सोमवार, 30 जनवरी 2017

व्रत क्या है?

व्रत शब्द का अर्थ होता है नियम का पालन करना। सारी प्रकृति यानी सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि सभी अपने-अपने व्रत का पालन करती है। हर मौसम अपने समय पर आता है। और तो और पशु-पक्षी तथा सभी जलचर व नभचर भी अपने लिए निश्चित नियमों का पालन करते हैं।
        हम मनुष्य ही इस सृष्टि के ऐसे जीव हैं जो किसी नियम का पालन नहीं करना चाहते। जहाँ भी हमें सुविधा लगती है, हम उसके अनुसार नियमों को मोड़ लेना चाहते हैं। हमारी यही इच्छा होती है कि हम नियमों का उल्लँघन भले ही करें परन्तु हमें कोई रोके या टोके नहीं।
        लोग भूखे रहने को व्रत की संज्ञा देते हैं। सारा दिन भूखे रहकर अपने शरीर को कष्ट देना किसी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता और न ही उसे व्रत कह सकते हैं। इस प्रकार करने से न किसी की आयु बढ़ती है और न ही घटती है। यदि ऐसे व्रतों से आयु बढ़ने लगे तो इस संसार में कोई मरेगा ही नहीं।
        कुछ लोग अपने चारों ओर अग्नि जलाकर, कुछ लोग गड्डा खोदकर उसमें बैठकर, कुछ लोग एक टाँग पर खड़े होकर, कुछ लोग पेड़ पर लटककर साधना करने को व्रत का नाम देते हैं। ये सभी तरीके दूसरों को लुभाने के लिए प्रदर्शन मात्र हो सकते हैं परन्तु व्रत नहीं कहे जा सकते।
         व्रत किसे कहते हैं, इसके विषय मे पद्मपुराण का कथन है-
          हिंसातोSलीकत: स्तेयान्मैथुनाद् द्रव्यसंग्रहात्।
          विरतिर्व्रतमुद्दिष्टं    विधेयं    तस्य    धारणात्।।
अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील (दुष्चरित्रता) और परिग्रह से विरक्त होना व्रत कहलाता है। ऐसा व्रत अवश्य ही धारण करना चाहिए।
         वास्तव में मनुष्य यदि इन दुर्गुणों का त्याग करने का व्रत ले सके तो बहुत सारे अपराध करने से बच जाएगा। इससे समाज में होने वाले अपराध कम हो जाएँगे। तब न्याय व्यवस्था के चाबुक की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी।
        व्रतों के विषय में भर्तृहरि जी नीतिशतकम् में कहते हैं -
          प्रदानं   प्रच्छन्नं    गृहयुतगते   संभ्रमविधि:।
          प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं नाप्युपकृति:॥
          अनुत्सेको लक्ष्म्यानिरभिभवसारा: पर कथा:।
          सतां     केनाद्दिष्टं      विषमसिधाराव्रतमिदम्॥
अर्थात दान को गोपनीय रखना, अतिथि सत्कार करना, प्रिय करके भी शान्त रहना, सभा में उपकार का उल्लेख न करना, धन मे गर्व न करना, परचर्चा मे निन्दा को स्थान न देना- ये सज्जनों के विषम व्रत किसने बनाए हैं?
         सज्जनों की प्रकृति में ही होता है इन कठोर व्रतों का पालन करना। बिना किसी प्रयास के ही वे इन नियमों का पालन करते हैं। कहते हैं दान इस प्रकार करना चाहिए कि एक हाथ से दो और दूसरे हाथ को ज्ञात न होने पाए। बहुत ही मुश्किल है पर सज्जन इसे निभाते हैं। परोपकार करके उसका ढिंढोरा नहीं पीटते, सरल व सहृदय होते हैं, उनमें रत्तीभर भी अहंकार नहीं होता है। वे किसी की निन्दा-चुगली करने में रुचि नहीं रखते।
         ये सभी वाकई कठोर व्रत हैं जिनका पालन करना बच्चों का खेल नहीं है। पद्मपुराण में बताए गए और भर्तृहरि जी द्वारा सुझाए गए व्रतों का पालन करना ही श्रेयस्कर है। अनावश्यक रूप से स्वयं को कष्ट देकर, समाज के समक्ष प्रदर्शन करने के लिए रखे जाने वाले व्रतों का कोई औचित्य नहीं है।
        हमारे आदी ग्रन्थों वेदों में तथाकथित व्रतों का विधान नहीं है। पश्चातवर्ती किन्हीं अज्ञ विद्वानों ने अनावश्यक ही शरीर को कष्ट देने वाले व्रतों को अपने स्वार्थ के लिए प्रचारित किया। साथ ही जन साधारण को इनका पालन न करने पर अमंगल होने का डर दिखाया।
        अन्त में सुधी मित्रों से अनुरोध है कि इन खोखले ढकोसलों का त्याग कीजिए। उनके स्थान पर व्रत लीजिए झूठ न बोलने का, चोरी आदि अनैतिक कार्य न करने का, दुर्बलों को सताने के स्थान पर रक्षा करने का, देश, धर्म व समाज के लिए हितकर कार्यो को करने का व्रत लें।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 29 जनवरी 2017

