शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

माँ का रूठना

माँ का रूठना मानो सारे संसार का रूठ जाना होता है। जिन लोगों की माँ उनसे नाराज होकर रूठ जाती है, उन्हें घर-परिवार के लोग और समाज कभी माफ नहीं करता। सब सुख-सुविधाएँ होते हुए भी उनके मन का एक कोना रीता रह जाता है। उन्हें हर समय मानसिक सुख और शान्ति प्राप्त करने के लिए इधर-उधर भटकते ही रहना पड़ता हैं।
       मनुष्य के लिए उसकी माँ सर्वस्व होती है। माता के बिना मनुष्य के अस्तित्व की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। माँ है तो उसकी सन्तान है। इस सार्वभौमिक सत्य को कोई झुठला नहीं सकता कि यदि वही नहीं होगी तो सन्तान कभी इस दुनिया में नहीं आ सकेगी।
        हर मनुष्य के लिए माँ जीवनदायिनी शक्ति होती है। उसकी माता ही उसके लिए ऊर्जा और विश्वास का भण्डार होती है। वह आँख बन्द करके, बिना किसी झिझक के अपनी माता की अँगुली थामकर चल सकता है। उसके मन मे कभी यह भाव नहीं आता कि उसका अहित हो जाएगा।
        माँ अपने सारे सुखों और सुविधाओं की बलि चढ़ाकर अपनी सन्तान को पोषित करती है। जब तक बच्चा चलने-फिरने या बोलने लायक नहीं हो जाता तब तक उसे देखभाल की बहुत आवश्यकता होती है। उसे पलभर के लिए भी घर में नजरों से परे करने का यह अर्थ होता है बच्चा किसी समस्या में घिर गया है। इसलिए उसकी सदैव चौकसी करनी पड़ती है।
         छोटे बच्चे के लिए सरदी, गरमी, बरसात आदि हर पहला मौसम परेशानियाँ लेकर आता है। उसकी हर कठिनाई में उसे सम्बल चाहिए होता है, जिसे माता ही उसे देती है। उसे स्कूली शिक्षा के लिए तैयार करना और फिर जीवन में हर कदम पर सफल होने के लिए माँ ही उसकी सहायक बनती है।
         वह उसके बड़े होने, योग्य बनने के लिए सदा ईश्वर से प्रार्थना करती रहती है। उसके सारे जप-तप, पूजा-पाठ सदा अपनी सन्तान की भलाई और खुशहाली के लिए ही होते हैं। उसके सारे कष्टों को अपने ऊपर ले लेने की कामना हर माँ करती है। बड़े होकर बच्चे अपने जीवन में सेटल हो जाते हैं तब उसकी प्रसन्नता का कोई पारावार नहीं रहता।
         बच्चा जब बड़ा हो जाता है और अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है तब अपनी माता का हर प्रकार से ध्यान रखना, उसकी सारी आवश्यकताओं को प्रसन्नतापूर्वक मन से पूर्ण करना उसका परम दायित्व होता है। उसका सदा यही प्रयास होना चाहिए कि उससे जाने-अनजाने ऐसा कोई कार्य न होने पाए जिसके कारण उसकी माता को किसी भी प्रकार का कष्ट पहुँचे।
         माता के दिल को दुखाना किसी भी इन्सान को शोभा नहीं देता। जिस माता ने उसे सदा दुनियादारी की शिक्षा दी, पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाया, उसी माता को बड़े होकर यह कहना कि आपको कुछ भी नहीं पता यानी वह मूर्ख है, यह सबसे बड़ा अपराध है।
         मनुष्य के जीवन का आधार जो ऐसी जननी है, उसके प्रति कोताही बरतना, उसका तिरस्कार करना किसी भी तरह से क्षम्य नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति को किसी भी तरह से क्षमा नहीं किया जा सकता।
       इसीलिए ब्रह्माण्डपुराण ने बड़े स्पष्ट शब्दों में मनुष्य को चेतावनी देते हुए मनुष्य से कहा है-
           पातकानां  किलान्येषांप्रायश्चितानि  सन्त्यपि।
           मातेद्रुहामवेहि त्वं न क्वचित् किल निष्कृति:।।
