मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

यक्ष प्रश्न पत्नी का पति से

तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

पग-पग पर तुमने मेरे लिए बस
मर्यादाओं की रेखाएँ ही खींची
मैं उन पर अब तक उतरी खरी
न सुना तुम्हारा उलाहना कभी
भविष्य में भी नहीं सह पाऊँगी
तुम्हारी  परोसी गई अवहेलना
चाहे तुम नित नए बहाने खोजो
इस जीवन में हार नहीं मानूँगी
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

जब-जब, जैसे-जैसे, कैसे-कैसे
जीवन में सब कुछ तुम मुझको
बतलाते  गए  समय-समय पर
तुम्हारा मनचाहा मैं करती रही
अपने मुँह से कभी ऊफ न की
तुम्हारी परछाई बनकर रह गई
अपना सब कुछ मिटा दिया है
इस जीवन में बस तुम्हारे लेखे
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तन, मन औ धन जो भी था मेरा
सब हँसते-हँसते सौप दिया था
बिना शिकन आए इस माथे पर
अपने पास तो कुछ नहीं बचाया
न मुझे इस बात का रहा मलाल
न ही मैंने विचारा इस पर कभी
तुम भी छोड़ो अब तेरा औ मेरा
बन  जाओ दो  जिस्म एकजान
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे  राम बन सके?

सब कुछ सहते  सब कुछ करते
तुम्हारी उन  इच्छाओं  पर मरते
तुम्हारे  पीछे-पीछे चलते-चलते
मैं तो इस जीवन  में पार आ गई
तुम भी आ जाओ इस पार प्रिय
हाथ थामे चल पड़ें हम दोनों ही
हसरत ही रह गई है मन में यही
साथ चलें न देखें पीछे मुड़ कभी
तुमने चाहा मैं तो  सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे  राम बन सके?

तुम्हारे तन व धन से क्या होगा
गर तुम मन से मेरे नहीं हो सके
तेरा मन शायद हो जाएगा मेरा
चाह निगोड़ी  रही राह ताकती
उस दिन की आस में हूँ मैं बैठी
पूरी हो जाएगी मेरी जब इच्छा
ऐसी कामना करती रहती सदा
कभी तो मनचाहा मिलेगा मुझे
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तन से इस तन का मिल जाना
सच में पशु भी कर लेते जग में
मन का मिलना ही कठिन होता
जो बाँट दिया है तुमने किसको
छोड़ दो बीती सारी बातें पुरानी
गिले-शिकवे सब  बाहर रख दो
आओ पलटकर देखो जरा मीत
कुछ भी नहीं बदला है अब तक
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

नहीं चाहिए था राज्य  सिंहासन
मुझे केवल  तुम्हारा साथ चाहिए
जंगल-जंगल भटक-भटक करके
ठोकरें खाने को छोड़ ही देना था
तब फिर खोजना  हुआ व्यर्थ था
ढूँढ रही हूँ मन का अन्तिम कोना
तुम्हारी बाट जोहती आस है मेरी
प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त होंगी
तुमने चाहा मैं तो  सीता बन गई
पर क्या तुम  मेरे राम बन सके?

खुशी के लिए समय-समय पर
तुम्हारी दीं हुई  अग्नि परीक्षाएँ
जो मेरी  झोली में डाली  तुमने
सबको हँसकर  पास कर ली हैं
तुम्हें पा सकूँगी यह सोच करके
जीत न पाई मैं अहसास तुम्हारा
शायद यही है विधि का विधान
जिसे जान न पाई मैं विचारकर
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

इस मोड़ पर खड़ी हुई अब भी
तुम्हारी राह निहार रही हूँ मैं तो
एक ही लक्ष्य है मेरे जीवन का
पा जाऊँ तुम्हारा  विश्वास कभी
खत्म हो जाए यह घना  अंधेरा
चमकता उजाला आए पास मेरे
यानी मेरा अपना बस मेरा ही हो
शायद आ जाओ मेरे पास कभी
तुम मेरे ही राम बन मुस्काते हुए
तुमने चाहा मैं तो  सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे  राम बन सके?
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

