बुधवार, 30 नवंबर 2016

मैं और तुम नहीं , हम

मेरे कुछ भी कह देने से न जाने क्यों
तुम्हारा झूठा अहं तिलमिला जाता है।

छोड़ दो  पुरुषत्व का ओढ़ा झूठा दम्भ
बन जाओ एक आम साधारण इन्सान।

पुरानी बेकार की  रिवायतों  को छोड़ो
जीवन में कुछ नया लाओ, नया सोचो।

हम दोनों हैं जब एक रथ के दो पहिए
तब क्या होगा बड़प्पन और छोटापन।

दोनों को बराबर मानने से ही मिलेगा
जीत की खुशी का अविरल धनबल।

यह रूठना मनाना बहुत हो गया अब
चलो कर लेते हैं नई डगर की तलाश।

व्यर्थ की अना से कोई लाभ न होगा
भूल जाओ क्या हुआ औ क्यों हुआ।

कुछ नहीं रखा इन  हिसाबी बातों में
चले आओ मीत एक नई सोच लिए।

क्षणभंगुर ये जीवन न होगा  अपना
छोड़ो मत प्यार की सुहानी गलियाँ।

पग-पग कदम बढ़ाते चलें हाथ थामे
जहाँ कहलाएँ हम, मैं और तुम नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 29 नवंबर 2016

कृतज्ञता ज्ञापित करना

कृतज्ञता ज्ञापन करना अर्थात अपने प्रति किए गए किसी के उपकार के लिए उसका धन्यवाद करना चाहिए। यह मनुष्य का एक बहुत बड़ा गुण होता है। दूसरे के किए उपकार के लिए उसका अहसान मानने वाला व्यक्ति कृतज्ञ कहलाता है। इसके विपरीत दूसरे का अहसान न मानने वाला संसार में कृतघ्न या अहसान फरामोश कहलाता है।
        प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवनकाल में बहुत से लोगों से वास्ता पड़ता है। उनसे उसका बराबर सहयोग का लेन-देन होता रहता है। उनके बिना एक कदम चलना भी उसके लिए कठिन हो जाता है। इसलिए उन सबका धन्यवाद करना चाहिए, इसमें कंजूसी नहीं करनी चाहिए। अन्यथा लोग उसे घमण्डी समझने लगते हैं।
       एक समय ऐसा आता है जब ऐसे घमण्डी का लोग उसका तिरस्कार करने लगते हैं। फिर वह व्यक्ति अपने अहं के कारण निपट अकेला हो जाता है। तब उसे यह समझ आ जाता है कि अकेले हो जाने का अर्थ क्या होता है? समाज से कटकर यह एकाकीपन किसी प्रकार की सजा से कम नहीं होता।
         भौतिक जीवन में अपने प्रति उपकार करने वालों को हम सभी धन्यवाद करते हैं। जिस परमेश्वर ने हमें जीवन में इतना सब दिया है, उसके प्रति कृतझता ज्ञापित करना भी बहुत आवश्यक होता है। परन्तु उसी का धन्यवाद करना हम सभी भूल जाते हैं। फिर भी वह हमें नहीं भूलता और बिनमाँगे समयानुसार हमारी झोलियाँ अपनी नेमतों से भरता रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह मालिक कभी हम पर अहसान नहीं जताता।
