किसी-न-किसी वस्तु की कामना करता रहता है। यदि वह उसे मिल जाती है तो यही कहता है यह उसके परिश्रम का फल है। उसके पूर्ण हो जाने पर फिर वह दूसरी कामना के पीछे भागने लगता है। उसके बाद भी कामनाओं का यह सिलसिला समाप्त नहीं हो जाता अथवा थमता नहीं है अपितु एक के बाद एक इच्छाएँ सिर उठाती रहती हैं। उसका सारा सुख-चैन उससे छीनकर उसे बेचैन बना देती हैं। उनके चक्रव्यूह में फंसा वह दिन-रात कोल्हू का बैल बना रहता है।
           इसके विपरीत उसकी मनोकामना जब पूर्ण नहीं होती तब उसका दोषारोपण वह कभी अपने भाग्य पर करता है, कभी अपनी परिस्थितियों पर करता है और कभी दूसरे लोगों पर करता है। उस समय उसे ऐसा लगता है मानो सारी दुनिया ही उसके विरूद्ध हो गयी है। सारी कायनात उसे हराने के लिए लामबद्ध हो गई है। वह हर किसी पर झल्लाने लगता है चाहे वह उसका अपना हो या पराया। उसे हर उस व्यक्ति से वितृष्णा होने लगती है जो भी अपने जीवन में दिन-प्रतिदिन सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं।
           उसका यह भटकाव आयुपर्यन्त बना रहता है। यह संसार असार है, इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं है। जब तक यह मनुष्य नश्वर से अनश्वर, असत्य से सत्य की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर नहीं लौटता तब तक वह चौरासी लाख योनियों के आवागमन भटकता रहता है।
      इस सबसे उसे शान्ति और मुक्ति तभी मिल पाती है जब वह इस संसार के बन्धनों को काटने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। वह उस प्रभु का स्मरण करता है, उसके ध्यान में मन लगाता है और अन्तत: उसका शरणागत हो जाता है।
          ईश्वर की संगति का प्रभाव ही ऐसा है कि मनुष्य का अहं सदा के लिए दूर हो जाता है और स्वयं ही विनम्र बन जाता है। उसका सारा अभिमान काफूर हो जाता है। वह स्वयं को ईश्वर के पास जाने से रोक नहीं पाता। तब ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए वह व्याकुल होने लगता है।
          उसके दर पर जाने से पहले मनुष्य हर दुख-तकलीफ में मायूस हो जाता है, रोता है, चीखता-चिल्लाता है, हाय-तौबा करता है। उसकी साधना करते हुए वह दुनिया से मिलने वाले थपेड़ों का बिना घबराए डटकर सामना करता है। उसके मन में यह प्रबल भाव आ जाता है कि वह अकेला नहीं है मालिक उसके साथ है, वह हर कदम पर उसकी रक्षा करेगा। वह हिचकोले खाती हुई अपनी जीवन की नौका उसके हवाले करके निश्चिंत हो जाता है।
           मनुष्य जिस भी वस्तु की कामना करता है उसके न मिलने पर हताश और निराश हो जाता है। तब वह उस परम न्यायकारी परमात्मा पर पक्षपात करने का आरोप लगते हुए लानत-मलानत करता है। जब परमात्मा के साथ उसकी लगन लग जाती है तब वह हर बात में उसकी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए प्रसन्न रहता है। तब उसे कोई शिकायत नहीं रहती। वह समझ जाता है कि उसे अपने कर्मफल का भुगतान करना पड़ेगा तभी, उसकी मुक्ति सम्भव है।
          प्रयास यही करना चाहिए शिकवा अथवा शिकायत करने के स्थान पर उस मालिक का धन्यवाद करना चाहिए। जो मनुष्य उस प्रभु की शरण में सच्चे मन से चला जाता है वह उसका शुकराना करना सीख जाता है।
          ज्यों ज्यों मनुष्य उस परमेश्वर के साथ लौ लगा लेता है तब वह उसकी दी हुई सारी नेमतों के लिए उसका कोटिश: धन्यवाद करता है। इस ससार में रहने वाले उन सब लोगों के प्रति भी कृतज्ञता का ज्ञापन करता है जो उसके इस सफर में उसका साथ निभाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

मन की बात साझा