अपनी माँ की सुरक्षा

कुछ लोगों का मानना है कि परिवार में पुत्र का होना बहुत आवश्यक होता है। इसका कारण वे बताते हैँ कि वह कुल को तारने वाला होता है और 'पुम्' नामक किसी नरक से उद्धार करवाता है।
        मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जो बच्चे अपने दादा या अधिकतम अपने परदादा का नाम तक नहीं जानते वे किस कुल का उद्धार करेंगे। अपने माता-पिता को यथायोग्य सम्मान दे नहीं सकते और उनकी सेवा-सुश्रुषा कर नहीं सकते, ऐसे नालायक बच्चों के होने अथवा न होने से क्या अन्तर पड़ने वाला है? धिक्कार है ऐसे पुत्र होने पर।
        माता के किए गए उपकारों को कभी सन्तान को विस्मृत नहीं करना चाहिए। जो बच्चे अपनी माता को वृद्धावस्था में सुरक्षित जीवन नहीं दे सकते या दरबदर की ठोकरें खाने के लिए अथवा ओल्डहोम मे रहने के लिए विवश कर देते हैं, ऐसी सन्तानों का घर, परिवार या समाज में न होना ही अच्छा है।
         'माता-पिता सम्मान-सेवा ट्रस्ट' के संस्थापक श्री डी. पी. शर्मा ने हाल ही में घटित इस घटना के विषय में लिखने का मुझसे आग्रह किया है। इस घटना को लिख रही हूँ जिसे पढ़कर आप सभी सहृदय सुधीजन भावुक हुए बिना नहीं रह सकेंगे।
          राजू नामक एक कलयुगी कपूत 23 जनवरी 2017 को दोपहर के तीन बजे के आसपास अपनी जन्मदात्री 70 वर्षीया वृद्धा, बीमार व असहाय माँ श्रीमती पार्वती देवी को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के बाहर, बस स्टॉप पर भिखारियों के बीच, जानलेवा कड़कती हुई सर्दी में लावारिस छोड़कर रफूचक्कर हो गया।
          जीवनभर उसके लिए लकड़ियों पर खाना बनाते हुए यह माँ अब अपनी आँखों की रोशनी तक गँवा चुकी है। पेशाब व पेट सम्बन्धी तकलीफों को झेल रही अपनी इस लाचार माँ को बड़ी बेरहमी और बेशर्मी की हदों को पार करके वह बेटा बेसहारा छोड़कर चम्पत हो गया।  
         इस माता के पास एक काला हैंडबैग है जिसमें मात्र दो धोतियाँ, एक पेटीकोट और एक बिस्कुट का पैकेट मिला है। अपनी माँ को यह भरोसा देकर वह गायब हो गया- ' यहीं इन्तजार करना, मैं अभी दवाई लेकर लौट रहा हूँ।'
