सोमवार, 31 दिसंबर 2018

नववर्ष

स्वागत है नववर्ष
तुम एक बार फिर से
मुस्कुराते हुए आ रहे हो
अपनी मनमोहिनी छटा बिखेरते हुए।

तुम्हारे आने का
उल्लास धरती पर
चहुँ ओर दिखाई देता है
हर मन नई आस लिए बाट जोहता है।

अब सब सोचते हैं
शायद कुछ नया होगा
नव नवीन वादों से हटकर
सबके जीवन में हो जाएगा सुधार।

चाहते हैं रोक सकें
वह क्रन्दन, वह बन्धन,
वह भ्रष्टाचार, वह रिश्वतखोरी,
वह अनाचार, वह कदाचार मिल सब।

कोई कृष्ण धरा पर
अस्मत की रक्षा और
आततायी के विनाश हेतु
शायद आ ही जाए सुदर्शन चक्र लिए।

भूखों को अन्न
नग्नों वस्त्र देने वाला
कोई दानवीर एक बार
फिर से अवतरित हो जाए इस साल।

हो जाए किसी विध
आतंक का घिनौना रूप
इस जहाँ से कोसों कोस दूर
बच जाए मानवता शर्मसार होने से।

तुम्हारे आ जाने से
चारों ओर खुशियों का
साम्राज्य छा जाए बस
आशा करते हैं मिलकर सब जन।

नव निर्माण हो
नव-नूतन विहान हो
नव सृष्टि का विधान हो
नव उड़ान भरने के लिए नव पंख हों।

आओ नववर्ष आओ
चारों ओर होने वाले इस
जीवन संगीत को सुनो जरा
तुम्हारे आने की खुशी में हैं सब उत्सव।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 30 दिसंबर 2018

निन्यानबे का फेर

निन्यानवे का फेर बहुत परेशान करता है। इसके फेर से न तो कोई आज तक बच पाया है और भविष्य में भी शायद ही कोई इससे बच सकेगा।
        आखिर यह निन्यानवे का फेर है क्या? क्यों यह सबके दुःख का कारण बनता है? इससे बच पाना मनुष्य के लिए असम्भव क्यों है?
        ये कुछ प्रश्न हैं जिनकी हम विवेचना करेंगे। कहते हैं कि बहुत समय पहले एक गरीब दम्पत्ति बहुत कष्ट में अपना समय व्यतीत कर रहे थे। पर बड़े सुकून से रहते थे। उनकी यह दुरावस्था किसी सहृदय सज्जन से देखी नहीं गई। उन्होंने उनकी सहायता करने का विचार किया। यदि वे सामने से जाकर सहायता करते तो स्वाभिमानी दम्पत्ति आहत हो जाता।
        इसलिए उन्होंने ने एक निर्णय लिया और फिर उसके घर में चुपके से एक थैली में कुछ रुपए रख दिए। अब वे देखना चाहते थे कि वे दोनों उस धन को पाकर क्या प्रसन्न हो जाएँगे? उन्होंने उन दोनों पर नजर रखनी शुरू की।
         उन दोनों ने जब अपने घर में अचानक रुपयों से भरी थैली देखी उनकी ख़ुशी का पारावार न रहा  तो अपने सौभाग्य को सराहा। जब उन्होंने ने पैसे गिने तो वे निन्यानवे सिक्के निकले। अब उनके मन में यह इच्छा हुई कि किसी तरह इस राशि को सौ तक पहुँचा दें। अब उनका सारा सुख-चैन खो गया। दिन-रात बस एक ही धुन कि किसी तरह उनकी धनराशि सौ रुपए हो जाए।
        वे खूब मेहनत करके कमाते रहते और जब उन्हें लगता कि अब उनके पास सौ रुपए हो जाएँगे तो ऐसे खर्च आ जाते की वह राशि सौ के आंकडे तक ही नहीं पहुँच सकी। इसीलिए यह निन्यानवे के फेर वाली उक्ति बनी।
         यह केवल उस गरीब दम्पत्ति की व्यथा-कथा नहीं है बल्कि हम सब भी इसी कमाने धुन में दिन-रात कठोर परिश्रम करते हुए कोल्हू का बैल बन जाते हैं। अपना सुख-चैन गंवा देते हैं पर मनचाहा धन नहीं कमा पाते।

