रविवार, 31 जुलाई 2016

जीवन फूलों की सेज नहीं

यह जीवन फूलों की  सेज नहीं
जहाँ बैठकर आराम फरमाना है

मौज मना लो औ मस्ती कर लो
जीवन में आनन्द मनाते जाना है

पल-पल खुशियों की चाहत बस
कुछ और नहीं  हमें अब  पाना है

हम यह सब जाना चाहते हैं भूल
जो हमारे  सयानों ने समझाना है

पग-पग पर यहाँ  बिछे हुए  काँटे
जिन पर  चलते हुए बढ़ जाना है

हो जाएँगे पैर लहूलुहान तो क्या
मंजिल तक दौड़ लगाते जाना है

चाहे लक्ष्य मिल जाए इसी क्षण
या बरसों उसे  खोजते  जाना है

तब तक नहीं तुम्हें होश गँवाना
और न ही हारकर बैठ जाना है

गगनभेदी बाणों से  निज लक्ष्य
सन्धान करते  हुए बढ़ जाना है

फिर एकटक  देखो योगी  जैसे
उसी पर नजर  गढ़ाते  जाना है

निज यत्नों को कसते हुए फिर
एक दिन यूँ सफल  हो जाना है

तब खुशियों के उमगते ये पल
सब के साथ ही बाँटते जाना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 30 जुलाई 2016

संस्कारों की दौलत

संस्कार से बढ़कर कोई भी और दौलत इस संसार में नहीं हो सकती। जिन लोगों में संस्कार एवं सदाचरण की कमी होती हैं वे लोग ही दूसरे को अपने घर पर बुलाकर अपमानित करने का यत्न करते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति हमें यही शिक्षा देती है कि अतिथि को देवता मानते हुए उसका सदा सम्मान करो।      
        अगर किसी व्यक्ति को धोखा देने में मनुष्य सफल हो जाता है तो उसे अपनी जीत का जश्न नहीं मानना चाहिए। यदि उसके धोखे का उत्तर ऊपर वाले ने दिया तो वह सहन करना कठिन हो जाता है। मनीषी कहते हैं कि वह प्रभु परम न्यायकारी है। उसके यहाँ हर बुराई का भी फैसला अवश्य होता है। उसकी अदालत में देर तो हो सकती है पर अंधेर कभी नहीं होता।
       मनुष्य को चाहने वाला उससे हर तरह की बात करता है। उसकी अच्छाइयों पर शाबाशी देता है और बुराइयों में उसको परामर्श देता है। वह हर मामले पर चर्चा करके विचारों का आदान-प्रदान करता रहता है। इसके विपरीत धोखा देने की प्रवृत्ति वाला मनुष्य तो सिर्फ चिकनी-चुपड़ी बात करके अपना हित साधता है। वह मन से उसका हितचिन्तक नहीं होता।
      योग्य व्यक्ति न किसी से दबते हैं और न ही किसी को दबाते हैं। संसार का दस्तूर बहुत अलग तरह का हैं, जहाँ वह असफल लोगों का तिरस्कार करता हैं और सफल लोगों से ईर्ष्या करता है।
       समाज की बहुत बड़ी विडंबना यह है कि कुछ लोग अपनी विवशताओं के कारण जीते-जी मर जाते हैं, सारा जीवन अभावों में जीते हैं। उनका इस धरती पर होना अथवा न होना कोई मायने नहीं रखता। इसके विपरीत कुछ लोग अपने सत्कार्यों की बदौलत मरने के पश्चात अमर हो जाते हैं। युगों-युगों तक इतिहास उन्हें स्मरण करता रहता है। समय-समय पर उनके उदाहरण दिए जाते रहते हैं।
         इस संसार में बहुत काम ऐसे लोग हैं जो किसी से हमदर्दी रखते हैं या उनके बारे में अच्छा सोचते हैं। हर कोई अपने बारे में सोचना चाहता है इसीलिए वह दूसरों को तिरस्कृत कर देता है।
        इस धरती पर लोग एक-दूसरे के साथ केवल अपनी आवश्यकताओं के लिए जुड़ते हैं और याद करते हैं। जिसने इस संसार की रचना की उस दाता को भी याद नहीं करना चाहते। जब जरुरत होती है तभी उसे याद करते हैं।
         मनुष्य अपने अहं में इतना डूबा हुआ है कि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है। अतः किसी को सम्मान नहीं देना चाहता। यदि मान देता भी है तो पहले अपनी जरूरत के विषय में सोचता है। किसी और की उसे कोई चिंता नहीं होती। जहाँ स्वार्थ टकराने लगते हैं तो  वहाँ प्यार, अपनापन आदि नहीं हो सकते। जब काम निकल जाता है तो किसी को पहचानते ही नहीं हैं।
          इन्सानी चरित्र में इतना परिवर्तन आता जा रहा है कि यदि कभी कारणवश मनुष्य को श्मशान में जाना पड़ जाता है तो वह वहाँ ऊबने लगता है। किसी को मृतक के साथ सहानुभूति रखना या उसके विषय में सोचने, चर्चा करने का समय ही नहीं होता। उन्हें तो बस वहाँ भी अपने कार्य ही याद आते हैं। अपने सगे लोग ही पूछ्ने लग पड़ते हैं कि बहुत देर हो गयी है अभी और कितना समय लगेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि धीरे-धीरे मनुष्य अपनी संवेदनाएँ खोता जा रहा है।
          यह हद दर्जे की सोच है कि किसी को अपने दिल में स्थान मत दो और यदि किसी कारण से जगह देनी पड़ जाए तो उतनी ही देनी चाहिए जितनी वह देता हैं। हमारे मन संकुचित होते जा रहे हैं, उसे हम विशाल बनाना ही नहीं चाहते। यदि सभी लोग यही सोच रखने लगें तो संसार का क्या होगा?
         ईश्वर का अंश होते हुए भी मनुष्य उन ईश्वरीय गुणों से दूर भागता रहता है। अपनी आँखों से तब तक स्वार्थ का चश्मा नहीं उतरेगा तब तक उसे सृष्टि के सौन्दर्य का बोध नहीं होगया। हृदय को विशाल बनाने पर सब शुभ होगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

जीवन की बैलेंसशीट

हम सभी अपने व्यापर-व्यवसाय में अथवा जमा पूँजी यानि धन-संपत्ति का ब्यौरा रखते हैं। हर वर्ष की समाप्ति पर उसकी बैलेंसशीट तैयार करवाते हैं। उसका उद्देश्य यही होता है कि पूरा वर्ष हमने क्या कमाया और क्या खर्च किया। फिर उसी बची हुई राशि को हम आगामी वर्ष के लिए अपनी ओपनिंग स्टॉक बनाकर भविष्य के लिए योजनाएँ बनाते हैं।
        कुछ दिन पूर्व वाट्सअप पर जिन्दगी की बैलेंसशीट को किसी ने सूत्र रूप में लिखा था। आज हम उसी का विश्लेषण करते हैं।
         जीवन का ओपनिंगस्टाक जन्म है। मनुष्य को उसके पूर्वजन्म कृत शुभाशुभ कर्मों के फल को भोगने के लिए भाग्य के रूप में उसके साथ ईश्वर भेजता है।
      मनुष्य के क्रेडिट या जमा क्या होता है? उसके खाते से क्या कम होता है अथवा डेबिट या घटाया जाता है?
        इन प्रश्नों के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि हमारे शुभाशुभकर्मों की राशि हमारे खाते में जमा होती है जिनका फल हम सुख-दुःख के रूप में भोगते हैं। भोगने के पश्चात वह राशि हमारे खाते से घटा दी जाती है।
         इस जीव की मृत्यु उसका क्लोज़िंग स्टॉक होता है। यानि नया जन्म लेने तक वह अब वह कोई कमाई नहीं कर सकेगा। मनुष्य के सुविचार अथवा कुविचार उसका एसेट होते हैं। उन्हीं के अनुसार जीवन में उसे सफलता या असफलता मिलती है। उसके मित्र बनते हैं और समाज में उसका स्थान बनता है। यही सब विचार उसकी देनदारी भी बनते हैं।
        मनुष्य का लाभ प्रसन्नता उसकी होती है और दुःख उसकी हानि होते हैं। इसी तरह वह जीवन में इन सबसे बच नहीं पता। उसे ये भोगने ही पड़ते हैं, उनसे छुटकारा किसी भी तरह सम्भव नहीं होता। मनुष्य की आत्मा उसकी गुडविल होती है। उसकी आत्मा जो परमात्मा का अंश है उसे अपने शुद्ध व पवित्र विचारों से सात्विक बनाए रखना उसका कर्तव्य है। जहाँ उसमें कलुषता के भाव आने लगते हैं वहीँ उसकी आध्यात्मिक उन्नति बाधित होने लगती है।
          मनुष्य का हृदय ही उसकी अचल सम्पत्ति होती है। यदि इसमें सद् विचार, सरलता, सहजता आदि गुणों का समावेश होता रहता है तो मनुष्य सहृदय बन जाता है अन्यथा क्रूरता उसे दबोच लेती है। इसी से उसके संस्कारों और महानता का ज्ञान होता है।
         उसके कर्तव्य उसकी आऊट स्टेन्डिंग होते हैं जिनका उसे सही तरीके से निर्वहण करना होता है। उसकी मित्रता उसका गुप्त समझौता होती है। इससे पता चल जाता है की मनुष्य कैसा होगा। उसके आचार-व्यवहार की झलक उसके मित्रों से मिल जाती है। संगति का प्रभाव मनुष्य पर बहुत अधिक होता है।
       मनुष्य का चरित्र उसकी पूँजी होती है। यही उसकी महानता की कसौटी होता है। यह सभी धनों से मूल्यवान होता है। इसकी रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
       उसका ज्ञान इनवेस्टमेंट होता है जो जन्म-जन्मान्तर तक उसका साथ देता है। हर जन्म में जो भी ज्ञान वह अर्जित करता है वह पहले ज्ञान के साथ जुड़कर वृद्धि को प्राप्त हिट रहता है।
       सहनशीलता उसका बैंक बैलेन्स होता है और उसके विचार करंट अकाउन्ट होते हैं। इसी प्रकार उसका अपना व्यवहार सामान्य प्रविष्टि होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि सहनशील व्यक्ति को लोग चाहे मूर्ख कह सकते हैं परन्तु उससे अधिक समझदार व्यक्ति कोई ओर नहीं हो सकता। 
         मनुष्य के विचारों की परिपक्वता ही उसकी महानता का प्रतीक होती है। वह अपने व्यव्हार से सबको अपना बना लेता है। ऐसे लोगों के शत्रु बहुत काम होते हैं।
       मनुष्य के मन में अवसाद का आना शुभ लक्षण नहीं  होता। अतः अपनी बैलेंसशीट को सदा अच्छा बनाने का प्रयास करना चाहिए। जहाँ तक हो सके उसमें झूठी एंट्रियाँ नहीं होनी चाहिएँ। यह हमेशा याद रखना चाहिए कि ईश्वर हमारी इस बैलेन्स शीट का ऑडीटर है। इस दुनिया के ऑडीटर तो हेराफेरी करके गलत बैलेंसशीट बना सकते हैं पर वह मालिक ऐसा नहीं करेगा। उसे असत्य से घृणा है। जहाँ भी हम चूक करने का यत्न करेंगे वहीँ वह हमारी गलती पकड़ लेगा। वह बशूट कड़ी सजा देता है, उसकी सजा से कोई नहीं बच सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 28 जुलाई 2016

