गुरुवार, 31 मार्च 2016

मकड़जाल

मकड़ी के जाले प्रायः घरों में लगते रहते हैं। हम इनका घर में लगना शुभ नहीं मानते। इसके अतिरिक्त दीवार पर लगे जाले घर की खूबसूरती को नष्ट करते हैं। कहते है कि जाले यदि घर में लगे हों तो मनहूसियत फैलाते हैं। इसीलिए जाले दिखते ही हम उनकी सफाई करने के लिए बेचैन हो जाते हैं और उन्हें उस स्थान से हटाकर ही दम लेते हैं। खाली पड़े घरों में तो ये बहुत ही अधिक फैल जाते हैं।
          जंगलों में भी मकड़ियाँ अपने जाले बनाती रहती हैं। इन जालों से बचकर ही सब लोगों को निकलना पड़ता हैं। यदि शरीर या चेहरे को ये छूते हैं तो हम एक अजीब तरह की उलझन का अनुभव करते हैं। उनसे पीछा छुड़ाने का भरसक प्रयास भी करते हैं।
            मकड़ी की कारीगरी की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम ही होगी। इतनी खूबसूरती से वह अपने जाले बुनती हैं। यदि उस बुनावट को निहारने लगो तो नजर  उस पर से हटती नहीं है। मन हैरान रह जाता है उस मकड़ी के कौशल को देखकर। यह जाल जो मकड़ी बुनती है उसमें अपने शिकार यानि कीट-पतंगो को फंसाती है और अपना पेट भरती है।
           जाल कितना भी आकर्षक हो अथवा खूबसूरत क्यों न हो इसमें फंसने वाले को कभी भी राहत नहीं मिल सकती। मनुष्य को मकड़ी के जाल से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि किसी प्रकार के जाल में भी वह नहीं फंसेगा, फिर वह चाहे कितना ही मनमोहक हो। 
           संसार में रहते हुए मनुष्य को इस तरह के मकड़जालों से प्रतिदिन ही वास्ता पड़ता रहता है। कभी मोहमाया के जाल उसे लुभाते है तो कभी सुविधाभोगी होने के कारण शार्टकट का मार्ग। कभी-कभी वह जान-बूझकर अन्न की तलाश में भटकते हुए कबूतरों की तरह स्वयं ही इन जालों में फंसकर असहाय अनुभव करता है। कभी-कभी अनजाने में फंसकर उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाता है।
          यदि मनुष्य की इच्छा शक्ति दृढ़ हो तो वह संसार के किसी प्रलोभन देने वाले जाल का तिरस्कार कर सकता है और उसमें फंसता नहीं है। परन्तु कमजोर मानसिकता वाले मनुष्य क्षणिक लाभ के लिए इस जाल में फंसकर अपना जीवन नरक के समान कष्टदायी बना लेते हैं। उस समय फिर ऐसी भयंकर भूल के लिए उनके पास पश्चाताप करने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं बचता।
           शिकार करने वाले शिकारियों का तो काम ही होता है दाना डालने का और जाल बिछाने का। अब यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम उन शिकारियों के जाल में न फंसने के उपाय ढूँढ निकालें और उन्हें दूर से ही बॉय-बॉय करते हुए हँसते हुए सुरक्षित रहें।
          इस संसार में जितने भी लुभावने जाल हैं वे मनुष्य को पागल बना देने के लिए पर्याप्त हैं। सच्चाई का रास्ता लम्बा और पथरीला होता है पर यह आकर्षण वाला मार्ग दूर से सुहावना प्रतीत होता है और उस पर चलने वाले को लहुलूहान कर देता है। यहाँ दया अथवा करुणा की कोई भी गुँजाइश नहीं होती।
          मकड़ी जिस प्रकार जाला बनाकर उसके तन्तुओं से स्वयं को समेट लेती है अर्थात अपने आपको छिपा लेती है उसी प्रकार तन्तु रूप मायाजाल अथवा सृष्टि की रचना करके ईश्वर भी स्वयं को अपनी इच्छा से आच्छादित कर लेता है यानि स्वयं को समेट लेता है। उस परमेश्वर और उसकी रचना को समझने के लिए ही उपनिषद् ग्रन्थों में मकड़ी का उदाहरण दिया गया है। फिर उस प्रभु को पाने के लिए अनेकानेक यत्न करने पड़ते हैं। वही जीव को चौरासी लाख योनियों में भटकने से बचाकर, जन्म-मरण के इन बन्धनों से स्वतन्त्र करके मोक्ष प्रदान कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 30 मार्च 2016

