बुधवार, 31 मई 2017

रह न जाए कोई कसक अधूरी शेष

रथ के दो पहिए
जब चलने लगते हँ
समानान्तर एक गति से
तब सामञ्जस्य हो जाता है उन दोनों में।

एक बड़ा हो जाए
अथवा छोटा हो जाए
नहीं रह सकता उनमें मेल
जब तक दोनों नहीं हो जाते एक समान।

पति हो या पत्नी
दोनों रथ की तरह
गतिमान न होंगे जब
तब तक नहीं चल सकता जीवन का रथ।

छोड़ दो यह झगड़ा
तू बड़ा या मैं बड़ा का
निर्मूल है यह बवाल सब
हम बन बढ़ जाओ आगे सुख की राह में।

मेरा मुकाबला नही
तेरा भी मुकाबला नहीं
किसी का भी मुकाबला नहीं
एक-दूजे को सह लेना समभाव होता है।

शत्रुवत व्यवहार नहीँ
कभी अपने प्रिय मीत से
परस्पर साथी बन जाओ
होगी राह आसान हमसफर के साथ से।

काल का यह चक्र
गतिशील है सदा ही
नहीं करता प्रतीक्षा कभी
कौन पहले और फिर कौन बचेगा पीछे।

बाद में रह जाएगा
केवल मात्र पश्चाताप
नहीँ मिलेगा ढूँढे से भी
अपना प्रिय मीत इस असार संसार में।

बस सोचो मत
अब कर लो पहल
बढ़ो आगे खोने से पहले
थामो हाथ एक-दूसरे का तुम यात्रा में।

कदमताल करते
पग-पग आगे बढ़ते
मुस्काते इस जीवन में
रहने न पाए कोई कसक अधूरी शेष।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
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मंगलवार, 30 मई 2017

जन्मभूमि भी माता

जिस धरती पर हमने जन्म लिया, जिसकी मिट्टी में धूलधूसरित होते हुए बड़े हुए, जिसके अन्न-जल से पुष्ट हुए वह हमारी माता है। इसीलिए हम इसे जन्मभूमि कहते हैं।
       जन्मभूमि हमारी अपनी जन्मदातृ माता की तरह सभी कष्ट सहन करके हमें जीवन की सारी खुशियाँ देती है। हमें स्वर्ग के समान सभी प्रकार के सुख-साधन देती है। हम इस धरा पर अत्याचार करते हैं अर्थात् अपने पैरों से इसे रौंदते हैं, जीभर कर कूड़ा-कचरा फैंकते हैं, अपना बोझ उस पर डालते हैं, बड़े-बड़े भवन बना कर हरियाली नष्ट करते हैं, पर्यावरण व प्रदूषण की समस्याएँ पैदा करते हैं। फिर भी यह हमसे नाराज नहीं होती बल्कि हमारा बोझ सहती है।
        ऐसी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने से मन में पीड़ा होनी चाहिए। अपनी धरती, अपना देश हमें प्रिय होना चाहिए। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम लक्ष्मण से यही आशय व्यक्त कर रहे हैं-
         न मे सुवर्णमयी  लंकापि रोचते लक्ष्मण।
         जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
     अर्थात् भगवान राम कहते हैं- हे लक्ष्मण मुझे सोने की लंका भी रुचिकर नहीं हैं। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
      अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से हर व्यक्ति को प्यार होना चाहिए। जिस मनुष्य को इनसे प्यार नहीं वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं। उनकी अवहेलना करने वाला हमेशा निन्दनीय होता है। जिस इंसान को अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से प्यार नहीं वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 29 मई 2017