अर्थात निस्सन्देह अन्य पातकों ( पापों) का  प्रायश्चित हो सकता है परन्तु मातृ-द्रोह का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता।
          कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य यदि कोई गलत कार्य या कुकर्म करता है तो उसका प्रायश्चित किया जा सकता है, उसके लिए सजा भोगी जा सकती है। परन्तु माता के प्रति वह कोई दोष करता है या बुराई करता है तो उसका इस संसार में किसी प्रकार का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता।
        मनुष्य को सदा यही प्रयत्न करना चाहिए कि देवतुल्य माता के साथ स्वप्न में भी ऐसा व्यवहार न करे जिससे उसके मन को कभी कष्ट हो अथवा रुष्ट हो करके उसे अपनी ही सन्तान से भारी मन से मुख मोड़ना पड़ जाए। ऐसी कृत्य के लिए इस लोक में तो क्या परलोक में भी उसे शान्ति नहीं मिल सकती।
चन्द्र प्रभा सूद
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जन्म से मृत्यु तक

मनुष्य का जन्म जब इस संसार में होता है तब वह खाली हाथ मुठ्ठी बाँधे हुए आता है और जब यहाँ से विदा लेने लगता है तब भी मुठ्ठी खोले खाली हाथ ही चला जाता है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य इस दुनिया में न कुछ लेकर आता है और न ही कुछ लेकर जाता है। तब यह मारकाट, हेराफेरी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, उठापटक आदि मनुष्य किसके लिए करता है?
        जन्म और मृत्यु नदी के दो छोरों की तरह हैं जो कभी आपस में नहीं मिल पाते। धरती और आसमान की तरह ये दोनों बस एक दूसरे को निहारते रहते हैं। रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर तक की दूरी तक बड़ी सावधानी से चलते हुए पार करनी पड़ती है। जहाँ चूक हुई वहीँ सब बर्बाद हो जाता है।
         प्रातःकाल जब सूर्योदय होता है तो उस समय मानो नवसृष्टि का आह्वान होता है। प्रकृति में चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है, हर कोना सूर्य के प्रकाश में जगमगाने लगता है। पक्षियों का कलरव नवगीत बन जाता है। उसी प्रकार नव शिशु के जन्म पर घर-परिवार में आनन्द-मंगल छा जाता है। नन्हा शिशु नई उमंग और उत्साह का प्रतीक बनकर खुशियाँ बिखेरता है।
        अपने उदय के पश्चात पल-पल करके सूर्य दिन का अपना चक्र पूर्ण करता हुआ फिर अपने अवसान यानी सूर्यास्त की ओर बढ़ता जाता है। उसी प्रकार मनुष्य क्षण-क्षण करके अपने इस जीवनक्रम को पूर्ण करता हुआ अपने अन्त अर्थात मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता चलता है।
          सूर्य की उदय से अस्त तक की यात्रा यूँ ही सरलता से निर्विघ्न समाप्त नहीं हो जाती। उसके लिए उसे भी संघर्ष करना पड़ता है। कभी किसी ग्रह के उसके मार्ग में आ जाने से उसे ग्रहण लग जाता है और कभी-कभार काले घने बादल आकर उसे ढक लेते हैं। उस समय दिन में ही रात्रि का आभास होने लगता है। तब वह हार नहीं मानता और बादलों के बीच से निकालकर पुनः चमकने लगता है।
       मनुष्य की जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी कष्टों और संघर्षों से भरी रहती है। कदम-कदम पर उसके लिए काँटे बिछाने वालों की कमी नहीं होती। उसके दुःख और उसकी परेशानियाँ उसे चैन नहीं लेने देते। दुखों की बदली छँटने तक उसकी दयनीय दशा में उसे कोई सहारा नहीं देता बल्कि और भाई-बंधुओं की तरह उसकी अपनी परछाई तक साथ छोड़ देती है।
