मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

भोगों से मुक्ति नहीं

सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य इस संसार में आने के उपरान्त यही सोचता है कि वह सदा के लिए यहाँ रहेगा। उसकी सत्ता को कोई भी व्यक्ति चुनौती नहीं दे सकता। यदि कोई ऐसा दुस्साहस करने की चेष्टा करता है तो उसे बरबाद करने में वह अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखना चाहता।
       वह अपने अन्तस में उठने वाली सभी कामनाओँ को पूर्ण करके, उनका सुख भोगना चाहता है। उसके लिए किसी भी हद से गुजर जाता है। अपने ऊपर यदि वह नियन्त्रण रख सके तो बहुत से अपराध करने से बच सकता है।
        राजा भ्रतृहरि इन विषय भोगों के प्रति, अपनी असीम इच्छाओं के न समाप्त कर पाने को लेकर समझाते हुए कहते हैं-
              भोगा  न  भुक्ता  वयमेव  भुक्ता।
              तपो  न   तप्तं  वयमेव   तप्ताः॥
              कालो न  यातो   वयमेव  याता।
              तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥        
अर्थात हमने भोग नहीं भोग रहे बल्कि भोग हमें भोग रहे हैं। हम तपस्या से नहीं तप रहे परन्तु दु:खों के ताप से संतप्त हो गए हैं। समय व्यतीत नहीं हो रहा पर हम स्वयं ही जीवन की बाजी हारते जा रहे हैं। हमारी तृष्णाएँ किञ्चित भी बूढ़ी नहीं हुई हैं अपितु हम ही तृष्णा के वशीभूत होकर वृद्ध होते जा रहे हैं।
       इस विषय में एक कथा आती है कि इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छह पुत्रों में से सबसे बड़े याति राजकाज आदि से विरक्त रहते थे। इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषेक करवा दिया। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ।
        ययाति की दो पत्नियाँ थीं। शर्मिष्ठा के तीन और देवयानी के दो पुत्र थे। अपनी आयु भोगने के उपरान्त भी ययाति का मन विषय भोगों में ही लगा रहता था। वे वृद्ध नहीं होना चाहते थे। इसके उपाय स्वरूप उन्होंने अपनी वृद्धावस्था अपने पुत्रों को देकर उनका यौवन प्राप्त करना चाहा। पुरू को छोड़कर और कोई अन्य पुत्र इस पर सहमत नहीं हुआ। पुत्रों में पुरू सबसे छोटा था। पिता ने इसी को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और स्वयं एक सहस्र वर्ष तक युवा रहकर शारीरिक सुख भोगते रहे।
        तदनन्तर पुरू को बुलाकर ययाति ने कहा- 'इतने दिनों तक सुख भोगने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई। तुम अपना यौवन वापिस ले लो, मैं अब वानप्रस्थी बनकर तपस्या करूँगा।'
         महाभारत के आदिपर्व में बताया गया है कि घोर तपस्या करने के पश्चात ययाति स्वर्ग पहुँच तो गए परन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र के श्राप के कारण स्वर्ग से भ्रष्ट हो गए। अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र अष्ट, शिवि आदि मिले। इनकी कठिनाई को समझते हुए उन्होंने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें फिर स्वर्ग में वापिस भेज दिया। अन्तत: इन सबकी सहायता से राजा ययाति को अपने जीवन से मुक्ति मिली।
          इस कथा से यही सिद्ध होता है कि विषय-भोगों में मदान्ध हुए ययाति जैसे स्वार्थी राजा को यह भी होश नहीं रहा कि जिस पुत्र की युवावस्था को वह ले रहा है, उसने तो अभी दुनिया भी नहीं देखी है। विषयभोगों और स्वार्थ में अन्धा होकर मनुष्य कोई भी अनर्थ कर सकता है।