स्वस्थ को अनदेखा करती महिलाएँ

महिलाएँ चाहे वह कामकाजी हो अथवा घर में रहने वाली प्रायः सभी अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान नहीं देतीं यानी अनदेखा करती रहती हैं। एक महिला जो एक पत्नी है, एक बहु है, एक माँ है वह ही अपने प्रति सदा लापरवाही बरतती है। घर-परिवार के सारे सदस्यों के सुख-दुःख का ध्यान रखने के लिए दिन-रात चक्करघिन्नी की तरह घूमने वाली वह अपने विषय में तो मौन हो जाती है।
          उसके अपने खाने-पीने, सोने-जागने का कोई भी समय नहीं होता। उसे बस अपने परिवार के सदस्यों की चिंता ही सताती रहती है, इसलिए वह सदा बेचैन बनी रहती है। कामकाजी महिलाओं को सवेरे बच्चों को स्कूल भेजना, पति को ऑफिस समय पर भेजना, घर में यदि बड़े-बुजुर्ग हों तो उनके लिए व्यवस्था करना आदि सभी कार्यों को निपटाकर स्वयं भी अपने कार्य के लिए जाना होता है।
         दफ्तर के कार्यों को करना, वहाँ के तनावों को झेलना, देर-सवेर घर आना, सब दैनिक कार्यों को उसी दिन समाप्त करना होता है। इस तरह उसे घर और कार्यक्षेत्र दोनों का दोहरा तनाव झेलना पड़ता है। तबियत ठीक न होने पर बस गोली खाकर काम चला लेती है। जब बिस्तर पर पड़ जाने की स्थिति होती है, तभी वह डॉक्टर के पास जाकर इलाज करवाती है।
        हर घर की अपनी आर्थिक स्थिति होती है। वहाँ चौबीस घण्टे कार्य करने के लिए नौकर या आया नहीं रखे जा सकते। वे पार्ट टाइमर से ही अपना काम चलते हैं। शेष कार्य उन्हें स्वयं ही करने होते हैं। इस तरह दोनों पाटों में महिलाएँ पिसती रहती हैं। कहने को तो कह सकते हैं कि महिला को काम करने की क्या आवश्यकता है? वह आराम से घर क्यों नही रहती?
         आज महँगाई के इस समय यदि पति-पत्नी दोनों ही काम न करें तो घर की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था करने में असुविधा होती है। बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए, समाज में अपना स्टेट्स बनाए रखने के लिए पति-पत्नी दोनों को कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलना ही पड़ता है। यह आवश्यक भी है और समय की माँग भी है।
           इसी प्रकार घरेलु महिलाओं की भी स्थिति होती है। वे भी अपने घर के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में इतना व्यस्त रहती हैं कि चाहकर भी अपने लिए न तो समय निकाल पाती हैं और न ही सोच पाती है। बच्चों को स्कूल भेजने और पति को ऑफिस भेजने के पश्चात अव्यवस्थित घर को व्यवस्थित करने के बाद स्वयं देर-सवेर नाश्ता करती है। इसी तरह उसके दोपहर और रात के भोजन का समय भी निश्चित नहीं हो पाता।
        दोपहर को बच्चों को स्कूल बस से लेने जाना, उन्हें खिलाना-पिलाना, उनके गृहकार्य को करवाने में ही उनका अधिकांश समय बीत जाता है। अपने लिए तो उन्हें समय ही नहीं मिल पाता। घर में सबकी सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिल पाता।
         अन्य सदस्यों की हर आवश्यकता को पूरा करना, उनके खानपान पर नजर रखने वाली महिलाएँ भूल जाती हैं कि उन्हें स्वस्थ रहने के लिए पौष्टिक भोजन, दूध, फल आदि की आवश्यकता होती है। इमके आभाव में शरीर को बिमारियाँ घेरने लगती हैं। सारी कटौती या बचत वे अपने ऊपर करती हैं। आयु बढ़ने के साथ यह बचत उन पर भारी पड़ने लगती है।
          अपने स्वस्थ की अनदेखी उन्हें बहुत महँगी पड़ती है। थोड़ी अस्वस्थता में कोई भी दवा लेकर काम में लगे रहने से रोग धीरे-धीरे बढ़ता रहता है। पता नहीँ चलता पर शरीर को हानि पहुँचती रहती है। आयु बढ़ने पर शरीर जब कमजोर पड़ने लगता है, उसकी क्षमता कम होने लगती है, तब वे रोगी होकर कष्ट पाने लगती हैं।
         अपनी सभी बहनों से अनुरोध है कि आपका परिवार आपसे है। उसकी ख़ुशी आपसे है। आपके स्वस्थ रहने पर ही घर में खुशहाली आती है। इसलिए अपने स्वस्थ और अपने आहार-विहार का पूरा ध्यान रखें। तबियत यदि जरा सी भी ख़राब हो तो स्वयं दवा न लेकर तुरन्त योग्य डॉक्टर से सम्पर्क करें और स्वस्थ रहने का यथासम्भव प्रयास करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 28 मई 2017

