सोमवार, 30 अप्रैल 2018

अपना कार्य स्वयं करें

हमारे पास ईश्वर की कृपा से प्रभूत धन-वैभव हो, सम्पत्ति हो, नौकर-चाकर हों, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ हों, फिर भी कभी-कभी स्वयं कार्य करना चाहिए। उसमें बहुत आनन्द की अनुभूति होती है। यदि उसे भार समझकर किया जाए तो मजा नहीं आएगा। अपने घर-परिवार के लिए किए गए कार्यों से एक विचित्र प्रकार की सन्तुष्टि मिलती है जो अमूल्य होती है। उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसलिए इस सुख से वञ्चित नहीं रहना चाहिए।
          इसी प्रकार अपने बच्चों को बड़ा व सुन्दर मकान, अच्छा पौष्टिक खाना, बड़ा टीवी, मँहगा मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ देना चाहिए। उन्हें दुनिया की हर नेमत देनी चाहिए जो अपने बस में हो, कर्जा लेकर नहीं। परन्तु साथ ही बच्चों को उनकी जिम्मेदारी का पाठ भी पढ़ाना चाहिए, ताकि वे जीवन में कभी मार न खा सकें। उन्हें सीखना चाहिए कि घर काम करने वाली बाई, माली, कपड़े प्रेस करने वाला धोबी, बिजली वाला, सफाई करने वाला, गाड़ी चलाने वाला ड्राईवर सभी हमारी ही तरह इन्सान हैं। इसलिए उनके साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए। उनके साथ यदि बदत्तमीजी की जाए तो उन्हें कष्ट होता है। उन्हें सम्मान देना चाहिए। वे हमारे बहुत से कार्य करते हैं, परन्तु वे हमारे बन्धुआ मजदूर नहीं हैं।
           उन्हें परिश्रम का महत्व समझाना चाहिए और उन्हें अपने ही हाथों से काम करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। उनसे कहें कि खाना खाने के बाद वे अपने बर्तन उठाकर रसोई में रखें, प्यास लगी है तो उठकर स्वयं पानी लेकर पिएँ। अपना बैग खुद लगाएँ, अपने जूते व मौजे स्वयं पहनें। अपना बैग अपने कन्धे पर टाँगकर अपनी स्कूल बस पकड़ें। कभी-कभी बाजार से छोटी-मोटी वस्तु लेकर आएँ। इससे उनका मनोबल बढ़ेगा, वे स्वावलम्बी बनेंगे और दूसरों का मुँह नहीं ताकेंगे।
         ईश्वर न करे कभी कोई अनहोनी हो जाए, भूकम्प आ जाए, अतिवृष्टि के कारण बाढ़ आ जाए तो उस समय सब तहस-नहस हो जाता है। इसका उदाहरण समाचार पत्रों, सोशल मीडिया व टी. वी. में यदा कदा दिख जाता है। बड़े-बड़े साम्राज्य पलक झपकते धराशाई हो जाते हैं। प्राकृतिक आपदाएँ अमीर-गरीब, रंग-रूप, छोटे-बड़े आदि में अन्तर नहीं करतीं। समान रूप से वे सबके साथ व्यवहार करती हैं। उस समय स्वयं को या बच्चों को सम्हाल पाना बहुत कठिन हो जाता है। यदि परिश्रम करने का स्वभाव होगा तो जीवन नए सिरे से आरम्भ करने में सरलता होगी अन्यथा उस समय ईश्वर ही मालिक होगा।
           अवकाश के दिन बच्चों को घर की सफाई आदि कार्यों में सहायता करने के लिए कहना चाहिए। अपने कपड़ों या पुस्तकों की अलमारी को नियोजित करने की प्रेरणा देनी चाहिए। इन कार्यों को करने के पश्चात कभी-कभार उनकी मनपसन्द वस्तु दिलाकर उन्हें प्रोत्साहित भी करना चाहिए। सारा दिन बच्चे यदि टी. वी. देखते रहेंगे अथवा मोबाईल पर खेलते रहेंगे तो छोटी-सी आयु में उन्हें बीमारियाँ जकड़ लेंगी। उन्हें इन कार्यों में लगाने से उनको जिम्मेदारी का अहसास भी होगा और अपने हाथ से कार्य करने का सन्तोष भी होगा। उन्हें इस बात का भी अहसास होगा कि वे निठ्ठले नहीं हैं, कुछ कर सकते हैं।
          बच्चों को हर परिस्थिति के लिए तैयार करना माता-पिता का ही दायित्व होता है। यदि समय को यह सब संस्कार देने पड़ें या सीखना पड़े तो बहुत कष्टदायक होता है। मनुष्य को जीवन में सभी तरह के पाठ पढ़ने ही पड़ते हैं। यदि स्वयं होकर सीख लिया जाए तो सरलता रहती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 29 अप्रैल 2018