         अपने जीवन में मनुष्य को सदा ही विनयशील होना चाहिए। जब कभी बड़े-बुजुर्गों के साथ बैठने का अवसर मिले तो उस परमेश्वर का धन्यवाद अवश्य करना चाहिए कि उसने ऐसा स्वर्णिम अवसर दिया। उनके साथ बैठकर, उनके अनुभवों से अपने ज्ञान में वृद्धि की जा सकती है। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो इन अमूल्य पलों के लिए तरसते हैं ।
        अपने कार्यक्षेत्र में जाते समय अथवा वापिस लौटते समय, सोते-जागते समय उस प्रभु का सदा ही धन्यवाद करना चाहिए जिसने जीवन को सुविधा पूर्वक चलाने की सामर्थ्य दी है। उन बहुत से लोगों के बारे में भी विचार करना चाहिए जो बेरोजगार हैं तथा अभी तक भी अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
         परमेश्वर का धन्यवाद मनुष्य को उस समय भी करना चाहिए जब वह स्वस्थ है। बिमारी में या दुःख में तो ईश्वर को पानी पी-पीकर कोसते हैं। बीमार व्यक्ति किसी भी मूल्य पर अपनी सेहत खरीदने की कामना करता है। इसलिए वह मँहगे-से-मँहगे अस्पतालों में अपना इलाज करवाता है।
       जब तक मनुष्य जीवित है तब तक उसे परमेश्वर का धन्यवाद करते रहना चाहिए। मरता हुआ व्यक्ति कितना भी चाहे उसे किसी भी शर्त पर, एक पल की मोहलत ईश्वर की ओर से नहीं मिल सकती। वही जीवन का वास्तविक मूल्य बता सकता है, कोई अन्य नहीं।
          मनुष्य दोस्तों को प्रसन्न करने के लिए, धन्यवाद करने के लिए कई मैसेज भेजता है अथवा कार्ड भेजता है। परन्तु उस मालिक को धन्यवाद करने के लिए कोई मैसेज नहीं भेजता। यदि इन्सान सच्चे मन से हर समय परमेश्वर का धन्यवाद कर ले तो उसके जीवन में बहुत कुछ बदल सकता है।
        धन्यवाद देने का अर्थ यह होता है कि मनुष्य ने उपकार करने वाले का हृदय से सम्मान किया है। कृतज्ञता प्रदर्शित करने से मनुष्य के मन से अहंकार का भाव तिरोहित हो जाता है। वहाँ विनम्रता स्पष्ट दिखाई देती है।
        सांसारिक बन्धु-बान्धवों को धन्यवाद देना मनुष्य के संस्कारों का द्योतक होता है। उनके साथ ही उसे उस परमपिता परमेश्वर का भी धन्यवाद करते रहना चाहिए। वह प्रभु कदम-कदम पर हम सबकी सहायता करता है और जीवन में वह सब कुछ देता है जिसकी हमें आवश्यकता होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 28 नवंबर 2016

