शनिवार, 31 मार्च 2018

वैराग्य साधन

आयु बीतने के साथ-साथ मनुष्य को स्वयं को मोह-माया से अनासक्त कर लेना चाहिए। अपने मन को साधने के प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार वह वैराग्य की ओर बढ़ता है। ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। वैसे ईश्वर को स्मरण करने की कोई आयु नहीं होती। फिर भी एक आयु के उपरान्त दुनियादारी से विमुख होकर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए।
          वैराग्य की पराकाष्ठा मनुष्य का अपने शरीर तक से मोहभंग करवा देती है। वह इस असार संसार के साथ-साथ स्वयं अपने को भी विस्मृत कर देना चाहता है। इसीलिए कह बैठता है-
     'क्या तन मांजता रे आखिर
      माटी में मिल जाना।'
अर्थात इस शरीर को क्या माँजना इसने तो मिट्टी में मिल जाना है।
ऐसे विचार रखने वालों की इस धरा के किसी भी कार्य-कलाप में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। वे सभी कार्यों को करते समय निर्लिप्त रहते हैं। परन्तु कभी-कभी कुछ लोग इन सांसारिक दायित्वों से किनारा भी कर लेते हैं। इसे पलायनवादी प्रकृति भी कहा जा सकता है। भौतिक संसार के सभी रिश्ते-नातों से स्वयं को दूर करते हुए मनुष्य ईश्वर के समीप होने लगते हैं। दिन-रात वह प्रभु का नाम जपने में स्वयं को व्यस्त रखना चाहते हैं।
         यह शरीर हमें ईश्वर ने एक साधन के रूप में दिया है। जिसके माध्यम से हम इस संसार में अपने हिस्से के दायित्वों को पूर्ण कर सकें। यदि हम इसकी सार-सम्हाल नहीं करेंगे तो यह रोगी हो जाएगा। तब न ईश्वर की भक्ति होगी और न ही सांसारिक दायित्व पूरे हो पाएँगे। दूसरे शब्दों में -'माया मिली न राम' वाली हमारी स्थिति हो जाएगी।
          घर में हम वाहन रखते है तो समय-समय पर उसका परीक्षण करवाना, उसमें ईंधन डलवाना, नित्य उसकी साफ-सफाई रखना आवश्यक होता है अन्यथा वह कबाड़ बनकर हम पर बोझ बन जाता है। इसी प्रकार शरीर को यदि साफ-सुथरा न रखा जाए, इसे समय पर भोजन न दिया जाए तो यह भी अपने और अपनों पर रोगी होकर बोझ बन जाता है।
         इसलिए इसका स्वस्थ रहना बहुत ही आवश्यक है। इस शरीर को बेशक आप साध्य न माने पर यह ईश्वर तक जाने का साधन तो है ही। हमारे सभी ऋषि-मुनि इस शरीर को साधन मानकर इसका पूरा ध्यान रखने का परामर्श देते हैं।
         यह सच है कि हमें केवल इस शरीर के लिए ही नहीं जीना चाहिए। मात्र इसी को सजाते-संवारते रहें और इसकी देखरेख के लिए ही पानी की तरह पैसा बहाते रहें। सारा-सारा दिन ब्यूटी पार्लर में जाकर सजते रहें अथवा नित नए बालों के स्टाइल बनवाते रहें। उस पर विभिन्न प्रकार के इत्र या परफ्यूम या डियो डालकर इसे नकली सुगन्ध से महकाते रहें। इस तरह इसको खूबसूरत दिखाने के चक्कर में हम दीन-दुनिया भूल जाएँ। घर-परिवार के दायित्वों से मुँह मोड़कर नित्य ही कलह-क्लेश करते रहें।
           इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सच है कि शारीरिक सौन्दर्य कुछ सीमित समय के लिए ही रहता है। जहाँ मनुष्य आयु को प्राप्त करने लगता है अर्थात वह वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है वहीं उसके चेहरे पर झुरियाँ आने लगती हैं। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होने पर अथवा किसी रोग के आ जाने पर भी शरीर की सुन्दरता मुँह मोड़ने लगती है।
          उस समय जिस शरीर की सुन्दरता पर हमें बड़ा मान था वह साथ निभाने से इन्कार कर देती है। तब हमारा यह सुन्दर शरीर सामान्य-सा रह जाता है। इसीलिए गुणीजन कहते है कि इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। यह हमारा सौन्दर्य स्थायी नहीं है। जब यह नहीं रहता तब हमें बहुत दुख होता है।
          अति वैराग्य की चर्चा को यदि हम छोड़ भी दें तो भी इस बात का विशेष ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि यह शरीर ही सब कुछ नहीं है इसके पीछे भागने का कोई लाभ नहीं होता। इसके अंदर रहने वाली उस आत्मा के विषय में भी सोचना चाहिए। तभी हम सब अपने मानव होने के धर्म को सार्थक करके अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 30 मार्च 2018