यज्ञमय जीवन

यह संसार यज्ञमय है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि संसार एक हवन कुण्ड के समान है और मनुष्य का जीवन पूजा की भाँति है। एक दिन इस हवन कुंड में सर्वस्व होम हो जाना होता है। मनुष्य बस जोड़-जोड़कर रखता जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कब उसका अन्तकाल आ जाता है अथवा उसका बुलावा आ गया और इस संसार से उसे विदा लेनी पड़ रही है।        
         सभी लोग हवन की इस प्रक्रिया से परिचित हैं। अपने घर में प्रायः सभी लोग किसी-न-किसी अवसर पर हवन करवाते रहते हैं। हवन में सम्मिलित लोगों के समक्ष हवन-सामग्री रख दी जाती है। पंडित जी मन्त्र पढ़ते जाते हैं और 'स्वाहा' शब्द का उच्चारण करते हैं और लोग उस प्रज्वलित अग्नि में हवन-सामग्री डालते रहते हैं और हवनकर्ता स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डाल देता है।
       हर व्यक्ति इस आशंका थोड़ी सामग्री डालता है कि कहीं हवन खत्म होने से पहले सामग्री खत्म न हो जाए, गृह मालिक भी घी खत्म न हो जाए इस डर बून्द-बून्द करके घी डालता। हवन की समाप्ति के पश्चात भी सबके पास बहुत-सी हवन सामग्री बची रह जाती है। हवन पूरा होने के बाद पंडित जी बची हुई सामग्री और घी को अग्नि में डालने का निर्देश देते हैं। तब सारी सामग्री को कुण्ड में डाल दिया जाता है।
        जब बची हुई बहुत-सी हवन-सामग्री और घी अग्नि में एक साथ डाल दिया जाता है तब पूरा घर धुँए से भर जाता है। जब तक वह सारी सामग्री जल नहीं जाती, तब तक वहाँ बैठना कठिन हो जाता है। उस स्थान पर पुनः जाना भी संभव नहीं हो पाता। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है। धुआँ छँट जाने तक वहाँ प्रतीक्षा करनी होती है।
         हवन में मौजूद हर व्यक्ति को यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि जितनी हवन-सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुण्ड में ही डालना होता है। उसे बचाने का कोई लाभ नहीं होता। फिर भी सभी लोग उस सामग्री को ऐसे बचाते हैं जैसे वह बाद में काम आएगी। इसी तरह हम सबकी यही फितरत है कि अपने अन्तकाल के लिए बहुत कुछ बचाकर रखना चाहते हैं, चाहे उसका उपभोग अपने इस जीवनकाल में कर पाएँ अथवा नहीं।
        इसी प्रकार हर मनुष्य को ज्ञात है कि वह इस संसार सें सदा के लिए नहीं आया अपितु अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार निश्चित समय के लिए आया है। फिर समयानुसार अन्ततः उसके इस जीवन की पूजा भी समाप्त हो जानी होती है और सारी धन-दौलत रूपी यह हवन-सामग्री बची रह जाती है। जीवन भर अनथक परिश्रम करके कमाता है और खर्च करने से पहले दस बार सोचता है। फिर इसे बचाने के चक्कर में मनुष्य इतना अधिक खो जाता है और भूल जाता है कि बची हुई वह धन-दौलत बाद में केवल धुँआ ही उड़ायेगी। यानी बच्चों में लड़ाई-झगड़े और अपमान का कारण बनेगी।
       जिस वैभव को कमाने के लिए वह सारे कर्म-कुकर्म करता है, पाप-पुण्य करता है और छल-फरेब करता है, उसे भी अपने साथ परलोक नहीं ले जाता। अपितु इसी पृथ्वीलोक पर छोड़ जाता है। उसे पाकर उसके बच्चे भी सन्तुष्ट नहीं हो पाते। बच्चों को कितना भी क्यों न दे जाओ, उन्होंने तो बस यही कहना होता है कि माता-पिता ने हमारे किया क्या है?
        इससे भी बढ़कर समस्या तब होती है जब उस धन-सम्पत्ति को पाने के लिए बच्चे आपस में एक-दूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। भाई- बहन भी परस्पर शत्रु बन जाते हैं। एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते। इसे पाने के लिए वे कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते फिरते हैं। यानी कि घर-परिवार में धुआँ व्याप्त हो जाता है।
        इस सबको लिखने का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य विपुल धन-वैभव न कमाए और सोचता रहे। उसे खूब कमाना चाहिए और अपने घर-परिवार के सभी दायित्वों को पूर्ण करना चाहिए। खाने-खर्चने के बाद जो कुछ बचे उसे अपने जीवन की धूप-छाँव के लिए बचाकर रखना चाहिए। मनुष्य को धन-सम्पति पर साँप की तरह कुण्डली मारकर नहीं बैठना चाहिए।  मनुष्य को अपनी वृद्धावस्था के विषय में विचार करते हुए अपने जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 26 फ़रवरी 2017

