बुधवार, 31 जनवरी 2018

लघुकथा-दुस्साहस

पिछले दिनों कलर्स टीवी पर चल रहे 'खतरों के खिलाड़ी' कार्यक्रम को देखते हुए अपने एक विद्यार्थी का स्मरण हुआ। घटना को बीते हुए कई वर्ष हो गए हैं।
          दिल्ली के सुप्रतिष्ठित विद्यालय में मैं उन दिनों कक्षा दस की कक्षाध्यापिका थी। यह घटना उस दिन घटी जिस दिन कार्यवश मुझे अवकाश लेना पड़ा। रंजन(नाम बदल हुआ) उस दिन विद्यालय से अनुपस्थित था। अचानक अर्धवकाश के पश्चात वह अपने स्कूल की ड्रेस में फिजिक्स लैब के बाहर खड़ा होकर अपने साथियों को कुछ दिखाने का प्रयास करने लगा। फिजिक्स के अध्यापक एक्सपेरिमेंट करवा रहे थे। बच्चों की फुसफुसाहट सुनकर उन्होंने इसका कारण जानना चाहा। बच्चों ने उन्हें बताया कि बाहर खड़ा राजन कुछ लेकर आया है।
           उन्होंने उसे लैब के अन्दर बुलाया और स्कूल देर से आने का कारण पूछा। उसने मानो चुप्पी साध ली थी। तब उसके साथियों ने बताया- 'सर! इसके बैग में कुछ है।'
         सर ने पुनः पुनः पूछा पर उत्तर नदारद था। अब सर ने उसके बैग में हाथ डाला तो उन्हें कुछ लिजलिजा-सा हिलता हुआ जीव लगा। उन्होंने ने उसे डाँटा और बैग उसके हाथ से छीनकर, वह जीव बाहर निकल तो वह एक साँप था। इस पर सारे स्कूल में हड़कम्प मच गया। आनन-फानन उसके माता-पिता को फोन किया गया। उसकी बड़ी बहन को उसकी कक्षा से बुलाया गया।
          बहुत ही आश्चर्य की बात थी कि स्कूल बस में आने-जाने वाले उस बच्चे के दिमाग में ऐसी शरारत करने की बात सूझी कैसे? सपेरा उसे कहाँ मिला? उसने साँप खरीदने का निश्चय कैसे किया?
         उसके माता-पिता के आने पर ये सभी प्रश्न उससे पूछे गए। उसने उत्तर दिया- 'एक दिन छुट्टी के समय उसे सपेरा दिखाई दिया। बालसुलभ जिज्ञासावश उसने सपेरे से बात की और साँप खरीदने की इच्छा प्रकट की। आनन-फानन सौदा तय हो गया। उस सपेरे ने उसी दिन साँप देने के लिए कहा था। इसलिए वह घर से समयानुसार आ गया था, पर स्कूल देर से आया।'
         पलक झपकते ही रंजन स्कूल के बच्चों का हीरो बन गया था। इस दुःसाहसिक कृत्य के लिए रंजन की वाइस प्रिंसीपल द्वारा पिटाई की गई तथा स्कूल से कुछ निश्चित अवधि के लिए सस्पेन्ड कर दिया गया। ताकि दूसरे बच्चे ऐसी घटनाओं को अन्जाम न दे सकें। रंजन को सजा मिलनी चाहिए थी अथवा सराहना? यह प्रश्न आज भी मन को उद्वेलित करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 30 जनवरी 2018

गुलाब की निराशा

सामने देखा मैनें
कोने में पड़ा हुआ
उदास-सा, निस्तेज गुलाब
अपना सिर झुकाए मानो कुछ सोच रहा था।

कभी खिला वह
तब कहलाता था
सर्वप्रिय गुलाब का फूल
बन जाता था सबकी नजरों का आकर्षण।

लोग बहुत हर्षाते थे
बार-बार मेरी खुशबू को
सूँघते हुए वे नहीं अघाते थे
मुझे हाथ में लेकर यूँ ही इतराते फिरते थे।

