गुरुवार, 30 जून 2016

मेरा विश्वास

समय पंख लगाकर न जाने कब से
आसमान में ऊँचा उड़ता जा रहा है।

मेरे विश्वास की पूँजी  को थामे उसे
अपने साथ लिए चलता जा रहा है।

बड़ी मुश्किलों से बरसों पहले पाले
मेरे यत्नों पे पानी फेरता जा रहा है।

सम्हाल कर  रखा था इसे अब तो
मेरे हाथों से यह छूटता जा रहा है।

सोचती  हूँ क्यों एक-दूसरे के लिए
विश्वास यूँ जरूरी होता जा रहा है।

फिर  लगने लगता है अगले ही पल
टूटता हुआ कुछ दरकता जा रहा है।

समझ नहीं आता क्योंकर मुझे एक
अनजाना-सा डर सताता जा रहा है।

जीवन से  विश्वास उठ  गया  मानो
काल के गाल में समाता जा रहा है।

सोचती हूँ उठकर समेटूँ विश्वास को
जो पतंग की तरह छूटता जा रहा है।

पकड़ो इसे कोई, देखो सामने से यह
चिन्दी-चिन्दी होकर उड़ता जा रहा है।

कैसे जी सकूँगी इसके बिना पलभर
निज नजरों से सब गिरता जा रहा है।

तड़प रही हूँ अब जलबिन मीन-सी
हर सिरा देखो उलझता जा रहा है।

काश यह लम्हा ठहर जाए इसी पल
रुक जाए जो डगमगाता जा रहा है।

किससे फरियाद करूँ बचाओ मुझे
मेरा अंतस् झकझोरता जा रहा है।

कोशिश है टूटे विश्वास को सीने की
जो शायद फिर से जुड़ता जा रहा है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