         तीन-चार घण्टे तक भी जब यह कलियुगी नालायक बेटा वापस नहीं लौटा तो यह माँ अपने निर्लज्ज बेटे का नाम ले ले कर चीख- पुकार लगाने लगी। कुछ लोगों ने पास की स्थानीय पुलिस चौकी में जब इस घटना की जानकारी पहुँचाई।
       कुछ विश्वसनीय सूत्रों से जब इस घटना का पता चला तब 'माता-पिता सम्मान-सेवा ट्रस्ट' की अध्यक्षा श्रीमती पूजा शर्मा तुरन्त ही वहाँ घटनास्थल पर पहुँच गईं। पुलिस की मध्यस्थता से इस असहाय माँ को प्राथमिक उपचार दिलाया गया।
         रात्रि करीब 12 बजे एम्बुलेंस के द्वारा आपात्कालीन पनाह हेतु उस माँ को ट्रस्ट द्वारा संचालित 'माता-पिता सेवाश्रम' नामक 'डे केयर सेंटर' आयानगर, दिल्ली में पहुँचाया गया।
        वृद्धा पार्वती जी ने बताया कि वह मुजफ्फरपुर बिहार की रहने वाली हैं, उनके दो लड़के और एक लड़की है। बड़ा लड़का राजेन्द्र सिंह मुजफ्फरपुर में ही रेलवे कर्मचारी है। इन्हें भीख माँगने के लिए छोड़ने वाले छोटे बेटे का नाम राजू है। वह किसी प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करता है और किराये के मकान में रहता है। इससे अधिक इस माता को उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।
          सभी मित्रों से शर्मा जी अनुरोध कर रहे हैं - "हम आप सबसे हम यह अनुरोध करते हैं कि इस घटना को सोशल मीडिया पर इतना प्रचारित-प्रसारित करके अपनी-अपनी श्रेष्ठ मानवीय भूमिका अदा करें। ताकि ऐसी ये नालायक सन्तानें शर्माशर्मी जहाँ पर भी हों तुरन्त अपनी इस बीमार माँ के सामने हाजिर हों और दूसरे लोग भी अपने जन्मदाता माता-पिता के साथ इस प्रकार की अमानुषता और बेरहमी से पेश आने का दुस्साहस न कर सकें।"
          वाकई विचारणीय है कि माँ क्या इस दिन के लिए संतान को पाल-पोसकर बड़ा करती है कि वृद्धावस्था में उसके अपने बच्चे उसे इस तरह दूसरों की दया का मोहताज बना दें। सभी माताओं का दायित्व है कि अपने बेटे और बेटियों को संस्कारित करें जिससे वृद्धावस्था में होने वाली इन समस्याओं से बचा जा सके। इससे समाज की इस बुराई पर रोक लगाई जा सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

