गुरुवार, 31 जनवरी 2019

जन्म के साथ मृत्यु

सामने इशारे से
मौत मुझे बुला रही है
मानो मेरी खास सहेली हो
नाटक कर रही हूँ उसे न पहचानने के लिए।

अपनी बाँहें पसार
भागकर आना चाहती है
मुझे गलबहियाँ डालने वह
जैसे बिछुड़ गई थी मुझसे जन्मों के लिए।

मैं अनजान बनी
उसे अनदेखा कर रही हूँ
वह तो जैसे हठ ठाने बैठी है
मुझे अपनी बाहों का हार पहनाने के लिए।

उस परम सखी से
नजरें नहीं मिला सकती
तो भला कैसे जा सकती हूँ
उसके साथ मैं अनन्त की नवयात्रा के लिए।

अभी निपटाने हैं
मुझे असार संसार के
बहुत से अनसुलझे कार्य
सजाने हैं मुझे पंख अपने अरमानों के लिए।

इस पगले मन के
अरमान चहक रहे हैं
उन्मुक्त नील गगन में
एक लम्बी-सी सुखभरी उड़ान भरने के लिए।

मुझे कुछ कहना है
फिर सुनना भी तो है
अब और भी बुन लेने हैं
नित नए सपने अपनों की खुशियों के लिए।

आखिर कब तक
बहला-फुसला सकूँगी
नए-नए बहाने गढ़ करके
अपनी सखी को मैं साथ ले जाने के लिए।

मैंने इरादा किया
उसकी आँखों में आँखें
डालकर उससे पूछ ही लिया
कब तक करोगी प्रतीक्षा मुझे पाने के लिए।

मुस्कुराकर बोली
वह गहरे देखते हुए
वर्षों बीत गए अरी सखी
सामने थी तेरे, तूने देखा नहीं संसार के लिए।

तेरे जन्म के साथ
मैं धरा पर आई थी
सोचती थी अपना रिश्ता
सदा उदाहरण बना रहेगा दुनिया के लिए।

संसार में तुम
ऐसी खो गई कि
पलटकर भी नहीं देखा
मैं खड़ी हुई थी तुम्हारी एक नजर के लिए।

बाहों में बाहें थामें
चलते हैं जहाँ से दूर
जहाँ कोई न हम दोनों को
अलग कर सके फिर कभी एक पल के लिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 30 जनवरी 2019

