मंगलवार, 31 मई 2016

कैसा जीवन दर्शन

चाहकर भी
समझ नहीं आता
कैसा जीवन दर्शन यह
जो चैन नहीं लेने देता किसी को जग में।

जहाँ भी देखो
हाहाकार है और
संत्रास छाया भू पर
मानव का बन गया दुश्मन ही मानव है।

चारों ओर है
छाया शोर किसी
बम्ब धमाके का वहाँ
फैल रहा अब चीत्कार-ही-चीत्कार है।

मासूम जन को
बिन अपराध यह
कैसी सजा है उनकी
हर लिया जिसने बेचारों का सर्वस्व है।

खो गया देखो
बचपन उन सब
यतीम बच्चों का जो
नहीं जानते आतंक की खूनी सियासत।

कौन खेल रहा
खून की होली है
कैसे ढूँढ सकते हैं
उन आततायिओं के गहरे भेदों के द्वार।

अनजाने भय
पनप रहे मन में
मुक्ति चाहिए इनसे
शान्ति चाहने वाले सभी जन गण को।

किसी आशा में
रहना ही व्यर्थ है
खुद के सामर्थ्य पर
भरोसा कर जीत जाओ मानव जग को।

नहीं हार है
कर्मठ वीरों की
किसी परिस्थिति में
निज बाहुबल का मानकर बढ़ जाओ आगे।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