         ऐष्णाएँ मनुष्य को सदा ही लुभावने आकर्षण देकर नाच नचाती रहती हैं। मनुष्य भी इनके जाल में फँसकर जाने-अनजाने अपना जीवन नरक बना लेता है। यदि मनुष्य इन काम-वासनाओं पर लगाम लगा सके, संयम कर सके तो उनको अपने ऊपर हावी नहीं होने दे सकता है। इस तरह करने से उसका जीवन सुनियोजित ढंग से चल सकता है।
        इन पर नियन्त्रण करने के लिए शास्त्र और मनीषी हम मनुष्यों को जगाने का कार्य करते रहते हैं। इन भोगों पर विजय प्राप्त करके ही मनुष्य अपना इहलोक और परलोक दोनों सुधार सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

किसी बैसाखी की तलाश नहीं

अपना जीवन जीने के लिए आखिर किसी दूसरे के सहारे की कल्पना करना व्यर्थ है। किसी को बैसाखी बनाकर कब तक चला जा सकता है? दूसरों का मुँह ताकने वाले को एक दिन धोखा खाकर, लड़खड़ाकर गिर जाना पड़ता है। उस समय उसके लिए सम्हलना बहुत कठिन हो जाता है।
         बचपन की बात अलग कही जा सकती है। उस समय मनुष्य सदा माता-पिता की अँगुली थामकर चलता है। वह उनके बिना एक कदम भी नहीं चल पाता। उनकी नजरों से ही बच्चा इस दुनिया को देखने और समझने की कोशिश करता है।
         बड़ा होने पर जब वह योग्य बनकर इस संसार सागर में तैरने के लायक हो जाता है, तब उसे मजबूत और स्वावलम्बी बन जाना चाहिए। उस समय मनुष्य को किसी के भी कन्धे को बैसाखी बनाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। उसे स्वावलम्बी बनकर, अपने ऊपर पूरी तरह से विश्वास रखना चाहिए।
        यह सत्य है कि लता बहुत नाजुक और कमजोर होती है। उसे किसी सहारे की आवश्यकता होती है, तभी वह फलती फूलती है। इसीलिए उसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी मजबूत वृक्ष का सहारा लेना पड़ता है।
         मनुष्य को यह बात हमेशा ही याद रखनी चाहिए कि जो बेल बड़े वृक्ष का सहारा लेकर बहु इतराती फिरती है और समझती है कि उसमेँ आकाश छूने की सामर्थ्य आ गई है तो वह गलत सोचती है। वृक्ष के कटते ही वह धड़ाम से जमीन पर औंधे मुँह गिर जाती है। फिर उसे मुँह की खानी पड़ जाती है। तब कोई उसे सहारा देने नहीं आता। उसकी सहायता नहीं कर सकता।
           परावलम्बी मनुष्य स्वयं को बहुत कमजोर समझता है। वह कभी भी अपने जीवन में सिर उठाकर नहीं चल पाता। उसे हमेशा यही लगता है कि वह अपने जीवन में अकेले या बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता। इसलिए वह ऐसे व्यक्ति की तलाश करता रहता है जो उसका सहारा बन सके और हाथ पकड़कर, थामकर आगे ले जाए। ऐसे मनुष्य को यदा कदा उसे अपमान का कड़वा घूँट पीना ही पड़ता है।
         जिसे वह अपना सब कुछ मान लेता है, जिसका मुँह ताकता है, जिसके निर्देश के बिना वह एक कदम भी नहीं चलता, वही समय आने पर उसे उसकी औकात बता देता है। उस समय वह स्वयं को बहुत ही असहाय और बौना महसूस करता है। अपनी कल्पना के विपरीत मिले आघात को सहन नहीं कर पाता।
           ऐसी दुखद स्थितियों से बचने के लिए मनुष्य में आत्मविश्वास का होना बहुत आवश्यक है। मनुष्य को यथासम्भव अपने विवेक पर भरोसा ही करना चाहिए उसे यत्नपूर्वक अपना मानसिक और आत्मिक बल बढ़ाना चाहिए। तभी वह इन दुखदायी स्थितियों से बचने में सफल हो सकता है।
         जब तक मनुष्य अपने में साहस नहीं जुटा पाता और दूसरों की ओर देखना नहीं छोड़ता, तब तक उसका हृदय चकनाचूर होता ही रहता है। उसका स्वाभिमान आहत होता रहता है। हर कोई उसे दो बात सुनाकर चल देता है। वह बेचारा बना हुआ असहाय-सा देखता रह जाता है।
