बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

दूसरों का हित साधना

अपने झूठे अहं के कारण जो मनुष्य दूसरों की सहायता नहीं करता वह खाली हाथ रह जाता है। वह चाहे कितनी ही सुख-समृद्धि जुटा ले पर उसे मानसिक सन्तोष नहीं मिलता। वह सदा ही किसी-न-किसी कारण से भटकता रहता है। यह भटकाव उसे आजीवन परेशान करता रहता है। वह उसके सुख-चैन पर सदा घात लगाए बैठा रहता है। मनुष्य यदि दूसरों की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से तत्पर हो जाए तो उसके बिना माँगे ही उसकी झोली में सब कुछ आ जाता है।
           एक दृष्टान्त याद आ रहा है। एक बार देवताओं और असुरों को अलग-अलग मेज पर भोजन करने के लिए बिठा दिया गया। उनके सामने शर्त रखी गई कि उनकी बाहों में खप्पचियाँ बाँधी जाएँगी और उन्हें बंधे हाथों से उन्हें भोजन समाप्त करना है।
          तब उनको खप्पचियाँ बाँध दी गईं और फिर उनके समक्ष भोजन को परोस दिया गया। उनको खाना खाने के लिए आदेश दे दिया गया। देवताओं और असुरों दोनों ने ही बहुत प्रयास किया परन्तु बाहें न मोड़ पाने के कारण वे खाना खाने में सफल नहीं हो पाए। वे चम्मच में खाना भरकर मुँह की ओर ले जाते तो बंधे हाथ के कारण खाना उनके मुँह में न जाकर गिर जाता। अब वे दोनों ही परेशान होने लगे कि खाना कैसे खाया जाए?
           असुरों की प्रकृति होती है कि वे कभी मिल-जुलकर रह नहीं पाते, अपने अहं के कारण सदा झगड़ते ही रहते हैं। यहाँ भी मिलकर खाने के विषय में वे असुर सोच ही नहीं पाए। उनका भोजन नीचे धरती पर गिरकर बिखरता हुआ समाप्त हो गया और वे बिनखाए भूखे ही उठ गए।
            दूसरी ओर देवता थे जो सहिष्णु और सबके हितचिन्तक होते हैं। उन्होंने उपाय सोचा और उस पर अमल करने लगे। सभी देवता आमने-सामने होकर बैठ गए। चम्मच में भोज्य लेते और सामने वाले के मुँह में डालते। इस प्रकार एक-दूसरे की सहायता से उन्होंने भरपेट भोजन का आनन्द लिया। इस तरह उनकी बुद्धिमानी और परोपकार की भावना के कारण उनका भोजन व्यर्थ ही नष्ट नहीं हुआ और अपनी मेज से वे तृप्त होकर उठे।
           यह कथा हमें यही समझाती है कि दूसरों के हित की चिन्ता करने पर अपना हित स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। ईश्वर का न्याय है - 'इस हाथ दो और उस हाथ लो।' बार-बार हम इस सत्य को भूल जाते है और स्वार्थ के हाथों विवश हो जाते हैं। यह स्वार्थ हमारी कामनाओं की पूर्ति का मात्र साधन नहीं है अपितु हमें मूर्ख बनाकर दिन-रात हमें ठगता रहता है। इस तरह हम भी अनजान बनकर अपना तमाशा स्वयं ही बन जाते हैं।
          मनुष्य जितना अधिक स्व तक ही सीमित रहता है उसे परेशानियो का सामना करना पड़ता है। परन्तु जब वह स्व से ऊपर उठकर पर यानि दूसरों के बारे में सोचने लगता है तो उसे सहज ही वह सब प्राप्त हो जाता है जिसे वह अपनी कल्पना में ही पाता रहता है।
            इसीलिए हमारे मनीषी व्यष्टि(एक) से समष्टि(समूह या अनेक) की ओर चलने की बात करते हैं। यही कारण रहा होगा विश्व बन्धुत्व की कल्पना का जिसके लिए कहा जाता है-
                     ' वसुधैव कुटुम्बकम्'
अर्थात् सारी पृथ्वी अपना घर है।