शुभकार्य हेतु उन्हें
मेरी जरूरत होती थी
मुझे उपहार में दे देना
मानो उनका स्टेटस सिम्बल बन जाता था।

देवता के चरणों
पर चढ़ाकर होते थे
तृप्त सब जन एक दिन
मनोकामना पूर्ण होने की आस होती थी।

मैं सदा रहा अपना
मस्तक ऊँचा जग में
सोचता रहा कि मेरे जैसा
संसार में कोई नहीं आकर्षक, मनमोहक।

पर मैं मूर्ख मानी
दम्भी बनकर बैठा
बस अपने इस मान पर
इतराता रहा, बल्लियों उछलता रह गया।

अब मुझ मलिन
को कोई नहीं देखता
सारा भ्रम टूट गया मेरा
अब कोई आशा नहीं बची है जीवन की।

भूल गया था
जीवन का यह सत्य
जो आया है सो जाएगा
आज मेरा भी जाने का समय आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 29 जनवरी 2018

कुछ कह न पाना

बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य बहुत कुछ कहना चाहता है परन्तु उसके अपने शब्द ही उसका साथ नहीं देते। वह अपने भावों को शब्दों में ढाल नहीं पाता। इसलिए मूक रहकर एकटक ताकता रह जाता है या फिर पैर के नाखूनों से धरती खोदने लगता है। यदाकदा वह नजरें भी चुराने लगता है। उस समय उसका मौन अथवा उसके अश्रु उसकी भाषा बन जाते हैं।
           मनुष्य जब बहुत भावुक होता है तब वह बोल नहीं पाता, सहज होने पर ही अपनी बात बता सकता है। इसी प्रकार अत्यधिक कष्ट के समय भी मनुष्य के बोल उसका साथ छोड़ देते हैं। अधिक खुशी के आवेग में, भय या विस्मय, पश्चाताप आदि के समय भी उसकी आवाज नहीं निकल पाती। उसके चेहरे के भावों से उसके हृदय को पढ़ा जा सकता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं कि मनुष्य का चेहरा ही उसका आईना कहलाता है, जो उसके सभी प्रकार के मनोगत भावों को बिना कहे प्रकट कर देता है।
           इन सबके अतिरिक्त कई बार दूसरों के प्रति सम्मान भाव के कारण भी मनुष्य चाहते हुए भी प्रतिकार स्वरूप नहीं बोल पाता कि उसे अमुक बात पसन्द नहीं आई। चुप की भी अपनी एक आवाज होती है जो बिना कुछ बोले दूसरे के हृदय को चीर कर रख देती है। मनुष्य के हावभाव से उसका हर्षोल्लास झलकता है जो हर किसी को दिखाई देता है।
           ऐसा भी कहा जाता है कि घमण्डी के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। उसके बिना कुछ कहे ही उसके व्यवहार से ही सब ज्ञात हो जाता है। मौन रहते हुए मनुष्य की सफलता-असफलता उसके बारे में बहुत कुछ कह देती हैं।