बुधवार, 29 जून 2016

भाग्य हमारा बैंक

बैंक में यदि हम अपना पैसा जमा करवाते हैं तभी आवश्यकता पड़ने पर वहाँ से निकाल सकते हैँ। उस पैसे से हम अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। इसी प्रकार अपने पुण्य कर्मो की पूँजी को यदि भाग्य के खाते में जमा कराएँगे तभी अगले जन्म में उसे कैश करवा सकेंगे।
          बैंक में जमा करवाए हुआ धन के कारण हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद हम अपने जीवन के आड़े वक्त के लिए धन का संग्रह करने के लिए व्यघ्र रहते हैं।
         इस एक भौतिक जीवन को जीने के लिए हम इतने तामझाम करते हैं परन्तु जन्म-जन्मान्तरों तक हमारे शरीर में रहने वाले जीव को अपनी जीवन यात्रा पूरी करनी होती है, उसके विषय में हम कभी नहीं सोचते। जबकि यह विचार मन में अधिक हावी होना चाहिए। पर अफसोस उसे हम अपने मन-मस्तिष्क में कभी आने ही नहीं देते।
         एक दिन बैंक हमेशा की तरह पैसे निकालने वालों की भीड़ थी। भीड़ को देखकर एक व्यक्ति रुक गया। उसने वहाँ खड़े एक व्यक्ति से पूछा कि यहाँ भीड़ क्यों है? दूसरे आदमी ने जवाब में कहा कि यह भीड़ पैसे लेने वालों की है। वह आगन्तुक बैंक की प्रणाली से अन्जान था। उसने फिर पूछा कि क्या सबको पैसे मिलते हैं? दूसरे व्यक्ति के हाँ कहने पर वह भी लाइन में खड़ा हो गया।
        जब उसकी बारी आई तो बैंक के कैशियर ने उससे पूछा कि उसे कितने पैसे चाहिए, पर्ची भरी है क्या, तुम्हारा खाता बैंक में है क्या?
        अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शित करते हुए उसने न में सिर हिला दिया और कहा कि तुम सबको पैसे दे रहे थे। मुझे भी पैसे चाहिए थे, इसलिए मैं भी लाइन में खड़ा हो गया। उसका भोला-सा उत्तर सुनकर कैशियर ने उसे समझाया कि यह बैंक है। यहाँ पर लोग पैसे जमा करवाते हैँ। फिर जब जितने पैसे की जरूरत उनको होती है तब पर्ची भरकर उतने पैसे ले लेते हैं और फिर अपनी पासबुक में एन्ट्री करवा लेते हैं।
        कहने का अर्थ यही है कि बैंक में पहले पैसे जमा करवाने होते हैं तभी निकल पाते हैं। पासबुक में केवल तीन एंट्री होती हैं-  डिपाजिट यानि धनराशि जमा कराना, विड्राल अर्थात पैसा निकालना और बैलेंस यानि कितना धन शेष बच गया।
          बैंकिंग प्रणाली से अन्जान उस व्यक्ति ने जब बैंक में अपना पैसा जमा ही नहीं करवाया था तो फिर उसे आवश्यकता होने पर भी वहाँ से पैसा नहीं मिल सकता था। वह व्यक्ति खाली हाथ ही रह गया।
        हम सब लोग जो इस बैंकिंग प्रणाली को भली-भाँति जानते हैं, वे भी भूल जाते हैं कि धन की तरह हमारे भाग्य का भी अपना एक अकाऊंट होता है। वहाँ भी जमा, घटा और शेष बची हुई राशि का हिसाब रखा जाता है।
         इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि भाग्य एक बैंक है। हमारे पुण्यकर्म और हमारे पापकर्म हमारी जमाराशि हैँ। पुण्य कर्मो के कारण हम अपने इस भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि, शान्ति, सफलता, यश और स्वस्थ जीवन आदि का आनन्द ले सकते हैं।
        इसके विपरीत पापकर्मों के कारण हमें जीवन में अभाव, परेशानी, रोग, कलह-क्लेश और निराशा आदि भोगने पड़ते हैं। जब जीव अपने पापकर्मों को भोग लेता है तभी उसे उनसे मुक्ति मिलती है। पापकर्मों और पुण्यकर्मो को भोगने के बाद उनमें से जो कर्म शेष बचते हैं, उन्हीं के अनुसार जीव को अगला जन्म मिलता है। चौरासी लाख योनियों में से वह कोई भी शरीर हो सकता है।
        अतः अपने पुण्यकर्मो को अपने भाग्य के खाते में जोड़ने के लिए अभी से सन्नद्द हो जाइए। ऐसा न हो कि पापकर्मों की अधिकता से न अगला जन्म अच्छा मिले और न ही जीवन में सुख-सुविधाएँ ही मिल सकें। उस समय सिर धुनकर पश्चाताप करने से अच्छा है कि हम अभी से चेत जाएँ। इसका कारण है कि हमारे इन पुण्यकर्मो और पापकर्मों के लेखाजोखे के अनुसार ही हमें सब कुछ मिलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

