शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

विवाह संस्कार

प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों के विवाह को लेकर बहुत उत्साहित रहता है। इसके लिए सपने संजोता है और योजनाएँ बनाता है। भारतीय संस्कृति में पाणिग्रहण संस्कार अथवा विवाह का बहुत महत्त्व है। इसका अर्थ है - विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। विवाह योग्य युवा स्त्री और पुरुष का यह विवाह उन दोनों के साथ-साथ उनके पारिवारों के जीवन में भी परिवर्तन लाता है।
        अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानते हुए दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से आत्मिक सम्बन्ध अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, इसे अत्यन्त पवित्र माना गया है।
        परम्पराओं में सबसे मुख्य रस्म सात फेरों की होती है जो वैवाहिक जीवन की स्थिरता का मुख्य आधार होती है। यही सात फेरे उनके रिश्ते को सात जन्मों तक बाँधते हैं। वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर परिक्रमा करते हुए पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं।
       हिंदू वैवाहिक संस्कार के अंतर्गत वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व कन्या हर फेरे में वर से एक वचन लेती है। प्रत्येक वचन लेते हुए वह कहती है कि यदि आप इसे स्वीकार करते हो तो मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूँ-
           प्रथम वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा के लिए जाओ तो मुझे भी अपने साथ लेकर जाना। कोई धार्मिक कार्य आप करें तो मुझे अवश्य स्थान दें।
        किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान की सफलता हेतु पति-पत्नि मिल कर उसे करते हैं। पत्नी के इस वचन से धार्मिक कार्यों में उसकी सहभागिता और महत्व को दर्शाया गया है।
        दूसरे वचन में कन्या वर से कहती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बनें।
         आज कुछ लोगों की गृहस्थी में किसी प्रकार के मनमुटाव होने पर पत्नी के परिवार से सम्बन्धों में दरार आने लगती है। ससुराल पक्ष से सदा ही सदव्यवहार करना चाहिए।
         तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं- युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था में मेरा पालन करते रहना।
          चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से मुक्त थे। अब विवाह के बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कन्धों पर होगा।
         इस वचन के माध्यम से कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति सजग कराती है। विवाह पश्चात पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। यदि पति पूरी तरह से अपने माता-पिता पर आश्रित रहे तो गृहस्थी नहीं चल सक। कन्या चाहती है कि पति पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर बने और परिवारिक दायित्वों का निर्वहण करे। इस वचन से यह स्पष्ट होता है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वह योग्य बनकर अपने पैरों पर खडा हो जाए।
         पाँचवें वचन में कन्या कहती है कि अपने गृहकार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य खर्च करते समय मेरी भी सलाह लेना।
        आज भी बहुत से पुरुष अपने झूठे अहं के कारण पत्नी से किसी भी विषय में परामर्श नहीं करते। यदि वे ऐसा कर लें तो उसे सम्मान व आत्मसन्तुष्टि मिलेगी।
          छटे वचन में कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों आदि के बीच बैठी हूँ तब किसी के सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। स्वयं को जुए अथवा अन्य किसी दुर्व्यसन से दूर रखना।
        वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसे गम्भीरता से देखने की आवश्यकता हैं। विवाह के कुछ समय पश्चात पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा-सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं जो उसके मन को आहत करता है। एकांत में पति उसे चाहे समझा ले पर सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा करे। दुर्व्यसनों में फँसकर अपनी गृ्हस्थी को बरबाद न करें।
           सातवें वचन में कन्या कहती है कि पराई स्त्रियों को माता के समान समझना। आपसी प्रेम में किसी अन्य की भागीदारी नहीं होनी चाहिए।
         विवाहेत्तर सम्बन्ध गृहस्थी की नींव हिला देते हैं। इसलिए पारिवारिक जीवन को सुरक्षित रखने के लिए इस वचन की बहुत आवश्यकता है।
