गुरुवार, 31 अगस्त 2017

अच्छाई और बुराई का संघर्ष

अपने इर्दगिर्द चारों ओर बुराई को फलते-फूलते देखकर और अच्छाई को हैरान-परेशान देखते हुए लोग बहुत घबरा जाते हैं। ऐसा लगने लगता है कि जब बुराई का ही बोलबाला होना है तो फिर अच्छा बनाने का कोई लाभ नहीं, बुरा बनाना ही ज्यादा लाभदायक है। परन्तु यह सोच सर्वथा गलत है। मनुष्य को बुराई से लड़कर उसे परास्त करने का साहस जुटाना चाहिए।
         दूसरों की होड़ में बुराई के मार्ग को नहीं अपनाना चाहिए। यह मार्ग शार्टकट वाला होता है। यानी काम समय में बहुत कुछ पा लेना। बुराई का मार्ग दूर से बहुत लुभावना प्रतीत होता है। आरम्भ में उसमें आकर्षण दिखाई देता है। लगता है इस रास्ते में मौज-मस्ती है, ऐशो-आराम है, एक रुतबा है। कोयले की दलाली में जैसे हाथ काले हो जाते हैं उसी प्रकार कुछ दूर उस रास्ते पर चलने के पश्चात ज्ञात होता है कि वह व्यक्ति सिर से पैर तक दलदल में डूब गया है। वह कितने ही हाथ-पैर मार ले वहाँ से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाता है। फिर उसके दुष्ट साथी अपने रहस्य प्रकट हो जाने के डर से उसे निकलने भी तो नहीं देते।
        बुराई हमें पल्लवित और पोषित होते हुए दिखाई अवश्य देती है। उसका कारण है कि उसका शोर बहुत होता है, उसकी चर्चा अधिक होती है। मुट्ठी भर बुरे लोग समाज की नजरों में आधिक खटकते हैं। उन्हें उखड फैकने के प्रयास समय-समय पर होते रहते हैं। बुराई चाहे सतयुग में हुई हो या त्रेतायुग में या द्वापरयुग में, सदा ही उसका अन्त हुआ है। इसीलिए मनीषी कहते हैं - 'बुरे का अन्त बुरा।'
         अच्छाई का मार्ग लम्बा और काँटों भरा होता है। ईश्वर कदम-कदम पर परीक्षा लेता रहता है। वह भी सुपात्र की तलाश में रहता है। एक बार जब मनुष्य जीवन की परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाता है तब फिर मनुष्य को कभी पीछे मुड़कर देखने आवश्यकता नहीं रह जाती। उसे वह सब कुछ सहजता से प्राप्त हो जाता है, जिसकी उसे आवश्यकता होती है।
       इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य की परीक्षा निश्चित है। अच्छाई की परीक्षा पहले होती है और फिर बाद में उसे आनन्द मिलता है, घर-परिवार और समाज का सहचर्य मिलता है। इसके विपरीत पहले सब्जबाग दिखाने वाली बुराई जब बाजी हार जाती है तब मनुष्य को तोड़कर रख देती है। उसे अपनों से और इस समाज से कटकर अन्धेरों में खो जाना पड़ता है। उस समय अकेलापन ही उसका एकमात्र साथी रह जाता है। उसके उदाहरण खोजने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग हमें आपने आसपास ही मिल जाएँगे।
       अच्छाई और बुराई की जंग  हमेशा से चलती आई है। कभी किसी का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी किसी का। यह तो प्रकृति का नियम है, जो परिवर्तन करती रहती है। अच्छे यानी सज्जन लोग और बुरे यानी बुरे या दुष्ट लोग एक साथ समाज में रहते हैं, तभी सृष्टि का संतुलन बना रहता है। यदि सदा ही हर स्थान पर बुराई रहेगी तो सृष्टि में हाहाकार मच जाएगा। सब बुरा ही होगा। इसी तरह यदि सर्वत्र अच्छाई हो जाएगी तो भी बात नहीं बनेगी।
         इस तरह मनुष्य बोर होने लगेंगे। उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। दुनिया का आकर्षण ही समाप्त हो जाएगा। हर मनुष्य को विविधता में ही आनन्द आता है। अच्छाई को सभी लोग प्यार और श्रद्धा से स्मरण करते हैं जबकि बुराई का नाम लेते ही उनके मुँह का जायका बिगड़ जाता है। उसे वे नफरत से याद करते हैं।
         इस सत्य को सबको सदा ही स्मरण रखना चाहिए कि अन्ततः जीत अच्छाई की ही होती है, बुराई की कदापि नहीं। सच्चाई के मार्ग पर चलना सदा ही श्रेयस्कर होता है। इसलिए बुराई के लुभावने आकर्षणों के मकड़जाल को दूर से ही सलाम करके आगे बढ़ जाना चाहिए। अच्छाई के मार्ग पर आई बाधाओं को हँसते हुए पार करके मनुष्य को जीवन का वास्तविक सुख भोगना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 30 अगस्त 2017

चरण स्पर्श?