कविता

चलो मिलो सब वादा करें फिर आना कल है
भला करो तब आशा करो सदा जीते पल ये।

कहाँ कहाँ परखा था सखी वफा ऐसा फल है
जमीन से जब जोड़ा तभी मिला मीठा फल ये।

बसो कभी नभ में क्या बता सकोगे ये जल है
यहीं कहीं अब आओ हुआ करे पारी हल ये।

पड़े हुए मत सोचो बहार की चालें हल है
उठो सखी चलते हैं जरा बिताने को पल ये।

जला सकूँ गरचे दीपकाल का मेला दिल है
गिला नहीं करना मौज मनाने का दिन ये।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 29 मार्च 2018

मनुष्य एक यात्री

मनुष्य इस असार संसार में एक मुसाफिर (यात्री) की तरह है। वह यहाँ आता है, रहता है, अपने हिस्से के कार्य निपटाता है और फिर इस संसार से विदा लेकर चल पड़ता है एक नए पड़ाव की यात्रा के लिए। उसकी इन अनन्त यात्राओं का क्रम तब तक जारी रहता है जब वह अपने स्थायी निवास परम धाम मोक्ष को नहीं प्राप्त कर लेता।   
          हम सब लोग यात्राएँ करते रहते हैं। इसलिए सभी भली-भाँति यह बात जानते हैं कि जब कभी हम किसी होटल या रिसार्ट में कुछ दिनों के लिए ठहरते हैं। वह हमारा स्थायी निवास नहीं होता। हम उस स्थान को दो-चार दिन ठहरने के लिए किराए पर ले लेते हैं। जब निश्चित अवधि समाप्त हो जाती है तब उसे खाली करके वापिस अपने घर लौट आते हैं। उस समय हमारे मन में उस स्थान को छोड़ने का कोई दुख नहीं होता। हम खुशी-खुशी उस स्थान को छोड़ कर लौटते हैं।
          इसका तात्पर्य यही हुआ कि उस स्थान विशेष से हमें कोई मोह नहीं होता। हम यही सोचकर जाते हैं कि हमने कितने दिन वहाँ रुकना है। हम घूमते-फिरते हैं और मौज-मस्ती करके आनन्दित होते हुए लौट आते हैं।
         यह संसार भी एक होटल या रिसार्ट की तरह ही है जहाँ हम कुछ समय के लिए आते हैं। वह अवधि हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर हमें देता है। उस अवधि के पूर्ण हो जाने पर इस संसार को छोड़कर जाना होता है। हम इस संसार को अपना घर मान लेते हैं। इसलिए इससे विदा लेना नहीं चाहते। यदि कोई हमें कह दे कि हमारी आयु के कुछ दिन शेष बचे हैं तो सुनकर अच्छा नहीं लगता। हम उसे बुरा-भला कहने में संकोच नहीं करते।
         किसी गीत की पंक्ति मुझे इस विषय पर याद आ रही है-
           'यह दुनिया मुसाफिर खाना सराय
            कोई आ आए कोई चला जा रहा।'
इस दुनिया में आकर हमें अपने कर्मानुसार सांसारिक रिश्ते-नातों का उपहार मिलता है। उनमें हम इतना अधिक खो जाते हैं कि दीन-दुनिया को भुला बैठते हैं। हमारा सारा व्यापार इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहता है और हमारे प्राण भी इन्हीं में ही बसते हैं। उन्हीं को लेकर हम अपनी एक दुनिया बना लेते हैं। हमारा जीना-मरना सब उनके लिए होता है। सब पाप-पुण्य और छल-फरेब हम उन्हीं के लिए करते हैं।
          ऋषि-मुनि और विद्वान हमें समय- समय पर सचेत करने का प्रयास करते रहते हैं कि यह मोह-माया मात्र मृगतृष्णा है और कुछ नहीं। जाग जाओ और उस प्रभु में अपना ध्यान लगाओ। पर हम ऐसी नींद सो रहे हैं कि जागना ही नहीं चाहते। इसीलिए किसी ने कहा है-
              उठ जाग मुसाफिर भोर भयी
              अब रैन  कहाँ  जो  सोवत है।
               जो  सोवत  है वह  खोवत  है
               जो  जागत  है सो  पावत  है।।
          ये पंक्तियाँ हमें जगा रही हैं कि अब तो उठ जाओ आलस्य छोड़ो। यह सोने का समय नहीं है। प्रभु की कृपा पाने का यह समय है उसे व्यर्थ न गंवाओ। जब हमारा यह शरीर अशक्त हो जाएगा तब चाहकर भी उस मालिक का ध्यान नहीं कर पाओगे केवल पश्चाताप करते रह जाओगे। इसलिए अभी से सावधान हो जाओ। जो जागता है वही परमेश्वर का कृपापात्र बनता है। जो सचेत नहीं होना चाहता वह इस संसार में बहुत कुछ गंवा देता है उसे जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिलता। वह चौरासी लाख योनियों के फेर में भटकता रहता है।
          सुधीजन जानते हैं कि ईश्वर लगन और भावना चाहता प्रदर्शन नहीं इसलिए सच्चे मन से उसका स्मरण करना चाहिए। तभी भवबंधन से मुक्ति संभव है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 28 मार्च 2018

स्वाभिमानी व्यक्ति

स्वाभिमानी व्यक्ति का यह स्वभाव होता है कि वह जीवनकाल में अपने स्वाभिमान से कदापि समझौता नहीं करता। उसका मान ही उसका सबसे बड़ा धन होता है। कितनी ही समस्याएँ उसके सम्मुख क्यों न आ जाएँ, वह किसी के सामने अपना हाथ नहीं फैलता। सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने के लिए वह कटिबद्ध रहता है। अपने बन्धु-बान्धवों में से कभी किसी को हवा भी नहीं लगने देता कि वह जीवन के किस कठिन दौर से गुजर रहा है।
          उसके पास यदि कुछ खाद्य पदार्थ हैं तो वह उन्हें खा लेता है और यदि दुर्भायवश कुछ न हो तो भूखा ही सो जाता है। हालाँकि यह सब करना असम्भव होता है। उस कठिन समय में वह बस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे कष्ट सहने की शक्ति दे। उस भयावह कष्टकारी समय से उसे बाहर निकलने का मार्ग दिखाए। उस कठिन दौर में वह किसी के द्वारा दिखाए गए आकर्षक दिखने वाले कुमार्ग की ओर अग्रसर नहीं होता।
          निम्न श्लोक स्वाभिमानी व्यक्ति की तुलना जंगल के राजा शेर की तरह कर रहा है। दोनों सिर उठाकर स्वाभिमान से जीते हैं-
      क्षुत्क्षामो‌ऽपि जराकृशो‌ऽपि शिथिलप्राणो‌ऽपि कष्टां दशाम्।
      आपन्नो‌ऽपि विपन्नदीधितिरपि प्राणेषु नश्यत्स्वपि।।
        मत्तेभेन्द्र-विभिन्न-कुम्भ-कवलग्रासैकबद्धस्पृहः।
        किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहताम् अग्रेसरः केसरी।।
अर्थात सिंह और स्वाभिमानी व्यक्ति का स्वभाव एक समान होता है। सिंह भले ही भूखा मर जाए पर वह स्वाभिमानी होने कारण कभी भी सूखी घास खाकर अपने प्राणों की रक्षा नही करता है। वह तो मदमस्त हाथी का माँस खाने का ही प्रयास करता है। इसी प्रकार स्वाभिमानी व्यक्ति भी किसी से भीख माँगकर नही खाता। वह सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने के लिए कटिबद्ध रहता है।
          यह श्लोक स्वाभिमानी मनुष्य और शेर के स्वभाव की समानता को प्रदर्शित कर रहा है। शेर का उदाहरण देते हुए कवि कह रहे हैं कि वह शिकार न मिल पाने की स्थिति में समझौता नहीं करता, भूखा मरना उसे मंजूर होता है पर घास-फूस खाकर अपना पेट नहीं भरता। उसका प्रयास यही रहता है कि किसी हाथी का शिकार करके वह स्वादिष्ट मांस खा सके यानी हाथी के मांस का भोजन करने की कामना करता है।
           इसी प्रकार स्वाभिमानी व्यक्ति भूखा मार सकता है परन्तु भीख में मिले भोजन से अपनी क्षुधा शान्त नहीं करता। वह अपने बाहुबल पर भरोसा करता है। स्वाभिमान से सिर उठाकर जीने की कामना करता है। यदि मनुष्य के जीवन से स्वाभिमान को निकाल दिया जाए तो उस व्यक्ति को मृतप्रायः कहा जाएगा। उस जीने का क्या लाभ जिसे हर कोई अपने कदमों तले रौंदकर चला जाए।
         मनीषी कहते हैं कि जिस व्यक्ति में स्वाभिमान नहीं वह मृत के समान कहलाता है। दूसरों की चापलूसी करने वाला या तलवे चाटने वाला कभी सिर उठाकर नहीं चल सकता और न ही शेर की तरह दहाड़ सकता है। इसी प्रकार जिस देश के लोगों को अपने देश के प्रति मान नहीं उस देश पर, शत्रु देश कभी भी सरलता से अपना आधिपत्य जमा लेते हैं।
         इन स्वाभिमानी लोगों के लिए कवियों ने कहा है-
          एकमानधनो हि मनस्वीनाम्।
           तथा मानो हि महतां धनम्।
अर्थात मनस्वियों का एकमात्र धन उनका मन होता है। और दूसरी सूक्ति में कहा है कि मान ही महापुरुषों का धन होता है।
         इन सुक्तियाँ का तात्पर्य यही है कि मानी लोग केवल स्वाभिमान को ही अपना धन यानी सर्वस्व मानते हैं। भौतिक धन-वैभव उनके पास हो तो बहुत अच्छी बात है। यदि वह उनके पास नहीं है तो वे उसकी परवाह नहीं करते। उन्हें दुनिया को अपने वैभव का प्रदर्शन नहीं करना होता। अपने स्वाभिमान को बचाए रखने की खातिर किसी के समक्ष अपना सिर न झुकाने वाले, अपने प्राणों की आहुति देने वाले मनस्वियों की गाथाओं से इतिहास भर पड़ा है। बस उसमें गोता लगाने की देर है, उनके चरित्र के विषय में जानकारी मिल सकती है।
         ऐसे स्वाभिमानियों के जीवन से शिक्षा लेकर प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए और समाज के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 27 मार्च 2018

जल में कमल की तरह

संसार में मनुष्य को जल में कमल की भाँति रहना चाहिए। इस उक्ति का अर्थ है कि मनुष्य को दुनिया में रहते हुए, अपने सभी दायित्वों को पूर्ण करन्ता चाहिए पर उनमें लिप्त नहीं हो जाना चाहिए। यहाँ उदाहरण जल में कमल का कह सकते हैं। तालाब के जल में कमल का फूल उत्पन्न होता है। वह चारों ओर से जल से घिरा रहता है, किन्तु उस जल में लिप्त नहीं होता। इस संसार सागर में रहने वाले मनुष्य के साथ वास्तविकता के धरातल पर ऐसा हो नहीं पाता। दुनिया के आकर्षणों के बीच में फँसा मनुष्य चक्करघिन्नी बनकर रह जाता है।
          मनुष्य जितना मोह-माया के जाल में उलझता जाता है उतना ही उसमें फँसता जाता है। फिर उस जंजाल से बाहर निकलने के लिए छटपटाता रहता है। वह इस संसार के कार्य-व्यवहार में ही लगा हुआ कोल्हू के बैल की तरह जुटा रहता है। वह भूल जाता है कि इस संसार में उसे सदा के लिए नहीं रहना है। बस निश्चित अवधि के लिए ही उसे यह मानव तन मिला है। समयावधि समाप्त होते ही मृत्यु उससे यह तन छीन लेगी। उस समय चाहे वह कितनी ही गुहार लगा ले, अपनी सारी धन-सम्पत्ति देने का वादा कर ले, पर उस सब के बदले में उसे एक पल की भी मोहलत नहीं मिल सकती।
         इस रहस्य को इस प्रकार समझते हैं। रेत के घर हम सभी ने आपने बाल्यकाल में बनाए हैं। यदि गलती से किसी का पैर उस घर को छू जाता था तो वह बिखर जाता था। तब हम बच्चे झगड़ा किया करते थे, दोस्तों से रूठ जाते थे। फिर वह बदले की भावना से सामने वाले के घर को तहस-नहस कर दिया करते थे। जब घर जाने का समय आता था तो स्वयं ही अपने बनाये घरों को उछलते-कूदते मटियामेट कर देते थे। उस समय किसी को स्मरण नहीं रहता था कि कौन किसका घर तोड़ रहा है अथवा कितनी मेहनत से इसे बनाया था। बस उन घरौंदों की रेत को अपने पैरों से उछालते हुए, खुशी-खुशी भागकर अपने घरों की ओर चल पड़ते थे।
          हम अपने इस जीवन की कल्पना इन रेत के बनाए गए घरोंदों से कर सकते हैं। हम आजीवन मेहनत करके अपने और अपनों के लिए सुविधा के साजो सामान जुटाते हैं, मँहगी-मँहगी मोटर गाड़ियाँ खरीदते हैं। उस समय कोई उनकी तरफ आँख उठाकर देखे या उसे हथियाने की कोशिश करे तो हम मारने-मारने के लिए उतारू हो जाते हैं। बिना समय गँवाए हम अपने हक को वापिस पाने के लिए पुलिस के पास जाते हैं अथवा न्यायालय की शरण में चले जाते हैं।
          जब अपने जीवन की अवधि समाप्त हो जाने के पश्चात या जीवन के संध्याकाल में हमें परमपिता परमात्मा के पास जाना पड़ता है, तब सारा जुटाया हुआ ऐश्वर्य मिट्टी की तरह प्रतीत होने लगता है। उस समय मनुष्य को पश्चाताप होने लगता है कि अपना सारा जीवन उसने बस धूल में लट्ठ मारने का कार्य किया है। दुनिया में जन्म लेने से पहले ईश्वर से प्रार्थना की थी कि अन्धेरे से प्रकाश की और ले चल, मैं तुझे नहीं भूलूँगा, सदा याद रखूँगा।
          माता के गर्भ के कष्ट और अन्धेरे से मुक्त होकर जीव इस दुनिया में कदम रखता है। फिर धीरे-धीरे ईश्वर से किया हुआ अपना वादा भूल जाता है। इन दुनिया की चकाचौंध में वह इतना खो जाता है कि उसे अपनी ही सुधबुध नहीं रहती। यह दुनिया भी एक मेला है, जहाँ रंगबिरंगी मनभावन वस्तुएँ मिलती हैं। उनके आकर्षण में बँधा मनुष्य संसार के राग रंग में मस्त हो जाता है। असार संसार से विदा होने की बात को भूल जाता है। जब अन्त समय आ जाता है तब मनुष्य रोता है, अगले जन्म में वह ऐसी गलती नहीं करेगा। संसार में जाने के पश्चात सदा ईश्वर का स्मरण करेगा और दुनिया की भीड़ में नहीं खोएगा।
         जब तक मनुष्य अपने जीवनकाल में ईश्वर की आराधना सच्चे मन से नहीं करेगा तब तक वह दुनिया की भीड़ में खो जाएगा। फिर वह अपने प्रभु से दूर हो जाएगा। इसलिए जल में कमल की तरह इस संसार में रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। उसे अपना इहलोक और परलोक सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
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सोमवार, 26 मार्च 2018