          इस विचारधारा में सबको साथ लेकर चलने और मिल-जुलकर रहने की भावना बलवती होती है। हर मनुष्य को अपने घर-परिवार के आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता। उन्हीं के लिए ही वह जीता है और सारा जीवन खटता रहता है।
         अतः सम्पूर्ण ससार को यदि मनुष्य अपना परिवार ही मान ले तो सारे फसाद ही समाप्त हो जाएँगे। तब हर ओर से हम शुभ की ही कामना करेंगे। तब कोई स्वार्थ किसी पर हावी नहीं होगा। सब एक दूसरे का हित साधेंगे और सहायता करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

अपने कर्म का पालन

हर मनुष्य को अपने धर्म अथवा कर्त्तव्य का पालन निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए। उसमें उसे जरा-सी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। वह चाहे उच्चतम राज्याधिकारी, धर्मगुरु, नेता, अभिनेता, व्यवसायी, नौकरीपेशा, वैज्ञानिक आदि कोई भी हो। सबको अपने दायित्वों का निभाना चाहिए। जो भी व्यक्ति अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ता है, वह भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार अपयश का भागीदार बनता है। अपने द्वारा किए गए दुष्कृत्यों का फल सभी को भुगतना पड़ता है। किसी को रत्ती भर भी रियायत नहीं मिलती।
          चाहे कितनी भी मुसीबत क्यों न आए यानी आपातकाल में भी मनुष्य को पापकर्म करने से बचना चाहिए। उसके फल का भुगतान करते समय बहुत ही कष्ट होता है। यही समय उसकी परीक्षा का होता है कि वह अपने विचारों पर कितना अडिग रह पाता है। मनुष्य जब वह समय अपने असूलों का पालन करते हुए व्यतीत कर लेता है तब वह ईश्वर उसे फलस्वरूप सुख, ऐश्वर्य और यश उसकी झोली में डालता है।
          महाभारत काल में व्यास जी ने 'आपद्धर्म पर्व' में आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर को शंख-लिखित की निम्न कथा सुनाई।
         व्यास जी ने कहा- "युधिष्ठिर! राजधर्म के विषय में लोग इस प्राचीन ऐतिहासिक घटना का उदाहरण दिया करते हैं।"
         शंख और लिखित नामक दो भाई थे। दोनों ही कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तट पर उन दोनों के अलग-अलग बहुत सुन्दर आश्रम थे, जो सदा फल-फूलों से लदे रहने वाले वृक्षों से सुशोभित थे। एक दिन लिखित शंख के आश्रम में आए। दैवेच्छा से शंख उसी समय आश्रम से बाहर निकले थे। भाई की प्रतीक्षा करते हुए शंख को भूख लगने लगी। शंख के आश्रम में लिखित ने पके हुए बहुत से फल तोड़कर गिराए और उन्हें बड़ी निश्चिन्तता के साथ खाने लगे। वे खा ही रहे थे कि शंख आश्रम लौट आए। भाई को फल खाते देख शंख ने उनसे पूछा- "तुमने ये फल कहाँ से प्राप्त किये हैं और किस लिए तुम इन्हें खा रहे हो?"
             लिखित ने निकट जाकर बड़े भाई को प्रणाम किया और हँसते हुए-से कहा- "भैया! मैंने ये फल यहीं से लिए हैं।"
            तब शंख ने तीव्र रोष में भरकर कहा- "तुमने मुझसे पूछे बिना स्वयं ही फल लेकर चोरी की है। अतः तुम राजा के पास जाओ और अपनी करतूत उन्हें कह सुनाओ।"
        उनसे कहना- "नृपश्रेष्ठ! मैंने इस प्रकार बिना पूछे फल लेकर खाए हैं, अतः मुझे चोर समझकर अपने धर्म का पालन कीजिये। है नरेश्वर! चोर के लिये जो नियत दण्ड हो, वह शीघ्र ही मुझे प्रदान कीजिए।"
           यह सुनकर राजा असमञ्जस में पड़ गया। उसने कहा- "भाई के बाग से ही फल तोड़कर खाए हैं, इसके लिए क्या सजा दूँ?"