        इन्सान इस धन को कमाने की होड़ में अपना-आपा तक भूल जाता है। उसका मस्तिष्क बस पैसे को कमाने की जुगाड़ में लगा रहता है। उसका हृदय सच-झूठ, भ्रष्टाचार, कालाबजारी, किसी का गला काटने से भी परहेज न करता हुआ संवेदना शून्य तक हो जाता है। जिनके लिए वह सारे पाप-पुण्य करता है उन्हीं से दूर होकर एक समय के पश्चात अकेला रह जाता है।
         यह पैसा है कि इसकी हवस दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। जितना मनुष्य इसके पीछे भागता है उतना ही वह उसे और नाच नाचता है। इन्सान सोचता है कि उसने इतना कमा लिया की उसकी सात पुश्तें आराम से बैठकर खा सकती हैं। पर वह भूल जाता है कि जो भी वस्तु मनुष्य की बिना मेहनत किए मिल जाती है उसकी वह कद्र नहीं करता।
        यही बात धन-संपत्ति के साथ भी होती है। अनायास मिले अकूत धन-वैभव को उसके उत्तराधिकारी सम्हाल नहीं पाते और उसे दुर्व्यसनों में बर्बाद कर देते हैं। फिर जायज-नाजायज तरीके से कमाया हुआ सारा धन तो व्यर्थ होता ही है और जिनको सताया उनकी बद्दुआएँ भी पीछा नहीं छोड़तीं।
         इसीलिए सयाने कहते हैं-
            पूत सपूत तो का धन संचै
            पूत कपूत तो का धन संचै।
अर्थात यदि पुत्र सुपुत्र है तो वह स्वयं ही काम लेगा, उसके लिए धन का संचय न करो। यदि पुत्र कुपुत्र है तो वह सारा धन उजाड़ देगा, उसके लिए धन संचय करना व्यर्थ है।
         इसके अतिरिक्त सुनामी, भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय यह अनैतिक कमाई नहीं दूसरों द्वारा दिए गए आशीर्वाद ही काम आते हैं। इस सत्य को कभी भी अपने मन से नहीं निकालना चाहिए।
          तात्पर्य यही है कि बच्चों को संस्कारी बनाएँ। धन तो वे काम ही लेंगे। स्वयं भी ईमानदारी और सच्चाई से धन कमाइए उसमें बहुत बरकत होती है। ईश्वर भी ऐसे सज्जनों से प्रसन्न रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 29 दिसंबर 2018