मैं न होता तो

प्रायः लोगों को यह कहते हुए सुन होगा कि यदि मैं न होता तो क्या होता? पति कहता है मैं न होता तो घर कैसे चलता? पत्नी कहती है मैं न होती तो यह गृहस्थी कैसे चलती? बॉस कहता है वह न होता तो कम्पनी कैसे चलती? कर्मचारी कहता है मैं न होता तो कम्पनी को चला के दिखाते? नेता भी यही सोचते हैं कि वे न होते तो देश कैसे चलता?
           यानी हर किसी को यही लगता है कि उसके बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। यानी मनुष्य स्वयं को हर कार्य का श्रेय अनावश्यक ही देता रहता है। वह भूल जाता है कि ईश्वर की सत्ता इस संसार में है। जो कुछ भी होता है उसकी इच्छा से होता है। जिसे तुलसीदास जी के शब्दों में कह सकते हैं-
          होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
          को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अर्थात जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।
          इसका अर्थ है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता तो फिर मैं न होता वाली बात कहाँ से आ जाती है? मनुष्य तो बिना विचारे ही सब सफलताओं के फल कर्ता बन जाता है। सब कार्यों का विधान प्रभु ने पहले ही किया हुआ है। वह न चाहे तो मुँह तक पहुँचा हुआ रोटी का निवाला भी इन्सान के मुँह में नहीं जा सकता।
            लंका विजय के उपरान्त हनुमान जी इसी विषय पर प्रभु श्रीराम से चर्चा करते हुए कहते हैं- "अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर, तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ा था, तब मुझे लगा था कि इसकी तलवार छीनकर इसका सिर काट लेना चाहिए। किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मन्दोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया था। यह देखकर मैं गदगद हो गया। उस समय यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मै न होता तो क्या होता?"
          बहुधा हम सबको भी ऐसा ही भ्रम हो जाता है, जैसे हनुमान जी को हो गया था। यदि मै न होता तो उस दिन सीताजी को कौन बचाता? परन्तु भगवान ने उन्हें बचाया ही नहीं बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब हनुमान जी समझ गए कि प्रभु जिससे जो कार्य करवाना चाहते हैं, वे उसी से करवा ही लेते हैं। इसमें किसी का कोई महत्व नहीं होता है।
           आगे चलकर जब हनुमान जी अशोक वाटिका में जाते हैं तो उन्हें त्रिजटा यह कह रही होती है- "लंका में एक बन्दर आया हुआ है और वह लंका को जलाएगा।"
      तब हनुमान जी चिन्ता मे पड़ गए कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए तो कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है तो वे क्या करें? जब रावण के सैनिक तलवार लेकर उन्हें मारने के लिए दौड़े तो उन्होंने स्वयं को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की। जब विभीषण ने दरबार में आकर रावण से कहा- "दूत को नहीं मारना चाहिए, यह तो अनीति है।"
          तब वे समझ गए कि उन्हें बचाने के लिये प्रभु ने सटीक उपाय कर दिया है। उनके आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा- "बन्दर को मारा नहीं जाएगा, पर इसकी पूँछ में कपड़ा लपेटकर, घी डालकर आग लगाई जाए।"
        तब वे गदगद हो गए कि उस लंका वाली सन्त त्रिजटा की ही बात सच हो गई थी, वरना लंका को जलाने के लिए वे घी, तेल, कपड़ा कहाँ से लेकर आते और कहाँ पर आग ढूंढते।  इसके प्रबन्ध का कार्य भगवान ने रावण से करवा दिया। जब रावण से भी प्रभु अपना काम करवा लेते हैं तो अपने भक्त हनुमान से करवा लेने में आश्चर्य की क्या बात है?