तपस्वी, साधकों अथवा धर्मगुरुओं को स्त्रियों से दूर रहने के लिए शास्त्र आदेश देते हैं। उसी प्रकार स्त्री साधकों को भी पुरुषों से दूर रहने का निर्देश शास्त्र देते हैं। स्त्रियों के लिए अपने पति के अतिरिक्त किसी भी अन्य पुरुष का चरण स्पर्श करना वर्जित माना गया है। इसी प्रकार पुरुषों के लिए भी विधान है कि वे किसी महिला साधु का चरण स्पर्श न करे।
        इसके पीछे जो तर्क मुझे समझ आता है, वह यह है कि समाज में किसी प्रकार का अनाचार और कदाचार न फैलने पाए। इस तरह यदि व्यभिचार फैलेगा तो सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। इसका कारण है कि स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध आग और घी का माना जाता है। इसलिए उनका संयोग कष्टदायी होग। यही कारण है कि हमारे दूरदर्शी महान ऋषियों ने एक सुदृढ़ विवाह संस्था की परिकल्पना की। इससे सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है और समाज में किसी प्रकार के दुराचरण की कोई गुँजाइश ही नही रहती।
          इस विषय पर मैं बहुत प्रसिद्ध दो उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहती हूँ। महर्षि विश्वामित्र उच्चकोटि के परम तपस्वी थे। देवलोक की अप्रतिम सुन्दरी अप्सरा मेनका के जल में फंसकर पथभ्रष्ट हो गए। जब उन्हें होश आया, तब तक वे अपना तपोबल नष्ट कर चुके थे। बहुत वर्षों की कठोर तपस्या के पश्चात् उन्होंने पुनः अपना स्थान ऋषियों में बनाया।
         दूसरे गुरु मछन्दरनाथ जी हैं जो अपनी तपस्या भूलकर गृहस्थी के चक्कर में पड़कर अपने गुरुपद से च्युत हो गए। यह उनका सौभाग्य था कि गुरु गोरखनाथ जी जैसा शिष्य उन्हें मिला था। गोरखनाथ जी उन्हें उस संसार से साधना के पथ पर वापिस लेकर गए।
         इन दोनों उद्धरणों को लिखने का उद्देश्य यही है कि स्त्री और पुरुष दोनों दो ध्रुवों की भाँति हैं। विपरीत लिंगी होने का आकर्षण इन दोनों के मध्य रहता है। इसीलिए शास्त्र स्पष्ट निर्देश देते हैं कि पिता और पुत्री को अथवा भाई और बहन को भी एक कमरे में अकेले नहीं बैठना चाहिए। इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सभी पुरुष कुकर्मी या बलात्कारी होते हैं। इसका अर्थ यह लगाना चाहिए कि ऐसी परिस्थितियों से बचाना चाहिए, जिसमे कोई भी पक्ष अपना संयम खो बैठे।
        नकारात्मक विचार रखने वाले किसी महानुभाव ने 'नारी नरक का द्वार है' कहकर अपनी नाकामयाबी को प्रकट किया है। नारी यदि नरक का द्वार है तो पुरुष को क्या कहा जाए?
