शुक्रवार, 31 मार्च 2017

अपनी अच्छाई न त्यागें

हमें अपनी अच्छाई को या अपने सद् गुणों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। जब दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता के व्यवहार को नहीं छोड़ते तो हम सज्जनता के गुणों का त्याग क्योंकर करें।
        एक दृष्टान्त दिया जाता है कि एक महात्मा नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ उन्हें एक बिच्छु दिखाई दिया। वे उसे एक पत्ते पर रखकर बचाने लगे पर वह फिर नदी में गिर पड़ा। यह क्रम थोड़ी देर तक चलता रहा तो किनारे खड़े उनके शिष्य ने उन्हें यह कहते हुए रोका कि आप इस बिच्छु को बचा रहे हो और यह आपको काट लेगा। इस पर महात्मा जी ने हंसकर उत्तर दिया कि वह अपना कर्म करेगा और मैं अपना। जब वह जीव अपना धर्म नहीं छोड़ता तो मैं इंसान होकर अपना धर्म कैसे छोड़ दूँ?
         यह दृष्टान्त हमें सोचने पर मजबूर करता है और शिक्षा देता है कि हर जीव का कार्य निर्धारित है। वह अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करेगा। इसी प्रकार साँप को कितना भी दूध पिला दो वह डंक मारने से बाज नहीं आएगा। अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार ही जीव व्यवहार करते हैं। साँप की तरह दुष्ट व्यक्ति को कितना भी अपना बना लो, उसके लिए कितने भी भलाई के कार्य कर लो पर समय आने पर वह वार करने से नहीं चूकेगा।
         हम सब जानते हैं कि हर मनुष्य में तीन वृत्तियाँ- सात्विक, राजसिक और तामसिक होती हैं। सत्व गुण की प्रधानता होने पर मनुष्य सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है और देवतुल्य बन जाता है। जब मनुष्य में राजसी गुणों की अधिकता होती है तो वह मनुष्यता के गुणों को अपनाता है। वह कभी सात्विक गुणों की ओर बढ़ता है तो कभी उसे तामसी वृत्तियाँ ललचाती हैं। तीसरे तामसी गुणों वाले लोग संसार के आकर्षणों में फंसकर समाज विरोधी रास्ते यानि कुमार्ग पर चल पड़ते हैं। तब उन्हें सुधारना कठिन हो जाता है। इस प्रकार अपने इन विशेष गुणों के कारण ही मनुष्य की पहचान बनती है।
          हमें सच्चे, परोपकारी सज्जन लोग बहुत अच्छे लगते हैं। परन्तु अपने को और अपनों को इन गुणों से दूर रखना चाहते हैं। यदि सभी सोचने लगें कि अच्छाई का ठेका क्या हमने लिया है? बाकी और लोग भी हैं वे क्यों नहीं अच्छे बनते? यह सोच समाज के लिए घातक बन सकती है।
            समाज को सुधारने का ठेका कुछ मुट्ठी भर लोगों का दायित्व नहीं है, हम सबका बराबर का इसमें योगदान अपेक्षित है। तभी स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा।
          ईश्वर ने इस संसार में हम सबको कुछ कर दिखाने का अवसर देकर भेजा है। जो उस अवसर का सदुपयोग करते हैं वे अग्रणी बन जाते हैं। जो अपने अवसर से चूक जाते हैं वे असफल होकर इस दुनिया से विदा लेते हैं।
        जो अपनी योग्यताओं को पहचान लेते हैं और अपनी अच्छाइयों के बल पर आगे बढ़ते हैं, वे सभी परिस्थितियों में सम रहकर सबके हृदयों पर राज करते हैं। इसके विपरीत समय की धारा में बहकर आकर्षणों में फंस जाते है, समय बीतने पर वे पश्चाताप करते हैं।
         इसलिए दुनिया की परवाह किए बिना अपनी अच्छाइयों को न छोड़ने का संकल्प लें। दूसरों की बुराइयों की ओर ध्यान न देना ही उचित है। हम सबको तो बदल नहीं सकते पर अपने गुणों का दामन कसकर पकड़ सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 30 मार्च 2017