           अतः सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि इस असार संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब ईश्वरीय विधान है, सर्वकालिक सत्य है। हम सभी तो केवल निमित्त मात्र हैं। उस सभी मालिक के हाथ की कठपुतलियाँ हैं। वह जैसा चाहे वैसा दुनिया को चला ले। वह चाहे तो राई को पहाड़ बना दे या पहाड़ को राई जैसा बना दे। वही इस संसार का कारक है, पालक है और विनाशक है। कभी भी यह भ्रम मनुष्य को अपने मन में नहीं पालना चाहिए कि मै न होता तो क्या होता? हम हैं तब भी सारी सृष्टि चलती रहती है और जब इस संसार में नहीं रहेंगे तब यह दुनिया इसी प्रकार चलती रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
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शनिवार, 28 अप्रैल 2018

दूसरों का दिल जीतना

मनुष्य का व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि वह सबके हृदयों में सदा के लिए बस जाए। लोग चाहकर भी उसे भूल न सकें। सभी उसे उसकी सहृदयता, सरलता, सबको अपना बना लेने की कला, निःस्वार्थ सबकी सहायता करने आदि के गुणों के कारण उसे हमेशा के लिए याद रखें। मनुष्य को अपने आचार-व्यवहार के प्रति सतत सावधान रहना चाहिए। जब वह दूसरों के हृदय में बस जाता है तो उसका दायित्व भी बढ़ जाता है। लोगों की उससे और अधिक उम्मीदें होने लगती हैं।
          मनुष्य की कठोरता या क्रूरता सामने वाले को तोड़कर रख देती है। वह किसी का प्रिय नहीं बन पाता। दूसरे शब्दों में कहें तो तलवार के जोर पर किसी का दिल नहीं जीता जा सकता। ऐसे व्यक्ति का दूसरों का दिल जीतने का सपना साकार होना असम्भव-सा हो जाता है। कोई भी कठोर स्वभाव वाले व्यक्ति को पसन्द नहीं करता और न ही उससे मित्रता करना चाहता है। मनुष्य की कठोरता उसके अहंकार का परिचायक होती है। उसे सबसे अलग-थलग कर देती है।
          एक बोधकथा कुछ समय पहले पढ़ी थी, मुझे बहुत पसन्द आई। इसमें बताया गया है कि एक हथौड़ा ताले को केवल तोड़ सकता है, उसे खोल नहीं सकता। एक छोटी-सी चाबी बहुत ही सरलता से बड़े-से-बड़े ताले को खोल देती है। इसका कारण है कि वह ताले के अन्तस को छू लेती है। इसलिए उसका दिल जीत लेती है और इसलिए वह ताला खुल जाता है। इस कथा को थोड़े परिवर्तन और अशुद्धि संशोधन के पश्चात यहाँ दे रही हूँ।
          एक ताला बनाने वाले की दुकान पर चाबियाँ बनाई जाती थीं। वहाँ पर एक हथौड़ा भी पड़ा रहता था एक दिन उस हथौड़े ने चाबी से पूछा- "मैं तुमसे अधिक शक्तिशाली हूँ, मेरे अन्दर लोहा भी तुमसे ज्यादा है। आकार में भी तुमसे बड़ा हूँ लेकिन फिर भी मुझे ताला तोड़ने में बहुत समय लगता है। तुम इतनी छोटी हो फिर भी इतनी आसानी से मजबूत-से-मजबूत ताला कैसे खोल देती हो?"
