गुरुवार, 30 नवंबर 2017

एक ही जाती में जन्म

एक ही जाति में जन्म लेने वाले जीव अलग अलग रूप में सुखी और दुखी होते हैं। इसका आधार जीव के पूर्वजन्म कृत कर्म ही हैं। पाप और पुण्य कर्म जब मिश्रित रूप से किए जाते हैं अर्थात दोनों की संख्या बराबर हो जाती है तब जीव को पुण्य के आधार पर शरीर तो मिल जाता है, परन्तु पाप कर्मों के आधार पर किसी ऐसी जाती में ऐसी जाती में जन्म मिलता है जिसमें उसे दुख और कष्ट अधिक झेलने पड़ते हैं। इस सत्य को इस प्रकार समझने का प्रयास करते हैं।
        पुण्यकर्मों और पापकर्मों के समान हो जाने पर जीव का मनुष्य के रूप में जन्म होता है। यहाँ बहुत अधिक असमानता दिखाई देती है। कुछ सौभाग्यशाली लोग तो मानो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन्दगी पालक-पाँवड़े बिछाए उनकी प्रतीक्षा कर रही होती है। पैदा होते ही बड़ी-बड़ी लक्सरी गाड़ियाँ, व्यापार, नौकर-चाकर, अकूत धन-सम्पदा उनका स्वागत करते दिखाई देते हैं। वे सदा दूसरों पर हकूमत करते हैं। उन्हें जीवन भर पता नहीं चलता कि अभाव किस चिड़िया का नाम है।
          दूसरी ओर ऐसे भाग्यहीन लोग भी होते हैं जो आजन्म कठोर परिश्रम करते हैं, परन्तु उन्हें दो जून का खाना भी नसीब नहीं होता। ये लोग मनुष्य का जन्म तो पा जाते हैं पर सारा जीवन एड़ियाँ रगड़ते रहते हैं, उन्हें सुख की एक साँस भी नहीं मिल पाती। जीते जी जीवन की बाजी हार चुके ये लोग स्वयं को इस धरती पर बोझ के समान समझते हैं। अपनी और अपनों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाते। मनुष्य होते हुए भी पशुओं से बदतर जीवन व्यतीत करते हैं।
        किसी आत्मा ने किसी भी शरीर में बहुत से पाप कर्म और कुछ पुण्य कर्म किए। उसके पापकर्मों के आधार पर उसे कुत्ते का शरीर मिला और पुर्ण्यो के आधार उसे ऐसा घर मिला जहाँ उसे उत्तम सुख साधन यानी अच्छा भोजन, चिकित्सा आदि प्राप्त हुए। वह उस घर का प्रिय सदस्य बनकर ऐश करता है। गाड़ियों में घूमता है। इसके विपरीत उसी जाति के दूसरे कुत्ते गलियों में भौंकते हुए घूमते रहते हैं। खाने को मिल गया तो ठीक अन्यथा लोगों से पत्थर खाने को तो उसे मिल ही जाते हैं। कोई उन्हें अपने घर के बाहर बैठने तक नहीं देता।
         घर के ड्राईंगरूम में सजे हुए एक्वेरियम में उछल-कूद करती मछलियों को यह भी नहीं पता होता कि ऐसा क्यों कहा जाता है-
      बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है।
सबके आकर्षण का केन्द्र बनी वे मछलियाँ अपनी ही धुन में मस्त रहती हैं। उन्हें विशाल समुद्र में होने वाली कठिनाइयों की बिल्कुल भी खबर नहीं रहती।
          हालांकि मैं पक्षियों को पिजरे में बन्द करने के पक्ष में नहीं हूँ, फिर भी उदाहरण दे रही हूँ। विविध प्रकार के पक्षी जो पिंजरों में रखे जाते हैं, वे सुविधपूर्वक अन्न व जल पाते हैं। वे अन्य स्वतन्त्र पक्षियों की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षित रहते हैं। उन्हें मौसम के थपेड़ों को भी सहन नहीं करना पड़ता। ये पक्षी भी आगन्तुकों के आकर्षण का केन्द्र बनते हैं।