मनुष्य अपने मन की बात केवल उस व्यक्ति से साझा करता है जो उसका अन्तरंग होता है। इसके पीछे यही भाव होता है कि वह व्यक्ति उसका विश्वासपात्र है। वह उससे अपनी परेशानी अथवा प्रसन्नता बाँट सकता है। उसकी बातों का बढ़ा-चढ़ाकर, चटखारे लेकर वह किसी के सामने बखान नहीं करेगा। उसके सामने या पीठ पीछे उसके लिए अपमानजनक स्थितियाँ नहीं बनने देगा।
           यदि कभी ऐसी विपरीत परिस्थिति बनती है तो वह हितैषी उसकी पीठ पीछे भी उसके विरूद्ध कुछ नहीं कहेगा अपितु उसका पक्ष लेकर विरोधियों का प्रतिकार ही करेगा, उन्हें बुराई नहीं करने देगा।
          अंग्रेजी भाषा में दो शब्द हैं ओपन और क्लोज। इन शब्दों को हम सभी अपने प्रतिदिन के जीवन में प्राय: सुनते हैं और प्रयोग भी करते हैं। व्यावहारिक जीवन में कोई मनुष्य उसी व्यक्ति के समक्ष सबसे अधिक ओपन हो पाता है अथवा खुल पाता है, वह सबसे अधिक जिसके क्लोज होता है अथवा करीब होता है।
           किसी भी मनुष्य का सौभाग्य होता है कि उसके पास कोई शुभचिन्तक हो। वह चाहता है कि ऐसे व्यक्ति के सामने वह अपने मन की सारी परतें खोलकर रख दे। हर प्रकार से वह उसे सान्त्वना प्रदान करे, उसके जख्मों पर अपने सहानुभूतिपूर्ण वचनों से मलहम लगाए। उसका व्यवहार ऐसा हो कि जिससे उस मनुष्य के पास जाकर वह अपनी सारी परेशानियों से उभरने के लिए मार्गदर्शन प्राप्त कर सके।
            ऐसा हितचिन्तक सज्जन, मित्र अथवा घर-परिवार का कोई भी व्यक्ति हो सकता है। ये सहृदय व्यक्ति विशेष सरल होते हैं। सबका हित साधना उनका उद्देश्य होता है। वे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना रखते है और सबको अपना समझते हुए उनकी भलाई करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं। उनके लिए कोई भी मनुष्य पराया नहीं होता।
            वे सब लोगों के साथ समानता का व्यवहार करते हैं। धर्म, जात-पात, रंग-रूप, ऊँच-नीच आदि की दीवारों में कैद नहीं होते। उनके लिए सभी बराबर होते हैं। इन सब पचड़ों से दूर रहकर प्राणिमात्र का भला करते हैं।
          अपने सुकर्मों के कारण वे समाज में अपना एक स्थान बना पाते हैं। दुनिया उन्हें अपनी आँखों का तारा बना लेती है। इस दुनिया से विदा लेने के पश्चात भी वे सबके हृदयो में विराजमान रहते हैं। लोग उनको भूल नहीं पाते। उनके द्वारा किए गए उपकारों को याद करते रहते हैं।
           जो लोग किसी के लिए भी विश्वास के योग्य नहीं होते, वे कदापि अच्छे इन्सान नहीं कहलाते। इस पृथ्वी पर एक बोझ की तरह जन्म लेते हैं और अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर द्वारा दिए गए अपने समय को पूरा करके इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। इनकी न समाज में पूछ होती है और न ही अपने घर में। उनके साथ हुए कटु अनुभवों के कारण उन्हें लोग याद ही नहीं रखना चाहते। वे लोगो द्वारा भुला दिए जाते हैं।
          मनुष्य को यत्नपूर्वक ऐसे हितैषियों को खोजना चाहिए जो उसकी उम्मीदों पर खरे उतर सकें। उसके सुख-दुख के साथी बनकर वे उसे अपने कलेजे से लगाकर रखें। उसके सारे दुखों और परेशानियो को अपना समझकर उसकी हर प्रकार से रक्षा और सहायता करें। उनकी शरण में जाकर वह स्वयं को सहज अनुभव कर सके। ऐसे स्वार्थरहित महानुभावों की सत्संगति का लाभ उठाकर मनुष्य इहलोक के सम्पूर्ण आनन्दों का लाभ उठा सके।
            इसके साथ ही वे मनुष्य को अपने कर्त्तव्यों के पालन करने का बोध कराएँ, ताकि मनुष्य एक अच्छा इन्सान बनकर देश, धर्म, समाज और घर-परिवार के सभी दायित्वों को निभाने वाला बनकर समाज का प्रिय बन सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

क्रोध पर नियंत्रण