          चाबी ने मुस्कुरा के ताले से कहा- "तुम ताले पर ऊपर से प्रहार करते हो और उसे तोड़ने की कोशिश करते हो, लेकिन मैं ताले के अन्दर तक जाती हूँ, उसके अन्तर्मन को छूती हूँ। घूमकर ताले से निवेदन करती हूँ और ताला खुल जाता है।"
           कितनी गूढ़-गम्भीर बात कही है चाबी ने कि मैं ताले के अन्तर्मन को छूती हूँ, इसलिए वह खुल जाता है।
        मनुष्य कितना भी शक्तिशाली हो, उसके पास कितनी भी ताकत हो, जब तक वह दूसरों के दिल में नहीं उतरेगा, उनके अन्तर्मन को नहीं छू सकेगा, तब तक कोई उसका सम्मान नहीं करता।
          यह कहानी हमें समझ रही है कि मनुष्य को हथौड़े की तरह क्रूर या कठोर नहीं बनना चाहिए। उसके प्रहार से ताला खुलता नहीं है बल्कि टूट जाता है। ठीक वैसे ही यदि व्यक्ति अपनी शारीरिक शक्ति के बल पर किसी को जीतना चाहता है अथवा वश में करना चाहता है तो वह सौ प्रतिशत असफल रहता है। शक्ति का प्रयोग करके दूसरे व्यक्ति को पराजित किया जा सकता है, उसका मनोबल तोड़ा जा सकता है, परन्तु किसी के दिल को नहीं छुआ नहीं जा सकता। किसी के दिल में अपनी जगह बनाना बहुत कठिन कार्य होता है।
          इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि मनुष्य चाबी की तरह सरल बन जाए तो सबके दिलों के मजबूत ताले खोलकर उन पर राज कर सकता है। लोग उस पर विश्वास करके अपने रहस्य उस पर उजागर कर सकते हैं। उसकी सरलता ही उसकी लोकप्रियता का बहुत बड़ा कारण होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

कर्मफल का विधान

कर्मफल का विधान क्या है? वह किस प्रकार निर्धारित किया जाता है? यह एक अनसुलझा रहस्य है। इस अबूझ पहेली को हमारे ऋषि-मुनि हल करने का सदा ही प्रयास करते रहे। ग्रन्थों में इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया है और समझाया गया है। फिर भी इस विषय में सब लोगों की जिज्ञासा सदा बनी रहती है। इसे समझ पाना हम लोगों के वश की बात नहीं। जब भी अवसर मिलता है, इस विषय पर चर्चा आरम्भ होने लगती है। उससे क्या निष्कर्ष निकल पाता है? यह जानना सबके लिए अति आवश्यक हो जाता है।
       एक सुप्रसिद्ध दृष्टान्त की आज चर्चा करते हैं जिसमें श्री हरि और नारद जी के संवाद के माध्यम से कर्मफल के अनसुलझे सिद्धान्त को समझाने का प्रयास किया गया है।
       भगवान श्री हरि ने नारद जी से कुशल क्षेम पूछते हुए कहा- "आप पूरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करते रहते हो, कोई ऐसी घटना बताओ जिसने तुम्हें असमञ्जस में डाल दिया हो।"
         नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा- "प्रभु! अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूँ, वहाँ एक गाय दलदल में फँसी हुई थी। उसे बचाने वाला वहाँ पर कोई नहीं था। तभी एक चोर उस रास्ते से गुजरा। वह गाय को फँसा हुआ देखकर भी नहीं रुका। उलटे उस पर ही पैर रखकर दलदल को लाँघकर निकल गया। आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई। थोड़ी देर के पश्चात वहाँ से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने गाय को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। अपना पूरा जोर लगाकर उसने गाय को तो बचा लिया। मैंने देखा कि उस गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे जाकर एक गड्ढे में गिर गया और उसे चोट लग गयी। भगवान आप ही बताइए भला यह कौन-सा न्याय है?"