        यह कहना कि सारा दोष स्त्री का है उचित नहीं है। यदि नारी अपने हावभाव से पुरुष को रिझाती रहती है तो पुरुष भी कोई दूध का धुल हुआ नहीं है। वह भी स्त्री को अपने वश में करने के लिए तरह तरह के जाल बिछाता रहता है। कभी प्यार से और कभी बलपूर्वक उसे पाना चाहता है। उसे सब्जबाग दिखाता है। फिर अपना स्वार्थ निकल जाने पर दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह बाहर फैंक देता है।
         मनीषी हमें समझाते हैं - 'मातृवत् परदारेषु' यानी दूसरे की या पराई स्त्री को माता के सामान मानो। यह कहकर शास्त्र ने पुरुषों के लिए मर्यादा की एक सीमारेखा खींची है। गुरु को पिता की श्रेणी में रखकर गुरु को शासित किया है। उसका दायित्व बनता है क़ि वह अपने पास आने वाले भक्तों या शिष्यों को अपनी सन्तान की तरह ही माने।
         इस विवरण से हमें यही समझना चाहिए कि चाहे धर्मगुरु हो या साधु-सन्त, सबको अपनी-अपनी मर्यादा में ही रहना चाहिए। तभी समाज का सन्तुलन बना रहता है। स्त्रियों से भी अनुरोध है कि यदि वे किसी धार्मिक स्थान, किसी सभा या धारण किए हूए गुरु के पास कभी अकेले न जाएँ।  अपने मित्रों, पारिवारिक सदस्यों या अपने पति के साथ ही जाएँ। इस प्रकार तथाकथित ढोंगी साधुओं, तान्त्रिकों, मान्त्रिकों के चंगुल से बचा जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 29 अगस्त 2017

परिवार का विघटन

परिवारों का विघटन या टूटकर बिखरना बहुत ही दुखदाई है। भारतीय संस्कृति में परिवार एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण इकाई है। कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इसमें कभी ऐसी स्थिति बन सकती है। इसका कारण चाहे कोई भी हो सकता है, पर इसका परिणाम  वास्तव में चिन्तनीय है। परिवार के हर सदस्य को चाहे-अनचाहे इस दंश को सहने के लिए विवश होना पड़ता है।
        कुछ लोगों का मानना है कि जब लोग अनपढ़ हुआ करते थे तब परिवार एक होते थे। टूटते परिवारों के मूल में अक्सर पढ़े-लिखे लोग दिखाई देते हैं। इस वक्तव्य में कितनी सच्चाई है, इस पर विचार करते हैं। इन लोगों का कथन है कि पढ़-लिखकर मनुष्य का दिमाग खराब हो जाता है। वह अपनी बराबरी में किसी को देखना नहीं चाहता। उसे अपने समक्ष सभी बौने प्रतीत होते हैं। उसे इस बात का अहं होता है कि उसने उच्च शिक्षा प्राप्त करके कोई किला फतह कर लिया है।
        अपने उस नशे में आज युवा अपने माता-पिता को मूर्ख समझने की भूल करने लगा हैं। उसे सदा स्मरण रखना चाहिए क़ि यदि वे न होते तो उसकी यह जीवन यात्रा इतनी सरल न होती। दुनिया में मनुष्य के माता-पिता ही सिर्फ ऐसे होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के अपनी सन्तान से प्यार करते हैं। इसलिए अपनी सफलता का रौब उन्हें कभी नहीं दिखाना चाहिए। वे अपनी जिन्दगी को प्रसन्नता से स्वयं हार करके अपने बच्चों को जीवन में विजयी बनाते हैं, सफल बनाते हैं।
       मेरे विचार में अकेले पढाई-लिखाई को परिवारों के टूटने का कारण मानना पूर्णत: समीचीन नहीं होगा। इसका सबसे बड़ा कारण जो मुझे प्रतीत होता है, वह है आधुनिक जीवन शैली। जब तक घर का हर सदस्य कार्य न करें तो इस मँहगाई के समय में गुजर बसर करना वाकई कठिन हो जाता है। यह आवश्यक नहीं कि जहाँ वे रहते हैं, वहीँ पर ही उन्हें कार्य मिल जाए। इसलिए जहाँ पर भी नौकरी की मिलती है, उन्हें वहाँ जाना पड़ता हैं। इस तरह वे घर परिवार से दूर हो जाते हैं।
         इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे युवा भी हैं जिन्हें उच्च पद और मोटा वेतन मिलने लगता है तो वे घर के लोगों को किसी भी शर्त पर सहन नहीं कर पाते। मौका मिलते ही अपने घर-परिवार से अलग होकर रहने लगते हैं। कुछ युवा ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त करके विदेश जाकर ही उनका भविष्य संवर सकेगा। अतः वे सबसे दूर चले जाते हैं।
         घर के सभी बच्चों की शिक्षा, ज्ञान, आर्थिक स्थिति एक जैसी नहीं होती। जो अधिक कमाता है, वह सोचता है कि मेरे ऊपर अधिक भार पड़ेगा। मुझे हमेशा ही अधिक हिस्सा देना पड़ेगा। मुझे ऐसी क्या जरूरत  पड़ी है कि मै अपनी आर्थिक हानि करूँ। इसलिए भी कुछ युवा स्वार्थवश, अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण घर से अलग हो जाते हैं।
         गाँवों, कस्बों, छोटे शहरों में कमाई के सीमित साधन होते हैं। इसलिए भी युवा बड़े शहरों में कमाने के लिए अपने घर को छोड़कर अपनों से दूर चले जाते हैं। यहाँ पढ़े-लिखे, काम पढ़े अथवा उच्च शिक्षा प्राप्त कोई भी युवा हो सकते हैं।
         भाइयों में जमीन-जायदाद को लेकर या किसी अन्य कारण से परस्पर सौहार्द की जब कमी हो जाती है तब लड़ाई-झगडे होते रहते हैं। इस कारण भी कुछ युवा अपने घर से दूर चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त व्यापार को देश के दूसरे शहरों या विदेश में बढ़ाने के लिए भी घर से दूरी बन जाती है।
        इन सब कारणों से बढ़कर जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारण है, वह है संस्कारों की कमी। माता-पिता सारी आयु सम्बन्धों से अधिक धन को महत्त्व देते हैं। वही संस्कार बच्चों में भी आते हैं। यदि बच्चों को तोड़ने के स्थान पर जोड़ने के संस्कार दे, मिलजुलकर रहने, सहिष्णुता बनाए रखने या पारिवारिकता की शिक्षा दे तो निश्चित ही पारवारिक विघटन से हम अपने घरों को बचा सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 28 अगस्त 2017

धर्म जीवन यापन का माध्यम

धर्म की हम सब मनुष्यों के जीवन में बहुत आवश्यकता है। धर्म के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। सभी भारतीय धर्मशास्त्र सदा हमें अपने धर्म का पालन करने का सद् परामर्श देते हैं। विश्व का कोई भी धर्म मनुष्य को कभी यह नहीं सिखाता कि वह स्वार्थी बनकर दूसरों के रास्ते में काँटे बिछाए और सभी के लिए मुसीबत ही बन जाए।
        जहाँ धर्म को जीवन यापन का प्रधान साधन माना जाता था वहीं अब कुछ लोग इसे पतन का कारण मानने लगे हैं। इसका कारण है कि कुछ मुट्ठी भर लोग अपने कुत्सित स्वार्थों के चलते ईर्ष्या-द्वेष की नीति अपना रहे हैं। धर्म के नाम पर खूनी खेल खेल रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि ये कार्य किसी भी देश या किसी काल में स्वीकार्य नहीं किए गए।
          आज पूरे विश्व में कुछ लोग धर्म के नाम पर आतंक का साम्राज्य फैलाकर सब की शांति भंग करना चाहते हैं। यहाँ वहाँ हर जगह बम ब्लास्ट करना, मानव बम बनाकर विध्वंस करना, आगजनी करना, लूटपाट करना, छोटे-छोटे बच्चों को अनाथ व बेसहारा बना देना आदि अमानवीय कृत्य कदापि क्षम्य नहीं हो सकते।
       केवल आत्मतोष के लिए दूसरों के प्राणों को मिट्टी की भाँति समझने की वे भूल कर बैठते हैं। धर्म मनुष्य को पतन के मार्ग से बचाकर सन्मार्ग की ओर ले जाता है। परन्तु वे भूल रहे हैं कि ईश्वर द्वारा निर्मित इस सुन्दर सृष्टि को नष्ट करने का अधिकार उस मालिक ने किसी को नहीं दिया है।