मनुष्य के अंतस् में विद्यमान क्रोध उसका सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोध में वह इतना पागल हो जाता है कि वह अपने भले-बुरे तक का विवेक तक खो बैठता है। क्रोध में अपशब्द बोलता हुआ अथवा गाली-गलौच करता हुआ, बिना समय व स्थान देखे वह किसी का भी अपमान कर देता है। इसलिए अपने क्रोध पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण ऐसा मनुष्य अपने भाई-बन्धुओं से कट जाता है, दूर हो जाता है।
            वैसे यह गुस्सा आता तो अकेला है परन्तु मनुष्य से उसकी सारी अच्छाइयाँ छीनकर ले जाता है। अपने इस गुस्से के कारण उसके सारे सद् गुणों पर मिट्टी पड़ जाती है। उसकी की गई अच्छाइयों को यह दुर्गुण ढक लेता है। तब यह शत्रु क्रोध उसके गुणों पर भारी पड़ने लगता है। लोग उसकी सभी अच्छाइयों और गुणों को विस्मृत कर उसके क्रोधी स्वभाव को याद रखते हैं।
        इसके विपरीत धैर्यवान व्यक्ति का सभी सम्मान करते हैं। इसका यही कारण है कि वह सबकी कमियों को अनदेखा करके उनसे जुड़े रहने का प्रयास करता है। वह किसी का तिरस्कार करने के विषय में सोच ही नहीं सकता। यह धैर्य भी क्रोध की ही भाँति अकेला आता है लेकिन सारी अच्छाई दे जाता है। ऐसे व्यक्ति के बहुत से साथी बन जाते हैं। उसका एक यही गुण उसे प्रथम पंक्ति में लाकर खड़ा कर देता है और उसे सबका प्रिय बना देता है।
           इस कथन से अर्थ कदापि नहीं कि मनुष्य किसी भी परिस्थिति में क्रोध न करे। यदि वह बिल्कुल क्रोध नहीं करेगा तो उस साँप जैसी स्थिति में पहुँच जाएगा जिसने ऋषि के समझाने पर फुफकारना तक छोड़ दिया था। जिन हालातों में उसे क्रोध करना चाहिए और वह सन्त बनकर बैठ जाएगा तो कोई भी उसे नहीं पूछेगा। तब तो वह हिकारत की नजर से देखा जाएगा। इसलिए आवश्यकता होने पर एक सीमा तक क्रोध करना चाहिए परन्तु अति क्रोध में आकर अपना आपा नहीं खोना चाहिए।
            दुर्भाग्य से जब किसी मनुष्य की परिस्थितियाँ विपरीत हो जाती हैं तब व्यक्ति का प्रभाव और उसका पैसा, उसकी सम्पत्ति काम नहीं आती बल्कि उसका सरल और मधुर स्वभाव तथा दूसरों के साथ बनाए हुए उसके सम्बन्ध काम आते हैं। उन्हीं के कारण वह अपने कष्टकारी समय में जूझने का सामर्थ्य जुटा पाने में समर्थ हो पाते हैं।
            मनुष्य को क्रोध के आवेग को नियन्त्रित करने के लिए सबसे पहले उससे होने वाली हानि के विषय में विचार करना चाहिए। उससे सबक लेकर पुनः अपने होने वाले नुकसान से बचना चाहिए।जहाँ तक हो सके दुर्वासा ऋषि की तरह क्रोधी का सर्टिफिकेट पाने से बचना चाहिए।
            समाज से कटकर मनुष्य नहीं रह सकता इसलिए उसे धैर्य धारण करना चाहिए। अन्यथा विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अपने हितचिन्तकों के मार्गदर्शन का लाभ उठाना चाहिए। यथासम्भव सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। यदि हो सके तो योगाभ्यास भी करना चाहिए। इनसे मन शान्त रहता है। अपने कार्यों में मन लगने लगता है और निराशा दूर होने लगती है।
             क्रोध रूपी अपनी कमजोरी को वश में कर लेने से उसे जीवन में पछताना नहीं पड़ता। उसकी अच्छाइयाँ उसके पास सहर्ष लौट आती हैं। उसे मानो जीवन में सब कुछ मिल जाता है। उसके भाई-बन्धु व परिवारी जन सभी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। इस प्रकार उसके साथी उससे दूर न जाकर उसके सहायक बन जाते हैं। अतः अपने पैरों पर कुल्हाड़ी न मारते हुए क्रोध से बचने के लिए फूँक-फूँककर कदम रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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