असहिष्णुता

आजकल असहिष्णुता शब्द की राजनैतिक गलियारों में चर्चा बहुत जोरों पर है। इसका अर्थ है दूसरे लोगों को अथवा उनके कथन को सहन न कर पाना। समझ में नहीं आता कि दिन-प्रतिदिन हम लोग इतने असहिष्णु क्यों बनते जा रहे हैं? हम लोग किसी को भी बर्दाशत नहीं करना चाहते।
          आज धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर या किसी अन्य मुद्दे को लेकर हम सब अपना सन्तुलन खोकर असहिष्णु बनते जा रहे हैं। आतंकवाद भी इसी असहिष्णुता का ही परिणाम है।
          ये सभी असहिष्णु कार्य किसी भी सभ्य कहे जाने वाले समाज के लिए बहुत घातक होते हैं। आज वर्तमान में इससे होने वाले दुष्परिणामों को शायद हम नकार देना चाहते हैं या अनदेखा करके आगे बढ़ जाना चाहते हैं। इस ओर से हम अपनी आँखें बन्द कर लेना चाहते हैं। ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि जाने-अनजाने इन सबका परिणाम, निश्चित ही हम सबको भोगना  पड़ेगा।
          बहुत विचार करने पर मुझे यही समझ में आया है कि हम सभी लोग कंक्रीट के जगलों में रहते हुए संवेदनाहीन होते जा रहे हैं। हमारी सहिष्णुता चुकती जा रही है। हम अपने घर, अपने पति या अपनी पत्नि और बच्चों के अलावा किसी और के प्रति भावना नहीं रख पा रहे।
         हमारा खान-पान, हमारी जीवन शैली में बहुत अधिक परिवर्तन आ चुका है। हमने अनावश्यक रूप से स्वयं को इतना अधिक व्यस्स्त कर लिया है। इसलिए शायद हम इन सबसे अनजान बने रहने में अपनी भलाई समझते हैं। उस सबका प्रभाव हमारे विचारों और हमारी संवेदनाओं को निश्चित ही प्रभावित करता है।
        इसका एक और प्रमुख कारण जो मुझे लगता है, वह यह भी हो सकता है कि लोगों के मन से आपसदारी, भाईचारे, प्रेम-मुहोब्बत जैसे शब्द कहीं खोए जा रहे हैं। उनके स्थान पर स्वार्थ हावी होता जा रहा है।
          हमें अपने स्वार्थों से आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता। बहुत से लोग अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिए भ्रष्टाचार,चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, अनाचार, दुराचार जैसे असामाजिक कार्य बड़े गर्व से करते हैं। यदि किसी का गला काटकर अथवा किसी की पीठ में खंजर घोंपकर उनका अपना उल्लू सीधा हो सकता है तो वे उससे भी कोई परहेज नहीं करते।
         जहाँ तक, जब तक स्वार्थ पूरे होते रहते हैं, वहीं तक संबंध बने रहते हैं। उसके बाद फिर तू कौन और मैं कौन वाली स्थिति बनती जा रही है। यह मतलब परस्ती हमें दिन-प्रतिदिन असहिष्णुता के कटघरे में लाकर खड़ा कर देती है।
         मुझे सोचने पर भी समझ नहीं आ रहा कि हम मानव क्योंकर असहिष्णु बन रहे हैं। जबकि विश्व का कोई भी धर्म हमें ऐसा बनने की अनुमति नहीं देता। इन्सान ऐसा बनकर आज न ईश्वर से डर रहा है और न ही धर्म के पथ पर चलना चाह रहा है।
          हम या तो इस असहिष्णुता नाम की बिमारी के बारे में सोचना-समझना नहीं चाहते या फिर हमें इस सब में रच-बसकर इसका आनन्द उठाना चाहते हैं। दोनों ही स्थितियों में हम बारूद के ढेर पर खड़े विनाश को न्यौता दे रहे हैं अथवा उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
          हमारे ऋषि-मुनियों ने तथा हमारी भारतीय संस्कृति ने हमें सदा ही सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया है। यही कारण है कि हम विदेशों से आई हुई, देश में रच-बसकर रहने वाली अन्य संस्कृतियों, अन्य धर्मों एवं अन्य जातियों को आत्मसात कर पाए हैं। यदि हम अपने इस सद् गुण को खो देंगे तो हमारे पास कुछ नहीं बचेगा यानि हम ठन-ठन गोपाल हो जाएँगे।
           हमें असहिष्णुता का दामन छोड़कर सहिष्णुता का सरल मार्ग अपनाना चाहिए। इसी से हमारे भारत देश का ही नहीं, जात विश्व का अर्थात सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण सम्भव हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