उत्तरों की खोज

इस संसार में मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने मन में उठते हुए कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने में लगा रहता है। इस खोज में उसका सारा जीवन व्यतीत हो जाता है पर ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं। वह कोई सन्तोषजनक हल नहीं ढूँढ पाता। ये प्रश्न निम्नलिखित हैं-
       हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या ईश्वर की कोई सत्ता है? उसका स्वरूप कैसा है? वह स्त्री है या पुरुष? भाग्य किसे कहते हैँ? जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन होता है? दुनिया में दुःख क्यों हैं? उसकी रचना क्यों की गई? इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
         मनुष्य के जीवन का एक ही उद्देश्य है उस चेतन शक्ति के विषय में जानकारी प्राप्त करना है जो जन्म और मरण के बन्धन से परे है यानी मुक्त है। वास्तव में उसे जानना ही मोक्ष कहलाता है। जीव जब तक जीवन मुक्त नहीं हो जाता है तब तक उसे चौरासी लाख योनियों में अपने कर्मानुसार आवागमन करना पड़ता है।
          बिना कारण के कोई भी कार्य नहीं होता। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। ईश्वर है इसलिए हम सभी जीव भी हैं। आध्यात्म में इस महान कारण को 'ईश्वर' कहा गया है। वह परमात्मा न स्त्री है और न ही पुरुष। इसलिए उस प्रभु के लिए स्त्रीवाचक और पुरुषवाचक दोनों ही प्रकार के सम्बोधनों का प्रयोग किया जाता है।
          हर प्रकार की क्रिया और हर तरह के कार्य का एक परिणाम होता है। इसका परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी। यह परिणाम ही भाग्य है तथा आज का प्रयत्न ही कल का भाग्य है। दूसरे शब्दों में मनुष्य जो भी सुकर्म अथवा दुष्कर्म करता है वही उसका भाग्य बनाते हैं। उन सबका शुभाशुभ फल जीव को वर्तमान जीवन और आगामी जन्मों में देर-सवेर भोगना पड़ता है। इससे मनुष्य को कभी छुटकारा नहीं मिल सकता।    
          जिसने स्वयं को और अपने अंतस में विद्यमान उस आत्मा को जान लिया है और पहचान लिया है, वह निस्सन्देह जन्म और मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। वह सौभाग्यशाली जीव परब्रह्म परमात्मा में विलीन हो जाता है।
         इस संसार में रहने वाले मनुष्यों में व्याप्त लोभ-लालच, स्वार्थ और भय ही वास्तव में उसके दुःख का प्रमुख कारण हैं। मनुष्य ने अपने विचारों और कर्मों से दुःख तथा सुख की रचना की है। अपने किए हुए शुभकर्म उसे सुख, समृद्धि और सफलता देते हैं। इसके विपरीत उसके अपने किए हुए अशुभ कर्म उसे दुख, परेशानियाँ और असफलता देते हैं।
           प्रतिदिन हजारों-लाखों लोग मरकर इस असार संसार से विदा ले लेते हैं।सभी लोग यह तथ्य को जानते हैं कि जो भी जीव इस संसार में जन्म लेते हैं उन्हें अपनी आयु भोगकर यहाँ से विदा होना पड़ता है। देखते और जानते हुए भी हैं हर व्यक्ति  अनन्त-काल तक जीने की कामना करता है। शायद वह सोचता है कि उसे तो इसी धरती पर सदा के लिए रहना है। यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य है।
         इस सार को सब लोग सज्जनों की संगति और अपने सद् ग्रन्थों को पढ़कर जान सकते हैं और समझ सकते हैं। मात्र पुस्तकीय ज्ञान से कुछ नहीं होता, वह तो एक बोझ के समान होता है जब तक उस पर आचरण न किया जाए। जब मनुष्य कठोर साधना करता है तभी उसे जन्म-जन्मान्तरों के कष्टों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। वह आत्मा मुक्तात्मा कहलाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 27 नवंबर 2016