शनिवार, 28 जनवरी 2017

मनुष्य में देवों व दानवों के गुण

देवों और दानवों दोनों की सृष्टि करने के उपरान्त जब ईश्वर ने मनुष्य की रचना की। तब उसने केवल देवों के गुण अथवा दानवों के अवगुण उसे नहीं दिए अपितु मनुष्य में देवों और दानवों दोनों के ही गुण-अवगुण दे दिए। अब यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर करत है कि वह देवों के गुण अपनाता या दानवों के अवगुण। वह किसका चयन करता है और किस मार्ग पर चलता है।
         मनुष्य सदा के लिए देवों के गुण नहीं अपना सकता और न ही इसी तरह से दानवों की तरह बना सदा रह सकता है। इसलिए वह दोनों की प्रवृत्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार अपनाता रहता है और त्यागता रहता है।
        मनुष्य के गुण हैं दया, ममता, करुणा, सहृदयता, परोपकार आदि। ये गुण उसे देवों के करीब ले जाते हैं और दानवों से अलग करते हैं। वह यदि अपने मानवोचित गुणों का त्याग न करे तो वह देवतुल्य बन सकता है। उसकी कीर्ति बिना किसी प्रयास के स्वयं ही कस्तूरी की भाँति चारों दिशाओं में फैलने लगती है। समाज में उसके उदाहरण दिए जाते हैं। ऐसे ही लोग समाज को दिशा देने का कार्य करते हैं।
         कभी-कभी वह दूसरों को दिखाने और प्रशंसा पाने के लिए देव तुल्य बनने का प्रदर्शन करता है। वह चाहता है लोग उसके दानधर्म और सत्कृत्यों की प्रशंसा करते रहें और उसे महान कहें। जहाँ उसे आर्थिक, धार्मिक अथवा सामाजिक लाभ लेने होते हैं, वहाँ पर वह तथावत दिखने का हर सम्भव प्रयास करता है। उसके लिए उसका स्वार्थ साधना ही सर्वोपरि होता है। इस कारण वह गधे को भी अपना बाप बना सकता है।
        इसी स्वार्थ के कारण वह आसुरी वृत्तियों को भी अपनाने में बिल्कुल परहेज नहीं करता। वह जायज-नाजायज सभी तरीकों से धन कमाना चाहता है। साथ ही यह भी चाहता है कि उसके काले कारनामों की भनक भी उसके घर-परिवार या समाज में किसी को न लगे। यानी कि वह चाहता है कि दूसरों के समक्ष उसकी सफेदपोशी बनी रहे, उस पर कभी कोई धब्बा न लगने पाए।
        कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से ही दानवों जैसे कार्य करते हैं। उनके हृदय में दया, ममता, करुणा आदि कुछ भी गुण नहीं होते हैं। वे दूसरों को नीचे गिराकर, उन्हें कष्ट देकर सुख का अनुभव करते हैं। अपने इस तरह के नकारात्मक व्यवहार के कारण उनको मानसिक सन्तुष्टि मिलती है। इन दुष्प्रवृत्ति वालों से सभी लोग किनारा करने में ही अपना हित समझते हैं।
          सबसे मजे की बात यह है कि एक बार जो इन्सान इनके चंगुल में फंस जाता है उसे ये आसानी से नहीं छोड़ते। यदि वह इनके जाल से बाहर निकलना चाहता है तो उसे जीते जी नहीं छोड़ते बल्कि उसके प्राण हर लेते हैं। उन्हें इन सब कार्यों को करने में आनन्द की अनुभूति होती है। तभी समाज की दृष्टि में ये क्रूर कहे जाते हैँ।
        इस प्रकृति के लोगों से सभी जन दूर रहना चाहते हैं। अपने मिथ्या अहंकार और दुष्कृत्यों के कारण धीरे-धीरे ये समाज से कट जाते हैं। वे घर-परिवार, देश और समाज के शत्रु बन जाते हैं। न्यायानुसार अपने अपराधों का दण्ड भुगतते हैं।
          एक समय ऐसा आता है जब इन्हें अपनों के साथ की आवश्यकता होती है तब तक वे आगे बहुत दूर निकल गए होते हैं। अपनों को जो घाव इन्होंने दिए होते हैं उनकी भरपाई नहीं की जा सकती। तब उस समय उनका रोना, गिड़गिड़ाना अथवा पश्चाताप करना सब व्यर्थ हो जाता है।
        हर मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र होता है परन्तु उसका फल भोगने में नहीं। उन सभी अशुभ कर्मों का फल भोगते समय बहुत कष्ट होता है। सभी बन्धु-बान्धवों के साथ-साथ अपनी परछाई तक साथ छोड़ देती है। बहुत ही कष्टप्रद होता है इनको भोगना।
        मनुष्य को अपने विवेक के अनुसार दैवी अथवा आसुरी गुणों को अपनाना चाहिए। ध्यान यही रखना चाहिए कि फिर पश्चाताप करने की नौबत नहीं आनी चाहिए। ऐसे गुणों को अपनाना चाहिए जिससे संसार से विदा होते समय ईश्वर के सम्मुख नजरें झुकाने की आवश्यकता न पड़े बल्कि सिर उठाकर जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

