सोमवार, 31 जुलाई 2017

मन की सोच

मानव मन की सोच जैसी होती है उसे यह संसार वैसा ही दिखाई देता है। यदि उसकी सोच का दायरा विस्तृत होगा यानि वह अच्छी, भली अथवा सुन्दर होगी तो उसे सारा संसार अच्छा, भला और सुन्दर नजर आएगा अन्यथा मन के भावों के विपरीत होने पर सब बदसूरत दिखाई देता है। उस बदसूरती में उसे अच्छाई कम और बुराई अधिक दिखेगी। तब उसे यह संसार रहने लायक नहीं प्रतीत होगा।
           मनुष्य के मन में जब खुशी अथवा उल्लास होता है तब वह चाहता है कि हर व्यक्ति उसके साथ उसकी खुशी बाँटे और उसमें शामिल हो। उस समय उसे सारी कायनात अपनी तरह प्रसन्न प्रतीत होती है। उसे लगता है कि सारी प्रकृति उसका साथ दे रही है। उसके साथ रो रही है, हँस रही है, नाच-गा रही है अथवा चारों ओर अपनी खुशबू बिखेर रही है।
          इसके विपरीत जब वह दुखों और परेशानियों से घिरा होता है तो उसे लगता है कि सारा जमाना उसका दुश्मन हो गया है। ईश्वर भी उससे नाराज होकर परेशान कर रहा है। सारी प्रकृति उसे उदास और बदरंग दिखाई देती है। उस समय उसे ऐसा लगता है मानो उसके साथ ही वह उत्साह रहित हो गई है। हर इन्सान उसका उपहास कर रहा है।
         मनुष्य के मन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि भाव होते हैं तो उसे चारों ओर नफरत का व्यापार होता दिखाई देता है। तब उसे लगने लगता है कि आपसी भाईचारा सब खत्म हो गया है और सभी एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे हुए हैं। परस्पर नफरत के कारण कोई किसी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहता, सबका खून सफेद हो गया है।
           क्रोधित होने पर वह दुनिया को आग लगा देना चाहता है। मन में प्यार का भाव आने पर सभी उसे अपने लगने लगते हैं। उसे लगता है यह संसार मानो प्यार का सागर है जिसमें नहाकर सभी सराबोर हो रहे हैं। सब कुछ अच्छा और भला प्रतीत होता है। वह स्वयं भी सबसे प्रेम से मिल-जुलकर रहना चाहता है।
           चोर को सभी लोग चोर दिखते हैं। हेराफेरी व चालबाजी करने वाले को सभी हेराफेरी करने वाले और चालबाज दिखाई देते हैं। भ्रष्टाचारी, चोरबाजारी करने वाले को सब भ्रष्ट लगते हैं।
          सरल व सहज स्वभाव वालों को सभी सरल और सीधे लगते हैं। सज्जनों  को सब सज्जन लगते हैं और मूर्खों को सब मूर्ख। पागल पूरी दुनिया को ही पागल समझते हैं। वीरों के लिए सभी वीर होते हैं और कायरों के लिए सब कायर होते हैं। सच्चे लोगों को सब सच्चे और झूठों को सब झूठे लगते हैं। इसीलिए असत्यवादी किसी पर विश्वास नहीं करते।
         रैदास जी ने कहा था-
          मन चंगा तो कठौती में गंगा।
अर्थात् यदि मन शुद्ध पवित्र हो तो उनके पास जो कठौती है, उसमें रखा हुआ पानी गंगाजल हो सकता है।
         तुलसीदास जी ने भी मन के इन्हीं  भावों के विषय में कहा था-
         जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
अर्थात् जैसी मनुष्य की भावना होती है उसे ईश्वर उसी रूप में दिखाई देता है।
            तुलसीदास जी के कथन के अनुसार यदि हम विश्लेषण करें तो मनुष्य के मन के भावों के अनुसार ही उसे संसार और संसार के लोग दिखाई देते हैं।
            इन सबसे अलग हटकर अन्य जीवों के विषय में देखें तो कह सकते हैं कि पशु-पक्षी आदि अन्य जीव भी प्रेम, घृणा और हिंसा की भावना समझते हैं। प्रेम की बदौलत शेर जैसे खूँखार, हाथी जैसे शक्तिशाली और साँप जैसे जहरीले जीव पालतू बनाए जा सकते हैं।
         हम सार रूप में यही कह सकते हैं कि हमारे अन्तस् के भावों का प्रभाव दूसरे के ऊपर पड़ता है और उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 30 जुलाई 2017