विवेक को हरता क्रोध

विवेक का हरण करने वाला क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। वह उसके अंतस में विद्यमान रहता है और उसके विवेक पर निरन्तर प्रहार करता रहता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं कि क्रोध में मनुष्य पागल हो जाता है। वह भले और बुरे में अन्तर करना भूल जाता है। अपनों को ही अपना शत्रु मानकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है।
      क्रोध के पूरे खानदान की के विषय में पिछले दिनों वाट्सअप पर पढ़ा। पढ़कर वाकई यह सोच अच्छी लगी। लेखक का नाम वहाँ नहीं लिखा हुआ था। क्रोध के पूरे खानदान के सदस्यों की एक लिस्ट वहाँ दी हुई थी जो इस प्रकार है-
         क्रोध का पिता भय है जिससे यह डरता है, उसकी माता का नाम उपेक्षा है, उसका दादा द्वेष है। उसका एक बड़ा भाई अंहकार है और एक लाडली बहन भी है जिसका नाम जिद है। उसकी पत्नी का नाम हिंसा है, उसकी बेटियाँ निन्दा और चुगली हैं। वैर उसका बेटा है, ईर्ष्या इस खानदान की नकचड़ी बहू है और इसकी पोती घृणा  है इस खानदान से हमेशा दूर रहें और हमेशा खुश रहें।
         क्रोध के इस पूरे खानदान के विषय में पढ़कर चिन्तन करना आवश्यक हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि क्रोध के साथ-साथ भय, उपेक्षा, द्वेष, अहंकार,  जिद, हिंसा, निन्दा, चुगली, वैर, ईर्ष्या, घृणा आदि दुर्गुण भी मनुष्य के मन में घर कर जाते हैं। उसे सदा अशान्त बनाए रखते हैं। इनसे मुक्त होने के लिए वह सदा छटपटाता रहता है परन्तु ये अवगुण हैं कि उसका पिण्ड ही नहीं छोड़ते।
        जो क्रोधी होता है उसे सदा यही डर सताता रहता है कि कहीं लोग उसका तिरस्कार न कर दें। कहीं वह अकेला न रह जाए। उससे क्रोधवश ऐसा कोई कार्य न हो जाए कि सारी आयु उसे पछताना पड़े। वह लोगों की उपेक्षा का पात्र तो बन ही जाता है। अपने क्रोध के कारण वह स्वयं भी दूसरों की उपेक्षा करने लगता है। इस तरह धीरे-धीरे वह नकचढ़ा बन जाता है। अपने अहंकार के कारण हर किसी से द्वेष करने की उसकी प्रवृत्ति बन जाती है।
        जो भी उसके बराबर खड़ा होता है या उससे आगे निकलने लगता है उनसे वह ईर्ष्या और घृणा करने लगता है। चाहे अपने उद्देश्य में सफल हो पाए अथवा नहीं अपने उन लोगो को नीचे गिराने के लिए पीठ पीछे उनकी निन्दा और चुगली करता है। जिसका परिणाम कभी सुखदायी नहीं हो सकता।
           इस प्रकार करके वह अपने लिए खुद ही गड्डा खोदता है। हर किसी से दुश्मनी मोल ले लेना भी तो समझदारी का लक्षण नहीं है। यह जिद ठान लेना कि कोई भी अन्य व्यक्ति योग्यता आदि में उसकी बराबरी नहीं कर सकता, बहुत ही अनुचित होता है। उसे सदा स्मरण रखना चाहिए कि दुनिया में योग्य लोगों की कोई कमी नहीं है। उससे भी अधिक योग्य इस धरा पर विद्यमान हैं। वृथा अहं का शिकार नहीं बनना चाहिए।
        मनुष्य क्रोध में हिंसक बन जाता है। अतिक्रोध के आवेश में आकर वह किसी की हत्या करने का अपराध कर बैठता है। जिसके कारण वह समाज व न्याय का शत्रु बनकर सारा जीवन करावास में बिताने के लिए विवश हो जाता है। ऐसा करके अपनों के लिए सन्ताप और शर्मिन्दगी का कारण बन जाता है।
         क्रोधी व्यक्ति किसी का भी प्रिय नहीं बन पाता। सामने वाला यही सोचता है कि पता नहीं किस बात पर उसे गुस्सा आ जाए और वह खड़े-खड़े अपमानित कर दे। इसलिए वह अपने प्रियजनों से दूर होकर अकेला हो जाता है। एक समय ऐसा आता है जब उसे इस दुर्गुण के कारण ग्लानि होती है। फिर वह पश्चाताप करता है पर तब तक सब हाथ से निकल चुका होता है यानी बहुत देर हो चुकी होती है।
        क्रोध रूपी इस शत्रु को जीतना बहुत ही आवश्यक है। हालाँकि चुनौतीपूर्ण यह एक कठिन कार्य है पर असम्भव नहीं है। जिसने इस शत्रु को अपने वश में कर लिया वह दुनिया में सबका प्रिय बनकर महान हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 26 नवंबर 2016