अग्नि

अग्नि का गुण जलाना होता है। हम इसे छू नहीं सकते। हम जानते हैं कि इस पर हाथ रखेंगे तो वह जल जाएगा और फिर बहुत कष्ट देगा। उष्णता, तेज और प्रकाश इसके स्वाभाविक गुण होते हैं। अग्नि से हमारा जीवन चलता है। हम हर प्रकार के अन्न को इसी के माध्यम से पकाकर खाते हैं और स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लेकर अपने शरीर को पुष्ट करते हैं।
          यदि यह अग्नि न होती तो हम आज भी आदि मानव की तरह पेड़ों से तोड़कर सब कच्चा ही खाते। इसी अग्नि के कारण हम जीवन में सभी प्रकार की सुख और सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। हमारे घर और बाहर हर ओर रौशनी होती है।
         अग्नि तीन प्रकार की मानी जाती है- दावानल, बड़वानल और जठराग्नि।
दावानल जंगल में लगने वाली आग होती है जो जरा-सी हवा चलने पर विशाल जगलों को जलाकर राख कर देती है। उसमें बड़े-बड़े वृक्ष, पशु और पक्षी जलकर खाक हो जाते हैं। बड़वानल समुद्र में लगने वाली आग को कहते हैं। पानी की यही आग है जिससे हम बिजली बनाते हैं और जीवन का आनन्द लेते हैं।
        जठराग्नि मनुष्य के शरीर में होती है। यह भोजन को अच्छे से पचाने में सहायता करती है। शरीर की अग्नि जब सुचारू रूप से काम करती है तब मनुष्य के चेहरे पर तेज चमकता है उसकी रौनक ही अलग दिखाई देती है। युवावस्था में प्राय: लोगों के चेहरों पर हम देख सकते हैं। अपने जीवन को संयमित रखने वालों के चेहरों पर तेज हमेशा दिखाई देता है।
        यदि यह अग्नि शरीर में बढ़ जाए तो बहुत-सी परेशानियों को जन्म देती है। मनुष्य का चेहरा लाल हो जाता है। पसीना भी बहुत अधिक आने लगता है। एसिडिटी और रक्त संबंधी दोष शरीर में हो जाते हैं। शरीर में जलन होने लगती है। जरा-सी ठंड लग जाने पर खाँसी-जुकाम जैसी परेशानी हो जाती है।
          बारबार छींकते रहना पड़ता है। आवाज भारी हो जाती है और गला बैठने लगता है। यदि शरीर की अग्नि मन्द हो जाती है तो मनुष्य का चेहरा कान्तिहीन हो जाता है। उस समय उसे बहुत से रोग घेर लेते हैं। उसकी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है जिससे उसका भोजन पच नहीं पाता। पेट की बहुत-सी बिमारियों से मनुष्य घिर जाता है। पेट खराब हो जाने से खाने-पीने के परहेज करने पड़ते हैं।
        कभी घरों, बाजारों या फैक्टरियों आदि में आग लग जाए तो कितना नुकसान कर देगी पता नहीं। न जाने कितने ही लोगों की जान भी चली जाती है।
         यह अग्नि किसी को भी क्षमा नहीं करती जो इससे घिर जाता है वह फिर भस्म हो जाता है परन्तु जब यह बुझ जाती है तो चींटियाँ भी इस चलने लगती हैं। इसी प्रकार मनुष्य जब रोगों से घिर जाता है तो वह भी तेजहीन हो जाता है। उसका चेहरा पीला या सफेद पड़ जाता है। उस समय वह सामर्थ्यहीन होकर ईश्वर से अपनी मृत्यु की गुहार लगाता है।
          अग्नि के प्रभाव से विभिन्न पदार्थ रूप परिवर्तित करते हैं। अग्नि हमेशा ही शुद्ध होती है। इसमें कैसा भी कचरा डाल दो उसे भस्म कर देती है। इसी अग्नि में ही शव का दाह संस्कार भी करते हैं। किसी वस्तु अथवा विचार की शुद्धता की परीक्षा अग्नि में तपने के बाद ही होती है। यह रूक्ष होती है। अग्नि संयोग और वियोग दोनों का ही कारण भी होती है। कहने का तात्पर्य है कि स्त्री और पुरुष के प्रेम का आधार अग्नि तत्त्व होता है। इसके मन्द पड़ जाने पर अलगाव की स्थिति बन जाती है।
         अग्नि हर स्थान पर अपनी शुद्धता को दर्शाती है। इसके न होने पर इसके तेज, प्रकाश और ताप से ही इस सृष्टि का जीवन है। इसके न होने पर चारों ओर अंधकार तथा शीत का प्रकोप हो जाएगा जिसके कारण इस जीव जगत का अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