मित्रता एक उपहार

मित्रता सदा ही जाँचकर और परखकर ही करनी चाहिए। मित्र अपने मानसिक स्तर के अनुरूप तो कम-से-कम होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ऐसे लोगों से दोस्ती कर ली जाए जिससे कि उन दोस्तों के कारण जीवन में कभी पछताना पड़े अथवा शर्मिन्दा होना पड़े। इसलिए जहाँ तक सम्भव हो सके दोस्ती ऐसे व्यक्ति से ही करनी चाहिए जो हर प्रकार से योग्य हो, विश्वसनीय हो, हितचिन्तक हो अथवा सज्जन हो।
          वास्तव में मित्र वही होता है जो माता के समान मनुष्य की रक्षा करता है, पिता की तरह उसे हितकारक कार्यों में लगाता है। कुमार्ग पर जाने पर डाँटकर लौटाकर ला सकता है। सच्चा मित्र किसी भी परिस्थिति में साथ नहीं छोड़ता। वह हर दुख-सुख में सबसे पहले कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़ा मिलता है।
            वह इससे अनजान रहना चाहता है कि उसका मित्र अमीर है या गरीब। वह मित्र को उसके धर्म अथवा जाति से नहीं बल्कि अपनेपन के कारण पहचानता है। इसीलिए भगवान कृष्ण और गरीब ब्राह्मण सुदामा की मित्रता से बड़ा और कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता।
          सज्जन व्यक्ति के साथ मित्रता को हम गन्ने के समान मान सकते हैं। गन्ना जिसे हम पूजा में रखते हैं और उससे बनी चीनी से तैयार स्वादिष्ट पदार्थ खाकर जीवन का आनन्द लेते हैं। उसे कितना ही तोड़ लो, छील लो, चूस लो, यहाँ तक कि उसे मशीन में डालकर पीस ही डालो वह हर बार केवल अपनी मिठास से ही हम सबको निहाल करता है। यानि हर तरह से वह गन्ना मिठास ही देता है। वह मिठास हमारे अनेक भोज्य पदार्थों को रसीला और स्वादिष्ट बनाती है। उन मनभावन व्यञ्जनों खाकर हम सभी तृप्त हो जाते हैं।
          मित्र की मित्रता भी इसी तरह होती है जो मनुष्य को अपनी मिठास से सराबोर करती है। फूल की तरह यह नाजुक और सुगन्ध देने वाली होती है। इस मित्रता को विश्वास और सच्चाई की खाद से पुष्ट करना चाहिए और स्नेह के जल से सींचना चाहिए। तभी यह दोस्ती पुष्पित और पल्लवित होती है जिसकी खुशबू चारों ओर फैलती है। इस मित्रता को देखकर किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है।
          मित्रता में यदि विश्वास को तोड़ा जाए अथवा झूठ, छल-फरेब घर कर जाएँ तो इसमें दरार आ जाती है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी अनमोल दौलत को कोई भी नहीं खोना चाहेगा। इसे खोने का अहसास ही बहुत कष्टदायी होता है। इसलिए सच्चे मित्रों से किनारा नहीं करना चाहिए और न ही दोस्तों के रास्ते में काँटे बिछाने के विषय में सोचना चाहिए।
         बचपन में जब मनुष्य मित्रता के मायने नहीं जानता उस समय वह अपने पास आने वाले हर किसी को अपना दोस्त मानता है जो उससे बात करता है या उसके साथ खेलता है अथवा अपने खिलौने आदि शेयर करता है।
           वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब वह समझदार बन जाता है। उस समय उसे अपने विवेक से मित्रों का चुनाव करना चाहिए। यथासम्भव चापलूस लोगों को अपने से दूर रखना चाहिए। क्योंकि वे स्वार्थवश साथ जुड़ते हैं और अपनी स्वार्थ की पूर्ति होते ही वे पराए हो जाते हैं। उस समय लगने वाले मानसिक आघात से बचा जा सकता है।
          मित्र वास्तव में श्मशान तक का साथ निभाने वाला होना चाहिए, तभी जीवन का आनन्द बना रहता है। आज के भौतिक युग में सच्चा, निस्वार्थ मित्र मिलना किसी खजाने को पाने से कमतर नहीं है। मनुष्य का सौभाग्य होता है तभी उसे ऐसा साथी मिलता है। ऐसे रत्न को सम्हालकर रखना चाहिए जो दुनिया की भीड़ में बिना किसी हील-हुज्जत के हाथ थामकर आगे जाने में समर्थ हो सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 28 मार्च 2016