            पैसे के लिए प्रसिद्ध है कि वह बोलता है। पर पैसा तो निर्जीव है, वह बोल नहीं सकता। इसका यही अर्थ है कि जब किसी भी स्त्रोत से पैसा मनुष्य के पास अधिकता से आता है तब उसकी सद्य: खरीदी जाने वाली सुविधाएँ उसके पास पैसा होने के रहस्य की पोल खोल देती हैं। यहाँ पर भी वाणी के व्यवहार की आवश्यकता नहीं होती।
           बिना शब्दों का उच्चारण किए भी मनुष्य अपने भावों को व्यक्त करने में समर्थ हो सकता है। यहाँ मैं याद दिलाना चाहती हूँ कि सौभाग्य से मनुष्य जन्म पाकर भी जब दुर्भाग्यवश मनुष्य को ईश्वर की ओर से वाणी का उपहार नहीं मिलता तब वह गूँगा कहलाता है। वह अपने विचारों को बोलकर प्रकट नहीं कर सकता परन्तु उसके व्यवहार अथवा चेहरे के भावों से ही घर-परिवार के लोग अथवा बन्धु-बान्धव उसके सारे भावों को सहजता से समझ लेते हैं।
          हम अपने घर में मूक पालतू पशुओं को रखते हैं। वे तो हमारी तरह बोल नहीं सकते पर अपने स्पर्श से, अपने हावभाव से मौन रहते हुए अपने प्यार, क्रोध या जिद आदि के भावों को बखूबी समझा देते हैं। इसी प्रकार अपनी भूख-प्यास आदि दैनिक आवश्यकताओं के बारे में भी अच्छी तरह अवगत करवा देते हैं।
         इन्सान जितने भी घण्टे-घड़ियाल बजा ले पर ईश्वर उसे नहीं मिलता। वह तो उसके शुद्ध और पवित्र मन-मन्दिर में ही मिलता है। मनीषी कहते हैं कि ईश्वर भाव में रहता है। कहते हैं जिस प्रकार गूँगा व्यक्ति गुड़ के स्वाद का बखान नहीं कर सकता वैसे ही हम उस प्रभु का वर्णन नहीं कर सकते। उसका चित्रण करते समय हमारी वाणी 'नैति नैति' कहती है। अर्थात् ईश्वर यह भी नहीं है, वह भी नहीं है।
           चारों ओर पसरा सन्नाटा मनुष्य की कहानी बिन कहे सुना देता है। किसी सज्जन के प्रति किए गए अभद्र व्यवहार की क्षमा न माँगने पर भी उसके अविरल बहते आँसू उसकी क्षमायाचना का कारण बन जाते हैं।
           मौन रहते हुए भी माता-पिता बच्चों को बहुत-सा व्यावहारिक ज्ञान दे देते हैं। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि सारा समय हो-हल्ला करके ही अपनी बात रखी जाए या सान्त्वना दी जाए। मौन रहकर समझाई गई बात भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती। उसकी मारक शक्ति अधिक होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 28 जनवरी 2018

किसी के दिल में जगह बनाने

किसी के दिल में जगह बना लेना बहुत ही आसान होता है। दूसरे के मन को मोह लेने की सबसे पहली शर्त होती है विनम्रता। मन में यदि स्वार्थ, दिखावा या छल-फरेब न हो तो किसी को अपना बनाया जा सकता है। विनम्र व्यक्ति अपने सरल व सहज व्यवहार से सबको अपना बना लेता है और सबका प्रिय बन जाता है।
            किसी दूसरे के दिल में उतरने के लिए अपने रिश्तों में विश्वास और सच्चाई का होना आवश्यक होता है। अपने प्रिय जन के रंग में रंग जाना ही अपनेपन की सीढ़ी है। कहने का तात्पर्य है कि दूसरे को उसी रूप में अपना लेना होता है जैसा वह है। उसकी अच्छाइयों को बढ़ाते हुए कमियों को अनदेखा कर देना चाहिए। तभी सम्बन्ध दूर तक साथ निभाते हैं।
            यदि किसी व्यक्ति की कमियों को लेकर उसे कोसते रहेंगे, उस पर टीका-टिप्पणी करते रहेंगे तो सम्बन्ध कितने भी प्रगाढ़ रहे हों, टूटकर बिखर जाते हैं। व्यक्ति विशेष की कमियों को अपनी अच्छाई से दूर करने का यत्न करना चाहिए। हमेशा यही सोचना चाहिए कि कोई भी इन्सान सर्वगुण सम्पन्न नहीं हो सकता। यदि वह पूर्ण हो जाएगा तब वह मनुष्य नहीं रह जाएगा अपितु ईश्वर तुल्य होकर हमारी पहुँच से दूर हो जाएगा।
            मनुष्य जब विनत होता है तब उसमें सबको मन्त्र मुग्ध करने की सामर्थ्य होती है। लोहे जैसी कठोर धातु जब नरम हो जाती है तो उससे मनचाहे पदार्थ बनाए जा सकते हैं। इसी तरह सोने जैसी ठोस धातु को अग्नि में पिघलाकर जब नरम कर देते हैं तब उससे मनभावन आभूषण बनाए जाते हैं। उन आभूषणों को पहनकर सभी इतराते फिरते हैं। उसी प्रकार अगर इन्सान भी नरम हो जाए तो उसके हृदय से कठोरता अथवा निर्दयता के भाव तिरोहित हो जाते हैं और वह मोम की तरह कोमल बन जाता है। वह लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेता है। वह हर व्यक्ति का प्रिय बन जाता है और फिर किसी के लिए भी पराया नहीं रह जाता।
           इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को महत्त्व देते हैं, थोड़े समय पश्चात उनका असली  चेहरा सबके सामने आ जाता है। लोग उनसे शीघ्र किनारा कर लेते हैं। उन्हें पराया बनाने में वे समय नष्ट नहीं करते। जहाँ तक हित साधने की बात है वह तो स्वयं ही हो जाता है। इसके लिए छल-फरेब का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होती।
          कठोर मिट्टी पर हल चलाकर उसे नरम बना देने पर वह खेत बन जाती है और सभी जीवों का पेट भरती है। यही धरती की विशेषता है कि उसे हम सबकी चिन्ता रहती है। यदि वह स्वार्थी हो जाए तब उसके लिए अपनी जान गंवा देने हेतु कोई रणबाँकुरा आगे नहीं आएगा।
          गेहूँ को पीसकर जब नरम आटा बना लिया जाता है तब उसमें पानी मिलाकर ही रोटी बनाई जाती है। जो सभी जीवों को पुष्ट करती है। यानि सारी प्रकृति स्व से परे रहकर पर को महत्त्व देती है। तभी हम जीवों का अस्तित्व है।
           दूध में शक्कर की तरह घुलमिल जाने और आटे में नमक की तरह एकरूप होकर दूसरों को सुख देने वाले विनयशील व्यक्ति ही वास्तव में अपनी पहचान बनाए रखते हुए भी सबके अपने बनते हैं। यही उनका सबसे बड़ा गुण होता है, इन गुणों को अपनाने में कभी भी परहेज नहीं करना चाहिए।
            अपने अहं को किनारे करके ही दूसरों के हृदय में अपना स्थान बनाया जा सकता है। स्वार्थ के वायरस को भी नगण्य करते हुए एक-दूसरे के दिल में घर बनाया जा सकता है। इन छोटी-छोटी बातों को यदि अपने ध्यान में खा जाए तभी किसी के दिल में सरलता से अपना स्थान बनाया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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कर्त्तव्य से जी चुराना