          धर्म के नाम पर जो असहिष्णु बनने का प्रयास करते हैं उन लोगों को सदा यह याद रखना चाहिए कि ईश्वर की इस सृष्टि में आतंक, ईर्ष्या, द्वेष आदि असामाजिक एवं अमानवीय कार्यो का कोई स्थान नहीं है। उसकी रचना को कोई नष्ट करे अथवा बिगाड़ने का यत्न करे यह उसे बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है।
      हम सांसारिक मनुष्यों में यह सामर्थ्य नहीं है कि उसकी सत्ता को चुनौती दे सकें। उसकी लाठी बिना आवाज के चलती है। जब वह वार करती है तो सबको हिलाकर रख देती है। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि जितने भी अहंकारियों ने उसे चुनौती देने का यत्न किया उनका अंत कैसा हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। जितने भी आततायी राजा आदि इस संसार में हुए हैं उनके अंत का गवाह इतिहास है।
        धर्म मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। वह अत्याचार का विनाश करके सदा धर्मराज्य की स्थापना करता है। भगवान राम और कृष्ण इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जिन्होंने दम्भी रावण व कंस का विनाश करके इस देश धर्म की स्थापना की। गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने पुत्रों को दीवार में चुनवा दिया। मीरा बाई ने विष का प्याला पिया। धर्म के लिए ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विष पान किया।
          धर्म सुसंस्कारों को देने वाला एक माध्यम ही रहने दें तो अच्छा होगा। इसके नाम पर राजनीति करना या खून-खराबा करने की स्वतन्त्रता किसी को भी नहीं दी जा सकती। हमारे कामों में कोई भी दखल अंदाजी करे यह हमें बिल्कुल भी सहन नहीं होता तो वह मालिक इसे क्यों पसंद करने लगा? जगत की उत्पत्ति, पालन व संहार उस जगतपिता के काम हैं। उसके कामों में टाँग अड़ाना छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। उस प्रभु की सता को चुनौती देने के स्थान पर उसकी इच्छा के आगे सिर झुकाकर उसके बनाए नियमों का पालन करना चाहिए। इस प्रकार करने में ही मानव जाति का भला हो सकता है और चारों ओर सौहार्द व सुख-शांति बनी रह सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 27 अगस्त 2017

हिंसा मान्य नहीं

हिंसा किसी भी प्रकार की हो, सभ्य समाज में कदापि, किसी भी शर्त पर मान्य नहीं हो सकती। फिर वह चाहे किसी भी धर्म या जाति से सम्बन्धित हो अथवा राजनीति से ही प्रेरित क्यों न हो। अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए जन साधारण अथवा अपने देश के बहुमूल्य जान और माल को हानि पहुँचाना किसी भी तरह से बहादुरी का काम नहीं कहा जा सकता। ऐसे कार्य मानसिक विकृति वाले लोग ही कर सकते हैं। कोई भी विवेकी व्यक्ति ऐसे निन्दनीय कार्य करने से डरता है।
         घर-परिवार में एक-एक वस्तु को जोड़ते-जोड़ते वर्षों बीत जाते हैं। उसके लिए न जाने अपने कितने अरमानों का गाला घोंटा जाता है। दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह मनुष्य खटता रहता है, अपना आराम भी त्याग देता है, तब जाकर अपनी मनचाही सुख-सुविधाएँ बटोर पाने में वह समर्थ हो पाता है। उसकी गाढ़ी कमाई पल भर में कुछ मुठ्ठी भर सनकी लोग बरबाद कर देते हैं।