अशरीरी शब्द

हर शब्द को यथासम्भव सम्हलकर ही सदा बोलना चाहिए। शब्द का कोई भी मूर्त रूप नहीं होता यानी हमारी तरह उनके शरीर या हाथ-पाँव नहीं होते। इसलिए वे हम इन्सानों की तरह हाथों-पैरों से झगड़ा नहीं करते और न ही हथियार चलाकर किसी को घायल कर सकते हैं अथवा किसी की जान ले सकते हैं।
          ये अशरीरी शब्द यानी शरीरधारी न होते हुए भी अपने सामने वाले को गम्भीर घाव दे जाते हैं। उन घावो की टीस आजन्म मनुष्य के मन को आहत करती रहती है। निम्न दोहे में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
          मधुर वचन हैं औषधि, कटुक वचन हैं तीर।
          स्रवण द्वार होई संचरे, वैधे सकल सरीर।।
अर्थात मधुर वचन औषधि की तरह होते हैं पर कड़वे वचन तीर की तरह होते हैं। सुनाई कानों से देते हैं पर सारे शरीर को बेध देते हैं।
           दूसरी ओर ऐसे शब्द भी हैं जो औषधि की तरह दूसरे की चोट पर मलहम लगाते हैं और सान्त्वना देते हैं। ये मधुर वचन कल्पवृक्ष और कामधेनु के समान होते हैं जो पलक झपकते ही मनोकामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। ये दुखी और पीड़ित व्यक्ति को कष्ट से राहत दिलाने का भरसक प्रयास करते हैं।
         शब्द बहुत अमूल्य होते हैं। इनका प्रयोग करते समय सावधानी बरतनी चाहिए इसीलिए कहा है- 'पहले तोलो फिर बोलो।' यानी जिन शब्दों का प्रयोग करना चाहता है, बहुत सोच-समझकर उन्हें बोलना चाहिए। मनीषी कहते हैं तीर का घाव भर जाता है पर शब्दों द्वारा दिया गया घाव नहीं भरता।
        इसी भाव को इस दोहे में बहुत सरल शब्दों में समझाया है-
         बोली एक अमोल है जो कोई बोले आन।
         हिय तराजू तौल के तव मुख बाहर आन।
अर्थात बोली या शब्द अनमोल होते हैं। उन्हें मन के तराजू में तोलकर ही अपने मुँह से बाहर निकालना चाहिए। यानी शब्दों को बैलेंस करके बोलना चाहिए, इसी में समझदारी होती है।
           बिहारी कवि के दोहों की तरह ये शब्द छोटे होते हुए भी गम्भीर घाव करते हैं। जब घाव नासूर बन जाते हैं तब किसी भी मनुष्य की सहनशक्ति सीमा को पार कर जाती है जिसका परिणाम भयंकर होता है। इसी के कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी शत्रुता निभाई जाती है। शत्रु पक्ष को अधिकाधिक जान और माल की हानि पहुँचाने का प्रयास किया जाता है।
         स्वर्ण मृग को पकड़ने गए भगवान राम की करुण पुकार का लक्ष्मण पर कोई प्रभाव न होने पर उसे भगवती सीता ने कठोर वचन कहे। फिर लाचार लक्ष्मण के प्रस्थान कर जाने के पश्चात रावण उन्हें हरकर ले गया। इसका दुष्परिणाम राम-रावण युद्ध था।
         दुर्योधन को कहे गए द्रौपदी के अपशब्दों के कारण महाभारत काल में विनाश का ताण्डव हुआ। जिसे भगवान  श्रीकृष्ण भी नहीं बचा सके।
       अपने अधीनस्थों और छोटों के लिए भी न तो कभी व्यंग्य बाण चलाने चाहिए और न ही अपशब्द बोलने चाहिए। ऐसा करने वाले मनुष्य को तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। समय-समय पर उनका उपहास भी किया जाता है।
        इन शब्दों के मर्मभेदी बाण चलाकर मनुष्य अपने मित्रों को शत्रु बना लेता है। इसके विपरीत सद् वचनों के प्रभाव से शत्रु को भी मित्र बना लेता है। यह सब शब्दों की शक्ति है जो मनुष्य से उसका मनचाहा करवा लेती है। इसे आम भाषा में हम चाटुकारिता या चापलूसी भी कह सकते हैं। चापलूसी एकाध बार तो किसी को मोह सकती है, हमेशा नहीं।
         अनावश्यक ही क्षणिक आवेश में आकर मनुष्य को कभी अनर्गल प्रलाप नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाले इन्सान को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। फिर धीरे-धीरे लोग उसके बोलने की परवाह करना छोड़ देते हैं। फिर उससे किनारा करने में परहेज नहीं करते।
         स्वयं पर और अपने शब्दों पर जो संयम रखते हैं वही व्यक्ति संसार में मान्य होते हैं। यही लोग लोकप्रिय बनते हैं। हर कोई उनका साथ पाने के लिए लालायित रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

