रविवार, 31 दिसंबर 2017

नववर्ष

आप सभी को सपरिवार नववर्ष की शुभकामनाएँ।
पिछले वर्ष यानी 2016 में नववर्ष पर लिखी यह कविता प्रस्तुत है-
स्वागत है नववर्ष
तुम एक बार फिर से
मुस्कुराते हुए आ रहे हो
अपनी मनमोहिनी छटा बिखेरते हुए।

तुम्हारे आने का
उल्लास धरती पर
चहुँ ओर दिखाई देता है
हर मन नई आस लिए बाट जोहता है।

अब सब सोचते हैं
शायद कुछ नया होगा
नव नवीन वादों से हटकर
सबके जीवन में हो जाएगा सुधार।

चाहते हैं रोक सकें
वह क्रन्दन, वह बन्धन,
वह भ्रष्टाचार, वह रिश्वतखोरी,
वह अनाचार, वह कदाचार मिल सब।

कोई कृष्ण धरा पर
अस्मत की रक्षा और
आततायी के विनाश हेतु
शायद आ ही जाए सुदर्शन चक्र लिए।

भूखों को अन्न
नग्नों वस्त्र देने वाला
कोई दानवीर एक बार
फिर से अवतरित हो जाए इस साल।

हो जाए किसी विध
आतंक का घिनौना रूप
इस जहाँ से कोसों कोस दूर
बच जाए मानवता शर्मसार होने से।

तुम्हारे आ जाने से
चारों ओर खुशियों का
साम्राज्य छा जाए बस
आशा करते हैं मिलकर सब जन।

नव निर्माण हो
नव-नूतन विहान हो
नव सृष्टि का विधान हो
नव उड़ान भरने के लिए नव पंख हों।

आओ नववर्ष आओ
चारों ओर होने वाले इस
जीवन संगीत को सुनो जरा
तुम्हारे आने की खुशी में हैं सब उत्सव।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 30 दिसंबर 2017