दान देने का अहंकार नहीं

किसी को दान देना हो अथवा सहयोग करना हो तो अपना दायित्व समझकर करना चाहिए न कि किसी आशा या उम्मीद के कारण करना चाहिए। इसे सदा अपना नैतिक दायित्व समझना चाहिए, इसके लिए उसे अहंकार कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य यदि अपने सच्चे मन से और कर्त्तव्य की भावना से जितना दूसरों को देने की प्रवृत्ति रखता है, उतना ही उसके मन में दाता होने का अहंकार समाप्त हो जाता है। धीरे-धीरे उसका हृदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है।
          इसका कारण है कि वह जानता है कि परमपिता परमात्मा ने इस संसार को बिना कोई अहसान जताए सब कुछ दिया है। यदि दूसरों के कष्ट से द्रवित हृदय मनुष्य किसी को सहायता स्वरूप कुछ भी देता है और प्रतिदान की आशा नहीं रखता तो यह उस व्यक्ति की महानता का परिचायक होता है। जो भी वह दान में दे सकता है, उसे माथे पर शिकन लाए बिना सहर्ष याचक को देना चाहिए।
        एक बोधकथा कहीं पढ़ी थी, आप सबके साथ साझा कर रही हूँ। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने पूछा- 'संसार में कर्ण को दानवीर क्यों कहा जाता है? जबकि दान हम लोग भी बहुत करते हैं।'
        यह सुनकर श्रीकृष्ण ने दो पर्वतों को सोने में बदल दिया और अर्जुन से कहा- ‘इन दोनों पर्वतों का सारा सोना गाँव वालों में बाँट दो।'
       अर्जुन गाँव में गए और कहा- 'आप लोग पर्वत के पास जमा हो जाइए क्योंकि मैं सोना बाँटने वाला हूँ।'
       यह सुनकर गाँव वालों ने अर्जुन की जय जयकार करनी शुरू कर दी। अर्जुन छाती चौड़ी करके पर्वत की तरफ जाने लगे। दो दिन और दो रातों तक अर्जुन ने सोने के पर्वतों को खोदा और सोना गाँव वालों में बाँटा। पर्वत पर इसका कोई असर नहीं हुआ। इसी बीच बहुत से गाँव वाले फिर से कतार में खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे। अर्जुन अब थक चुके थे पर उनके मन में अहंकार का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था

         उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'मैं बहुत थक गया हूँ। अब मैं थोड़ा-सा आराम करना चाहता हूँ?'
        तब श्रीकृष्ण ने कर्ण को बुलाया और कहा- 'सोने के इन दो पर्वतों को गाँव वालों को बाँट दो।'
         कर्ण ने सारे ग्रामवासियों को बुलाया और कहा- 'ये दोनों सोने के पर्वत आप लोगों के लिए हैं। आप आकर सोना प्राप्त कर लें।'
         एेसा कहकर कर्ण वहाँ से चले गए। अर्जुन भौंचक्के रहकर सोचने लगे कि यह ख्याल उनके दिमाग में क्यों नहीं आया। तब कृष्ण मुस्कुराये और अर्जुन से बोले- 'तुम्हें सोने से मोह हो गया था, तुम गाँव वालो को उतना ही सोना दे रहे थे जितना तुम्हें लगता था कि उन्हें देना चाहिए। दान में किसको कितना सोना देना है, यह तुम स्वयं तय कर रहे थे। लेकिन कर्ण ने इस तरह से नहीं सोचा और दान देने के बाद कर्ण वहाँ से दूर चले गए। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनकी प्रशंसा करे।'
       इस कथा को लिखने का उद्देश्य यही है कि दानदाता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि पीठ पीछे कोई उसकी प्रशंसा करता है अथवा आलोचना करता है? यह आत्मज्ञानी जन की पहचान होती है। दान देने के बदले में दूसरों से प्रशंसा की कामना करना सौदा करने जैसा कहलाता है।  
        मनीषियों का कथन है कि दान देने की उपयोगिता तभी है जब एक हाथ से दिए हुए दान का दूसरे हाथ को पता न चल सके। यानी दान देना इतना गुप्त होना चाहिए कि मनुष्य के मन में यह विचार भी न आने पाए कि उसने दान में कुछ दिया है। उसे नेकी करके सदा के लिए दरिया में डाल देनी चाहिए। हालाँकि यह सब बहुत कठिन कार्य हैं, फिर भी प्रयास करके स्वयं को साधा जा सकता है।
         सभी धार्मिक और सामाजिक संस्थाएँ दान से ही चलती हैं। अत: समाज में सभी व्यवथाएँ सुचारू रूप से चलती रहें, इसके लिए आवश्यक धन दान से ही जुटाया जाता है। जिस समाज से हम बहुत कुछ लेते हैं, उसके प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करने के लिए हमें अपने खून-पसीने से कमाए गए धन का कुछ अंश प्रतिमास दान में अवश्य देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