माया तेरे तीन नाम

मनुष्य का व्यवहार उसकी जेब में पड़े धन के अनुसार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैसे-जैसे उसकी धन-संपत्ति में वृद्धि होती है उसके व्यवहार के परिवर्तन को हम अनुभव कर सकते हैं।किसी विद्वान ने सत्य कहा है- 'मनुष्य एक समय में एक ही चीज भर सकता है- दिल या जेब।'
     एक उदाहरण से समझते हैं-
     माया तेरे तीन नाम परसु परसा परसराम।
इसका तात्पर्य यह है कि जब इंसान के पास धन-समृद्धि नहीं होती तब लोग उसका नाम भी ठीक से नहीं पुकारते। परसराम के स्थान पर उसे परसु कहकर पुकारते हैं। यह वह काल है जब मनुष्य परिस्थितियों के कारण दुनिया की अवहेलना का शिकार होता है। भुक्तभोगी होने के कारण वह दूसरे की मजबूरी को समझता है। उसके मन में दया, ममता, सहानुभूति आदि मानवोचित गुण निवास करते हैं।
          थोड़ी-सी धन-सम्पत्ति कमा लेने पर उसे लोग परसु के स्थान पर परसा बुलाने लगते हैं। इस अवस्था में पहुँच कर मनुष्य धीरे-धीरे अपने-आपको दूसरों से अलग समझने लगता है। वह सोचता है कि उसे किसी से मतलब रखना आवश्यकता नहीं और फिर दूसरों से कन्नी काटने लगता है। सबसे दूर होने लगता है।
      सौभाग्य से जब इंसान के पास प्रभूत धन-वैभव आ जाता है तो समाज में उसका एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन जाता है। लोग उसे सम्मान से परसराम कहकर पुकारते हैं। फिर उसका दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगता है और वह अहंकारी होने लगता है। अपने बराबर वह किसी को नहीं समझता और स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा मानने लगता है। वह अपने माली, ड्राइवर, नौकर तक का नाम लेने में हेठी समझता है। इंसान को इंसान नहीं समझता। संबंधों में केवल स्वार्थ को ही देखता है। वह सबसे दूरी बनाकर रखता है और किसी की परवाह नहीं करता।
     हम स्पष्टरूप से कह सकते हैं कि जब मनुष्य की जेब खाली थी तब सभी प्रकार की संवेदनाओं से युक्त होता है परंतु जेब भरने के बाद वह सबसे आँखें चुराने लगता है व मानवोचित गुणों से दूर होता जाता है। उसकी सोच पूर्ण रूपेण बदल जाती है।
       वास्तव में ज्यों-ज्यों मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उन्नति करे तो उसे फलदार व छतनार वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसकी छाया में असहायों व जरूरतमंदों को पनाह मिल सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 27 मई 2017