जीवन का आनन्द

जीवन का वास्तविक आनन्द वही मनुष्य उठा सकते हैं जो कठोर परिश्रम करते हैं। आलस्य करने वाले, हाथ पर हाथ रखकर निठ्ठले बैठने वाले, इधर-उधर बैठकबाजी करने वाले अथवा सुविधाभोगी लोग उसका आनन्द नहीं ले पाते। ऐसे लोग जीवन की उन सच्चाइयों से या तो अनभिज्ञ रहते हैं या फिर उनसे मुँह मोड़ लेना चाहते हैं।
       जिन लोगों को घर में पकी-पकाई खीर मिल जाती है, वे स्वादिष्ट खीर बनाने के रहस्य को कभी नहीं जान सकते। उसके लिए खीर बनाने वाले को कितना परिश्रम करना पड़ता है? कितनी प्रकार की सामग्रियाँ उसके लिए जुटाई जाती हैं? उसे बनाने में कितना समय लगता है? उसे बनाने वाले की भावना अथवा उसके प्यार के मूल्य को वे लोग न तो जान सकते हैं और न ही समझ सकते हैं।
       ठण्डी हवा का सुख उसी व्यक्ति को समझ में आ सकता है जो बाहर की गरमी में तपकर आया है, अपना बहुमूल्य पसीना बहाकर आया है या दिन भर परिश्रम करके थका हुआ है। जो मनुष्य दिन भर कूलर या एसी में बैठा हुआ गरमी में खूब ठंडक का आनन्द ले रहा है वह हवा की शीतलता के वास्तविक सुख  का अहसास नहीं कर सकता। गर्मी में तपकर आए मनुष्य को पंखे की हवा में भी ठंडक का अहसास हो जाता है।
       बगीचे में खिले हुए फूलों की खूशबू उसी व्यक्ति को मोहित कर सकती है जो फूलों का आनन्द लेना जानता है, जो प्रकृति के साथ अपना जुड़ाव महसूस करता है। सारा दिन इत्र, डियो या सुगन्धित साबुनों आदि में नहाया रहने वाला मनुष्य प्राकृतिक सुगन्ध से नित्य दूर होता जाता है। उस व्यक्ति को फूलों से आती हुई सुगन्ध के स्थान पर दुर्गन्ध का ही आभास होने लगता है।
        दिनभर शीतल पेय पीने वाले, फ्रिज और वाटर कूलर के ठण्डे जल पीने वाले मनुष्य वास्तव में जल की शीतलता के वास्तविक सुख से वञ्चित रह जाते हैं। गरमी में तपकर आए हुए व्यक्ति को यदि मटके या नल का सदा जल मिल जाए तो वह भी उसके लिए अमृत तुल्य होता है।
       माता-पिता के मेहनत से कमाए हुए धन पर ऐश करने वाले पैसे की कीमत नहीं जानते। उस धन का दुरुपयोग करने में भी उन्हें परहेज नहीं होता। यदि दुर्भाग्यवश उन्हें कभी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर पापड़ बेलते हुए, बहुत कठिनाई से धन कमाना पड़ जाता है तब उन्हें उसकी कीमत पता चलती है। फिर वे उस धन को दाँतों से पकड़कर रखते हैं। उसे व्यय करते समय दस बार सोचते हैं।
       कहने का तात्पर्य यही है कि जब मनुष्य सुविधाभोगी होता जाता है तो वह वास्तविकता से बहुत दूर चला जाता हैं। जमीनी हकीकत से वह मुँह मोड़ने लगता है।
       ईश्वर न करे यदि अस्वस्थ होने की स्थिति में या दुर्भाग्यवश कभी किसी भी कारण से मनुष्य को उन सुख-सुविधाओं से वञ्चित होना पड़े अथवा कभी जीवन की सच्चाइयों से दो-चार होना पड़े या उनका सामना करना पड़े तो हालात बड़े कठिन हो जाते हैं। उस समय वह अपने हाथ-पैर छोड़ देता है। रोने-चिल्लाने लगता है। परिस्थितियों से भागने की उसकी प्रवृत्ति उसे बेचैन कर देती है।
      एक ओर वे लोग हैं जो नरम-मुलायम गद्दों पर रातभर करवटें बदलते रहते हैं, उन्हें नींद नहीं आती। नींद के आगोश में जाने के लिए उन्हें गोली खानी पड़ती है। उधर दूसरी ओर कठोर शारीरिक श्रम करने वाले पत्थर को अपना तकिया बनाकर नंगी जमीन पर चैन से सो जाते हैं। सुविधाभोगी लोगों के पास बीमारियाँ बिन बुलाए मेहमान की तरह आती हैं। सब कुछ होते हुए भी वे मनपसन्द खाना खा नहीं सकते।
      इन्हीं स्थितियों से जीव जगत को बचाने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में द्वन्द्व सहन करने का सदुपदेश दिया था। हमें सभी सुविधाओं को भोगते हुए विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए सन्नद्घ रहना चाहिए और प्रतिदिन ईश्वर द्वारा दी गई अमूल्य नेमतों के लिए उसका धन्यवाद करते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