          इसी प्रकार अन्य पालतू पशुओं गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा, गधा आदि के विषय में भी विचार कर सकते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि इन सभी जीवों की देखभाल, उनके खानपान, उनके उपचार आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है। वन्य पशु स्वतन्त्र विचरण करते हैं परन्तु उनकी ओर तो किसी का ध्यान नहीं जाता। वे सभी केवल ईश्वर के भरोसे जीवन व्यतीत करते हैं।
         इस सारी विवेचना का सार यही है कि सब सुख-साधन जीव को उसके पुण्यकर्मों की बदौलत प्राप्त होते हैं। इसलिए कर्म ही मुख्य कारण हैं। अपने कर्मों की शुचिता की ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। इन्हीं से ही जीव का इहलोक और परलोक सँवरता है।    
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 29 नवंबर 2017

दिन बदलने की आशा

मनुष्य इस आशा में सारा जीवन व्यतीत देता है कि कभी तो उसके दिन बदलेंगे और वह भी सुख की साँस ले सकेगा। वह उस दिन की प्रतीक्षा करता है जब उसका भी अपना आसमान होगा जहाँ वह लम्बी उड़ान भरेगा। उसकी अपनी जमीन होगी जहाँ वह पैर जमाकर खड़ा हो पाएगा। तब कोई उसकी ओर चुभती नजरों से देखने की हिमाकत नहीं करेगा।
          कहते हैं बारह वर्ष बाद तो घूरे के भी दिन बदलते हैं। इन्सान के अपने भाग्य में भी परिवर्तन होगा, ऐसे सपने तो वह देख सकता है। कुछ सौभाग्यशाली लोग होते हैं जिनके जीवन में समय बीतते बदलाव आ जाता है। परन्तु कुछ दुर्भाग्यपूर्ण लोग भी संसार में हैं जो जन्म से मृत्यु तक एड़ियाँ घिसते रहते हैं। उनके लिए सावन हरे न भादों सूखे वाली स्थिति रहती है।
        उम्मीद वर्षो से घर की दहलीज पर खड़ी वो मुस्कान है जो हमारे कानों में धीरे से कहती है- 'सब अच्छा होगा।' और इसी सब अच्छा होने की आशा में हम अपना सारा जीवन दाँव पर लगा देते हैं। अपने जीवन को अधिक और अधिक खुशहाल बनाने के लिए अनथक श्रम करते हुए भी मुस्कुराते रहते हैं। अपने उद्देश्य को पाने में जुटा मनुष्य हसी-खुशी कोल्हू का बैल बन जाता है।
          घर-परिवार के दायित्वों को यदि मनुष्य सफलतापूर्वक निभा सके तो उससे अधिक सौभाग्यशाली कोई और हो नहीं सकता। किन्तु जब उनको पूरा करने की कवायद करता हुआ वह, बस जोड़तोड़ तक सीमित रह जाता है तब यह मानसिक सन्ताप उसे पलभर भी जीने नहीं देता। धीरे-धीरे उसकी हिम्मत जवाब देने लगती है। तब उसके कुमार्गगामी बन जाने की सम्भावना बढ़ जाती है।
          उस समय मनुष्य भूल जाता है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी भी किसी को कुछ नहीं मिलता। यदि इस सूत्र का स्मरण कर लिया जाए तो वह सदा सन्मार्ग का पथिक ही रहे। तब मनुष्य अपने जीवन को इस तरह नरक की भट्टी में झोंककर और अधिक कष्टों को न्यौता नहीं देगा। यदि वह अपने विवेक का सहारा ले सके तो सब बन्धु-बान्धवों का जीवन बरबाद होने से बचा सकता है।
         मनुष्य को सदा आशा का दामन थामकर रखना चाहिए। इस बात को उसे स्मरण रखना चाहिए कि जब काले घने बादल आकाश पर छा जाते हैं तब वे शक्तिशाली सूर्य को भी आक्रान्त कर लेते हैं। दिन में ही रात होने का अहसास होने लगता है यानि घटाटोप अंधकार छा जाता है। उस समय बादलों के बरस जाने के बाद सूर्य मुस्कुराता हुआ फिर से आकाश में चमकने लगता है। सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है।