मंगलवार, 28 जून 2016

संसार के आकर्षण

इस संसार में रहने वाले मनुष्य को सदा ही परेशानियाँ अथवा डर डराते रहते हैं। जब भी, जहाँ भी, उसे कहीं से थोड़ी-सी राहत मिल जाती है, वहीं वह सब कुछ भूल जाता है। उसे यह भी याद नहीं रह पाता कि वह इस संसार में सीमित समय के लिए ही आया है।
         दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस संसार के आकर्षण और मोहमाया के जाल इतने अधिक लुभावने हैं कि मनुष्य उनमें न चाहते हुए भी उलझकर रह जाता है। वह जितना भी उनसे बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, उतना ही गहरे उसमें फँसता चला जाता है।
         एक बोधकथा की यहाँ चर्चा करते है जिसे हममें कई लोगों ने पढ़ा होगी। एक बार एक आदमी जंगल से गुजर रहा था। तभी एक शेर उसका शिकार करने के लिए उसके पीछे भागने लगता है। भागते हुए उसे एक कुँआ दिखाई देता है। उसके सामने 'आगे कुआँ और पीछे खाई' वाली स्थिति बन जाती है। वह बेचारा अपनी जान बचाने के लिए उस कुएँ में के ऊपर लगे चक्र में बंधी रस्सी को पकड़कर लटक जाता है।
         वह वहाँ लटक तो गया परन्तु जब उसकी नजर नीचे कुँए की गहराई में बैठे, फन फैलाए हुए एक काले साँप को देखकर चौंक जाता है। मौत को साक्षात् अपने समक्ष देखकर वह बहुत डर गया। उसी समय उसकी नजर काले और सफेद रंग के दो चूहों पर पड़ती है जो उस रस्सी को काट रहे हैं। यह दृश्य देखकर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई।
          ईश्वर का चमत्कार देखिए कि कुँए में उसे शहद का छत्ता नजर आता है। उसे थोड़ी राहत मिलती है। उस शहद की बूँद उसके मुँह में गिरने लगी। अपनी जीभ से वह उसे चाट लेता है। शहद की मिठास में वह इतना खो जाता है कि उसे वहाँ मौजूद शेर, भयानक साँप और चूहों के डर को भुला देती है। उस समय वह अपने सिर मंडराती मौत तक को भूल जाता है। यही है इन्सानी फितरत है।
          यह दुनिया जंगल की तरह है। कुआँ मौत का घर है और साँप मौत का कारण है जिसे हर हाल में डसना ही है। दोनों चूहे दिन और रात हैं जो हमारी जिन्दगी की डोर को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं। शहद इस संसार का रस-रंग है जिसे थोड़ा-सा भी चख लिया जाए तो मनुष्य भूल जाता है कि उसे इस असार संसार से विदा लेनी है।
         यह कथा हमें समझाती है कि काल रूपी सर्प मनुष्य को भयभीत करता रहता धहै। वह समझता है कि यही काल एक दिन उसे अपना ग्रास बना लेगा। फिर भी यह मनुष्य समय से न डरते हुए मस्त रहता है, मानो उसने रावण की तरह काल को बाँध लिया है। जो मनुष्य विषय-भोगों में अपना समय व्यतीत करता है, वह इस समय को व्यर्थ गँवा देता है। इसके विपरीत जो इस समय का सदुपयोग कर लेता है सफलता उसके कदम चूमती है और उस व्यक्ति को आम से खास बनाकर सबके सिरों पर बिठा देती है।
        हमारा यह जीवन पल-पल करके बीत रहा है। जन्म लेने के पश्चात से बीतता हुआ यह समय हमें मृत्यु की ओर ले जा रहा है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन, यह क्रम अनवरत चलता रहता है। ये दोनों मिलकर हमारी जीवन की डोर को धीरे-धीरे काट रहे हैं यानि कम से और कम करते जा रहे हैं। इससे जीवन और मृत्यु के बीच का जो अन्तर है वह दिन-प्रतिदिन कम से कमतर होता जा रहा है। हम सब इस तथ्य को अनदेखा करते हुए इस अमूल्य जीवन को दुनिया के झंझटों में व्यर्थ में नष्ट करते रहते हैं।
          मनमोहक दुनिया के माध्यम से इस संसार सागर में वह प्रभु इन्सान को चारा डालकर ललचाता रहता है। मनुष्य को पता ही नहीं चलता कि कब वह उसके काँटे में फँस जाता है और मालिक वह काँटा खींच लेता है। तब मनुष्य तड़पता रह जाता है। हाथ-पैर पटकता रहता है पर सब व्यर्थ हो जाता है।
          मौत को हमेशा प्रत्यक्ष खड़ा हुआ मानना चाहिए। व्यवहार ऐसा करना चाहिए जैसे आज का दिन ही अन्तिम दिन है और अपने सभी दायित्वों को पूर्ण करना है। इसी भावना के साथ मौत से बिना डरे निश्शंक होकर विचरण करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