प्राण के बिना कुछ नहीं

उपनिषद कथा है कि प्राचीन काल में  इन्द्रियों के मध्य अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने  के लिए झगड़ा हुआ। आँख, नासिका, कान (श्रवण शक्ति), जिह्वा (बोलने की शक्ति), मन और प्राण सभी अपने आप को श्रेष्ठ बता रहे थे।
        अंत में वे सभी प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और उन्हें अपने विवाद का कारण बताया। उन्होंने उन सबको कहा कि जिसके शरीर से चले जाने के बाद सब समाप्त हो जाए वही श्रेष्ठ है। सबने इस सुझाव पर अमल किया।
       सबसे पहले आँखें शरीर से एक वर्ष के लिए बाहर गयीं। लौटकर उन सबसे पूछा - 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।'
        उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे एक अंधा व्यक्ति कानों से सुनता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआ और मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
       फिर नासिका (सूँघने की शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
       उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे न सूँघते हुए व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, वाणी से बोलता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम भी जीवित रहे।'
        फिर कान (श्रवण शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
       उन सब ने उत्तर दिया- 'जैसे एक बहरा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम जीवित रहे।'
             फिर वाक् (बोलने की शक्ति) बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम  तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।'
            उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे एक गूंगा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
          फिर उसी तरह मन ने एक साल बाद लौटकर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
          उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे बिना मन के बच्चा आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआह, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
          अंत में प्राण शरीर से बाहर निकलने लगे तो ऐसा लगा कि सब कुछ समाप्त हो रहा है। उस समय सभी इन्द्रियाँ एक साथ चिल्लाने लगीं - 'मत जाओ, मत जाओ। तुम्हारे बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम चले जाओगे तो सब समाप्त हो जाएगा। तुम्हीं हम सब में श्रेष्ठ हो।'
        यह कथा हमें प्राणों का महत्त्व समझा रही है कि उनके बिना इस शरीर का कोई मूल्य नहीं। नश्वर शरीर में रहने वाली अनश्वर आत्मा को हम भूल जाते हैं। शरीर के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और इसी को सजाते-संवारते रहते हैं। इस बात को भी नजरअंदाज कर देते हैं कि रूप-यौवन जल्दी ही ढल जाएगा। यह आत्मा युगों-युगों तक रूप बदलती रहती है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 26 मई 2017