पिता की महानता

माँ की महिमा के विषय में शास्त्रों, कवियों, मनीषियों और लेखकों के द्वारा आज तक बहुत लिखा जा चुका है। परन्तु पिता की महानता का वर्णन करने में इन सबने ही कृपणता का प्रदर्शन किया है। सन्तान के पालन-पोषण में यद्यपि उसकी भूमिका भी अहं होती है।
       शास्त्रों ने कहा है कि पिता आकाश से भी ऊँचा होता है। इसलिए 'पितृदेवो भव' अर्थात पिता को देवता कहकर अभिहित किया जाता है, उसे सम्मान दिया जाता है। इन्सान को इस संसार में लाने का कार्य वह करता है। इसलिए उसे ईश्वर तुल्य माना जाता है। मनुष्य सारी आयु यदि उसकी सेवा-सुश्रुषा करता रहे, तब भी वह उसके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता।
         'ब्रह्मवैवर्तपुराणम्' पिता की महानता को प्रतिपादित करते हुए कहता है-
           सर्वेषामपि वन्द्यानां जनक: परमो गुरु:।
अर्थात सभी वन्दनीयों में पिता सर्वश्रेष्ठ है। कहने का तात्पर्य यही होता है कि इस संसार में महान मानकर हम जिनकी वन्दना करते हैँ, उन सबमें पिता प्रथम स्थान पर रहता है।
          पिता केवल पैसा कमाने की मशीन मात्र नहीं होता है अपितु बच्चे के लिए एक आदर्श होता है। हर लड़का बड़ा होकर अपने पापा की तरह बनना चाहता है। इस सत्य को कोई भी झुठला नहीं सकता कि इन्सान तब बड़ा हुआ जब वह अपने पिता के कन्धे पर खड़ा हुआ।
         छोटा बच्चा जब अपने पिता की अँगुली पकड़कर ठुमकते हुए चलता है तो वे पल पिता के लिए अवर्णनीय सुख देने वाले होते हैं। उसकी तुतलाती हुई बोली सुनकर वह निहाल होता है। पिता की गोद में हर बच्चा स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है। पिता की छत्रछाया में ही बच्चा फलता-फूलता है।
        पिता की हार्दिक इच्छा होती है कि उसके बच्चे पढ़-लिखकर योग्य बनें और उच्च पद पर आसीन हों। उन्हें कभी हार का सामना न करना पड़े। वे अपने जीवन में सदा सफलता की ऊँचाइयों को छुएँ। कभी किसी कदम पर वे गिरने लगते हैं तो पिता आगे बढ़कर उन्हें थाम लेता है, उन्हें सहारा देता है।
        वह चाहता है कि उसके बच्चे अपने जीवन में सदा सुख-समृद्धि प्राप्त करें। उन्हें अपने जीवनकाल में कभी कोई कमी न सताए। अपनी सन्तान के माध्यम से ही हर पिता अपने अधूरे सपनों को साकार करने का यथासम्भव प्रयास करता है। उसका हर कार्य अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए होता है।
        शुक्रनीति हमें समझाती है कि कभी कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे पिता को रत्तीभर भी कष्ट हो-
         पितृसेवापरतिष्ठेत्कामवाङ्मानसै      सदा।
          तत्कर्म नित्यं कुर्यात् येन तुष्टो भवेत्पिता।।
          तन्न  कुर्याद्येन  पिता  मनागपि  विषीदति।
अर्थात पुत्र को सदा शरीर, वाणी और मन से पिता की सेवा में तत्पर रहना चाहिए। जिस कार्य से पिता प्रसन्न हो वही कार्य सदा करना चाहिए। वह कार्य कदापि नहीं करना चाहिए जिससे उसे खेद हो।
          इस श्लोक का अर्थ यही होता है कि मनुष्य को सदा पिता की इच्छा का सम्मान करना चाहिए। उसके विपरीत कभी नहीं जाना चाहिए। उसे सदा यही प्रयास करते रहना चाहिए कि उसके कारण किसी भी तरह से पिता के मन को कष्ट न हो। वह उसके दुख का कारण न बने।
        पिता यदि कठोरता का प्रदर्शन न करे तो बच्चों को सही और गलत की पहचान नहीं करा सकता। उसका दबदबा घर-परिवार को अनुशासित रखता है। उसका लापरवाही वाला रवैया बच्चे के लिए अहितकारक होता है।
        पिता अपने जीवन में जाने-अनजाने यदि कोई व्यसन करता है तो उसे बच्चों के समक्ष उदाहरण स्थापित करने के लिए उनका त्याग कर देना चाहिए। अन्यथा वह अपने बच्चों की नजर में गिर जाता है। तब उन्हें कुमार्ग पर जाने से नहीं रोक सकता और इस तरह बच्चों का जीवन नरक बन जाता है।
        हर बच्चा अपने पिता के लिए विशेष होता है। उसी प्रकार हर पिता अपने बच्चे के लिए मान होता है, आदर्श होता है। पिता का यथोचित मान-सम्मान करना हर सन्तान का कर्त्तव्य है। उसके मूल्य को कभी कम करके नहीं आँकना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