सोमवार, 27 जून 2016

एक तंदरुस्ती हजार नियामत

स्वास्थ्य मनुष्य के लिए ईश्वर का दिया हुआ सबसे अमूल्य और दिव्य उपहार है। अपने शरीर को स्वस्थ रखना मनुष्य का कर्तव्य है अन्यथा मनुष्य अपने मन और अपनी सोच को शुद्ध व पवित्र नहीं रख सकता।
        यह स्वास्थ्य मनुष्य की पूँजी है। जैसे धन-वैभव को सम्हालकर रखा जाता है उसी प्रकार अपने इस स्वास्थ्य को भी सम्हालकर रखना चाहिए। बहुत दुख के साथ यह कहना पड़ता है कि हम इसी ईश्वरीय नेमत से खिलवाड़ करते हैं। न हम समय पर सोते हैं और न ही समय पर जागते है। हमारी सभी पार्टियाँ देर रात तक चलती हैं। देर रात तक क्लबों में मौज-मस्ती चलती है।
          हमारा आहार-विहार सब उलट-पुलट हो चुका है। जिस रोटी को कमाने के लिए अथक परिश्रम करते हैं, दिन-रात एक कर देते हैं और कोल्हू का बैल तक बन जाते हैं, उसी को खाने के लिए हमारे पास समय नहीं बचता। हम बहुत व्यस्त रहते हैं। हम स्वास्थ्यवर्धक भोजन न खाकर अधिक मसालेदार और तले हुए खाद्यान्न खाना पसन्द करते हैं। डिब्बाबन्द पदार्थ और जंकफूड खाकर हम इतराते हैं।
          घर का खाना हमें नहीं भाता, यह कहकर हम अपनी शान बघारते हैं। एक समय आता है जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है यानि यह स्वास्थ्य बिगाड़ जाता है। उस समय जब हम असहाय हो जाते हैं तब रो-रोकर ईश्वर से स्वस्थ करने की या इस दुनिया से उठा लेने की प्रार्थना करते हैं।
          तब डाक्टरों के पास चक्कर लगाते हुए अपना बहुमूल्य समय व मेहनत की गाढ़ी कमाई बरबाद करते हैं। वह एक समय जीवन में ऐसा होता है जब डाक्टरों की सलाह पर सादा खाना खाने की हमारी लाचारी बन जाती है। तब डायटिशियन के बनाए चार्ट के अनुसार अपना खानपान सतुलित करने के लिए हम विवश हो जाते हैं और सारी हेकड़ी निकल जाती है। तब सब कमाया हुआ धरा रह जाता है।

          अपने प्रिय से प्रिय और जान छिड़कने वाले  भी कोई सहायता नहीं कर सकते। उस समय कितना भी पैसा खर्च लो किन्तु यह स्वास्थ्य पलटकर वापिस नहीं आ सकता और न ही मुँह में कोई एक निवाला डाल सकता है।
         हमारे मनीषी इसलिए स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने पर बल देते हैं। हम ऐसे नालायक हैं जो उनकी महत्त्वपूर्ण बातों को अनदेखा करके कष्ट पाते हैं। महाकवि कालिदास ने कहा था-
        'शरीरमाध्यं खलु धर्मसाधनम्।'
अर्थात हमारा यह शरीर धार्मिक कार्यों अथवा हमारे दायित्वों को पूरा करने का साधन है।
        शरीर स्वस्थ होता है तो मनुष्य सभी कार्य उत्साह से करता है। यदि यही शरीर रोगी हो जाए या अपंग हो तो मनुष्य अपने स्वयं के कार्य करने में असमर्थ हो जाता है तो घर-परिवार व भाई-बन्धुओं के प्रति अपने कर्त्तव्यों को चाहकर भी पूरा नहीं कर सकता।
        समस्या हमारे सामने तब आती है जब हम इस साधन शरीर को साध्य मान लेते हैं। दिन-रात इसे सजाने-सँवारने में लगे रहते हैं। इस पर सदा घमण्ड करते रहते हैं।
         मनुष्य के इस संसार में आने का उद्देश्य है कि वह चौरासी लाख योनियों के सआथ-साथ जन्म-जन्मान्तरों के चक्र से मुक्त हो जाए। ईश्वर की उपासना अपना प्रमुख कर्त्तव्य मानकर करे। लेकिन इस दुनिया के आकर्षणों में फँसकर वह सब भूल जाता है और आजन्म कष्ट भोगता रहता है।
         इस स्वस्थ शरीर में ही अपने विचारों को शुद्ध व पवित्र रख सकते हैं और अपने मन को साध सकते हैं। कठोपनिषद् ने इस शरीर को रथ माना है। यदि यह रथ अपनी गति से चलेगा तभी तो हमें अपनी मंजिल मुक्ति तक पहुँचाएगा।इस इसलिए इस शरीर की देखभाल करनी आवश्यक है। शेष अन्य दायित्वों की भाँति इसका निर्वहण भी करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 26 जून 2016

जीवन के सूत्र

मनुष्य को ईश्वर ने इस सृष्टि का सबसे अधिक समझदार जीव बनाया है। उसे बुद्धि का उपहार देकर इतनी सामर्थ्य दी है कि वह भले-बुरे की पहचान कर सके। यदि वह सकारात्मक रुख रखता है तो चमत्कार कर देता है। इसके विपरीत नकारात्मक विचारों से वह अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है।
       ज्ञानवर्धक और विचारोत्तेजक ये पंक्तियाँ कहीं पढ़ी थीं, इन्हें आप सबके साथ वर्तनी संशोधन के साथ साझा कर रही हूँ। आशा है आप भी इन्हें आत्मसात करना चाहेंगे।
        'नजर रखो अपने विचार पर क्योंकि वे शब्द बनते हैं। नजर रखो अपने शब्द पर क्योंकि वे कार्य बनते हैं। नजर रखो अपने कार्य पर क्योंकि वे स्वभाव बनता है। नजर रखो अपने स्वभाव पर क्योंकि वह आदत बनता है। नजर रखो अपनी आदत पर क्योंकि वह चरित्र बनती है। नजर रखो अपने चरित्र पर क्योंकि वह जीवन आदर्श बनता है।'
         इन पंक्तियों से यही समझ आता है कि मनुष्य जो भी विचार अपने मन में करता है, उसी के अनुरूप बोलता है। यदि सोच सकारात्मक होगी तो सबको प्रभावित करेगा। उनका मार्गदर्शक बनकर समाज में अपना अहं किरदार निभाएगा।
         इसके विपरीत सोच होने पर मनुष्य न सही ढंग से कोई कार्य कर पाता है और न ही किसी को उचित परामर्श दे सकता है। जीवन की बाजी हारने वाला जीत का जश्न नहीं मना पाता।
         मनुष्य के क्रियाकलापों पर उसके विचारों की छाप प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है। उत्साही सबको सदा प्रेरित करेगा और निरुत्साही सबको निराश करेगा। विवेकी और अज्ञ के कार्यो में जमीन और आकाश जैसा अन्तर होता है। जिसे हम उनके कार्य व्यवहार से अनुमान लगा सकते हैं।
         चोर चोरी करना सिखाएगा, भ्रष्ट भ्रष्टाचरण की शिक्षा देगा, धोखेबाज धोखाधड़ी सिखाएगा, सदाचरी सदाचरण पर बल देगा। हम कह सकते हैं कि मनुष्य को मन, वचन और कर्म पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उसे हर कदम पर सावधान रहना चाहिए, लापरवाही नहीं करनी चाहिए।
         कहने का तात्पर्य यही है कि जिसके पास जो गुण-अवगुण होंगे, उसीके अनुरूप ही उसका आचरण अथवा स्वभाव बन जाता है। भविष्य में मनुष्य का यह स्वभाव परिपक्व होकर अनजाने ही उसकी आदत बन जाता है। यदि अच्छी आदतें ढल गयी तो चारों ओर जयकार होती है। मनुष्य सफलता की सीढ़ियों पर सुगमता से चढ़ जाता है।
         यदि गलत आदतें अपना ली गई हों तो लाख कोशिशों के बाद भी वह अपनी आदतों को बदल नहीं पाता। तब उसके कारण उसके भाई-बन्धुओं तथा परिवारी जनों को शर्मसार होना पड़ता है।
        अपने जीवन के आदर्श ही मनुष्य का चरित्र बनाते हैं। उसके चरित्र की महानता उसे महान बनाती है और उसकी चारित्रिक विकृति उसे रसातल की ओर धकेल देती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति चरित्र निर्माण पर बल देती है।
         जब व्यक्ति का चरित्र निर्माण होता है तब व्यष्टि का यानि समाज का चरित्र बनता है। समाज के साथ-साथ देश के चरित्र का भी  निर्माण होता है। जिस देश का और उसके निवासियों का चरित्र उदात्त होता है उस देश का गौरवशाली ध्वज सदा ही ऊँचा फहराता है। उस देश की ओर कितना ही शक्तिशाली शत्रु हो, आँख उठाकर भी नहीं देख सकता। यदि किसी खुशफहमी के कारण ऐसा करने का दुस्साहस करता है तो उस शत्रु को मुँह की खानी पड़ती है।
        इस प्रकार विचार, शब्द, कार्य, स्वभाव, आदत, चरित्र और जीवन आदर्श ये सब एक चेन या कड़ी हैं। एक ही सूत्र में पिरोए गए हैं। इनका परस्पर अन्तर्सम्बन्ध है। इसीलिए विचारों की शुद्धता, सरलता, सहजता पर सयाने बल देते हैं जो सर्वथा समीचीन है और आज भी उतने ही सटीक हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

शुक्रवार, 24 जून 2016

नंगे पैर चलना

21   नंगे पैर यानि बिना जूता या चप्पल पहने चलना हाईजीन और स्वास्थ्य दोनों ही के लिए लाभदायक होता है। विद्वानों कहते हैं हरी घास पर प्रातःकाल चलने से आँखों की रौशनी बढ़ती है। इसीलिए सवेरे पार्क में बहुत से लोग यह क्रिया करते हुए दिखाई देते हैं।
           बहुत से घरों में आज आधुनिक सुविधाओं वाले माडर्न रसोईघर बन गए हैं, वहाँ सारा कार्य खड़े होकर किया जाता है। इसलिए वहाँ जूता या चप्पल ले जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। अभी भी बहुत से परिवार ऐसे मिल जाएँगे जिनके रसोईघर में जूते-चप्पल ले जाने की मनाही है। वे मानते हैं कि जहाँ खाना बनता है वहाँ इन्हें ले जाने से शुद्धता नहीं रहती और इनके साथ कई कीटाणु घर में प्रवेश कर जाते हैं।
         इसी तरह आज भी अनेक घर ऐसे मिल जाएँगे जहाँ घर के भीतर जूते आदि नहीं लाए जाते बल्कि घर का हर सदस्य उन्हें मुख्य द्वार के बाहर ही उतारकर घर में प्रवेश करता है। इसका कारण है कि वे अपने घर को बाहर की गन्दगी से बचाकर शुद्ध रखना चाहते हैं।
        प्रायः सभी धर्मस्थलों में भी जूते-चप्पलों को बाहर उतारा जाता है। अधिकांश स्थानों पर उनके लिए विशेष व्यवस्था की जाती है। यहाँ भी उन स्थलों की पवित्रता और शुद्धता मुख्य कारण होती है। इसी प्रकार के अन्य सभी धार्मिक आयोजनों में चाहे वे घर पर हों अथवा कहीं अन्यत्र क्यों न हो रहे हों इन्हें बाहर ही उतारने का विधान है। घरों, दुकानों, फैक्टरी या किसी भी आयोजन में पूजा करते समय इन्हें उतार दिया जाता है। इस धार्मिक आस्था पर कोई भी प्रश्नचिह्न नहीं लगाता।
        अस्पतालों के गहन चिकित्सा कक्ष यानि आई सी यू में रोगियों को बाहरी कीटाणुओं के आक्रमण से बचाने के लिए जूते-चप्पलों को उस कक्ष के बाहर ही उतारने का आदेश लिखा होता है।

           23 जून को नीरू नायर ने नंगे पाँव चलने के विषय में 'काम की बातें' ग्रुप में उपयोगी जानकारी दी है। उनका मानना है कि नंगे पैर रहने से एनर्जी लेवल बढ़ता है और घुटनों एवं कूल्हों की हड्डियाँ मजबूत होती हैं। खाली पैर चलना एक प्रकार की एक्सरसाइज है। रोजाना आधा घंटा पैदल चलने से हार्ट की बीमारी, डायबिटीज और कैंसर जैसे रोगों से मुक्ति मिल सकती है।
         कुछ लोग घर में भी खाली पैर घूमना पसंद करने लगे हैं क्योंकि इससे कई तरह के पॉजिटिव एफेक्ट्स भी शरीर पर पड़ते हैं। नंगे पांव सेहत के लिए गर्मी के दिनों में नंगे पैर चलना अधिक फायदेमंद होता है। यह शरीर को ठंडा रखता है। ऐसा भी देखा गया है कि बचपन में अधिक खाली पैर रहने से बड़े होने पर पैर की तकलीफें कम होती हैं।
        नीरू की इन बातों में सार अवश्य है। इसे मान लेने से किसी प्रकार की हानि नहीं हो सकती। इस प्रकार नंगे पाँव चलने से पैर अवश्य गन्दे हो सकते हैं, परन्तु उसके लाभ अधिक हैं।
          जैन साधु आज भी बिना जूता पहने रहते हैं। वे एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा नंगे पैर ही करते हैं। उनका विचार है कि जूतों के नीचे आकर मरने वाले कई जीवों की हत्या के पाप से बचा जा सकता है।
        कुछ लोग अपनी गरीबी या विपन्न अवस्था की लाचारी के कारण सड़कों पर घूमते हुए भी दिखाई दे जाते हैं। वे लोग भी प्रायः स्वस्थ ही रहते हैं।
        हमारी पृथ्वी मे हर तरह की धातुएँ पाई जाती हैं जो हमारे शरीर के लिए उपयोगी हैं। नंगे पैर चलकर हमें वे धातुएँ स्वतः मिल जाती हैँ जिनकी कमी हो जाने पर हम डाक्टरों के पास जाकर अपना अमूल्य समय व कमाया हुआ धन खर्च करते हैं और फिर उनके निर्देशानुसार उन्हें दवा के रूप में खाते हैं।
        नंगे पैर चलना चाहे धार्मिक कारण से हो अथवा स्वास्थ्य के लिए हो, उसके पीछे भावना मनुष्य के कल्याण की ही होती है। इससे कोई हानि नहीं होती, इसलिए इसे अपनी आदत में शामिल कर लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

गुरुवार, 23 जून 2016

जीवन साथी कैसा हो

जीवन साथी कैसा हो? इस विषय में हर मनुष्य की कल्पना अलग-अलग होती है। वह अपने मनोनुकूल साथी को पा लेने का हरसम्भव प्रयास भी करता है। यह निश्चित है कि कुछ गुण ऐसे हैं जो हर व्यक्ति अपने जीवन साथी में चाहता है। उनमें परस्पर विश्वास, आपसी प्रेम, सद्भाव, एक-दूसरे की परवाह आदि गुण प्रमुख हैं।
          जीवन साथी का चुनाव करते समय यह विचार अपने मन में रखना आवश्यक है कि यह साथ उम्रभर का है, पलभर का नहीं। यह जीवनसाथी है कोई खिलौना नहीं जिसे मन भर जाने पर कहीं फैंक दिया जाए और फिर बाजार जाकर नया खरीदकर लाया जा सके। हमारे मनीषियों ने इस साथ को जन्म-जन्म का यानि सात जन्मों का माना है।
           मात्र गोरा रंग अथवा फिल्मी हीरो-हीरोइन जैसे हावभाव देखकर या उसके उन्मुक्त स्वभाव से प्रभावित होकर ऐसा कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए जो भविष्य में जी का जंजाल बन जाए। आयुपर्यन्त स्वयं को कोसने की स्थिति बनी रहे और उस एक पल के लिए पश्चाताप करना पड़ जाए जब गलत साथी का चुनाव किया था।
          अपनी शिक्षा, आर्थिक स्थिति और अपनी कदकाठी के अनुरूप ही जीवन साथी का चुनाव करना चाहिए। दोनों में से एक के पास भी इनकी अधिकता अथवा कमी जीवन भर के लिए परेशानी बना सकती है। ऐसी स्थिति में सारी आयु एक-दूसरे को ताने देने में ही गुजर जाती है। इससे मानसिक शान्ति खो जाती है, घर का माहौल बोझिल हो जाता है और फिर जो जग हँसाई होती है सो अलग।
          शारीरिक सौन्दर्य तो चार दिन की चाँदनी होता है परन्तु मनुष्य के गुण हमेशा परखे जाते हैं। रूप सौन्दर्य तो किसी एक्सीडेंट, बिमारी अथवा आयु ढलने पर फीका पड़ जाता है। इसके विपरीत आत्मिक सुन्दरता दिन-प्रतिदिन निखरती जाती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि सुन्दर व्यक्ति को अपना हमसफर न बनाया जाए। यदि सुन्दरता के साथ गुणों का समावेश भी साथी में हो तो यह सम्मिलिन सौभाग्यदायी हो जाता है।
         इसका अर्थ है कि भौतिक सौन्दर्य के साथ ही अपने अंतस में सद् गुणों का विकास भी करना चाहिए। तभी सोने पर सुहागे वाली उक्ति चरितार्थ होती है।
          घर-गृहस्थी चलाने के लिए परस्पर सामञ्जस्य होना आवश्यक है। यदि दोनों अपने रंग-रूप, ऊँचे पद, अधिक वेतन आदि के नशे में चूर रहकर अपने साथी की अवहेलना करें तो इसे कोई भी उचित नहीं ठहराएगा।
          घर में एक मटका भी खरीदा जाता है तो ठोक बजाकर परखा जाता है। फिर यहाँ तो सारी आयु के साहचर्य की बात है। अपने जीवन साथी का चुनाव भी अच्छी तरह देख-परखकर करना चाहिए। जब तक तसल्ली न हो जाए हाँ नहीं करनी चाहिए।
          सबसे प्रमुख बात है साथी का चाल-चलन। उस पर पैनी नजर रखनी चाहिए। जिस भी साथी को घर के सदस्यों से अपने दोस्तों का साथ अधिक पसन्द हो वह अपने साथी के प्रति वफादार नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे अनुभवी बुजुर्ग शादी-ब्याह के समय कुल या परिवार की ओर अधिक ध्यान देते थे। इसका कारण था युवाओं में घर-परिवार और समाज का डर व शर्म। इसलिए तब प्रायः सही चुनाव होते थे और यदि कभी गलत हो भी जाते थे तो न के बराबर।
           जीवन साथी वही होना चाहिए जो अपने दूसरे साथी के मनोभावों को समझने वाला हो। उसके सामने आप खुलकर हँस सकें और आवश्यकता पड़ने पर उसके कन्धे पर सिर रखकर रो भी सकें। उसका साथ आप आपको अच्छा लगता हो। पूरा दिन उसके साथ हँसते, खेलते और गप्पे लगाते बिताने पर भी ऊब न हो, ऐसा साथी जिसे सौभाग्य से मिल जाए तो उसका सम्मान करते हुए अपना पूरा जीवन बिताकर स्वयं को धन्य मानिए। साथ ही ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें कि उसने इतना अच्छा जीवन साथी दिया।
चन्द्र प्रभा सूद
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