शारीर रोगी नहीं

ईश्वर ने हमारे शरीर की रचना इस प्रकार की है कि इसमें कोई कमी ढूँढने से भी नहीं मिल सकती। इसे इस प्रकार से मालिक ने बनाया है कि अपनी आवश्यकता के सभी आवश्यक पोषक तत्त्वों का निर्माण यह स्वयं कर लेता है। जिन-जिन तत्त्वों की इसे जरूरत नहीं होती उन्हें इस शरीर से बाहर निकाल फैंकता है। यह स्वयं ही अपना सुधार कार्य करने में समर्थ है।
            अब प्रश्न यह उठता है कि जब नीरोग रहने के लिए यह सारा निर्माण कार्य कर सकता है तो फिर यह बार-बार रोगी क्यों हो जाता है?
           इस प्रश्न के उत्तर में मात्र यही कह सकते हैं कि यह स्वयं रोगी नहीं होता। इसे हम अपनी मूर्खता से रुग्ण बना देते हैं। अब आप कह सकते हैं कि मैंने कितनी हास्यास्पद बात कही है। कौन व्यक्ति होगा जो रोगी बनकर कष्ट उठाना चाहता है? कौन अपने धन और समय दोनों ही की बरबादी करना चाहता है? कौन डाक्टरों के चक्कर लगाना चाहता है?
            इन सभी प्रश्नों के उत्तर में मैं फिर वही कहूँगी कि हम स्वयं ही इस सबके उत्तरदायी हैं। हम अपनी नादानी के कारण रोगी बनकर डाक्टरों के पास चक्कर लगाते हैं और अपना समय व धन दोनों ही को व्यर्थ गंवाते हैं।
           हम अपने स्वास्थ्य के प्रति सदा ही लापरवाह रहते हैं। अथवा यूँ कहना भी अनुचित नहीं होगा कि हम उसकी ओर बिल्कुल ही ध्यान ही नहीं देते हैं। हम स्वयं ही अपने सबसे बड़े दुश्मन हैं। हमारा आहार-विहार, हमारे तौर-तरीके अथवा हमारी जीवन शैली सभी पूर्णरूपेण दोषपूर्ण है। इसके लिए कोई अन्य नहीं, हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
            स्वस्थ रहने के बेसिक नियम हैं कि समय पर सोओ और जागो, समय पर भोजन करो, प्रतिदिन सैर करने जाओ और व्यायाम करो। हम इन मूलभूत नियमों को अपनी व्यस्तता का बहाना बनाते हुए अनदेखा कर देते हैं।
           जिस रोटी को कमाने के लिए सारे प्रपंच रचते हैं, झूठ-सच करते हैं, पाप-पुण्य के कार्य करते हैं, उसी को खाने के लिए हमारे पास समय नहीं होता। समय-असमय खाने से वह ठीक से नहीं पचता और हम परेशानी में आ जाते हैं।
           हमारी सारी पार्टियाँ रात देर तक चलती हैं, शादियों में बारातें भी आधीरात में पहुँचती है। स्वाभाविक है कि हम देर रात घर लौटेंगे और देर से ही सोएँगे। इसलिए प्रात: भी देर से ही जागेंगे। नाइट शिफ्ट वाली नौकरी भी इसका एक कारण कही जा सकती है। सारा दिन शरीर अलसाया-सा टूटता हुआ रहेगा। उसमें स्फूर्ति नहीं रह सकती।
         अपनी व्यस्त जीवनचर्या में हम अपने खान-पान को सुधार नहीं पाते। न चाहते हुए भी मोटापे के शिकार होते जाते हैं जो सब बिमारियों का मूल कारण है। इन सबके अतिरिक्त शौक अथवा अपनी शान बघारने के लिए पार्टियों में पी जाने वाली शराब अथवा अन्य किसी प्र्कार के नशीले पदार्थों का सेवन भी शरीर को खोखला बनाता है। सारा समय की जाने वाली टेंशन भी शरीर पर विपरीत प्रभाव डालती है।
          हमें अपनी ऋतुचर्या के विषय में तो शायद ज्ञान ही नहीं है। हम नहीं जानते कि किस मौसम में क्या खाना चाहिए और क्या पहनना चाहिए? यह अज्ञानता भी हमारे अस्वस्थ होने का एक कारण हैं।
           जंक फूड भी हमारी अस्वस्थता का एक बड़ा कारण बनता जा रहा है। सभी समझदार और डाक्टर लोग हमें समय-समय पर चेताते रहते हैं पर हम हैं कि उस शिक्षा पर अमल न करने की कसम खाए बैठे हैं। तब इसका खामियाजा हम बीमार पड़कर चुकाना पड़ता है।
           हमारा शरीर हमें बार-बार चेतावनी देता रहता है और हम अपनी शान बघारते हुए उसे अनदेखा करते रहते हैं। तब फिर उसका परिणाम हमें रोगों से आक्रान्त हो करके भुगतना पड़ता है। यदि वास्तव में हम अपना मित्र बनना चाहते हैं तब हमें स्वयं से शत्रुता निभाना छोड़कर स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना पड़ेगा अन्यथा रोगो की चपेट में आकर डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए अपने बहुमूल्य समय और खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को व्यर्थ ही गंवाना पड़ेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 27 मार्च 2016

गृहस्थी का दायित्व पति-पत्नी दोनों का

गृहस्थी को चलाने का दायित्व यद्यपि पति और पत्नी दोनों का होता है। परन्तु पति प्राय: यहकर पल्ला झाड़ने का यत्न करते हैं कि यह तुम्हारा अपना घर है, बच्चे भी तो तुम्हारे हैं और मैं भी तुम्हारा हूँ, जैसा चाहे अपने इस घर को चलाओ।
           पत्नी को तथाकथित रूप से महिमा मण्डित करके अपनी जिम्मेदारियों से भागने का यह बहुत अच्छा उपाय है। उस समय का उपयोग वे घर से बाहर दोस्तों से गपशप करके, मौजमस्ती करके करते हैं। घर में क्या हो रहा है? इससे वे अनजान रहते हैं अथवा बेखबर रहने का ढोंग करते हैं।
            जहाँ तक घर चलाने की बात है, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि पति और पत्नी दोनों की समान सहभागिता की आवश्यकता होती है। आज यह ज्वलन्त प्रश्न है कि घर और बाहर दोनों मोर्चों को स्त्री सम्हाल सकती है तो पुरुष क्यों नहीं?
           आज मंहगाई के दौर में यदि दोनों कार्य न करें तो जरूरतों को पूरा करना कठिन हो जाता है। दोनो घर से एक ही समय पर जाते हैं और संध्या समय भी एक ही समय पर वापिस लौटते हैं। कुछ अपवाद छोड़ दीजिए, उस समय भी प्राय: पुरुष चहते हैं कि वे महाराजा की तरह बैठे रहें और पत्नी उसकी तिमारदारी में जुट जाए। एक गिलास पानी वह खुद होकर न लें और एक कप चाय भी उन्हें टेबल पर बैठे हाजिर हो जाए।
           यदि ऐसा न हो पाए तब तकरार होने से कोई नहीं रोक सकता। उस समय पुरुष भूल जाता है कि पत्नी भी उसकी ही तरह थकी-हारी आई है। वह भी एक इन्सान है, उसे भी एक गिलास पानी या एक कप चाय की इच्छा हो रही होगी।
          पत्नी की कमाई पर ऐश करना या हक जताना तो पुरुष का अधिकार है परन्तु उसे उसी के अनुरूप सुख-सुविधा देने के दायित्व से वह भागता फिरता है। यह दोहरा मापदण्ड किसलिए? हमारी समझ से बाहर की बात है।
         घर की औरत यदि दफ्तर से आकर किचन का कार्य देख रही है तो उसे भी उसका हाथ बटाना चाहिए, इससे उसके सम्मान को कोई आँच नहीं आती। बच्चों को उनकी पढ़ाई में सहायता करना भी उसका उतना ही दायित्व है। पढ़ी-लिखी पत्नी का क्या लाभ यदि वह यह सब काम न कर सके? ऐसा कहकर पुरुष फिर अपने कर्त्तव्यों से पलायन करना चाहता है।
            पति बीमार हो तो चाहता है पत्नी उसकी तिमारदारी करे, उसके आगे-पीछे चक्करघिनी बनी घूमती रहे। परन्तु यदि पत्नी बीमार हो जाए तो वह सोचता है कि वह नाटक कर रही है। उस समय भी पत्नी की ओर से प्राय: पुरुष लापरवाह हो जाते हैं। ऐसे कष्ट के समय वे उसकी सहायता नहीं करते। यदि पत्नी कुछ कह दे तो फिर घर में महाभारत का युद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता।
           हम सब जानते हैं कि विदेशों में जहाँ काम करने वाले लोग नहीं मिलते। इसलिए वहाँ जाकर दोनों मिल-जुलकर कार्य कर लेते हैं। परन्तु अपने देश में पुरुष घर के कार्य करने में अपनी हेठी समझते हैं। वे बड़े गर्व से कहते हैं कि हमें तो कोई काम करना नहीं आता। देखा जाए तो यह कोई घमण्ड करने वाली बात नहीं, वास्तव में इस विषय पर सीरियस होकर सोचने की बहुत ही आवश्यकता है।
          विशेष रूप से विचार्य है कि जब घर आप दोनों का है तो सभी दायित्व भी आप दोनों के साझे हैं। किसी एक पक्ष को दूसरे का शोषण करते हुए उसे मानसिक आघात नहीं देना चाहिए। पुरुष को अपने श्रेष्ठ होने के पूर्वाग्रह को त्यागकर अपने घर-परिवार के लिए पूर्णरूप से समर्पित रहना चाहिए। तभी गृहस्थी की गाड़ी के दोनों पहिए ठीक से चल पाते हैं अन्यथा मनमुटाव बढ़ते-बढ़ते अबोलापन होने लगता है। धीरे-धीरे अलगाव होने की स्थिति बनने लगती है जो किसी भी तरह समाज में स्वीकार्य नहीं हो पाती।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 26 मार्च 2016

परेशानियों से मुक्ति

परमात्मा जिसने सभी जीवों को इस संसार में भेजा है, सदा उसका धन्यवाद करते रहने से हमारी परेशानियाँ खुशियों में बदल जाती हैं। खामोशी से उनका सामना करने पर वे सामान्यत: कम हो जाती हैं। धैर्य धारण करने पर धीरे-धीरे समय बीतते-बीतते वे समाप्त हो जाती हैं।
           जीवन में परेशानियाँ चाहे कितनी भी क्यों न आ जाएँ यदि उनके बारे में सदा चिन्ता ही करते रहो अथवा सोचते रहो तो वे कम होने के स्थान पर बढ़ने लगती हैं। ऐसा करके मनुष्य अपने ही चारों ओर उदासियों का एक घेरा बना लेता है। फिर उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाता हुआ हार-पैर मारता रहता है। वह सफल हो जाए, ऐसा आवश्यक नहीं।
          मनुष्य के जीवन में अनेकानेक परेशानियाँ एक के बाद एक करके आती रहती हैं। वह अपने गिरते स्वस्थ्य या किसी बीमारी से आक्रान्त होने पर जिसका इलाज सम्भव नहीं से व्यथित होता है। अपने घर-परिवार के सदस्यों के आपसी वैमनस्य या दुर्व्यवहार को देखकर दुखी होता है। 
           कभी वह अवज्ञा करने वाले बच्चों के कुमार्गगामी हो जाने के कारण टूटने लगता है। अपने आर्थिक हालातों के कारण अनमना-सा रहता है। अपने कार्यक्षेत्र में आने वाली कठिनाइयों को सहने में अक्षम हो जाता है। ऐसे हालात जब बन जाते हैं तब उस गम के कारण उसके होंठ सिल जाते हैं और वह अपनी परेशानी को किसी से कह नहीं पाता। उसके मन में यह डर घर कर जाता है कि लोग उसके विषय में जानकर क्या सोचेंगे? यदि वह अपनी  परेशानी किसी को बताएगा तो लोग पीठ पीछे उसका उपहास करेंगे।
          यदि मनुष्य अपनी सभी परेशानियों से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे उनके बारे में हमेशा सोचने के स्थान पर, उनका डटकर सामना करते हुए, उन्हें दूर करने का उपाय करना चाहिए।
          मनुष्य को किसी इंसान के दुख का कारण नहीं बनना चाहिए। दूसरे को दुख के सागर में धकेलने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए। इन्सान कितना भी अच्छा क्यों न हो उससे कभी-कभी भूल तो हो ही जाती है। उसे उसका प्रायश्चित कर लेना चाहिए और दूसरे के दुख को कुछ हद तक कम करने के लिए क्षमायाचना अवश्य कर लेनी चाहिए।
          दूसरे के मन में इससे कितना गहरा घाव हो जाएगा इसका अनुमान भी लगाया नहीं जा सकता। जैसे समुद्र में पत्थर फैंकने पर यह कोई भी नहीं जान सकता कि वह फैंका गया पत्थर वहाँ कितनी गहराई में उतर गया होगा। उसी प्रकार मनुष्य के मन की टीस का अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता। पीड़ित व्यक्ति के मन से निकलने वाली आह किसी को भी नष्ट कर सकती है।
           परेशानियों से बचने के लिए हमेशा अच्छे कार्य करने का यत्न करना चाहिए। भलाई के कार्य करने से अपने आप को कभी रोकना नहीं चाहिए। मनुष्य की चाहे प्रशंसा हो या न हो उसे अपने सच्चाई के रास्ते से दूर नहीं जाना चाहिए। इस तरह करने से मन को शान्ति मिलती है और वह अपने दुखों को सहन करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है। ऐसा करने से मनुष्य को अपने जीवन को समझ आती है।
           दुखों और परेशानियों को दूर करने के लिए ईश्वर की शरण में जाना चाहिए। मन को शान्त रखने के लिए मनुष्य को सदा अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। सज्जनों की संगति में रहकर अपने कष्टों को भोगने के लिए उचित मार्ग की तलाश करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 25 मार्च 2016

चल मेरे मन मयूर


चल मेरे मन मयूर
ऐसी जगह जहाँ पर
कोई गम न हो रुलाने को
खुशियाँ मिलें सदा हसाने के लिए

दुख की बदली अब
छंटकर बिखर रही है
नया सूरज चमक रहा है
नव जीवन का संदेश लेकर जग में

रात के घने तम को
रवि ने दबोच लिया है
उसे छूमंतर कर दिया है
सबको को प्रकाशित करने लगा है।

एक नया आरम्भ है
उठो जागो आगे बढ़ जाओ
तभी आह्लादक दिन बन सकेगा
जीवन का एक नया प्रेरक प्रसंग बनेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 24 मार्च 2016