          किसी का सहारा लेने वाले व्यक्ति को सहारा देने वाला धीरे-धीरे अपना गुलाम ही समझने लगता है। वह चाहता है कि उसका सहारा लेने वाला उसे खुदा समझे। उसकी हर सही-गलत बात पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाए। उसके हर कथन को ब्रह्मवाक्य माने। उसकी इच्छा से सोए, जागे और अपने सारे कार्य करे। यानी बिना मोल के अपनी गुलामी उसके नाम लिख दे।
          यदि वह उसकी इच्छा के अनुसार न चलना चाहे तो उससे सम्बन्ध विच्छेद करने की धमकी देता है। ऐसे में वह बेचारा घबराकर उसका साथ पाने के लिए उपाय करता रहता है।
         उचित यही है कि मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास रखना चाहिए। अपने अंतस की शक्ति को पहचानकर किसी का सहारा लेने से बचना चाहिए ताकि उसे जीवन में असफलता का मुँह न देखना पड़े।
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रविवार, 29 अक्तूबर 2017

जीवन का खेल

जीवन शतरंज के खेल की तरह है। निश्चित मानिए कि यह खेल आप ईश्वर के साथ ही खेलते रहते हैं। मनुष्य की हर सही या गलत चाल के बाद ही वह मालिक अपनी अगली चाल चलता है। अब देखना यह होता है कि मनुष्य की चली गई चाल के बदले में चली उस प्रभु की चाल से उसे कितनी हानि होती है अथवा कितना लाभ होता है।
        वास्तविक जीवन में कई अपने भाई-बन्धु मनुष्य के साथ शतरंज का खेल खेलते हुए दिखाई दे जाते हैं। जीवनकाल में मनुष्य को जाने-अनजाने उनकी सीधी या टेड़ी चालों का जवाब देना पड़ जाता है।
          इसलिए जो कुछ भी मन में आए उसे साफ-साफ शब्दों को दूसरे के समक्ष कह देना चाहिए। इससे अपने मन का सुकून बना रहता है। सच बोलने से हमेशा फैसले होते हैं और झूठ बोलने से फासले अधिक बढ़ जाते हैं। अतः दूसरों की प्रसन्नता के लिए अपने मन का चैन खोना उचित नहीं होता।
         इस प्रकार दुनिया के व्यवहारों को देखकर मनुष्य बहुत कुछ सीख जाता है। जीवन का वास्तविक पाठ यही होता है जिसे ज़िन्दगी हर कदम पर उसे पढ़ाती है। जीवन की आखरी साँस तक इन अनुभवों का संग्रह करना चाहिए। इन्हीं अनुभवों का खजाना अन्ततः उसकी पूँजी बनता है। इसी की बदौलत वह समाज में एक सफल और समझदार व्यक्ति कहलाता है। मनुष्य को इसलिए चाहे मंजिल मिले या अनुभव दोनों को ही जुटाने में रत्तीभर भी संकोच नहीं करना चाहिए। ये दोनों जीवन के लिए बहुत उपयोगी चीजें हैं।
        आज स्वार्थ इतना हावी होता जा रहा है कि मनुष्य को अपने और अपने परिवार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई देता। जन्म-जन्मान्तरों से टूटे हुए रिश्ते भी उस समय जुड़ जाते हैं जब किसी का स्वार्थ आड़े आने लगता है। यदि किसी का कोई काम अटक जाए तो मनुष्य गधे को भी बाप बनाने में देर नहीं करता।
         इन्सान कुछ लोगों को अपनी जिन्दगी मानता हैं पर कुछ लोगों के कारण उसकी जिन्दगी होती है। इनके अतिरिक्त यदि कुछ और विशेष लोग होते हैं तभी तो उसकी जिन्दगी होती है। ये सब अपने जब किसी भी कारण से परायों जैसे बनने लगते हैं तब अपने और पराए का भेद ही समाप्त हो जाता है। मनुष्य दुनिया में स्वयं को निपट अकेला मानने लगता है।
       परन्तु जब ये सारी जिन्दगियाँ अपने-अपने अहं और स्वार्थ के कारण परस्पर गडमड होने लगती हैं तो सभी रिश्ते तार-तार हो जाते हैं। आपसी विश्वास दरकने लगते हैं। मनमुटाव बढ़ जाने के कारण उनमें शत्रुता तक पनपने लगती है। जो किसी भी तरह स्वस्थ रिश्तों को जन्म नहीं दे सकती। तब मनुष्य को यह दुनिया ही शतरंज की चालों की तरह टेढ़ी-टेढ़ी चलती हुई दिखाई देने लगती है।
