गुरुवार, 31 मई 2018

आवेश में आना

हम मनुष्य तनिक-सा आहत हो जाने पर शीघ्र ही आवेश में आ जाते हैं। अपने सामने वाले को सबक सिखाने के लिए इस कदर जोश में आ जाते हैं कि अपने होश तक खो देते हैं। इस चक्कर में हम स्वयं को पहले से और अधिक नुकसान पहुँचा देते हैं। जिस समय मन में क्रोध का आवेश होता है, उस समय क्रोध उसकी सोचने-समझने की शक्ति यानी उसके विवेक का हरण कर लेता है। जब वह बदला ले लेता है तब कहीं जाकर उसका क्रोध शान्त हो जाता है और वह स्वयं को हल्का महसूस करने लगता है।
           उस समय मनुष्य को ज्ञात होता है कि उसने कितनी बड़ी मूर्खता कर डाली है। दूसरे को सबक सिखाने के चक्कर में अपनी ही हानि कर बैठा है। तब तक बाजी हाथ से निकल चुकी होती है। अब मात्र प्रायश्चित ही शेष बचता है। यदि वह बदल लेने से पहले एक बार विचार कर लेता, सोच लेता तो अपना अहित करने से बच सकता था। इस प्रकार उसकी मानसिक शान्ति बनी रहती और अपनी जग हँसाई से भी वह बच सकता था।
          इसलिए मनीषी अपने ज्ञान और शिक्षा से हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वे हम मनुष्यों के विवेक को जागृत करने का प्रयास करते हैं। जिससे मनुष्य के समक्ष कभी ऐसी परिस्थिति पुनः आ जाए तो वह सावधान हो सके। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसे विवेकहीन कार्य को दुबारा न कर सके। यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य हर क्रिया की प्रतिक्रिया देता रहे। जो समय उसे अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने में लगाना चाहिए, उसे वह व्यर्थ ही गँवाता बैठे। फिर बाद में हानि उठाकर प्रायश्चित करता फिरे। उसे दूसरों की गलतियों को नजरअंदाज करते हुए, अपने पूर्व निर्धारित किए हुए मार्ग पर उसे बस सफलतापूर्वक अग्रसर होना चाहिए।
        दूसरे को उसकी गलती की सजा देने के कारण मनुष्य यदि स्वयं ही अपने निर्धारित लक्ष्य और पथ से विचलित हो जाए, तब उसे कौन बचा पाएगा? मनुष्य अपने किए गए शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही सफलता की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता है अथवा असफलता की सीढ़ी से फिसलकर नीचे गिरता है। यह उसे स्वयं ही निर्धारित करना होता है। उसे विषय के सारे पहलुओं पर मनन करते हुए आगे कदम बढ़ाना चाहिए।
          एक दृष्टान्त की सहायता से समझने का प्रयास करते हैं। दिन एक साँप किसी बढ़ई की औजारों वाली बोरी में घुस गया। घुसते समय बोरी में रखी हुई बढ़ई की आरी उसके शरीर में चुभ गई और उसमें घाव हो गया। उससे उसे दर्द होने लगा और वह विचलित हो गया। गुस्से में उसने उस आरी को अपने दोनों जबड़ों में जोर से दबा दिया। अब उसके मुँह में भी घाव हो गया और खून निकलने लगा। इस दर्द से परेशान होकर, उस आरी को सबक सिखाने के लिए, उसने अपने पूरे शरीर को उस आरी के ऊपर लपेट लिया और पूरी ताकत के साथ उसे जकड़ लिया। इस प्रयास से उस साँप का सारा शरीर जगह-जगह से कट गया और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गई।
          इस कथा से यही शिक्षा मिलती है कि दूसरे को यानी आरी को उसकी गलती की सजा देते हुए साँप को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े। यदि पहले मिले घाव के बाद आरी को वहीं छोड़कर उस बोरी से बाहर निकल आता तो शायद वह जीवित बच जाता। थोड़ा-सा घाव था, वह शीघ्र ठीक हो जाता। परन्तु बदल लेने की आग ने उसका समूल नाश कर दिया। दूसरे को क्षमा कर देने से व्यक्ति कभी छोटा नहीं होता बल्कि वह दूसरों की दृष्टि में महान बन जाता है। लोग उसकी दरियादिली के कारण ही तो उसके कायल हो जाते हैं।