          लिखित ने राजा को कहा- "बेशक फल भाई के बाग के थे। मैंने बिना अनुमति फल तोड़कर खाए, इसलिए यह चोरी कहलाएगी। इस अपराध कर्म का फल मुझे भुगतना पड़ेगा, इस जन्म में नहीं तो फिर अगले जन्म में।इसलिए कृपया जो एक चोर को चोरी की सजा दी जाती है, वही सजा मुझे बिना हिचकिचाहट दीजिए।"
           राजा और मुनि के बीच बहस हो गई। अन्त में मन्त्री मण्डल की सम्मति से तपस्वी लिखित को चोरी करने के अपराध में दोनों हाथ काट देने की सजा सुनाई गई। उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई कि उनके पापकर्म की सजा उन्हें मिल गई। उसके उपरान्त वे नदी में स्नान करने गए। उनके प्रचण्ड तपोबल के फलस्वरूप उनके हाथ पुनः जुड़ गए।
          इस कथा के माध्यम से यह बात समझ में आती है कि कर्मफल के विधान से ब्रह्माण्ड का कोई भी जीव नहीं बच सकता। चाहे वह राजा हो, साधु-सन्यासी हो या कोई भी साधारण व्यक्ति हो। अपने शुभाशुभ कर्मों का फल उसे भोगना ही पड़ता है। जिन्हें हम भगवान मानते हैं, जिनकी पूजा-अर्चना करते हैं, वे भी कर्मों के भोग से नहीं बच सके। कर्म के चक्र से किसी का बच निकलना असम्भव है।
           इसी प्रकार यह आवश्यक है कि किसी भी देश के राजा एवं न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष होकर अपराधी को सजा सुननी चाहिए। उन्हें किसी के दबाव में आकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। राजा को प्रजा पितातुल्य मानती है। उससे यही अपेक्षा की जाती है कि वह किसी की जाती, किसी का धर्म देखे बिना एक पिता की भाँति अपनी सारी प्रजा के साथ समान व्यवहार करें।
           एवंविध देश के न्यायालय की ओर भी सभी लोग अपनी आँखें गढ़ाए रहते हैं। उससे निष्पक्ष न्याय की आशा करते हैं। सरकारें तो आती जाती रहती हैं, न्याय की नजर में सभी एक समान होने चाहिए। फिर चाहे समक्ष राजनेता हों, उच्च पदाधिकारी हों, धनवान हों या आम जनता हो। आपद्धर्म होने पर भी उन्हें अपने धर्म से डिगना नहीं चाहिए। अन्यथा ऐसा होने पर इसके दुष्परिणाम भयावह होते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

प्राणों का महत्त्व

उपनिषद कथा है कि प्राचीन काल में  इन्द्रियों के मध्य अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने  के लिए झगड़ा हुआ। आँख, नासिका, कान (श्रवण शक्ति), जिह्वा (बोलने की शक्ति), मन और प्राण सभी अपने आप को श्रेष्ठ बता रहे थे।
        अंत में वे सभी प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और उन्हें अपने विवाद का कारण बताया। उन्होंने उन सबको कहा कि जिसके शरीर से चले जाने के बाद सब समाप्त हो जाए वही श्रेष्ठ है। सबने इस सुझाव पर अमल किया।
       सबसे पहले आँखें शरीर से एक वर्ष के लिए बाहर गयीं। लौटकर उन सबसे पूछा - 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।'
        उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे एक अंधा व्यक्ति कानों से सुनता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआ और मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
       फिर नासिका (सूँघने की शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
       उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे न सूँघते हुए व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, वाणी से बोलता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम भी जीवित रहे।'