सोमवार, 30 मई 2016

बेटी को संस्कारी बनाएँ

हर माता-पिता अपने बेटे के लिए एक सुशील और सुघड़ बहू की आवश्यकता पर बल देते हैं। कोई भी व्यक्ति अच्छी पत्नी के स्थान पर ऐसी खूबसूरत वस्तु की कामना नहीं करता जिसे किसी के घर के किसी कोने में अथवा शोकेस में सजाकर रख दिया जाए। सभी माता-पिता का कर्त्तव्य है कि वे अपनी बेटी को सर्वगुण सम्पन्न बनाएँ। उसकी सभी छोटी-छोटी बातों पर अवश्य ध्यान दें।
         अपनी सन्तान सबको प्रिय होती है। बेटियाँ अपने माता-पिता की बहुत दुलारी होती हैं। बेटी कितनी भी प्यारी क्यों न हो, उससे घर का काम-काज अवश्य आना चाहिए। हमारा सामाजिक ढाँचा ही ऐसा है जिसमें लड़की के कन्धों पर ही घर-गृहस्थी और बच्चों को सम्हालने का दायित्व होता है। हर माता का यह दायित्व है कि वह अपनी बेटी के लाड़ लड़ाने के साथ-साथ उसे गृहकार्यों में भी दक्ष करे जिससे उसे ये काम करने में कभी परेशानी न हो।
          ऐसा नहीं है कि ससुराल में जाकर ही वह घर-गृहस्थी को अच्छी तरह सम्हाले बल्कि अपने माता-पिता के घर में किसी के अस्वस्थ होने पर माता का हाथ बटाए। यदि कभी माता रुग्ण हो जाए तो घर को ठीक से सम्हाल सके। ताकि किसी बाहर वाले को घर की देखरेख के लिए बुलाने की आवश्यकता न पड़े।
         माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी बेटी की गलतियों पर पर्दा न डालकर उसको समय-समय पर डाँट-डपट भी करें, जिससे उसे अपनी गलती को सुधारने की समझ पैदा हो सके। दूसरों के सामने अपने बच्चों की सदा प्रशंसा करें परन्तु घर में अनुशासन आवश्यक है। हर परिस्थिति का डटकर सामना करने की सूझबूझ उसे दें। ससुराल में कभी ज्यादा काम पड़ने या कभी डाँट मिलने पर वह कोई गलत कदम उठाने की कोशिश न करे। उस समय मन में यह मलाल न हो कि काश हमारे घर बेटी पैदा ही न हुई होती।