अपने लिए काँटे या फूल

मनुष्य के मानस पर निर्भर करता है कि वह अपने रास्ते में फूल बिछाना चाहता है अथवा काँटे। फूलों की कोमलता, सुन्दरता, आकर्षण और सुगन्ध के कारण हर व्यक्ति उनकी कामना करता है। परन्तु कठोर और दम्भी काँटों से लहुलूहान हो जाने के डर से सभी लोग उनसे बचते हुए किनारा करना चाहते हैं।
        मंगल की कामना करने वाला हर मनुष्य जाने-अनजाने ऐसे बहुत से कार्य कर जाता है जिसका नुकसान उसे अपने जीवनकाल में उठाना ही पड़ जाता है।
          बचपन में एक कहानी पड़ी थी जो आज भी उतनी ही सटीक है। एक हाथी प्रतिदिन नदी में स्नान करने के लिए जाता था। उसके रास्ते में एक दर्जी की दुकान पड़ती थी। हाथी को अपनी दुकान के सामने से हर रोज गुजरते हुए देखकर दर्जी के मन में शरारत सूझी। अब इन्सानी दिमाग है तो कभी-न-कभी कोई खुराफात कर ही बैठता है।
         उसने एक दिन अपनी सुई ली और दुकान के सामने से जाते हुए हाथी को चुभा दी। अब तो यह नित्य का क्रम बन गया कि हाथी वहाँ से गुजरता और दर्जी उसे सुई चुभा देता। अकारण पीड़ित होते हुए हाथी को उस दर्जी पर क्रोध आने लगा। एक दिन हाथी ने उस शरारत करने वाले को सबक सिखाने की सोची।
           अब क्या था, वह हाथी नदी पर स्नान करने के लिए गया और अपनी सूँड में पानी भरकर ले आया। वापसी पर जब दर्जी की दुकान आई तो उसने सूँड में भरा हुआ सारा पानी वहाँ उड़ेल दिया। हाथी के ऐसा करने पर उस दर्जी की दुकान पर रखे ग्राहकों के कपड़े खराब हो गए और उसे बहुत नुकसान हो गया। तब उसे पश्चाताप हुआ कि उसने व्यर्थ ही हाथी जैसे शक्तिशाली जीव से पंगा ले लिया।
           तीर जब कमान से निकल जाता है तो उसे लौटाकर नहीं लाया जा सकता। उस समय मात्र पश्चाताप ही शेष बचता है। यही स्थिति उस दर्जी की भी हुई। अब उसके पछताने से कुछ भी बदलने वाला नहीं था। अपने नुकसान की भरपाई करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई चारा नहीं बचा था।
          यह कहानी हमें यही समझा रही है कि दर्जी की तरह ही कभी ईर्ष्या से, कभी मौज-मस्ती के कारण और कभी अपनी मजबूरी में हम अपने रास्ते में काँटे बिछाते रहते हैं। उसकी भाँति हानि उठाकर दुखी होते हैं और फिर पश्चाताप करते हैं।
           यदि मनुष्य यह विचार कर ले कि वह जो व्यवहार वह दूसरों के साथ कर रहा है क्या वही व्यवहार वह अपने लिए चाहता है? यदि उसे वह व्यवहार अपने लिए पसन्द है तो फिर सब ठीक है। परन्तु यदि उसे अपने लिए वह व्यवहार नहीं चाहिए तो कहीं-न-कहीं गड़बड़ है। तब उसे दूसरों के साथ ऐसा कोई बरताव नहीं करना चाहिए जो दूसरे के हृदय को तार-तार कर दे।
          इस प्रकार वह जानते-बूझते गलत रास्ते पर चल रहा है और दूसरों के रास्ते में काँटे बिछा रहा है। यही काँटे समय बीतते उसके मार्ग पर आकर उसे घायल कर देंगे। बबूल का पेड़ बोकर आम का फल नहीं पाया जा सकता।
            इसके विपरीत दूसरों के लिए फूल बरसाने वालों को सुगन्ध मिलेगी ही। कहने का तात्पर्य है कि फूलों की तरह उनका यश चारों ओर फैलता है।
           अपने झूठे अहं और अनावश्यक पूर्वाग्रह पालने से किसी भी मनुष्य का भला नहीं होता। ये सदा ही विनाश का कारण होते हैं। इसीलिए कहा है-
     जो तोको काँटे बोए ताको बोइए फूल।
     तोको फूल के फूल हैं वा को हैं तिरशूल॥
अर्थात् जो हमारे लिए काँटे बोए उसके लिए भी फूल बोने चाहिए। हमें तो जीवन में फूल रूपी सुख मिल जाएँगे पर उसे दुख ही मिलेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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