           मनुष्य के जीवन में भी कठिनाइयों के पल यदा कदा आते रहते हैं। उसे निराश हताश करते हैं। सब बन्धु-बान्धवों से उसे अलग-थलग कर देते हैं। उसका अपना साया ही मानो पराया हो जाता है। अपने चारों ओर उसे निराशा के बादल घिरते हुए दिखाई देते हैँ। ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी सुख की चाह में मनुष्य को आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। अपने समय पर स्थितियाँ फिर से अनुकूल हो जाती हैं और मनुष्य की झोली में पड़े हुए काँटे फूलों में बदल जाते हैं।
           उस समय मुरझाया हुआ मनुष्य पुनः फूलों की तरह महकने लगता है। तब मनुष्य को कर्तापन के वृथा अहंकार को अपने पास फटकने भी नहीं देना चाहिए। जीवन की हर परीक्षा में तपकर कुन्दन की तरह और निखरकर सामने आना चाहिए। हर परिस्थिति में उसे उस मालिक का अनुगृहीत होना चाहिए। तभी मनुष्य को मानसिक और आत्मिक बल तथा शान्ति मिलती है।
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मंगलवार, 28 नवंबर 2017

बिनमाँगे परामर्श नहीं

मनुष्य को बिनमाँगे किसी को परामर्श नहीं देना चाहिए अथवा कभी भी अनावश्यक रूप से किसी के कार्य में दखलअंदाजी नहीं करनी चाहिए। जन साधारण की आम भाषा में इसे किसी के फटे में टाँग अड़ाना कहते हैं। यदि मनुष्य ऐसा करता है तो उसे अपनी अवमानना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। मनीषी कहते हैं कि अपनी इज्जत अपने आप हाथ में होती है।
         मनुष्य को जहाँ ऐसा प्रतीत हो कि उसकी वहाँ जरूरत नहीं है तो बिना कुछ कहे अथवा कोई विशेष टीका-टिप्पणी किए हुए उसे स्वयं को चुपचाप वहाँ से अलग कर लेना चाहिए। यही बुद्धिमानी है कि मनुष्य समय को पहचानकर उसके अनुसार ही सबके साथ अपना व्यवहार करे।
          जरूरत पड़ने पर लोग गधे को भी बाप बना लेते हैं पर स्वार्थ सिद्ध हो जाने दुल्लती मारकर किनारे हो जाते हैं। उसके बाद वे सहायता करने वाले को पहचानने तक से भी इन्कार कर देते हैं। निस्सन्देह यह मनुष्य की चरित्रगत विशेषता को प्रकट करता है।
        इन्हीं भावों को रहीम जी ने निम्न दोहे में एक उदाहरण के साथ बड़े ही सुन्दर शब्दों में स्पष्ट किया है-
           काज पड़े कछु और हैं काज सरे कछु और।
            रहिमन  भँवरी के भये नदी सिरावत मौर।।
अर्थात जब मनुष्य को किसी से अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है तब उसका व्यवहार अलग होता है और स्वार्थ पूर्ण हो जाने पर उसके तेवर ही बदल जाते हैँ। जैसे विवाह के समय आवश्यकता होने पर मुकुट को दूल्हे के सिर पर सजाया जाता है और फिर जब फेरे हो जाते हैं तो उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
          इसी प्रकार जिन सोने, चाँदी और हीरे के आभूषणों से लोग श्रृंगार करके पार्टियों में वाहवाही लूटते हैं, उन्हीं को वापिस लौटकर उतार देते हैँ। फिर उन्हें तिजोरी में बन्द करके रख देते है। यानी कि आवश्यकता पूरी हो जाने के बाद उनको किनारे करके तिजोरी में बन्द कर दिया जाता है। यही इन्सानी फितरत है, जिसकी हम यहाँ पर चर्चा कर रहे हैं।
         यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि समय और समझ दोनों ही एक साथ भाग्यशाली लोगों के हिस्से में आती हैं। कहने का तात्पर्य है कि जब समझदारी दिखाने का समय आता है तो मनुष्य चूक जाता है। घबराहट के मारे उसके हाथ-पैर फूलने लगते हैं। वह अपने बचाव न कुछ कह पाता है और न ही अपने विवेक पर भरोसा कर पाता है।
         जब समय निकल जाता है तब वह समझदार बन जाता है। अपने मन ही में सोचने लगता है कि काश उसने उस समय यह, यह सब कह दिया होता तो वह बच जाता। उसकी हेठी होने से बच जाती। यह तो वही बात हुई-
        'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।'
         या 'का वर्षा जब कृषि सुखाने।'
        जब कभी ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ जाता है तो मनुष्य को तुरन्त ही उत्तर देना चाहिए। स्वीकारोक्ति सूचक हाँ या नकारात्मक न जैसे शब्दों का उपयुक्त समय पर उपयोग करने में दुविधा नहीं होनी चाहिए। ये दोनों शब्द छोटे होते हैं पर बड़े ही खोटे होते हैं। जरा-सी लापरवाही हो जाने पर ये सदा ही उसे मुसीबत में डालने से परहेज नहीं करते।
        यदि इन शब्दों का प्रयोग उपयुक्त समय पर न किया जाए तो मनुष्य को बहुत ही हानि उठानी पड़ सकती है। बहुत सोच-समझकर इनका प्रयोग करना चाहिए। जल्दबाजी में न कहकर और समय से चूक जाने पर हाँ बोलने पर मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ हार जाता है। इनका दूरगामी परिणाम कभी-कभी उसकी काया कल्प भी कर देता है।
         इसलिए समय का सही उपयोग करते हुए मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए। दूसरों को अनावश्यक परामर्श देने के स्थान पर उसे अपनेपर इस जीवन की पहेलियों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। जब तक अच्छी तरह से तसल्ली न हो जाए उसे न तो अपनी स्वीकृति देनी चाहिए और न ही इन्कार करना चाहिए। अपने विवेक पर विश्वास करना चाहिए।
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सोमवार, 27 नवंबर 2017

सामञ्जस्य बनाकर रहना

इस संसार में हर जीव सामंजस्य बना कर रहता है। सभी जीव यानी की पशु-पक्षी अर्थात् पानी में रहने वाले (जलचर),  आकाश में उड़ने वाले (नभचर) और पृथ्वी पर रहने वाले (भूचर) सभी मिलजुल कर, झुंड बनाकर रहते हैं। वे भी मनुष्यों की तरह भावनाओं में विचरते हैं। उनमें सुख-दुख सांझा करने की प्रवृत्ति होती है।
      हम पक्षियों को तो अपने आसपास देखते हैं कि किसी भी पक्षी को यदि कष्ट होता है तो उसके साथी पास आकर उसका साथ देते हैं और उनका शोर हमें सुनायी पड़ता है।
        यही प्रवृत्ति पशुओं में भी देखने को मिलती है। टीवी के कितने ही चैनल हमें इन पशु-पक्षियों के बारे में बताते हैं। सभी प्रजातियों के जीव समूह में रहते हैं। अपने बच्चों की सुरक्षा करते हैं। हमला होने पर मिलकर उसका सामना करते हैं।
       अब सोचने वाली बात यह है कि मनुष्य के अलावा किसी जीव में बुद्धि नहीं है ऐसा हम मानते हैं फिर भी वे मिलजुलकर रहते हैं। इनके विपरीत बुद्धिमान मनुष्य झगड़ों में फंसा रहता है। वह मात्र केवल अपने स्वार्थों तक सीमित है। न उसे समाज की परवाह है और न परिवार की। दो लोग मिल बैठकर कोई समाधान नहीं ढूंढ सकते।