         सरकारी सम्पत्ति यानी सरकारी कार्यालय, बस, रेल या वाहनों आदि को आग के हवाले कर देने से कभी समस्या नहीं सुलझ सकती। इस तरह से जो भी करोड़ों रुपयों की बरबादी होती है, वह धन हम सभी इनकम टेक्स देने वालों के खून-पसीने की कमाई का होता है। इस तरह यह नुकसान हमारा ही तो होता है। इससे भी अधिक जिन असुविधाओं से आम जनता को परेशानियों का सामना करना पड़ता है, वह भी इसी हिंसक प्रवृत्ति का ही एक हिस्सा होता है।
         जितना समय हिंसक गतिविधियों होती रहती हैं, उतने समय तक स्कूल, कालेज, सरकारी अथवा गैर सरकारी सभी कार्यालय, बाजार आदि सावधानी वश बन्द कर दिए जाते हैं। शहरों में कर्फ्यू लगा दिया जाता है। किसी को भी घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी जाती। बच्चे और बड़े सभी घरों में कैद होकर मानसिक कष्ट भोगते हैं।
         इस विकट स्थिति में बच्चों की पढ़ाई में बाधा आती है। कार्यालयों के बन्द हो जाने से बहुत हानि होती है। बाजारों के बन्द हो जाने दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असुविधा होती है। सबसे अधिक कठिनाई उन लोगों को आती है जो प्रतिदिन कुँआ खोदते हैं और पानी पीते हैं। अर्थात जो रोज कमाते हैं तभी उनके घर चूल्हा जलता है।
         रोगी व्यक्ति जिसे उस समय एमरजेंसी में चिकित्सा की आवश्यकता पड़ जाती है, उसे अस्पताल ले जाना असंभव-सा हो जाता है। कभी-कभी ऐसे रोगियों को अपने जीवन से हाथ भी धोना पड़ जाता है। बाजार बन्द हो जाने के कारण बिमारी की अवस्था में दवा नहीं मिल सकती। इसे रोग बढ़ जाता है। अस्पताल न पहुँच पाने के कारण बहुत बार प्रसूता माताओं को अपने नवजात शिशुओं से वञ्चित रह जाना पड़ता है। 
        रेल, बस आदि के जलाए जाने से यातायात प्रभावित होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान जाना नहीं हो पाता। लोगों के सभी आवश्यक कार्य धरे रह जाते हैं। ऐसे माहौल में बहुत बार लोगों को अपने बच्चों के विवाह आदि के आवश्यक कार्य स्थगित करने पड़ जाते हैं। जिन युवाओं को अपने इन्टरव्यूह या परीक्षा के जाना होता है, वे नहीं जा पाते। इसलिए उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
         इन सब परेशानियों से भी बढ़कर अपने देश की छवि विश्व में धूमिल होती है। इससे पर्यटन पर भी प्रभाव पड़ता है। देश में आने वाले धन की हानि होती है। देश की आर्थिक पर इन सबका बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि देश की आर्थिक स्थिति ख़राब होती है तो देश की प्रगति भी बाधित होती है। उसका हम सबके जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ता है। देश में अराजकता का वातावरण बन जाता है। शत्रु देश इस परिस्थिति का लाभ उठा सकते हैं।
         अपने और अपनों की सुख-सुविधा के लिए तथा अपने देश की भलाई के लिए हिंसा, आगजनी आदि दुष्कृत्यों को अन्जाम देने से पहले एक बार नहीं, दो बार नहीं हजार बार सोचना चहिए। अपना विरोध प्रकट करने के कई अन्य उपाय हैं, उनका सहारा लिया जा सकता है। जापान के देशवासियों की तारा काली पट्टी बांधकर कार्य किया जा सकता है। अपनी बात को मनवाने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 26 अगस्त 2017

मनुष्य बनो

वेद हम मनुष्यों को निर्देश देते हैं - ‘मनुर्भव’ अर्थात मनुष्य बनो। आप कह सकते हैं कि हम अच्छे भले मनुष्य हैं, इन्सान हैं। हमारे पास दो आँखें, दो कान, दो हाथ, दो पैर, सुन्दर-सा चेहरा हैं और फिर यह इन्सानी शरीर भी है। हम किसी भी तरह से पशुओं की भाँति नहीं दिखाई देते हैं, हम उनसे सर्वथा अलग हैं। तब फिर वेद को हम मनुष्यों को यह आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ गई?