अमीर और गरीब की खाई

अमीर और गरीब की खाई को पाटना शायद उतना ही कठिन है, जितना धरती और आकाश का मिलना। दोनों ही एक धुरी पर निश्चत दूरी बनाकर रहते हैं।
        धरती और आकाश के विषय में कहा जाता है कि एक स्थान पर ये मिल जाते हैं, जिसे क्षितिज कहते हैं। यह वास्तविकता है या हमारी आँखों का भ्रम है, इस पर विचार करना बहुत आवश्यक है।
         जब हम नजर उठाकर ऊपर आकाश की ओर देखते हैं तो हमें वह दूर-दूर तक दिखाई देता है। उसी तरह जब हम धरती की ओर देखते हैं तो हमें उसका ओरछोर भी नहीं समझ आता। खुले प्रदेश में जाकर जब हम बहुत दूर तक देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है मानो धरती व आकाश परस्पर मिलने लगे हैं। वास्तव में ऐसा नहीं होता, वे दोनों कभी भी नहीं मिलते। यह केवल एक आभासी रेखा है अर्थात् हमारी अपनी ही नजरों का धोखा होता है।
         जिस प्रकार धरती और आकाश नहीं मिल सकते उसी तरह अमीरी और गरीबी की खाई को पाटना बहुत कठिन कार्य है। आज इक्कीसवीं सदी के भारत में इन दोनों वर्गो का अन्तर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। अमीर लोग अधिक-अधिक अमीर बनते जा रहे हैं और गरीब नित्य ही अधिक गरीब होते जा रहे हैं।
          हम यहाँ किन्हीं आँकड़ों की बात नहीं करेंगे। फिर भी इतना अवश्य कहूँगी कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों का प्रतिशत बहुत अधिक है।  शायद वह पचास प्रतिशत से भी अधिक है। इस लेख के माध्यम से केवल इतना ही यहाँ कहना चाहती हूँ कि हमें इन गरीबों के प्रति सदा सहिष्णुता का व्यवहार करना चाहिए। ये भी उस ईश्वर की सन्तान हैं जिसने अमीरों को और हम सभी मनुष्यों को बनाया है। इस भौतिक संसार में माता-पिता के लिए सभी बच्चे एक जैसे होते हैं चाहे वे गोरे या काले हों, स्वस्थ या रोगी हों, मोटे या पतले हों।
          जिस जगत माता ने इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों को उत्पन्न किया है वह तो अपने किसी भी जीव के साथ भेदभाव नहीं करती। वह अपने सभी बच्चों को उनके कर्मों के अनुसार यथासमय सब कुछ बिनमाँगे देती रहती है। इसलिए उसे बिल्कुल सहन नहीं होता कि हम मनुष्य-मनुष्य में भेद करके उसकी सत्ता को चुनौती दें। उसके बच्चों से नफरत करें अथवा उन्हें धिक्कार कर परे हटा दें।
         ऐसी धन-सम्पत्ति जो न तो इहलोक और न ही परलोक में उनका साथ निभाती है, उसे प्राप्त करके पाकर मनुष्य  घमण्डी हो जाते हैं। वे अपने बराबर किसी को नहीं समझते। वे सोचते हैं कि उन्होंने धन क्या कमा लिया, उन्हें लाइसेंस मिल गया है कि वे किसी के भी साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं। तभी वे किसी ऐसे इन्सान को इन्सान नहीं समझते।
         गरीब आदमी पर तो वे अविश्वास करते हैं। उन्हें चोर-उचक्का समझते हैं। उनको छोटा आदमी कहकर सदा उनका तिरस्कार करते हैं। पर सच्चाई तो यह है कि उनका एक कदम भी इनके बिना नहीं चल सकता। वे बेशक उनकी वफादारी पर सन्देह करते हैं।
         ईश्वर ने उन पर इतनी कृपा की है और उन्हें सुख के भरपूर साधन दिए हैं तो भी वे इतना नहीं करते कि इन लोगों की यथासंभव सहायता करें। वे यदि चैरिटी करते हैं तो उसका उद्देश्य केवल दूसरों की वाहवाही पाना होता है। उन्हें यह बात सदा ही स्मरण रखनी चाहिए कि इन लोगों की दुआओं से ईश्वर उन्हें और अधिक सुख व समृद्धि देगा।
           धरती और गगन की तरह ही अमीर और गरीब में दूरी नहीं बनानी चाहिए। इन दोनों को सदा सद्भावना के धागे से जुड़कर रहना चाहिए। पूरे समाज के हित के लिए इन पिछड़े लोगों का उत्थान आवश्यक है। इस दिशा की ओर पहला कदम बढ़ाने की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 26 दिसंबर 2018