       समय रहते अपनी बेटी को उच्च शिक्षा दिलाएँ। इस तरह वह योग्य बनकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी। उसके जीवन में आर्थिक स्वतन्त्रता का होना बहुत ही आवश्यक है। अन्यथा उसे कदम पर दूसरों का मुँह देखना पड़ेगा। पढ़ी-लिखी बेटी दो परिवारों का मान बढ़ाती है। अपनी बेटी को उसके अधिकारों और कर्त्तव्यों की जानकारी भी कराएँ।
         बेटी से बहु बनाने की प्रक्रिया से हर लड़की को गुजरना पड़ता है। माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी बेटी को संस्कारित करें। यदि किसी कारणवश माता-पिता इस दायित्व से चूक जाते हैं तो उनकी बेटी को इसका खामियाजा जीवन भर भुगतना पड़ता है। उसके साथ-साथ माता-पिता को भी जिन्दगी भर अपमानित होता पड़ता है। हर कोई यही कहता है कि बेटी को क्या सिखाया है?
          सभी माता-पिता यदि अपनी बेटियों में एक अच्छी बेटी और एक सुघड़ बहू बनने के संस्कार देंगे तभी तो हर घर को संस्कारित बहू मिलेगी? इस कटु सत्य को हर माता और पिता को समझ लेना चाहिए।
          यदि ऐसा होने लगे तो किसी घर में बिखराव अथवा टकराव नहीं होगा। तब किसी बहन के मन में यह कसक नहीं रहेगी कि उसका भाई और उसकी भाभी उसके माता-पिता की सेवा नहीं करते, उनका ध्यान नहीं रखते। उन्हें वृद्धाश्रम या ओल्ड होम में छोड़ना चाहते हैं। माता-पिता की होती अवहेलना का दोषी सभी बेटों को ही मानकर कोसते हैं। सोचने की बात यह है कि बेटे अपने माँ बाप को शादी के पहले वृद्धाश्रम क्यों नही भेजते, शादी के बाद ही क्यों भेजते हैं। माता-पिता भूल जाते हैं कि यदि उन्होंने ने अपने बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व ठीक से निभाया होता तो आज हमारे देश में एक भी ओल्ड होम न होता। किसी की बेटी यदि उनकी बहू है तो उनकी अपनी बेटी भी किसी के घर की बहू है।
       सभी माता-पिता से अनुरोध है कि जब तक अपरिहार्य परिस्थितियाँ न हों, बेटी के ससुराल मे जाकर अनावश्यक रूप से दखलअंदाजी न करें और बच्चों को घर में तालमेल बिठाने का परामर्श दें। इसी से दोनों घरों की इज्जत बनी रहती है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 29 मई 2016