         जीवन में मिलने वाले कटु अनुभवों के कारण उसे अपने अंतस में सब टूटता और बिखरता हुआ-सा लगता है। सारे सम्बन्धों के साथ ही दुनिया से भी उसे वितृष्णा होने लगती है। तब उसकी किसी से मिलने की, बात करने की इच्छा ही नहीं रह जाती।
          इस प्रकार मनुष्य दुनिया के साथ जीवन की शतरंज खेलते हुए बहुत कुछ सीख जाता है। दूसरों द्वारा चली जाने वाली सारी सीधी व टेढ़ी चालों को धीरे-धीरे समझने लग जाता है। समय बीतते-बीतते वह चाहे-अनचाहे उन चालों का माकूल जवाब देना भी सीख जाता है।
         ईश्वर के साथ चाल चलने में किसी तरह का कोई आनन्द नहीं आता। अपने को मनुष्य कितना भी तीस मारखाँ क्यों न समझ ले हार तो उसी के खाते में ही आती है। उस मालिक से जीत जाना या पार पा सकना इस क्षुद्र मनुष्य नमक जीव के बस की बात नहीं है। मनुष्य तो गलतियों का पुतला है। वह कितना ही चौकस क्यों न रह ले, अवश्य ही कहीं-न-कहीं चूक कर देगा। यहाँ उसकी मात सौ प्रतिशत निश्चित होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

अपने रास्ते का चुनाव

मनुष्य अपनी स्वयं की शक्ति व कमजोरी को भली-भाँति जानता है। उससे बढ़कर और कोई बेहतर तरीके से उसे जान-समझ नहीं सकता। इसलिए जैसा वह चाहता है उसे स्वयं ही अपने रास्ते का चुनाव कर लेना चाहिए।
       मनुष्य यदि साहसी है तो वह अपने लिए चुनौतियों भरी कठिन डगर चुनेगा। उस पर जगल के राजा शेर की तरह गर्व से सिर उठाकर चलेगा। रास्ते में आने वाली उन कठिन चुनौतियों से घबराकर वह कभी पीछे नहीं पलटेगा बल्कि उनको मुँहतोड़ करारा जवाब देता हुआ, आगे बढ़कर सफलता के झण्डे गाड़ेगा। अपनी जुझारू प्रकृति के कारण ही ऐसे लोग अपना उदाहरण स्वयं बन जाते हैं।
       ये लोग भीड़ के पीछे नहीं चलते, भीड़ उनका अनुसारण करती है। वैसे भीड़ की यह आदत है कि वह हमेशा उस रास्ते पर चलती है जो रास्ता आसान दिखाई देता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि भीड़ हमेशा सही रास्ते पर ही चलती है।
        भीड़ में या झुण्ड में भेड़, बकरी आदि जीव चलते हैं जो अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकते। जिसने जिधर हाँका उधर चलने लगे। कुछ डरपोक मनुष्य भी इसी तरह दूसरों का मुँह ताकते रहते हैं यानी उनके आदेश की प्रतीक्षा करते रहते हैं। अपनी बुद्धि को मानो वे जंग लगने के लिए ताक पर रख देते हैं।
         जो लोग अपनी क्षमताओं का कभी आकलन नहीं कर पाते वे स्वयं को सदा ही असहाय अनुभव करते हैं। उन्हें दूसरों का मुँह ताकने की आदत पड़ जाती है। वे चाहते हैं कि बचपन की तरह उनकी अँगुली थामकर कोई पार ले जाए।
       ऐसा सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि हर सहारा देने वाला मनुष्य दूसरे से प्रतिदान की कामना करता है। वह ऐसे व्यक्ति को अपने गुलाम से अधिक और कुछ भी नहीं समझता। इस तरह उस व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही खण्डित हो जाता है। वह अपना आत्मविश्वास खो देता है जो उसकी पूँजी है और ईश्वर की ओर से उपहार में मिली हुई है।
        मनुष्य को आत्मचिन्तन करके अपनी ताकत और कमजोरी को पहचान लेना चाहिए। जितनी भी अपनी क्षमता है, उसके अनुसार धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। सफलता हाथ लग ही जाती है। कहते हैं- 'slow and study wins the race.'