प्रेम गली

प्रेम का रास्ता बहुत ही कष्टकर होता है। इसके साथ-साथ बहुत तग अथवा संकरा भी होता है। एक समय में इसमें से एक ही व्यक्ति गुजर सकता है, दो नहीं। इसी भाव को दोहे के इस अंश में कहा गया है-
          प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाए।
अर्थात् प्रेम की गली में बहुत संकरी है, उसमें इतना स्थान ही नहीं है कि उसमें से दो लोग एकसाथ समा सकें।
         जब तक दो व्यक्तियों में तेरा और मेरा का भाव रहेगा तब तक प्रेम नहीं हो ही नहीं सकता। जब वे दो जिस्म और एक जान बन जाते हैं तब सही मायने में प्यार होता है। यह बहुत ही गूढ़ विषय है। जब दो लोगों में ऐसा प्यार हो जाता है तो वहाँ समर्पण की भावना होती है। वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को बिन कहे और बिन सुने समझ जाते हैं। मीलों दूर बैठे हुए भी एक-दूसरे की खैर-खबर रख सकते हैं, जिसे हम टेलीपैथी कहते हैं। वह उनमें स्वत: विकसित हो जाती है।
          यह सब दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान होता है। जहाँ चूक हो गई वहाँ मनुष्य चोट खा लेता है। फिर उसे सुधारने में वर्षों व्यतीत हो जाते हैं।
         प्रेम की यह गहरी परिभाषा है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार से दो अलग-अलग शख्सियत बनकर इस मार्ग में नहीं रहा जा सकता है। सच्चा प्रेम अपने अस्तित्व को अर्थात् स्व को मिटाकर दूसरे में एक हो जाना होता है। यह सम्बन्ध प्रतिदान नहीं माँगता बल्कि पूर्ण समर्पण भाव इसमें होता है।
         प्रेम कुछ लेना नहीं जानता, वह तो बस देना ही जानता है। इसीलिए सबको अपना बना लेता है। यदि लेनदेन की या बदले की भावना यहाँ हावी गई तो फिर वह प्रेम नहीं रह जाता बल्कि व्यापार बन जाता है। इस प्रेम को विशुद्ध ही रहने दें, इसमें विष न घोलें।
         पति-पत्नि का प्रेम भी सही मायने में ऐसा ही होना चाहिए। दोनों में तेरा-मेरा न होकर हमारा होना चाहिए। दोनों के सुख-दुख सब एक होने चाहिए। जब तक तन, मन और धन से वे दोनों एक नहीं होंगे उनका प्रेम अधूरा रहेगा। परस्पर का यह अधूरापन हमेशा नुकसान देता है।
         दोनों में समझौता हो जाना कोई शुभ लक्षण नहीं है। जहाँ समझौता टूटा वहीं पर बिखराव होने लगता है। तब परिवार टूटने लगते हैं और आपसी सम्बन्ध दरकने लगते हैं। लम्बे समय तक दोनों को साथ निभाना होता है। इसलिए जीवन में परस्पर प्रेम और  विश्वास को बनाए रखना पति-पत्नि दोनों का कर्त्तव्य है।
          आज युवा पीढ़ी ने इस प्यार को एक व्यापार बना दिया है। उनके लिए इस प्यार के मायने केवल मौज-मस्ती है।प्यार के नाम पर वे उच्छृंखल बनते जा रहे हैं। जहाँ तक उनका स्वार्थ पूरा होता रहता है, बस वहीं तक प्यार होता है। उसके बाद फिर तू कौन और मैं कौन? वे इस बात को बिल्कुल भूल गए हैं कि प्यार देने और समर्पण का नाम है। इसमें स्वार्थ का कोई काम नहीं है।
          एकपक्षीय प्रेम सदा ही घातक होता है। इसके चक्कर में हत्याएँ व आत्महत्याएँ भी हो जाती हैं। एसिड अटैक भी इसी का ही परिणाम है। यथासम्भव इससे बचना चाहिए और दूसरो को बचाना चाहिए।
           ईश्वर से प्रेम का आधार भी पूर्ण समर्पण है। उससे लौ लगाने का अर्थ है उसमें एकाकार हो जाना। यह वही प्यार है जो मीराबाई ने दुनिया की परवाह न करके अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर भगवान कृष्ण से किया। राधा ने भी सच्चे मन से भगवान कृष्ण से नाता जोड़ा। हमारे ऋषि-मुनि इसी प्यार की बदौलत असार संसार के सारे कारोबार से स्वयं को विलग कर लेते हैं।
          जब तक इस प्यार में तड़प न हो, तब तक मनुष्य इस संकरे रास्ते पर चल ही नहीं सकता। दोनों के मैं को छोड़े बिना यह पवित्र प्रेम सम्भव नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

मूर्खों का मौन

मनीषी कहते हैं कि हर व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन अवश्य रहना चाहिए। इससे आत्मिक शक्ति बढ़ती है। ऋषि-मुनि मौन धारण करके अपनी आध्यात्मिक शक्ति का संवर्धन किया करते थे। यही मौन मूर्खों के लिए उस समय वरदान बन जाता है जब वे विद्वत सभा में बैठे होते हैं। किसी भी विषय पर विद्वत चर्चा में वे कुछ भी बोल पाने या अपने सुझाव सबके समक्ष रख पाने में असमर्थ होते हैं। इसलिए विद्वानों के मध्य उनका न बोलना यानी चुप लगा जाना ही उनके लिए उपयुक्त होता है। किसी कवि ने इस विषय पर अपने विचार बड़े ही सुन्दर शब्दों में हमारे समक्ष निम्न श्लोक के माध्यम से प्रस्तुत किए हैं-
           स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा
                   विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः।      
           विशेषतः सर्वविदां समाजे       
                   विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥
अर्थात अपनी मूर्खता को छिपाने के लिए भगवान ने मूर्खों को मौन धारण करने का एक अद्भुत सुरक्षा कवच दिया है, जो उनके अधीन भी है। विद्वानों से भरी सभा मे मौन रहना मूर्खों के लिये आभूषण से कम नहीं है।  
           कवि के कथनानुसार मूर्ख व्यक्ति को विद्वानों की सभा में अपना मुँह नहीं खोलना चाहिए। इसका कारण उसका अल्प ज्ञान होता है। वे स्वयं को महान विद्वान सिद्ध करने के लिए कितना भी प्रपञ्च क्यों न कर लें, उनकी वास्तविक योग्यता विद्वत सभा में ही परखी जा सकती है। वहाँ वे जानबूझकर चुप लगा लेते हैं ताकि उनकी पोल न खुल जाए। यदि किसी कारणवश ऐसा हो जाए तो उनकी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। सब लोगों को ज्ञात हो जाएगा कि उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं, वे बस दूसरों को बेवकूफ बनाकर, आज तक अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।
          ऐसे तथाकथित विद्वान तभी तक ही ज्ञान के अखाड़े के पहलवान बने रह सकते हैं, जब तक उनका समय बलवान होता है। जब उनके अहंकार के कारण समय उनका साथ नहीं देता तब कोई भी व्यक्ति उनको घास नहीं डालता। उस समय जब उनकी टाँय-टाँय फिस हो जाती है तब उनके लिए मुँह छिपाना कठिन हो जाता है। विद्वत सभा से वे तब अलग-थलग हो जाते हैं अथवा कर दिए जाते हैं। विद्वान उनसे किनारा कर लेते हैं और अपने से हेय कहते हुए जिनसे उन्होंने किनारा किया होता है, उनके पास वे तिरस्कार के भय से जा नहीं पाते। इसलिए सबसे अपने पूर्वकृत व्यवहार के कारण वे हर स्थान से उपेक्षित होकर अकेले पड़ जाते हैं।
          ऐसे महानुभावों का विद्वत्सभा में मौन रहना उनके स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है। इससे उनका सम्मान बचे रहने की सम्भावना बनी रहती है। जितना अपने पास ज्ञान हो, उसके अनुसार ही यदि अपना प्रचार-प्रसार किया जाए तो सदा ही सुख का कारण होता है। ऐसा करने से कलई खुल जाने का भय से मन से सदा के लिए निकल जाता है। फिर किसी प्रकार का तनाव भी नहीं रहता। मनुष्य बिना किसी दुविधा के सरलतापूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है।
          कवि ने मौन को मूर्खों का सुरक्षा कवच कहा है। इसकी आड़ में इनका अल्पज्ञान दूसरों के सामने नहीं आ पाता, यदि ये सावधान रह सकें तो। वास्तव में यह मौन इन लोगों को ईश्वर ने उपहार स्वरूप प्रदान किया है। इसके लिए उन्हें परमात्मा का धन्यवाद करना चाहिए। इस मौन का आश्रय लेकर ये लोग चाहें तो अपनी सहायता स्वयं कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 27 दिसंबर 2017

विद्वत्ता पूर्णता में

थोथे चने की तरह वही मनुष्य अधिक बोलता है जो अपूर्ण या अज्ञानी होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो वास्तव में विद्वान होता है, उसे यह ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता कदापि नहीं होती कि वह विद्वान है। उसकी विद्वत्ता की सुगन्ध फूलों की तरह स्वयमेव चारों ओर फैल जाती है। तभी सर्वत्र उसका सम्मान होता है। जो व्यक्ति अधूरा ज्ञान रखता है, वह बढ़-बढ़कर बोलता है। एक कहावत है-
        अधजल घघरी छलकत जाए।
अर्थात जो मटका जल से आधा भर होता है, वह अधिक छलकता है, यानी वही ज्यादा शोर करता है।
       और भी एक उक्ति है, इसे देखिए-
        जो गरजते हैं वे बरसते नहीं।
अर्थात जो बादल अधिक शोर करते हैं, वे बरसते नहीं हैं। जो बादल बरसने वाले होते हैं वे शोर नहीं करते, वे बस बरसकर, धरती की प्यास बुझाकर चुपचाप वापिस चले जाते हैं।
        किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में इस कथन पर अपनी स्वीकृति दर्शाते हुए यह चित्रण किया है-
       संपूर्णकुंभो न करोति शब्दं
            अर्धोघटो घोषमुपैति नूनम्।
       विद्वान्कुलीनो न करोति गर्वं
           जल्पन्ति मूढास्तु गुणैर्विहीनाः॥
अर्थात जिस प्रकार आधा भरा हुआ मटका अधिक आवाज करता है पर पूरा भरा हुआ घड़ा जरा भी आवाज नहीं करता। उसी प्रकार विद्वान अपनी विद्वत्ता पर घमण्ड नहीं करते। इनके विपरीत गुणहीन लोग स्वयं को गुणी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।
          इस श्लोक का मन्तव्य यही है कि विद्वान अपने आचार-व्यवहार से, बोलचाल के तरीके से अपनी छाप सबके हृदयों पर छोड़ जाता है। विद्वत्ता की सबसे पहली शर्त होती है विनम्रता। जिसका समर्थन यह कहकर किया जाता है-
             विद्या ददाति विनयम्।
अर्थात विद्या विनम्रता देती है। विद्वान वही है जिसे अपनी विद्या का अहंकार न हो। विद्या का मद उसे ले डूबता है। यदि वह घमण्डी होगा तो उसे समाज में वह स्थान नहीं प्राप्त हो सकता जिसका वह अधिकारी है। अहंकारी विद्वान के पास कोई भी मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं जाना चाहता। यदि कोई व्यक्ति उसके पास जाएगा भी तो किसी विवशता के कारण ही जाएगा।
          विद्वत्ता का ढोंग करने वाला बहुत समय तक अपनी दुकान नहीं चल सकता। विद्वत्ता का ढोंग करने वाला केवल अपनी तारीफों के पुल बाँधता है। रंगे सियार की तरह उसकी पोल शीघ्र ही खुल जाती है। जैसे आजकल टी. वी., समाचारपत्रों में अल्पज्ञानी या तथाकथित विद्वान सुर्खियों में छाए रहते हैं। सर्वत्र उनकी आलोचना होती रहती है। ऐसे अल्पज्ञों का अन्त बुरा होता है। उस समय अपना मुँह छिपाने के लिए उन्हें कहीं भी स्थान नहीं मिलता। फिर वे सबकी आँख की किरकिरी बन जाते हैं।
         वास्तव में जो विद्वान होते हैं वे अपनी प्रशंसा से बचते हैं। इसलिए वे आगे आना नहीं चाहते। वे चाहे कितने ही पर्दों में छिपकर बैठ जाएँ, उनकी सुगन्ध को सूँघते हुए पारखी उन्हें खोज ही लेते हैं और उनके ज्ञान का सदुपयोग कर लेते हैं। विद्वानों की यह विशेषता होती है कि उनकी ज्ञान पिपासा कभी शान्त नहीं होती। वे निरन्तर अध्ययनरत रहते हैं, मूर्खों की भाँति अपने समय को व्यर्थ नहीं गँवाते।
         विद्वान हीरे की तरह बहुमूल्य रत्न होते हैं। पारखी ही उनका मूल्य जान सकता है। ऐसे विद्वानों को खोजकर, यत्नपूर्वक उनसे ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। अल्प ज्ञानियों के जाल में फँसने से परहेज करना चाहिए।       
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

ईश को भजो

इस धरती पर पेड़-पौधे, जलचर (पानी में रहने वाले), नभचर (आकाश में उड़ने वाले) और  भूचर (पृथ्वी पर रहने वाले) जीव-जन्तु आदि कुछ भी स्थाई नहीं है। मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है। जो भी जीव इस असार संसार में जन्म लेता है, उसका अन्त यानी मृत्यु पहले से ही निश्चित होती है। इसीलिए मनीषी इस संसार को मरणधर्मा कहते हैं। इसी कड़ी में हर जीव का जन्म बार-बार होता है और इसी प्रकार उसकी मृत्यु भी बार-बार होती है। इसी प्रक्रिया में जीव को माता के गर्भ में रहने का कष्ट भी बार-बार भोगना पड़ता है। इससे जीव को छुटकारा नहीं मिल सकता। जन्म और मृत्यु के इन दुस्सह कष्टों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को केवल परमपिता परमात्मा की शरण में जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई अन्य उपाय नहीं है।
         'गीतगोविन्दम्' पुस्तक में भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त जयदेव जी ने इसी सत्य का उद्घाटन करते हुए बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
       पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
       पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
       इह संसारे बहुदुस्तारे,
       कृपयाऽपारे पाहि मुरारे
       भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
       गोविन्दं भजमूढमते।
       नामस्मरणादन्यमुपायं,
       नहि पश्यामो भवतरणे।।
अर्थात बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है। हे कृष्ण! कृपा करके रक्षा करो। गोविन्द को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो। क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
        'गीतगोविन्दम्' के कवि का यह कथन हमें समझा रहा है कि जन्म-मरण के दुख और माता के गर्भ में रहने का कष्ट जीव को बार-बार भोगना पड़ता है। इससे  बचने का मात्र एक ही उपाय है, वह है ईश्वर की आराधना करना। इस संसार सागर से पार पाने के लिए उसकी शरण में जाना ही श्रेयस्कर होता है। वही जन्म-मरण के इन बन्धनों से जीव को मुक्ति दिला सकता है। यदि प्रभु से नाता न जोड़ा जाए तो इस चक्र में जीव फँसा रहता है। मनीषियों द्वारा बताई गई चौरासी लाख योनियों में वह भटकता रहता है। उसे किसी भी तरह इससे छुटकारा नहीं मिल सकता।
         जितना मनुष्य ईश्वर से दूर होता जाता है, उतना ही वह मोह-माया आदि के चक्रव्यूह में उलझता जाता है। संसार के आकर्षण इतने मोहक होते हैं कि वे मनुष्य को सदा ही अपनी और आकर्षित करते रहते हैं। वह उनमें गहरे और गहरे डूबता ही चला जाता है। उससे बाहर निकल पाना उसके लिए असम्भव-सा हो जाता है। यदि मोह-माया के बन्धनों में मनुष्य न फँसें तो वह साधु-सन्यासी बनकर ईश्वर को पाने के लिए धूनी रमा लेता। तब फिर वह परमपिता परमात्मा को पाकर ही चैन लेता और मुक्त हो जाता।
         शास्त्र और मनीषी मनुष्य को यही समझाते रहते हैं कि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखे, आत्मसयंम रखे। संसार के आकर्षणों या प्रलोभनों से बचकर दुनिया में ऐसे अपना जीवन व्यतीत करे जैसे जल में कमल रहता है।
जल अथवा कीचड़ में खिलते हुए कमल पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार दुनिया में रहते हुए मनुष्य को अपने सभी कार्यों का निष्पादन निस्पृह होकर करना चाहिए। यही कार्य उसके लिए असम्भव है।
         मनुष्य संसार के हर जीव को वश में कर सकता है, सागर का सीना चीर सकता है, विशालकाय पर्वतों पर अपना परचम फहरा सकता है, ग्रह-नक्षत्रों और आकाश पर अपनी उड़ान भर सकता है परन्तु स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख सकता। इसीलिए दुखों और परेशानियों को न्यौता देता रहता है। वह ईश्वर से दूरी बनाकर रहता है, तभी पुनः पुनः जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 25 दिसंबर 2017

हमारी कौन सुनता है?

ब़चपन में अपनी माता जी के मैं साथ कभी-कभी आर्य समाज चली जाती थी। वहाँ पर एक भजन गाया करते थे। वह मुझे पूरा याद नहीं पर दो-तीन लाइनें याद हैं-
        तेरे दर को छोड़कर किस दर जाऊँ मैं
        सुनता मेरी कौन है जिसे सुनाऊँ मैं
        जबसे याद भुलाई तेरी लाखों कष्ट उठाए हैं
        छींटा दे दो ज्ञान का होश में आऊँ मैं।
इसे सुनकर बाल सुलभ जिज्ञासा मन में उठती थी। उस समय हम बच्चों में उतनी समझ नहीं थी जितनी आज की पीढ़ी चुस्त है। तब मैं सोचा करती थी कि यह सुनता कौन है? अगर यह सुनता कोई इंसान है तो वह क्या सुनाना चाहता है? वह ऐसा क्यों कहता कि उसकी बात कोई नहीं सुनता? सब उसे नजर अंदाज क्यों करते हैं? ये प्रश्न निरंतर मन को उद्वेलित करते रहे।
       फिर जब कुछ बड़ी हुई तो अर्थ समझ आया कि सुनता कोई इंसान नहीं है बल्कि यह हम सब की पीड़ा है कि हमारी बात कोई नहीं सुनता हम किसे अपनी बात सुनाएँ। अब भी प्रश्न मुँह बाए खड़ा रहता कि माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-रिश्तेदार आदि सभी तो अपने हैं फिर वे हमारी बात क्यों नहीं सुनेंगे?
        उसके बाद जब गहरे उतरी तो समझ आया कि दुनियावी रिश्ते तो बस नाम के हैं। ये सभी पूर्वजन्म कृत हमारे अपने कर्मों के अनुसार हमारे साथ जुड़े हुए हैं। सभी माया में जकड़े हुए लाचार हैं जो चाहकर भी अपनों के लिए कुछ नहीं कर पाते। बस असहाय से उसके दुख-तकलीफों आदि में व्यथित होते रहते हैं।    
       हमारा असली रिश्ता तो उस परमात्मा के साथ है जिसके हम अंश हैं। वही हमारे लिए सब कुछ करता है। हमें सुख-समृद्धि देता है। हमारे कर्मों के हमें अनुसार जन्म भी देता है और हमारा पालन-पोषण करता है। वही हमारी बातों को सुनता है। हमारे सांसारिक रिश्ते-नाते मुँह मोड़ लेते हैं तो इंसान सबसे कटकर अलग-थलग हो जाता है। कोई भी उसका साथी नहीं रहता। उस स्थिति की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
          सोचिए यदि वह मालिक हमारी ओर से मुख मोड़ ले तो? नहीं, हम यह बात स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। उसे प्रसन्न करने के लिए, उसकी कृपा पाने के लिए हम तरह-तरह के यत्न करते हैं। उसे रिझाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। उन प्रयासों की सफलता या असफलता निश्चित ही हमारी सच्चाई और ईमानदार कोशिशों पर निर्भर करती है।
         इन पंक्तियों में कहा है कि प्रभु को भुला देने पर लाखों कष्टों का सामना करना पड़ा है। जितना उससे दूर होते जाएँगे उतने ही हमारे दुखों में वृद्धि होती जाती है। हम अज्ञानी हैं इसलिए अपराध कर बैठते हैं। यहाँ उस परमपितासे प्रार्थना की है कि हमें ज्ञान का छींटा दे दो ताकि हम होश में आ जाएँ। जैसे बहोश व्यक्ति को पानी का छींटा देते हैं तो उसकी बेहोशी दूर हो जाती है और उसकी चेतना लौट आती है।
          उसी प्रकार हम अज्ञानियों को जब ईश्वर ज्ञान का छींटा देगा तो हमारा अज्ञान दूर हो जाएगा और हमारे अंतस में ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा। तब हमें सही-गलत का भेद समझ में आ जाएगा। उस समय हम कुमार्ग का त्याग करके सन्मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे।
          दूसरे शब्दों में कहें तो इस संसार की असारता को समझकर हम सारतत्त्व ईश्वर की ओर अपना ध्यान करेंगें। हम तो मनुष्य हैं न, घाटे का सौदा नहीं कर सकते। यहाँ पर भी अपना लाभ देखते हुए प्रभु की ओर सच्चे मन से उन्मुख होंगे। ऐसा करके ही अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग सहज हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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