        वास्तव में मनुष्य बनना बहुत ही कठिन कार्य है। मनुष्य को कुमार्गगामी होने में समय नहीं लगता। वह चोर-डाकू, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, दूसरों का गला काटने वाला, क्रूर, निर्दयी, अत्याचारी, आततायी आदि बनने में भी समय नहीं लगता। बस मनुष्य बनने में ही उसे बहुत कष्ट होता है।
         केवल मनुष्य का जन्म ले लेने से वह मनुष्य नहीं बन जाता। मनुष्य बनने के लिए उसमे दया, ममता, करुणा, सहृदयता, दूसरों की परवाह करना आदि मानवोचित गुण होने चाहिए। उसे देश, धर्म और समाज के नियमानुसार कार्य करना चाहिए। उसमें परोपकार की भवन उसमे प्रबल रूप से होनी चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि वह साधु-सन्यासी बन जाए अथवा जंगलों में जाकर तपस्या करता रहे। इस संसार में रहते हुए उसे सबके साथ मिलकर चलना चाहिए।
        इन गुणों के न होने से मनुष्य दानव बन जाता है। उसे दूसरों को कष्ट देने, मार-काट करने से रत्ती भर भी परहेज नहीं होता। उसमें क्रूरता, घृणा, लूटपाट करना, हिंसा करना आदि दानवीय अवगुण आ जाते हैं। वे लोग देश, धर्म और समाज विरोधी गतिविधियों में अधिक लिप्त रहते हैं। ऐसे मानव किसी की प्रशंसा के पात्र नहीं होते। सभी लोग इनसे घृणा करते हैं। इनसे अपना सम्बन्ध विच्छेद करने से परहेज नहीं करते।
        मनुष्य को अपने विवेक पर सदा ही भरोसा रखना चाहिए। हर कार्य को अपनी विवेक की कसौटी पर कस करके ही उसे क्रियान्वित करना चाहिए। यदि वह ऐसा करने का आदी हो सके तो हर प्रकार की बुराइयों से स्वयं को सरलता से बचाने में समर्थ हो सकता है। अन्यथा मात्र बहाने बनाकर, टालमटोल करके स्वयं को बचने का वह असफल प्रयास करेगा। इससे कोई हल नहीं निकल सकता।
       मनुष्य का यह जीवन उसे बहुत कठिनता से मिलता है। मनीषी कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् ही मनुष्य को यह मानव का जन्म मिलता है। जब मनुष्य के बहुत से शुभकर्मों का उदय होता है तब कहीं जाकर उसे यह मानव का चोला मिलता है। कहा जाता है कि अशुभ कर्मों की तुलना में जब शुभ कर्म अधिक होते हैं तभी मानव के रूप में जीव जन्म लेता है। वहाँ भी अपने कर्मों के अनुसार उसे सुख-समृद्धि आदि मिलते हैं अन्यथा उसे अभावों में अपना जीवन व्यतीत करन पड़ता है।
     ईश्वर ने केवल मनुष्य को ही बुद्धि का उपहार दिया है। उसे अपनी बुद्धि का सदैव सदुपयोग करना चाहिए। यही बुद्धि मनुष्य को सृष्टि के शेष अन्य सभी जीवों से पृथक करती है। इसी बुद्धि के चमत्कार से मनुष्य सृष्टि के सभी जीवों को अपने वश में कर सकता है। इसी की बदौलत वह महान बन जाता है। अपनी इस विलक्षण बुद्धि का जो लोग दुरूपयोग करते हैं, वे अपने इस अमूल्य जीवन को बरबाद करते हुए जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं।
         मनुष्य को अपने अन्तस से आने वाली अन्तरात्मा की आवाज भी सुनने की आदत बनानी चाहिए। जिस कार्य को करने में अन्तर्मन गवाही दे या मन में उत्साह हो, उसे यत्नपूर्वक करना चाहिए। जिस कार्य को करते समय मन में शंका हो अथवा मन उत्साहरहित हो उन कार्यों को नहीँ करना चाहिए।
        इतनी कठिनाइयों के पश्चात मिले इस अमूल्य जीवन को यूँ ही व्यर्थ गँवा देना कोई समझदारी नहीं है। इस मानव जीवन का पूर्णरूपेण सदुपयोग कर लेना चाहिए। अपने जीवनकाल में ऐसे कार्य कर लेने चाहिए जिससे अगला जन्म भी मनुष्य का ही मिले। किसी भी जीव को सताना, हत्या करना आदि दुष्कर्म नहीं करने चाहिए। उसके स्थान पर समाज के हितार्थ परोपकार के कार्य करने चाहिए। तभी मानव जीवन की सार्थकता कही जा सकती है।
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