         कबीरदास जी ने इसी विषय पर प्रकाश डाला है-
           धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।
           माली सींचै सो घड़ा ऋतु आए फल होय।।
अर्थात यदि मनुष्य धीरे-धीरे जुटा रहे तो अपने लक्ष्य का संधान कर ही लेता। उतावलेपन से कुछ भी हल नहीं होता। बीज बोने के बाद यदि माली सौ घड़े पानी से सींचाई कर भी ले पर अपनी उपयुक्त ऋतु के आने पर ही फल मिलता है।
       धीमी गति से बिना थके चलते हुए एक कछुआ जब तेज भागने वाले खरगोश से रेस को जीत सकता है तो मनुष्य क्यों नहीं? कछुए और खरगोश के उदाहरण को बस अपने मन में याद रखकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाने में सदा समझदारी होती है।
         मनुष्य को उस कार्य में कभी हाथ नहीं डालना चाहिए जो उसकी सामर्थ्य से परे हो। दूसरों के बहकावे में आकर भी उसे कभी गलती नहीं करनी चाहिए। यदि वह जबरदस्ती किसी कार्य को करना चाहता है तो उसे मुँह की खानी पड़ सकती है। और फिर जगहँसाई होती है सो अलग। इस तरह नाकामयाब होने का ठप्पा जब लग जाता है तो मनुष्य चाहकर भी उस दाग को नहीं धो पाता।
        मनुष्य चाहे तो अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्मिक बल पर शारीरिक बल के कम होने पर भी चमत्कार कर सकता है। बस उसे केवल स्वयं को पहचानने की आवश्यकता भर है। उसे अपनी दुर्बलताओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। 'मैं कमजोर हूँ' ऐसा रोना रोते रहने से कुछ भी नहीं होने वाला। अपनी कमजोरियों को वश में करने से ही स्वाभिमानी मनुष्य महान बनकर इतिहास में अमर हो जाते हैं।
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शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

फूल चाहिए या काँटे

मनुष्य के मानस पर निर्भर करता है कि वह अपने रास्ते में फूल बिछाना चाहता है अथवा काँटे। फूलों की कोमलता, सुन्दरता, आकर्षण और सुगन्ध के कारण हर व्यक्ति उनकी कामना करता है। परन्तु कठोर और दम्भी काँटों से लहुलूहान हो जाने के डर से सभी लोग उनसे बचते हुए किनारा करना चाहते हैं।
        मंगल की कामना करने वाला हर मनुष्य जाने-अनजाने ऐसे बहुत से कार्य कर जाता है जिसका नुकसान उसे अपने जीवनकाल में उठाना ही पड़ जाता है।
          बचपन में एक कहानी पड़ी थी जो आज भी उतनी ही सटीक है। एक हाथी प्रतिदिन नदी में स्नान करने के लिए जाता था। उसके रास्ते में एक दर्जी की दुकान पड़ती थी। हाथी को अपनी दुकान के सामने से हर रोज गुजरते हुए देखकर दर्जी के मन में शरारत सूझी। अब इन्सानी दिमाग है तो कभी-न-कभी कोई खुराफात कर ही बैठता है।
         उसने एक दिन अपनी सुई ली और दुकान के सामने से जाते हुए हाथी को चुभा दी। अब तो यह नित्य का क्रम बन गया कि हाथी वहाँ से गुजरता और दर्जी उसे सुई चुभा देता। अकारण पीड़ित होते हुए हाथी को उस दर्जी पर क्रोध आने लगा। एक दिन हाथी ने उस शरारत करने वाले को सबक सिखाने की सोची।