       आज हर शख्स सामाजिक व पारिवारिक ढाँचे को तहस-नहस करने पर तुला हुआ है। इसी का ही परिणाम है पारिवारिक विघटन अर्थात् तलाक होना। हमारे ग्रन्थ पग-पग पर समझाते हैं कि सहनशील बनो और अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से पालन करो। हमारे संस्कार हमारी धरोहर हैं। उनका त्याग कर असंस्कारी होना शुभ संकेत नहीं है।
          सभी सुधी जनों की नैतिक जिम्मेदारी है कि अपनी धरोहर को सम्हाल कर रखें। तभी हमारी पहचान बनी रहेगी। युवाओं को स्वछन्द आचरण न करने के लिए प्रेरित करना होगा जिससे वे अपने पारिवारिक जिम्मवारियों को बखूबी निभाएँ। जब वे माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का पूरी तरह निर्वहण करेंगे, पति-पत्नी दोनों आपसी तालमेल से प्रसन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे तभी तो आदर्श परिवार होंगे।
        मुझे विश्वास है कि आप सभी सुधी मित्र मनन करेंगे और इस ओर कदम बढ़ायेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 26 नवंबर 2017

सौ वर्ष तक स्वस्थ रहना

ऋषियों ने ईश्वर से सौ वर्ष तक का जीवन देने की कामना की है। इस सौ वर्ष की आयु में हमारा शरीर कैसा होना चाहिए यह महत्त्वपूर्ण बात है। निम्न वेदमन्त्र के माध्यम से वे कहते हैं-
        पश्येम शरद: शतं  जीवेम शरद: शतम्
        श्रृणुयां शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना:  
        स्याम शरद:शतं भूयश्च शरद: शतात्।
अर्थात् हम सौ वर्ष की आयु तक भली-भाँति देख सकें। सौ वर्ष तक स्वस्थ होकर जी सकें। सौ सालों तक ठीक से सुन सकें और सौ वर्षो तक अच्छे से बोल सकें। हम सौ वर्षों तक दीन न बनें। ऐसा जीवन हम जी सकें।
        ऋषियों द्वारा इस मन्त्र में की गई प्रार्थना का तात्पर्य यही है कि हमारी सारी इन्द्रियाँ अपना कार्य सुचारु रूप से करती रहे। हम स्वस्थ व हृष्ट-पुष्ट रहें। कोई रोग हमारे पास न आने पाए।
          अब विचारणीय प्रश्न यह है कि ऐसा सम्भव हो सकता है क्या? यदि हम अपने जीवन को संयमित कर सकें तो यह सब सम्भव हो सकता है।
        हमारा आहार-विहार दोनों सन्तुलित नहीं हैं। हमें अपनी जीभ पर बिल्कुल भी नियन्त्रण नहीं है। तला-भुना, मिर्च-मसाले वाला जो भोजन है, उसे खाकर हम सब आनन्दित होते हैं। अपने शरीर को किसी तरह का कष्ट न देना पड़े, इसलिए दुनिया भर का जंक फूड खाते हैं। होटलों का खाना खाने के लिए मचलते रहते हैं। अभोज्य पदार्थों का सेवन करते हैं।
        सादा और सन्तुलित भोजन खाने के नाम पर हमें कष्ट होता है। हम नाक-भौंह सिकोड़ते हैं, मुँह बनाते हैं। घर में झगड़ा तक कर बैठते हैं। अब आप खुद बताइए कि ऐसी अवस्था में हमारा पेट बेचारा क्या करेगा? यह किसी एक की बात नहीं है, हम सभी ऐसा ही करते हैं। फिर दोष दूसरों को देते हैं। ऐसे दोषपूर्ण और अमर्यादित खान-पान के कारण बीमारियाँ शरीर को गाहे-बगाहे घेरती ही रहेंगी।
            हमारी जीभ स्वाद के लालच में आकर लपलपाएगी। हम बस उसी के चक्कर में पड़कर स्वयं को लाचार बना लेते हैं।