मौन और मुस्कान

ईश्वर ने हर मनुष्य को मौन और मुसकान नामक दो हथियार इस ससार में आते समय आत्मरक्षा के लिए दिए हैं। इन दोनों का वार कभी खाली नहीं जा सकता। अब यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह उनका उपयोग किस प्रकार करता है।
        हमारे ऋषि-मुनि आत्मबल बढ़ाने के लिए मौन धारण करते हैं। इसकी शक्ति वही पहचान सकता है जो इसे साध लेता है। हम कह सकते हैं कि यदि मनुष्य मौन रहने की आदत अपना ले तो बहुत से झगड़े समाप्त हो सकते हैं और कुछ टाले भी जा सकते हैं। घर-परिवार में किसी की बात नापसन्द होने पर यदि प्रतिकार किया जाता है तो वह पलक झपकते विवाद का रूप ले लेती है।
          कभी-कभी ये झगड़े इतने बढ़ जाते हैं कि परिवार में विघटन तक हो जाता है अथवा पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। सदियों पुरानी मित्रता भी विवाद के चलते होम हो जाती है। कभी-कभी शत्रुता पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है, जिससे किसी का भला नहीं होता। इस दुश्मनी के किस्से हम फिल्मों और टीवी सीरियलों पर देखते हैं। समाचार पत्रों और सोशल मीडिया में पढ़ते रहते हैं।
         इसी प्रकार अपने कार्यक्षेत्र में भी चुप के शस्त्र से अपने विरोधियों को सरलता से परास्त किया जा सकता है और अपना दबदबा बनाकर रखा जा सकता है।
         यदि ठण्डे दिमाग से यदि विशलेषण कर लिया जाए तो समझ आ जाता है कि मामले को अकारण तूल दी गई। उस समय सब हाथ से निकल चुका होता है। जो हानि होनी थी वह हो चुकी होती है, तब उसकी भरपाई कठिन हो जाती है। मनोमालिन्य इतना बढ़ चुका होता है कि कोई भी एक-दूसरे की शक्ल तक देखना पसन्द नहीं करते। ये स्थितियाँ कभी भी अच्छ
          मौन से जो कहा जा सकता है उसे शब्दों से नहीं कहना चाहिए। इसीलिए कहते हैं- एक चुप सौ को हराए अथवा एक चुप सौ सुख।
           चुप रहना वास्तव में हमारे सस्कारों का प्रतीक है लेकिन कुछ लोग ऐसे संस्कारियों कायर या मूर्ख समझने की भूल करते हैं। यदि मौन रहकर अपरिहार्य स्थितियों से बचा जा सके तो यह सौदा किसी भी तरह महँगा नहीं कहा जा सकता।
         एक प्यारी-सी मनमोहक मुस्कान से मनुष्य किसी भी पराए को अपना बना सकता है। यदि मुस्कान सरल व सहज है तो उसी प्रकार सरलता से सबका दिल जीत लेती है जैसे एक बच्चे की निश्छल मुस्कान। परन्तु कुटिल मुस्कान मनुष्य को सबसे काटकर अलग-थलग कर देती है। इसका कारण है कि वह कुटिल मुस्कान बर्बरता का प्रतीक होती है। हर आततायी के चेहरे पर यही दिल दहला देने वाली क्रूर मुस्कान ही होती है। इसको देखकर सभी को भयभीत होते हैं।
          एक बार गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा था, ' प्रभु मौन और मुस्कान में क्या अंतर है?'
           भगवान महावीर ने बहुत ही सुन्दर जवाब दिया था- 'मौन और मुस्कान दो शक्तिशाली हथियार हैं। मुस्कान से कई समस्याओं को हल किया जा सकता है और मौन रहकर कई समस्याओं को दूर रखा जा सकता है।'
         जहाँ तक हो सके इस मौन की साधना करने का यत्न करना चाहिए। ईश्वर का ध्यान लगाने अथवा उसकी उपासना करने के लिए भी मौन की आवश्यकता होती है। अपने दैनन्दिन कार्यो को करते हुए, घर-परिवार के दायित्वों का निर्वहण करते हुए और कार्यालयीन कार्यों को दक्षता से निपटाते हुए प्रतिदिन थोड़ा से समय के लिए मौन रखें। इससे आत्मबल तो बढ़ता ही है साथ ही अपने कार्यों के सुचारु रूप से सम्पादन के लिए ऊर्जा भी मिलती है।
          कितने भी कष्ट व परेशानियाँ क्यों हों, अपनी मोहक मुस्कान को खोना नहीं चाहिए। उसकी बदौलत हम अपन कष्टों को भी कुछ समय तक भूल जाते हैं और बन्धु-बान्धवों के चहेते बन जाते हैं।
         अतः मौन और मुस्कान को अपनाने वाले की कभी हार नहीं हो सकती। शारीरिक रूप से शक्तिहीन होने पर भी मनुष्य का मानसिक व आत्मिक बल बढ़ता है। उसके चाहने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती रहती है। सबको साथ लेकर चलने से मनुष्य का यश चहुँ दिशि फैलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