देखी-सुनी पर विश्वास न करें

आँखों देखी और कानों सुनी हुई बात पर भी हमें पूर्णरूपेण विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि हम अधूरी बातें सुनकर ही किसी के प्रति अपनी राय बना लेते हैं जिसका दुष्परिणाम हमें समय आने पर भुगतना पड़ता है।
        लोग सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी व्यक्ति के विषय में धारणा बना लेते हैं जबकि वास्तविकता से उसका दूर-दूर तक लेना देना नहीं होता। सच्चाई के सामने आते ही मनुष्य को शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है और फिर वह बगलें झाँकने लगता है। ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करना चाहिए।
         आजकल टीवी पर अक्सर यह सब दिखाई देता है। वहाँ किसी वाक्य विशेष पर टीका-टिप्पणी अथवा चर्चाएँ नित्य होती रहती हैं। बाद में संबंधित व्यक्ति यह कहकर अपनी सफाई देता है कि मैंने जो इस वाक्य से पहले कहा था या उसके बाद, सारे प्रसंग को मिलाकर देखिए फिर कथन का अर्थ कीजिए। इस प्रकार कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
          सयाने हमें सोच-समझकर बात करने के लिए कहते हैं-
                 'पहले तोलो फिर बोलो।'
यानि कि एक-एक शब्द को इस प्रकार सोचकर बोलो जिससे कोई उन शब्दों को अपने अनुसार ढालकर आपको अपमानित न कर सके। इसी कड़ी में आगे चेतावनी देते हुए कहते हैं-
                'दीवारों के भी कान होते हैं।'
इसका अर्थ यह नहीं है कि दीवारों के कान  लग गए हैं और उन्होंने ने सुनना शुरु कर दिया है। इसका अर्थ है कि कमरे के बाहर खड़ा हुआ कोई व्यक्ति शायद बात सुन रहा होगा। चोरी-छिपे दूसरों की बातों को सुनने वाले अक्सर गच्चा खा जाते हैं। पूरी बात न सुन पाने के कारण वे अधूरे विचारों को ही ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं तथा शत्रुता तक कर बैठते हैं। पूर्वाग्रह पाले हुए वे आजन्म इसे निभाने का प्रयास करते हैं।
        घर-परिवार में, बन्धु-बान्धवों में अथवा कार्यक्षेत्र में हर स्थान पर ही यह समस्या सामने आती है। लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में इस प्रकार के कुत्सित कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
          दूसरों की बातों को तोड़-मरोड़कर अथवा नमक-मिर्च लगाकर किसी व्यक्ति विशेष की छवि घर-परिवार में या साथियों में धूमिल करना चाहते हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि उन्हीं की तरह कोई अन्य व्यक्ति भी ऐसा घृणित खेल खेल सकता है। इस सबसे बचने के लिए मनुष्य को हर कदम पर सदा सतर्क रहना चाहिए। उसे सदा अपनी आँखों और कानों को खुला रखना चाहिए।
         मनुष्य को किसी के भी मुँह से कोई बात सुनकर तैश में नहीं आना चाहिए। उसे बात की तह तक जाना चाहिए। हो सकता है कि कहने वाले का वह तात्पर्य कदापि न हो जैसा उसने सुन-समझ लिया हो। यदि बात को गहराई से समझने का मन न हो तो उस व्यक्ति से सीधी बात करके तथ्य को जाना जा सकता है।
        दूसरी बात यह कि दूसरे व्यक्ति को स्पष्टीकरण का मौका भी दिया जाना चाहिए। इससे अनावश्यक मन-मुटाव से बच सकते हैं। ऐसा यदि कर लिया जाए तो आपसी वैमन्स्य नहीं बढ़ता। न अपने मन को कष्ट होगा न दूसरे का दिल दुखता है। ऐसे समझदार व्यक्ति की संसार में सभी लोग सराहना करते हैं कि बड़ी सूझबूझ से समस्या को हल कर लिया।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