आलस्य त्यागकर उद्यम करें

परिश्रम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं केवल कामना करने से नहीं। इसी विचार को निम्न श्लोक में उदाहरण सहित कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में बताया है-
         उद्यमेन हि सिध्यन्ति  कार्याणि न  मनोरथैः।
         न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः॥
यहाँ कवि ने जंगल के राजा शेर का सटीक उदाहरण दिया है। शेर चाहे जंगल का राजा कहलाता है और कोई अन्य पशु शक्ति में उसका मुकाबला नहीं कर सकता फिर भी भोजन के लिए उसे शिकार करना पड़ता है। उनका राजा भूखा है ऐसा सोचते हुए कोई पशु उसके मुँह में स्वयं ही नहीं चला जाता।
      इसका अर्थ यह है कि चाहे कोई मनुष्य कितना भी शक्तिशाली या धनवान क्यों न हो उसे परिश्रम करने पर ही सफलता प्राप्त होती है। वह स्वयं चलकर नहीं आती कि भाई लो मैं आ गयी अब तुम ऐश करो।
         परिश्रमी व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पा सकते हैं चाहे वह शेर जैसे खूंखार और हाथी जैसे बलशाली पशुओं को वश में करने का कार्य ही क्यों न हो। वह अपनी मेहनत से आकाश की ऊँचाइयों को छूने का हौंसला रखता है। समुद्र की गहराई में पैठकर मोती निकाल कर ले आता है। ऐसा व्यक्ति हम सबके जीवन के ऐशो-आराम के लिए तरह-तरह अविष्कारों से हमें चमत्कृत कर देता है।
       जीवन में हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला अर्थात् परिश्रम से जी चुराने वाला जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाता और न ही सफलता की बुलन्दियों को छू सकता है। आलसी व्यक्ति भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठता है। वह तो मलूक दास जी के अनुसार बस यही सोचता रहता है-
           अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
           दास मलूका  कह गए सबके  दाता राम॥
अर्थात् अजगर किसी की चाकरी नहीं करता और पक्षी भी काम नहीं करता फिर भी भगवान उन सबको भोजन देता है। वे सोचते हैं कि ईश्वर उन आलसियों का भी पालन-पोषण करेगा।
      ऐसे लोग इस पृथ्वी पर भार की तरह होते हैं जो प्रायः अपना व अपने परिवार की  आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकते। इसलिए हर ओर तिरस्कृत होते हैं। ऐसे लोग सारा जीवन अभावों में व्यतीत करते हैं। सारा जीवन असंतुष्ट रहते हैं कभी संतुष्टि नहीं प्राप्त कर सकते। ये लोग भूल जाते हैं कि केवल भाग्य के आश्रित रहकर दुनिया में जीना कठिन होता है।
        इसके विपरीत केवल पुरुषार्थ के बल पर भी अपना स्थान बना पाना नामुमकिन तो नहीं कठिन अवश्य होता है। पुरुषार्थ और भाग्य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का संयोग सोने पर सुहागा होता है। वैसे कहा यह भी जाता है कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है या उसका भाग्य उसके अपने हाथ में है। वह जैसा चाहे अपना मार्ग स्वयं चुन सकता है। उसके लिए बस दृढ़ इच्छा शक्ति का होना परम आवश्यक है।
        पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को सभी पुरुषसिंह कहते हैं। वही अपने इस छोटे से जीवन में जो प्राप्त करना चाहता है हासिल करके ही चैन लेता है। यदि जीवन में कभी असफलता का मुँह देखना भी पड़ जाए तो हिम्मत न हार कर चींटी की तरह अपने कर्मक्षेत्र में पुनः उत्साहित होकर पूर्णरूपेण जुट जाना चाहिए।
        सफलता प्राप्त करने के दिन-रात एक करके जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है व पसीना बहाना  पड़ता है तब जाकर वह हमारे कदम चूमती है। इसलिए आलस्य त्याग कर नव स्फूर्ति व नये उत्साह से अपने लक्ष्य प्राप्ति से जुट जाएँ और सफल बनें।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 25 मई 2017