सृष्टि में लोगों की श्रेणियाँ

परमपिता परमात्मा की इस सुन्दर सृष्टि में विभिन्न प्रकार के लोग हैं। ईश्वर के प्रति उनके कैसे भाव हैं, इसे आधार बनाकर यदि उनका वर्गीकरण किया जाए तो उन लोगों को हम तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। यानि इस संसार में तीन तरह के लोग होते हैं।
         प्रथम श्रेणी में वे लोग आते हैं जो परमपिता परमात्मा के प्रति अपने मन में अतिशय अनुराग रखते है। ऐसे मनुष्य ईशचर्चा के अतिरिक्त कभी कोई अन्य बात करना ही नहीं चाहते। सोते-जागते, उठते-बैठते वे प्रभु भक्ति में ही लीन रहना चाहते हैं। ऐसे लोगों को हम ईश्वर का सच्चे भक्त कहते हैं।
         उन्हें लगता है कि यह  जीवन उस मालिक की अमानत है। इसलिए निस्वार्थ भाव से उसका ध्यान और स्मरण करना ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। ऐसा विचार करते हुए वे लोग सदा अपनी सच्ची साधना बिना ही किसी दिखावे के करते रहते हैं।
          दुनिया के लोग उनके विषय में कुछ भी कहते रहेँ वे अपनी धुन के पक्के होते हैं और अपने चुने हुए मार्ग पर बिना पीछे मुड़कर देखे आगे बढ़ते रहते हैं। ऐसे ही लग्नशील लोग अन्ततः प्रभु की शरण में जाते हैं और इस संसार के चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। यही उत्तम कोटि के प्रभु भक्त कहलाते हैं।
         दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो सदा ही सांसारिक क्रियाकलापों में संलग्न रहते हैं। उनका मन संसार में रमता है। वे सदा ही भौतिक वस्तुओं के पीछे भागते रहते हैं। वे ईश्वर नाम की किसी सत्ता को नहीं मानते। कभी उसकी सत्ता को चुनौती देने से परहेज नहीं करते। स्वयं को भगवन कहलाने में वे आनन्दित होते हैं।
        जो लोग उस मालिक के परमभक्त हैं, वे उनका उपहास करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे उनके लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। जब उन पर अत्यधिक कष्ट आते हैं तब मजबूरी में उसकी शरण में जाते हैं। फिर उस मालिक को कोसने और गाली-गलौच करने से भी बाज नहीं आते। ये लोग अधम कोटि के कहलाते हैं।
       तीसरी श्रेणी में वे लोग आते है जो प्रभुचर्चा करते अवश्य हैं परन्तु उनकी वृत्ति उसमें नहीं लगाती। फिर भी वे चाहते हैं कि सभी लोग उनको भक्त मानें, उनकी सराहना करें और भक्त होने का मान दें। इसलिए वे दान का प्रदर्शन करते हैं और प्रभुभक्ति का ढोंग करते हैं।
          इसके साथ-साथ कालाबाजारी, हेराफेरी करना, भ्रष्टाचार में लिप्त होना, किसी का गला काटना आदि दुष्कार्य करने में भी परहेज नहीं करते। इस तरह उनकी भक्ति का दिखावा और दुर्व्यसनों में वृत्ति एकसाथ चलते रहते हैं। उनकी सफेदपोशी बनी रहे इसके लिए अनेकानेक तिकड़में भिड़ाते रहते हैं।
        ये मध्यम कोटि के लोग सदा ही दो नावों पर सवार होना चाहते हैं। पर भूल जाते हैं कि दुनिया का दस्तूर यही है कि दो नावों पर सवार होने वाले कभी तरते नहीं, डूब जाते हैं।
        उत्थान और पतन एक सहज गति है। ईश्वरोन्मुख व्यक्ति सदा आध्यात्मिक उन्नति करते हैं और उससे विमुख रहने वाले पतन या अधोगति की ओर जाते हैं।
अवचेतन की पाशविक प्रवृत्तियाँ मनुष्य को पुनः पुनः अपने जाल में फंसाती रहती हैं। वे उसे विषय-भोगों की और प्रवृत्त करती हैं।
        अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह किस और जाना चाहता है। अपनी मानवीय कमजोरियों पर अंकुश लगाकर जन्म-जन्मान्तरों के बन्धनों से मुक्त होकर वह सद् गति प्राप्त करना चाहता है अथवा विषय भोगों में डूबकर चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ जन्म-मरण के बन्धन में बँधे रहना चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 27 जुलाई 2016

मौन साधक की तपस्या का फल

मौन साधक की तपस्या का फल होता है। मौन एक बहुत बड़ा शस्त्र है यानि हथियार है। इसे हम ब्रह्मास्त्र भी कह सकते हैं। मौन की कोई भाषा नहीं होती किन्तु अपने मन की सारी बात समझ देता है। परन्तु जब कभी इसका विस्फोट होता है तब इस ज्वालामुखी की आँच से चारों ओर भयंकर तबाही मच जाती है। उस समय उस आँच से बच पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं होता।
          मौन का महत्त्व समझती एक घटना मुझे स्मरण हो रही है। एक बार कबीरदास जी और रैदास जी ने परस्पर मिलने का कार्यक्रम बनाया। उन दोनों के शिष्य बहुत प्रसन्न हुए कि गुरुजनों की इस विशिष्ट ज्ञानचर्चा का लाभ उन्हें भी मिलेगा।
        तीन दिन तक कबीर जी और रैदास जी प्रातः से सायं तक एक कक्ष में बैठे रहते थे और उनके शिष्य दरवाजे पर कान लगाकर खड़े रहते थे कि उनके कानों में इस ज्ञान चर्चा का कुछ अंश पड़ जाए और वे लाभान्वित हो सकें। उनका सारा श्रम व्यर्थ चला गया क्योंकि इन तीन दिनों में उन दोनों ने कुछ बोला ही नहीं।
         तीन दिन के पश्चात वे दोनों अपने शिष्यों के साथ वापिस लौटने लगे, तब शिष्यों ने उनसे पूछा - तीन दिन तक एक कमरे में आप लोग बैठे रहे परन्तु आप दोनों ने कोई बात नहीं की और अब बिना बात किए ही वापिस जाने लगे हैं।
        कबीर जी ने कहा कि हमने न बोलते  हुए भी एक-दूसरे से बहुत-सी बातें कर ली हैं। जो बातें मैंने अपने मन से रैदास जी को कहीं वे उन्होंने समझ लीं। इस प्रकार जो बातें उन्होंने मुझसे अपने मन के माध्यम से मुझे कहीं वे मैंने समझ लीं। यह है मौन की वास्तविक परिभाषा जो बिना कुछ कहे सब कुछ कह देती है।
        ज्ञानी इसकी महत्ता समझ लेता है और अज्ञानी इस मौन की खिल्ली उड़ाकर अपनी मूर्खता दर्शाता है। अपनी बात कहने के लिए आवश्यक नहीं कि ढेर सारे शब्दों का आदान-प्रदान ही किया जाए।
       हम सबने अनुभव किया है कि माँ जब बच्चे से नाराज होती है तो कहती मैं तुमसे बात नहीं करूँगी तब बच्चा यह नहीं सहन कर सकता कि उसकी माँ उससे बात न करे। इसी प्रकार कक्षा में जब शरारती बच्चे को सजा दी जाती है तो कहा जाता है मुँह पर अँगुली रखकर कक्षा के कोने में खड़े हो जाओ।    
        पति-पत्नी में यदि मौन पसरने लगे तो उनके बीच होने वाले अबोलेपन के कारण उनमें अलगाव तक हो जाता है। इससे परिवार बिखर जाता है जिसका भुगतान आयुपर्यन्त बच्चों को कारना पड़ता है।
       मौन रहकर भी अपनी बात दूसरे तक पहुँचाई जा सकती है। इसे कहते हैं आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा, जहाँ शब्द मौन हो जाते हैं और मौन स्वयं ही मुखरित होने लगता है।
           मौन एक बहुत कठिन साधना है। इसका कारण है कि मनुष्य अधिक समय तक बिना बोले नहीं रह सकता। कुछ लोग तो एक वाक्य में अपनी बात न कह पाने जे कारण अनेक वाक्य एक साथ बोल जाते हैं। इस व्रत का पालन करना खाला जी घर नहीं है।
        ऋषि-मुनि आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए इस मौन की साधना किया करते हैं। मनुष्य जितना अधिक मौन रहता है, उतनी ही उसकी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। अधिक बोलने वाला मनुष्य अनर्गल प्रलाप करने लगता है जो उसके तिरस्कार का कारण बनती है।
          मौन से मनुष्य की वाणी अधिक धारदार हो जाती है। उसमेँ एक प्रकार का ओज आने लगता है और उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है। संभव हो तो प्रतिदिन इसका अभ्यास करना चाहिए।
        इसी प्रकार यदि मनुष्य ईश्वर से मौन संवाद कर सके तो उसके इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जाएँगे और तब उसके जन्म-मरण के बन्धनों को कटने से कोई नहीं रोक सकेगा। फिर यह संसार और उसके कार्य-व्यव्हार सब यहीं धरे रह जाएँगे। उसके साथ बस ईश्वर का साथ रह जाएगा यानि वह उसी परमात्मा में लीन होकर मुक्त हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 26 जुलाई 2016

निन्यानवे का फेर

निन्यानवे का फेर बहुत परेशान करता है। इसके फेर से न तो कोई आज तक बच पाया है और भविष्य में भी शायद ही कोई इससे बच सकेगा।
        आखिर यह निन्यानवे का फेर है क्या? क्यों यह सबके दुःख का कारण बनता है? इससे बच पाना मनुष्य के लिए असम्भव क्यों है?
        ये कुछ प्रश्न हैं जिनकी हम विवेचना करेंगे। कहते हैं कि बहुत समय पहले एक गरीब दम्पत्ति बहुत कष्ट में अपना समय व्यतीत कर रहे थे। पर बड़े सुकून से रहते थे। उनकी यह दुरावस्था किसी सहृदय सज्जन से देखी नहीं गई। उन्होंने उनकी सहायता करने का विचार किया। यदि वे सामने से जाकर सहायता करते तो स्वाभिमानी दम्पत्ति आहत हो जाता।
        इसलिए उन्होंने ने एक निर्णय लिया और फिर उसके घर में चुपके से एक थैली में कुछ रुपए रख दिए। अब वे देखना चाहते थे कि वे दोनों उस धन को पाकर क्या प्रसन्न हो जाएँगे? उन्होंने उन दोनों पर नजर रखनी शुरू की।
         उन दोनों ने जब अपने घर में अचानक रुपयों से भरी थैली देखी उनकी ख़ुशी का पारावार न रहा  तो अपने सौभाग्य को सराहा। जब उन्होंने ने पैसे गिने तो वे निन्यानवे सिक्के निकले। अब उनके मन में यह इच्छा हुई कि किसी तरह इस राशि को सौ तक पहुँचा दें। अब उनका सारा सुख-चैन खो गया। दिन-रात बस एक ही धुन कि किसी तरह उनकी धनराशि सौ रुपए हो जाए।
        वे खूब मेहनत करके कमाते रहते और जब उन्हें लगता कि अब उनके पास सौ रुपए हो जाएँगे तो ऐसे खर्च आ जाते की वह राशि सौ के आंकडे तक ही नहीं पहुँच सकी। इसीलिए यह निन्यानवे के फेर वाली उक्ति बनी।
         यह केवल उस गरीब दम्पत्ति की व्यथा-कथा नहीं है बल्कि हम सब भी इसी कमाने धुन में दिन-रात कठोर परिश्रम करते हुए कोल्हू का बैल बन जाते हैं। अपना सुख-चैन गंवा देते हैं पर मनचाहा धन नहीं कमा पाते।

        इन्सान इस धन को कमाने की होड़ में अपना-आपा तक भूल जाता है। उसका मस्तिष्क बस पैसे को कमाने की जुगाड़ में लगा रहता है। उसका हृदय सच-झूठ, भ्रष्टाचार, कालाबजारी, किसी का गला काटने से भी परहेज न करता हुआ संवेदना शून्य तक हो जाता है। जिनके लिए वह सारे पाप-पुण्य करता है उन्हीं से दूर होकर एक समय के पश्चात अकेला रह जाता है।
         यह पैसा है कि इसकी हवस दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। जितना मनुष्य इसके पीछे भागता है उतना ही वह उसे और नाच नाचता है। इन्सान सोचता है कि उसने इतना कमा लिया की उसकी सात पुश्तें आराम से बैठकर खा सकती हैं। पर वह भूल जाता है कि जो भी वस्तु मनुष्य की बिना मेहनत किए मिल जाती है उसकी वह कद्र नहीं करता।
        यही बात धन-संपत्ति के साथ भी होती है। अनायास मिले अकूत धन-वैभव को उसके उत्तराधिकारी सम्हाल नहीं पाते और उसे दुर्व्यसनों में बर्बाद कर देते हैं। फिर जायज-नाजायज तरीके से कमाया हुआ सारा धन तो व्यर्थ होता ही है और जिनको सताया उनकी बद्दुआएँ भी पीछा नहीं छोड़तीं।
         इसीलिए सयाने कहते हैं-
            पूत सपूत तो का धन संचै
            पूत कपूत तो का धन संचै।
अर्थात यदि पुत्र सुपुत्र है तो वह स्वयं ही काम लेगा, उसके लिए धन का संचय न करो। यदि पुत्र कुपुत्र है तो वह सारा धन उजाड़ देगा, उसके लिए धन संचय करना व्यर्थ है।
         इसके अतिरिक्त सुनामी, भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय यह अनैतिक कमाई नहीं दूसरों द्वारा दिए गए आशीर्वाद ही काम आते हैं। इस सत्य को कभी भी अपने मन से नहीं निकालना चाहिए।
          तात्पर्य यही है कि बच्चों को संस्कारी बनाएँ। धन तो वे काम ही लेंगे। स्वयं भी ईमानदारी और सच्चाई से धन कमाइए उसमें बहुत बरकत होती है। ईश्वर भी ऐसे सज्जनों से प्रसन्न रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 25 जुलाई 2016

त्रिविध तापों से मुक्ति

संसार में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों को त्रिविध तापों से दो-चार होना पड़ता है। ये किसी का भी पक्षपात नहीं करते और एकसमान रूप से सबको त्रसित करते हैं।  त्रिविध ताप हैं - आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आध्यात्मिक। आज इन सबके विषय में जानने का प्रयास करते हैं।
       आधिभौतिक ताप सांसारिक वस्तुओं अथवा जीवों से प्राप्त होने वाला कष्ट होता है। इस संसार में रहने वाले हर जीव का स्वभाव भिन्न होता है। वह कब और किस समय अपनी कोई भी क्या प्रतिक्रिया दे दे, इस विषय में कहा नहीं न सकता। उसने जो भी कहा, हो सकता है कि वह किसी के मन को आहत कर जाए। इससे उस व्यक्ति की मानसिक पीड़ा का अनुमान कोई नहीं लगा सकता।
         घर-परिवार, भाई-बन्धुओं एवं कार्यालयीन समस्याओं को सुलझाना भी अपने आप में टेढ़ी खीर है। उन सबको सुरक्षित रखने यानि उन्हें गर्म हवा का झोंक तक न लगे इस सोच के चक्कर में मनुष्य नाना कष्टों को सहन करने के लिए विवश हो जाता है।
          आधिदैविक ताप दैवी शक्तियों द्वारा दिये गये या पूर्वजन्मों में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट कहलाता है। मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसका भाग्य उसके साथ ही इस धरा पर आ जाता है। इस सृष्टि के प्रारम्भ से इस वर्तमान जन्म तक न जाने कितने ही जन्म उसने लिए होते हैं। उन सभी जन्मों में किए गए उसके सुकर्मो और दुष्कर्मो के फल का भुगतान तो उसे करना ही पड़ता है।
         उन सब शुभाशुभ कर्मो का फल भोगते हुए कई प्रकार के उतार-चढावों को पार करना मानो उसकी नियति बन जाती है। इसके साथ-साथ अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि, सुनामी, बाढ़, भूकम्प आदि दैविक तापों उसे सताते रहते हैं, मनुष्य को उनसे मुक्ति नहीं मिलती जब तक वह इन सब को भोग नहीं लेता।

सांसारिक विघ्न-बाधाएँ भी उसे कदम-कदम पर डराती रहती हैं और तब मनुष्य विवश होकर अपने खोल में सिमट जाता है। इसे ही वह अपने भाग्य का फैसला मानकर अपना सर झुक लेता है।
       आध्यात्मिक ताप अज्ञान जनित कष्ट होते हैं। मनुष्य जब तक ज्ञानार्जन नहीं करता तब तक वह संसार में तिरस्कृत होता रहता है। हर दूसरा इन्सान उसे दुत्कार करके चला जाता है।
        वह व्यक्ति विद्वानों की सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों की सभा में कौआ। यह कष्ट उसके लिए असहनीय होता है। जब तक मनुष्य स्वाध्याय नहीं करेगा और सज्जनों की संगति में नहीं रहेगा तब तक वह अपनी अज्ञानता को कोसता रहेगा।
         आध्यात्मिक ताप दूर करने के लिए मनुष्य को ईश्वर के समीप जाना चाहिए। भगवद् प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। यम-नियम के साथ-साथ धर्म के नियमों का भी पालन करना चाहिए। धर्म के लक्षण हैं -
धृति क्षमा दमोSस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः।
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, सद् बुद्धि, विद्या, सत्य बोलना, क्रोध न करना- धर्म के दस लक्षण हैं।
        इनके अतिरिक्त ईश्वर से कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए सच्चे मन से प्रार्थना करनी चाहिए। तन्त्र-मन्त्र वालों से परहेज करना चाहिए। तथाकथित गुरुओं और तीर्थो में जाकर अनावश्यक रूप से नहीं भटकना चाहिए।
         ईश्वर से शान्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उसका उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के त्रिविध तापों के कष्टों का शमन होता है। जीवन के हर पल का सदुपयोग करते हुए मनुष्य को परमपिता परमात्मा की शरण में जाना चाहिए। वही सबको उनके कष्ट और परेशानियों से मुक्ति दिलाने वाला है। इसीलिए भगवान कृष्ण ने मनुष्य को गीता में समझते हुए कहा है- ‘मामेकं शरण व्रज’ अर्थात बस केवल मेरी शरण में आओ।
चन्द्र प्रभा सूद
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