शनिवार, 28 मई 2016

याद आना और याद करना

किसी को याद करना और किसी को याद आना दोनों अलग-अलग बातें हैं। हम प्रायः उन सबको याद करते हैं जो हमारे अपने होते हैं और जिनसे हमारा कोई-न-कोई सम्बन्ध होता है। कभी हम उन्हें अपने प्यार के कारण याद कर लेते हैं और कभी स्वार्थ के वशीभूत होकर याद करते रहते हैं।
          इसके विपरीत उन लोगों को हम सदा याद आते हैं जो हमें अपना समझते हैं। पलक पाँवड़े बिछाकर वे हमारी प्रतीक्षा करते रहते हैं। हमारी पीठ पीछे भी कभी निन्दा नहीं करते बल्कि प्रशंसा करते हैं। उन पर आँख मूँदकर विश्वास किया जा सकता है। ये हमारे लिए अपनों से भी बढ़कर होते हैं। इनके सच्चे प्यार पर हर प्रकार से भरोसा किया जा सकता है।
        मनुष्य को यथासम्भव उन लोगों की संगति से बचने का यत्न करना चाहिए जो किसी के पास जाकर हमेशा दूसरों की बुराई करते हैं। कहने का अर्थ है कि उन्हें बस दूसरों की निन्दा-चुगली करने में ही आनन्द आता है। इसमें बिल्कुल सन्देह नहीं कि ऐसे लोग जो हमारे सामने दूसरों की बखिया उधेड़ते हैं, वे दूसरों के पास जाकर हमारी बुराई भी अवश्य करते होंगे।
          उन लोगों का बस एक ही उद्देश्य होता है, बिना कारण किसी की छिछालेदार करना। ऐसे लोग बहुत खतरनाक होते हैं। ये न तो कभी किसी के सगे होते हैं और न ही किसी के दिल में अपना स्थान बना पाते हैं। ऐसे लोगों को कोई भी याद नहीं करना चाहता। यदि ये कभी याद आ भी जाते हैं तो सबके मुँह का मानो स्वाद ही बिगड़ने लगता है।
          इन्सान गलतियों का पुतला है। यदि वह गलती नहीं करेगा तो साक्षात भगवान बन जाएगा। होना तो यह चाहिए कि जिसकी गलती है उसे विश्वास में लेकर प्यार से समझा दिया जाए और दूसरे किसी को इसकी कानोंकान खबर न होने दी जाए। कारण यही है कि अपनी गलतियों अथवा कमियों को उस व्यक्ति विशेष ने सुधारना है किसी अन्य ने नहीं। इस प्रकार मनुष्य यदि विशाल हृदयता का परिचय देता है तो वास्तव में वह सबका अपना बन जाता है।
          इसीलिए सयाने कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा लगता है उसे बहुत अधिक गौर से या बारीकी से न देखो और न परखो। हो सकता है कि उसमें कोई बुराई दिखाई दे जाए। इससे मनमुटाव बढ़ जाता है और आपसी सम्बन्धों में खटास आने की सम्भावना बनी रहती है।
         इसके विपरीत जो व्यक्ति बुरा लगता है, उसे गहराई से देखो और परखो। हो सकता है उसकी कोई ऐसी अच्छाई दिखाई दे जाए जो सचमुच प्रशंसनीय हो। फिर वह व्यक्ति अपने मन को भाने लग जाए और उसकी यादें मधुर बन जाएँ।
          यह दुनिया एक रैन बसेरे की तरह है। पता नहीं कितने दिन तक यहाँ रहना है। इसका किसी को भी पता नहीं कि कौन पहले जाएगा और कौन बाद में। यह सब तो उस मालिक को ज्ञात है, जिसने इस सम्पूर्ण माया की रचना की है। जहाँ तक हो  सके लोगों के दिलों को जीत लो और उनके मनों में अपनी पैठ बना लो। तब चाहकर भी ऐसे व्यक्ति को कोई भी अपने दिल से नहीं निकाल पाएगा।
         जहाँ तक हो सके सबमें प्यार बाँटते चलो। अपने मन में आने वाली कटुताओं को दरकिनार करते हुए उसमें भरने वाले जहर को निकाल फैंक सकें तो समाज में चारों ओर प्यार की नदियाँ बहाई जा सकती हैं। तब हम सबको निश्छल प्यार करेंगे और सभी हमें प्यार कर सकेंगे। उस समय प्यार करना और प्यार होने वाली रेखा समाप्त हो जाएगी। तब किसी को याद करना और किसी को याद आना दोनों का भेद मिट जाएगा, दोनों बातें अलग-अलग नहीं एक हो जाएँगी।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