मंजिल को पाना

अपनी निर्धारित मंजिल को पा लेने की हार्दिक इच्छा हर मनुष्य की होती है। किन्तु ये मंजिलें बहुत ही जिद्दी होती हैँ, वे प्रायः भाग्य से प्राप्त होती हैं। उसे पाने के लिए मनुष्य को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। थक हारकर बैठने वाले अपनी मंजिल को कभी नहीं प्राप्त कर सकते। यदि मनुष्य सफलता पाने के लिए केवल स्वप्न देखता रहे या ख्याली पुलाव बनाता रहे तो निश्चित ही उसे असफलता का मुँह देखना पड़ता है। इस तरह उसकी मंजिल उससे अधिक अधिक दूर होती जाती है।
          मंजिल को छू लेने की कामना करने वालों को अथक परिश्रम करना पड़ता है। दिन-रात एक करना पड़ता है। अपने लक्ष्य का अनुसन्धान करते हुए निरन्तर आगे कदम बढ़ाना होता है। फिर भी यदा कदा असफलताओं का मुँह देखना पड़ जाता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि मनुष्य घबराकर अपने लक्ष्य की ओर से ध्यान हटा दे। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि परले पार वही व्यक्ति पहुँच सकता है जो किसी भी अपरिहार्य परिस्थिति में घबराता नहीं है। अर्जुन की तरह केवल मछली की आँख को लक्ष्य बनाकर सन्धान जो करता है, वही परम साहसी व्यक्ति अपनी मंजिल को हाथ बढ़ाकर छू पाता है।
        हम देखते हैं कि छोटी-छोटी नौकाएँ जब समुद्र को पार करने की जिद करती हैं तब उनके साहस के समक्ष तूफान भी अपना हथियार डाल देता है अर्थात वह आख़िरकार हारकर शान्त हो जाता है। अन्ततः वह यही कहता है कि चलो भाई, तुम जीत गए और मैं हार गया। अब तुम अपने मन की कर लो। मैंने तुम्हारे लिए इस रास्ते को खाली कर दिया है। वास्तव में यही साहस कहलाता है। जिसके बलबूते पर एक छोटी-सी नौका हार नहीँ मानती अपितु संघर्ष करती है। बारबार डगमगाती है और फिर बिना डरे आगे बढ़ती ही चली जाती है। फिर अन्त में जीत का स्वाद चखकर ही चैन लेती है।
         इसी तरह यदि मनुष्य को ईश्वर पर पूर्ण विश्वास हो तो अपने भाग्य में लिखा हुआ उसे सरलता से प्राप्त हो जाता है। इस सबसे भी बढ़कर यदि मनुष्य को स्वयं के बाहुबल पर पूरा भरोसा होता है तो ईश्वर को भी उसे मनचाहा वरदान देने के विवश होना पड़ता है। उसके लिए वही लिखता है जो वह मनुष्य उससे चाहता है। मनुष्य को अपनी सामर्थ्य पर और ईश्वर के न्याय पर केवल शतशः विश्वास होना चाहिए।
         संसार का यही दस्तूर है कि हार जाने वाले व्यक्ति का हाथ उसके अपने भी छोड़ देते हैं। उससे कोई भी सहानुभूति तक नहीं जताना चाहता। असफलता का कलंक लगते ही उसके अपने भी पराए हो जाते हैं। जिनसे उसे आशा होती है वे भी उसे असहाय छोड़ देते हैं। वह अकेला बैठकर अपने भाग्य को कोसता रहता है। निराशा उसे घेर लेती है और वह धीरे-धीरे तनावग्रस्त हो जाता है।
         जो व्यक्ति अपनी गलतियों से शिक्षा लेकर पुनः संघर्ष करने का साहस जुटा लेते हैं, वे अपने उद्देश्य में निश्चित ही सफल हो जाते हैं। मैं यही कहना चाहती हूँ कि जब तक अपना लक्ष्य, अपनी मंजिल न प्राप्त कर लें तब तक चैन की बाँसुरी बजाते नहीं बैठना चाहिए। मनुष्य को अपना लक्ष्य पाने के लिए किसी के कन्धे का सहारा भी नहीं तलाशना चाहिए।
        यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि दूसरों का मुँह ताकने वाले कभी अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते। वही समाज में उदाहरण बनकर दिग्दर्शक बन सकते हैं जो स्वयं अपने ऊपर भरोसा करते हैं। शेर की तरह इस संसार को खँगालने के लिए बिना अकेले ही चल पड़ते हैं। देखे पीछे मुड़कर नहीं देखते की कोई उनके पीछे आ रहा है अथवा नहीं। इसलिए कृत संकल्प होकर अपने लक्ष्य को, अपनी मंजिल को पाने के लिए तब तक बढ़ते रहना चाहिए जब तक उसे सफलता न मिल जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 24 मई 2017

दान न देने के बहाने नहीं

अमीरी अथवा गरीबी किसी भी मनुष्य को विरासत में नहीं मिलती। उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलती है। संसार में आने के पश्चात उसे अपनी परिस्थतियों से लड़कर मनचाही सफलता पानी पड़ती है। यदि मनुष्य यह धारणा बना ले कि उसका कुछ भी नहीं होने वाला, उसका जीवन बस ऐसे ही रोते-झींकते बीतेगा तो सच में वैसा ही होता है।
         मनुष्य को अपने जीवनकाल में कदापि नहीं सोचना चाहिए कि किसी की सहायता करना अथवा किसी को दान तो केवल पैसे वाले लोगों का ही काम है। वे समर्थ हैं, इसलिए वही किसी को कुछ दे सकते हैं। यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि जिसके पास पैसा होगा, उसी के पास ही दूसरों की मदद करने की इच्छाशक्ति भी होगी। इस मिथ को सबको मिल-जुलकर ही तोडना होगा।
          'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' यह सिद्धान्त मानने वाले बहुत से ऐसे लोग इस संसार में मिल जाते हैं। वे स्वयं अपनी और अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करते, केवल पैसा बचाने में लगे रहते। वे अपने धन पर साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे रहते हैं। ऐसे कंजूस, मक्खीचूस लोग किसी और की सहायता करने के विषय में कभी सोच ही नहीं सकते।
          इसके विपरीत यह सोच भी अनुचित है कि गरीब आदमी तो बस केवल बेचारा होता है। इस संसार में रहते हुए वह अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए ऐसा असहाय व्यक्ति किसी और के लिए भला क्या कर सकता है? इस नकारात्मक सोच को अपने मन से बाहर निकल फैंकना होगा। अपनी इच्छाशक्ति को जगाना होगा।
        इस विषय में एक घटना याद आ रही है। एक आदमी गुरु नानक देव जी के पास गया। उसने बाबा जी से पूछा - 'मैं इतना गरीब क्यों हूँ?'
       गुरु नानक देव जी ने उसे कहा - 'तुम गरीब हो क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा।'
       उस आदमी ने उत्तर दिया - 'मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं किसी को क्या दे सकता हूँ?'
       यह सुनकर गुरु नानक देव जी ने उसे समझाते हुए कहा - 'तुम्हारा चेहरा किसी को मुस्कान दे सकता है। तुम्हारा मुँह  किसी की प्रशंसा कर सकता है अथवा दूसरों को सुकून पहुँचाने वाले दो मीठे बोल बोल सकता है। किसी जरूरतमन्द की सहायता करने के लिए तुम्हारे हाथ आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु फिर भी तुम कह रहे हो कि तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीँ है।'
         वास्तव में मनुष्य की मानसिक सोच ही गरीबी का कारण होती है। मनुष्य यदि यह समझ ले कि ईश्वर ने इतना अनमोल शरीर उसे दिया है जिसका मूल्य रुपए-पैसों में नहीं आँका जा सकता। महर्षि दधीचि जैसा व्यक्ति भी कोई हो सकता है, जिन्होंने असुरों को पराजित करने के लिए अपनी हड्डियों का दान दिया था। उन हड्डियों से देवराज इन्द्र ने अपना अस्त्र वज्र बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की थी।
         महाभारतकाल में युद्ध के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण की परीक्षा लेने के लिए उसके पास ब्राह्मण के रूप में गए थे। उन्होंने उससे दान देने के लिए प्रार्थना की थी कि बेटी की शादी के लिए वह दान दे। कर्ण उस समय मरणासन्न अवस्था में थे, उनके पास कुछ भी नहीं था। फिर याद दिलाए जाने पर उन्होंने अपने सोने का दाँत पत्थर से तोड़कर निकाला था और ब्राह्मण को दान में दे दिया था।
         कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य तन, मन और धन किसी के भी माध्यम से दान दे सकता है। तन से श्रमदान कर सकता है। अपनी शक्ति से असहायों की रक्षा कर सकता है। मन से सबके लिए शुभकामनाएँ ईश्वर से माँग सकता है। अपने सुविचारों से सबका मन मोह सकता है। धन तो है ही दान का माध्यम जिससे मनुष्य अन्न, वस्त्र, धन आदि से दूसरों की सहायता कर सकता है। यानी किसी भी तरह से मनुष्य को ईश्वर के द्वारा बनाए गए जीवों की मदद करने से कभी पीछे नही हटना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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