धन्यवाद करना सीखें

इन्सान हर समय कभी ईश्वर से और कभी उसकी बनाई हुई दुनिया से सदा शिकायत करता रहता है। वह तो मानो धन्यवाद करना ही भूल गया है। पता नहीं वह इतना नाशुकरा कैसे है?
            मनुष्य हर समय किसी-न-किसी वस्तु की कामना करता रहता है। यदि वह उसे मिल जाती है तो यही कहता है यह उसके परिश्रम का फल है। उसके पूर्ण हो जाने पर फिर वह दूसरी कामना के पीछे भागने लगता है। उसके बाद भी कामनाओं का यह सिलसिला समाप्त नहीं हो जाता अथवा थमता नहीं है अपितु एक के बाद एक इच्छाएँ सिर उठाती रहती हैं। उसका सारा सुख-चैन उससे छीनकर उसे बेचैन बना देती हैं। उनके चक्रव्यूह में फंसा वह दिन-रात कोल्हू का बैल बना रहता है।
           इसके विपरीत उसकी मनोकामना जब पूर्ण नहीं होती तब उसका दोषारोपण वह कभी अपने भाग्य पर करता है, कभी अपनी परिस्थितियों पर करता है और कभी दूसरे लोगों पर करता है। उस समय उसे ऐसा लगता है मानो सारी दुनिया ही उसके विरूद्ध हो गयी है। सारी कायनात उसे हराने के लिए लामबद्ध हो गई है। वह हर किसी पर झल्लाने लगता है चाहे वह उसका अपना हो या पराया। उसे हर उस व्यक्ति से वितृष्णा होने लगती है जो भी अपने जीवन में दिन-प्रतिदिन सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं।
           उसका यह भटकाव आयुपर्यन्त बना रहता है। यह संसार असार है, इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं है। जब तक यह मनुष्य नश्वर से अनश्वर, असत्य से सत्य की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर नहीं लौटता तब तक वह चौरासी लाख योनियों के आवागमन भटकता रहता है।
      इस सबसे उसे शान्ति और मुक्ति तभी मिल पाती है जब वह इस संसार के बन्धनों को काटने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। वह उस प्रभु का स्मरण करता है, उसके ध्यान में मन लगाता है और अन्तत: उसका शरणागत हो जाता है।
          ईश्वर की संगति का प्रभाव ही ऐसा है कि मनुष्य का अहं सदा के लिए दूर हो जाता है और स्वयं ही विनम्र बन जाता है। उसका सारा अभिमान काफूर हो जाता है। वह स्वयं को ईश्वर के पास जाने से रोक नहीं पाता। तब ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए वह व्याकुल होने लगता है।
          उसके दर पर जाने से पहले मनुष्य हर दुख-तकलीफ में मायूस हो जाता है, रोता है, चीखता-चिल्लाता है, हाय-तौबा करता है। उसकी साधना करते हुए वह दुनिया से मिलने वाले थपेड़ों का बिना घबराए डटकर सामना करता है। उसके मन में यह प्रबल भाव आ जाता है कि वह अकेला नहीं है मालिक उसके साथ है, वह हर कदम पर उसकी रक्षा करेगा। वह हिचकोले खाती हुई अपनी जीवन की नौका उसके हवाले करके निश्चिंत हो जाता है।
           मनुष्य जिस भी वस्तु की कामना करता है उसके न मिलने पर हताश और निराश हो जाता है। तब वह उस परम न्यायकारी परमात्मा पर पक्षपात करने का आरोप लगते हुए लानत-मलानत करता है। जब परमात्मा के साथ उसकी लगन लग जाती है तब वह हर बात में उसकी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए प्रसन्न रहता है। तब उसे कोई शिकायत नहीं रहती। वह समझ जाता है कि उसे अपने कर्मफल का भुगतान करना पड़ेगा तभी, उसकी मुक्ति सम्भव है।
          प्रयास यही करना चाहिए शिकवा अथवा शिकायत करने के स्थान पर उस मालिक का धन्यवाद करना चाहिए। जो मनुष्य उस प्रभु की शरण में सच्चे मन से चला जाता है वह उसका शुकराना करना सीख जाता है।
          ज्यों ज्यों मनुष्य उस परमेश्वर के साथ लौ लगा लेता है तब वह उसकी दी हुई सारी नेमतों के लिए उसका कोटिश: धन्यवाद करता है। इस ससार में रहने वाले उन सब लोगों के प्रति भी कृतज्ञता का ज्ञापन करता है जो उसके इस सफर में उसका साथ निभाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

अवसर की प्रतीक्षा

उचित अवसर की प्रतीक्षा में लोग प्रायः बैठे रहते हैं। वे सोचते हैं कि उचित समय आएगा तो वे कुछ विशेष कार्य करके सारी दुनिया को दिखा देंगे। ऐसे साधारण प्रकृति के लोग होते हैं जो उसकी राह देखने रहते हैं। न उन्हें उचित अवसर मिल पाता है और न ही वे कोई ऐसा चमत्कार कर पाते हैं कि संसार उनके कार्यों को उनके जाने के बाद याद कर सके अतः अपने जीवन में ये लोग पिछड़ जाते हैं।
         इसके विपरीत असाधारण व्यक्तित्व के लोग इन अवसरों को जन्म देते हैं। वे कभी किसी अवसर की प्रतीक्षा नहीं करते बल्कि ऐसा लगता है कि वही उन्हें तलाशता हुआ आ जाता है। उनके लिए हर अवसर विशेष होता है। उसका लाभ उठाना वे कभी नहीं चूकते। इसलिए वे जीवन के हर कदम पर सफलता को गले लगाते हैं।
         इस दुनिया की रीति है कि यहाँ पर कठोर-से-कठोर लोहे को भी चाहें तो तोड़ा जा सकता है। बिना श्वास की धौंकनी का प्रयोग करके जब चाहे लुहार लोहे को तोड़-मरोड़ सकता है। उसे मनचाहा आकार दे सकता है। लोहे की मजबूती उस लुहार के आड़े नहीं आती।
           कहते हैं कि जब कई झूठे व्यक्ति इकट्ठे हो जाते हैं तो बे बार-बार सच को झूठ में बदलने का प्रयास करते हैं। तब सच टूटा हुआ-सा दिखाई देने लग जाता है। परन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है। सत्य तो सत्य ही रहता है।वह कुछ समय के लिए सूर्य कि तरह बादलों की ओट में जाकर छुप सकता है पर फिर हमें चमकता हुआ, मुस्कुराता हुआ दिखाई देने लग जाता है। वेदमन्त्र कहता है-
          हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
अर्थात स्वर्णिम पात्र से सोने का मुख ढका हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। अतः नकली और असली की पहचान करने की मनुष्य को परख होनी चाहिए।
        इसीलिए मनीषी समझाते हैं कि यदि सत्य को सौ परदों में भी छुपाकर रख दिया जाए तो भी वह समय आने पर स्वयं प्रकट हो जाता है। तब वह झूठों का मुँह काला कर देता है। उन्हें सबके समक्ष शर्मसार करने से पीछे नहीं हटता।
        मनुष्य को अपनी सच्चाई और ईमानदारी से अपने निर्धारित मार्ग पर सदा बढ़ते जाना चाहिए। किसी कंकड़ और पत्थर की क्या हैसियत कि वह उसकी राह रोक सके। रास्ता यदि ऊबड़-खाबड़ हो अथवा उस पर कंकड़-पत्थर हों तो एक अच्छा जूता पहनकर उस मार्ग चला जा सकता है। अपने गन्तव्य पर पहुँचा जा सकता है।
          लेकिन यदि एक अच्छे जूते के अन्दर ही कंकड़ आ जाएँ तो एक अच्छी सड़क पर कुछ कदम चलना भी कठिन हो जाता है। इसलिए रास्ते की चुनौतियों से हारकर नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि उन्हें मुँहतोड़ जवाब देते हुए सफलता प्राप्त करने से घबराना नहीं चाहिए।
           कहने का तात्पर्य यही है कि बाहरी चुनौतियों से नहीं बल्कि मनुष्य को अपने अंतस में विद्यमान कमजोरियों से लड़ना होता है जिनसे वह हार मानता रहता है। उसका निश्चय यदि दृढ़ हो तो किसी भी प्रकार का आँधी-तूफान उसके मार्ग में विघ्न या बाधा नहीं बन सकता।
       वह इन्सान ही क्या जो कठिनाइयों के आने से मुँह मोड़ ले, आगे बढ़ने का विचार ही छोड़ दे। रास्ते में सौ झूठों की भीड़ भी आ जाए तो उसके मजबूत इरादों को रौंद नहीं सकती। ये सब उसे जीवन में बहुत कुछ सिखा जाते हैं। उनसे अनुभव लेकर उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचना ही होता है।
         मनुष्य को तथाकथित उस उचित अवसर की प्रतीक्षा किए बिना ही जीवन के हर झंझावात को सहन करते हुए अनवरत आगे बढ़ते ही रहना चाहिए तभी उसकी सोने-सी चमक हर किसी को चौंधियाकर रख सकती है। ऐसे साहसी जनों की ईश्वर भी सदा सहायता करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 24 नवंबर 2016

रूठकर अलग बैठना

लड़-झगड़कर मुँह फुलाकर अलग-थलग होकर बैठ जाना अथवा अपने-अपने रास्ते चल देना किसी भी समस्या का हल नहीं होता। समस्या का समाधान आपस में मिल-बैठकर किया जाता है। यानि कोशिश यही रहनी चाहिए कि बातचीत का रास्ता बन्द न हो।
          सम्बन्धों में कितनी भी कटुता क्यों न आ जाए उनसे किनारा नहीं किया जा सकता। देर-सवेर उन्हें सुधारना ही पड़ता है। जब सब कुछ बिगड़ जाता है तब उन्हें जोड़ने पर एक गाँठ-सी पड़ जाती है। बाद में यही कहकर उन्हें भूलना होता है कि 'पुरानी बातों पर मिट्टी डालो और उन्हें भूल जाओ।' बड़े-बुजुर्ग गलत नहीं कहते। मिल-जुलकर, एक होकर रहने की शक्ति से हम सभी परिचित हैं।
           समाज में, अपने आस-पड़ोस में, अपने कार्यक्षेत्र में अर्थात् हर स्थान पर यदाकदा मनमुटाव हो जाते हैं। हर व्यक्ति के विचार, उसकी सोच, उसके कार्य करने का तरीका सब अलग-अलग होते हैं। इसलिए ऐसा होना स्वाभाविक होता है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि तब उस व्यक्ति विशेष से हम शत्रुता मोल ले बैठें। समय बीतते हमारी यही कटुता पीढ़ी-दर-पीढ़ी की दुश्मनी बन जाए, जिसका अन्त सुखद कम और दुखद अधिक होता है। इससे किसी का हित नहीं साधा जा सकता है। प्राय: प्राय: व्यवहार में हम देखते हैं।
         दो लोगों या समूहों में भी यदि झगड़े की स्थिति बनती है और थाने-पुलिस अथवा कोर्ट-कचहरी में जाने की नौबत आ जाती है तब भी अन्तत: समझौता ही करना पड़ता है। दोनों पक्षों को शेक हेंड करके ही मुक्ति मिलती है।
          अपने घर में बच्चों के झगड़े होते ही रहते हैं। तब हम उन्हें गले मिलवाकर एक-दूसरे सॉरी कहलवा देते हैं। यानि कि उनमें समझौता हो जाता है और बच्चों के साथ-साथ हम भी खुश हो जाते हैं। उन्हें हम यही शिक्षा देते हैं कि झगड़ा मत करो, प्यार से रहो, गलती हो जाने पर माफी माँग लो और मिलकर रहो।
           बच्चों को हम सीख दे देते हैं और उनका कोमल मन हमारे प्रति सम्मान के कारण उसे मान लेता है। परन्तु जब हम बड़ों की बारी आती है तो हमारा अहं आड़े आ जाता है। हम दूसरों को दी हुई अपनी ही सीख को भूलकर अखड़ या हठी बन जाते हैं। बच्चे यदि हमारी बात को अनसुनी करना चाहते हैं तो उन्हें डपटकर, हम अपनी बात मनमवाते हैं। उनके समक्ष स्वयं क्या उदाहरण रखते हैं?
           घर-परिवार में होने वाले झगड़े प्राय: गलतफहमियों अथवा गलत फैसलों के कारण होते हैं। जिस प्रकार नाखूनों से माँस को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भाई-बन्धुवों से पूर्वाग्रह के कारण किनारा नहीं करना चाहिए। सयाने कहते हैं 'अपना मारेगा भी तो छाया में फैंकेगा।' रिश्तों के धागों को मजबूती से पकड़े रहना चाहिए, तोड़ना नहीं चाहिए। फिर जब जोड़ने का समय आता है तो एक कसक रह जाती है। कभी-कभी यह अहसास हो जाता है कि बिना किसी की खास गलती के इतने समय तक हम एक-दूसरे को दोषी मानकर कोसते रहे।
          हम राजनैतिक कूटनीति पर नजर डालें तो देखते हैं कि युद्ध के बाद भी दो देशों को आखिर समझौता ही करना पड़ता है। वहाँ पर दुश्मनी के बाद भी बातचीत बन्द नहीं की जाती।
           अपना व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि उससे किसी का अहित न हो। बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखना चाहिए। अपनी हठधर्मिता को त्यागकर, मिल-बैठकर, सदा ही सकारात्मक समझौते होते हैं। उनका मान रखने से सबको प्रसन्नता होती है जो अमूल्य होती है। अपनों का साथ बड़े ही भाग्यशालियों को मिलता है। इस सौभागय को दुर्भाग्य में बदलने से सबको बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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