रुचिकर सुनना

हमें जो रुचिकर लगता है वही हम सुनना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति हमारी आलोचना करे। इसे हम एक इंसानी कमजोरी कह सकते हैं कि मनुष्य अपने प्रिय-से-प्रिय व्यक्ति का भी हस्तक्षेप अपने किसी मामले में पसंद नहीं करता।
           वह स्वयं चाहे दूसरों पर कितनी ही छींटाकशी क्यों न कर ले, उन्हें भला-बुरा कह ले परन्तु जब उसकी बारी आती है तो वह क्रोधित हो जाता है। वह सोचता है कि फलाँ व्यक्ति की हिम्मत कैसे हुई कि उसका विरोध करे? अपने विरोधियों को वह गाली-गलौज करता है, उन्हें पानी पी-पीकर कोसता है। ऐसा तो कदापि नहीं हो सकता कि जो अच्छा है, मीठा है वह हमारे हिस्से में आएगा और जो कटु है, कड़वा है वह दूसरे के हिस्से में रहेगा। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं- 'बिना आईने के मनुष्य अपना चेहरा नहीं देख सकता।' अर्थात अपनी असलियत जानने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है।
          हमें तो वही अच्छा लगता है जिसमें हमारी प्रशंसा हो। घर-परिवार में, भाई-बन्धुओं में और समाज में हमारा कोई भी विरोध करने वाला न हो। सभी लोग हमारी प्रशस्ति में कसीदे पढ़ते रहें। हमारे अंदर जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें अनदेखा करके सब लोग केवल हमारी अच्छाइयों के प्रशंसक बनें।
          इस सबको सोचने में, कल्पना करने में बहुत आनन्द आता है। परन्तु यदि हम इसे वास्तविकता के धरातल पर देख सकें तो यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता।
          हम भगवान तो हैं नहीं कि हममें कोई बुराई नहीं होगी। हम इन्सान हैं गलतियाँ करना हमारी आदत है। हम समय-समय पर गलतियाँ करते रहते हैं और फिर बार-बार उसके लिए क्षमा याचना करते हैं। जब हम पूर्ण नहीं हैं तो हमारी आलोचना होना भी स्वाभाविक है। हम इस समस्या से कभी बच नहीं सकते।
         ईश्वर जो पूर्ण है उस पर भी अकारण दोषारोपण करने से नहीं चूकते तो फिर दूसरों से यह आशा किस प्रकार रख सकते हैं कि हमारी मूर्खताओं के बावजूद भी वे हमें अपमानित नहीं करेंगे।
         अपनी टीका-टिप्पणी होने पर मनुष्य को कभी घबराना नहीं चाहिए। विपरीत परिस्थिति होने पर उसे सदैव डटकर सामना करना चाहिए, अपने आलोचकों को सम्मान देना चाहिए। ये वही लोग हैं जो उसकी कमियों को चुन-चुनकर दूर करने में उसकी सहायता करते हैं। यदि मनुष्य इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे तो वह अपने अन्दर विद्यमान कमजोरियों को नियन्त्रित  करके अपने भावी जीवन को सफल बना सकता है। इन निन्दकों को  शुभचिन्तक कहा है-
निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी-साबुन बिना निर्मल करे सुभाय॥
ये लोग मनुष्य के अंतस के दोषों को दूर करने में सहायक होते हैं। इसलिए इनसे घृणा करने के बजाय उन्हें अपना हितैषी मानना चाहिए।
          यदि मनुष्य ऐसा सोच ले तो उसे अपनी निन्दा होने पर दुख नहीं होगा बल्कि उसे उन सब लोगों की तुच्छ मानसिकता के विषय में सोचकर कष्ट होगा जो अपना मूल्यवान समय अनावश्यक ही दूसरों की बुराई करने में बरबाद करते हैं। तब अपनी प्रशंसा सुनकर उसे न तो प्रसन्नता होगी और न ही अपनी निन्दा सुनकर वह कभी विचलित होगा।
           अपने प्रति हुए ऐसे व्यवहार पर वह आनन्दित होगा और उससे सदा ही प्रेरणा लेता हुआ नित्य ही उन्नति के शिखर पर पहुँच जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