श्वासों की माला

प्रत्येक मनुष्य के अन्तस में श्वासों की एक माला 24×7 चलती रहती है। उस पर यदि मनुष्य अपने ध्यान को केन्द्रित कर सके तो वह ईश्वर को पाने के लिए एक कदम बढ़ा लेता है। मनीषियों का कथन है कि कोई भी व्यक्ति इसका अभ्यास कर सकता है यानी धर्म-जाति, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ज्ञानी-अज्ञानी, महिला-पुरुष सभी को समानरूप से इसका अभ्यास करने का अधिकार है। ईश्वर की दृष्टि में सभी जीव बराबर हैं। उसकी सृष्टि किसी से भेदभाव नहीं करती।
        यद्यपि इसका अभ्यास करना बहुत ही कठिन है। इसका कारण संसार के आकर्षण हैं, मोह-माया के बन्धन हैं जो मनुष्य को अपने जाल में फँसाए रखते हैं। इसके साथ-साथ भागदौड़ वाली जिन्दगी जिसमें उसे अपने लिए समय ही नहीं मिल पाता। वह दो घड़ी सुकून के अपने लिए नहीं निकल पाता। इसलिए वह जीवन भर इधर-से-उधर घड़ी की सुइयों की तरह भटकता रहता है। सच कहा जाए तो उसे इस विषय पर विचार करने का समय ही नहीं मिल पाता।
        ईश्वर ने इस धरा पर भेजते समय मनुष्य को जीवन के साथ ही ध्यान लगाने का एक सरल-सा मन्त्र भी दिया है जिसको हमने बिसरा दिया है। प्रायः लोगों को तो ज्ञात ही नहीं होगा कि ईश्वर प्राप्ति का ऐसा कोई अनमोल सूत्र हमारे पास है। हम संसार के कार्य व्यवहार में इतना उलझे रहते हैं कि ईश्वर और उसकी बनाई सृष्टि पर मनन नहीं करना चाहते। उसकी बनाई प्रकृति की सुन्दरता को निहारने के लिए हमारे पास समय नहीं होता।
        जिस प्रकार ईश्वर के नाम जाप का कोई काल निश्चित नहीं है उसी प्रकार इस श्वासों की माला पर ध्यान लगाने का भी कोई समय नहीं है। जब चाहें, जिस समय चाहें इसका अभ्यास किया जा सकता है। यानी घर-बाहर, यात्रा में, सोते-जागते, चलते-फिरते, भीड़ या एकान्त में जहाँ भी हों, यह अभ्यास सरलता से किया जा सकता है। इसके लिए बस मन में सच्ची लगन का होना आवश्यक है। मनीषी कहते हैं कि डण्डे के जोर से किसी को ईश्वर का नाम लेना नहीं सिखाया जा सकता।
        मानव जीवन का मूल यही कहा जा सकता है कि इस श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया के अनवरत अभ्यास से अपने मन को इसकी धुन में लीन कर देना। श्वास लेते और छोड़ते समय 'ओइम्' का उच्चारण करते रहना चाहिए। अपने अन्तस को इससे गुँजायमान करते हुए ध्यान लगाना चाहिए। इसी अभ्यास से ही अन्ततः अन्तस में प्रकाश दिखाई देने लगता है। किसी भी पद्धति से ईश्वर की उपासना करने पर अन्ततः प्रकाश ही दिखाई देता है क्योंकि ईश्वर प्रकाशमय है।
         जो साधक अपने हृदय को ध्यान से प्रकाशित कर लेता है, वह भगवान कृष्ण के अनुसार स्थितप्रज्ञ बन जाता है। फिर उसे मान-अपमान, सुख-दुख, यश-अपयश, लाभ-हानि, जय-पराजय, शान्ति-अशान्ति आदि द्वन्द्व कभी उद्वेलित नहीं कर सकते। उसका मन शान्त हो जाता है। देश, धर्म, समाज और घर-परिवार के सभी दायित्वों को वह मनुष्य निस्पृह भाव से पूर्ण करता है। वह राजा जनक की तरह विदेह बन जाता है।
         जितना हम स्वयं से दूर होने के बहाने ढूंढ़ते रहते जा रहे हैं उतना ही ईश्वर से भी दूर हो रहे हैं। हम अन्तर्मुखी होने के स्थान पर बहिर्मुखी बनते जा रहे हैं। इसीलिए दुख, कष्ट और परेशानियाँ हमारे साथी बन रहे हैं। हम उन्हें भोगते रहते हैं और रोते रहते हैं। वह मनुष्य वास्तव में महानुभाव बन जाता है जो अपने आन्तरिक शत्रुओं यानी ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को जीत लेता है। इस प्रकार अपने मन के शुद्ध हो जाने से वह दिन-प्रतिदिन ईश्वर का प्रिय बनता जाता है। वह उसके समीप जाने के लिए अपना मार्ग प्रशस्त कर लेता है।
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रविवार, 25 मार्च 2018

विद्या सम्मानित करती

विद्या यानी ज्ञान का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्त्व है। विद्याविहीन मनुष्य को मनीषी पशु के समान मानते हैं। विद्या मनुष्य के मोक्ष तक का मार्ग प्रशस्त करती है। वह उसका ऐसा सच्चा मित्र है जो किसी भी परिस्थिति में उसका दामन नहीं छोड़ती चाहे उसके अपने बन्धु-बान्धव उससे किनारा ही क्यों न कर लें। वह उसे हर समस्या से निपटने का रास्ता सुझाती है और किसी भी अपरिहार्य स्थिति से बाहर निकलने में सहायक बनती है। यह विद्या उसके किसी भी मित्र अथवा सम्बन्धी से इतनी अधिक विश्वासपात्र होती है जो उसे कहीं भी नीचा नहीं देखने देती।
         मनुष्य जितना विद्याध्ययन करता है, उतना ही योग्यता प्राप्त करता है। उसकी हर सफलता का मूल कारण यह विद्या ही होती है। विद्वत्सभा में उसे यथोचित स्थान दिलाती है। वह किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करती। जाति-धर्म, रंग-रूप, देश-काल आदि किसी भी परिस्थिति से उसे कोई लेना देना नहीं होता। विद्या की देवी, माँ सरस्वती की कृपा हर उस मनुष्य पर बरसाती है जो उसकी साधना मनोयोग से करता है। उसे विद्वान बनने का आशीर्वाद देती है।
     'हितोपदेशम्' ग्रन्थ में कवि नारायण पण्डित ने हमें समझाने का प्रयास किया है कि अधम व्यक्ति भी यदि विद्या प्राप्ति के लिए साधना करता है तो अपनी योग्यता के बल पर वह भी सम्मान और धन-वैभव आदि सुगमता से प्राप्त कर सकता है-
          संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित्।
          समुद्रमिव  दुर्धर्षं  नृपं  भाग्यमतः परम्।।
अर्थात जिस प्रकार प्रचण्ड वेग से बहती हुई नदी अपने साथ तृण आदि तुच्छ पदार्थों को समुद्र से मिला देती है, उसी प्रकार अधम मनुष्य को विद्या राजा से मिलाती है। उससे उसका भाग्योदय हो जाता है। 
          इस श्लोक में कवि समझना चाहता है कि जब अधम या निम्न व्यक्ति विद्याध्ययन कर लेता है और किसी राजा को अपने ज्ञान से प्रभावित कर लेता है तब वह उसकी योग्यता का मूल्यांकन करके उसे धनादि देकर पुरस्कृत कर सकता है। आधुनिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अब जब राजसत्ता नहीं है तो अधिकार-सम्पन्न व्यक्ति को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। विद्या किसी भी व्यक्ति को इस योग्य बनाती है कि वह ऐसे लोगों के समक्ष स्वयं को बिना झिझके प्रस्तुत कर सके और अपने ज्ञान से उन्हें प्रभावित कर सके।
         इस श्लोक में कवि ने प्रचण्ड वेग से बहने वाली नदी का उदाहरण दिया है। वह नदी अपने जल में आए हुए तिनके आदि तुच्छ पदार्थों को अपने साथ बहाकर ले जाती है और उन्हें समुद्र में छोड़ देती है। उसी प्रकार एक विद्वान भी अपनी सारी जड़ता को विद्या रूपी नदी में बहाकर स्वयं योग्य बन जाता है। ज्ञान प्राप्त करके वह शुद्ध हो जाता है यानी उसकी अज्ञानता दूर हो जाती है। तत्पश्चात फिर समुद्र रूपी किसी राजा को प्रसन्न करके सुख-समृद्धि पा लेता है।
         'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' की ही भाँति ज्ञान का भी कोई ओरछोर नहीं होता है। आजन्म मनुष्य ज्ञानार्जन करता रहे, तब भी वह स्वयं के सम्पूर्ण ज्ञानी होने का दावा नहीं कर सकता। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ज्ञान का आगार है। उसमें से मनुष्य अपनी कैपेसिटी या सामर्थ्य के अनुसार ज्ञान का अर्जन कर लेता है। जो मनुष्य आजन्म विद्यार्थी बना रहता है वह परम विद्वान बनकर समाज को दशा और दिशा देने वाला महानुभाव बन जाता है।
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