जीवन एक पाठशाला

जीवन एक पाठशाला है। जिसमें हम सभी विद्यार्थी हैं। इसके प्रधानाचार्य जगत पिता ईश्वर हैं और संसार के सभी जीव इसमें अध्यापक हैं। ये सभी निरन्तर हमें कुछ-न-कुछ सिखाते रहते हैं।
           बच्चे सवेरे उठकर तैयार होकर अफने विद्यालय जाते हैं। वहाँ निश्चित समय तक पढ़ाई करके घर वापिस लौट आते हैं। वहाँ से मिले गृहकार्य को करना पड़ता है। यदि उसमें कोताही बरतें तो स्कूल में डाँट पड़ती है, सजा मिलती है और कभी-कभी पिटाई भी हो जाती है। उसके पश्चात अपने पढ़े हुए पाठ को बारबार याद करके उसकी परीक्षा देनी पड़ती है। उसमें उत्तीर्ण होने पर ही छात्र अगली कक्षा में जा सकता है।
           उसी प्रकार प्रतिदिन प्रात: उठकर अपने दैनन्दिन कार्यों से निवृत्त होकर हमें भी अपने विद्यालय यानि अपने-अपने दायित्वों को निभाने के लिए तैयार होना होता है। उन्हें यदि सही ढंग से नहीं निभा पाएँगे तो सजा के रूप में ताने और उलाहने सुनने के लिए मिलते हैं। असफलता, कायरता अथवा भगोड़ेपन का सुन्दर-सा, चमकता हुआ मेडल मिलता है।
           संसार के छोटे-से-छोटे जीव से भी हम चाहें तो कुछ सीख सकते हैं। जैसे चींटी से धैर्य व कर्त्तव्य निष्ठा, चातक से वर्षा की पहली बूँद पाने जैसी दृढ़ता, पतंगे की लौ से लगन, अपने समूह की रक्षा अथवा मिल-जुलकर रहना, बन्दरिया का सन्तान प्रेम, शेर से स्वावलम्बन, सूर्य-चन्द्र आदि सम्पूर्ण प्रकृति से नियम का पालन, वृक्षों से परोपकार, पर्वतों से दृढ़ता इत्यादि बहुत कुछ सीख सकते हैं।
           व्यक्ति सीखने वाला होना चाहिए, यह सारी कायनात उसे नया-नया पाठ पढ़ाने के लिए तैयार बैठी है। सबसे बड़ा शिक्षक समय है जो हमारे कर्मो के अनुसार हमें कभी सुखों के हिंडोले में झूलता है और कभी दुखों के थपेड़ो से मर्माहत करता है।
          दुनिया में आने के बाद से ही मनुष्य की ज्ञाननार्जन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। जितना ज्ञान वह ग्रहण करता है, उसमें से उसकी परीक्षा ली जाती है। यदि वह उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो बहुत अच्छा अन्यथा जिन्दगी का वही पाठ उसे पढ़ना पड़ता है। यह ऐसी परीक्षा नहीं होती कि जिसमें पाठ का रट्टा लगाया और उत्तर पुस्तिका में लिख दिया तो पास हो गए।
         जीवन की इस परीक्षा में वही परखा जाता है कि जो पढ़ा है अथवा अपने जीवन में अनुभव से सीखा है। उसे आत्मसात् किया या नहीं अर्थात् उसका प्रेक्टिकल किया है या उस ज्ञान का मात्र प्रदर्शन ही किया जा रहा है।
           इस परीक्षा के प्रश्नपत्र में अन्य प्रश्नों के अतिरिक्त दुखों और परेशानियों का प्रेक्टिकल करवाया जाता है। उसमें पास होना आवश्यक होता है। इसमें मनुष्य के गुण-अवगुण, उसका पुस्तकीय ज्ञान सब परखा जाता है। इसी विपत्ति रूपी अग्नि की कसौटी पर जो खरा उतरा वही वास्तव में तपकर कुन्दन बनता है। तात्पर्य यह है कि इस समय जो व्यक्ति अधीर होकर सही रास्ते का चुनाव करते हैं, ईश्वर शाबाशी के रूप में उनके मनोरथ पूर्ण करता है। उस समय उन्हें वह सब कई गुणा अधिक लौटा देता है जो उन्होंने खोया होता है।
          जो लोग जीवन की इस परीक्षा में घबराकर अनुत्तीर्ण होने के डर से कुमार्ग की ओर चल पड़ते हैं, आयुपर्यन्त उनके लिए कदम-कदम पर काँटे बिछ जाते हैं। उनका सुख-चैन सब तिरोहित होने लगता है। वे हर समय एक अज्ञात भय के साए में रहते हैं।
              इस परीक्षा में सफलतापूर्वक उत्तीर्ण होने के लिए जीवन की पाठशाला में मन लगाकर ध्यान से पढ़ना चाहिए। अपने दायित्वों का पूर्णरूपेण निर्वहण करते हुए देश, धर्म व समाज के नियमों का मन, वचन और कर्म से पालन करना चाहिए। यदि मनुष्य सन्मार्ग पर अडिग रहे तो किसी प्रकार की परीक्षा में वह बिना अपना धैर्य खोए पास होता चला जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