जिन्दगी की बाजी

जीवन के मोर्चे पर डटी हुई पीढ़ी जब जिन्दगी की बाजी हारने लगती है तब उस समय उसे सहारा देने के लिए, उसके पीछे तैयार हुई एक नई पीढ़ी आकर खड़ी हो जाती है। जिस प्रकार युद्ध के मैदान में पहली पंक्ति के योद्धाओं के शहीद हो जाने पर, उसके पीछे वाली पंक्ति के जवान आकर कमान सम्हाल लेते हैं। दुश्मन के दाँत खट्टे करने में अपना पूरा जोर लगा देते हैं। अन्ततः विजय को प्राप्त कर ही लेते हैं।
        यदि मनुष्य के जीवन-क्रम पर दृष्टि डालें तो ईश्वर की रचना में हम कभी कोई कमी नहीं निकाल सकते। वह प्रभु जिस प्रकार स्वयं पूर्ण है, उसी प्रकार उसकी रचना यह संसार भी पूर्णता लिए हुए हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि एक नई पीढ़ी जन्म लेती है तो अशक्त होती हुई वृद्ध पीढ़ी इस संसार से विदा लेती है। इन दोनों के बीच की युवा पीढ़ी ही दोनों ही पीढ़ियों को सम्हालती है और सहारा देती है।
          आज के समय और परिस्थितियों के अनुसार युवक और युवती जब विवाह के बन्धन में बँधते हैं तो उस समय उनकी आयु लगभग पच्चीस और तीस वर्ष के बीच होती है। जब शिशु का जन्म होता है तब वे उसे कदम दर कदम चलना सिखाते हैं और उसे बोलना सिखाते हैं, स्वावलम्बी बनाते हैं। इसी क्रम में वह बच्चा एक-एक कक्षा करके स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूर्ण कर लेता है। इस तरह सफलता के सोपानों पर चढ़ते हुए वह समयानुसार नौकरी अथवा कोई व्यवसाय करता है। उसके पश्चात वह भी अपना जीवन साथी निश्चित करके अपनी गृहस्थी बसा लेता है। यानी उस समय उसकी आयु भी पच्चीस-तीस वर्ष की हो जाती है। इस समय उसके माता-पिता की आयु पचपन-साठ की हो जाती है। यानी वे रिटायरमेंट की आयु साठ वर्ष के करीब पहुँच जाते हैं। इस आयु के बाद धीरे-धीरे बिमारियों का उदय होने लगता है। यह क्रम इसी प्रकार अबाध गति से अनवरत चलता रहता है।
          यहाँ मैं कहना चाहती हूँ कि युवा पीढ़ी में जोश होता है, कुछ भी कर गुजरने का जज्बा होता है। यह पीढ़ी अपने माता-पिता के धीरे-धीरे गिरते स्वास्थ्य को सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहती है। अपने व्यस्त कार्यक्रम में से समय निकालकर उन्हें डॉक्टर के पास ले जाने और उनका उपचार करवाने के लिए सहजता और सरलता से भागदौड़ कर लेती है।
           बुजर्गों को अनावश्यक रूप से इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। बच्चे स्वयं ही उन्हें सम्हालकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। कहीं एक्सरे करवाना है तो कहीं टेस्ट करवाने हैं। कभी रिपोर्ट लेकर आनी है। इन सब चिन्ताओं से बुजुर्गो को मुक्त रहना पड़ता है। यदि अस्पताल में रहकर चिकित्सा करवानी पड़ जाए तो यह पीढ़ी उसके लिए भी कटिबद्ध रहती है। इस आयु का उत्साह और भागदौड़ करने की क्षमता या प्रकृति ही उनकी विशेष पूँजी होती है।
          मैं सभी सुधीजनों से आग्रह करना चाहूँगी कि आप अपने बच्चों पर विश्वास बनाकर रखिए। यदि आप ही उन पर अविश्वास करेंगे तो फिर किसे अपना कह सकेंगे? आज की युवा पीढ़ी बहुत समझदार व व्यवहार कुशल है। उसे भले और बुरे की पहचान करने की परख है। उसे धिक्कारने के स्थान पर उसके साथ सामञ्जस्य बनाने का प्रयास कीजिए। अपने बच्चों की बुराई कभी भी किसी के समक्ष नहीं कीजिए। दूसरे बच्चों को अपना कहना और अपनों को नकारना अच्छी बात नहीं है। सुख हो अथवा दुख, साथ तो अपने बच्चों ने ही निभाना है।
          जिस प्रकार बचपन में अपने बच्चों के सिर पर वरद हस्त रखते थे, वैसे ही अब भी रखिए। उनकी कमियों को अनदेखा करके उन पर प्यार और आशीर्वाद की बौछार कीजिए। बच्चों की मजबूरियों को कभी उनकी लापरवाही समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। उन्हें जीवन के हर कदम पर प्रोत्साहित कीजिए। फिर देखिए आपका घर निश्चित ही स्वर्ग बनेगा और आप सभी परिवारी जन उसमें सुख तथा चैन से रह सकेंगे।
          सृष्टि का यह क्रम इसी प्रकार चलता रहा है और चलता रहेगा। एक नई पीढ़ी आएगी और दूसरी पुरानी पीढ़ी को उसके लिए स्थान छोड़ना ही पड़ेगा। इस सत्य को जितना शीघ्र स्वीकार कर लिया जाए, उतना ही श्रेयस्कर है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 29 जनवरी 2019

सत्य बोलना

सदा सत्य बोलना चाहिए, ऐसा कहकर शास्त्र हमें अनुशासित करते हैं। बच्चों को बचपन से ही घर और विद्यालय में भी सत्य बोलने के संस्कार दिए जाते हैं। उन्हें यही समझाया जाता है कि सदा सच बोलना चाहिए, झूठ नहीं। जो बच्चे झूठ बोलते रहते हैं, उन्हें अपने माता-पिता और अध्यापकों की डाँट-फटकार सुननी ही पड़ती है। किसी बच्चे को झूठ बोलता देख, उसके अन्य साथी बच्चों को उसे चिढ़ाने का अवसर मिल जाता है। आज हम इसी विषय का विश्लेषण करेंगे।
             सत्यमेव जयते नानृतम्
अर्थात् सत्य की हमेशा जीत होती है झूठ की नहीं, कहकर शास्त्र सत्य बोलने का अनुमोदन करते हैं।
उपनिषद भी कहती है -
                सत्यं वद धर्मं चर
अर्थात् सत्य बोलो और धर्म का पालन करो।
          सच बोलने वाला तो सच बोल देगा। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या सत्य सुनने के लिए कोई तैयार भी होता है? अथवा यह एक कथन मात्र ही बनकर रह जाता है? इस सत्य को बोलने के चक्कर में क्या कुछ नहीं घट जाता?
          बहुत समय पूर्व एक कथा पढ़ी थी। एक राजा को स्वप्न आया कि उसके सारे दाँत गिर गए हैं। फिर क्या था? राजा ने प्रात:काल विद्वत सभा बुलाई। उन विद्वानों के समक्ष रात के स्वप्न वाली घटना रखी और उसका अर्थ बताने के लिए कहा। सोच-विचार करने के पश्चात एक विद्वान ने कहा, 'महाराज, आपके सभी भाई-बन्धु आपसे पहले मृत्यु को प्राप्त होंगे।"
         यह कड़वा सच सुनकर राजा को क्रोध आ गया और उस विद्वान को कारागार में डालने का आदेश दे दिया। फिर एक अन्य विद्वान ने उस स्वप्न का अर्थ इस प्रकार बताया, "महाराज, आप दीर्घायु हैं। आपकी आयु अपने बन्धु-बान्धवों में सबसे अधिक है।"
          यह सुनकर राजा ने इस विद्वान को उपहार दिए। कहने का तात्पर्य यही है कि सच बोलने वाले को सजा मिली और घुमाकर, चाशनी लपेटकर वही बात कहने पर उपहार मिलता है। निम्न श्लोक में इसी भाव को प्रकट किया गया है-
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् ,न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं  च  नानृतं  ब्रूयात् , एष  धर्मः  सनातन: ॥
अर्थात् सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। प्रिय असत्य नहीं बोलना चाहिए, यही सनातन धर्म है।
          इस श्लोक का यही तात्पर्य है कि सत्य तो बोलना चाहिए पर प्रिय सत्य बोलना चाहिए। अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए। और इसी तरह प्रिय लगने वाला झूठ भी नहीं बोलना चाहिए। यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि सत्य तो सदैव कड़वा होता है। इसीलिए सत्य बोलने वाले लोग किसी को भी अच्छे नहीं लगते। हर व्यक्ति चाहता है कि सब लोग उसके समक्ष सत्य बोलें, वह चाहे मिटना ही असत्य बोले। आज समय यह आ गया है कि न कोई सच बोलना चाहता है और न ही कोई सच सुनना चाहता है। समस्या यहाँ यह आती है कि मनुष्य स्वयं हर छोटी-बड़ी बात के लिए असत्य का सहारा लेता रहता है। जब उसका झूठ पकड़ा जाता है, तब वह बगलें झाँकने लगता है, झूठे-सच्चे बहाने गढ़ने लगता है।
           सत्य को कितने भी पर्दों में क्यों न छुपाकर रख दिया जाए, एक-न-एक दिन वह प्रकट हो ही जाता है। मनीषी कहते हैं कि 'मनसा वाचा कर्मणा' यानी मन, वचन और कर्म से सत्य बोलना चाहिए। जो विचार मन में हो वही वाणी में भी होने चाहिए और उसी के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार भी होना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन, वचन और कर्म से अलग रहने वाले पूर्णरूपेण सत्य का आचरण नहीं कर सकते।
        सत्य का प्रयोग अपनी सुविधा से नहीं किया जा सकता। जब हमें कुछ प्राप्ति होने की सम्भावना हो तो असत्य का सहारा ले लिया जाए और फिर भी हम समाज में सत्यवादी के नाम से ही जाने जाएँ। यह दोहरा चरित्र नहीं चल सकता। इससे किसी को अन्तर पड़े या न पड़े, परन्तु अपनी अन्तरात्मा तो धिक्कारती है। उससे कुछ भी नहीं छिपा रह सकता। वह हमारे सत्य अथवा असत्य कर्मों की साक्षी रहती है। यदि वास्तव में हम सच्चे बने रहना चाहते हैं, तो दुनिया क्या कहेगी के विषय में सोचना छोड़ना होगा। केवल स्वयं की सन्तुष्टि की परवाह करनी होगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 28 जनवरी 2019

बच्चों की बस में सुरक्षा

हमारे देश मे सड़क दुर्घटनाएँ बहुत होती हैं। इन दुर्घटनाओं में अनेक लोगों की मौत हो जाती है, वे तो चले जाते हैं पर पीछे वालों को सदा के लिए दुख दे जाते हैं। कुछ लोग अपाहिज भी ही जाते हैं और फिर जीवनभर कष्ट भोगते हैं। अपने लाडलों को स्कूल बस में या वैन में स्कूल खुशी-खुशी भेजने वाले माता-पिता निश्चिन्त हो जाते हैं। परन्तु क्या वे वाकई निश्चिन्त हो सकते हैं?
         इस प्रश्न पर विचार करने पर उत्तर न में ही होगा। इसका कारण है बच्चों के प्रति उनका मोह। जब तक बच्चा सही-सलामत घर वापिस न आ जाए उनके मन में अपने बच्चों के सकुशल होने के विषय मे सन्देह बना रहता है। यह स्वाभाविक भी है। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। अपने बच्चों की चिन्ता करना उनका मौलिक अधिकार है। कोई चाहे कुछ भी कहे माता-पिता तो आखिर अपने बच्चे के लिए चिन्तित रहेंगे ही।
         स्कूल की बसों में आवश्यता से अधिक बच्चे भर दिए जाते हैं। बस में बैठने की जगह न होने के कारण बच्चे बाहर लटकते रहते हैं। बस जब गति से चलती है तब उन बच्चों के गिर जाने का खतरा बना रहता है। बच्चे तो आखिर बच्चे हैं, वे मानते भी तो नहीं हैं। इसी तरह स्कूल वैन में क्षमता से अधिक बच्चे भरे जाते हैं। माता-पिता देखकर भी आँख मूँद लेते हैं। बस हो अथवा वैन बच्चे टिककर बैठते नहीं हैं, वे शरारतें करते रह्ते हैं। इस कारण भी एक्सीडेंट हो जाते हैं।
         कुछ बच्चे स्कूल की छुट्टी के बाद मस्ती करते रहते हैं, बस में आकर नहीं बैठते। जब बस चलने लगती है तब उस चलती बस में चढ़ते हैं। इस कारण भी कई बार एक्सीडेंट हो जाते हैं। अभिभावकों और अध्यापकों का दायित्व बनता है कि वे ऐसे बच्चों को समझाएँ और यदि वे बच्चे न मानें तो उनके लिए कठोर कदम उठाएँ।
         कई बार स्कूल वाले जल्दीबाजी में या अनजाने में अनट्रेंड ड्राईवर रख लेते हैं। और इसी तरह अयोग्य लोग भी वैन चलाने लगते हैं। जब तक पर्याप्त अनुभव न ही तब तक बस या वैन नहीं चलानी चाहिए। यहाँ क्योंकि बच्चों के जीवन का प्रश्न होता है, इसलिए अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। कभी-कभी स्कूल बस अथवा वैन के ड्राइवर की अक्षमता व असावधानी के कारण एक्सीडेंट हो जाते हैं।
            सड़क पर बस या वैन में बच्चे अधिक होने पर भी जब ड्राईवर गाड़ी तेज चलाते हैं या ओवरटेक करने के चक्कर में भी कई बार एक्सीडेंट हो जाते हैं। कभी -कभी अधिक स्पीड होने पर गाड़ी सम्हाल न पाने से भी एक्सीडेंट हो जाते हैं। ड्राईवर शायद भूल जाते हैं कि वे छोटे बच्चों को लेकर जा रहे हैं।
          सरकार ने इस विषय में गाइड लाइन स्कूलों के लिए जारी की है। स्कूलों को बच्चों की सुरक्षा के लिए प्रयत्न करने चाहिए। स्कूलों को चाहिए कि वे ऐसे ड्राईवर रखें जिनका बस चलाने का अनुभव कम-से-कम पाँच वर्ष का हो। उनका हेवी व्हीकल चलाने का लाइसेंस बना हुआ हो। साथ ही उन का कोई चालान न कटा हो और उन्हें कभी जेल न हुई हो। स्कूल बस में गार्ड तैनात करने चाहिए जो बस में बच्चों पर ध्यान दें, उनकी बस में होने वाली परेशानियों को सुनें। यह भी सुनिश्चित करें कि बच्चा अपने ही स्टेण्ड पर उतर रहा है।
          प्राइवेट वैन के लिए भी सरकार ने कहा है कि वे अपनी वैन को रजिस्टर कराएँ। माता-पिता को चाहिए कि वे भी सुनिश्चित कर लें कि जिस वैन से वे अपने लाडलों को भेज रहे हैं उसके पास लाइसेंस तो है। इसके अतिरिक्त जितने बच्चों के बैठने का स्थान है, उसमें उतने ही बच्चे बैठे हों।
         इन छोटी-छोटी बातों का यदि स्कूल प्रशासन और अभिवावक ध्यान रखें तो होने वाले एक्सीडेंटस से बच जा सकता है। मासूम बच्चों के जीवनों को बचाया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 21 जनवरी 2019

संगति का प्रभाव

मनुष्य के जीवन पर संगति का बहुत प्रभाव पड़ता है। यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य को उसकी विचारधारा, उसकी मनोवृत्ति के अनुरूप साथी मिल जाते हैं। मनुष्य स्वयं कितना ही गुणी हो किन्तु दुर्जन के साथ मित्रता होने के कारण उसकी गणना दुष्ट लोगों में की जाती है। लोग शराबी के साथी को शराबी समझते हैं, जुआरी या सट्टेबाज के मित्र को जुआरी कहते हैं, चोर के दोस्त को चोर मानते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कुसंगति में रहने वाले अच्छे-भले मनुष्य को भी लोग सदा हिकारत की नजर से देखते हैं। कुसंगति में रहने वाला मनुष्य धीरे-धीरे उसी रंग में ढल जाता है और फिर समाज से कट जाता है।
        इसके विपरीत सज्जन लोगों के सम्पर्क में आए दुष्ट को भी लोग भला व्यक्ति मान लेते हैं। अच्छी बात यह होती है कि सुसंगति में रहने वाले मनुष्य के अन्तस् में विद्यमान बुराइयाँ धीरे-धीरे दूर होने लगती हैं। इससे उसका हृदय शुद्ध और पवित्र होने लगता है। महर्षि वाल्मीकि, अंगुलिमाल डाकू और महाकवि कालिदास आदि महापुरुष सत्संगति के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
       जो मनुष्य जीवन में एक बार दुष्टों के जाल में फँस जाता है, उसका वहाँ से वापिस लौटना बहुत कठिन होता है। यदि वह वहाँ से निकलना चाहे भी तो वे दुष्ट अपने रहस्यों के सार्वजनिक होने के डर से उसे ऐसा नहीं करने नहीं देते। दुष्टों की संगति अच्छे-भले मनुष्य को हैवान या शैतान बना देती हैं। उसका जीवन बर्बाद कर देती हैं। जो व्यक्ति दुष्ट, अन्यायी, दुराचारी, व्यभिचारी होता है, वह किसी का हित नहीं साध सकता। उसे तो बस अपनी ही चिन्ता रहती है।
          एक बोधकथा वाट्सआप पर पढ़ी थी। उसे यहाँ उदाहरण के रूप में कुछ संशोधन के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ। किसी समय एक भंवरे की मित्रता गोबर में रहने वाले एक कीड़े से हो गई। एक दिन कीड़े ने भंवरे से कहा, "भाई तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो, इसलिए मेरे यहाँ भोजन के लिए आओ।"
          भंवरा भोजन खाने पहुँचा तो सोच में पड़ गया, "मैंने बुरे का संग किया इसलिए मुझे गोबर खाना पड़ रहा है।"
          फिर भंवरे ने कीड़े को अपने यहाँ आने का निमन्त्रण दिया, "कल तुम मेरे यहाँ भोजन के लिए आना।"
          अगले दिन कीड़ा भंवरे के यहाँ पहुँचा। भंवरे ने कीड़े को उठा कर गुलाब के फूल पर बिठा दिया। कीड़े ने फूल का रस पिया और उसकी सुगन्ध का आनन्द लिया। वह मित्र का धन्यवाद करने ही वाला था कि पास के मन्दिर का पुजारी आया और उस फूल को तोड़कर ले गया। उसने वह फूल भगवान के चरणों में चढ़ा दिया। कीड़े को भगवान के चरणों में बैठने का परम सौभाग्य मिला। सायंकाल पुजारी ने सारे फूलों को एकत्र करके गंगा जी में प्रवाहित कर दिया। कीड़ा अपने सौभाग्य पर इतरा रहा था। इतने में भंवरा उड़ता हुआ कीड़े के पास आया और उसने पूछा, "मित्र! तुम्हारा क्या हाल है?"
           कीड़े ने कहा, "भाई, जन्म-जन्मान्तरों के पापों से मेरी मुक्ति हो गयी है। ये सब अच्छी संगत का ही फल है।"
        किसी कवि ने सच ही कहा है-
     संगत से गुण ऊपजे, संगत से गुण जाए।
     लोहा लगा  जहाज में , पानी में  उतराय।।
अर्थात् अच्छी संगति से मनुष्य के गुणों में वृद्धि होती है और कुसंगति में रहने से उसके सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। जैसे जहाज में लगा हुआ लोहा भी पानी में उतरकर सागर पार कर जाता है।
          कोई मनुष्य यह नहीं जानता कि जीवन के सफर में हम लोग एक-दूसरे से किस कारण से मिलते हैं? परिवारीजनों के अतिरिक्त हमारा किसी के साथ रक्त का सम्बन्ध नहीं होता। फिर भी ईश्वर की कृपा से हम अन्य लोगों के साथ मिलकर हम अनमोल रिश्तों में बंध जाते हैं। हमें ऐसे रिश्तों को हमेशा संजोकर रखना चाहिए।
            मनुष्य को सदा सज्जनों की संगति में रहना चाहिए। ज्ञानियों, विद्वानों की संगति में रहने वाले मनुष्य को कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ता। ईश्वर से प्रीत लगाने से आस्था जागृत होती है। ईश्वर सदा अच्छे और सच्चे लोगों को चाहता है, दुर्जनों को वह पसन्द नहीं करता। ऐसे सज्जन लोग ईश्वर के अनुग्रह से कभी परेशान नहीं होते। ईश्वर की कृपा उन पर अनवरत बरसती रहती है। 
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 20 जनवरी 2019

मालिक की कृपा

मनुष्य को सदा ही किसी मित्र, किसी गुरु अथवा किसी सहयोगी की आवश्यकता होती है। किसी पर आश्रित न होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन उसकी अति कभी नहीं होनी चाहिए। यह संसार कीचड़ की तरह है यानी काम-वासनाओं का दलदल यहाँ पर विद्यमान है। इसमें मनुष्य को कमल की तरह रहना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो उसे संसार में रहते हुए इनमें लिप्त नहीं होना चाहिए। मनुष्य का यह संघर्ष उसके अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए ही होता है।
       कुछ दिन पूर्व पढ़ी एक बोधकथा का स्मरण हो रहा है। कुछ संशोधन के साथ उसे प्रस्तुत कर रही हूँ। एक गाय घास चरने के लिए पास ही के जंगल में चली गई। शाम ढलने वाली थी, उसे अपने बाड़े में आने की जल्दी थी। तभी उसने देखा कि एक बाघ उसकी ओर दबे पाँव बढ़ रहा है। वह डर के कारण इधर-उधर भागने लगी। बाघ भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गाय को अपने सामने एक तालाब दिखाई दिया। घबराहट के कारण गाय उस तालाब के अन्दर घुस गई। उसका पीछा करता हुआ वह बाघ भी उस तालाब के अन्दर चला गया।
        वह तालाब बहुत गहरा नहीं था। उसमें पानी कम था और कीचड़ से भरा हुआ था। उन दोनों के बीच की दूरी काफी कम हो गई थी। लेकिन अब वे दोनों कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। गाय उस कीचड़ के अन्दर धीरे-धीरे धसने लगी। बाघ उसके पास होते हुए भी उसे पकड़ नहीं सका। वह भी धीरे-धीरे कीचड़ में धसने लगा। दोनों करीब-करीब गले तक उस कीचड़ के अन्दर फँस गए थे और हिल भी नहीं पा रहे थे। गाय के करीब होने के बावजूद वह बाघ उसे पकड़ नहीं पा रहा था। थोड़ी देर बाद गाय ने उस बाघ से पूछ ही लिया, "बाघ, क्या तुम्हारा कोई मालिक है?"  
        बाघ ने गुर्राते हुए कहा, "मैं जंगल का राजा हूँ। मेरा कोई मालिक नहीं। मैं स्वयं ही जंगल का मालिक हूँ।"
       गाय ने कहा, "लेकिन तुम्हारी उस शक्ति का यहाँ पर क्या उपयोग है?"
       उस बाघ ने कहा, 'तुम भी तो फँस गई हो और मरने के करीब हो। तुम्हारी भी तो हालत मेरे जैसी है।"
        गाय ने मुस्कुराते हुए बाघ से कहा, "बिलकुल नहीं। मेरा मालिक जब शाम को घर आएगा और मुझे अपने बाड़े में नहीं पाएगा तो वह ढूंढते हुए यहाँ अवश्य आएगा। तब वह मुझे इस कीचड़ से निकालकर अपने घर ले जाएगा। तुम्हें लेने कौन जाएगा?"
         थोड़ी देर ही में उस गाय का मालिक वहाँ आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले गया। जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक दूसरे की तरफ कृतज्ञतापूर्वक देख रहे थे। चाहते हुए भी उन्होंने उस बाघ को कीचड़ से नहीं निकाला क्योंकि वह बाघ उनकी जान के लिए बहुत बड़ा खतरा था।
        इस बोधकथा में आया हुआ बाघ मनुष्य के अहंकारी मन का प्रतीक है, गाय समर्पित ह्रदय का प्रतीक है और मालिक ईश्वर का रूप है।
         मनुष्य सदा अहंकार के नशे में चूर रहता है। उसे अपने सामने कुछ भी दिखाई नहीं देता। वह समझता है कि उसके समक्ष सारी दुनिया बौनी है। वह जो भी चाहे कर सकता है। किसी की क्या मजाल जो उसका सामना कर सके? और यदि कोई उसका सामना करने का दुस्साहस करता है तो वह तिलमिला जाता है। उसे धूल में मिलने के लिए उपाय करने लगता है। जब तक उसका प्रतिशोध पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वह चैन से नहीं बैठ पाता।
       गाय सरल ह्रदय का प्रतीक है। वह किसी का अहित नहीं करती। वह सबको अपना अमृत तुल्य दूध पिलाकर जीवन देती है। उसके दूध से बने घी मक्खन, छाछ आदि सभी को पुष्ट करते हैं। उसका गोबर तक उपयोगी होता है, जो कई दवाइयों में काम आता है। इसीलिए हमारी भरतीय संस्कृति में गाय को माता कहकर उसे सम्मानित किया जाता है।
       मालिक मनुष्य को हर दुख और परेशानी से बचाता है। वह बिना किसी अपेक्षा के हम मनुष्यों का उद्धार करता है। बिन माँगे झोलियाँ भर-भरकर देता है। समदर्शी वह सबके साथ समानता का व्यवहार करता है। वह परम न्यायकारी है तथा वह किसी को भी अनावश्यक दण्ड नहीं देता। जो भी व्यक्ति सच्चे मन से, श्रद्धा से उसकी शरण में चला जाता है, उसका इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जाते हैं।
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