           कहने का अर्थ इतना ही है कि मनुष्य अपने कृत कर्मों के द्वारा इस संसार में अपनी पहचान बनाता है। अपनी सफलता के झण्डे गाड़ता है या फिर असफल होकर गुमनामी के अन्धेरों में खो जाता है। बदला लेने की प्रवृत्ति सदा ही कष्टदायक होती है। इससे यथासम्भव बचना चाहिए। दूसरे का अहित करते हुए मनुष्य अपना सुख-चैन खो देता है। इसलिए आत्मतुष्टि के लिए दूसरों को सच्चे मन से क्षमा करके एक सहृदय मानव होने का परिचय देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 30 मई 2018

एक अक्षर पर बच्चों के नाम

आजकल प्रायः घरों में सभी बच्चों के नाम एक ही अक्षर पर रखने का चलन बढ़ रहा है। कहीं पिता के नाम के पहले अक्षर के अनुसार बच्चों का नाम रखा जाता है तो कहीं माता के नाम के पहले अक्षर के अनुसार बच्चों का नाम रखा जाता है। वैसे इस प्रचलन में ऐसी कोई बुराई नजर नहीं आती। परन्तु कभी-कभार ऐसी परिस्थिति बन जाती है कि वह मनुष्य को दुख के सागर में धकेल देती है। उस समय मनुष्य सोच भी नहीं पता कि उस स्थिति का सामना वह किस प्रकार करे।
           आज एक सत्य घटना की चर्चा करते हैं। एक परिवार में माता-पिता और तीन बेटे थे। बेटे युवा हो गए थे और उन सबका विवाह हो चुका था। उस घर में पिता के नाम के पहले अक्षर के अनुसार ही बेटों के नाम रखे गए। यानी पिता का नाम रमेश था और बड़े बेटे का नाम राजेश, मँझले बेटे का नाम राकेश और छोटे बेटे का नाम राजीव रखा गया। उनका सरनेम मेहरा था। इस तरह चारों का नाम हुआ आर. मेहरा। अब एक दिन घर में पुलिस वाला आया और उसने बताया कि एक बस का एक्सीडेण्ट हो गया है और उसमें यात्रा कर रहे आर. मेहरा की मृत्यु हो गई है।
          संयोग से चारों पुरुष उस समय घर नहीं पहुँचे थे। अब विचारणीय यह था कि कौन से आर. मेहरा की मृत्यु हुई है। सब महिलाओं के प्राण अटक रहे थे। घर में मातम का सा माहौल बन गया था पर अभी तक सस्पेंस बना हुआ था कि किसकी मृत्यु का शोक मनाया जाए। कुछ समय पश्चात घर के मुखिया रमेश मेहरा ने घर में प्रवेश किया। घर की मालकिन ने सुख की साँस ली कि उसका पति जीवित है। खुशी के उन पलों में उसे यह भी स्मरण नहीं रहा कि उसके किसी बेटे की मृत्यु हो गई है।
          उसके थोड़े समय बाद बड़ा बेटा राजेश घर लौट आया। उसे सकुशल देखकर उसकी पत्नी फूली नहीं समाई। उसे पानी देने के लिए रसोई में चली गई। अब मृत्यु होने का सन्देह मँझले बेटे और छोटे बेटे की ओर था। कुछ देर पश्चात छोटा बेटा राजीव भी घर आ पहुँचा। उसे सुरक्षित देखकर उसकी पत्नी उससे लिपट गई और खुशी के आँसू उसकी आँखों से बहने लगे। अब जब तीनों पुरुष घर लौट आए तो यह निश्चित हो गया है कि मँझले बेटा राकेश उन्हें छोड़कर असमय ही दुनिया से विदा हो गया है। घर में उसकी मौत का मातम छा गया। रोना-धोना शुरू हो गया।
          इसी बीच राकेश भी घर लौट आया। उसने घर वालों को रोता-बिलखता देखा तो उनसे कारण पूछा। घर वालों ने उसे सारी बात बताई। उसने कहा कि वह उस बस से जाने वाला था। उसने टिकट भी बुक करवा ली थी। परन्तु उसके एक दोस्त को बहुत आवश्यक कार्य से जाना था। बस में कोई सीट खाली नहीं थी। इसलिए मैंने उसे अपनी टिकट दे दी और कहा कि मैं फिर किसी दिन चला जाऊँगा। अब मैं घर वापिस आ गया हूँ। सारे घर के सदस्यों को चैन आ गया कि घर सभी मर्द सुरक्षित हैं। अब उन्हें समझ आया कि एक ही अक्षर पर सबके नाम होने से ऐसी दुखद स्थिति का उन्हें सामना करना पड़ा। तब उसी पल उन सबने निर्णय किया कि वे इसी क्षण से आर.मेहरा लिखने के स्थान पर अपना पूरा नाम लिखा करेंगे।