       विश्व के अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का अनुबन्ध होता है जिसे वे किसी परिस्थिति विशेष में तोड़ सकते हैं। यानी तलाक लेकर अपने रास्ते अलग कर सकते हैं। परन्तु भारतीय भारतीय संस्कृति में पति और पत्नी के बीच यह सम्बन्ध सात जन्मों का माना जाता है, इसे किसी भी परिस्थिति में तोड़ा नहीं जा सकता। यानी तलाक नहीं लिया जाना चाहिए। सम्बन्धों की गरिमा बनाए रखने के लिए परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 29 नवंबर 2018

जन्म-मृत्यु के बीच

यह संसार चक्की के दो पाटों की भाँति निरन्तर चलायमान है। इसका एक पाट जन्म है और दूसरा पाट मृत्यु है। इस जन्म और मृत्यु के दोनों पाटों में जीव आजन्म पिसता रहता है। इस क्षणभंगुर संसार में जन्म और मृत्यु के दो पाटों में पिसते हुए मनुष्य का अन्त निश्चित है। अतः इस असार संसार से विरक्ति का होना स्वाभाविक ही है।
        सन्त कबीरदास ने इसे अपने शब्दों में इस प्रकार पिरोया है-
        चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय।
        दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
अर्थात चक्की को चलते हुए देखका कबीरदास जी रो पड़े हैं। इसके दो पाटों में अनाज का कोई भी दाना साबुत नहीं बच सका। सभी पिस गए हैं।
          ये दो पाट द्वन्द्व हैं यानी सुख-दुःख, लाभ- हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, अपना-पराया, दिन-रात आदि। इनसे जो जीत गया, वह समझो बच सकता है। वही परम ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसे साक्षी भाव कहा है।
        कबीरदास को उदास देखकर उनके पुत्र कमाल ने यह दोहा लिखा-
       चलती चक्की देख कर, दिया कमाल ठठाय।
       कीले  से  जो  लग  रहा, सोई  रहा  बचाय।।
अर्थात चक्की को चलता हुआ देखकर कमाल ठहाका लगा रहे है। इस चक्की में केवल वही अनाज बच सकता है जो चक्की के मध्य में जुडी कील से चिपक जाता है।
        पहला दोहा मनुष्य की अनित्यता के कारण वैराग्य उपजाता है, लेकिन दूसरा दोहा मन में आशा और आस्था का दीपक दिखाता है। आवागमन रूपी दो पाटों में फँसा जीव अपने दायित्वों को निभाते हुए सदा ऐसे ही पिसता रहता है।
        कुछ प्रश्न मन में उठते हैं कि बचकर क्या जीवन और मृत्यु से मुक्त हो सकते है? क्या काल को वश में किया जा सकता है? पानी के बुलबुले जैसे इस नश्वर जीवन को क्या स्थायित्व मिल सकता है? पल-पल नष्ट होते हुए इस शरीर को क्या सदा के लिए यथावत रखा जा सकता है?
          इन सभी प्रश्नों का उत्तर न ही है। जो मनुष्य प्रभु भक्ति के मार्ग पर चल पड़ता है और उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, केवल वही बच सकता है। हर तरफ से स्वयं को समेटकर सिर्फ उस मालिक के साथ एकाकार हो जाना ही ज्ञान है, मूल मंत्र है।
         जन्म और मृत्यु के इस भय से बचने का ही साधन है मुक्ति। मनीषी इसे निर्वाण, परम पद और अभय पद आदि कहते हैं। इस अवस्था को शरीर की सीमा में रहते हुए पाया जा सकता है। अपने अंतस के शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से स्वयं को मुक्त कराना ही मोक्ष पाना है।
        मनुष्य को वीतरागी होना चाहिए। सभी विपरीत गुणों का अतिक्रमण करने से ही व्यक्ति गुणातीत होता है। जीवन के तमाम परस्पर विरोधी भाव चक्की के दो पाटों की तरह होते हैं। पाप और पुण्य दोनों ही कर्म बन्धन की वजह बनते हैं।
        राग-द्वेष आदि भाव संसार समाज, परिवार, राष्ट्र में हमेशा ही रहेगा। मनुष्य स्वयं को इनसे विलग करके मुक्त हो सकता है। जीवन के सभी विरोधी प्रतीत होने वाले भावों में जो सम रहता है उसे उपनिषद ऋषियों और भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोगी कहा है। वही जन्म और मृत्यु के बन्धनों को काट सकता है। तब वह काल का ग्रास नहीं बनता।
         जीवन का द्वैत भाव उसे चक्की के दो पाटों की तरह ही खा जाता है। जो सच्ची श्रद्धा और अपने निश्चित मन से कीले में चिपके अनाज की तरह उस परमपिता परमात्मा के सदैव समीप रहता है, वही इस भव सागर को पार कर लेता है। जो अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहण करते हुए चौबिसों घण्टे अपने हृदय में प्रभु का स्मरण करता रहता है, वह बालक भक्त प्रह्लाद की तरह हर प्रकार के भौतिक कष्टों से मुक्त हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 28 नवंबर 2018

मैं न होता तो

प्रायः लोगों को यह कहते हुए सुन होगा कि यदि मैं न होता तो क्या होता? पति कहता है मैं न होता तो घर कैसे चलता? पत्नी कहती है मैं न होती तो यह गृहस्थी कैसे चलती? बॉस कहता है वह न होता तो कम्पनी कैसे चलती? कर्मचारी कहता है मैं न होता तो कम्पनी को चला के दिखाते? नेता भी यही सोचते हैं कि वे न होते तो देश कैसे चलता?
           यानी हर किसी को यही लगता है कि उसके बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। यानी मनुष्य स्वयं को हर कार्य का श्रेय अनावश्यक ही देता रहता है। वह भूल जाता है कि ईश्वर की सत्ता इस संसार में है। जो कुछ भी होता है उसकी इच्छा से होता है। जिसे तुलसीदास जी के शब्दों में कह सकते हैं-
          होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
          को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अर्थात जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।
          इसका अर्थ है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता तो फिर मैं न होता वाली बात कहाँ से आ जाती है? मनुष्य तो बिना विचारे ही सब सफलताओं के फल कर्ता बन जाता है। सब कार्यों का विधान प्रभु ने पहले ही किया हुआ है। वह न चाहे तो मुँह तक पहुँचा हुआ रोटी का निवाला भी इन्सान के मुँह में नहीं जा सकता।
            लंका विजय के उपरान्त हनुमान जी इसी विषय पर प्रभु श्रीराम से चर्चा करते हुए कहते हैं- "अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर, तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ा था, तब मुझे लगा था कि इसकी तलवार छीनकर इसका सिर काट लेना चाहिए। किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मन्दोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया था। यह देखकर मैं गदगद हो गया। उस समय यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मै न होता तो क्या होता?"
          बहुधा हम सबको भी ऐसा ही भ्रम हो जाता है, जैसे हनुमान जी को हो गया था। यदि मै न होता तो उस दिन सीताजी को कौन बचाता? परन्तु भगवान ने उन्हें बचाया ही नहीं बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब हनुमान जी समझ गए कि प्रभु जिससे जो कार्य करवाना चाहते हैं, वे उसी से करवा ही लेते हैं। इसमें किसी का कोई महत्व नहीं होता है।
           आगे चलकर जब हनुमान जी अशोक वाटिका में जाते हैं तो उन्हें त्रिजटा यह कह रही होती है- "लंका में एक बन्दर आया हुआ है और वह लंका को जलाएगा।"
      तब हनुमान जी चिन्ता मे पड़ गए कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए तो कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है तो वे क्या करें? जब रावण के सैनिक तलवार लेकर उन्हें मारने के लिए दौड़े तो उन्होंने स्वयं को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की। जब विभीषण ने दरबार में आकर रावण से कहा- "दूत को नहीं मारना चाहिए, यह तो अनीति है।"
          तब वे समझ गए कि उन्हें बचाने के लिये प्रभु ने सटीक उपाय कर दिया है। उनके आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा- "बन्दर को मारा नहीं जाएगा, पर इसकी पूँछ में कपड़ा लपेटकर, घी डालकर आग लगाई जाए।"
        तब वे गदगद हो गए कि उस लंका वाली सन्त त्रिजटा की ही बात सच हो गई थी, वरना लंका को जलाने के लिए वे घी, तेल, कपड़ा कहाँ से लेकर आते और कहाँ पर आग ढूंढते।  इसके प्रबन्ध का कार्य भगवान ने रावण से करवा दिया। जब रावण से भी प्रभु अपना काम करवा लेते हैं तो अपने भक्त हनुमान से करवा लेने में आश्चर्य की क्या बात है?
           अतः सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि इस असार संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब ईश्वरीय विधान है, सर्वकालिक सत्य है। हम सभी तो केवल निमित्त मात्र हैं। उस सभी मालिक के हाथ की कठपुतलियाँ हैं। वह जैसा चाहे वैसा दुनिया को चला ले। वह चाहे तो राई को पहाड़ बना दे या पहाड़ को राई जैसा बना दे। वही इस संसार का कारक है, पालक है और विनाशक है। कभी भी यह भ्रम मनुष्य को अपने मन में नहीं पालना चाहिए कि मै न होता तो क्या होता? हम हैं तब भी सारी सृष्टि चलती रहती है और जब इस संसार में नहीं रहेंगे तब यह दुनिया इसी प्रकार चलती रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

ईश स्मरण की आयु

ईश्वर का स्मरण करने के लिए न कोई आयु होती है और कोई समय। छोटा बच्चा भी प्रभु का नाम ले सकता है। भक्त प्रह्लाद और ध्रुव के उदाहरण हमारे समक्ष हैं। मनीषी कहते हैं कि दिन-रात, चौबीसों घण्टे, आठों प्रहर प्रभु का नाम जपा जा सकता है। बस मनुष्य के मन में सच्ची भावना होनी चाहिए। उस मालिक को भक्ति का प्रदर्शन बिल्कुल भी पसन्द नहीं आता। वह चाहता है कि उसे चाहने वाले उसके पास सहज, सरल बनकर आएँ। उसके पास अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए किसी तरह की सौदेबाजी न करने वाले हों।
         फिर भी ऐसा कहा जाता है कि प्रातःकाल भोर में उठकर प्रभु का ध्यान अथवा जप करना अधिक लाभदायक होता है। उस समय वातावरण शुद्ध होता है और मन प्रभु की भक्ति में सरलता से रम जाता है। उसके बाद दिन का उदय होने पर मनुष्य दुनियादारी के कामों में उलझ जाता है। तब वह उस मालिक का नाम उतनी श्रद्धा से नहीं ले पाता। उस समय मनुष्य चाहकर भी अपना ध्यान दुनिया के कारोबार से नहीं हटा पाता। वे उसका ध्यान लगने नहीं देते, बल्कि उसके मानस को भटकते रहते हैं।
         कहते हैं कि एक सन्त से किसी शिष्य ने प्रश्न पूछा, "महाराज, भगवान को तो किसी भी समय याद किया जा सकता है, तो फिर सारे सन्त व महापुरुष अमृत वेले में ही नाम जपने के लिए ही क्यों कहते हैं?"
       उन सन्त जी ने हँसकर अपनी आप बीती बताई, "बात उस समय की है जब मोबाइल फोन प्रचलन में नहीं थे। एस. टी. डी. बूथ हुआ करते थे या फिर अपने फोन से लोग कॉल बुक करवाते थे। रात को नौ बजे मुझे किसी को फोन करने की याद आई। जिसे उन्होंने फोन करना था, उसे अगली ही सुबह पाँच बजे कहीं बाहर जाना था। इसलिए उनका रात को ही उससे बात करना आवश्यक था। वे रात को ही फोन करने गए। कई बार फोन लगाया, पर हर बार यही जवाब मिलता कि इस रूट की सभी लाईने व्यास्त हैं'।"
         उस बूथवाले ने कहा," महाराज आप सुबह चार बजे आकर बात कर लेना, मैं दुकान खोल दूँगा।"      
        उन्होंने सुबह जाकर बात करने के लिए जब फोन मिलाया तो वह झट से मिल गया और उनकी बात हो गई। उन्होंने हैरानी से बूथवाले की ओर देखा तो वह बोला, "सुबह तीन बजे से लेकर छह बजे तक लाईने खाली होती हैं। इसलिए जल्दी बात हो जाती है।"
         अपना यह नवीन अनुभव सुनाते हुए सन्त जी ने कहा, "ऐसे ही आजकल सम्पूर्ण मानव जाति कलयुग के प्रभाव के कारण देर से जागती है। केवल कुछ ही लोग हैं, जो प्रभु के प्यारे हैं, वे अमृत वेले जागकर अपने मालिक के साथ सीधी लाईन जोडते हैं।"
        इस घटना का उल्लेख करने का यही उद्देश्य है कि ईश्वर की उपासना करने के लिए लोग बहुत प्रकार के यत्न करते हैं। कुछ लोग शहरों से दूर जंगलों में साधना करने के लिए चले जाते हैं और कुछ साधक पर्वतों की गुफाओं में जाकर अपनी धुनी रमाते हैं। कुछ लोग धरती के अन्दर बैठ जाते हैं, कुछ लोग पेड़ों पर लटक जाते हैं, कुछ लोग एक टाँग पर खड़े हो जाते हैं और कुछ लोग अपने चारों ओर आग जलाकर उसका घेरा बनाकर बैठते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि घरबार छोड़कर तीर्थस्थानों पर जाने से प्रभु मिल जाता है। इस प्रकार साधक अपनी-अपनी सोच के अनुसार प्रभु की आराधना करते हैं।
          बहुत से विद्वानों का कथन है कि ईश्वर को पाने के लिए गुरु का होना बहुत आवश्यक है। निगुरा व्यक्ति परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता। यही कारण है कि भोले-भाले जनसाधारण उनके इस तर्क के चक्कर में तथाकथित धर्मगुरुओं के जाल में फँस जाते हैं। वे अपने धन और समय के साथ-साथ अपना जीवन भी बर्बाद कर लेते हैं। वे अनावश्यक ही अपने लिए खाई खोदकर मुसीबतें मोल ले लेते हैं।
          ईश्वर की भक्ति करने के लिए तीर्थस्थलों, जंगलों में जाने का कोई औचित्य नहीं। तथाकथित धर्मगुरुओं का पल्लू पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। ईश्वर को पाने के लिए कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है। अपने हृदय रूपी मन्दिर को शुद्ध व पवित्र बनाइए क्योंकि हमारे हृदय में ही ईश्वर का वास है। वह सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। उसकी छवि प्रकृति के हर कण में, हर जीव में देखी जा सकती है। अपने घर में शान्तिपूर्वक बैठकर, मन को एकाग्र करके, ध्यान लगाने से या ईश आराधना करने से वह सरलता से मिल जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 26 नवंबर 2018

शरीर का क्रम

मनुष्य को अनावश्यक दुखी न होकर सदा मस्त रहने का स्वभाव बनाना चाहिए। दुनिया में इतने झमेले हैं कि उनसे बच पाना बहुत कठिन होता है। फिर भी स्वयं को इतना व्यस्त रखना चाहिए ताकि व्यर्थ या ऊलजलूल सोचने का समय ही न मिल सके। इससे नकारात्मक विचारों से बचा जा सकता है। जीवन को रहस्यमय नहीं बनाना चाहिए कि वह उन रहस्यों को सुलझाता फिरे और परेशान होता रहे। जीवन को जितना सरल रूप से जिया जाए, उतना ही मनुष्य के लिए अच्छा होता है। इससे मनुष्य छल-प्रपञ्च से दूर रहता है। तथा उसकी मानसिक शान्ति बनी रहती है। वह अपने जीवन में अपने घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए तथा समाजसेवा के अनेक उपयोगी कार्य कर सकता है। 
          इस जीवन की सच्चाई यही है कि सुख-चैन से जीने के लिए मनुष्य को खाने के लिए मात्र दो रोटी और पहनने के लिए दो जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता होती है। मनुष्य शान दिखाने के लिए अपनी आवश्यकताओं को जितना चाहे असीम कर ले, उससे उसे दुख के सिवा कुछ भी नहीं मिलता।परेशानी से जीने के लिए उसे चार मोटरें, दो बंगले और उसका बनाया सारा तामझाम या साम्राज्य भी कम पड़ जाता है। उसके लिए भागमभाग करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता।
         आयु के बीतने पर अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे सब लोगों की एक जैसी स्थिति होने लगती है। इसलिए चिन्ता और टेंशन को छोड़कर मस्त रहने का अभ्यास करना चाहिए। इससे स्वस्थ पर कुप्रभाव नहीं पड़ता। यदि स्वस्थ गड़बड़ा जाता है तो जीवन का आनन्द ही समाप्त हो जाता है। तब मनुष्य की जिजीविषा या जीने की इच्छा ही समाप्त होने लगती है। उसे अपना जीवन भार लगने लगता है। उस समय मनुष्य ईश्वर से उसे इस संसार से उठा लेने की प्रार्थना करने लगता है। यद्यपि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार मिले श्वासों को पूरा करना ही पड़ता है। उससे पहले उसे इस जीवन से मुक्ति नहीं मिलती।
        युवा होते होते मनुष्य योग्य बनकर व्यापार या नौकरी करने लगता है। उस समय उसकी उड़ान आकाश छूना चाहती है। वह अपने पंख पसारकर उड़ता फिरता है। फिर उसका अपना परिवार बनता है। वह उसी की सुख-सुविधाओं को पूर्ण करने में जुट जाता है। बच्चों को सेटल करके उनकी शादी करता है। फिर अपने नाती-पोतों के साथ मस्त हो जाता है। इस अवस्था में उच्च शिक्षित और अल्प शिक्षित सभी एक जैसे ही होते हैं। सभी लोगों का कमोबेश यही क्रम रहता है। 
       साठ साल की अवस्था तक पहुँचने तक उच्च पद और निम्न पद सभी एक जैसे ही हो जाते हैं। मनुष्य अपनी सेवाओं से मुक्त होकर रिटायर हो जाता है। चपरासी भी अधिकारी के सेवा निवृत्त होने के बाद उनकी तरफ़ देखने से कतराता है। उसे समय बिताने की समस्या होने लगती है। अभी तक जिन्दगी में भगदौड़ हो रही होती है। अनायास ही उसे खालीपन अखरने लगता है। रूप और कुरूप सब एक जैसे ही दिखने लगते हैं। कोई कितना भी सुन्दर क्यों न हों, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं। आँखों के नीचे के डार्क सर्कल छुपाए नहीं छुपते। बालों की सफेदी और नजर की कमजोरी चुगली कर ही देती हैं।
         आयु जब सत्तर साल की होने लगती है, उस समय बड़ा घर और छोटा घर एक जैसे हो जाते हैं। घुटनों का दर्द और हड्डियों का गलना परेशान करने लगता है। मनुष्य न चाहते हुए भी बैठे रहने के लिए मजबूर हो जाता है। उसे महसूस होता है कि वह छोटी जगह में भी गुज़ारा कर सकते है। घर में भी उसका चलना-फिरना मुहाल हो जाता है। ऊपरी मंजिलों में रहने वाले बहुत परेशान होते हैं। घर में लिफ्ट हो तो बात अलग है, अन्यथा घर से बहार निकलना किसी सजा से कम नहीं होता। उसे कहीं भी जाने के लिए सहारे की आवश्यकता अनुभव होने लगती है।
        मनुष्य की आयु जब अस्सी साल की अवस्था तक पहुँच जाती है, तब उसके पास धन का होना या न होना एक बराबर ही हो जाता है। इस आयु में खाना कम हो जाता है। शरीर दिन-ब-दिन कमजोर होने लगता है। यही वह समय होता है, जब उसे बच्चों के सहारे की बहुत आवश्यकता होती है। इस आयु में यदि वह कहीं धन खर्च करना भी चाहें, तो उसे समझ ही नहीं आता कि उसे कहाँ खर्च करना है? जीवन में जरुरतों को पूरा करने के लिए उसे अपना हाथ बच्चों के आगे न फैलाना पड़े, यद्यपि इसलिए उसके पास धन का होना आवश्यक होता है।
        इससे भी अधिक नब्बे साल की अवस्था तक पहुँचने पर मनुष्य का सोना और जागना एक जैसे ही हो जाते हैं। जागने के बावजूद भी उसे समझ नहीं आता कि उसे क्या करना चाहिए? वह अपनी शिथिल इन्द्रियों के कारण अपने शरीर से असमर्थ हो जाता है। उसकी कार्यक्षमता न्यून हो जाती है। थोड़ा-बहुत अपना काम ही वह कर ले, वही उसके लिए बहुत होता है। अशक्त होने के कारण उसका चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है। उसकी याददाश्त में भी कमजोरी आने लगती है।
         शरीर के इस क्रम हर मनुष्य को गुजरना पड़ता है। सारा दिन बच्चों को कोसने के स्थान पर उनकी कठिनाइयों को समझना चाहिए। बच्चे कैसे भी हों, काम तो वही करेंगे। अपना सम्मान बनाए रखने के लिए मनुष्य को संवेदनशील बने रहना चाहिए। बच्चों से कोई गलती हो जाए तो उसे अनदेखा कर देना चाहिए। उनकी बुराई करने के स्थान पर प्रभु को स्मरण करना चाहिए। यदि मनुष्य सुख से जीवन जीना चाहता है तो नकारात्मक विचारों के स्थान पर उसे सदा सकारात्मक बनना चाहिए।
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