          हमारे सोने-जागने का कोई समय नहीं है। हम रात को देर से सोते है और फिर प्रात: देर से उठते हैं। जो उल्टा-सीधा मिला, बस उसे ही खाकर अपने काम पर निकल जाते हैं। इसी तरह खाना खाने का भी कोई समय नहीं बनता। जिस भोजन के लिए सारे पाप-पुण्य, भ्रष्टाचार, कदाचार सब करते हैं, उसी को खाने के लिए हमारे पास समय का सदा अभाव रहता है। शेष सभी सांसारिक कार्य हमारे लिए इससे ज्यादा आवश्यक हो जाते हैं।
         आजकल अन्न, फल और सब्जियों आदि में डलने वाले कीटनाशक भी हमारे शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को और अधिक कमजोर कर रहे हैं। इससे भी अनेक रोगों में बढ़ोत्तरी हो रही है।
         इन सबसे अधिक दूषित होता हुआ पर्यावरण, जो हमारी सबकी लापरवाही का परिणाम है, वह भी हमारे बहुत से रोगों का कारण है।
            जब हमारा खान-पान और रहन-सहन ऐसा हो जाएगा तो हम डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए अपनी मेहनत की कमाई और पैसा व्यर्थ बर्बाद करते रहेंगे। मैं यह तो नहीं कहूँगी कि सभी लोग 'सादा जीवन उच्च विचार' वाली नीति का जबरदस्ती पालन करें। स्वेच्छा से इसका अनुकरण करना श्रेयस्कर होता है।
          सौ वर्ष की आयु तक जीने के लिए आँख, नाक, कान आदि सभी इन्द्रियों का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। यदि ये सभी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाएँगी और शरीर रोगी हो जाएगा, तब तो जीवन भार बन जाएगा। जीने का आनन्द भी नहीं आएगा। उस समय मनुष्य बस दिन-रात, उठते-बैठते ईश्वर से मृत्यु की कामना करता रहेगा। अपने जीवन का शतक पूरा करने के लिए जीवन में पहले आत्मसंयम और आहार-विहार पर ध्यान देना चाहिए। बाकी सब ईश्वर पर छोड़ देना ही बेहतर है क्योकि वह सब जानता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 25 नवंबर 2017

मिलावटी युग में जीवन

वास्तविकता यही है कि आज हम मिलावट के युग में जी रहे हैं। जिस भी चीज में देखो कुछ-न-कुछ मिला होता है। हम लोगों को कोई भी खाद्य पदार्थ अपने शुद्ध रूप में नहीं मिल पाता जिनको पाना हम सबका अधिकार है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे जीवन के साथ यह मिलावट का खेल चल रहा है।
          प्रायः टीवी और समाचार पत्रों ये खाद्यान्नों में मिलावट के समाचार सुर्खियाँ बनती रहती हैं। यूरिया आदि मिलाकर सिन्थेटिक दूध बनाना, मिलावटी खोया व पनीर बिकना, फलों और सब्जियों पर आर्टिफिशयल रंग करना व उनको आकार में बड़ा करने के लिए अथवा मिठास के लिए इन्जेकशन लगाना, काली मिर्च में पपीते के बीज डालना, चीनी में हड्डियों का चूरा, बहुत से खाद्य तेलों में जानवरों की चर्बी मिलना आदि।
         बड़े दुख से कहना पड़ता है कि घर में सब्जियों को धोने लगो तो उन पर लगा अप्राकृतिक रंग निकलने लगता है। हैरानी की बात है कि फल खाने लगो तो एक ही फल का कुछ हिस्सा मीठा होता है और कुछ फीका।
          सुन्दरता में चार चाँद लगाने की सलाह देने वाले विज्ञापनों के अनुसार उनका इस्तेमाल किए जाने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों में की गई मिलावट त्वचा को हानि पहुँचा रही है।