        इस तरह की गलतियाँ बहुधा हो जाती हैं। दोष किसी का भी नहीं होता परन्तु ऐसी दुखद स्थितियों का सामना करना पड़ जाता है। इनसे निपटने के लिए इस घटना के पात्रों की तरह कोई-न-कोई हल तो निकलना ही पड़ता है। मैं इसके विरोध में नहीं हूँ कि घर के बच्चों के नाम एक ही अक्षर से रखे जाएँ। यह घर के सदस्यों का निजी मामला है। इस विषय में किसी को भी हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। माता-पिता को जो भी नाम रुचिकर हो, वे अपने बच्चों का नाम रखें, यह उनका मौलिक अधिकार है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 29 मई 2018

नेक काम करें

प्रतिदिन पूर्व दिशा की ओर से सूर्य का उदय होता है और फिर धीरे-धीरे दिन का अवसान हो जाता है। यानी सायंकाल सूर्य पश्चिम दिशा में जाकर अस्त हो जाता है। युगों-युगों से यह क्रम अनवरत चलता आ रहा है। इसमें कभी कोई फेरबदल नहीं हुआ। इस क्रम को कहते हैं कि एक दिन समाप्त हो गया। केलेण्डर का एक दिन और बढ़ गया। इस प्रकार सूर्य का उदय और अस्त होने का यह खेल निरन्तर चलता रहता है।
         मनुष्य को यह मानकर चलना चाहिए कि उसकी आयु एक-एक दिन करके कम हो रही है। इसलिए जो भी कार्य उसने सोचे हैं उन्हें शीघ्र ही पूर्ण कर लेना चाहिए। ऐसा न हो कि जीवन की अन्तिम घडियों में उसे प्रायश्चित करने का अवसर न मिले। दिन में किए हुए कार्यों पर मनन करना चाहिए। यदि शुभकर्म अधिक किए हों तो अगले दिन उसमें वृद्धि होनी चाहिए। यदि गलत काम अधिक किए हैं तो पश्चाताप करते हुए उन्हें अगले दिन न दोहराने का संकल्प करना चाहिए।
          किसी कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में हमें समझने का प्रयास किया है-
          आयुषः   खण्डमादाय   रविरस्तमयं  गतः।
          अहन्यहनि बोध्दव्यं किमेतेत् सुकृतं कृतम्।।
अर्थात सूरज के अस्त होने पर अपनी आयु का एक दिन कम हो जाता है । यह जानते हुए प्रत्येक मनुष्य को दिनभर के अपने किये हुए नेक कर्मों पर विचार करना चाहिये।
          मनुष्य यदि प्रतिदिन कुछ नेक कर्म करने का अभ्यास बना ले तो धीरे-धीरे उसके हृदय में शुभकर्मों का उदय होने लगता है। उसका मन शान्त होने लगता है। उसे अपूर्व सुख का अनुभव होने लगता है। परन्तु यदि वह आलस्य के कारण अपने कामों को टालता रहता है तो वह अपना समय व्यर्थ गँवाता रहता है। एक समय ऐसा उसके जीवन में ऐसा आता है जब उसे इस असार संसार को विदा कहना पड़ता है। उस समय उसे एक पल की भी मोहलत नहीं मिल पाती।
          कवि चेतावनी देते हुए हमें समझ रहा है कि-
           आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते।
           नीयते स  वृथा  येन  प्रमादः  सुमहानहो॥
अर्थात आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः इसे व्यर्थ में नष्ट कर देना महान भूल है।
          कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को यह जीवन बहुत ही पुण्यकर्मों के उदय होने पर मिलता है। अपने जीवनकाल में उसे अपने सभी आवश्यक कार्य पूर्ण कर लेने चाहिए। जब मनुष्य मृत्यु के द्वार पर खड़ा होता है, यदि तब वह चाहे कि कुछ पल की मोहलत उसे मिल जाए तो वह अपने बचे हुए कार्य निपटा ले तो उसका सोचना व्यर्थ है। उस समय वह अपनी सारी धन-दौलत के बदले एक पल की कामना करें तो यह उसकी भूल है। तब उसकी कोई जुगत काम नहीं आती उस समय वह असहाय-सा मूक दर्शक बना देखता रह जाता है। स्वयं को कोसता है कि समय रहते उसे होश क्यों नहीं आई?