सकारात्मक सोच

अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य पर पहुँचने के मनुष्य यदि लिए कटिबद्ध हो गया हो तब उसे नकारात्मक लोगों की निराशाजनक बातों की ओर कदापि ध्यान नहीं देना चाहिए। उनके सामने उसे बहरा अथवा मूर्ख बन जाने का ढोंग करना चाहिए। तब फिर उन्हें अनदेखा करके उसे अपने लक्ष्य का संधान कर लेना चाहिए।
         ये निराशावादी लोग कभी किसी को प्रोत्साहित कर ही नहीं सकते। इनके हर कार्य के साथ किन्तु, परन्तु जुड़ा रहता है। हर कार्य में सफलता या लाभ के विषय में न सोचकर ये हर समय असफलताओं की लम्बी लिस्ट लेकर बैठ जाते हैं। ये लोग हर समय रोते-झींकते रहते हैं। परेशानियों के साथ इनका चोली-दामन का साथ रहता है जिसे छोड़ना नहीं चाहते बल्कि जबरदस्ती गले गलाते हैं।
        इसीलिए न ये स्वयं कोई साहसिक कार्य कर सकते हैं और न किसी दूसरे को करने देना चाहते हैं। सबको हतोत्साहित करके बस अपने दायित्व को पूरा कर लेते हैं। यही कारण है कि जीवन में सफलता इनके आगे-आगे भागती रहती है और ये उसे पाने के लिए उसके पीछे भरसक दौड़ लगाते रहते हैं।
        साहसी मनुष्य को चाहिए कि जब भी वह किसी कार्य करने के बारे में ठोस योजना बनाए तब सकारात्मक विचार वाले सज्जनों से परामर्श ले। उनकी मूल्यवान सोच कभी उसे डूबने नहीं देगी। वे सदा ऐसी सलाह देंगे जिससे  दूसरों की उन्नति होती रहे।
         एक बोध कथा की यहाँ चर्चा करना चाहती हूँ। एक मेंढक ने पेड़ की चोटी पर चढ़ने के विषय में विचार किया और फिर वह आगे बढ़ने लगता है। उसे उस पेड़ पर चढ़ता देखकर बाकी के सारे मेंढक शोर मचाने लगते हैं- "ये असंभव कार्य है आज तक कोई भी मेंढक पेड़ पर नहीं चढ़ सका। यह नहीं हो सकता है, तुम पेड़ पर नहीं चढ़ पाओगे। इसलिए अच्छा यही है कि तुम लौटकर वापिस आ जाओ।" मेंढक का संकल्प और दृढ़ निश्चय रंग लाया और आखिरकार वह पेड़ की चोटी पर पहुँच ही जाता है।
         इसका कारण यही है कि वह मेंढक बहरा होता है और अपने साथियों की बात नहीं सुन सका। सारे मेंढकों को चिल्लाते हुए देखकर उसने अपने मन में यही सोचा कि आज वह एक आश्चर्यजनक और ऐतिहासिक कार्य करने जा रहा है। उसके सभी साथी उसका उत्साह बढ़ा रहे हैं। इससे वह और अधिक जोश से भर जाता है और अन्ततः अथक संघर्ष करते हुए असम्भव कार्य को कर गुजरता है।
         यह बोधकथा हमें यही सिखाती है कि मनुष्य चाहे तो क्या नहीं कर सकता?  उसकी संकल्पशक्ति दृढ होनी चाहिए जो किसी भी परिस्थिति में डाँवाडोल नहीं होनी चाहिए। इस दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर वह अनेकानेक साहसिक कार्य कर लेता है।
          वे कार्य कोई भी हो सकते हैं- चाहे आकाश को नापना हो, ग्रह-नक्षत्रों आदि की जानकारी जुटाना हो, ऊँचे पर्वतों का सीना चीरकर सुविधाजनक यातायात के लिए रेल या सड़क मार्ग बनाना हो, समुद्र पर पुल बनाना या जहाज चलाना हो, हिमालय की चढ़ाई करनी हो अथवा फिर खूँखार जंगली जानवरों को वश में करना हो।
         कैसा भी कठिन या असम्भव कार्य हो वे मानो चुटकी बजाते ही कर लेते हैं। वे मुसीबतों से कभी घबराते नहीं हैं। तभी तो सच्चे पराक्रमी कहलाते हैं। सकारात्मक सोच वाले यही लोग इतिहास रचते हैं और उन हैरतअँगेज कारनामों को आने वाली पीढ़ियाँ पढ़ती हैं। उनमें से भी कुछ लोग उन्हीं के पदचिह्नों का अनुगमन करते हुए धारा के विपरीत चलते हुए इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं।
         इसीलिए मनीषियों का सद्परामर्श सभी सकारात्मक सोच वालों के लिए है कि  यत्नपूर्वक नकारात्मक सोच वालों से किनारा कर लेना चाहिए। उनके विचारों को सुनने की यदि मजबूरी सामने आ जाए तो उसे अनसुना करते हुए आगे बढ़ते चलो।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 29 मार्च 2017

नकारात्मक विचार

नकारात्मक विचार हमारे अंतस में अंगद की तरह पैर जमाकर विद्यमान रहते हैं। सकारात्मक विचारों पर ये नकारात्मक विचार जब हावी हो जाते हैं तब मनुष्य निराशा के अंधकूप में गोते खाते हुए डगमगाने लगता है।
       नकारात्मक विचार से तात्पर्य है कि मनुष्य हर समय निराश रहता है। अच्छी-से-अच्छी बात में भी बुराई ढूँढता रहता है। स्वादिष्ट भोजन में भी उसे आनन्द नही आता। दिन-रात निराशा के गर्त में डूबा वह धीरे-धीरे स्वयं ही सबसे कटने लगता है। न तो उसे किसी का साथ अच्छा लगता है न किसी की सलाह पसंद आती है। टीवी, फिल्म, सैर-सपाटा, मित्रों का साथ, विवाह आदि उत्सव कुछ भी उसे नहीं भाता। इन सबसे वह कन्नी काटने लगता है और इस तरह वह अपने आप को अकेला कर लेता है। सारा समय उल्टा-सीधा सोचता रहता है।
        ऐसी स्थिति यदि लम्बे समय तक चलती रहे तो मनुष्य को किसी पर विश्वास नहीं रहता। उसे ऐसा लगने लगता है कि सभी उसके दुश्मन हैं और उसे किसी-न-किसी बहाने से मार डालेंगे।
      'आत्मानुशासन' नामक पुस्तक का यह श्लोक हमें समझा रहा है-
          जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विर्धिविधि:।
          किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।
अर्थात जिनको जीने की और धन की आशा है उनके लिए विधि विधि है परन्तु उन लोगों का विधि या भाग्य क्या करेगा जिनकी आशा निराशा में बदल गई हो।
      जो व्यक्ति आशा को छोड़कर निराशा का दामन थाम लेता है वह डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। तब उसे डाक्टरों के पास जाकर अपना मेहनत से कमाया हुआ पैसा व समय नष्ट करना पड़ता है।
     'जातकमाला' नामक पुस्तक में स्पष्ट कहा गया है-
         निरीहेण स्थातुं क्षणमपि न युक्तं मतिमता।
अर्थात बुद्धिमान का एक भी क्षण निरीह की तरह रहना उचित नहीं। यानि उसे पल भर भी निराश नहीं होना चाहिए।
         जिस क्षण मनुष्य के मन में नकारात्मक विचारों का उदय होता है उसी पल उनका दुष्प्रभाव उसके शरीर पर भी परिलक्षित होने लगता है। शरीर पर होने वाले कुछ प्रभाव यहाँ दे रही हूँ -
1. शरीर एसिड छोड़ता है।
2. मनुष्य की औरा प्रभावित होता है।
3.  आत्मविश्वास में कमी आती है।
4. शरीर का पाचन तंत्र प्रभावित होता है।
5. हार्ट बीट बढ़ती है।
6. बल्ड प्रेशर बढ़ता है।
7. अनचाहे हारमोन शरीर से निकलते हैं।
        नकारात्मक विचारों के चलते मनुष्य स्वयं को तो हानि पहुँचाता ही है और दूसरों को भी हानि पहुँच सकता है। ऐसा इंसान आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध तक कर बैठता है। वह तो इस जीवन से मुक्त हो जाता है पर अपने पीछे परिवारी जनों के लिए समस्याओं का अंबार लगा जाता है।
        जहाँ तक संभव हो सकारात्मक विचारों को अपनाएँ। अपने समय का सदुपयोग कीजिए। सबके साथ मिलजुल कर रहना आरम्भ कीजिए। स्वयं को हमेशा क्रियात्मक कार्यो में व्यस्त रखने का यथासंभव प्रयास कीजिए। एवंविध उपायों को अपनाने लें तो इस निराशा से छुटकारा पा सकते हैं। इसलिए सदा ही सकारात्मक विचारों को अपनाकर नकारात्मक विचारों से बचा जा सकता है और प्रसन्न रहा जा सकता है।

चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 27 मार्च 2017

न भी कहें

आँख मूँद करके किसी बात को मानने के बजाय न कहने की आदत भी डालिए। जीवन में बहुत से ऐसे मोड़ आते हैं जब मनुष्य के समक्ष दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उस समय भी यदि न नहीं कह पाए तो बहुत बड़ी समस्या में भी घिर सकते हैं। तब न कहिए और सुखी रहिए। सुनने में थोड़ा विचित्र लग रहा है पर यह एक सच है। इसका स्वयं अनुभव कीजिए फिर बताइएगा कि ऐसा करना उचित है।
          घर-परिवार में अक्सर ऐसा होता है कि माता-पिता, पति-पत्नी, आस-पड़ोस में आम व्यवहार में कई बातें नापसंद होती हैं। उस समय उनकी बातों को न चाहते हुए भी चुप रह जाते हैं और बाद में अपने मन में जलते-कुढ़ते रहते हैं। तब उस समय हमारे पास अपना मन मसोस कर रह जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता। ऐसा करने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। हम अनचाहे रोगों को दावत दे देते हैं। कई बार देखा गया है कि सोचते और कुढ़ते लोग कुंठा का शिकार भी हो जाते हैं।
       उस समय यदि मन कड़ा करके न कह देते तो शायद मानसिक परेशानी से मुक्ति मिल जाती। इसका यह तात्पर्य कदाचित नहीं कि हर बात के लिए न कह दिया जाए। कभी-कभी अनावश्यक न कह देने से परिवारों में विघटनकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे समय चुप लगाना श्रेयस्कर होता है या फिर विवाद की स्थिति टलने के बाद अपने मन की बात स्पष्ट करनी चाहिए।
       माता-पिता संतान के हित चिन्तक होते हैं। अगर बच्चों को उनके किसी व्यवहार के लिए रोकते हैं या डाँट-डपट करते हैं तो बच्चों को उनका कहना मानना चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि वे उनका कहना न मानकर उन्हें नजरअंदाज कर रहे हैं। हाँ, इस प्रसंग में मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगी कि यदि बच्चों को माता-पिता की कोई बात पसंद नहीं आती तो उन्हें चुप रहकर उनकी बात माननी चाहिए।
       समय बीतने पर जब उनका गुस्सा ठंडा हो जाए तब अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखनी चाहिए यदि वह बात उचित है तो। यदि वे मान जाएँ तो बहुत अच्छी बात है और न मानें तो यह समझ लेना चाहिए कि उनकी माँग नाजायज़ है। वे बड़े हैं और अधिक अनुभवी हैं तथा उन्हें दुनियादारी का ज्ञान भी बच्चों से अधिक होता है।
         इसके अतिरिक्त भी बहुत-से ऐसे पल आते हैं जब बच्चे सही होते हैं और माता-पिता को अनावश्यक हठ करके उनकी बात को न नहीं करनी चाहिए।
       बड़ों की गलत बातों को न अवश्य कहना चाहिए पर फिर भी कोशिश यही होनी चाहिए कि परिवार में किसी भी प्रकार से कटुता न आए। इसी प्रकार मित्रों को भी उनकी नाजायज बात या योजना के लिए न कर देनी चाहिए और उनको समझदारी से अपने न कहने का कारण स्पष्ट कर दें। यदि वे सच्चे मित्र होंगे तो आपकी बात से सहमत होकर स्वयं भी वह गलत कार्य नहीं करेंगे।
        इसी प्रकार आस-पड़ोस में भी दूसरों के गलत फैसलों पर अपनी मोहर न लगाएँ बल्कि उन्हें सही-गलत के बारे में भी समझाएँ। वे लोग यदि विवेकी होंगे तो आपकी बात की गहराई को समझकर आपका लौहा मानेंगे और सयम-सयम पर आपसे विचार-विमर्श भी करेंगे।
       सभी सुधीजन जहाँ आवश्यक हो वहाँ न कहकर अपनी सुख-शांति बनाए रखने का यत्न करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 26 मार्च 2017

किसी से मजाक करना

हंसी-मजाक परेशानियों भरे माहौल से छुटकारा पाने का बहुत अच्छा साधन होता है। दूसरों को प्रसन्न रखना बहुत अच्छी आदत है। इससे वातावरण खुशगवार हो जाता है। कोई मनुष्य कितनी भी परेशानी में क्यों न हो वह मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता। हंसते-खेलते रहने से जीवन जीना आसान हो जाता है।
        मुँह बिसूरकर रहने वालों से लोग बोर हो जाते हैं। सारा समय गिले-शिकवे करने या अपना दुखड़ा रोते रहने वालों से सभी किनारा करना चाहते हैं। वे अपनी मनहूस-सी बनाई सूरत से किसी को भी आकर्षित नहीं करते। उनके पास यदि कुछ समय तक बैठा जाए तो इंसान उकताने लगता है। सामने उनका दुख सुन करके सहानुभूति जताने वाले पीठ पीछे उन्हीं का मजाक उड़ाते हैं और नमक-मिर्च लगाकर चटकारे लेते हैं।
         किसी दूसरे का मजाक एक सीमा तक करना चाहिए। वह सीमा क्या है? उसका निर्धारण कौन करेगा? इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढना बहुत आवश्यक है। मजाक की सीमा हमें स्वयं ही तय करनी है। मजाक उस सीमा तक करना चाहिए जब तक उसे दूसरा उसे बर्दाश्त कर सके। उसके बाद उसका मजाक नहीं बनाना चाहिए। इससे अनावश्यक ही बदमजगी बढ़ती है और वातावरण बोझिल हो जाता है।
          वैसे तो मजाक करने के लिए विषयों की कोई कमी नहीं हैं। ऐसा आवश्यक नहीं कि पास बैठे हुए किसी व्यक्ति विशेष का मजाक बनाया जाए। कुछ लोग दूसरों की शारीरिक अपंगता का मजाक बनाते हुए उन्हें उनकी उस कमजोरी के नाम से यानि अंधा (नेत्रविहीन), काना (एक आँख न होना), लंगड़ा ( टाँग न होना), गधा ( मूर्ख), उल्लू (मूर्ख) आदि पुकारते हैं। यह बहुत ही गलत व अमानवीय व्यवहार कहलाता है। किसी की कमजोरी पर हंसना ईश्वर का अपमान करना होता है क्योंकि उनको भी हमारी ही तरह ईश्वर ने बनाया है।
        स्वयं का मजाक करना सबसे अच्छा होता है। दूसरों का मजाक बनाने वाले अपना मजाक बनते देख प्रायः बौखला जाते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी उनका मजाक बनाए। ऐसा दोहरा मापदण्ड तो नहीं चल सकता। अपने लिए अलग नियम व दूसरों के लिए अलग नियम इसे समाज तो नहीं मानेगा। सीधी-सी बात है कि यदि आपको मजाक सहना पसंद नहीं तो करिए भी मत। यदि मजाक करेंगे तो मजाक का निशाना बनने की हिम्मत भी रखिए। उस समय खुन्दक खाने या चिढ़ जाने का क्या लाभ होगा?
          यदि आपको मजाक बनना अच्छा नहीं लगता तो दूसरे की टाँग मत खींचिए। नहीं तो फिर याद रखिए कि जैसै को तैसा (tit for tat) तो हो ही जाता है। कभी-कभी सेर को सवा सेर भी टकरा ही जाता है। तब बगलें झाँकने से अच्छा है पहले से ही सम्भल जाना चाहिए।
          जैसे हर बात की अति बुरी होती है वैसे ही मजाक की अति भी अच्छी नहीं मानी जाती। जो हमेशा मजाक करते रहते हैं उन्हें लोग टोक देते हैं कि भाई कभी तो सीरियस हो जाया करो। लोग उनको मसखरा  समझते हैं और पीठ पीछे उनकी हंसी उड़ाते हैं।
         हंसी-मजाक केवल मनोरंजन की सीमा तक ही उचित होता है। इसके पश्चात वातावरण को अशांत व बोझिल ही बना देता है। समझदार लोगों को चाहिए कि वे अप्रिय स्थितियाँ न आने दें और यदि किसी असावधानी वश ऐसा हो जाए तो उन कारणों को दूर करने का उपाय कर लेना  चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 25 मार्च 2017

जीवन का सुख

जीवन का आनंद वही ले पाते हैं जो कठोर श्रम करते हैं आलस करने वाले या सुविधाभोगी नहीं। जिन्हें पकी-पकाई खीर मिल जाए वे खीर बनाने का रहस्य नहीं जान सकते। उसके लिए कितना श्रम करना पड़ता है, कितनी प्रकार की सामग्रियाँ जुटाई जाती हैं? उसको बनाने वाले की भावना या उसके प्यार के मूल्य को वे उतना नहीं जान सकते।
       ठंडी हवा का सुख उसी व्यक्ति को समझ में आ सकता है जो बाहर की गरमी में तपकर आया है, अपना पसीना बहाकर आया है या परिश्रम करके थका हुआ है। जो मनुष्य दिन भर कूलर या एसी में बैठा हुआ गरमी में खूब ठंडक का आनन्द ले रहा है वह हवा की शीतलता के वास्तविक सुख  का अहसास नहीं कर सकता।
       फूलों की खूशबू उसी व्यक्ति को मोहित करती है जो फूलों का आनंद लेना जानता है। सारा दिन इत्र, डियो आदि में नहाया रहने वाला प्राकृतिक सुगंध से दूर होता जाता है। उसे फूलों से सुगंध के स्थान पर दुर्गन्ध का आभास होता है।
        दिनभर शीतल पेय पीने वाले, फ्रिज और वाटर कूलर ठंडे जल पीने वाले वास्तव में जल की शीतलता के वास्तविक सुख से वंचित रहते हैं। गरमी में तपकर आए हुए व्यक्ति को मटके या नल का जल मिल जाए तो वह भी उसके लिए अमृत तुल्य होता है।
       माता-पिता के मेहनत से कमाए धन पर ऐश करने वाले पैसे की कीमत नहीं जानते। पर यदि दुर्भाग्य से उन्हें जब कभी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर पापड़ बेलते हुए बहुत कठिनाई से धन कमाना पड़ता है तब उन्हें उसकी कीमत पता चलती है।
       कहने का तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य सुविधाभोगी हो जाता है तो वह वास्तविकता से बहुत दूर चला जाता हैं। जमीनी हकीकत से मुँह मोड़ लेता है।
       ईश्वर न करे यदि अस्वस्थ होने पर या दुर्भाग्यवश कभी किसी भी कारण से सुविधाओं से वंचित होना पड़े अथवा कभी जीवन की सच्चाइयों से दो-चार होना पड़े या उनका सामना करना पड़े तो हालात बड़े कठिन हो जाते हैं।
      इन्हीं स्थितियों से जीव जगत को बचाने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में द्वन्द्व सहन करने का सदुपदेश दिया था। हमें सभी सुविधाओं को भोगते हुए विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए सन्नद्घ रहना चाहिए और प्रतिदिन ईश्वर द्वारा दी गई नेमतों के लिए उसका धन्यवाद करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

आए थे हरि भजन को

निम्नलिखित पंक्ति को पढ़कर हम कवि के अंतस की पीड़ा का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं-
       'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास'
अर्थात मानव का यह चोला मनुष्य को ईश्वर की भक्ति करने के लिए मिला था पर इस संसार की हवा लगते ही मनुष्य अपने सब वायदे भूलकर यहाँ के कारोबार में व्यस्त हो जाता है और फिर उस मालिक की ओर से अपनी नजरें फेर लेता है।
            मनीषियों का कथन है कि जब जीव माता के गर्भ में होता है तो उस समय वह कष्ट उससे सहन नहीं होता। ईश्वर को उस अंधकार से बाहर निकालने के लिए वह गुहार लगता है। तब वह कसमें खाता है कि वह जन्म लेने के पश्चात उस मालिक की आराधना करेगा, उसे हर पल याद स्मरण करेगा और क्षण भर के लिए भी उसे नहीं भूलेगा।
          इस संसार में जब वह जन्म लेने के  कुछ समय तक उसे सारी कसमें याद रहती हैं और उस प्रभु का स्मरण करता है। फिर धीरे-धीरे दुनिया के झमेलों में घिरता हुआ वह ईश्वर की ओर से विमुख होने लगता है। तब वह सोचता है कि सारी उम्र पड़ी है हरि का भजन करने के लिए। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वह नित नए बहाने खोजने लगता है।
          इस तरह करते हुए सारी आयु बीत जाती है और अन्तकाल आ जाता है परन्तु हरि भजन की आयु नहीं आ पाती। काल को सामने देखकर वह हाथ जोड़कर क्षमा याचना करता है परन्तु उस समय तक तीर निशाने से निकल चुका होता है और बचते हैं वही ढाक के तीन पात। कहने का तात्पर्य है कि तब प्रायश्चित करना ही शेष बचता है जिसका कोई लाभ नहीं होता। इसका कारण यही है कि तब उस समय मालिक पश्चाताप करने के लिए पलभर का समय भी मोहलत के रूप में उधार नहीं देता।
          हम भी यदि किसी को समय सीमा निश्चित करके कोई काम देते हैं और वह तय समय में नहीं हो पाता तो हम भी दूसरे व्यक्ति पर दया नहीं दिखाते बल्कि उसे लताड़ते हैं। एकाध बार तो हम उसे क्षमा कर सकते हैं परन्तु यह उसकी आदत बन जाती है तो हम उसे कदापि नहीं छोड़ते। और वह कार्य उससे छीन लेते हैं।
       यदि हम ऐसा व्यवहार दूसरों से करते हैं तो उस सर्वशक्तिमान से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह बारबर हमें अपने काम में कोताही करने पर हमारी पुकार पर द्रवित हो जाए। हमें माफ करके थोड़ा और समय उपहार में दे।
           इस पृथ्वी पर हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उस मालिक ने निश्चित समय देकर हमें भेजा है। उसी समय के अनुसार हमें सौंपा गया कार्य निपटाना है। हम न जाने कितने जन्मों से अपने लिए निर्धारित कार्यों को पूरा नहीं कर रहे तो हम उस मालिक से आँख मिलाने का साहस ही नहीं जुटा पाते। हमारी बारबार याचना करने पर भी वह अनसुना करता है क्योंकि वह हमारी आदतों को भली-भाँति जानता है।
           इसीलिए मनीषि कवि के मन में यह क्षोभ है कि वह दुनिया के बेकार के कामों में उलझा रहा जिनके बिना उसका जीवन बड़ी आसानी से सुविधा पूर्वक चल सकता था। जिस कार्य को करने का लक्ष्य लेकर वह इस धरा पर अवतरित हुआ था, उसे पूरा करने में सफल नहीं हो पाया। इसलिए वह नाकामयाबी का कलंक अपने माथे पर लेकर इस दुनिया से विदा हो रहा है।
          उचित समय तो हमेशा ही रहता है। इसलिए उसकी प्रतीक्षा न करते हुए अपने लक्ष्य यानि ईश्वर की उपासना करते हुए मोक्ष प्राप्त करने की ओर मात्र ध्यान लगाना चाहिए। ऐसा करते हुए हम उस मालिक के प्रिय पात्र बनेंगे और उससे मुँह छिपाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। जब उसके पास जाने के लिए प्रसन्नता से समय की प्रतीक्षा करेंगे। तब यह दुख नहीं होगा कि अपने लक्ष्य को भूलकर संसार के चक्रव्यूह में फंसे रहे।
चन्द्र प्रभा सूद
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