         कुछ समय पहले मैगी, कोक और टूथपेस्ट आदि में हानिकारक तत्त्वों की चर्चा टीवी और समाचार पत्रों में प्रमुखता से कवरेज दी गई।
         खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशक आदि भी मानव शरीर के लिए हानिकारक हैं। और तो और जल को फैक्टरियों का केमिकल युक्त वेस्ट और सीवर की गन्दगी दूषित कर रही है। वायु को हम पेड़ काटकर और गाड़ियों, एसी, फैक्टरियों के धुँए से प्रदूषित कर रहे हैं। यानि कि प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो रही है।
         ईश्वर ने हमें हर पदार्थ शुद्धरूप में दिया है परन्तु मुट्ठी भर स्वार्थी लोग अपने तुच्छ स्वार्थ के कारण पूरे भारत देश के करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसा कुकृत्य करते समय न उनका जमीर उन्हें कचोटता है और न ही उनके हाथ काँपते हैं।
         आज स्थिति यह हो गई है कि न हमें शुद्ध वायु मिलती है और न ही जल। फल-सब्जियाँ तथा खाद्यान्न भी हमें पुष्ट नहीं करते। इस प्रकार अपनी मूर्खता से हम अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं। समझ नहीं आता कि हम आने वाली पीढ़ी को क्या खिला रहे हैं? हमारे बच्चे ऐसे मिलावटी पदार्थों को खाकर कैसे स्वस्थ रहेंगे? रही सही कसर जंक फ़ूड पूरी कर रहा है।
           इन प्रदूषित खाद्यों का सेवन करके हम स्वयं ही अनेकानेक बिमारियों को न्योता देते जा रहे हैं। तभी तो कुकुरमुत्ते की तरह मल्टीस्पेशैलिटी वाले हस्पलात नित्य प्रति खुलते जा रहे हैं जो हमारे स्वास्थ्य और खून-पसीने की गाढ़ी कमाई पर डाका डाल रहे हैं।
         देश में कई प्रदेशों में टेस्टिंगलेब हैं जहाँ इन खाद्यान्नों के सैम्पल चैक किए जाते हैं। अब समस्या यही है कि यदि इन समाजविरोधियों को सजा मिल सके तो शायद इस समस्या से किसी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। केवल सरकार के आधे-अधूरे प्रयासों से कुछ नहीं होने वाला। बस ऐसे ही ये खबरें सुर्खियाँ बटोरती रहेंगी और फिर सब टाँय-टाँय फिस्स होता रहेगा।
          यदि समय रहते हम न जागे तो पता नहीं हम सबके स्वास्थ्य का कितना और विनाश होगा और इस विनाशलीला के लिए किसी ओर को दोष नहीं दे सकेंगे, इसके जिम्मेदार हम खुद ही होंगे। यह हमारे लिए खतरे की घण्टी है। यदि शीघ्र ही कोई ठोस कदम न उठाया गया तो जनसाधारण के स्वास्थ्य की रक्षा किसी तरह नहीं की जा सकेगी।
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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

दीपक की तरह बनिए

मनुष्य को दीपक की भाँति प्रकाशमान होना चाहिए। मनुष्य इसीलिए ही मनुष्य कहलाता है कि वह अपने परिवेश में चारों ओर रहने वाले दूसरे लोगों की सुधबुध ले। उसे अपने सद् गुणों से चारों ओर प्रकाश फैलाए।
        जब सूर्य का प्रकाश तीव्र होता है उस समय किसी अन्य प्रकाश की आवश्कयता नहीं होती। उसके उपस्थित न होने पर ही अंधकार अपने पैर पसारने लगता है। ऐसे समय में एक छोटा-सा दीपक अंधेरे कमरे में यदि रख दिया जाए तब उसके प्रकाश से कमरे में उजियारा हो जाता है। वहाँ पर चलने-फिरने वाले लोगों का आवागमन इस प्रकार सुविधापूर्वक होने लगता है कि वे ठोकर खाकर गिर जाने से बच जाते हैं।