        फिर कान (श्रवण शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
       उन सब ने उत्तर दिया- 'जैसे एक बहरा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम जीवित रहे।'
             फिर वाक् (बोलने की शक्ति) बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम  तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।'
            उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे एक गूंगा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
          फिर उसी तरह मन ने एक साल बाद लौटकर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
          उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे बिना मन के बच्चा आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआह, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
          अंत में प्राण शरीर से बाहर निकलने लगे तो ऐसा लगा कि सब कुछ समाप्त हो रहा है। उस समय सभी इन्द्रियाँ एक साथ चिल्लाने लगीं - 'मत जाओ, मत जाओ। तुम्हारे बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम चले जाओगे तो सब समाप्त हो जाएगा। तुम्हीं हम सब में श्रेष्ठ हो।'
        यह कथा हमें प्राणों का महत्त्व समझा रही है कि उनके बिना इस शरीर का कोई मूल्य नहीं। नश्वर शरीर में रहने वाली अनश्वर आत्मा को हम भूल जाते हैं। शरीर के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और इसी को सजाते-संवारते रहते हैं। इस बात को भी नजरअंदाज कर देते हैं कि रूप-यौवन जल्दी ही ढल जाएगा। यह आत्मा युगों-युगों तक रूप बदलती रहती है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 28 अक्तूबर 2018

हमारी कौन सुनता

ब़चपन में अपनी माता जी के मैं साथ कभी-कभी आर्य समाज चली जाती थी। वहाँ पर एक भजन गाया करते थे। वह मुझे पूरा याद नहीं पर दो-तीन लाइनें याद हैं-
        तेरे दर को छोड़कर किस दर जाऊँ मैं
        सुनता मेरी कौन है जिसे सुनाऊँ मैं
        जबसे याद भुलाई तेरी लाखों कष्ट उठाए हैं
        छींटा दे दो ज्ञान का होश में आऊँ मैं।
इसे सुनकर बाल सुलभ जिज्ञासा मन में उठती थी। उस समय हम बच्चों में उतनी समझ नहीं थी जितनी आज की पीढ़ी चुस्त है। तब मैं सोचा करती थी कि यह सुनता कौन है? अगर यह सुनता कोई इंसान है तो वह क्या सुनाना चाहता है? वह ऐसा क्यों कहता कि उसकी बात कोई नहीं सुनता? सब उसे नजर अंदाज क्यों करते हैं? ये प्रश्न निरंतर मन को उद्वेलित करते रहे।
       फिर जब कुछ बड़ी हुई तो अर्थ समझ आया कि सुनता कोई इंसान नहीं है बल्कि यह हम सब की पीड़ा है कि हमारी बात कोई नहीं सुनता हम किसे अपनी बात सुनाएँ। अब भी प्रश्न मुँह बाए खड़ा रहता कि माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-रिश्तेदार आदि सभी तो अपने हैं फिर वे हमारी बात क्यों नहीं सुनेंगे?
        उसके बाद जब गहरे उतरी तो समझ आया कि दुनियावी रिश्ते तो बस नाम के हैं। ये सभी पूर्वजन्म कृत हमारे अपने कर्मों के अनुसार हमारे साथ जुड़े हुए हैं। सभी माया में जकड़े हुए लाचार हैं जो चाहकर भी अपनों के लिए कुछ नहीं कर पाते। बस असहाय से उसके दुख-तकलीफों आदि में व्यथित होते रहते हैं।    
       हमारा असली रिश्ता तो उस परमात्मा के साथ है जिसके हम अंश हैं। वही हमारे लिए सब कुछ करता है। हमें सुख-समृद्धि देता है। हमारे कर्मों के हमें अनुसार जन्म भी देता है और हमारा पालन-पोषण करता है। वही हमारी बातों को सुनता है। हमारे सांसारिक रिश्ते-नाते मुँह मोड़ लेते हैं तो इंसान सबसे कटकर अलग-थलग हो जाता है। कोई भी उसका साथी नहीं रहता। उस स्थिति की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
          सोचिए यदि वह मालिक हमारी ओर से मुख मोड़ ले तो? नहीं, हम यह बात स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। उसे प्रसन्न करने के लिए, उसकी कृपा पाने के लिए हम तरह-तरह के यत्न करते हैं। उसे रिझाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। उन प्रयासों की सफलता या असफलता निश्चित ही हमारी सच्चाई और ईमानदार कोशिशों पर निर्भर करती है।
         इन पंक्तियों में कहा है कि प्रभु को भुला देने पर लाखों कष्टों का सामना करना पड़ा है। जितना उससे दूर होते जाएँगे उतने ही हमारे दुखों में वृद्धि होती जाती है। हम अज्ञानी हैं इसलिए अपराध कर बैठते हैं। यहाँ उस परमपितासे प्रार्थना की है कि हमें ज्ञान का छींटा दे दो ताकि हम होश में आ जाएँ। जैसे बहोश व्यक्ति को पानी का छींटा देते हैं तो उसकी बेहोशी दूर हो जाती है और उसकी चेतना लौट आती है।
          उसी प्रकार हम अज्ञानियों को जब ईश्वर ज्ञान का छींटा देगा तो हमारा अज्ञान दूर हो जाएगा और हमारे अंतस में ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा। तब हमें सही-गलत का भेद समझ में आ जाएगा। उस समय हम कुमार्ग का त्याग करके सन्मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे।
          दूसरे शब्दों में कहें तो इस संसार की असारता को समझकर हम सारतत्त्व ईश्वर की ओर अपना ध्यान करेंगें। हम तो मनुष्य हैं न, घाटे का सौदा नहीं कर सकते। यहाँ पर भी अपना लाभ देखते हुए प्रभु की ओर सच्चे मन से उन्मुख होंगे। ऐसा करके ही अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग सहज हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

दिल में जगह बनाना

किसी के दिल में जगह बना लेना बहुत ही आसान होता है। दूसरे के मन को मोह लेने की सबसे पहली शर्त होती है विनम्रता। मन में यदि स्वार्थ, दिखावा या छल-फरेब न हो तो किसी को अपना बनाया जा सकता है। विनम्र व्यक्ति अपने सरल व सहज व्यवहार से सबको अपना बना लेता है और सबका प्रिय बन जाता है।
            किसी दूसरे के दिल में उतरने के लिए अपने रिश्तों में विश्वास और सच्चाई का होना आवश्यक होता है। अपने प्रिय जन के रंग में रंग जाना ही अपनेपन की सीढ़ी है। कहने का तात्पर्य है कि दूसरे को उसी रूप में अपना लेना होता है जैसा वह है। उसकी अच्छाइयों को बढ़ाते हुए कमियों को अनदेखा कर देना चाहिए। तभी सम्बन्ध दूर तक साथ निभाते हैं।
            यदि किसी व्यक्ति की कमियों को लेकर उसे कोसते रहेंगे, उस पर टीका-टिप्पणी करते रहेंगे तो सम्बन्ध कितने भी प्रगाढ़ रहे हों, टूटकर बिखर जाते हैं। व्यक्ति विशेष की कमियों को अपनी अच्छाई से दूर करने का यत्न करना चाहिए। हमेशा यही सोचना चाहिए कि कोई भी इन्सान सर्वगुण सम्पन्न नहीं हो सकता। यदि वह पूर्ण हो जाएगा तब वह मनुष्य नहीं रह जाएगा अपितु ईश्वर तुल्य होकर हमारी पहुँच से दूर हो जाएगा।