         जब तक मनुष्य जीवित है, उसके शरीर में प्राण हैं तब तक उसे समय का सदुपयोग करना चाहिए। अन्यथा पश्चाताप करने के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं कर सकता। जीते जी लोक-परलोक सुधारने के लिए जो भी कार्य मनुष्य करना चाहता है, उन्हें कर लेना चाहिए। उन्हें टालते रहने से रेत में पड़ी मछली की तरह समय हाथ से फिसल जाता है। अपने जीवन के अन्तिम पल में कुछ भी करने में वह असमर्थ हो जाता है।
          दुनिया से विदा लेते हुए उसे स्मरण हो आता है कि संसार में आने से पहले उसने मालिक से वादा किया था कि जन्म लेने के पश्चात वह उसका नाम जप्त रहेगा। पर दुनियाँ के राग-रंग में, उसकी चकाचौंध में वह सब कुछ बिसरा देता है। जब अन्तकाल में उसे होश आती है तो बाजी उसके हाथ से निकल चुकी होती है। वह बस खाली हाथ रह जाते हैं। वह अपने दुर्भाग्य को व्यर्थ ही कोसता है। इसलिए समय रहते चेत जाने मनुष्य इस संसार से रीते नहीं जाते।
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सोमवार, 28 मई 2018

आंखों देखी कानों सुनी

आँखों देखी या कानों से सुनी हर बात सत्य हो, यह आवश्यक नहीं है। हम उस एक ही पक्ष को देखते और सुनते हैं, जो हमें प्रत्यक्ष दिखाई या सुनाई देता है। उसके दूसरे पहलू के विषय में जानकारी न होने के कारण हम कोई विशेष धारणा बना लेते हैं। जब हमारा वास्तविकता से सामना होता है तब पश्चाताप करना पड़ता है। अपनी नजरों को झुकाकर क्षमा-याचना करनी पड़ती है। उस दयनीय स्थिति से बचने के लिए मनुष्य को सावधान रहना चाहिए। उसे ऐसा कुछ भी नहीं कहना चाहिए जो उसके तिरस्कार का कारण बन जाए।
          देखकर गलत धारणा बनाने को लेकर एक घटना की चर्चा करते हैं। कभी एक सन्त प्रात:काल भ्रमण हेतु समुद्र के तट पर पहुँचे। समुद्र के तट पर उन्होने ऐसे पुरुष को देखा जो एक स्त्री की गोद में सिर रखकर सोया हुआ था। पास में शराब की खाली बोतल पड़ी हुई थी। यह देखकर सन्त बहुत दु:खी हुए। उनके मन में विचार आया कि यह मनुष्य कितना तामसिक वृत्ति का है और विलासी है, जो प्रात:काल शराब का सेवन करके स्त्री की गोद में सिर रखकर प्रेमालाप कर रहा है।
         थोड़ी देर के पश्चात समुद्र से बचाओ- बचाओ की आवाज आई। सन्त ने देखा कि कोई मनुष्य समुद्र में डूब रहा है, उन्हें तैरना नहीं आता था, अतः देखते रहने के अलावा वे कुछ नहीं कर सकते थे। स्त्री की गोद में सिर रखकर सोया हुआ व्यक्ति उठा और उस डूबने वाले को बचाने हेतु पानी में कूद गया। थोड़ी देर में उसने डूबने वाले को बचा लिया और उसे किनारे पर ले आया। सन्त सोचने लगे कि इस व्यक्ति को बुरा कहें या भला। वे उसके पास गए और उन्होंने उससे पूछा- 'भाई तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?'
           उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- 'मैं एक मछुआरा हूँ। मछली पकड़ने का काम करता हूँ। आज कई दिनों बाद समुद्र से मछली पकड़ कर प्रात: ही लौटा हूँ। मेरी माँ मुझे लेने के लिए आई थी और घर में कोई दूसरा बर्तन नहीं था, इसलिए वह इस मदिरा की बोतल में ही पानी भरकर ले आई। कई दिनों की यात्रा से मैं थका हुआ था और भोर के सुहावने वातावरण में यह पानी पीकर थकान कम करने के उद्देश्य से माँ की गोद में सिर रख कर सो गया।'
         सन्त की आँखों में आँसू आ गए- 'मैं कैसा पातकी मनुष्य हूँ, जो देखा उसके बारे में मैंने गलत विचार किया जबकि वास्तविकता अलग थी।'
             इस घटना से यही समझ में आता है कि जिसे हम देखते हैं, वह हमेशा जैसी दिखती है वैसी नहीं होती। उसका एक दूसरा पक्ष भी हो सकता है। किसी के प्रति कोई धारणा बना लेने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। तब कहीं जाकर कोई फैसला लेना चाहिए। हमें अपनी सोच का दायरा विस्तृत करना चाहिए। देखने-सुनने के अनुसार स्वयं की बनाई सोच को सच मान लेना उचित नहीं होता। हो सकता है कि हमारी आँखे या कान धोखा खा रहे हों। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही हो।
          कहने को तो यह छोटी-सी घटना है, पर मन को झकझोर देती है। मनुष्य बिना सोचे-समझे अपनी बुद्धि को सही मानते हुए गलत अवधरणा बना लेता है। किसी भी बात की जड़ तक जाए बिना पूर्ण सत्य से साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। सच्चाई को परखने के लिए पैनी दृष्टि की आवश्यकता होती है। यह पारखी नजर मनुष्य को अपने अनुभव से मिलती है। ओछी हरकतें करने वालों को सदा मुँह की खानी पड़ती है।
           आधा-अधूरा ज्ञान सदा ही विध्वंस कारक होता है। जो भी देखें या सुने उसे निकष पर कसें। इससे भी बढ़कर यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हमारी सोच कहाँ तक सही है। किसी भी घटना के सारे पहलुओं को जाने बिना कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। इसके अतिरिक्त चटकारे लेकर, मिर्च-मसाला लगाकर दूसरों को अपमानित करने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। ऐसे अफवाहें फैलाने वालों की जब पोल खुल जाती है तो वे कहीं के भी नहीं रह जाते। लोग उन पर विश्वास करना छोड़ देते हैं और उनकी बातों को सीरियसली न लेकर मजाक में उड़ा देते हैं। इसलिए मनुष्य को ऐसी स्थितयों से बचना चाहिए। उसे एक जिम्मेदार मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 27 मई 2018

बेटियाँ

बेटियाँ अपने माता-पिता के जीवन में शीतल छाया के समान आती हैं। सारा जीवन वे उनके सुख की कामना करती रहती हैं। उनका वश चले तो वे अपने माता-पिता को कभी काँटा चुभने जैसा दर्द भी न होने दें। बेटी जब बड़ी होने लगती है तो वह सोचती है कि वह अपने माता-पिता का सहारा बने। उनके हर काम में उनका हाथ बटाए। यानी उनके आराम के लिए वह सभी काम करे। माता-पिता को भी अपनी सुघड़ बेटी पर मान होता है। माता तो फिर एक बार बेटी पर क्रोध कर सकती है क्योंकि उसका उद्देश्य बेटी को सर्वगुण सम्पन्न बनाना होता है। ताकि आगे आने वाली अपनी जिन्दगी में उसे कोई कष्ट न हो। पिता का निश्छल स्नेह बेटी की पूँजी होता है।
          एक घटना का यहाँ चित्रण का रही हूँ जिसे कुछ दिन पूर्व पढ़ा था। उसमें लेखक का नाम नहीं लिखा हुआ था। पिता और पुत्री के प्यार को यह घटना दर्शा रही है जो मन को छू लेती है।
         "पापा मैंने आपके लिए हलवा बनाया है" ग्यारह साल की बेटी ने अपने पिता से कहा जो अभी ऑफिस से घर में घुसा ही था।
        पिता- "वाह, क्या बात है,लाकर खिलाओ फिर पापा को।"