शनिवार, 29 जुलाई 2017

स्वार्थ से ऊपर उठें

अपने झूठे अहं के कारण जो मनुष्य दूसरों की सहायता नहीं करता वह खाली हाथ रह जाता है। वह चाहे कितनी ही सुख-समृद्धि जुटा ले पर उसे मानसिक सन्तोष नहीं मिलता। वह सदा ही किसी-न-किसी कारण से भटकता रहता है। यह भटकाव उसे आजीवन परेशान करता रहता है। वह उसके सुख-चैन पर सदा घात लगाए बैठा रहता है। मनुष्य यदि दूसरों की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से तत्पर हो जाए तो उसके बिना माँगे ही उसकी झोली में सब कुछ आ जाता है।
           एक दृष्टान्त याद आ रहा है। एक बार देवताओं और असुरों को अलग-अलग मेज पर भोजन करने के लिए बिठा दिया गया। उनके सामने शर्त रखी गई कि उनकी बाहों में खप्पचियाँ बाँधी जाएँगी और उन्हें बंधे हाथों से उन्हें भोजन समाप्त करना है।
          तब उनको खप्पचियाँ बाँध दी गईं और फिर उनके समक्ष भोजन को परोस दिया गया। उनको खाना खाने के लिए आदेश दे दिया गया। देवताओं और असुरों दोनों ने ही बहुत प्रयास किया परन्तु बाहें न मोड़ पाने के कारण वे खाना खाने में सफल नहीं हो पाए। वे चम्मच में खाना भरकर मुँह की ओर ले जाते तो बंधे हाथ के कारण खाना उनके मुँह में न जाकर गिर जाता। अब वे दोनों ही परेशान होने लगे कि खाना कैसे खाया जाए?
           असुरों की प्रकृति होती है कि वे कभी मिल-जुलकर रह नहीं पाते, अपने अहं के कारण सदा झगड़ते ही रहते हैं। यहाँ भी मिलकर खाने के विषय में वे असुर सोच ही नहीं पाए। उनका भोजन नीचे धरती पर गिरकर बिखरता हुआ समाप्त हो गया और वे बिनखाए भूखे ही उठ गए।
            दूसरी ओर देवता थे जो सहिष्णु और सबके हितचिन्तक होते हैं। उन्होंने उपाय सोचा और उस पर अमल करने लगे। सभी देवता आमने-सामने होकर बैठ गए। चम्मच में भोज्य लेते और सामने वाले के मुँह में डालते। इस प्रकार एक-दूसरे की सहायता से उन्होंने भरपेट भोजन का आनन्द लिया। इस तरह उनकी बुद्धिमानी और परोपकार की भावना के कारण उनका भोजन व्यर्थ ही नष्ट नहीं हुआ और अपनी मेज से वे तृप्त होकर उठे।
           यह कथा हमें यही समझाती है कि दूसरों के हित की चिन्ता करने पर अपना हित स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। ईश्वर का न्याय है - 'इस हाथ दो और उस हाथ लो।' बार-बार हम इस सत्य को भूल जाते है और स्वार्थ के हाथों विवश हो जाते हैं। यह स्वार्थ हमारी कामनाओं की पूर्ति का मात्र साधन नहीं है अपितु हमें मूर्ख बनाकर दिन-रात हमें ठगता रहता है। इस तरह हम भी अनजान बनकर अपना तमाशा स्वयं ही बन जाते हैं।
          मनुष्य जितना अधिक स्व तक ही सीमित रहता है उसे परेशानियो का सामना करना पड़ता है। परन्तु जब वह स्व से ऊपर उठकर पर यानि दूसरों के बारे में सोचने लगता है तो उसे सहज ही वह सब प्राप्त हो जाता है जिसे वह अपनी कल्पना में ही पाता रहता है।
            इसीलिए हमारे मनीषी व्यष्टि(एक) से समष्टि(समूह या अनेक) की ओर चलने की बात करते हैं। यही कारण रहा होगा विश्व बन्धुत्व की कल्पना का जिसके लिए कहा जाता है-
                     ' वसुधैव कुटुम्बकम्'
अर्थात् सारी पृथ्वी अपना घर है।
          इस विचारधारा में सबको साथ लेकर चलने और मिल-जुलकर रहने की भावना बलवती होती है। हर मनुष्य को अपने घर-परिवार के आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता। उन्हीं के लिए ही वह जीता है और सारा जीवन खटता रहता है।
         अतः सम्पूर्ण ससार को यदि मनुष्य अपना परिवार ही मान ले तो सारे फसाद ही समाप्त हो जाएँगे। तब हर ओर से हम शुभ की ही कामना करेंगे। तब कोई स्वार्थ किसी पर हावी नहीं होगा। सब एक दूसरे का हित साधेंगे और सहायता करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