          अपने और अपने परिवार के लिए तो सभी जी लेते हैं। वास्तव में जीना उन्हीं का सफल होता है जो दूसरों के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देते हैं। उन्हें ही संसार सदा स्मरण करता है। यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि मृत्यु अवश्यम्भावी है।
         सूर्य कष्टों का सामना करते हुए भी अपने अहं का त्याग नहीं करता। दोपहर यानी उसके यौवन काल के समय का उसका प्रचण्ड तेज असहनीय होता है। उसी प्रकार मनुष्य का अहं उसे ले डूबता है। काल की ओर बढ़ते हुए उसके लिए अहंकार उचित नहीं है।
          जिस प्रकार रात्रि सम्पूर्ण संसार के विश्राम के लिए होती है उसी प्रकार मृत्यु भी मनुष्य के लिए जन्म से अब तक की सारी थकान मिटाने के लिए माँ की गोद की तरह सुखदायिनी होती है। इस मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए बल्कि प्रसन्नता से इसकी प्रतीक्षा करते रहना चाहिए।
         इस दुनिया का चलन भी बहुत विचित्र है, वह जीवित रहते मनुष्य की सुध नहीं लेती। उसके कष्टों में उससे सहानुभूति भी नहीं रखती। एक इन्सान दूसरे इन्सान को सहारा देने से कतराता है। परन्तु जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो फिर वही सब लोग कन्धा देने के लिए पहुँच जाते हैं। इसका कारण यही है कि मृतक को अन्तिम यात्रा के लिए कन्धा देना भारतीय परम्परा के अनुसार पुण्य का कार्य माना जाता है।
          जहाँ तक हो सके समाज में रहते हुए दूसरों की सहायता अवश्य करनी चाहिए। हो सकता है कि उनके दिए गए आशीषों के फलस्वरूप अपने बन्द ताले की चाबी मिल जाए और मनुष्य का इहलोक-परलोक दोनों ही सुधर जाएँ। उसे चौरासी लाख योनियों वाले जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति मिल जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 29 अगस्त 2018

अयोग्य टिकता नहीं

विद्वान के समक्ष कम योग्य अथवा अयोग्य व्यक्ति अधिक समय तक नहीं टिक पाता। उसे शीघ्र ही अपना बोरिया-बिस्तर गोल करना पड़ जाता है। सूर्य के सामने दीपक का कोई भी अस्तित्व नहीं होता। दीपक का महत्त्व तभी होता है जब सूर्य अस्त हो चुका होता है और चारों ओर घुप्प अन्धकार का साम्राज्य होता है। उस समय एक नन्हें दीपक का प्रकाश ही सब लोगों का पथप्रदर्शक बनता है।
         राजा के सामने रंक की कोई नहीं हस्ती नहीं होती। अमीर के सामने गरीब का कद छोटा हो जाता है। समुद्र के सामने तालाब और बावड़ी का अस्तित्व बौना होता है। बड़े और महान वृक्षों के सामने छोटे-छोटे पौधे नगण्य हो जाते हैं। महलों के सामने छोटी झोंपड़ियों को कोई महत्त्व नहीं देता। इसी प्रकार हम अपने आसपास बहुत से उदाहरण ढूँढ सकते हैं।
       इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता कि कमतर वस्तुओं का कोई महत्त्व नहीं होता। इसलिए उन्हें अनदेखा कर देना चाहिए। वास्तव में उनके होने ही महान और निम्न पर चर्चा की जाती है और लिखा-पढ़ा जाता है। यदि ये सब न हों तो महानता की पहचान कभी नहीं की जा सकती। इसलिए सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है, उन सबका सम्मान समान रूप से होना चाहिए।
          इसी भाव को किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है -
             खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी।
            उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो नचन्द्रमा:॥
अर्थात जब तक चन्द्रमा का उदय नहीं होता तब तक जुगनू चमकते हैं। परन्तु जब सूरज का उदय हो जाता है तब न तो जुगनू दिखाई देते हैं और न ही चन्द्रमा। दोनों ही सूरज के समक्ष फीके पड़ जाते हैं।
         कहने का तात्पर्य है कि जब तक आकाश में चन्द्रमा का उदय नहीं होता तब तक जुगनू अपना प्रकाश फैलाते  रहते हैं। उसके प्रकाशित होते ही जुगनुओं का प्रकाश मद्धम पड़ जाता है अथवा वे दिखाई ही नहीं देते। जिस चन्द्रमा की लोग पूजा करते हैं, उसे अर्घ्य देते हैं उसकी भी चमक प्रभासमान सूर्य के समक्ष फीकी पड़ जाती है। इसका यही अर्थ निकलता है कि योग्य व्यक्ति की उपस्थिति में अयोग्य लोग स्वतः ही गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।
         कुछ लोगों को आदत होती है कि वे स्वयं को महान बताने के लिए असत्य का सहारा लेते हैं। कह सकते हैं कि धन न होने पर धनवान होने का प्रदर्शन करते हैं। शक्तिहीन होते हुए शक्तिशाली होने का ढोंग करते हैं। अपने आप को हर विषय का जानकर बताने के लिए परिश्रम करते हैं। मूर्ख अथवा कम पढ़े होने पर स्वयं को विद्वान सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं।
         ऐसे मुखोटानुमा लोग सर्वत्र मिल जाते हैं। कुछ समय तक उनका असत्य परवान चढ़ सकता हैं यानी थोड़े समय के लिए वे अपना दबदबा दूसरों पर कायम कर सकते हैं, लम्बे समय के लिए दूसरों को कदापि धोखा नहीं दे सकते। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार के छँट जाने से सब स्पष्ट हो जाता है उसी प्रकार सच्चाई सामने आते ही उनकी पोल खुल जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाता है। उस समय अपनी कलई खुल जाने के कारण वे लोग समाज में हँसी का पात्र बनते हैं। सभी उनका उपहास करते हुए कहते हैं -
     'कौवा चला हंस की चाल और आपनी चाल भूल गया।'
        मनुष्य जैसा है, उसे वैसा ही सबके .सामने रहना चाहिए। उधार के लबादों से कभी सुन्दर दिखने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अन्तस में विद्यमान कुरूपता को किसी भी प्रयास से ढका नहीं जा सकता। अपने अन्दर अधिक-अधिक गुणों का विकास करना चाहिए। अपनी योग्यताओं का विस्तार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में सामने वाले की लकीर को काटकर छोटी करने के स्थान पर मनुष्य को अपनी योग्यताओं का विस्तार करना चाहिए।
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मंगलवार, 28 अगस्त 2018

टीवी, सिनेमा का प्रभाव

टी वी सीरियल्स, सिनेमा आदि में दिखाई जाने वाली चकाचौंध, अमीरी, पात्रों का रौबदाब, रुतबा आदि देखकर आज युवा दिग्भ्रमित हो रहे हैं। वे सपने लेते रहते हैं कि वे भी इसी तरह का साम्राज्य अपने लिए जुटा लेंगे। इसलिए वे जिन्दगी की सच्चाइयों से दूर अपने लिए, अपने चारों ओर एक छद्म संसार बसा लेते हैं। फिर उसके लिए जायज-नाजायज सभी प्रकार के हथकण्डे अपनाने लग जाते हैं। अब समस्या यह उठती है कि सुख-सुविधा के सभी साधन कैसे जुटाए जाएँगे?
         आज के युवा रातों रात अमीर या करोड़पति बनने के सपने देखते रहते हैं। उन्हें किसी जीवन मूल्य की कोई परवाह नहीं है। बस पैसा ही उनका भगवान बन जाता है। उसे पाने के लिए वे कुमार्ग की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। उन्हें सब कुछ थाली में परोसे हुए की तरह ही मिलना चाहिए अन्यथा वे विद्रोही बनते जा रहे हैं। उन्हें समझ में ही नहीं आ रही कि वे कर क्या रहे हैं? वे किस ओर जा रहे हैं? उनके इस जीवन का वास्तव में कोई उद्देश्य है भी या नहीं?
         यही विवेकशून्यता वाली स्थिति उनके पतन का कारण बनती जा रही है। वे लोग देश, धर्म, परिवार और समाज विरोधी गतिविधियों में शामिल होते जा रहे हैं। इसके लिए चोरी-डकैती करना, दूसरों का गला काटना, धोखा देना, नशीले पदार्थों का विक्रय करना, सुपारी लेकर हत्या करना, भ्रष्टाचार करना, आतंकवादी गतिविधियों के अन्जाम देना, लूटपाट करना जैसे दुकर्मों में प्रवृत्त होते जा रहे हैं। उन्हें बस पैसा चाहिए, वह चाहे किसी भी तरीके से आए। इसके लिए उन्हें यदि अपने किसी प्रिय की बलि भी देनी पड़ जाए तो वे इसके लिए तैयार रहते हैं।
        छोटे शहरों या गाँवों के लोग इस अन्धी और अन्तहीन दौड़ का शिकार बहुत सरलता से बन जाते हैं। वहाँ के अभावों से घबराकर वे गलत लोगों हाथ की कठपुतली बन जाते हैं। अपने माता-पिता की अकूत सम्पत्ति पर गर्व करने वाले अथवा उच्च पदाधिकारियों के बच्चे भी इस मार्ग पर चल पड़ते हैं। उन्हें लगता है कि यदि कहीं क़ानूनी अड़चन आ जाएगी तो उनके माता-पिता अपने धन व पद का उपयोग करके उन्हेँ बचा लेंगे।
        धनी परिवार के युवाओं की यह सोच सर्वथा अनुचित है। सदा उन्हें अपने कार्य-व्यवहार पर लगाम लगनी चाहिए। इससे उनकी और उनके माता-पिता का सम्मान बना रह सकता है। अन्यथा उन नालायक निकल जाने वाले बच्चों के कारण आजीवन उन्हें समाज में शर्मिन्दा होना पड़ता है।
       एक बार इस दलदल में घुस जाने के पश्चात वहाँ से निकल पाना असम्भव हो जाता है। स्वार्थी लोग उन्हें उस कुमार्ग को छोड़ने भी नहीं देते। यदि वे उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर उस मकड़जाल से बाहर निकलना चाहें तो अपने रहस्य सार्वजनिक हो जाने के डर से उनका जीवन समाप्त कर देने से वे नहीं घबराते। यह काँटों भरा मार्ग दूर से ही आकर्षक लगता है। इस मार्ग पर चलने वालों को एक न एक दिन लहूलुहान होना ही होता है।
        मार्ग से भटक रहे युवाओं को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य का जन्म बहुत शुभकर्मों के उदय होने से मिलता है। उसे यूँ ही बरबाद नहीं कर देना चाहिए। इस छद्म चकाचौंध से हमारे युवाओं को सावधान रहना चाहिए। उन्हें मौकापरस्त धूर्तों के चँगुल में फंसकर अपने अमूल्य जीवन को नष्ट नहीं करना चाहिए।
       यह मानकर चलना चाहिए कि फ़िल्मी पर्दे पर अथवा टी वी सीरियल में दिखाई जाने वाली समृद्धि मात्र छलावा है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसके चक्कर में पड़कर अपने जीवन में काँटे बोने का कार्य न करें। अपने तथा अपनों की प्रसन्नता के लिए वे सही मार्ग का चुनाव करें, जिससे उन्हें जीवन में कभी प्रायश्चित न करना पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 27 अगस्त 2018

कर्त्तव्य से जी चुराना

अपने कर्त्तव्यों से जी चुराने वाला कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं करता।अपनी हानि तो वह करता ही है अपनों को भी नुकसान पहुँचाता है।
      अब देखिए एक व्यक्ति बीमार पड़ा है और उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाने की आवश्यकता है। यदि मनुष्य आजकल करके समय बर्बाद करेगा तो हो सकता है रोगी का रोग इतना बढ़ जाए कि उसे प्राणों से ही हाथ धोने पड़ जाएँ।
        अपने कार्यक्षेत्र में काम में कोताही करने से अपने बॉस या मालिक से डाँट-फटकार सुनने को मिलती है। यदि बारबार चेतावनी मिलने पर भी आदत में सुधार न हो तो नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है। उस समय मनुष्य पैसे-पैसे का मोहताज हो जाता है। घर-परिवार में हर स्थान पर उसे तिरस्कृत होना पड़ता है।
       अपने व्यापार में मनुष्य को अपनी सुस्ती के कारण हानि उठानी पड़ सकती है। हद तो तब हो जाती है जब उसकी योजनाओं का लाभ कोई और उठा जाता है। तब हाथ मलने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं बचता।
         इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक मनुष्य अपने काम को सच्चाई व ईमानदारी से न करे तो उसे सफलता नहीं मिलती। वह जीवन की रेस में पिछड़ जाता है।
        हम अपने आसपास देखते हैं कि कुछ लोगो को अपने धन-वैभव का, किसी को अपनी सुन्दरता का, किसी को अपनी योग्यता आदि का घमंड है। वे अपने सामने दूसरों को हेय समझते हैं। अपने दम्भ के कारण सबसे अलग दिखना चाहते हैं। इसलिए किसी के साथ मिलना या काम करने में अपना अपमान समझते हैं। ऐसे लोगों को आम जन जब नजरअंदाज करते हैं तो उन्हें बहुत कष्ट होता है। सीधा-सा अर्थ है कि यदि किसी के काम न आ सकें तो जीवन व्यर्थ है।
         अपने घर-परिवार की ओर नजर डालिए। कितनी भी सुन्दर व पढ़ी लिखी गुणी बहु-बेटी हो पर यदि काम न करे तो वह बड़े-बजुर्गों की नजर से उतर जाती है। उसी की इज्जत होती है जो सबके साथ मिल-जुलकर रहे व घर-बाहर के कार्यों को सुघड़ता से पूरे करे। इसीलिए यह कहा जाता है-
             'काम प्यारा चाम नहीं'। और 
             'इस देह को चील कौवे ने भी नहीं खाना।'
        एवंविध घर-परिवार में जो लड़का ठीक से काम-धन्धा नहीं करता और उनकी जरूरतों को पूरा नहीं करता वह किसी का प्रिय नहीं होता। गाहे-बगाहे चलते-फिरते उसे सबकी छींटाकशी का शिकार बनना पड़ता है।
        समाज में उसी को सम्मान मिलता है जो अपनी मेहनत के बल पर अपना एक स्थान बनाता है। दूसरों को अपनी योग्यता के बल पर पछाड़ कर कहीं ऊँचाइयों को छू लेता है। कामचोर कहीं भी रहे सफल व्यक्ति नही बन सकता।
       दुनिया का दस्तूर है कि वह चढ़ती कला को प्रणाम करते हैं। प्रातःकालीन उदय होने सूर्य को सभी प्रणाम करते हैं, उसे अर्घ्य देते हैं ओर पूजा करते हैं पर अस्त होते सूर्य को नहीं। संसार उदय का चाहने वाला है अस्त का नहीं। सफल व्यक्ति के आस-पास लोग इस प्रकार मंडराते हैं जिस प्रकार गुड़ के ऊपर मक्खियाँ। असफल व्यक्ति के साथ एक कदम भी चलने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता।
         अपने जीवन से कामचोरी की आदत को शीघ्रातिशीघ्र छोड़कर यत्नशील बनना चाहिए। परिश्रम करने वाले की कभी हार नहीं होती। स्वयं को इस समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए कर्त्तव्य पालन करते हुए आगे बढ़ते रहना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 26 अगस्त 2018

कर्मों की दौलत

अटल सत्य है कि मनुष्य के शुभ कर्मो की दौलत बहुत अमूल्य होती है, वह जन्म-जन्मान्तरों तक मनुष्य का साथ निभाती है, उसके काम आती है। वह खरीदने या बेचने की वस्तु नहीं है, इसलिए उसे न कोई बेच सकता है और न ही खरीद नहीं सकता है। जीवनभर मनुष्य जो भी धन-वैभव कमाता है, वह उसके जीवनकाल तक ही उसका साथ देते हैं। जब आँख बन्द हुई तो फिर किसका वैभव और किसका धन? परिश्रम, ईमानदारी और सच्चाई से अर्जित की हुई समृद्धि ही मनुष्य की अपनी होती है। उस कमाई पर उसे मान होता है और उसमें बहुत बरकत होती है।
          अशुभ कर्मों को हम दौलत नहीं कह सकते। ये हमारे पैरों की बेड़ियाँ होते हैं। बेईमानी, हेराफेरी, चोरबाजारी, भ्रष्टाचार आदि से कमाई हुई दौलत जी का जंजाल होती है। जिस तरह से वह कमाई जाती है, उसी तरह से चली भी जाती है। ऐसा धन अपने साथ बहुत से दुर्व्यसनों को भी लेकर आता है। मनुष्य उस समय मद में डूबा होता है, इसलिए वह कभी समझ ही पाता कि उसके साथ क्या हो रहा है? अन्तकाल में मनुष्य के साथ उसके शुभाशुभ कर्मो की दौलत जाएगी। शुभ कर्म उसे सुख-शान्ति देते हैं औऱ अशुभ कर्म उसे दुख और परेशानियाँ देते हैं।