            मनुष्य जब विनत होता है तब उसमें सबको मन्त्र मुग्ध करने की सामर्थ्य होती है। लोहे जैसी कठोर धातु जब नरम हो जाती है तो उससे मनचाहे पदार्थ बनाए जा सकते हैं। इसी तरह सोने जैसी ठोस धातु को अग्नि में पिघलाकर जब नरम कर देते हैं तब उससे मनभावन आभूषण बनाए जाते हैं। उन आभूषणों को पहनकर सभी इतराते फिरते हैं। उसी प्रकार अगर इन्सान भी नरम हो जाए तो उसके हृदय से कठोरता अथवा निर्दयता के भाव तिरोहित हो जाते हैं और वह मोम की तरह कोमल बन जाता है। वह लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेता है। वह हर व्यक्ति का प्रिय बन जाता है और फिर किसी के लिए भी पराया नहीं रह जाता।
           इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को महत्त्व देते हैं, थोड़े समय पश्चात उनका असली  चेहरा सबके सामने आ जाता है। लोग उनसे शीघ्र किनारा कर लेते हैं। उन्हें पराया बनाने में वे समय नष्ट नहीं करते। जहाँ तक हित साधने की बात है वह तो स्वयं ही हो जाता है। इसके लिए छल-फरेब का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होती।
          कठोर मिट्टी पर हल चलाकर उसे नरम बना देने पर वह खेत बन जाती है और सभी जीवों का पेट भरती है। यही धरती की विशेषता है कि उसे हम सबकी चिन्ता रहती है। यदि वह स्वार्थी हो जाए तब उसके लिए अपनी जान गंवा देने हेतु कोई रणबाँकुरा आगे नहीं आएगा।
          गेहूँ को पीसकर जब नरम आटा बना लिया जाता है तब उसमें पानी मिलाकर ही रोटी बनाई जाती है। जो सभी जीवों को पुष्ट करती है। यानि सारी प्रकृति स्व से परे रहकर पर को महत्त्व देती है। तभी हम जीवों का अस्तित्व है।
           दूध में शक्कर की तरह घुलमिल जाने और आटे में नमक की तरह एकरूप होकर दूसरों को सुख देने वाले विनयशील व्यक्ति ही वास्तव में अपनी पहचान बनाए रखते हुए भी सबके अपने बनते हैं। यही उनका सबसे बड़ा गुण होता है, इन गुणों को अपनाने में कभी भी परहेज नहीं करना चाहिए।
            अपने अहं को किनारे करके ही दूसरों के हृदय में अपना स्थान बनाया जा सकता है। स्वार्थ के वायरस को भी नगण्य करते हुए एक-दूसरे के दिल में घर बनाया जा सकता है। इन छोटी-छोटी बातों को यदि अपने ध्यान में खा जाए तभी किसी के दिल में सरलता से अपना स्थान बनाया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

बच्चों की देखभाल

आजकल कहा जाता है कि माता-पिता को घर पर और अध्यापकों को विद्यालय मैं बच्चों पर हाथ नहीं उठाना चाहिए। इस तरह करने पर उनका विकास बाधित होता है। विदेशियों की तर्ज पर इस सोच का मुझे कोई औचित्य ही दिखाई नहीं देता। सरकार, शिक्षा व्यवस्था और न्यायालय सभी बच्चों को शारीरिक दण्ड देने के विरुद्ध हैं। मुझे तो यह फलसफा आज तक समझ में नहीं आता। अंग्रेजी भाषा में एक उक्ति है-
      Spare the rod and spoil the child.
कितना सटीक है यह कथन। आज बच्चे उद्दण्ड बनते जा रहे हैं। न वे माता-पिता की बात सुनते हैं और न अध्यापकों की।
           बच्चों को दण्ड न देने के कारण वे मुँहफट, और बेलिहाज होते जा रहे हैं। विदेशी बच्चों के कारनामें हम समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं और टीवी व सोशल मीडिया पर देखते रहते हैं। वहाँ माता-पिता यदि कुछ कह दें तो बच्चे पुलिस को फोन करके उन पर प्रताड़ना का केस बना देते हैं। स्कूलों में बच्चे पिस्तौल से अपने साथियों की या अपने अध्यापकों की हत्या कर देते हैं। घर वालों को पता ही नहीं चलता कि ऐसा क्यों हुआ? बच्चे के पास पिस्तौल कहाँ से आई?
          इक्का-दुक्का घटनाएँ हमारे देश में भी सुर्खियों मैं आई हैं। ये घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ने लगीं हैं। इनके बारे में सुनकर और जानकर मन को बहुत कष्ट होता है। हर माता-पिता को अपने बच्चे अपनी जान से भी प्यारे होते हैं। वे उन्हें किसी कष्ट या परेशानी में नहीं देख सकते। उन्हें गलतियों से, गलत साथियों और गलत रास्ते पर जाने से बचाना माता-पिता का परम दायित्व होता है। आज के हालात को देखते हुए हम यह विचार करने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर बच्चों को बनाना क्या चाहते हैं? क्या हम उन्हें खुदा बनाकर रखना चाहते हैं?
           इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक श्लोक देना चाहती हूँ। इसमें कवि ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में समझाने का प्रयास किया है-
पित्रा प्रताडितः पुत्रः शिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण भूषणमेव जायते ।।
अर्थात पिता के द्वारा पीटा गया पुत्र, गुरु के द्वारा प्रताड़ित किया गया शिष्य तथा सुनार के द्वारा पीटा गया सोना, ये सब आभूषण ही बनते हैं।
           कवि ने बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है कि सोने को जितना ठोका-पीटा जाता है, उतना ही वह शुद्ध बनता है। ऐसे ही स्वर्ण के आभूषण बनाए जाते हैं, जिन्हें पहनकर हम इतराते हैं। उसी तरह बच्चों को यदि उनकी गलती का माता-पिता और अध्यापक द्वारा उचित दण्ड दिया जाता है तो वे भी कुन्दन बनकर चमकते हैं। समाज में वे अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाते हैं।
           प्राचीन काल से लेकर अभी कुछ समय पूर्व तक ऐसा कोई नियम नहीं था कि बच्चे को डाँट या मार नहीं सकते थे। गुरुकुल पद्धति में माता-पिता अपने बच्चों को गुरु को सौंपकर निश्चिन्त हो जाया करते थे। गुरु किसी भी तरह अपने शिष्य को योग्य बनाने का प्रयास करते थे। हर प्रकार के उपाय करते थे। वहाँ रहकर बच्चे सभी प्रकार के कार्य किया करते थे। गुरु की सख्ती को भी सहन करते थे। अब से कुछ समय पूर्व तक बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास में तो कोई किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती थी। गुरुजनों के कठोर व्यवहार के कारण वे बहुत कुछ सीखते थे।
           यहाँ एक बात कहना चाहती हूँ कि बच्चों की गलत हरकतों पर यदि जानबूझकर पर्दा डाला जाए तो वे बड़े होकर गलत राह पर चलते हैं। आखिर उन्हें एक बार , दो बार समझाना होता है। यदि फिर भी वे न मानें तो उनकी प्रताड़ना तो होनी चाहिए। सब जानते हैं कि आग में हाथ डाला जाए तो वह जल जाता है। तो क्या बच्चे के जिद करने पर उसे आग में हाथ डालने दिया जाएगा? सभी सुधीजन इस प्रश्न का न में ही उत्तर देंगे। इस कर्म के लिए बच्चे को डाँटा भी जाएगा और फिर भी यदि वह न माने अथवा जिद करे तो उसे पीटा भी जाएगा।
            जिन बच्चों को आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार मिलता है, वे बिगड़ जाते हैं। उसका उदाहरण है सम्भ्रान्त व समृद्ध परिवार के बच्चों का समाज विरोधी व अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाना। इनके विषय में समाचार पत्रों, टी वी और सोशल मीडिया पर चर्चाएँ होती रहती हैं। उनके माता-पिता अपने उच्च पद, राजनैतिक रसूख, पैसे के बल आदि के कारण उनके बचाव का असफल प्रयास करते रहते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता सदा ही उनके लिए चिन्तित रहते हैं। उनकी जिन्दगी काँटों की सेज बन जाती है।
          बच्चे न्याय व्यवस्था के अपराधी बनकर सलाखों के पीछे न पहुँचे, इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। यदि उनके साथ कठोरता बरतनी पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए। बच्चे भारत का भविष्य हैं। उन्हें नया इतिहास रचकर देश, धर्म, समाज और अपने माता-पिता का गौरव बढ़ाना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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