पूर्ण बनने के लिए

संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे हम पूर्ण कह सकें क्योंकि उसमेँ अच्छाई और बुराई दोनों का ही समावेश होता है। इसीलिए कभी वह गलतियाँ या अपराध कर बैठता है तो कभी महान कार्य करके अमर हो जाता है। यानी कि उसमें हमेशा स्थायित्व की कमी रहती है। यदि वह पूर्ण हो जाए तो भगवान ही बन जाएगा तथा ईश्वर कहलाने लगेगा।
         केवल और केवल वह परमपिता परमात्मा ही इस जगत में पूर्ण है। इसीलिए उसकी यह सृष्टि भी पूर्ण है। उसमें से कोई कमी नहीं निकाली जा सकती। वह मालिक सभी भौतिक गुण-दोषों से परे है, उसमें किसी प्रकार की कोई कलुषता नहीं हो ही सकती। इसीलिए हम सब उसे पूर्णब्रह्म कहकर सम्बोधित करते हैं और उसकी पूजा-अर्चना करके सदा ही उससे कुछ-न-कुछ माँगते रहते हैं। उसके विषय में निम्न मन्त्र कहता है-
            ऊँ पूर्णमिद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदुच्यते।
            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात- वह जो दिखाई नहीं देता है पर वह पूर्ण है। वह दृश्यमान जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण है। क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण से उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण को निकाल भी दिया जाए तब भी पूर्ण ही शेष बचता है।
        यह पूर्णता कहलाती है जहाँ अपूर्ण होने का कोई भाव ही नहीं है। सब तरह से हमें उसकी पूर्णता का साक्षात्कार होता है। उसमें से कुछ ले भी लिया जाए तब भी सागर के जल की तरह वह सदा पूर्ण ही रहता है।
        यह सत्य है कि इन्सान पूर्ण नहीं हो सकता पर पूर्णता को प्राप्त करने का प्रयास अवश्य कर सकता है। इस बात से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हर मनुष्य की अपनी एक शक्ति होती है और उसी प्रकार उसकी कोई-न-कोई कमजोरी होती है। उसी के आधार पर समाज में उसकी एक निश्चित पहचान बन जाती है।
         इस असार संसार के किसी मनुष्य के पास धनबल होता है। किसी अन्य व्यक्ति के पास विद्याबल होता है। दूसरे किसी के पास सत्ता का बल होता है। कुछेक के पास शारीरिक बल होता है। कुछ ऐसे सन्त प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके पास आत्मिक शक्ति होती है। इनके अतिरिक्त वे लोग होते हैं जो अपने घमण्ड में सदा ही चूर रहते हैं। वे उसे ही अपनी शक्ति मानकर इतराते रहते हैं।
        बल या शक्ति की ही भाँति हर मनुष्य की अपनी-अपनी कमजोरी भी होती है। शारीरिक बल या आत्मिक बल अथवा मानसिक बल किसी की भी कमी मनुष्य मे हो सकती है। इनके अतिरिक्त धन, विद्या, अनुभव जन्य ज्ञान, अनुशासन में से किसी एक की भी कमी उसकी कमजोरी बन जाती है। और भी मनुष्य की कमजोरियाँ हो सकती हैं यथा पानी को देखकर डरना, ऊँचाई से घबराहट, अग्नि से भय, किसी पशु विशेष से डर जाना, कहीं भी भीड़ को देखकर परेशान हो जाना आदि।   
         समझदार मनुष्य वही है जो अपनी ताकत या शक्तियों का अनावश्यक प्रदर्शन न करे। जिससे लोग उसकी ताकत का दुरूपयोग करने के लिए उसे उकसाने न लग जाएँ। यदि मनुष्य उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों के झाँसे में आ गया तो उसका विनाश निश्चित समझ लीजिए। इसका कारण है कि अपनी चाटुकारिता होती देखकर वह जीवन की वास्तविकता से विमुख होने लगता है। वह उसे ही सच्चाई मान लेता है।
        अपनी कमजोरियों को भी दूसरों के सामने प्रकट न होने दे जिससे किसी को उसका उपहास उड़ाने का अवसर न मिल सके। इससे उसका मनोबल कमजोर नहीं पड़ेगा।
     जिस प्रकार मछली पेड़ पर नहीं चढ़ सकती और पशु, पक्षी या इन्सान पानी में अपना घरौंदा नहीं बना सकते। सबके लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हैं। उसी प्रकार मनुष्य की शक्ति अथवा कमजोरी उसके गले की हड्डी नहीं बनने चाहिए। उसे अपनी शक्ति का उपयोग देश, धर्म, परिवार, समाज की भलाई के लिए करना चाहिए। इसी तरह अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करके चमत्कार करने उसे निरन्तर आगे बढंना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

जीवन साथी का चुनाव

हर युवा अपने जीवन साथी को लेकर एक सपना बुनता है। यह निश्चित है कि वह अपने जीवन साथी में कुछ विशेष गुणों को देखना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है। वह अपने साथी को अपने ही सोचे हुए उन मापदण्डों पर खरा उतरता हुआ देखना चाहता है।
        आज युवाओं में प्रेम के मायने बदल गए हैं। भौतिक युग की चकाचौंध ने उनकी आँखों पर पैसे की पट्टी बाँध दी है। पैसे के पीछे भागते हुए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। आपसी विश्वास और वचनबद्धता टूटती हुई दिखाई देती है। सभी तो नहीं परन्तु शायद कुछ युवा मौज मस्ती को ही सब कुछ मानने लगे हैं। इसीलिए उनमें प्रायः वैमनस्य की स्थितियाँ बन जाती हैं।
          युवाओं को अपने भावी जीवन के प्रति सजग रहना चाहिए। उन्हें यथासम्भव ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जो भविष्य में उनके लिए मुसीबत बन जाए। उनका नया गृहस्थ जीवन सुखदायी होने के बजाय कष्टदायी बन जाए। फिर उस समय चिड़िया हाथ से निकल जाने के बाद पश्चाताप करने जैसी स्थिति बन जाती है। तब युवा से न उगलते बनता है और न ही निगलते।
          युवाओं को अपने जीवन साथी का चुनाव करते समय सबसे पहले उसके गुण, कर्म व स्वभाव को परखना चाहिए। उसके चरित्र अथवा चाल-चलन को महत्त्व देना चाहिए। जो व्यक्ति अपने घर-परिवार में मिलजुल कर नहीं रह सकता वह किसी के साथ भी सामञ्जस्य नहीं बिठा सकता। उसकी संगति कैसी है? वह किन लोगों के साथ उठता-बैठता है? यह जानना भी बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि उसकी संगति अच्छे लोगों से नहीं होगी तब वह अपनी कमाई तो बरबाद करेगा ही, साथ ही माता-पिता की मेहनत से कमाई गई धन-संपत्ति को नष्ट करने में देर नहीं लगाएगा। घर के माहौल को देखते ही सयाने लोग बहुत कुछ समझ जाते हैं। इसलिए उनकी राय को महत्त्व देना चाहिए।
           फिल्मों व टीवी की चकाचौंध को देखकर आजकल कुछ नवयुवक फिल्मी हीरोइनों जैसी पत्नी चाहते हैं और नवयुवतियाँ फिल्मी हीरो जैसे पति चाहती हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि फिल्म वाले सिर्फ़ अपने किरदार का फिल्मी तरीके से पर्दे पर अभिनय करते हैं। असल जीवन में वे भी आम लोगों की ही तरह अपने घर-परिवार के लिए समर्पित होते हैं।
           दो युवाओं को परस्पर संबंध जोड़ते समय यह बात अवश्य सोचनी चाहिए कि उस घर में पैसा यदि अपनी अपेक्षा से थोड़ा कम भी हो परन्तु परिवारी जन आपस में सामञ्जस्य पूर्वक रहते हैं, वे प्यार को ही अपनी पूँजी मानते हैं तो ऐसे घर में किया गया बच्चों का संबंध हमेशा सुखदायक होता है। ऐसे परिवारों में प्रायः तालमेल बिठाने में अधिक दिक्कतें नहीं आतीं।
         आज का युवावर्ग बहुत समझदार है वह अपना भला-बुरा अच्छी तरह जानता है। उसे बस जरा-सी सूझबूझ से सम्हालने की आवश्यकता है। यदि सकारात्मक राह उसे दिखाई जाए तो वह निश्चित ही सही फैसले लेगा। अपने जीवन में वह कभी पीछे मुड़कर देखने की स्थिति में नहीं भटकेगा। स्वयं तो वह सही राह पर चलेगा ही और देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनकर वह आने वाली पीढ़ी का भी सही मार्गदर्शक बनेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

बुधवार, 26 जुलाई 2017

जीवनकाल में सुरक्षा

पति और पत्नी दोनों को सामंजस्य पूर्वक जीवन बिताना चाहिए। अपने जीवनकाल में और मृत्यु के पश्चात अपनी सुरक्षा के बारे में समय रहते सोचना चाहिए। आज आपाधापी के समय दोनों ही कार्य करते हैं। अच्छा तो यही है कि एक-दूसरे के बैंक अकांऊट, बैंक लाकर, धन-संपत्ति, लेनदेन, इन्श्योरेंस पालिसी, शेयर आदि के बारे में दोनों ही को जानकारी होनी चाहिए। कई लड़कियों को उनके माता-पिता धन-संपत्ति देते हैं। उसका भी दोनों को ही पता रहना चाहिए। यदि दोनों को सारी जानकारी रहे तो एक साथी के काल कवलित हो जाने पर दूसरे साथी को किसी तरह की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पडता।
        यदि दोनों में ऐसा विश्वास व तालमेल नहीं हो तो एक-दूसरे के अंजान रह जाने पर सब बरबाद हो जाता है। बहुत-सी धन-संपत्ति जो बेनामी होती है वह हाथ नहीं आती। इस तरह मेहनत की कमाई व्यर्थ चली जाती है। जिस परिवार को सुरक्षित रखने के लिए दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत की वह उनके काम नहीं आती।
        जहाँ पत्नी नौकरी नहीं करती वहाँ पति का दायित्व और बढ़ जाता है। हर समझदार पति का कर्तव्य है कि वह ऐसा कार्य करे जिससे उसकी पत्नी व बच्चे उसके जीवनकाल में तो सुख-सुविधाओं का भोग तो करें ही पर उसकी मृत्यु के बाद भी सुरक्षित रहें। यथासमय पत्नी व बच्चों की यथोचित सुरक्षा हेतु वसीयत तैयार करवा ले। इससे उसकी मृत्यु के उपरान्त उसकी विधवा पत्नी व बच्चों को उनका हक मिल सके ताकि उनको दरबदर की ठोकरें न खानी पड़ें। ऐसा देखा गया है कि कई बार विधवा बहु को ससुराल वाले सम्पत्ति के लालच में परेशान करते हैं और घर तक से निकाल देते हैं। लालच में अंधे होकर वे  अपने पोते-पोतियों तक की परवाह नहीं करते। उन्हें धन-सम्पत्ति से बेदखल करके ठोकरें खाने के लिए छोड़ देते हैं।
         ऐसी स्थिति में उसके पास अपने मायके जाने का विकल्प बचता है। परन्तु वहाँ भी भाई-भाभी इस महंगाई में अपना भरण-पोषण करने के लिए परेशान रहते हैं। फिर दो-तीन लोगों का अनावश्यक बोझ वे नहीं उठा पाते या उठाना ही नहीं चाहते। अतः वहाँ भी उन्हें ठौर नहीं मिल पाता।
       जहाँ लड़की को सम्हालने के लिए माता या पिता अथवा दोनों ही हैं वहाँ पर बात अलग होती है। आज इक्कीसवीं सदी में बहुत-सी लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण करके अपने पैरों पर खड़ी हैं। वे तो कुछ हद तक परिस्थितियों को झेल लेती हैं। पर यदि किराए के मकान में रहना पड़ जाए तो फिर समस्याओं का अंबार लग जाता है।
      बच्चे जब अपने जीवन में सेटल हो जाते हैं और तब यदि पति की मृत्यु होती है तो भी पत्नी के लिए सब कुछ इतना सरल नहीं होता। आजकल बहुत से स्वार्थी बच्चे ऐसे हैं जो अपनी असहाय माँ के विषय में नहीं सोचते। यदि माँ के नाम धन-संपत्ति हो तो  लालच के कारण उसे सम्मान दे दिया जाता है। परन्तु यदि माँ के नाम पर कोई वसीयत नहीं की गई हो तो नालायक सब कुछ धोखे से हड़प कर लेते हैं।
          अपनी ही जननी को धक्के खाने के लिए बेसहारा छोड़ देते हैं। ये अपने माता-पिता के अहसानों को भी भूल जाते हैं। ऐसे बच्चे एहसान फरामोश होते हैं जो अपने माता-पिता के अहसानों को भी भूल जाते हैं।
         पति-पत्नी दोनों ही थोड़ी समझदारी यदि दिखाएँ तो एक के जाने के बाद दूसरा असहाय अनुभव नहीं करता। इसलिए सभी सुधीजनों को उचित समय पर इस परेशानी से बचने का उपाय सोच लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

अति से बचें

किसी भी चीज की अति कभी भी अच्छी नहीं होती, चाहे फिर वह किसी भी कारण से हो। कहते हैं-
             अति भली न बरसना अति भली न धूप।
             अति भली न बोलना अति भली न चुप॥
      यह दोहा हमें समझा रहा है कि यदि वर्षा अधिक होगी तो चारों ओर जलथल हो जाएगा। बाढ़ के प्रकोप जान-माल की हानि होगी। बीमारियाँ परेशान करेंगी। अनाज बरबाद होगा और मंहगाई बढ़ेगी। इसी तरह सूर्य के प्रकोप से चारों ओर गर्मी की अधिकता होगी। सूखा पड़ेगा और हम दाने-दाने के लिए तरसेंगे।
        दूसरी पंक्ति में कवि चेतावनी दे रहा है उन लोगों को जो बहुत बोलते हैं। अनावश्यक प्रलाप करते समय वे प्रायः मर्यादा की सीमा लांघ जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे न कहने वाली बात कह देते हैं जो झगड़े-फसाद का कारण बनती है। ऐसा व्यक्ति हवा में रहता है और झूठ-सच भी करता है। शुरू-शुरू में तो हो सकता है उसकी वाचालता अच्छी लगे परंतु कुछ समय बीतने पर वह भार लगने लगती है।
       इसके विपरीत बिल्कुल चुप रहने वाले को भी लोग पसंद नहीं करते। उसे घमंडी, अव्यवहारिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। यह सत्य है-
           'एक चुप सौ सुख' या 'एक चुप सौ को हराए'।
चुप रहना एक बहुत बड़ा गुण है। यह हमारे धैर्य व सहनशीलता का प्रतीक है पर अति चुप हमारा अवगुण बन जाता है।
        इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, धन लिप्सा, पद लालसा, आदर्शवादिता, सच्चाई, ईमानदारी, आग्रह-विग्रह आदि में से किसी भी गुण-अवणुण की अति बहुत दुखदायी होती है। इन्हीं की अति के कारण हर प्रकार के अनाचार व कदाचार मनुष्य कर बैठता है, जिसका खामियाजा उसे बाद में भुगतना पड़ता है। तब उसे पश्चाताप करने का अवसर भी ईश्वर नहीं देता।
         हर गुण की जीवन में आवश्यकता होती है पर जब अति होकर वह हमारे लिए झंझाल बन जाए तो उसका त्याग करना चाहिए। क्योंकि-
                  'अति सर्वत्र वर्जयेत्'
अर्थात् अति को हर जगह छोड़ देना चाहिए या यूँ कहें यथासंभव अति से बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp