सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

मायके और ससुलाल में सामञ्जस्य

दिन के बाद रात और रात के बाद दिन, यही प्रकृति का नियम है। सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर ने यह विधान हमारे लिए बनाया है। सूर्य प्रातःकाल होते ही उदय होता है और तब दिन होता है। जब चन्द्रमा प्रकट होता है, तब रात्रि होती है। संध्या समय होने पर सूर्य अस्त हो जाता है और प्रातः होने पर चन्द्रमा विदा ले लेता है। 
          सूर्य व चन्द्र के उदित और अस्त होने का यह क्रम निर्बाध रूप से निरन्तर चलता रहता है। इसमें कहीं कोई त्रुटि नहीं होती। न ही उन दोनों को प्रतिदिन कोई काम पर जाने का आदेश देता है और न ही कोई अलार्म उन्हें जगाता है। कभी इन दोनों ने यह नहीं सोचा कि हम प्रतिदिन अपनी ड्यूटी करते-करते थक गए हैं, चलो इन्सानों की तरह चार दिन की छुट्टी करके आराम कर लें अथवा देश-विदेश में कहीं भी घूम आएँ या किसी हिल स्टेशन की सैर कर आएँ। 
          कल्पना कीजिए यदि ऐसी स्थिति कभी आ जाए, तब क्या होगा? सूर्य के न होने पर चारों ओर बर्फ का साम्राज्य हो जाएगा। हम गरमी और प्रकाश पाने के लिए छटपटाएँगे। दिन नहीं होगा और चारों ओर अन्धकार की चादर बिछी हुई दिखाई देगी। नदियों और नालों का सारा पानी जम जाएगा। हम पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसेंगे। खाने के लिए भी हमें परेशानी हो जाएगी।
        इसी प्रकार चन्द्रमा के न होने पर रात नहीं होगी। उसकी शीतलता से हम वञ्चित हो जाएँगे। सूर्य का प्रचण्ड प्रकोप हमें सहना पड़ेगा। इस प्रकार इन दोनों में से किसी एक के भी अवकाश पर चले जाने से सारे मौसमों और सारी ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा जाएगा।
        एवंविध सूर्य और चन्द्रमा के न होने की अवस्था में सारी सृष्टि में त्राहि माम वाली परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इसी प्रकार अन्य प्राकृतिक संसाधनों के न होने पर भी स्थिति बिगड़ जाएगी। ईश्वर ने हम मनुष्यों को हर प्रकार का सुख और आराम देने के लिए सारा मायाजाल अथवा यह आडम्बर रचा है। 
          हमारे लिए उस मालिक ने दिन और रात बनाए हैं। इसका उद्देश्य यही है कि अपने स्वयं के लिए और घर-परिवार के दायित्वों को पूर्णरूपेण निभाने के लिए दिन भर जीतोड़ परिश्रम करो। जब थककर चूर हो जाओ, तब रात हो जाने पर चैन की बाँसुरी बजाते हुए, घोड़े बेचकर सो जाओ। अगली प्रातः तरोताजा होकर फिर से अपने काम में जुट जाओ। 
          मनुष्य सारा दिन हाड़ तोड़ मेहनत करके जब थकहार कर घर आता है तब उसे आराम करने की बहुत आवश्यक होता है। अगर ईश्वर ने रात न बनाई होती तो मनुष्य सो नहीं पाता। नींद न ले पाने के कारण अनिद्रा से परेशान होकर वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता। फिर डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए बहुमूल्य समय व धन की बरबादी होती।
          सूर्य का उदय होना हमें नवजीवन का संदेश देता है और उसका अस्त होना जीवन के अन्तकाल का परिचायक है। सूर्य और चन्द्र दिन और रात के प्रतीक हैं जो हमें समझाते हैं कि जीवन में दुखों एवं कष्टों से पूर्ण रात कितनी भी लम्बी हो उसके बाद प्रकाश आता है। सूरज और चन्दा की तरह जीवन में भी दिन और रात की तरह सुख एवं दुख की आँख मिचौली चलती रहती है। इसलिए जीवन में हार न मानते हुए आगे बढ़ो।
चन्द्र प्रभा सूद
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बेटियाँ अपने माता-पिता का मान होती हैं। अपने मायके की शान होती हैं। भाइयों की जान होती हैं। उन्हें घर-परिवार में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। उनकी राय को घर में सदा अहमियत दी जाती हैं। उनकी चहचहाहट से सारा घर गुलजार रहता है।
        सभी माता-पिता अपनी प्यारी बेटी को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ देखना चाहते हैं। आज वे उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए सार्थक प्रयत्न कर रही हैं।  अपने माता-पिता का नाम रौशन करती हुईं वे इसीलिए उच्च पदों पर आसीन हैं।
        समयानुसार जब बेटी की शादी हो जाती है तो उसका दायित्व बहुत बढ़ जाता है। तब उसे मायके के साथ-साथ अपने ससुराल की भी चिन्ता होनी चाहिए। उसे केवल मायके के बारे में सोचते हुए अपने ससुराल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए। 
          मायके में हर दूसरे दिन जाना या अपनी ससुराल की छोटी-मोटी नोकझोंक को नमक-मिर्च लगाकर माता-पिता की सहानुभूति बटोरने से बचना चाहिए। इससे सम्बन्धों में दरार आने की सम्भावना बढ़ती है, जिससे दोनों घरों में अनावश्यक तनाव बढ़ जाता है और फिर मनमुटाव होने लगता है।
        पढ़ी-लिखी समझदार लड़कियों से समाज समझदारी की उम्मीद रखता है। जब तक पानी सिर से ऊपर होने की नौबत न आए, तब तक सदा ही अपने परिवार में मिलजुलकर सामञ्जस्य बनाए रखने का यत्न करना चाहिए।
          भाई की शादी के बाद तो बेटी को अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके मायके को अपने भाई और भाभी के सुपुर्द कर देना चाहिए। वे अपने घर को कैसा भी रखते हैं, उसमें दखलअन्दाजी नहीं करनी चाहिए। भाभी और ननद के सम्बन्धों की बुनियाद आपसी प्रेम व विश्वास पर होती है क्योंकि वे रक्त सम्बन्ध नहीं होते। इस रिश्ते में कटुता न आने पाए, इसलिए सदा सावधान रहना चाहिए।
         हर व्यक्ति सुरुचिपूर्ण तरीके से, अपनी इच्छा से अपने घर की साज-सज्जा करना चाहता है। उसमें जाकर व्यर्थ ही मीनमेख निकालना सर्वथा अनुचित होता है। ऐसा करने से उनके मन में आपके प्रति रोष उत्पन्न होगा। उन्हें ऐसा लगेगा कि उनके घर में आप अनावश्यक रूप से हस्ताक्षेप कर रही हैं। यह बेरुखी वाला व्यवहार धीरे-धीरे बढ़ता हुआ विनाश के कगार पर पहुँच जाता है। 
        अपने माता-पिता की चिन्ता हर बेटी को निस्सन्देह रहती है। भाई-भाभी को यह कहकर अपमानित करना कि वे उनका ध्यान नहीं रखते अनुचित है। वे उनके भी माता-पिता हैं। इसलिए वे यथासम्भव उनका सम्मान व ध्यान रखते ही हैं।
          सबसे बड़ी समस्या तब आड़े आती है जब बेटी अपने माता-पिता को भाई-भाभी के विरुद्ध कान भरती है और वे भी उसकी बातों में आकर अपने बेटे-बहू को दोष देने लगते हैं। मैं सबसे प्रार्थना करूँगी कि ऐसी स्थितियों से यथासम्भव बचें।
        यदि बेटी चाहे भी तो प्रायः घरों में वह माता-पिता को अपने साथ नहीं रख पाती और दूसरी ओर माता-पिता भी अपने बेटे का घर छोड़कर बेटी के पास नहीं रहना चाहते। इसका कारण है हमारा पारिवारिक व सामाजिक ढाँचा।
        बेटियों को एक बात का और ध्यान रखना चाहिए कि मायके में अनावश्यक दखल देते हुए, अपने ससुराल के दायित्वों की ओर से लापरवाह नहीं होना चाहिए। ऐसा न हो कि
     दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम।
अर्थात मायके से सम्बन्ध बिगड़ जाएँ और ससुराल में भी उसका सम्मान कम हो जाए।
          यह बात हमेशा ही स्मृति में रखनी चाहिए कि माता-पिता का साथ सबको सीमित समय तक ही मिलता है, पर बहन को अपने भाई और भाभी के साथ आयु पर्यन्त निभाना होता है। अतः अपनी ओर से ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे घर-परिवार में सबका सम्मान बना रहे और जग हंसाई भी न हो। 
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 20 अक्तूबर 2019

ताली एक हाथ से नहीं बजती

यह कथन बिल्कुल सत्य है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। हम अपने दोनों हाथों का प्रयोग करते हैं तभी ताली बजा सकते हैं। हाँ, एक हाथ से मेज थपथपाकर अपनी सहमति अथवा प्रसन्नता अवश्य ही प्रदर्शित कर सकते हैं।
        घर, परिवार अथवा समाज में लोगों के व्यवहार को देखते-परखते हुए ही हम इसका अनुभव कर सकते हैं।भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्रों अथवा संबंधियों आदि में यदि मनमुटाव या झगड़ा होता है तब हम एक-दूसरे को दोष देकर अपना-अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। यदि दोनों पक्षों की बात निष्पक्ष होकर सुन ली जाए तो पता चलता है कि गलती दोनों की होती है।
          यह तो हो ही नहीं सकता कि किसी एक की गलती के कारण झगड़ा हो जाए या वैमन्स्य हो। जब तक दोनों पक्ष आपस में न टकराएँ, तब तक दुश्मनी की नौबत नहीं आ सकती। इसलिए सावधानी रखनी आवश्यक है।
          यदि एक व्यक्ति चुप लगा जाए तो दूसरा कब तक बकझक करेगा। आखिर वह भी यह कहकर चुप हो जाएगा कि यह तो कुछ बोलता नहीं, कौन दीवारों से सिर फोड़े? समस्या तभी बढ़ती है जब दोनों ही बराबर की टक्कर दें। कोई भी व्यक्ति अपने आपको छोटा कहलाना पसन्द नहीं करता। इसलिए कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं होता। सब एक-दूसरे को देख लेने की धमकी देते हैं। तभी ऐसी कटु स्थिति बनती है।
          इसी प्रकार कार्यक्षेत्र में भी आपसी कटुता के कारण ही बास व कर्मचारियों के बीच मनमुटाव बढ़ता रहता है। इस कारण वहाँ कामबन्दी, तालाबन्दी अथवा धरने- प्रदर्शनों आदि की नौबत आती है।
        रिश्तों में भी अलगाव की स्थिति के लिए भी दोनों ही व्यक्ति जिम्मेदार होते हैं। एक का पक्ष लेकर दूसरे पर दोषारोपण करना अनुचित होता है। सभी समझदार लोगों को जागरूक रहना चाहिए और  दूसरों को भी सचेत करना चाहिए।
          रिश्तों में यदि झूठे अहं को छोड़कर दोनों थोड़ा-सा गम खा लें, तो बिखराव के कारण होने वाली बिनबुलाई समस्याओं से बचा जा सकता है।
        यह तो हो सकता है कि किसी एक की गलती दूसरे पर भारी पड़ जाती है। पर कमोबेश स्थिति यही होती है कि दोष दोनों का ही होता है। यह चर्चा हमारे भौतिक सम्बन्धों की है। 
        प्रकृति को हम दोष देते नहीं थकते कि वह हम पर अत्याचार करती है। कभी बाढ़ आ जाती है, कभी भूकम्प आ जाते हैं, कभी अतिवृष्टि होती है, कभी अनावृष्टि होती है, बीमारियाँ फैल रही हैं, हमारा पर्यावरण दूषित हो रहा है आदि। परन्तु क्या हमने कभी अपने गिरेबान में झाँककर देखा है कि इन सारी प्राकृतिक आपदाओं के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। हमने स्वयं ही इनको दूषित करके सब मुसीबतों को न्यौता दिया है।
        प्रकृति से हम स्वयं छेड़छाड़ करते हैं। हम खुद को बहुत विद्वान मानते हैं। तभी प्राकृतिक संसाधनों का हम आवश्यकता से अधिक दोहन करते हैं। जब हम अपनी इन हरकतों से बाज नहीं आएँगे, तो उसका दण्ड कोई दूसरा नहीं हमें स्वयं को ही तो भोगना पड़ेगा। आज तक मुझे यह समझ नहीं आया कि फिर हम इतनी हाय तौबा क्योंकर करते हैं।
        प्रयास यही करना चाहिए कि जीवन में छोटी-मोटी कटुताओं को अनदेखा कर दिया जाए। उन्हें अनावश्यक तूल देकर आपसी सम्बन्धों की बलि न चढ़ाई जाए। सम्बन्धों को तोड़ने के लिए ताली को दोनों हाथों से न बजाएँ बल्कि उनमें मधुरता लाने का यथासम्भव यत्न करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

अच्छाई और बुराई

अच्छाई और बुराई दोनों सगी बहनें हैं। ये दोनों रंग-रूप व स्वभाव में एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। इन्हें हम एक ही सिक्के के दो पहलू भी कह सकते हैं जो कभी भी एक-दूसरे के गले नहीं मिल सकतीं यानि एकसाथ एक स्थान पर नहीं रह सकतीं। दो बहनों की तरह अपना सुख-दुख भी नहीं बाँट सकतीं। 
          दूसरे शब्दों में कह यह सकते हैं कि अच्छाई को घर में निवास देना हो, तो बुराई से दामन छुड़ाना आवश्यक होता है। इसके विपरीत यदि बुराई को प्रश्रय देना हो, तो पहले अच्छाई से मुँह मोड़ना पड़ता है।
        यदि हमें इन दोनों के रंग को दर्शाना हो, तो हम अच्छाई के लिए सफेद रंग का प्रयोग करते हैं और बुराई के लिए काले रंग का।
          सीधा स्पष्ट-सा यह व्यवहार हमें समाज में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। नाटकों आदि में हम देखते हैं कि अच्छे लोग प्रतीक के रूप में सफेद वस्त्र पहनते हैं और दुष्टों को काले वस्त्र पहनाए जाते हैं। टी.वी. में रामायण, महाभारत तथा कई और अन्य सीरियलस में हम सबने इस प्रकार के वस्त्र विन्यास को देखा था। 
        रामलीला आदि नाटकों के मंचन में भी अच्छाई और बुराई के अन्तर को दर्शाने के लिए ऐसे ही प्रयोग किए जाते हैं। इससे हमें इन दोनों के अन्तर को भलीभाँति समझ लेना चाहिए। इसके साथ ही समाज का इनके प्रति जो रवैया है, उसे भी अनदेखा नहीं करना चाहिए।
        हमारे सामने यदि अच्छाई अथवा बुराई में से एक को चुनने का विकल्प रखा जाए, तो हममें से प्राय: लोग अच्छाई के पक्षधर ही होंगे और इसके साथ ही जाना चाहेंगे। परन्तु बुराई इतनी आकर्षक होती है कि उसकी मोहिनी से बचना बहुत कठिन होता है। समझदार व्यक्ति उसके लटकों-झटकों के जाल में नहीं फंसते। परन्तु मन की दुर्बलता वाले लोग इसके बहकावे में शीघ्र आ जाते हैं और अपने लिए गड्ढा खोद लेते हैं।
        जो लोग अच्छाई वाले कठिन मार्ग का चयन करते हैं उनका रास्ता लम्बा तथा कठिनाइयों से भरा होता है। उस पथ पर चलते हुए उन्हें अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। उनमें पास हो जाने पर वे सदा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। ऐसे लोग समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त करते हैं। अच्छाइयों की अधिकता होने के कारण ये महापुरुष सत्त्वगुण वाले कहलाते हैं। यही लोग समाज के दिग्दर्शक बनते हैं।
          बुराई का रास्ता सरल व आकर्षण होता है। यहाँ बहुत से अवगुण एवं दोष अपने पास बुलाने के लिए षडयन्त्र रचते रहते हैं। इनके झाँसे में आ जाने वाले लोग अपना मार्ग भटक जाते हैं। अपनी अच्छाई को छोड़कर वे कुमार्ग पर चल पड़ते हैं। तब उन्हें कदम-कदम पर न्याय व्यवस्था से दो-चार होना पड़ता है। समाज विरोधी कार्य करने वालों को उनके अपने घर-परिवार के लोग ही त्याग देते हैं। समय बीतने पर वे अकेले रह जाते हैं। तब उस समय उन्हें इस गलत रास्ते पर आने का पश्चाताप होता है।
        वास्तव में अच्छाई का रास्ता लम्बा व कठिनाइयों से भरा हुआ होता है। इसके विपरीत बुराई का मार्ग तड़क-भड़क वाला व दिखने में सरल प्रतीत होता है। शार्टकट हमेशा नुकसान पहुँचाता है। इसलिए किसी भी पथ पर चलने से पहले हमें इसके दूरगामी परिणामों पर निश्चित ही विचार कर लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

बूँद बूँद से घट भरता

बूँद-बूँद से घट भरता है और यदि किसी कारणवश उसमें छेद हो जाए तब उसी प्रकार समय बीतते क्रमशः खाली भी हो जाता है। मनुष्य को अपने जीवन में सदा ही सावधान रहना चाहिए। उसे एक-एक करके अपने शुभ कर्मों में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए। तुच्छ स्वार्थों के कारण उन्हें नष्ट नहीं होने देना चाहिए।
        मनुष्य अपने भीतर यदि अच्छाइयों को जोड़ना आरम्भ करेगा तो वह अपने इस जीवन में ऊँचाइयों को छू लेता है। गुणों की अधिकता उसे महान बनाती है। वह संसार में पूजनीय बन जाता है। समाज को दशा और दिशा देने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है। उसका जीवन सात्विक बन जाता है। उसका इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जाते हैं।
        इसके विपरीत यदि वह बुराइयों की डगर पर चल पड़ता है तब उसका जीवन नरक के समान कष्टदायक हो जाता है। ऐसे मनुष्य से सभी किनारा करते हैं। कोई भी मनुष्य उसकी संगति में रहकर अपयश का भागी नहीं बनना चाहता। उसके अपने परिवारी जन भी दुखी होकर उससे मुँह मोड़ लेते हैं। फिर वह अकेला रह जाता है। समय बीतते उसे यह अहसास होता है कि क्षणिक सुख की चाह में उसने बहुत कुछ गंवा दिया है। उस समय रिश्ते टूट जाते हैं और जीवन के अवसान का समय आ जाता है।
          हम परिश्रम करके यदि थोड़ा-थोड़ा करके धन का संग्रह करते हैं, तो बहुत-सी धनराशि एकत्र कर लेते हैं। वह हमारे सुख-दुख में हमारा साथ निभाती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य कुव्यसनों में पड़ जाए या उसे निठल्ले बैठने की आदत हो जाए, तब पूर्वजों द्वारा कमाया हुआ भी साथ नहीं देता, बल्कि बरबाद हो जाता है। तब धन-सम्पत्ति रूठकर उसके घर से विदा हो जाती है। उस समय हम चाहकर भी उसे रोक नहीं पाते बस हाथ ही मलते रह जाते हैं। इसके अतिरिक्त हम कुछ और कर भी नहीं सकते।
         अपना लोक व परलोक सुधारने के लिए नियमित आत्मविशलेषण करके हम अपने दुर्गुणों को दूर करते हुए क्रमशः सद् गुणों को अपने अन्तस में समाहित कर सकते हैं। 
        मूर्ख व्यक्ति का कोई भी साथी नहीं बनना चाहता। सभी उससे अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते हैं। ऐसे मूर्ख व्यक्ति के परलोक की बात तो छोड़ दीजिए, उसका इहलोक भी नरक के समान ही कष्टदायक हो जाता है।
          धीरे-धीरे सद् ग्रन्थों को पढ़कर हम ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। आयु के बीतने पर हम अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। नहीं तो मूर्खों की कतार को बढ़ाकर आयुपर्यन्त दूसरों द्वारा किए गए अपमान को सहन करते रहते हैं। 
        लोगों को दूसरों की छीछालेदार करने में बहुत ही मानसिक प्रसन्नता मिलती है। उन्हें अनुचित रूप से टीका-टिप्पणी करके आनन्दित होने का अवसर कदापि नहीं देना चाहिए।
        अपने आप को सन्तुलित बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि हम घट की भाँति पूर्ण बनें और बूँद-बूँद जल रूपी सद् गुणों से अपने व्यक्तित्व में निखार लाकर पूर्णता की ओर बढ़ें। छेदयुक्त मटके की तरह बनकर रिक्तता के मार्ग पर चलने से अर्थात जीवन को जीरो बनाने हमें सदा ही बचना चाहिए। तभी हम विवेकशील मनुष्य कहला सकेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

सागर की तरह गम्भीर

मनुष्य को सागर की भाँति गम्भीर होना चाहिए। सागर की गम्भीरता की थाह हम मनुष्य नहीं पा सकते। अपने गर्भ में न जाने कितने अनमोल रत्न छिपाए हुए है, जिनके बारे में हमें जानकारी तक नहीं है। जितना ही गहरे हम सागर में पैठते जाते हैं, उतना ही इसकी विशालता का ज्ञान होता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने अन्तस में रखे सभी रहस्यों को गुप्त रखना चाहिए, उन्हें आत्मसात करना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में दूसरों के समक्ष उनको उद्घाटित नहीं करना चाहिए। इसी से ही उसकी गम्भीरता एवं महानता का ज्ञान होता है।
        सागर की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसने हमें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का मार्ग दिया है। मनुष्यों और सामान से लदे इतने भारी-भरकम समुद्री जहाजों को यह आवागमन से कभी नहीं रोकता। इसकी महानता के कारण हम अनेकानेक वस्तुओं का सुविधापूर्वक आयात-निर्यात करके, उनका उपभोग कर पाते हैं।
          अनेक नदियों को अपने अन्तस में समाकर सागर उन्हें एकाकार कर लेता है। इसका जल विभिन्न आकार-प्रकार के अनेक इतने खूबसूरत जलचरों की आश्रय स्थली है जिनके विषय में हमें जानते तक नहीं है। उनकी खोज करने के लिए बारबार वैज्ञानिक आकर इसका सीना चीरते रहते हैं। अनेक खजानों को समेटने वाला यह सदा ही सबके लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। इसकी लहरों का उतार-चढ़ाव किसी चमत्कार से कम नहीं है।
          महापुरुषों की यही पहचान है कि वे अपने अन्तस में न जाने किन-किन दीन-दुखियों की गाथाओं को रहस्य बनाकर अपने मन के किसी कोने में छिपा देते हैं। सम्पर्क में आने वाले लोगों की अच्छाइयों और बुराइयों को केवल अपने तक सीमित रखते हैं। सागर की तरह हर प्रकार के उतार-चढ़ावों को झेल लेते हैं पर उसकी आँच किसी पर नहीं आने देते। 
          अपने साथ अन्याय करने वालों को भी सागर की तरह क्षमा कर देते हैं। किसी से बदला लेने के बारे में ये महापुरुष विचार तक नहीं करते हैं।
        पौराणिक कथा के अनुसार देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मन्थन किया था। मन्थन से मिलने वाले रत्नों का बटवारा तो हो गया परन्तु हलाहल विष को बाँटने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। तब भगवान शंकर ने उस विष का पान सृष्टि की भलाई के लिए किया। यही कार्य सज्जन जन भी करते हैं। दूसरों को सद् गुणों व खुशियाँ लुटाने वाले लोगों के व्यंग्य बाणों को हँसते हुए सहते हैं।
        रामायण में प्रसंग आता है कि जब भगवान राम को रावण से युद्ध करने के लिए लंका पर चढ़ाई करनी थी, तो उन्होंने सागर से मार्ग देने की प्रार्थना की थी। हम लोगों की तरह अनावश्यक अधिकार जमाने का प्रयास नहीं किया था। यह उनकी सज्जनताता थी, महानता थी।
        भगवान भोलेनाथ के विषय में प्रचलित है कि वे इतने भोले हैं जो हर भक्त की सच्चे मन से की साधना से प्रसन्न होकर उसे मनचाहा वरदान देते हैं। परन्तु यदि वे किसी कारण से कुपित हो जाएँ तो फिर उनके ताण्डव से सृष्टि में कोई भी नहीं बच सकता।
      सागर हमें सब सुख देता है परन्तु फिर भी हम मनुष्य उसे दूषित करने से बाज नहीं आते। उसका परिणाम उसका उफान यानि ज्वार भाटा होता है जो किसी भी समय भयंकर विनाश कर सकता है। ऐसी चेतावनी वैज्ञानिक समय-समय पर देते रहते हैं।
          सागर की तरह घोर-गम्भीर सज्जन हमारे जीवन के मार्गदर्शक व प्रेरक होते हैं। अत: उनका सम्मान करने की आदत हम सबको होनी चाहिए। ऐसे महापुरुष बहुत विरले होते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

श्राद्ध किसलिए करना?

श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय अनेक विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था, अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।
            कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। उस पर अपनी बात को सत्य प्रमाणित करने के लिए जोड़ दिया-
       वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।
अर्थात् वैदिक कर के लिए हिंसा हिंसा नहीं कहलाती। जबकि वेदादि सभी शास्र किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करते हैं।
            जैन धर्म और बौद्ध धर्म का जब प्रादुर्भाव हुआ, तो उन्होंने इस हिंसा का विरोध किया। उस समय उनका तिरस्कार यह कहकर किया-
          नास्तिकों हि वेदनिन्दक:।
अर्थात् वेद की निन्दा करने वाला नास्तिक है। महात्मा बुद्ध के इस बौद्ध धर्म को कितने ही देशों ने अपनाया।
         इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हो सका, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से श्राद्ध भी एक कुरीति है।
            कुछ दिन पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।
         हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कभी नहीं कहते कि कौवौ को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।
          हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि हम लोगों ने अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।
         कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।
         पीपल और बड़ के पौधे किसी ने नहीं लगाए और न ही किसी को लगाते हुए देखा है। क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।
         बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश कर लीजिए परन्तु नहीं लगेगी। कारण, प्रकृति ने इन दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के टेटे कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर ये दोनों वृक्ष उगते हैं।
        पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण भी अपरम्पार कहे जाते है।
         इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना हमारा कर्त्तव्य है। यह सम्भव कैसे होगा? इस प्रश्न पर विचार करना ही होगा।
         मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है।
इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत आवश्यक होता है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए हम मनुष्यों को कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।
         ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखेंगे तो अपने मनीषी पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध करने का उपदेश दिया था। इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।
          अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्धविश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सबका सहयोग आवश्यक

जीवन सरलता से चलाने के लिए मनुष्य को सबका सहयोग अपेक्षित होता है। घर-परिवार में शान्ति बनी रहनी चाहिए यह आवश्यक है। छोटे-बड़े सभी कार्यों को करने के लिए उसे बहुत से दूसरे लोगों की आवश्यकता होती है।
          प्राय: घर में काम करने वालों में आया या कामवाली बाई की प्रत्यक्ष रूप से भूमिका होती है। घर की सफाई, बर्तनों की धुलाई, कपड़ों की धुलाई, घर की झाड़-पौंछ आदि कार्य, यदि घर में एक दिन भी न हों तो बस तूफान आ जाता है। ऐसा लगता है कि सब अस्त-व्यस्त हो गया है। घर में हर ओर गन्दगी का साम्राज्य दिखाई देता है। फिर न खाने का मजा, न बैठने में चैन।
        ऐसे समय में बच्चों की मौज हो जाती है क्योंकि प्रायः बाजार से खाना मंगवाकर खा लिया जाता है। जब सारे कार्य स्वयं करने पड़ते हैं, तो बुखार चढ़ने लगता है। सारा समय चिड़चिड़ाहट का माहौल बन जाता है। घर का सुख चैन मानो छिन जाता है। कहीं जाना हो तो सब कैंसिल।
        घर से यदि सफाई कर्मचारी चार दिन तक कचरा लेने न आए, तो घर में बदबू आने लगती है और यदि किसी लोकेलिटी से कचरा न उठे तो वातावरण में दुर्गन्ध फैल जाती है। इसी तरह यदि घर का सीवर बन्द हो जाए तो सफाई कर्मचारी की सहायता के बिना वह कदापि खुल नहीं सकता। ऐसा ही हाल दफ्तर आदि का भी होता है। 
        जो लोग अपने ड्राइवर पर निर्भर रहते हैं, उसके छुट्टी माँगने पर भड़क जाते हैं। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि उसका भी घर-परिवार है और उसको भी तो किसी समस्या से दो-चार होना पड़ सकता है।
        धोबी यदि कुछ दिन कपड़ों को प्रेस न करे तो घर में बिना प्रेस के कपड़ों का बहुत बड़ा ढेर लग जाता है। घर से बाहर जाते समय पहनने के लिए कपड़े नहीं मिलते, तो कपड़े स्वयं प्रेस करने पड़ जाते हैं। समय के अभाव में एक झंझट और बढ़ जाता है।
          इसी प्रकार इलेक्ट्रिशियन, पलम्बर, कारपेंटर, केबल वाला, माली, नाई आदि के न मिल पाने की स्थिति में भी मनुष्य को अनावश्यक रूप से परेशानी होती है।
        वैसे जब तक सब ठीक-ठाक चलता रहता है, तो बढ़िया अन्यथा हम स्वयं को दुनिया का सबसे दुखी इन्सान समझने लगते हैं। जरा-सी भी परेशानी आने पर हम ईश्वर को दोष देने लगते हैं और उसे कोसते रहते हैं।
        अपने गिरेबान में यदि झांककर देखें तो हमें स्वयं पर ग्लानि होने लगेगी। बहुत से ऐसे लोग हैं, जो अपने पास काम करने वाले नौकर, माली, ड्राइवर आदि को नाम से पुकारने में भी अपनी हेठी समझते हैं। उनके बिना एक कदम भी नहीं चल सकते पर पैसे का ऐसा नशा है, जो उन सबको एक इन्सान मानने से भी इन्कार करते हैं, जैसे उनका कोई वजूद ही नहीं है।
          सभी कार्य करने वालों को उनका मानदेय (हक का पैसा) ऐसे देते है जैसे उन पर उपकार कर रहे हों। 
        कभी उन सबको उनके नाम से पुकार कर देखिए, उनकी दुख-परेशानियों में उनसे सहानुभूति जताइए, उनके कन्धे पर हाथ रखकर यह दिखाइए कि वे भी आप ही की तरह इन्सान हैं, वे सब आपके मुरीद हो जाएँगे। आपके कष्ट के समय एक ही इशारे पर भागे चले आएँगे।
      किसी भी व्यक्ति को उसके व्यवसाय को आधार मानकर उससे घृणा करना छोड़ दीजिए। ईश्वर की बनाई सृष्टि के जीवों से जो व्यक्ति भेदभाव करता है या नफरत करता है, उससे वह बहुत नाराज होता है। जब वह सबको समान दृष्टि से देखता है, तो किसी को हक नहीं देता कि वह अन्य जीवों से अन्याय करे।
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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

बच्चा बूढ़ा एकसमान

समय बीतते एक आयु के पश्चात मनुष्य बच्चे के समान हो जाता है। तब उसकी देखभाल बच्चे के समान ही करनी पड़ती है। वह भी बारबार बच्चों की तरह रूठने-मानने लगता है। अधिक बोलने लगता है। यदि किसी कारण से उसकी बात को अनसुना कर दिया जाए तो वह बौखला जाता है कभी-कभी अनाप-शनाप भी बोलने लगता है।
        इसका कारण है कि सारी आयु वह संघर्ष करता रहता है। उसे अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए दिन-रात एक करना पड़ता है। स्वयं के विषय में सोचने के लिए ऐसी परिस्थितियों में उसके पास समय ही नहीं होता। जीवन की आपाधापी में अथवा भागदौड़ में उसे पता ही नहीं चलता कि वह कब युवा से वृद्ध हो गया। उसका रिटायरमेंट का समय आ गया।
          रिटायरमेंट यानि साठ साल की आयु के बाद उसके जीवन में एक खालीपन सा आने लगता है। सवेरे से रात तक की उसकी व्यस्तता अब नहीं रहती। उसे समय व्यतीत करना भारी पड़ने लगता है। ऐसे समय में कुछ लोग पुनः नौकरी का प्रयास करते हैं और कुछ लोग अपना मन बहलाने के लिए दोस्तों का आसरा ढूँढते हैं, ताश खेलते हैं, सवेरे सैर करने जाते हैं, ग्रुप बनाकर कभी-कभार कहीं घूमने चले जाते हैं।
        व्यापारियों की रिटायरमेंट थोड़ी देर से होती है। जब तक वे स्वस्थ हैं काम करते रहते हैं। क्लब जाते हैं, पार्टियाँ देते रहते हैं और अपनी मीटिंगस में व्यस्त रहते हैं। पर एक समय के पश्चात उनके सामने भी वही समय बीताने की समस्या आती है।
          जो लोग ऐसे समय में जो लोग हाबी अपना लेते हैं, वे इस समस्या से निजात पा लेते हैं। कुछ समय पूजा-पाठ में बिताने से मन को शान्ति मिलती है। कोई सामाजिक कार्य करके समय का सदुपयोग किया जा सकता है। इससे मनुष्य व्यस्त रहता है और उसका खालीपन भी उसे कचोटता नहीं है और समाज का भी भला होता है।
        कुछ और आयु बीतने पर मनुष्य की शक्ति कमतर होने लगती है। फिर वह अशक्त होने लगता है। बीमारियाँ उसे घेरने लगती हैं। उसे स्वस्थ होने में समय अधिक लगता है। डाक्टरों व अस्पतालों के चक्कर लगाते हुए उसकी हिम्मत जवाब देने लगती हैं। उस समय उसे सहारे की आवश्यकता होती है। अपनों के प्यार व दुलार की उसे जरूरत होती है।
        ऐसे समय में जब उसकी बातों को बच्चे अनसुना करते हैं तो वह यह सहन नहीं कर पाता। उसे लगता है कि आयुभर जो अनुभव उसने कमाया है, बच्चे उसका लाभ नहीं उठा रहे। वे उसे मूर्ख और स्वयं को अधिक समझदार मान रहे हैं। इसे वह अपना अपमान समझता है। 
        शरीरिक शक्ति क्षीण होने से कारण वह स्वयं अपने कार्यों को पहले की तरह चुस्ती से नहीं कर पाता। इसलिए चिड़चिड़ा हो जाता है। इसीलिए वह अधिक बोलने लगता है।
      आज बच्चे अपने दायित्वों को निभाने में दिन-रात एक कर रहे हैं। परन्तु उस वृद्ध को लगता है कि वे उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहे बोझ समझ रहे हैं। अत: वह खफा रहने लगता है, शिकायतें करता है।
        आयु का यह दौर सबके लिए बहुत ही कष्टकारी होता है। सेवा करने वाले भी परेशान हो जाते हैं और सेवा करवाने वाले भी। नकारेपन के अहसास के कारण सेवा करवाना बहुत मुश्किल होता है।
        इन आयुप्राप्त लोगों को बस अपनों के प्यार-दुलार, सहारे और विश्वास की ही आवश्यकता होती है। यथासम्भव थोड़ा-सा समय निकाल कर उनकी बात सुनें और उन्हें मात्र इतना भर अहसास दिला दें कि वे उन पर बोझ नहीं हैं। वे उनके अपने हैं और उन्हें बहुत प्यार करते हैं। बच्चों को उनके पास बैठने के लिए प्रेरित करें ताकि उन बजुर्गों का अन्तिम दौर शान्ति व प्रसन्नता से व्यतीत हो।
        उनकी नागवार बातों को अनदेखा व अनसुना करके बच्चों के समान उनका ख्याल रखें। इसीलिए कहते हैं-
                'बच्चा बूढ़ा एक समान।'
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

आकर्षक पैकेजिंग

आकर्षक पैकिंग को देखकर हम बहुत शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं और यह मान लेते हैं कि इसके अन्दर रखी वस्तु भी उतनी ही अच्छी क्वालिटी की होगी जितनी यह दिखाई देती है। परन्तु हमेशा ही ऐसा नहीं होता है। बहुधा हम लोग धोखा खा जाते हैं और अपने धन एवं समय की हानि कर बैठते हैं।
        उस समय हम स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। हमें इतना क्रोध आता है कि हमें ठगने वाला यदि हमारे सामने आ जाए तो उसका सिर फोड़ दें। परन्तु यह तो समस्या का हल नहीं है। आज किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष ने हमें धोखा दिया है तो इसकी क्या गारंटी है कि कोई और उसके झांसे में आकर भविष्य में ठगा नहीं जाएगा।
        समाचार पत्रों में हमें अक्सर ऐसे विज्ञापन दिखाई देते हैं जो किसी को भी बहुत प्रभावित कर लेते हैं। उनमें तरह-तरह के लालच परोसे जाते हैं।
        आप लोगों को शायद याद होगा कि कुछ वर्ष पूर्व प्लांटेशन वालों ने सबको बहुत भरमाया था। समयावधि का तो मुझे ध्यान नहीं जिसके पश्चात इन्वेस्ट की गई राशि से कई गुणा राशि लौटाने का वादा किया गया था। उसके बाद सब कहाँ चले गए किसी को पता नहीं।
        गली-मुहल्लों में भी बहुत बार ठगने की नियत से लोग आते हैं जो  वादा करते हैं कि सोने को दुगना कर देंगे। सोने को दुगना तो क्या करेंगे परन्तु वे ठग कर चले जाते हैं।
        इसी प्रकार बहुत-सी ऐसी कम्पनियाँ हैं जो उनके पास पैसा इन्वेस्ट करने वालों को बैंक की ब्याज दर से दुगना या तिगुना देने का वादा करती हैं। पर फिर थोड़े दिनों के पश्चात ही लोगों की मेहनत की कमाई बटोरकर रातोंरात गायब हो जाती हैं। अब ढूँढ लीजिए उन मक्कारों को।
          ऐसे ही कई शेयर या डिविडेंड ऐसे भी हैं जिनमें यह पंक्ति लिखी रहती है कि मार्केट रिस्क इसमें रहेगा। तो इनमें पैसा इंनवेस्ट कर करने का तो मुझे कोई औचित्य समझ नहीं आता।
        इसी प्रकार सस्ते व किश्तों पर प्लाट बेचने वाले विज्ञापन भी आकर्षित करते हैं क्योंकि सिर पर छत तो हर व्यक्ति चाहता है। वहाँ लोग पैसा फंसा देते है और जब कब्ज़ा लेने की बारी आती है तो पता चलता है कि वहाँ या तो ऐसी कोई जमीन नहीं जो उन्होंने खरीदी थी या उस जमीन को कई लोगों को बेचा गया है।
        लोगों को विदेश भेजने का धन्धा भी जोरों पर चलता है। बिना पूरे कागजों के विदेश जाने वालों का क्या हाल होता है इसके उदाहरण हमें अपने आसपास ही मिल जाते हैं।
        यह कुछ उदाहरण मैंने लिखे हैं जहाँ फंसकर मनुष्य न घर का रहता है न घाट का। एक व्यक्ति जब तअनजाने में इस तरह के प्रलोभनों में फंस जाता है तो उसका बाहर निकलना उसके ठगे जाने के बाद ही होता है। उस समय यदि कोई साथी या रिश्तेदार उन्हें चेतावनी देने का प्रयास करता है तो उसे वे अपना शत्रु समझते हैं। उन्हें उस समय लगता है कि सभी उसकी तरक्की से जलते हैं। कोई नहीं चाहता कि वह सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न हो जाए।
        उस समय वे सोचते हैं कि यह सब प्राप्त करना उनके बूते की बात नहीं है इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। उनके लिए वे प्रायः इन मुहावरों का प्रयोग करके उनकी हंसी उड़ाते हैं- 'अंगूर खट्टे हैं। और हाथ न पहुँचे थे कौड़ी।'
        तुच्छ लालच में आकर इन धोखेबाजों से बचना चाहिए। अपने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को यूँ ही बरबाद नहीं करना चाहिए।
        बाद में पुलिस स्टेशन में जाकर कितनी ही शिकायतें कर लीजिए पर वे लुटेरे तो लूटकर कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। उन्हें पकड़ने में वर्षों लग जाते हैं। केवल सरकार या पुलिस के भरोसे न बैठकर स्वयं अपने विवेक पर भरोसा कीजिए। अपने धन को व्यर्थ न गंवाकर उसे अपने पास या बैंक में सम्हाल कर रखना चाहिए ताकि वह हमारे सुख-दुख में काम आ सके। इन लोगों के विषय में हम यही कह सकते हैं-
            ऊँची दुकान फीका पकवान।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 13 अक्तूबर 2019

मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा

इस कथन से कोई भी मनुष्य इन्कार नहीं कर सकता कि मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा होता है। मूर्ख मित्र अपनी मूर्खता के कारण कब वार कर दे यह कोई नहीं जान सकता। इसका कारण यही है कि ऐसा मित्र स्वयं ही नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है? वह जानबूझकर हमारा अहित नहीं करता अपितु अनजाने में उससे गलती हो जाती है। वह अपने ही प्रिय मित्र पर घात तक कर बैठता है।
        अपने शत्रु के विषय में हम जानते हैं कि वह तो दुश्मनी निभाएगा ही। उससे हम सदा ही सतर्क रहते हैं। हमारा यही प्रयास रहता है कि शत्रु वार करे उससे पहले हम चौकस हो जाएँ। ऐसा करने से शत्रु के वार का हम पर प्रभाव कम पड़ता है। वैसे तो हमारा यत्न यही रहता है कि उसे ऐसा कोई मौका न दिया जाए कि वह हम पर हावी हो जाए।
        एक कथा प्रचलित है कि किसी राजा ने एक बन्दर को पाला था। उसे वह मित्र की तरह मानता था। वह बन्दर राजा की बहुत सेवा करता था। एक बार राजा सो रहा था और बन्दर उसे पंखा कर रहा था। इतने में एक मक्खी उड़कर राजा के मुँह पर इधर-उधर बैठने लगी। बन्दर उसे उड़ाने का यत्न करने लगा पर वह मक्खी इतनी ढीठ थी कि वह मान ही नहीं रही थी। मक्खी की इस ढिठाई पर बन्दर को क्रोध आ गया और तलवार लेकर उसे मारने के लिए सोचने लगा। इसी बीच राजा की नींद खुल गयी। उसने बन्दर के हाथ में तलवार देखकर सोचा कि मूर्ख मित्र से तो शत्रु ही अच्छा है। यदि मैं समय पर न जागता तो यह बन्दर मुझे मार ही डालता।
        यह कथा हमें समझाने के लिए है कि क्रोध में आकर मूर्ख मित्र कब हम पर वार कर दे पता नहीं चलता। शत्रु के वार करने का तो हमें हमेशा अंदेशा रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि शत्रु को छुपकर वार करने की आवश्यकता नहीं होती। उसका तो खुला चैलेंज होता है।
         अतः इस प्रकार मूर्ख मित्र के हाथों विनाश करवाने से अच्छा है कि शत्रु से ही हाथ मिला लिया जाए और उसे अपना बना लिया जाए।
        मूर्ख को मित्र बनाना चाहें तो अवश्य बनाइए। पर उससे समझदारी की उम्मीद रखना मनुष्य की मूर्खता है। हाँ, अपनी जी हजूरी आप उससे करवा सकते हैं। उसे अपना चमचा बना सकते हैं। अपने बराबर बिठाकर परामर्श नहीं कर सकते। उससे दूरी बनाकर रखने में ही सदा अपनी भलाई समझनी चाहिए।
        आज हम राजनीति में देखते हैं कि एक दल के सदस्य दूसरे दल वालों को अनाप-शनाप कोसते हैं, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है और आम जनों के सामने ऐसा प्रदर्शन करते हैं कि मानो एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएँगे। परन्तु जब किसी कारणवश अपना दल छोड़कर कर किसी अन्य दल में जाकर शामिल हो जाते हैं तो कुछ देर पहले वाले सब प्रसंगों को भुलाकर नए दल का गुणगान करते नहीं थकते। अपने पुराने दल के साथियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जो पहले इस दल के सदस्यों के साथ करते थे।
        इस प्रकार रातों-रात सभी समीकरण बदल जाते हैं। जब हमारे पथप्रदर्शक नेता लोग शत्रु को मित्र बनाने में संकोच नहीं करते तो आम जन को भी अपने शत्रु से हाथ मिलाने से बचना नहीं चाहिए।
          यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम कैसे मित्रों का चुनाव करना चाहते हैं? जैसा रुचिकर हो वैसा मानकर अपने भविष्य के लिए जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

आँखोँ देखी कानों सुनी

आँखों देखी और कानों सुनी हुई बात पर भी हमें पूर्णरूपेण विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि हम अधूरी बातें सुनकर ही किसी के प्रति अपनी राय बना लेते हैं, जिसका दुष्परिणाम हमें समय आने पर भुगतना पड़ता है।
        लोग सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी व्यक्ति के विषय में धारणा बना लेते हैं, जबकि वास्तविकता से उसका दूर-दूर तक लेना देना नहीं होता। सच्चाई के सामने आते ही मनुष्य को शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है और फिर वह बगलें झाँकने लगता है। ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करना चाहिए।
        आजकल टी.वी. पर अक्सर यह सब दिखाई देता है। वहाँ किसी वाक्य विशेष पर टीका-टिप्पणी अथवा चर्चाएँ नित्य होती रहती हैं। बाद में सम्बन्धित व्यक्ति यह कहकर अपनी सफाई देता है कि मैंने जो इस वाक्य से पहले कहा था या उसके बाद, सारे प्रसंग को मिलाकर देखिए फिर कथन का अर्थ कीजिए। इस प्रकार कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
          सयाने हमें सोच-समझकर बात करने के लिए कहते हैं-
             पहले तोलो फिर बोलो।
यानि कि एक-एक शब्द को इस प्रकार सोचकर बोलो जिससे कोई उन शब्दों को अपने अनुसार ढालकर आपको अपमानित न कर सके। इसी कड़ी में आगे चेतावनी देते हुए मनीषी कहते हैं-
           दीवारों के भी कान होते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि दीवारों के कान  लग गए हैं और उन्होंने ने सुनना शुरु कर दिया है। इसका अर्थ है कि कमरे के बाहर खड़ा हुआ कोई व्यक्ति शायद बात सुन रहा होगा। चोरी-छिपे दूसरों की बातों को सुनने वाले अक्सर गच्चा खा जाते हैं। पूरी बात न सुन पाने के कारण वे अधूरे विचारों को ही ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं तथा शत्रुता तक कर बैठते हैं। पूर्वाग्रह पाले हुए वे आजन्म इसे निभाने का प्रयास करते हैं।
        घर-परिवार में, बन्धु-बान्धवों में अथवा कार्यक्षेत्र में हर स्थान पर ही यह समस्या सामने आती है। लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में इस प्रकार के कुत्सित कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
          दूसरों की बातों को तोड़-मरोड़कर अथवा नमक-मिर्च लगाकर किसी व्यक्ति विशेष की छवि घर-परिवार में या साथियों में धूमिल करना चाहते हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि उन्हीं की तरह कोई अन्य व्यक्ति उनके साथ भी ऐसा ही घृणित खेल खेल सकता है। इस सबसे बचने के लिए मनुष्य को हर कदम पर सदा सतर्क रहना चाहिए। उसे सदा अपनी आँखों और कानों को खुला रखना चाहिए।
        मनुष्य को किसी के भी मुँह से कोई बात सुनकर तैश में नहीं आना चाहिए। उसे बात की तह तक जाना चाहिए। हो सकता है कि कहने वाले का वह तात्पर्य कदापि न हो जैसा उसने सुन-समझ लिया हो। यदि बात को गहराई से समझने का मन न हो तो उस व्यक्ति से सीधी बात करके तथ्य को जाना जा सकता है।
        दूसरी बात यह कि दूसरे व्यक्ति को स्पष्टीकरण का मौका भी दिया जाना चाहिए। इससे अनावश्यक मन-मुटाव से बच सकते हैं। ऐसा यदि कर लिया जाए तो आपसी वैमन्स्य नहीं बढ़ता। न अपने मन को कष्ट होता है और न किसी दूसरे का दिल दुखता है। ऐसे समझदार व्यक्ति की संसार में सभी लोग सराहना करते हैं कि बड़ी सूझबूझ से समस्या को हल कर लिया।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

खाली बैठना

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि खाली रहना अर्थात निठल्ला बैठना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है। परिश्रम करते-करते जब थक जाते हैं तब हम कहते हैं कि अब हमें ब्रेक चाहिए। थोड़ा-सा विश्राम करके या फिर घूम-फिर कर हम तरोताजा हो जाते हैं और फिर अपने काम में उसी ऊर्जा से वापिस जुट जाते हैं।
        मैं कभी-कभी उन लोगों के विषय में सोचती हूँ जो सवेरे से शाम तक कोई कार्य नहीं करते। यानि निरुद्देश्य जीवन जीते हैँ। सारे दिन में बस खा लिया, गप लगा ली और सो गए। बहुत हुआ तो दोस्तों के साथ शापिंग कर ली या फिर क्लब की सैर कर ली। इस प्रकार का जीवन जीने में न कोई जिम्मेदारी होती है और न ही कोई आकर्षण होता है।
        कुछ गृहिणियाँ जो ईश्वर की कृपा से समृद्ध हैं और घर पर रहती हैं। उनके घर में नौकर-चाकर काम करते हैँ। उन्हें तो यह भी पता नहीं होता कि बच्चे स्कूल गए हैँ या छुट्टी कर गए। उन्होंने कुछ खाया भी है या नहीं। नौकरों ने जो कुछ उल्टा-सीधा बना दिया वह बच्चे को पसन्द आया या नहीं। उसने वह खाया था क्या? उनका पति अपने व्यापार के लिए जाने से पहले कुछ खाकर गया है या बिना खाए कब घर से चला गया?
          इसी प्रकार जो पुरुष भी खाली बैठे रहते हैं वे भी अपने जीवन से निराश हो जाते हैं। कुछ लोग ताश खेलकर या व्यर्थ निन्दा-चुगली करने लगते हैं। नवयुवा जो इधर-उधर डोलते रहते हैं, उन्हें सब टोक देते हैं कि कोई काम-धन्धा करो, अवारा मत फिरो। स्पष्ट है कि खाली बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति सबकी आँखों में खटकता है। अपना कार्य करने में व्यस्त व्यक्ति को ही सब पसन्द करते हैं।
        खाली बैठने के कारण मनुष्य धीरे-धीरे अनावश्यक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है। उसका एक काम और बढ़ जाता है। वह काम है रोज डाक्टरों के चक्कर काटना। जबकि उनकी बीमारी होती है, उनका खालीपन।
            खाली बैठकर अनावश्यक सोचते रहने से मन और शरीर दोनों प्रभावित होते हैं। विचार प्रवाह प्रायः नकारात्मक होने लगता है सकारात्मक नहीं। सयाने कहते हैं कि-
           खाली घर भूतों का डेरा।
अर्थात् खाली पड़ा हुआ घर हमेशा भूतों की निवास स्थली बन जाता है।
          कहने का तात्पर्य है यह है कि वहाँ उस घर में नकारात्मक ऊर्जा आने लगती है। जब वहाँ चहल-पहल होने लगती है तब स्थितियाँ अलग हो जाती हैं। वही हाल मनुष्य के खाली दिमाग का भी होता है। इसीलिए सयाने कहते हैं-
         खाली दिमाग शैतान का घर।
फालतू बैठे सोचते रहने से दिमाग में प्रायः सकारात्मक विचार नहीं आ पाते, बल्कि नकारात्मक विचार घर करने लग जाते हैं। उस समय ऐसा लगता है मानो मस्तिष्क की नसें फटने लगी हैं। सारा शरीर बेकार-सा हो रहा है।
          ऐसी स्थिति में जो स्वयं को सम्हाल पाते हैं, वे बच जाते हैं और जिनका अपने ऊपर वश नहीं रहता, वे समय बीतते मनोरोगी बन जाते हैं। नित्य डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए धन व समय को व्यय करते हैं।
          अपने आप को किसी सकारात्मक कार्य में लगाए रखना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो किसी हाबी में स्वयं को व्यस्त रखना चाहिए। किसी सामाजिक कार्य को करते हुए भी व्यस्त रहा जा सकता है।
        कहने का तात्पर्य है कि इस दिमाग को खाली मत रहने दो। जहाँ इसे मौका मिला यह जिन्न की तरह तोड़फोड़ करना आरम्भ कर देगा। जितना अधिक यह व्यस्त रहेगा, उतना ही खालीपन का या अकेलेपन का अहसास नहीं करेगा। यह कहने का अवसर नहीं मिलेगा कि क्या करे बोर हो रहे हैं। इसे भी खुराक मिलती रहनी चाहिए अन्यथा यह बागी होकर कहर ढाने लगता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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