अपने कर्त्तव्यों से जी चुराने वाला कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं करता।अपनी हानि तो वह करता ही है अपनों को भी नुकसान पहुँचाता है।
      अब देखिए एक व्यक्ति बीमार पड़ा है और उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाने की आवश्यकता है। यदि मनुष्य आजकल करके समय बर्बाद करेगा तो हो सकता है रोगी का रोग इतना बढ़ जाए कि उसे प्राणों से ही हाथ धोने पड़ जाएँ।
        अपने कार्यक्षेत्र में काम में कोताही करने से अपने बॉस या मालिक से डाँट-फटकार सुनने को मिलती है। यदि बारबार चेतावनी मिलने पर भी आदत में सुधार न हो तो नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है। उस समय मनुष्य पैसे-पैसे का मोहताज हो जाता है। घर-परिवार में हर स्थान पर उसे तिरस्कृत होना पड़ता है।
       अपने व्यापार में मनुष्य को अपनी सुस्ती के कारण हानि उठानी पड़ सकती है। हद तो तब हो जाती है जब उसकी योजनाओं का लाभ कोई और उठा जाता है। तब हाथ मलने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं बचता।
         इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक मनुष्य अपने काम को सच्चाई व ईमानदारी से न करे तो उसे सफलता नहीं मिलती। वह जीवन की रेस में पिछड़ जाता है।
        हम अपने आसपास देखते हैं कि कुछ लोगो को अपने धन-वैभव का, किसी को अपनी सुन्दरता का, किसी को अपनी योग्यता आदि का घमंड है। वे अपने सामने दूसरों को हेय समझते हैं। अपने दम्भ के कारण सबसे अलग दिखना चाहते हैं। इसलिए किसी के साथ मिलना या काम करने में अपना अपमान समझते हैं। ऐसे लोगों को आम जन जब नजरअंदाज करते हैं तो उन्हें बहुत कष्ट होता है। सीधा-सा अर्थ है कि यदि किसी के काम न आ सकें तो जीवन व्यर्थ है।
         अपने घर-परिवार की ओर नजर डालिए। कितनी भी सुन्दर व पढ़ी लिखी गुणी बहु-बेटी हो पर यदि काम न करे तो वह बड़े-बजुर्गों की नजर से उतर जाती है। उसी की इज्जत होती है जो सबके साथ मिल-जुलकर रहे व घर-बाहर के कार्यों को सुघड़ता से पूरे करे। इसीलिए यह कहा जाता है-
             'काम प्यारा चाम नहीं'। और 
             'इस देह को चील कौवे ने भी नहीं खाना।'
        एवंविध घर-परिवार में जो लड़का ठीक से काम-धन्धा नहीं करता और उनकी जरूरतों को पूरा नहीं करता वह किसी का प्रिय नहीं होता। गाहे-बगाहे चलते-फिरते उसे सबकी छींटाकशी का शिकार बनना पड़ता है।
        समाज में उसी को सम्मान मिलता है जो अपनी मेहनत के बल पर अपना एक स्थान बनाता है। दूसरों को अपनी योग्यता के बल पर पछाड़ कर कहीं ऊँचाइयों को छू लेता है। कामचोर कहीं भी रहे सफल व्यक्ति नही बन सकता।
       दुनिया का दस्तूर है कि वह चढ़ती कला को प्रणाम करते हैं। प्रातःकालीन उदय होने सूर्य को सभी प्रणाम करते हैं, उसे अर्घ्य देते हैं ओर पूजा करते हैं पर अस्त होते सूर्य को नहीं। संसार उदय का चाहने वाला है अस्त का नहीं। सफल व्यक्ति के आस-पास लोग इस प्रकार मंडराते हैं जिस प्रकार गुड़ के ऊपर मक्खियाँ। असफल व्यक्ति के साथ एक कदम भी चलने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता।
         अपने जीवन से कामचोरी की आदत को शीघ्रातिशीघ्र छोड़कर यत्नशील बनना चाहिए। परिश्रम करने वाले की कभी हार नहीं होती। स्वयं को इस समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए कर्त्तव्य पालन करते हुए आगे बढ़ते रहना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

एक अकेला दो ग्यारह

एक अकेला और दो ग्यारह होते हैं अर्थात उनकी शक्ति दोगुनी बन जाती है। इसका अर्थ है कि यदि मिलजुल कर किसी कार्य को किया जाता है तो उसे करने में आनन्द आता है और शीघ्र पूर्ण होता है। पर यदि मिलने वाले अधिकांश लोग छत्तीस के आँकड़े वाले हों तो निश्चित ही वे नौका को डूबो भी सकते हैं।
        सयाने कह गए हैं कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। यह बात निर्विवाद सत्य है। यह कोई विवाद का विषय नहीं है इसे हम यथावत मान सकते हैं।
           हमने इतिहास में पढ़ा है और अपने बड़े-बजुर्गों से सुना है कि चमत्कार करने वाले महापुरुष अकेले ही चलते थे। उनके अनुयायी अनेक बन जाते हैं जो उनकी कीर्ति में चार चाँद लगा देते हैं।
           जितने भी समाज सुधारक हुए हैं वे अकेले ही कठिन डगर पर चलते हुए लोगों को जागृत करने का कार्य करते रहे। इसके लिए उन्हें हर कदम पर समाज का विरोध सहना पड़ता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती व मीराबाई ने विषपान किया। महात्मा गांधी ने गोली खाई। ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए। भगवान बुद्ध और महावीर को अपने समय में बहुत अधिक विरोध का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार राजाराम मोहन राय आदि समाज सुधारकों को भी अपने समय में विरोध सहना पड़ा।
          फिर भी वे सिर पर कफन बाँधकर समय की धारा के प्रवाह को मोड़ते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। दुनिया के विरोध की परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। तभी हम इनका नाम सम्मान से लेते हैं।
          ऐसे ही सिरफिरे नरसिंह दुनिया की दिशा और दशा बदलने की सामर्थ्य रखते हैं। समाज की भलाई के लिए अपने तन, मन व धन किसी की परवाह किए बिना दिन-रात एक कर देते हैं। भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे न जाने कितने लोग अपने देश के लिए प्राणों तक की आहुति दे देते हैं।
          गुरु गोबिन्द जैसे महापुरुष अपने छोटे बच्चों को देश व धर्म की रक्षा के लिए के लिए दीवारों में जिन्दा चुनवा देते हैं।
          इसी श्रेणी में हम वैज्ञानिकों को भी रख सकते हैं जिनके अथक परिश्रम का फल हम जीवन की सुविधाओं के रूप में भोग रहे हैं। यदि वे भी हमारी तरह घर बैठकर आराम करते तो हम इतने सुखों को नहीं भोग सकते थे। आज दुनिया छोटी हो गई है और वाकई मुट्ठी में आ गई है। जिन ग्रह-नक्षत्रों के विषय में हम केवल सुना करते थे या किस्से-कहानियों में पढ़ा करते थे उन  पर आना-जाना भी इन्हीं वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों के कारण ही आज संभव हो रहा है।
         रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 'एकला चलो रे' शायद इसीलिए कहा था। मनुष्य इस संसार में अकेला आता है और अकेले ही विदा लेकर अगले पड़ाव के लिए चला जाता है।
          झुंड में तो भेड़-बकरियाँ चला करती हैं। शेर तो अकेला ही जंगल में निर्भय होकर विचरता है। इसी तरह शेर की तरह ऐसे साहसी व्यक्ति संसार के लिए आश्चर्य ही होते हैं। चाहे इन लोगों को सब गालियाँ दें या इनका जमकर विरोध करें पर फिर भी इन्हीं के पीछे ही चलते हैं और उनका गुणगान करते हैं।
         यह कभी न सोचिए कि हम अकेले कुछ नहीं कर सकते। सभी योजनाओं को एक ही व्यक्ति आरंभ करता है फिर उसका साथ देने के लिए बहुत से लोग साथ जुड़ जाते हैं। अतः मन में विचारे हुए कार्य को शीघ्र आरंभ करें। हो सकता है इतिहास आपकी प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाए बैठा हो।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 25 जनवरी 2018

बुराई का न होना अच्छाई

परमपिता परमात्मा ने इस सृष्टि को बहुत खूबसूरत बनाया है। अथक प्रयत्न करने पर भी हम इसमें कोई भी कमी नहीं निकाल सकते। प्रायः हम सब कहते हैं कि संसार में बुराई का बोलबाला है। वास्तव में बुराई अच्छाई का न होना ही होती है। जिस प्रकार प्रकाश के न होने पर अंधेरा होता है। हर मनुष्य के अन्तस में गुण-अवगुण विद्यमान रहते हैं। जब गुणों की अधिकता होती है तो मनुष्य सन्मार्ग पर चलता है। परन्तु जब गुण पीछे रह जाते हैं और मनुष्य पर किसी भी कारण से अवगुण हावी हो जाते हैं तो वह कुमार्ग की ओर प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यह देवासुर संग्राम मनुष्य के अपने भीतर अनवरत चलता रहता है।
        एक कहानी वट्सअप पर पढ़ी थी जिसमें लेखक का नाम नहीं था। कुछ सुधारों के साथ उसे साझा कर रही हूँ।
एक दिन कॉलेज में प्रोफेसर ने विद्यर्थियों से पूछा- "इस संसार में जो कुछ भी विद्यमान है उसे भगवान ने ही बनाया है न?"
सभी ने कहा - “हाँ, भगवान ने ही बनाया है।“
प्रोफेसर ने कहा- "इसका मतलब ये हुआ कि बुराई भी भगवान की बनाई चीज़ ही है।"
प्रोफेसर ने इतना कहा तो एक विद्यार्थी उठ खड़ा हुआ और उसने कहा- "इतनी जल्दी इस निष्कर्ष पर मत पहुँचिए सर।"
प्रोफेसर ने कहा- "क्यों? अभी तो सबने कहा है कि सब कुछ भगवान का ही बनाया हुआ है फिर तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?"
विद्यार्थी ने कहा- "सर, मैं आपसे छोटे-छोटे दो सवाल पूछता हूँ। फिर उसके बाद आपकी बात भी मान लूँगा।"
प्रोफेसर ने कहा- "तुम बहुत सवाल करते हो। खैर पूछो।"
विद्यार्थी ने पूछा- "सर, क्या दुनिया में ठण्ड का कोई वजूद है?"
प्रोफेसर ने कहा- "बिल्कुल है। सौ फीसदी है। हम ठण्ड को महसूस करते हैं।"
विद्यार्थी ने कहा - "नहीं सर, ठण्ड कुछ है ही नहीं। यह असल में गर्मी की अनुपस्थिति का अहसास भर है। जहाँ गर्मी नहीं होती, वहाँ हम ठण्ड को महसूस करते हैं।"
प्रोफेसर चुप रहे। विद्यार्थी ने फिर पूछा- "सर क्या अँधेरे का कोई अस्तित्व है?"
प्रोफेसर ने कहा- "बिल्कुल है। रात को अँधेरा होता है।"
विद्यार्थी ने कहा- "नहीं सर! अँधेरा कुछ होता ही नहीं। जहाँ रोशनी नहीं होती वहाँ अँधेरा होता है।"
प्रोफेसर ने कहा- "तुम अपनी बात आगे बढ़ाओ।"
विद्यार्थी ने फिर कहा- "सर आप हमें सिर्फ लाइट एण्ड हीट (प्रकाश और ताप) ही पढ़ाते हैं। आप हमें कभी डार्क एण्ड कोल्ड (अँधेरा और ठण्ड) नहीं पढ़ाते। फिजिक्स में ऐसा कोई विषय ही नहीं। सर, ठीक इसी तरह ईश्वर ने सिर्फ अच्छा-अच्छा बनाया है। अब जहाँ अच्छा नहीं होता, वहाँ हमें बुराई नजर आती है। पर बुराई को ईश्वर ने नहीं बनाया। ये सिर्फ अच्छाई की अनुपस्थिति भर है।"
         दरअसल दुनिया में कहीं भी बुराई नहीं है। अच्छे, सच्चे और ईमानदार लोग बहुत हैं, उन्हीं की बदौलत यह दुनिया चलती है। बुराई का शौर अधिक होता है, इसलिए लगता है कि बुराई अधिक है। इसी प्रकार दुख का एक-एक पल हमें वर्ष के बराबर लगता है, इसीलिए हम कहते हैं कि दुख और परेशानियाँ जीवन में अधिक समय तक रहती हैं। जबकि सुख भी शीतल वायु के समान जीवन में आता रहता है और आह्लादित करता रहता है।
         ईश्वर में हमारी आस्था जितनी अधिक होती है उतने ही हम प्रसन्न रहते हैं और उसकी कमी होने पर निराशा घेर लेती है। उसके प्रति सच्चे मन से समर्पण किया तो जीवन खुशहाल हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 24 जनवरी 2018