असहिष्णु बनते बच्चे

माता-पिता के अनावश्यक लाड़-प्यार के कारण आज बहुत से बच्चे असहिष्णु होते जा रहे हैं। आजकल बच्चों में जिद करना, कहना न मानना, तोड़फोड़ आदि की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और वे दिन-प्रतिदिन ईर्ष्यालु व अहंकारी बनते जा रहे है। यह वास्तव में चिन्ता का विषय है।
         आज इस इक्कीसवीं सदी में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है। इसलिए घर में पति-पत्नी दोनों ही उच्च शिक्षा ग्रहण करके नौकरी अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। सवेरे से शाम तक अपने कार्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने बारे में भी सोचने का समय नहीं होता। इससे उनका अपना सामाजिक जीवन भी प्रभावित होता जा रहा है।
           वे लोग अपने परिवार के बारे में सोचने से पहले कैरियर के विषय में सोचते हैं। इसीलिए समयाभाव के कारण पहली बात तो वे बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहते और यदि चाहते भी है तो बस एक बच्चा। चाहे वह लड़की हो या लड़का, उन्हें इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
           आज परिवार सीमित होते जा रहे हैं। बच्चों की जायज-नाजायज माँगों को पूरा करके वे उन्हें जिद्दी बना रहे हैं। जब उनकी माँग किसी कारण से पूरी नहीं हो सकती तो वे पैर पटकते हैं और तोड़-फोड़ करते हैं। सारे घर को सिर पर उठा लेते हैं। और हंगामा करते हैं।
          किसी दूसरे बच्चे के पास जो भी नई वस्तु देखते है वही उन्हें चाहिए होती है। चाहे उसकी जरूरत उन्हें हो या न हों। चाहे  खरीदकर उसे कोने में पटक दें। दूसरों को अपने से छोटा समझने की प्रवृत्ति उनमें बढ़ती जा रही है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनके माता-पिता के पास बहुत-सा पैसा है और वे जो चाहें या जब चाहें कुछ भी खरीद सकते हैं। इस प्रकार के व्यवहार से वे अहंकारी बनते जा रहे हैं। यह किसी भी प्रकार से उनके सर्वांगीण विकास लिए उपयुक्त नहीं है।
        हर उस बच्चे से वे ईर्ष्या करते है जो उनसे किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ रहा हो। वे इस बात को आत्मसात नहीं कर सकते कि उन्हें कोई भी किसी भी क्षेत्र में हरा दे और उनसे आगे निकल जाए। हर समय तो भाग्य साथ नहीं देता और जब ऐसा हो जाता है तो मानो उनकी दुनिया में कुछ भी नहीं बचता। अपने को पटकनी देने वाले का समूल नाश करने के लिए षडयन्त्र करने लगते हैं। ऐसे ही बच्चे बागी होकर फिर  गैगस्टर बन जाते हैं और हाथ से निकल जाते हैं।
         उनके माता-पिता उस अवस्था में स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं। तब उनकी सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे जाती है और वे सोच भी नहीं पाते कि इन सपूतों को वापिस फिर इन्सान कैसे बनाया जाए?
          माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को उनकी आवश्यकता के अनुसार सब कुछ खरीद कर दें। साथ ही उन्हें न सुनने की आदत भी डालें। ऐसा होने से बच्चे को यह समझ में आ जाएगा कि हर बात के लिए जिद नहीं की जाती। यदि कोई मनचाही वस्तु किसी कारण से न मिल पाए तो घर में न तो हंगामा करना होता है और न ही तोड़फोड़। इससे उनमें स्वत: सामञ्जस्य करने की समझ भी आ जाएगी।
         बच्चे घर की शोभा होते हैं, माता-पिता का मान होते हैं और राष्ट्र की धरोहर होते हैं। वे कच्ची मिट्टी की तरह कोमल होते हैं। उन्हें जिस भी साँचे में ढाला जाए वे वही आकार लेते हैं। इसलिए उनका चरित्र निर्माण करते समय बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है।
        अत: माता-पिता का नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से थोड़ा-सा समय निकालकर बच्चों को संस्कारित करें। अति लाड-प्यार से उन्हें बिगाड़कर उनके शत्रु न बनें और अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारकर जीवन भर का सन्ताप मोल न लें।
चन्द्र प्रभा सूद
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