        बेटी दौड़ती हुई रसोई में गई और एक कटोरे में हलवा डालकर ले आई। पिता ने खाना शुरू किया और बेटी को देखा। पिता की आँखों में आँसू थे।
        बेटी ने पूछा- "क्या हुआ पापा हलवा अच्छा नहीं लगा।"
        पिता- "नहीं मेरी बेटी, बहुत अच्छा बना है और देखते देखते पूरा कटोरा खाली कर दिया।"
        इतने में माँ बाथरूम से नहाकर बाहर आई और बोली- "ला मुझे खिला हलवा।"
        पिता ने बेटी को 50 रुपए इनाम में दिए। बेटी खुशी से मम्मी के लिए रसोई से हलवा लेकर आई। मगर ये क्या जैसे ही उसने हलवे का पहला चम्मच मुँह में डाला तो तुरन्त थूक दिया। बोली- "ये क्या बनाया है। ये कोई हलवा है, इसमें चीनी नहीं नमक भरा है और आप इसे कैसे खा गए ये तो एकदम कड़वा है। मेरे बनाके खाने में तो कभी नमक कम है, कभी मिर्च तेज है कहते रहते हो और बेटी को बजाय कुछ कहने के इनाम दे रहे हो।"
          पिता हँसते हुए- "पगली, तेरा मेरा तो जीवन भर का साथ है। रिश्ता है पति-पत्नी का, जिसमे नोकझोंक, रूठना-मनाना सब चलता है। ये तो बेटी है कल चली जाएगी। आज इसे वो अहसास, वो अपनापन महसूस हुआ जो मुझे इसके जन्म के समय हुआ था। आज इसने बड़े प्यार से पहली बार मेरे लिए कुछ बनाया है, फिर वो जैसा भी हो मेरे लिए सबसे बेहतर और सबसे स्वादिष्ट है।"
           वास्तव में बेटियाँ अपने पापा की परियाँ और राजकुमारी होती हैं। वह रोते हुए पति के सीने से लग गई और सोच रही थी कि इसीलिए हर लड़की अपने पति में अपने पापा की छवि ढूंढती है। हर बेटी अपने पिता के बड़े करीब होती है या यूँ कहें कलेजे का टुकड़ा होती है। इसलिए शादी में विदाई के समय सबसे ज्यादा पिता ही रोता है। बेटी को पराए घर यानी ससुराल भेजते समय उसे लगता है कि उसके हृदय का कोई कोना रीता हो गया है।
          इस घटना में पिता का अपनी बेटी के प्रति और बेटी का अपने पिता के प्रति अगाध प्यार दिखाई दे रहा है। माता-पिता बेटी के भविष्य को लेकर सदा ही आशंकित रहते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे अपनी बेटी के लालन-पालन में कोई कमी रखते हैं। समझदार बेटियाँ अपने माता-पिता का सिर किसी भी शर्त पर झुकने नहीं देतीं। वे सदा इस बात का ध्यान रखती हैं कि उनके माता-पिता की इज्ज़त बनी रहे और किसी भी प्रकरण में उनकी समाज में किरकिरी न होने पाए।
           कई जन्मों के पुण्यकर्मों के पश्चात किसी घर में बेटी का जन्म होता है। वे माता-पिता धन्य हैं जो बेटी को पाल-पोसकर, उसे संस्कारी बनाते हैं। उसकी हर इच्छा को पूर्ण करते हैं। उसे इस योग्य बनाते हैं कि वह सिर उठाकर चल सके और वह समाज में अपना स्थान बना सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 26 मई 2018

लाइन या कतार तन्त्र

जिधर नजर घुमाओ लाइन-ही-लाइन दिखाई देती है। यह लाइन या कतार तन्त्र हमारे जीवन का एक हिस्सा बन गया है। पता नहीं लोग लाइनों में ही खड़े रहते हैं या अपने काम-धाम भी करते हैं। हर जगह दिखाई देने वाली लाइन को देखकर यही लगता है कि हम सब लोग इस तरह लाइनों में लगने के आदी हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि हम केवल मजबूरी में ही लाइन में खड़े होते हैं अपितु अपने मनोरञ्जन और शौक पूरे करने के लिए भी लाइन में लगना पसन्द करते हैं।
          रेलवे स्टेशन पर जाइए वहाँ टिकटघर पर लाइनें लगी रहती हैं। एयरपोर्ट पर भी कम लाइन नहीं रहतीं। जहाज में चढ़ने के लिए भी लम्बी-सी लाइन प्रतीक्षा कर रही होती है। मेट्रो स्टेशन की ओर चले जाइए, वहाँ भी यात्रियों की लम्बी लाइन दिखाई देती है। हर बस स्टॉप पर भी सारा समय भीड़ रहती है। गाड़ियाँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि सड़कों पर पीक हॉर्स में प्रतिदिन जाम जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। इतना समय लग जाता है कहीं पहुँचने के लिए। नदियों में नौका विहार करने के लिए भी टिकट कतार में लगकर ही मिलता है।
          गाड़ियों के शोरूम में जाने पर ज्ञात होता है कि नए मॉडल्स की गाड़ियों पर वेटिंग चल रही है, ग्राहकों को छह-छह महीने तक गाड़ियों की प्रतीक्षा करनी पड़ रही है।
          रेस्टोरेण्ट में लंच या डिनर के लिए जाने पर पता चलता है कि कोई टेबल खाली नहीं है, वहाँ भी लाइन है, कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। शॉपिंग मॉल में पार्किंग की जगह नहीं है। इतनी अधिक भीड़ है वहाँ पर भी कि प्रतीक्षा करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। फिर समान इकट्ठा कर लें तो पैसे देने के लिए भी लम्बी लाइन रहती है। ऑनलाइन शॉपिंग के इस दौर में भी वर्किंग डे में शाम के समय बाजारों में पैर रखने को जगह नहीं है।
          नौकरी पाने के लिए कतार, स्कूल या कॉलेज में दाखिले के लिए कतार का सामना करना पड़ता है। बच्चों को स्कूल में हर समय कतार में चलने का निर्देश दिया जाता है। मन्दिर में कतार से जाओ, कहीं भण्डारा हो तो लाइन में लग जाओ। बिजली, पानी, टेलीफोन आदि कोई भी बिल जमा करना हो तो वहाँ भी वही लाइन। इनकमटैक्स, हाउसटैक्स आदि भी बिना लाइन लगाए जमा नहीं होते।
          फिल्म देखने का मूड बना लो तो वहाँ टिकट काउण्टर पर अच्छी खासी लाइन रहती है। पैसे निकलवाने के लिए ए टी एम में जाओ तो वहाँ कतार रहती है। बैंक में ट्रांजेक्शन करने जाओ तो लाइन में खड़े रहो। डाकघरों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है। किसी भी स्थान विशेष या चिड़ियाघर आदि में घूमने जाने पर भी कतारों का सामना करना पड़ता हैं।
          पिछले दिनों जब जियो कम्पनी के फोन की रजिस्ट्रेशन हो रही थी तो बहुत लम्बी लाइनें लगती थीं। कई मोबाइल कम्पनियों के मॉडल आउट ऑफ स्टॉक हो जाते हैं। उन्हें पाने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। टोल फ्री नम्बर पर फोन करने पर यही सुनाई देता है- ’आप कतार में हैं, कृपया प्रतीक्षा करें।’
          अस्पताल में यदि जाना पड़े तो वहाँ कार्ड बनवाने के लिए लम्बी कतारें होती हैं। उसके बाद डॉक्टर को दिखाने के लिए फिर से लाइन में लगना पड़ता है। और तो और श्मशान में भी लाइन लगी रहती है। अभी एक शव का दाह संस्कार होता है तो वहाँ दूसरा तैयार रहता है।
          सन 1966 की चर्चा करना चाहती हूँ, जब कुछ भी ओपन मार्किट में नहीं मिलता था। आटा, चावल, चीनी, सूजी, मैदा सब राशन की दुकानों पर मिलता था। उस समय लोग सर्दी, गर्मी, बरसात आदि की चिन्ता किए बिना घण्टों लाइन में खड़े रहते थे, तब कहीं जाकर भोजन का जुगाड़ हो पाता था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों से सप्ताह में एक दिन सोमवार की शाम को अन्न का त्याग या उपवास करने की अपील की थी। लोगों ने उनके सुझाव का पालन किया। फिर उन्होंने 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया। उसके बाद धीरे-धीरे सब समान ओपन मार्किट में मिलने लगा।
          उस समय गैस के चूल्हे उपलब्ध नहीं थे। लोग चूल्हे, अंगीठी और स्टोव पर खाना बनाते थे। मिट्टी का तेल भी लाइनों में लगकर ही मिला करता था। आज भी बहुत से लोग कतार में लगकर ही राशन और मिट्टी का तेल लेते हैं।
          लगता है कि हम मनुष्यों का जीवन किसी-न-किसी कतार में खड़े हुए ही बीत जाने वाला है। इन लाइनों से मुक्ति का उपाय आज फिलहाल नजर नहीं आ रहा। आज स्थिति है कि पैसा भी खर्चो और लाइन में लगने की पीड़ा भी झेलो। हो सकता है भविष्य में इसका कोई हल निकल जाए और इस कतार तन्त्र से हमें मुक्ति मिल जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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