        भगवान मुस्कुराए, फिर बोले- "नारद! यह बिल्कुल ही सही हुआ। जो चोर गाय के ऊपर पैर रखकर भागा था, उसके भाग्य से उसे एक खजाना मिलना था। उसके इस अपराध के कारण उसे केवल कुछ मोहरें ही मिल सकीं। वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी। गाय को बचाने के पुण्यकर्म के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी-सी चोट में बदल गई।"
         इसीलिए कहते हैं कि इन्सान के कर्मों से ही उसका भाग्य निर्धारित होता है। अब नारद जी को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था और वे सन्तुष्ट हो गए।
        यह कहानी हम मनुष्यों को कर्मफल के विधान को समझा रही है। इसके अनुसार जैसे कर्म मनुष्य करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। कर्म करने में मनुष्य स्वतन्त्र है पर उसके फल का भोग करने में वह परतन्त्र है। जो शुभाशुभ कर्म मनुष्य अपने जीवनकाल में करता है, उन्हें मिलाकर ही उसका भाग्य बनता है। उसी के अनुसार उसे अगला जन्म मिलता है और उस जन्म में कब सुख-दुखादि द्वन्द्वों को उसे सहन करना पड़ेगा, इसका भी निर्धारण होता है।
        सुकर्म या दुष्कर्म जैसे भी चाहे वैसे कर्म मनुष्य कर सकता है। जब उन कर्मों का फल भुगतना पड़ता है तब उसकी इच्छा नहीं पूछी जाती। वह फल तो उसे हर हालत में भोगना पड़ता है चाहे वह हँसे या रोए। उसे वहाँ कोई छूट नहीं मिलती। इन कर्मों की समाप्ति उनको भोगने पर ही होती है। यानी शुभकर्मों का फल मनुष्य के लिए सदा सुखदायक होता है। इसके विपरीत उसके दुष्कृत्यों का फल उसके लिए हमेशा दुखदायक होता है।
        यही कारण है कि हमारे सभी शास्त्र और मनीषी सदा हमें अच्छे कर्मों में प्रवृत्त रहने के लिए प्रेरित करते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

कमाई का सदुपयोग

अपनी मेहनत की कमाई का सदुपयोग प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। अपने खून-पसीने से अर्जित धन से अपने घर-परिवार, अपने बच्चों और अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को पूर्ण करना चाहिए। साथ ही अपना इहलोक और परलोक सुधारने के लिए धन को देश, धर्म और समाज की भलाई के कार्यों में व्यय करना चाहिए यानी दान देना चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा करे तो उससे बड़ा बड़भागी और कोई नहीं हो सकता।
         इन्हीं विचारों पर प्रकाश डालती एक कथा कुछ समय पूर्व पढ़ी थी। आप लोगों ने भी इसे पढ़ा होगा। कुछ परिवर्तन और भाषागत शुद्धियों के साथ हम इस प्रेरक कथा पर प्रकाश डालते हैं।
         प्राचीन समय की बात है धर्मपुरी नगर के राजा सोमसेन शिकार खेलने के बाद अपने नगर की ओर लौट रहे थे कि जंगल में अपने सैनिकों से बिछुड़ गए। वे जंगल से अकेले ही अपने नगर की तरफ चल पड़े। रास्ते में चलते हुए उन्हें एक आदमी मिला जो बाँसुरी बजाते हुए नगर की तरफ जा रहा था। दोनों साथ-साथ चलने लगे। बातों ही बातों में राजा ने उस व्यक्ति से पूछा- "वह कौन है? वह क्या काम करता है? उसका कैसे गुजारा चलता है?" आदि।
उस आदमी ने कहा- "मै एक लकडहारा हूँ और लकड़ी काटने का काम करता हूँ। प्रतिदिन मैं चार रुपये कमाता हूँ। पहला रुपया कुएँ में फेंक देता हूँ, दूसरे रुपये से कर्जा चुकता हूँ, तीसरा रुपया उधार देता हूँ और चौथा रुपया मैं जमीन में गाड़ देता हूँ।"
          लकड़हारा अपनी कहानी कह रहा था।राजा उससे इस बारे में पूछना ही  चाहता था कि तभी सैनिक राजा को ढूंढते-ढूंढते वहाँ आ गए और फिर राजा उनके साथ चला गया। 
राजा ने दूसरे दिन अपने दरबार में सभी लोगों को उस लकडहारे की बात बताई और पूछा- "वह लकडहारा जो चार रुपये खर्च करता है, उन्हें कैसेे और कहाँ खर्च करता है?" 