आत्मा का स्वरूप

प्रत्येक जीव के शरीर में आत्मा विद्यमान रहती है। भारतीय दर्शन यह मानता है कि आत्मा उस परमपिता परमात्मा का एक अंश मात्र है। अंतर इतना ही है कि ईश्वर केवल द्रष्टा मात्र है और उसका अंश आत्मा संसार में रहते हुए अपने कर्मानुसार मीठे-कड़वे फलों का भोग करता है। ऋग्वेद में कहा है कि ईश्वर ने सोचा 'बहु स्याम' यानी मैं बहुत हो जाऊँ। उस समय उसने स्वयं के कई अंश(आत्माएँ) बनाकर सृष्टि की रचना की।
        प्रायः हर मनुष्य के मन में आत्मा के विषय में कुछ प्रश्न बादलों की तरह उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। वे हैं- आत्मा क्या है? उसका आकार कैसा होता है? क्या वह दिखाई देती है? वह जीव के शरीर में किस स्थान पर रहती है? शरीर में उसकी स्थिति कैसी होती है? क्या वह पूरे शरीर में फैलकर रहती है?
        आत्मा के विषय में भरतीय दर्शन की सोच बिल्कुल स्पष्ट है। कठोपनिषद में आत्मा के स्वरूप के विषय में कहा है-
          अंगुष्ठमात्र:  पुरुषो, मध्ये  आत्मनि  तिष्ठति।
          विश्व ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते॥
अर्थात अंगुष्ठमात्रा के परिमाण वाली, आत्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान पर शासन करने वाली है। उसे जान लेने के बाद जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है। 
         आत्मा के स्वरूप के विषय में अपने ग्रंथों का सहारा लेते हैं। अभी ऊपर कहा है कि आत्मा उस परमपिता परमात्मा का अंश है। हमारी उपनिषदें मानती हैं कि आत्मा एक सुई की नोक के करोड़वें हिस्से से भी अत्यन्त सूक्ष्म होती है और किसी को इन भौतिक चक्षुओं से दिखाई नहीं देती। कठोपनिषद के अनुसार वह शरीर में हृदय देश में रहती है। वहीं से वह अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा स्थूल शरीर का संचालन करती है। आत्मा पूरे शरीर में फैलकर नहीं रहती अथवा कह सकते हैं कि यह व्याप्त नहीं होती।
         आत्मा एक छोटे-से कीट-पतंगे से लेकर बड़े-बड़े जीव-जन्तुओं में रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से देखे जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर हाथी या जिराफ जैसे विशालकाय पशुओं के शरीरों में इस आत्मा का निवास होता है। मनुष्य बालरूप में जन्म लेता है और फिर बड़ा होता है। मनुष्य की तरह आत्मा के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कतर-ब्यौन्त करके आत्मा को उन शरीरों में फिट कर दिया जाता है। शरीर का आकार-प्रकार कैसा भी हो आत्मा का उसमें निवास होता ही है।
          आत्मा हर अवस्था में एक समान रहती है। उस पर किसी परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सभी कर्मों का भोग आत्मा के शरीर को करना पड़ता है। वही नष्ट होता है, काटता है। उस पर सर्दी-गर्मी, सुख-दुख आदि का प्रभाव पड़ता है। श्रीमद्भागवद् गीता का एक श्लोक स्मरण आ रहा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
           नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
           न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न इसे जल गिला कर सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।
कहने का तात्पर्य है कि ये सभी कर्म आत्मा के नहीं है, उसके धारण किए हुए शरीर के होते हैं। आत्मा जीव के भौतिक शरीर में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहती है।
          प्रत्येक जीव में रहने वाली आत्मा के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह अपने अपरिवर्तनीय रूप में ही विद्यमान रहती है। उसे इन चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। जिस भी व्यक्ति ने इसके विषय में जान और समझ लिया उसे कुछ और जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह वीतरागी ईश्वर के अत्यन्त समीप हो जाता है। वह इस संसार में रहते हुए अपने समस्त दायित्वों का निर्वहण करता हुआ उनमें लिप्त नहीं होता।
चन्द्र प्रभा सूद
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