           ऋचा दूबे ने वाट्सअप पर यह कहानी पोस्ट की थी जो मुझे बहुत अच्छी लगी। इसे कुछ संशोधन आपके साथ साझा कर रही हूँ।
    एक राजा ने अपने राज्य में क्रूरता से बहुत-सी दौलत इकट्ठी की थी। शहर से बाहर जंगल में एक सुनसान जगह पर बनाए हुए तहखाने में उसने सारे खजाने को खुफिया तौर पर छुपा दिया था। खजाने की सिर्फ दो चाबियाँ थी। एक चाबी राजा के पास रहती थी और दूसरी उसके एक खास मन्त्री के पास थी। इन दोनों के अलावा किसी को भी उस खुफिया खजाने का रहस्य मालूम नहीं था। एक दिन किसी को बताए बिना ही राजा अकेले अपने खजाने को देखने निकल गया। तहखाने का दरवाजा खोलकर अन्दर दाखिल हुआ। वह अपने अकूत खजाने को देख-देखकर खुश हो रहा था और उस खजाने की चमक से सुकून पा रहा था।
       संयोगवश उसी समय मन्त्री भी उस इलाके से निकला और उसने देखा की खजाने का दरवाजा खुला है वो हैरान हो गया।  उसने सोचा कि कल रात जब मैं खजाना देखने आया था तब शायद खजाने का दरवाजा खुला रह गया होगा। उसने जल्दी-जल्दी खजाने का दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया और वहाँ से चला गया। उधर खजाने को निहारने के बाद राजा जब सन्तुष्ट हो गया और दरवाजे के पास आया तो उसने देखा कि दरवाजा तो बाहर से बंद हो गया है। उसने जोर-जोर से दरवाजा पीटना शुरू किया पर वहाँ जंगल में उसकी आवाज सुननेवाला कोई नहीं था।
         राजा रोता रहा, चिल्लाता रहा पर अफसोस कोई वहाँ नहीं आया। वह थकहार कर खजाने को देखता रहा। अब राजा भूख और प्यास से बेहाल हो रहा था। पागल-सा हो गया था। वह रेंगता-रेंगता हीरों के संदूक के पास गया और बोला, "ए दुनिया के नायाब हीरो मुझे एक गिलास पानी दे दो।"
            फिर मोती, सोने और चाँदी के पास गया और बोला, "ए मोती, चाँदी और सोने के खजाने मुझे एक वक़्त का खाना दे दो।"
         राजा को ऐसा लगा कि हीरे, मोती उसे बोल रहे हों, "तेरे सारी ज़िन्दगी की कमाई तुझे क गिलास पानी और एक समय का खाना नही दे सकती।"
          राजा भूख से बेहोश होकर गिर गया। जब राजा को होश आया तब सारे मोती-हीरे बिखेरकर दीवार के पास उसने अपना बिस्तर बनाया और उस पर लेट गया। वह दुनिया को एक सन्देश देना चाहता था लेकिन उसके पास कागज़ और कलम नही था। राजा ने पत्थर से अपनी उँगली काटी और बहते हुए खून से दीवार पर कुछ लिख दिया। उधर मंत्री और पूरी सेना लापता राजा को ढूंढते रहे पर बहुत दिनों तक राजा नहीं मिला तो मन्त्री राजा के खजाने को देखने आया। उसने देखा कि राजा हीरे-जवाहरात के बिस्तर पर मरा पड़ा है। उसकी लाश को कीड़े खा रहे थे। राजा ने दीवार पर अपने खून से लिखा हुआ था कि यह सारी दौलत एक घूँट पानी और रोटी का एक निवाला तक नही दे सकी।
           यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि मनुष्य का इकट्ठा किया हुआ सारा भौतिक ऐश्वर्य यहीं इसी धरती पर ही रह जात है। राजा को अपार दौलत एक गिलास पानी नहीं पिला सकी और एक समय का खाना नहीं खिला सकी। उसका अकूत खजाना धरा-का-धरा रह गया और वह परलोक की यात्रा के लिए भूखा-प्यासा चला गया। यह अमूल्य मानव जीवन बड़े पुण्य कर्मों के पश्चात मिलता है। इस जीवन को व्यर्थ ही बर्बाद न करके इसे देश, धर्म और समाज की भलाई के कार्यों में लगाकर, इसे सफल बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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