           अब क्या था, वह हाथी नदी पर स्नान करने के लिए गया और अपनी सूँड में पानी भरकर ले आया। वापसी पर जब दर्जी की दुकान आई तो उसने सूँड में भरा हुआ सारा पानी वहाँ उड़ेल दिया। हाथी के ऐसा करने पर उस दर्जी की दुकान पर रखे ग्राहकों के कपड़े खराब हो गए और उसे बहुत नुकसान हो गया। तब उसे पश्चाताप हुआ कि उसने व्यर्थ ही हाथी जैसे शक्तिशाली जीव से पंगा ले लिया।
           तीर जब कमान से निकल जाता है तो उसे लौटाकर नहीं लाया जा सकता। उस समय मात्र पश्चाताप ही शेष बचता है। यही स्थिति उस दर्जी की भी हुई। अब उसके पछताने से कुछ भी बदलने वाला नहीं था। अपने नुकसान की भरपाई करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई चारा नहीं बचा था।
          यह कहानी हमें यही समझा रही है कि दर्जी की तरह ही कभी ईर्ष्या से, कभी मौज-मस्ती के कारण और कभी अपनी मजबूरी में हम अपने रास्ते में काँटे बिछाते रहते हैं। उसकी भाँति हानि उठाकर दुखी होते हैं और फिर पश्चाताप करते हैं।
           यदि मनुष्य यह विचार कर ले कि वह जो व्यवहार वह दूसरों के साथ कर रहा है क्या वही व्यवहार वह अपने लिए चाहता है? यदि उसे वह व्यवहार अपने लिए पसन्द है तो फिर सब ठीक है। परन्तु यदि उसे अपने लिए वह व्यवहार नहीं चाहिए तो कहीं-न-कहीं गड़बड़ है। तब उसे दूसरों के साथ ऐसा कोई बरताव नहीं करना चाहिए जो दूसरे के हृदय को तार-तार कर दे।
          इस प्रकार वह जानते-बूझते गलत रास्ते पर चल रहा है और दूसरों के रास्ते में काँटे बिछा रहा है। यही काँटे समय बीतते उसके मार्ग पर आकर उसे घायल कर देंगे। बबूल का पेड़ बोकर आम का फल नहीं पाया जा सकता।
            इसके विपरीत दूसरों के लिए फूल बरसाने वालों को सुगन्ध मिलेगी ही। कहने का तात्पर्य है कि फूलों की तरह उनका यश चारों ओर फैलता है।
           अपने झूठे अहं और अनावश्यक पूर्वाग्रह पालने से किसी भी मनुष्य का भला नहीं होता। ये सदा ही विनाश का कारण होते हैं। इसीलिए कहा है-
     जो तोको काँटे बोए ताको बोइए फूल।
     तोको फूल के फूल हैं वा को हैं तिरशूल॥
अर्थात् जो हमारे लिए काँटे बोए उसके लिए भी फूल बोने चाहिए। हमें तो जीवन में फूल रूपी सुख मिल जाएँगे पर उसे दुख ही मिलेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

मिले उपहार का सम्मान

यदि कोई बन्धु-बान्धव बहुत प्यार अथवा सम्मान से उपहार दे तो उसके मूल्य को नहीं आँकना चाहिए बल्कि उसे देने वाले की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए। जिस प्रेम से व्यक्ति ने उपहार दिया है, उसे उसी तरह से उसे ग्रहण करना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि आपको वह पसन्द आ ही जाएगा।
         वह चाहे मन को न भाए अथवा नहीं पर उपहार लाने वाले से मानपूर्वक लेकर, उसका धन्यवाद भी करना चाहिए। ऐसा किया गया व्यवहार व्यक्ति विशेष के स्वयं के संस्कारों को प्रदर्शित करता है। इससे उपहार लाने वाले व्यक्ति का मन प्रसन्न होता है कि जिसके लिए उपहार लिया उसे अच्छा लगा है।