          जिन मनुष्यों को उनके शुभकर्मों के कारण ईश्वर ने सामर्थ्यवान बनाया है उनको चाहिए कि वे समाज के पिछड़े वर्ग के लिए दीपक की भाँति बनें। उनके चेहरों पर यदि वे थोड़ी-सी प्रसन्नता भी ला पाएँ तो उनका मानव जीवन पाना सफल हो गया समझिए।
          वास्तव में मनुष्य वही कहलाता है जो अपने देश, धर्म व समाज के लिए कुछ कर गुजरने का साहस रखता हो। जिस प्रकार दीपक छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, धर्म-जाति आदि सभी प्रकार के बंधनों से ऊपर उठकर सबको बराबर प्रकाश देता है उसी प्रकार ये महापुरुष भी सबको एक समान मानते हुए अपने दायित्वों को करने में संलग्न रहते है।
          अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए तो पशु-पक्षी भी जीते हैं। इंसान और अन्य जीवों में कुछ अन्तर होना आवश्यक है। हमारे ऋषि-मुनियों का मानना है कि सभी मनुष्येतर जीवों की भोगयोनि होती है। उस योनि में वे केवल अपने अशुभ कर्मो का दण्ड भोगते हैं। केवल मनुष्य जीवन ही कर्मयोनि होता है जिसमें शुभाशुभ सभी प्रकार के कर्मों को करने में वह स्वतन्त्र होता है।
          अब यह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि वह शुभकर्मो को करता हुआ परलोक सुधार ले अथवा अशुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त होकर परलोक तो क्या यह लोक भी बिगाड़ ले।
          इसलिए इस मनुष्य योनि में जितने अधिक शुभकर्म अथवा पुण्यकर्म अपने खाते में मनुष्य जोड़ पाएगा उतना ही सुख और ऐश्वर्य उसे आने वाले अगले जन्मों में भी मिलेगा।
          दीपक नेह की चिकनाई और उसमें डाली गई बाती से स्वयं को जलाकर दूसरों को प्रकाश देता है। उसी प्रकार मनुष्य जब दूसरों को अपने प्यार से सराबोर करता है और अपने संयम एवं अनुशासनात्मक जीवन से तपा हुआ दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने में सफल होता है तभी वास्तव में वह समाज में प्रकाशित होता है। सबके लिए पूजनीय बन जाता है लोग उसे सिर-आँखों पर बिठाते हैं। ऐसे सज्जन मनुष्य समाज के दिग्दर्शक बनते हैं और  सबके अराध्य होते हैं।
          समाज कल्याण मन्त्रालय द्वारा कई योजनाएँ सामाजिक रूप से पिछड़े इस वर्ग की सुरक्षा हेतु बनाई गई हैं। बहुत-सी समाजसेवी संस्थाएँ भी इस कार्य में सक्रिय हैं परन्तु उनके इन कार्यों के लाभ से अभी भी बहुत बड़ा वर्ग वंचित है। छोटी-छोटी सस्थाएँ भी इनकी भलाई के लिए कार्य कर रही हैं। इनके अतिरिक्त भी देश के गाँवों और प्रदेशों में अपने-अपने स्तर पर अनेक लोग इन परोपकारी कार्यों में निस्वार्थ भाव से जुटे हुए हैं।
          अभी भी इन आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के जीवनों को प्रकाश की महती आवश्यकता है। इनके सच्चे साथी बनकर यदि इनके जीवन को किसी तरह प्रकाशित किया जा सके तो मानव जन्म सफल हो जाएगा। वास्तव में इन्हीं दीपक स्वरूप व्यक्तियों का जीना ही इस ससार में जीना कहलाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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