        इस बात का जवाब कोई भी व्यक्ति नहीं दे सका। राजा ने सिपाही को आदेश दिया- "जाओ और उस लकडहारे को दरबार में मेरे सामने उपस्थित करो।"
सिपाही ने लाकर के राजा के सामने लकडहारे को पेश कर दिया। राजा ने उसे बीते दिन के जवाब का खुलासा करने के लिए कहा- "उस लकड़हारे ने कहा कि पहला रुपया मैं कुएँ में फैंकता हूँ। इसका अर्थ है कि मैं पहले रुपये से अपने परिवार का पालन करता हूँ। दूसरे रुपये से मैं कर्जा चुकता हूँ यानि मेरे माता-पिता बूढ़े हैं, उनके इलाज और खर्चे को पूरा करता हूँ।उनका जो उपकार है वो कर्जा मेरे ऊपर है, उसको चुकता हूँ। तीसरे रुपया मैं उधार देता हूँ, इसका मतलब ये है कि इस रुपये को मैं अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर खर्चा करता हूँ। ताकि जब में बूढ़ा हो जाऊँ तो उधार दिया हुआ वह रुपया मेरे को काम आ सके। चौथा रुपया मैं जमीन में गाड़ देता हूँ, इसका मतलब हुआ कि चौथा रुपया मैं धर्म-ध्यान, दान-दक्षिणा और लोगों की सेवा में खर्चा करता हूँ। यह तब मेरे काम आएगा जब मैं इस दुनिया से विदा होऊँगा।"
         यह कहानी हमें समझ रही है कि मनुष्य को अपने सभी दायित्वों को पूर्ण करने में सजग रहना चाहिए। अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बचना नहीं चाहिए। सारा दर्शन घूम-फिरकर पत्नी, बच्चों के साथ-साथ माता-पिता की देखभाल करने पर समाप्त होते हैं। इसलिए उनकी अनदेखी करने को ईश्वर का तिरस्कार करना कहा जाता है। मनुष्य समाज से बहुत कुछ लेता है। अतः उसे सामाजिक दायित्वों को निभाने में कदापि कोताही नहीं बरतनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 25 अप्रैल 2018

तथाकथित धर्मगुरु

तथाकथित धर्मगुरु जब स्वयंभू भगवान बन बैठते हैं तब सारी समस्याओं का जन्म होता है। उनके अनुयायियों को तब न ही निगलते बनता है और न ही उगलते बनता है। वे अनजाने ही समाज की नजरों में घृणा के पात्र बन जाते हैं। लोग उनका उपहास करते हैं, उनके मुँह पर  छींटाकशी करने से नहीं चूकते। उनका जीना मुहाल हो जाता है। जो बहुत ही कट्टर भक्त होते हैं वे अन्त तक अपने गुरु से अपना विश्वास नहीं डिगने देते।
            ऐसे तथाकथित धर्मगुरु धर्म और गुरु के नाम पर कलंक होते हैं। ये धर्म का विनाश करने का अपराध करते हैं। यही दुष्ट लोग हैं जो गुरु की महान परम्परा को दागदार करने का कुकर्म करते हैं। यही लोग अपने तुच्छ स्वार्थों, वासनाओं और कामनाओं के वशीभूत होकर समाज का अहित करते हैं। अपने अन्धभक्तों के मुँह पर करारा तमाचा मारने का कार्य करते हुए उन्हें बिलबिलाता हुआ छोड़ देते हैं। उन्हें जरा भी दया नहीं आती भोले-भाले लोगों को बरगलाने में।
          दुखों-परेशानियों से घिरे साधारण लोग इन तथाकथित धर्मगुरुओं की शरण में शान्ति की खोज में जाते हैं। वे इन ठग लोगों के पास कष्टों और दुखों से मुक्ति पाने की तलाश में ही जाते हैं। उनकी सोच होती है कि वे चमत्कार करके, चुटकी बजाते ही उनकी समस्याओं का समाधान कर देंगे या उन्हें हर लेंगे। उन्हें क्या पता कि इनके पास जाकर वे ठगे जाएँगे और कहीं के भी नहीं रहेंगे। वे इस बात से अनजान होते हैं कि वहाँ जाकर न तो उन्हें माया मिलेगी और न ही राम।
           ऐसे ठग लोग शेर की खाल में भेड़िए की तरह छिपे होते हैं, जो अवसर मिलते ही घात लगाने से परहेज नहीं करते। मासूम लोगों को ये दुष्ट सरलता से अपना शिकार बना लेते हैं। कुछ छोटी-मोटी सिद्धियाँ प्राप्त करके ये लोगों को अपना चमत्कार दिखाकर उल्लू बनाते हैं। जन-साधारण उनके बनाए जाल में फँस जाता हैं। कभी-कभी उन्हें दीक्षा देने के नाम पर भी फँसा लेते हैं। लोग उन्हें सच्चा गुरु मानकर उनकी ओर आकर्षित हो जाते है, फिर मुँह की खाते हैं।
          ऐसे धूर्त आम लोगों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाते हैं और स्वयं एक के बाद एक  प्रापर्टियों को जोड़ते जाते हैं। अनाप-शनाप तरीकों से धन-सम्पत्ति का संग्रह करते हैं। नामी-बेनामी भूखण्ड खरीदते हैं। बहुत-सी जमीन पर नाजायज कब्जा करने से भी नहीं डरते। न तो इनकम टैक्स देते हैं और न ही प्रॉपर्टी टैक्स। लोगों को धर्म के नाम पर डरा-धमकाकर दान के रूप में पैसा वसूल करते हैं। शायद ये लोग ऐसे दुष्कर्म इसलिए कर पाते हैं कि वे स्वघोषित ईश्वर बन होते हैं। अतः सभी कुकर्म करने का लाइसेंस शायद ये स्वयं ही बना लेते हैं।
           जिन आश्रमों में लोग शान्ति की खोज में आते हैं, उन आश्रमों में यातनागृह बनाए होते हैं। जरा भी किसी ने विरोध प्रकट करने किया या सिर उठाने का प्रयत्न किया, तो वहाँ ले जाकर उन्हें यातनाएँ दी जाती हैं। किसी को भी जान से मार डालना मानो उनका शगल है, इस दुष्कर्म से उनकी रुह भी नहीं काँपती। वे तब भूल जाते हैं कि कल जब उनका समय खराब हो जाएगा तो उनका साथ देने के लिए कौन आगे आएगा?
           ये तथाकथित धूर्त यह भी भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान बहुत उच्च कहलाता है। चारों वर्णों में ब्राह्मण या गुरु को राज्य में भी सर्वोच्च स्थान दिया गया है। 'गुरुर्देवो' कहकर उपनिषद गुरु को भगवान कहता है। गुरु को तो ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है क्योंकि वही ईश्वर को पाने का मार्ग दिखता है। उसकी प्रशस्ति में अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं। अनेक कवियों ने भी उसका गुणगान किया है।
          गुरु का सबसे बड़ा धर्म है कि वह अपने शिष्यों को अपनी सन्तान माने। अपनी सन्तान रूपी अनुयायियों की हत्या करना, उनके साथ बलात्कार करना, उन्हें ठगना, भ्रष्टाचार करना जैसे अपराध किसी भी तरह से मान्य नहीं है। इनसे बढ़कर कोई अन्य कुकर्म नहीं हो सकते और इनकी कोई माफी नहीं होती। इन सबका दुष्परिणाम भी बहुत भयंकर होता है। जन-साधारण में इन सबका गलत सन्देश जाता है। लोगों का विश्वास ऐसे तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से विश्वास उठ जाता है।
         हर व्यक्ति का नैतिक दायित्व बनता है कि वे जब भी किसी को अपना गुरु बनाएँ, सोच-समझकर बनाएँ। हर किसी पर यूँ ही अन्धविश्वास नहीं करना चाहिए। अपने घर बैठिए, अपने महान ग्रंथो का स्वाध्याय कीजिए। मोक्ष का मार्ग स्वयं प्रशस्त हो जाएगा। यदि बहुत ही आवश्यक हो तभी गुरु बनाएँ अन्यथा भेड़चाल नहीं करनी चाहिए। मनीषी कहते हैं सुई की नोक से जो निकले, वही गुरु बनने का अधिकारी है।
चन्द्र प्रभा सूद
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