          मनीषी कहते हैं- 'मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना।' अर्थात हर व्यक्ति की रुचि अलग-अलग होती है। कल्पना कीजिए यदि सबकी रुचि एक जैसी हो जाए यानी हर तरफ एक ही रंग अथवा एक जैसी ही वस्तुएँ दिखाई देने लगे तो सब बोर हो जाएगा। इसीलिए संसार में भिन्नता में ही आनन्द मिलता है।
        इससे यही अर्थ निकलता है जितने लोग उतनी पसन्द। हर व्यक्ति की सोच, उसकी पसन्द-नापसन्द दूसरों से अलग यानी विशेष होती है। इसलिए यह मानना कठिन होता है कि उसकी पसन्द की हुई वस्तु दूसरे को निश्चित ही रुचिकर लगेगी। हो सकता है उसकी लाई हुई वस्तु दूसरे को बिल्कुल ही न पसन्द आए अथवा वह पहले से ही उसके पास हो।
        तथाकथित पैसे वाले अपने से कम पैसे वाले लोगों को यानी उनके अनुसार नीची हैसियत वालों से उपहार लेने में अपना अपमान समझते हैं। उन्हें लगता है कि फलाँ व्यक्ति की हमारे समक्ष कोई औकात नहीं है। वह अच्छी और मँहगी वस्तु नहीं खरीद सकता, वह तो निश्चित ही सबस्टैन्डर्ड वस्तु ही लाया होगा। चाहे वह बेचारा सामने वाले की हैसियत को देखते हुए चाहे कितना मँहगा उपहार खरीद कर लाया हो।
        अपने अहंकार में चूर वे उसकी आँखों के सामने ही उपहार को बिना देखे सेवकों को दे देते हैं। इससे वह व्यक्ति बहुत ही आहत हो जाता है और अपमानित महसूस करता है। उनके इस व्यवहार से उसके मन को कितना कष्ट होता है, इसका वे अनुमान भी नहीं लगा सकते।
       यदि किसी का लाया हुआ उपहार पसन्द नहीं आया या वह वस्तु पहले से ही घर में विद्यमान है तो भी उपहार प्रसन्नता पूर्वक लेना चाहिए। बाद में उसका उपयोग चाहे न करें अथवा किसी को दे दें परन्तु सामने से किसी का तिरस्कार करना किसी सभ्य व्यक्ति को कभी शोभा नहीं देता।
        इस सार्वभौमिक सत्य को स्मरण करते रहना चाहिए कि समय सदा एक-सा नहीं रहता। कब भिखारी राजा बन जाए और कब राजा रंक बन जाए कोई भी नहीं कह सकता। यह सब भविष्य के गर्भ में छुपा रहता है। इसलिए मनुष्य को कदापि अनावश्यक ही मिथ्या अभिमान नहीं करना चाहिए।
        हो सकता है कि जिसका उपहार लेते समय किसी व्यक्ति ने उसका उपहास किया गया था, कल को उसकी ही हैसियत उससे भी बढ़कर हो जाए। फिर उस समय अपनी झेंप मिटाने के लिए उसके सामने उसे बगलें झाँकनी पड़ सकती है या नजरें झुकानी पड़ सकती हैं।
       हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और समझ के अनुसार अच्छा उपहार ही खरीदता है। वह बाजार में खरीददारी करने जाता है तो अपना अमूल्य समय और धन दोनों ही व्यय करता है। यदि किसी से उपहार लेने में नाक नीची होती है तो उस व्यक्ति विशेष को उचित समय देखकर समझाना चाहिए ताकि वह अपने धन को व्यय न करे और अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में लगाए।
        अपने मिथ्या अभिमान के कारण आखिर समाज में किस-किस से सम्बन्ध बिगाड़ेंगे। ईश्वर ऐसे लोगों से नाराज होता है जो स्वयं को महान और अन्य सबको तुच्छ समझने की भूल करते हैं। इसे भूलना नहीं चाहिए कि उस मालिक ने किसी को भी दूसरे मनुष्यों के साथ भेदभाव करने का अधिकार नहीं दिया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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