कुछ पीछे छूट तो नहीं गया?

कुछ रह तो नहीं गया? कुछ पीछे छूट तो नहीं गया? अथवा कोई गलती तो नहीं हो गई? ये ऐसे प्रश्न हैं जो हम सभी को जीवन के हर मोड़ पर चलते हुए हमेशा परेशान करते रहते हैं। यदि विचार किया जाए तो हम दिन में न जाने कितनी बार इन प्रश्नों से दो-चार होते रहते हैं।
         छोटे बच्चे को आया के पास अथवा क्रच में छोड़कर नौकरी पर जाने वाली माँ दस बार अपना और बच्चे का सामान चैक करती है और बार-बार यही सोचती है कि कुछ रह तो नहीं गया? यदि यहाँ कुछ छूट गया तो फिर दिनभर बच्चे के लिए परेशानी हो जाएगी।
         रसोई में खाना बनाकर निकलने से पहले सब कुछ सम्हालने और गैस बन्द कर देने के बाद गृहिणी जब कमरे में आकर बैठ जाती है तब भी उसके मन में आशंका उठती है कि मैंने गैस तो बन्द कर दिया था क्या? ऐसा तो नहीं कि कहीं सब्जी जल जाए?
         किसी भी कारण से घर से बाहर निकलने वाले हम सभी अपने पर्स, गाड़ी की चाबी आदि रख लेने के बाद फिर इन चीजों को जाँचते रहते हैं कि उन्हें रख लिया या नहीं? समस्या तब आती है कि जब भागमभाग कुछ छूट जाता है तो बाहर जाने का सारा मजा किरकिरा हो जाता है। इसी तरह घर के सारे स्विच तथा ताले बार-बार चैक करते हैं। फिर भी मन के किसी कोने में एक अनजाना-सा डर रहता है कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया।
         शादी में दुल्हन को बिदा करने के बाद दुल्हन के  माता-पिता घर के सब सदस्यों से कहते हैं कि अच्छे से देख लो कुछ रह तो नहीं गया न? वहाँ कुछ छूटे-न-छूटे पर बचपन से आजतक जिस नाम वे अपनी बेटी को पुकारते थे, वह नाम पीछे रह जाता है। जब भी लाडली बिटिया को याद करेंगे उनकी आँखों में आँसू आये बिना नहीं रहेंगे। बेटी की बचपन से अब तक की यादें, उसका रूठना-मानना यानि कि उसकी हर बात माता-पिता के हृदयों में याद बनकर पीछे रह जाती है।
           माता-पिता, बहन-भाई अपनी जुबान से चाहे कुछ न बोलें परन्तु उनके दिल में एक कसक तो रह ही जाती है। विदा होते समय दुल्हन का मन भी यही कहता है कि सब कुछ तो यहीं छूट गया। अपने नाम के आगे गर्व से जो नाम लगाती थी वह भी पीछे छूट गया। उस घर से उसका नाता छूट रहा है। माता-पिता का प्यार, उनसे की जाने वाली जिद, सखी-सहेलियाँ और बाबुल का  आँगन  सब पीछे छूट रहे हैं।
          इन्सान बड़ी हसरत से अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेजता है और वे पढ़कर वहीं सैटल हो जाते हैं। उनसे मिलने के लिए बड़ी ही मुश्किल से उन्हें अधिकतम छह महीने का वीजा मिला पाता है। वापिस लौटते समय जब बच्चे पूछते हैं कि सब कुछ चैक कर लिया कुछ रह तो नही गया? उस समय बच्चों से बिछुड़ते समय सब तो वहीं छूट जाता है। ऐसा लगता है मानो हृदय की गहराइयों से कुछ-कुछ छीजता जा रहा है। इससे अधिक और छूटने के लिए क्या बचा रह जाता है?
          साठ वर्ष पूर्ण करने के उपरान्त जब सेवानिवृत्ति की शाम जब दोस्तों ने याद दिलाते हैं कि सब चेक कर लो, कुछ रह तो नही गया। तब मन में एक टीस उठती है कि सारी जिन्दगी तो यहीं आने-जाने में बीत गई, अब क्या रह गया होगा। 
           किसी अपने की अन्तिम यात्रा के समय शमशान में उसका संस्कार करके लौटते समय लगता है कि कुछ छोड़े जा रहे हैं। एक बार पीछे देखने पर चिता की सुलगती आग को देखकर मन भर आता है। अपने से वियोग के समय उससे पुनः न मिल पाने की पीड़ा में सब पीछे रह जाता है। भरी आँखों से इन्सान कुछ बोल तो नहीं  पाता पर कुछ तो पीछे रह जाता है। उस प्रिय की वे यादें उसके अंतस् में सदा उसके साथ रहेंगी।
           आत्मचिन्तन करना हमारे लिए बहुत आवश्यक है और अपने पूरे जीवन में झाँकना चाहिए। यह जानकारी लेने का प्रयास करना चाहिए कि ऐसा तो नहीं है कि कुछ पीछे छूट रहा हो, जिसे हम अपने साथ लेकर चल सकते थे। इस मलाल को जीवन भर ढोने के बजाय समय रहते ध्यान दिया जाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

गुरुवार, 26 मई 2016

मनुष्य का विवेक व् संगति

मनुष्य का विवेक, उसकी समझदारी, उसका अच्छा स्वभाव, उसकी संगति और उसके प्रगाढ़ संबध हमेशा साथ निभाते हैं। यद्यपि उसका समय कभी सदा एक-सा नहीं रह पाता, उसकी सत्ता का दबदबा भी हमेशा कायम नहीं रह सकता। उसकी धन-सपत्ति आदि भी उसका साथ नहीं निभाते और तो और उसका अपना शरीर भी एक निश्चित समय के बाद अशक्त हो जाने के कारण साथ नहीं दे पाता।
          अपने विवेक से, अपनी समझदारी से मनुष्य यदि अपने जीवन का निर्वहण करता है तो यह उसके लिए बड़े सौभाग्य की बात है। इस प्रकार वह सफल व्यक्ति बनता है। अपने सम्पर्क में आने वालों का मार्गदर्शन करता है।
          अपने अच्छे स्वभाव के कारण वह सबको अपना बना लेता है। उससे कोई भी नाराज नहीं हो सकता। यदि कोई ऐसा करता भी है तो उसके अच्छे स्वभाव के कारण अधिक दिन उससे रूठा नहीं रह सकता। इसी तरह सहृदयता का परिचय देते हुए वह सबको उनकी गलतियों के लिए उन्हें क्षमा कर देता है। इसलिए उसके सम्बन्ध सबके साथ लम्बे समय तक बने रहते हैं।
           मनुष्य को सदा यही प्रयास करना चाहिए कि वह यथासम्भव दूसरों की दुआओं अथवा आशीर्वाद को अपने जमा खाते में जोड़ता जाए। कहा जाता है कि दूसरों द्वारा दी गई बददुआओं का असर मनुष्य के जीवन पर अवश्य पड़ता है। यदि अभिशाप का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है तो दूसरों के मन से निकलने वाले आशीर्वाद भी अपनी छाप छोड़ते हैं। जितने अधिक आशीर्वाद उसे मिलेंगे उतनी ही उसकी कीर्ति चारों दिशाओं में प्रसरित होगी।
          सदा याद रखना चाहिए कि धन, दौलत और प्रसिद्धि का कोई भरोसा नहीं कि वे साथ निभाएँगे अथवा नहीं। इसका कारण है कि ये दोनों अपने साथ अनेक बुराइयों को साथ लेकर आते हैं। इनके चगुल में फंसकर मनुष्य धोखा खाकर अपनी हानि कर बैठता है।
            जो मनुष्य इन्हें सम्हाल पाता है या इनके मिलने पर अहंकारी न होकर विनम्र बना रहता है, वही सबका प्रिय भाजन बनता है। उसकी सर्वत्र जय जयकार होती है।
          अपनों पर भरोसा करना मनुष्य की बहुत बड़ी पूँजी है। यह यूँ ही नहीं बाँट दी जाती। पहले मनुष्य को स्वयं पर विश्वास करना चाहिए तभी उसे आत्मविश्वास की शक्ति मिलती है। इसके विपरीत दूसरों पर अन्धविश्वास करना उसकी कमजोरी बन जाता है।
         मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि जब वह सफलता की ऊँचाइयों को छू रहा होता है तो उसकी सफलता के गुब्बारे में सबसे पहले पिन चुभाने वाला वही अपना कोई होता है जिस पर वह आँख मूँदकर विश्वास करता है। पीठ पर छुरा भौंकने वालों से सावधानी रखना बहुत ही आवश्यक है।
           हम अपने जीवन में बहुत सारे सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। हमारी जिन्दगी बहुत ही चालाक है, हमें ठगती रहती है। यह हर रोज एक नया कल देने का वादा करके हमारी उम्र छीनती रहती है। इसलिए समय रहते इरादे मजबूत करके अपने देखे हुए सपनों को सच कर लेना चाहिए।
          मनुष्य को आत्मोन्नति के लिए सदा सत्संगति में रहना चाहिए और ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। ईश्वर की राह पर जब कोई एक कदम बढ़ाता है तो ईश्वर उसे थामने के लिए सौ कदम आगे बढ़ाता है। हम इन्सानों की ही तरह वह मालिक भी अपनी सन्तानों से बहुत प्यार करता है। उनकी परेशानियों के समय उन्हें सहारा देता है।
         वह हमेशा चाहता कि उसकी सन्तानें हम मानव शुभ कर्म करें जिससे हमें कष्टों का सामना न करना पड़े। हम मालिक की ऐसी नालायक सन्तानें बन जाते हैं जो इस संसार में आने के बाद अपने सही रास्ते से भटककर गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। तभी कष्टों और परेशानियाँ झेलते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

बुधवार, 25 मई 2016

वास्तविक धन

आजन्म मनुष्य को धन की आवश्यकता होती है और वह इसे पाने के लिए अनथक प्रयास भी करता है। मनुष्य का वास्तविक धन क्या है? आज हम इस विषय पर चर्चा करते हैं।
          हम सांसारिक लोग हैं, हमारे घरों में यदा कदा अतिथि आते रहते हैं। कुछ अतिथि थोड़े समय के लिए आते हैं और कुछ अतिथि हमारे साथ कुछ दिन व्यतीत करते हैं। हम सबकी आवभगत अपनी सामर्थ्य के अनुसार करते हैं। जब कोई अतिथि हमारे घर कुछ दिन रहता है और जाते समय प्रसन्न मन यह से कहता है कि आपके घर में आकर मेरा मन रम गया है, यहाँ से जाने का दिल नहीं कर रहा। यह घर नहीं एक मन्दिर है तो यह मनुष्य का सबसे बड़ा धन होता है।
         जब माता-पिता अपने बच्चों के व्यवहार से, उनकी सेवा सुश्रुषा से प्रसन्न होते हैं तब उनके मन से अपने आप ही आशीर्वाद निकलते हैं। वे अनायास ही यह कहते हैं कि ये बच्चे हमारे कलेजे का टुकड़ा हैं। मेरे विचार में किसी भी मनुष्य के लिए इससे बढ़कर और कोई धन हो ही नहीं सकता।
          घर-परिवार में सामञ्जस्य का वातावरण हो। बच्चे माता-पिता की आज्ञाकारी सन्तान हों, उनका आदेश बच्चों के लिए ब्रह्मवाक्य हो। ऐसे माहौल में यदि कोई बेटा या बेटी यह कहे कि मेरे माँ बाप ही मेरे भगवान हैं तो यह मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी कहलाएगी।
           पति-पत्नी में परस्पर प्यार और विश्वास हो और वे दोनों एक बंद मुट्ठी की तरह मिलकर रहते हों, उनके बच्चे भी संस्कारी हों तो ऐसा घर स्वर्ग से भी बढ़कर सुखी होता है। शादी के बीस साल के बाद भी पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति लगाव कम न होकर बढ़ता रहे तो उनके इस प्रेमधन के समक्ष अन्य सभी धन फीके पड़ जाते हैं।
         घर-परिवार में प्रायः सास और बहु की नोकझोंक चलती रहती है। यदि वहाँ सभी को यथोचित सम्मान देने की परम्परा हो तो इस समस्या से बचा जा सकता है। बहु अपनी सास को सास नहीं माँ माने और इसी प्रकार सास भी अपनी बहु को बहु नहीं बेटी मान लें तो अधिकतर झगड़े समाप्त हो जाएँ। दोनों ही एक-दूसरे की गलतियों को अनदेखा करके यदि परस्पर सौहार्द बनाए रखें तो वहाँ टकराव होगा ही नहीं। उस घर की खुशबू दूर-दूर तक फैलती है। यही गृहस्थी का सबसे बड़ा धन है।
         जिस घर में घर में बड़ों को मान और छोटों को प्यार भरी नजरों से देखा जाता है वहाँ सुख-शान्ति का वास होता है। बड़ों को चाहिए कि वे अपना हृदय विशाल बनाकर बच्चों को उनके किसी भी दोष के लिए क्षमा कर दें।ऋइसी प्रकार बच्चों का दायित्व भी बनता है कि वे बड़ों की कोई बात रुचिकर न लगने की स्थिति में घर में बवाल न मचाकर प्यार से समाधान करें। छोटे-बड़े सभी को हठधर्मिता छोड़कर रिश्तों में तालमेल बनाए रखे। ऐसा करने पर घर के सभी सदस्यों का आपसी व्यवहार सन्तुलित रहेगा। बाहर जाने पर घर में भागकर आने का मन करेगा। अब आप ही बताइए कि इससे बड़ा कोई और धन हो सकता है?
          भाई-बन्धुओं अथवा घर-परिवार के किसी सदस्य की यदि जरूरत के समय आप प्रसन्नतापूर्वक, अपना फर्ज समझकर, बिना अहसान जताए सहायता कर सकें और वह आपको अपने दिल की गहराई से दुआ दे तो यह सबसे धन होगा। यह धन आत्मसन्तुष्टि का भाव देता है।
       यदि अपने विवेक से ऐसा धन मनुष्य पा सके तो उससे बढ़कर भाग्यशाली कोई और हो ही नहीं सकता। मनुष्य को अपने घर को यत्नपूर्वक ऐसा बनाना चाहिए कि उसके मन में कोई और कामना न रह जाए।  ईश्वर की कृपा से हर किसी व्यक्ति को ऐसे परम धन की प्राप्ति हो और वह खुशहाल जीवन जी सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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