रचनाकार की सफलता

रचनाकार वही सफल होता है जो समाज को दिशा देने का अपना दायित्व पूर्णरूपेण निभाता है। यद्यपि लेखन स्वान्त: सुखाय होता है तथापि उसमें रचनाकार का श्रम परिलक्षित होना चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकता है जब वह कुछ जानना और समझना चाहे अन्यथा उसका किया हुआ सृजन स्तरीय नहीं हो सकता।
         साहित्य सृजन के लिए सबसे पहले साधना करने की आवश्यक होती है। यहाँ साधना करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह आलती-पालती लगाकर, धूनी रमाकर बैठ जाए और पूजा-अर्चना करने लगे। माला हाथ में लेकर ईश्वर के नाम का जाप करने लगे।          
         आज के नवोदित रचनाकार में इतनी भी सहनशीलता नहीं है कि वह अपनी सांस्कृतिक विरासतयुक्त पूर्ववर्ती महान कृतियों का अध्ययन करें। भाषा पर जो एक मजबूत पकड़ होनी चाहिए, वह उनकी कृतियों में नहीं दिखाई देती। वर्तनी की शुद्धता बहुत आवश्यक होती है परन्तु आज के नवोदित रचनाकारों में उसका अभाव खटकता है। वे अशुद्ध उच्चारण करते हैं और अशुद्ध लिखते हैं। उनकी यह कमी बहुत अखरती है।
       रचनाकार को सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि नवसृजन करना कोई बच्चों का खेल नहीं। उसका प्रयास यही होना चाहिए कि इस कार्य में होने वाली कठिनाइयाँ उसके पात्रों के माध्यम से ही समाज के समक्ष रखी जाएँ। रचना का लेखन करने से पूर्व वह अपने पात्रों के साथ रच बस जाए। सोते-जागते, घूमते-फिरते, घर-बाहर सर्वत्र उसके पात्र उसके अपने व्यक्तित्व का एक हिस्सा बनकर उसके साथ एकाकार हो जाएँ।
        कोई भी रचनाकार अपनी रचना के साथ तभी न्याय कर सकता है जब वह अपनी रचनाधर्मिता का निर्वहण ईमानदारी और सच्चाई के साथ करे। हम कह सकते हैं कि वही रचना पाठकों के मन को गहराई से छू सकती है जिसकी बुनावट वह पात्र, समय और स्थितियों के अनुकूल करता है। रचना की सार्थकता तभी हो सकती है जब लेखक महत्वाकाँक्षी न हो। आजकल के नवोदित रचनाकार अपनी पुस्तक को प्रकाशित करवाने के लिए इतने उतावले रहते हैं चाहे उनके पास पुस्तक के लायक सामग्री हो या न हो।
          इसलिए जुगाड़ वाली नीति का आश्रय लेते हुए ये नये लेखक इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में खूब छप भी रहे हैं और तथाकथित सम्मान भी बटोर रहे हैं। बहुत से ऐसे लेखक मिल जाएँगे जिनकी बहुत ही कठिनाई से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है और उनके पास सम्मान पत्रों का अम्बार लगा हुआ है।
        यहाँ एक विशेष बात जोड़ना चाहती हूँ कि अभी भाषा का ककहरा भी जिन कवियों को शायद याद नहीं होगा और वे अपने नाम के साथ स्वघोषित कवि, महाकवि और राष्ट्रकवि जैसी उपाधियाँ लिखने लगे हैं। इनमें से बहुतों को यह भी ज्ञात नहीं कि कविता का सम्पादन नहीं किया जा सकता। उसमेँ मात्र वर्तनी दोष को सुधारा जा सकता है। दूसरी भाषाओं की रचनाओं का अनुवाद करना अपने आप में एक अलग विधा है, जिसकी चर्चा यहाँ नहीं की जा रही।
        यही कारण है कि बहुत समय से कोई भी रचना ‘मील का पत्थर’ सिद्ध नहीं हो सकी, यानी 'कालजयी रचना' नहीं बन पाई है। धैर्यहीनता और रातोंरात प्रख्यात हो जाने की ललक ने हिंदी भाषाई रचनाकारों को कई खेमों में बाँट दिया है। वहाँ अपनी-अपनी ढफली और अपना-अपना राग अलापा जा रहा है। जिन्हें चार पक्तियाँ भी शुद्ध नहीं लिखनी आती वे साहित्य के ठेकेदार बन रहे हैं।
       'तुम मुझे सम्मानित करो और मैं तुम्हें' ऐसी स्वार्थपरता हिन्दी साहित्य का बंटाधार कर रही है। एवंविध वैयक्तिक महत्त्वाकाँक्षा के कारण अपना हितचिन्तन साहित्य के लिये यह कतई शुभ नहीं माना जा सकता।
         सभी सुधी रचनाकारों से अनुरोध है कि साहित्य के प्रति संवेदनशीलता को बरतते हुए सकारात्मक रुख अपनाएँ। दूसरों की आलोचना करने अथवा टाँग खींचने की प्रवृत्ति से बचते हुए हिन्दी भाषा के मंच को कुश्ती का अखाड़ा न बनाएँ। अपनी रचनाधर्मिता का मनोयोग से निर्वहण करते हुए हिन्दी भाषा के उत्थान में अपना योगदान दें।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

कुमित्र का त्याग

सन्मित्र का मिलना बड़े सौभाग्य का विषय होता है। वह मनुष्य के लिए एक एसैट की भाँति होता है। उसे गँवा देने की मूर्खता मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए।  सुमित्र मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। बातचीत के स्तर की मित्रता तो इन्सान हर किसी से रख सकता है परन्तु जिसके पास बैठकर उसे अपनेपन का अहसास हो, वही वास्तव में उसका मित्र होता है।
         ऐसे सन्मित्र की मित्रता भले ही मनुष्य को आजीवन न मिल पाए किन्तु कुमित्र से मित्रता कभी भी किसी शर्त पर उसे नहीं करनी चाहिए। अच्छा तो यही है कि वह किसी से दोस्ती करे ही नहीं। निम्न श्लोकाँश में कवि ने हम मनुष्यों को समझाते हुए बताया है -
           वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम् ।
अर्थात कुमित्र के साथ मित्रता करने से अच्छा यही है कि मनुष्य बिना मित्र के रह ले।
         बिना मित्र के रहने की बात यह पंक्ति कर रही जो इस सत्य का संकेत करती है कि कुमित्रों की संगति में रहकर कुमार्गगामी होना मनुष्य के लिए श्रेयस्कर नहीं होता। ऐसे लोगों की संगति में रहता हुआ मनुष्य इच्छा से अथवा अनिच्छा से गलत रास्ते पर चलने लगता है। वहाँ उसे शार्टकट मिलता है धन-वैभव कमाने के लिए। उसे भी लगता है कि मतलब तो है समृद्धि पाने का चाहे वह कैसे भी मिले।
        कुमित्र इसलिए है क्योंकि वह अपने तथाकथित मित्रों को धन, बल आदि आकर्षणों का लालच देकर उन्हें बुराई की ओर धकेलता है। उनकी चकाचौंध ही ऐसी होती है कि उससे किसी की भी आँखें चुंधिया सकती हैँ। इस प्रकार मानो किसी सम्मोहन के कारण वह उनके प्रति खिंचता ही चला जाता है और फिर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर लेता है। वह अपनी स्वतन्त्रता को उन दुष्ट मित्रों के पास गिरवी रख देता है।
      भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी, बेईमानी, हेराफेरी, किसी की जेब काटना, दुर्व्यसनों में लिप्त होना, स्मगलिंग करना आदि कोई भी कार्य हो सकता है। समाज विरोधी गतिविधियों में घसीटने वाला कभी सुमित्र नहीं हो सकता, ऐसा कार्य कुमित्र ही कर सकता है। इन राहों पर एक बार यदि कदम बढ़ जाएँ तो उन्हें वापिस लौटा लाना असम्भव-सा कार्य होता है।
        इस राह का मुसाफिर किसी समय विवेक जागने पर यदि इन कार्यों का त्याग करना चाहे तो उसे ऐसा करने नहीं दिया जाता। फिर भी यदि वह दुस्साहस करने का यत्न करे तो उसे वहीं समाप्त कर दिया जाता है। इसका कारण राज खुलने का भय होता है। इसीलिए इस दलदल में फँसा व्यक्ति चाहकर भी इन कार्यों को त्याग नहीं सकता। इसमें दोष कुसंगति का ही माना जाता है जो बड़े ही लुभावने प्रलोभन देकर पथभ्रष्ट कर देती है।
             कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः ।
अर्थात कुमित्र से किसी को शान्ति की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
         कुमित्र शान्ति देने वाला नहीं अपितु दुख और परेशानियाँ पैदा करने वाला होता है। उसके साथ रहने से मनुष्य को कभी मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती। उनका कुसंग मनुष्य के अधोपतन का कारक होता है। पुलिस व कानून से डरता हुआ मनुष्य दिन-रात कभी भी चैन की बाँसुरी नहीं बजा सकता। हर समय एक तलवार उसके सिर पर लटकती रहती है। उससे भयभीत वह कभी स्वयं को सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाता।
       जीवन में सुख और शान्ति की कामना करने वालों को कुमित्र की परछाई से भी बचना चाहिए यानी उन्हें उससे दूर रहना चाहिए। वे कभी भी, किसी भी अवसर पर डंक मारने से नहीं हिचकिचाते। उनका संसर्ग स्वयं अपने और अपनों के दुख का कारण बनता है। उनसे दूरी बनाए रखने में ही मनुष्य का वास्तविक हित निहित होता है और तभी उसे सच्चा सुख मिल पाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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