बुधवार, 25 जनवरी 2017

प्रलोभनों से बचें

समाज में रहते हुए मनुष्य को नानाविध प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है। जो लोग उनसे प्रभावित हुए बिना अपने रास्ते पर चलते रहते हैं वे जीवन की ऊँचाइयों में छूते हैं। इसके विपरीत जो उनके झाँसे में आ जाते हैं वे अपना मार्ग भटक जाते हैं। उनमें से कुछ लोग कभी-कभी भटकते हुए किसी सज्जन की संगति पाकर सन्मार्ग की ओर मुड़ जाते हैं।
           परन्तु कुछ ऐसे हठी प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके लिए हम कह सकते हैं कि उन्होंने अपने सही रास्ते पर लौटकर न आने की कसम खा ली है। ऐसे ही ये लोग भ्रष्टाचार, अनाचार, आतंकवाद, स्मगलिंग, चोरी-डकैती, कालाबाजारी आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं।
         इन लोगों की ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर कुछ लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं। जितना गहरे वे पैठते जाते हैं उतना ही अधिक दलदल में डूबते जाते हैं। तब उनके पास वापसी का रास्ता ही नहीं बचता, सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है कि यदि वे उस नरक से बाहर निकलना भी चाहें तो उनके साथी ही उन्हें ऐसा करने नहीं देते और यदि वे किसी तरह जबरदस्ती वहाँ से बाहर निकलने की सोचें तो उन्हें जान से मार डालते हैं।
          इसीलिए सयानों ने कहा है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है। यह अक्षरश: सत्य है। इसका कारण शायद यही रहा होगा कि एक दुष्ट बहुतों के लिए घातक होता है। उसकी देखा देखी कई और लोग कुमार्गगामी हो जाते हैं।
         एक दृष्टान्त यहाँ देना चाहती हूँ। अपने बच्चे को सही रास्ते पर लाने के लिए पिता ने एक उपाय किया। उन्होंने बढ़िया सेब की एक टोकरी ली। उसमें एक सड़ा हुआ सेब रख दिया। शीघ्र ही उस सड़े हुए सेब के कारण बाकी अच्छे सेब भी खराब होने लगे। तब उस बच्चे को कुसंगति की हानि समझ में आई। उसने गलत रास्ते पर न जाने का पिता को वचन दिया।
        यह घटना यही समझाती है कि एक खराब सेब बढ़िया सेबों को शीघ्र बरबाद कर सकता है। एक मछली तालाब को गंदा कर सकती है। उसी प्रकार एक दुर्जन व्यक्ति भी अन्य बहुत से लोगों का जीवन दाँव पर लगा सकता है। अपना जीवन तो वह नष्ट करता ही है अपने साथियों को भी बरबाद कर देता है।
         ऐसे लोग केवल अपने स्वार्थों को साधते हैं। वे किसी की भावनाओं का कभी सम्मान नहीं करते। वे विषधारी सर्प की तरह होते हैं जिसे कितना भी दूध पिला लो उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे कभी भी किसी को भी डंक मार सकते हैं।
         उन पर विश्वास करना सबसे बड़ी मूर्खता होती है। न उनकी दोस्ती अच्छी होती है और न ही दुश्मनी। उनका कोई भरोसा नहीं कि कब वे खेल-खेल में किसी के प्राणों का हंसते हुए हरण कर लें।
       अत: सबको सावधानी बरतने की या सतर्क रहने की बहुत आवश्यकता है। अपने विचारों में दृढ़ता लाना ही समस्या से बचने का उपाय है। तभी मनुष्य को सुख-शांति मिलती है और वह चैन की नींद सो सकता है।
       कहने का तात्पर्य यह है कि कुमार्ग से सन्मार्ग की ओर लौटना असंभव तो नहीं कठिन अवश्य होता है। हो सके तो प्रभु से सद् बुद्धि की याचना करते हुए उसे सन्मार्ग पर ले जाने की प्रार्थना करें। ऐसा करने से लोक-परलोक दोनों सुधर जाएँगे। मनुष्य अपने लक्ष्य मोक्ष की ओर कदम बढ़ाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp