रविवार, 31 मार्च 2019

हंसी-मजाक

हंसी-मजाक

हंसी-मजाक परेशानियों भरे माहौल से छुटकारा पाने का बहुत अच्छा साधन होता है। दूसरों को प्रसन्न रखना बहुत अच्छी आदत है। इससे वातावरण खुशगवार हो जाता है। कोई मनुष्य कितनी भी परेशानी में क्यों न हो वह मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता। हंसते-खेलते रहने से जीवन जीना आसान हो जाता है।
        मुँह बिसूरकर रहने वालों से लोग बोर हो जाते हैं। सारा समय गिले-शिकवे करने या अपना दुखड़ा रोते रहने वालों से सभी किनारा करना चाहते हैं। वे अपनी मनहूस-सी बनाई सूरत से किसी को भी आकर्षित नहीं करते। उनके पास यदि कुछ समय तक बैठा जाए तो इंसान उकताने लगता है। सामने उनका दुख सुन करके सहानुभूति जताने वाले पीठ पीछे उन्हीं का मजाक उड़ाते हैं और नमक-मिर्च लगाकर चटकारे लेते हैं।
         किसी दूसरे का मजाक एक सीमा तक करना चाहिए। वह सीमा क्या है? उसका निर्धारण कौन करेगा? इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढना बहुत आवश्यक है।
          मजाक की सीमा हमें स्वयं ही तय करनी है। मजाक उस सीमा तक करना चाहिए जब तक उसे दूसरा उसे बर्दाश्त कर सके। उसके बाद उसका मजाक नहीं बनाना चाहिए। इससे अनावश्यक ही बदमजगी बढ़ती है और वातावरण बोझिल हो जाता है।
          वैसे तो मजाक करने के लिए विषयों की कोई कमी नहीं हैं। ऐसा आवश्यक नहीं कि पास बैठे हुए किसी व्यक्ति विशेष का मजाक बनाया जाए। कुछ लोग दूसरों की शारीरिक अपंगता का मजाक बनाते हुए उन्हें उनकी उस कमजोरी के नाम से यानि अंधा (नेत्रविहीन), काना (एक आँख न होना), लंगड़ा ( टाँग न होना), गधा ( मूर्ख), उल्लू (मूर्ख) आदि पुकारते हैं। यह बहुत ही गलत व अमानवीय व्यवहार कहलाता है। किसी की कमजोरी पर हंसना ईश्वर का अपमान करना होता है क्योंकि उनको भी हमारी ही तरह ईश्वर ने बनाया है।
        स्वयं का मजाक करना सबसे अच्छा होता है। दूसरों का मजाक बनाने वाले अपना मजाक बनते देख प्रायः बौखला जाते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी उनका मजाक बनाए। ऐसा दोहरा मापदण्ड तो नहीं चल सकता। अपने लिए अलग नियम व दूसरों के लिए अलग नियम इसे समाज तो नहीं मानेगा। सीधी-सी बात है कि यदि आपको मजाक सहना पसन्द नहीं तो करिए भी मत। यदि मजाक करेंगे तो मजाक का निशाना बनने की हिम्मत भी रखिए। उस समय खुन्दक खाने या चिढ़ जाने का क्या लाभ होगा?
          यदि आपको मजाक बनना अच्छा नहीं लगता तो दूसरे की टाँग मत खींचिए। नहीं तो फिर याद रखिए कि जैसै को तैसा (tit for tat) तो हो ही जाता है। कभी-कभी सेर को सवा सेर भी टकरा ही जाता है। तब बगलें झाँकने से अच्छा है पहले से ही सम्भल जाना चाहिए।
          जैसे हर बात की अति बुरी होती है वैसे ही मजाक की अति भी अच्छी नहीं मानी जाती। जो हमेशा मजाक करते रहते हैं उन्हें लोग टोक देते हैं कि भाई कभी तो सीरियस हो जाया करो। लोग उनको मसखरा  समझते हैं और पीठ पीछे उनकी हंसी उड़ाते हैं।
         हंसी-मजाक केवल मनोरंजन की सीमा तक ही उचित होता है। इसके पश्चात वातावरण को अशान्त व बोझिल ही बना देता है। समझदार लोगों को चाहिए कि वे अप्रिय स्थितियाँ न आने दें और यदि किसी असावधानी वश ऐसा हो जाए तो उन कारणों को दूर करने का उपाय शीघ्र ही कर लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 29 मार्च 2019

संसार सागर का मन्थन

यह संसार एक सागर की भाँति है। हम सभी को अपने जीवनकाल में इस समुद्र का मन्थन करना पड़ता है। पौराणिक काल में देवों और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मन्थन की तरह ही इसमें से भी हलाहल विष और अमृत दोनों ही निकलते हैं। उस समय छल से देवताओं ने अमृत को अपने कब्जे में करके उसका पान कर लिया था। उसे पीकर फिर वे देवगण अमर हो गए थे। विषपान के लिए न देवता तैयार थे और न ही असुर। तब भगवान शिव ने स्वेच्छा से विषपान किया था। इसलिए वे नीलकण्ठ कहे जाते हैं।
           यह तो आदिकाल की बातें हैं। यह सत्य है कि आज के इस मन्थन से निकलने वाले विष और अमृत दोनों का पान हर मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है। कोई भी देवता या कोई भी असुर उसकी सहायता के लिए आगे कदम बढ़ाने नहीं आता। अब विचार यह करना है कि आखिर ये विष और अमृत हैं क्या? हर मनुष्य को इनका पान क्यों करना पड़ता है? क्या अमृत पीकर मनुष्य अमर हो सकता है? विषपान करने से मनुष्य को मृत्यु मिल जाती है क्या? आखिर मनुष्य विष और अमृत दोनों का पान करने के लिए क्यों विवश हैं? इन दोनों को पीने से मनुष्य की क्या गति होती है?
          इन सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हैं। तभी तो हम इस सत्य को ज्ञात कर सकेंगे। पहले हम विष के विषय में विचार करते हैं। इस संसार सागर में विष दुख, परेशानियाँ,  बीमारियाँ, विवाद, असफलता आदि हैं। इनको भोगते समय मनुष्य को बहुत कष्ट होता है। ये सब उसके गले की फाँस बनकर रह जाते हैं। मनुष्य को बहुत से लोग ऐसे मिलते हैं जो उसे गलत राह पर ले जाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। मनुष्य को स्वयं के विवेक से उन लोगों से बचना होता है। जो लोग उनसे बाख जाते हैं, वे अपना जीवन सुधारने में समर्थ हो जाते हैं।
          जो लोग उनके तथाकथित ऐश्वर्य, रुतबा आदि देखकर उनके पीछे हो लेते हैं, वे अपना सारा जीवन नरक बना लेते हैं। वे यही लोग होते हैं जो समाज विरोधी कार्य करते हैं। लूटपाट करना, चोरी करना, हेराफेरी करना, भ्रष्टाचार करना, दूसरे का गला काटने से परहेज न करना, रिश्वतखोरी करना, स्मगलिंग करना, नशे के व्यापार में लिप्त रहना आदि इनके कार्य होते हैं। कानून-व्यवस्था से आँख-मिचौली खेलते हुए इनका सारा अमूल्य समय बीतता है। ये सभी लोग और इनके सारे ही संगी-साथी अपने लिए मन्थन से हलाहल विष निकालते हैं। न ये स्वयं चैन से रहते हैं और न ही इनसे जुड़े हुए लोग। इस विषपान के कारण अपने जीवन में अनेक कष्टों और परेशानियों से ये लोग जूझते रहते हैं।
           अमृत के विषय में भी अब हम विश्लेषण करते हैं। सज्जनों की संगति अमृत तुल्य होती है। मनुष्य जब मानवोचित गुणों को अपना लेता है तो उस अवस्था में वह अमृत का पान करता है। दया, ममता, ईमानदारी, सहानुभूति, सहृदयता, परोपकार आदि गुण मनुष्य को महान बनाते हैं। समाज इन्हीं लोगों की बदौलत ही चलता है। यही लोग हैं जो समाज को उसका यथोचित देने का प्रयास करते हैं। सन्मार्ग पर चलकर जो अपने इस जीवन में मोती बटोरते हैं, वे ही अमृत का पान करते हैं। ये लोग सुखी रहते हैं और दूसरों को भी खुशियाँ बाँटने का कार्य करते हैं।
          कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य अपने इस जीवनकाल में जो शुभाशुभ कर्म करता है, वही उसके जीवन मे विष अथवा अमृत प्राप्ति का कारण बनते हैं। पूर्व जन्मों में हम क्या कर्म करके आए हैं, उनके विषय में हम नहीं जानते। उनका खट्टा-मीठा फल अथवा विष-अमृत का पान तो मनुष्य को समयानुसार करना ही पड़ता है। उससे बच पाना किसी भी तरह से सम्भव नहीं है। जिसके विषय में मनुष्य जानता नहीं, उसके फल उसका पीछा नहीं छोड़ते। जो कर्म मनुष्य अनजाने में कर जाता है, वे भी उसके लिए जी का जंजाल बन जाते हैं। परन्तु जो कर्म वह जानते-बूझते या शेखी बघारते हुए करता है, उनसे वह किसी सूरत नहीं बच सकता, यह निश्चित है।
         इस प्रकार सारा जीवन मनुष्य इस संसार सागर का मन्थन करता रहता है। कभी अपने लिए विष की सौगात लेकर आता है तो कभी हलाहल विष अपने भाग्य में बटोरता है। अपने विवेक से विचार करके मनुष्य को अपने लिए मनचाहे मार्ग का चयन करना चाहिए ताकि किसी दूसरे को दोषी ठहराने की आवश्यकता न पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 28 मार्च 2019

अधिकार जताना

जीवन में जो कुछ भी मनुष्य को प्राप्त होता है, उस पर वह अपना हक समझने की भूल करने लगता है। उसे यह भी स्मरण नहीं रहता कि जो कुछ भी उसे मिल रहा है वह उसका हकदार हैं भी या नहीं। हर वस्तु पर वह अनाधिकार हक जमाने की चेष्टा करता है। उसके कुछ दायित्व भी होते हैं, इस विषय की ओर वह कान भी नहीं रखना चाहता। जो कुछ उसे अपने जीवन में मिलता है, उसे वह अपना मानने लगता है। यदि उसमें से कुछ कटौती की जाए तो वह उसका विरोध करने लगता है। जो कुछ उसे मिल जाता है, उसके लिए वह धन्यवाद भी नहीं करता।
         यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सुख मिलने पर क्या कभी धन्यवाद देने मन्दिर गए हो? केवल दुख की शिकायत लेकर ही प्रभु के पास क्यों जाते हो? मालिक से क्या कभी किसी दुख या किसी पीड़ा की शिकायत के अतिरिक्त गए? क्या कभी उसे धन्यवाद देने के लिए सच्चे मन से पुकारा है?
          यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं है तो फिर यह विषय वास्तव में विचारणीय है। जो कुछ भी मनुष्य को मिलता है, उसके लिए वह प्रसन्न नहीं होता। बल्कि उसकी ओर पीठ करके खड़ा हो जाता है। इस कारण उसे जो कुछ मिल सकता है, उसे नहीं मिल पाता। उसके लिए दरवाजा बन्द हो जाता है।
           इस विषय पर कुछ उदाहरण देखते हैं। किसी व्यक्ति को असहाय जानकर प्रतिमाह उसे कुछ निश्चित राशि सहयोग के रूप में दी जाए तो यह बहुत पुण्य का कार्य मन जाता है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी कारणवश ऐसा सम्भव न हो सके। तब उस व्यक्ति को कहा जाएगा कि अब उसे वह राशि नहीं दे सकेंगे तो यह सुनकर वह आगबबूला हो जाएगा। इतने दिन तक सहायता करने के लिए धन्यवाद करने के स्थान पर वह गाली-गलौच करने लगेगा। ऐसा व्यवहार करेगा जैसे पता नहीं उसका कितना नुकसान कर दिया गया हो।
          अपने घर के बाहर फलवाला-सब्जीवाला या धोबी आदि कोई इस प्रकार का व्यक्ति है जो रेहड़ी लगता है, उस पर यदि तरस खाकर, बिना कोई किराया लिए उसका सामान अपने घर के किसी कोने में रखने की अनुमति दे दीजिए। कभी किसी कारण से शहर से दस-पन्द्रह दिन के लिए बाहर जाना पड़ जाए तो उसे समान रखने के लिए मना करने पड़ेगा। तब उसका मुँह बन जाएगा और दस बातें सुना देगा। यहाँ भी वही बात कि अपनी सहायता करने के लिए धन्यवाद नहीं करेगा। वह तो यहाँ तक भी कह सकता है कि घर की चाबी उसे दे दी जाए ताकि वह समान रख सके, अन्यथा वह परेशान हो जाएगा। यह किसी भी तरह सम्भव नहीं होता।
            जब कोई व्यक्ति बेरोजगार होता है या उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह कम वेतन पर भी कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है। उस समय उसे लगता है कि न होने से जो मिल जाए वही अच्छा है। नौकरी मिलते ही उसे अपने अधिकार याद आने लगते हैं। उसे अपना वेतन कम लगने लगता है। वह अपने पुराने कर्मचारियों से होड़ करने लगता है। दूसरों की बराबरी करने लग जाता है। फिर वह किसी मजदूर संघ का सदस्य बन जाता है और झण्डा लेकर खड़ा हो जाता है। ऐसा लगता है कि मानो वह कोई नकचढ़ा दामाद हो। उस समय उसे भूल जाता है कि नौकरी में वह कार्य करने आया है, मुफ्त की रोटियाँ उसे नहीं मिल सकतीं। यहाँ भी अपने मालिकों को धन्यवाद करने के स्थान पर उन्हें कोसता हुआ ही दिखाई देता है। मानो उन्होंने उसे नौकरी देकर कोई अपराध कर लिया हो।
          मनुष्य का यह जीवन उसे बहुत ही सुकृत्यों या सत्कर्मों के पश्चात मिलता है। उसके लिए मनुष्य अपने मन से ईश्वर की कोई सराहना नहीं करता परन्तु मृत्यु के लिए सदा उससे शिकायत करता रहता है। इसी प्रकार ईश्वर जब झोलियाँ भर-भरकर सुख और नेमते उसे देता है, तब उसके लिए वह मालिक का धन्यवाद नहीं करता। जब उसे अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के कारण दुखों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है तो उसकी शिकायतों का पिटारा खुल जाता है। उस समय उसे उस मालिक की अच्छाइयाँ बिल्कुल नहीं दिखाई देतीं, तब उसे प्रभु समेत सारी दुनिया में खोट-ही-खोट दिखाई देने लगता है।
         इन्सान को इतना कृतघ्न नहीं होना चाहिए। दूसरों के लिए यदि वह राई जितना उपकार करता है तो उनसे वह पहाड़ जितने धन्यवाद की अपेक्षा करता है। जब अपनी स्वयं की बारी आती है तब पहाड़ जितने उपकार के बदले राई जितना कृतज्ञ होता है। उसे लेने और देने के बाट एक जैसे रखने चाहिए। उसे अधिकार और कर्त्तव्य दोनों को स्मरण रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 27 मार्च 2019

प्रेम का मार्ग

प्रेम का रास्ता बहुत ही कष्टकर होता है। इसके साथ-साथ बहुत तग अथवा संकरा भी होता है। एक समय में इसमें से एक ही व्यक्ति गुजर सकता है, दो नहीं। इसी भाव को दोहे के इस अंश में कहा गया v VBहै-
          प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाए।
अर्थात् प्रेम की गली में बहुत संकरी है, उसमें इतना स्थान ही नहीं है कि उसमें से दो लोग एकसाथ समा सकें।
         जब तक दो व्यक्तियों में तेरा और मेरा का भाव रहेगा तब तक प्रेम नहीं हो ही नहीं सकता। जब वे दो जिस्म और एक जान बन जाते हैं तब सही मायने में प्यार होता है। यह बहुत ही गूढ़ विषय है। जब दो लोगों में ऐसा प्यार हो जाता है तो वहाँ समर्पण की भावना होती है। वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को बिन कहे और बिन सुने समझ जाते हैं। मीलों दूर बैठे हुए भी एक-दूसरे की खैर-खबर रख सकते हैं, जिसे हम टेलीपैथी कहते हैं। वह उनमें स्वत: विकसित हो जाती है।
          यह सब दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान होता है। जहाँ चूक हो गई वहाँ मनुष्य चोट खा लेता है। फिर उसे सुधारने में वर्षों व्यतीत हो जाते हैं।
         प्रेम की यह गहरी परिभाषा है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार से दो अलग-अलग शख्सियत बनकर इस मार्ग में नहीं रहा जा सकता है। सच्चा प्रेम अपने अस्तित्व को अर्थात् स्व को मिटाकर दूसरे में एक हो जाना होता है। यह सम्बन्ध प्रतिदान नहीं माँगता बल्कि पूर्ण समर्पण भाव इसमें होता है।
         प्रेम कुछ लेना नहीं जानता, वह तो बस देना ही जानता है। इसीलिए सबको अपना बना लेता है। यदि लेनदेन की या बदले की भावना यहाँ हावी गई तो फिर वह प्रेम नहीं रह जाता बल्कि व्यापार बन जाता है। इस प्रेम को विशुद्ध ही रहने दें, इसमें विष न घोलें।
         पति-पत्नि का प्रेम भी सही मायने में ऐसा ही होना चाहिए। दोनों में तेरा-मेरा न होकर हमारा होना चाहिए। दोनों के सुख-दुख सब एक होने चाहिए। जब तक तन, मन और धन से वे दोनों एक नहीं होंगे उनका प्रेम अधूरा रहेगा। परस्पर का यह अधूरापन हमेशा नुकसान देता है।
         दोनों में समझौता हो जाना कोई शुभ लक्षण नहीं है। जहाँ समझौता टूटा वहीं पर बिखराव होने लगता है। तब परिवार टूटने लगते हैं और आपसी सम्बन्ध दरकने लगते हैं। लम्बे समय तक दोनों को साथ निभाना होता है। इसलिए जीवन में परस्पर प्रेम और  विश्वास को बनाए रखना पति-पत्नि दोनों का कर्त्तव्य है।
          आज युवा पीढ़ी ने इस प्यार को एक व्यापार बना दिया है। उनके लिए इस प्यार के मायने केवल मौज-मस्ती है।प्यार के नाम पर वे उच्छृंखल बनते जा रहे हैं। जहाँ तक उनका स्वार्थ पूरा होता रहता है, बस वहीं तक प्यार होता है। उसके बाद फिर तू कौन और मैं कौन? वे इस बात को बिल्कुल भूल गए हैं कि प्यार देने और समर्पण का नाम है। इसमें स्वार्थ का कोई काम नहीं है।
          एकपक्षीय प्रेम सदा ही घातक होता है। इसके चक्कर में हत्याएँ व आत्महत्याएँ भी हो जाती हैं। एसिड अटैक भी इसी का ही परिणाम है। यथासम्भव इससे बचना चाहिए और दूसरो को बचाना चाहिए।
           ईश्वर से प्रेम का आधार भी पूर्ण समर्पण है। उससे लौ लगाने का अर्थ है उसमें एकाकार हो जाना। यह वही प्यार है जो मीराबाई ने दुनिया की परवाह न करके अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर भगवान कृष्ण से किया। राधा ने भी सच्चे मन से भगवान कृष्ण से नाता जोड़ा। हमारे ऋषि-मुनि इसी प्यार की बदौलत असार संसार के सारे कारोबार से स्वयं को विलग कर लेते हैं।
          जब तक इस प्यार में तड़प न हो, तब तक मनुष्य इस संकरे रास्ते पर चल ही नहीं सकता। दोनों के मैं को छोड़े बिना यह पवित्र प्रेम सम्भव नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 26 मार्च 2019

शिकायतों का पुलिन्दा

हम सभी शिकायतों का एक पुलिन्दा बाँधकर, सहेजकर अपने पास रखते हैं। हर समय उनका पिष्टपेषण करते रहते हैं। इस तरह अपने मन में नित्य प्रति दूसरों के लिए जहर घोलते रहते हैं। इसका परिणाम होता है अपने मधुर सम्बन्धों में कड़वाहट आ जाती है। जो रिश्ते बहुत ही प्यारे होते हैं, बहुत नाजुक होते हैं, उनमें एक गाँठ तो पड़ ही जाती है। उसे खोल पाना किसी के लिए भी नामुमकिन तो नहीं परन्तु बहुत कठिन अवश्य हो जाता है।
           विचार इस विषय पर करना है कि आखिर मनुष्यों को एक-दूसरे से शिकायत क्यों रहती है? इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? इन शिकायतों से किसी को हासिल क्या होता है? हम सब शिकायत करना क्यों नहीं छोड़ सकते?
          हर मनुष्य को दूसरे मनुष्य से शिकायत इसलिए होती है क्योंकि वह उसकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करता। ईश्वर ने हर मनुष्य को बुद्धि दी है। इसलिए वे अपने समक्ष किसी और की बुद्धि को अपने से महान नहीं मानते। वे सोचते हैं जो हमने कार्य कर दिया है वही अच्छा है और हमने जो कह दिया वही पत्थर पर लकीर है। सभी हमारे कहे अनुसार चलें। सारे फसाद की जड़ मिथ्या यह अहंभाव है जो किसी की कही सही बात को मानने के लिए तैयार नहीं हो पाता कि दूसरा ठीक बात कह रहा है या भले के लिए कह रहा है।
          प्रायः लोग दूसरे के कुछ कहने अथवा समझाने को गलत अर्थ में लेते हैं। वे सोचते हैं कि फलाँ व्यक्ति होता कौन है हमें कुछ कहने वाला? यानी वे अपने मामले में परामर्श देने को अनाधिकार चेष्टा मानते हैं। इसलिए उससे रुष्ट हो जाते हैं। कभी-कभी सम्बन्ध भी इस दम्भ की बलि चढ़ जाते हैं। घर के बड़े बुजुर्ग या मित्र हितकारी व तर्कसंगत परामर्श देते हैं परन्तु वे अपने मनोनुकूल नहीं होते। इसलिए वे प्रियजन भी अप्रिय लगने लगते हैं।
          पति को अपनी पत्नी से, पत्नी को अपने पति से,  माता-पिता को अपनी सन्तान से, बच्चों को अपने माता-पिता से, भाई को अपनी बहन से, बहन को अपने भाई से, मित्र को मित्र से, अध्यापक को शिष्यों से, शिष्यों को अध्यापक से, हर पड़ौसी को अपने ही दूसरे पड़ौसी से, मकान मालिक को किराएदार से, किराएदार को मकान मालिक से, बॉस को अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से, कर्मचारियों को अपने बॉस से,  राजा को प्रजा से, प्रजा को राजा से शिकायत रहती है। यानी सभी लोग ही इस शिकायत रूपी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त दिखाई देते हैं।
           घर में होने वाली नित्य की शिकायतों से घर का माहौल खराब होता है। भाई-बन्धुओं में इससे खींचतान होती रहती है। कार्यालय का वातावरण विषैला हो जाता है। आस-पड़ौस में रहने का आनन्द नहीं आता। मकान मालिक और किराएदार का आपसी तालमेल बिगड़ता है। देश में अराजकता का साम्राज्य हो जाता है। कहने का अर्थ है कि इस शिकायत से सर्वत्र विनाश की ही गन्ध आती है। आपसी भाईचारा समाप्त होता है।
          आजकल हर व्यक्ति स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है, इसलिए यह समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि सारा समय शिकवे-शिकायतों का दौर चलता ही रहता है। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे की विवशता को भी सुनने के लिए तैयार नहीं होता। जहाँ पर भी दो लोग मिलते हैं, वहीं शिकायतों का पिटारा खुल जाता है। बात कहाँ तक चली जाएगी, इसे कोई नहीं जानता। कोई भी व्यक्ति शिकायत करेगा तो मूड दोनों का ही खराब होगा। कोई किसी की बात न सुनना चाहता है और न ही मानना चाहता है। फिर इन शिकायतों के आदान-प्रदान का मेरे विचार में कोई औचित्य नहीं रह जाता।
         इन शिकायतों को दूसरे से करने पर कुछ भी हासिल नहीं होता। इससे शिकायतकर्ता या शिकायत सुनने वाला कोई एक भी सन्तुष्ट नहीं होता। तो फिर इसका कोई लाभ किसी को भी नहीं होता। कभी-कभी तो इस शिकायत पुराण के कारण मनमुटाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि बातचीत के सारे रास्ते ही बन्द हो जाते हैं और पीढ़ियों की शत्रुता जन्म ले लेती है। फिर करते रहो भुगतान पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
          सुनने-सुनाने और शिकवे-शिकायतों का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। प्रयास यही करना चाहिए कि दूसरे की बात को मन से न लगाया जाए। अपने मन को बड़ा बनाकर दूसरे को उसकी गलती के लिए उसे क्षमा कर देना चाहिए। इससे कटुता कम होती है और अपना मन अशान्त नहीं होता। एक क्षमा रूपी अस्त्र के मूल्य पर अपनी मानसिक शान्ति प्राप्त करने का यह सौदा बुरा नहीं है। इस नेक सुझाव पर विचार अवश्य कीजिएगा।
      परमपिता परमात्मा हमें झोलियाँ भर-भरकर बिनमाँगे नेमते देता रहता है। फिर भी हम उससे सदा ही शिकायत करते रहते हैं। प्रभु से शिकायत करने के स्थान पर कृतज्ञता ज्ञापन करनी चाहिए। किसी भी कष्ट के समय प्रार्थना करनी चाहिए कि मालिक तेरी कृपा से मेरा कष्ट दूर हो रहा है, प्रभु अपनी कृपा हम पर बनाए रखना। ऐसा एक बार कीजिए फिर देखिए उस ईश्वर का चमत्कार।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 25 मार्च 2019

स्वार्थपरता

मनुष्य दिन-प्रतिदिन स्वयं में इतना अधिक खोने लगा है कि उसे अपने पास-पड़ौस की गतिविधियों की कुछ भी खबर नहीं रहती। उसकी मानसिकता बस मैं, मेरे बच्चे और मेरा परिवार तक सीमित होने लगा है। वह उससे आगे देखना और सोचना ही नहीं चाहता। उसे लगता है कि इनसे परे जाने से उसका धन और समय दोनों ही व्यर्थ में बर्बाद हो जाएँगे। इसलिए धीरे-धीरे उस पर स्वार्थ हावी होता  जा रहा है। अपने स्वार्थ में वह इतना अन्धा होता जा रहा है कि उसे यह भी सुध नहीं है कि वह किसके द्वारा अपने स्वार्थ को साधने की कामना कर रहा है।
          शायद इसी स्वार्थ साधन के कारण किसी मनीषी ने 'गधे को बाप बनाने' वाला मुहावरा बनाया होगा। गधे को मूर्ख कहने के पीछे उद्देश्य क्या है? समझ नहीं आता। वह सबसे मेहनती होता है और दिन-रात अपने काम में जुटा रहता है। उस पर वह अपने मालिक से मार भी खाता है। जब कोई इन्सान मूर्खालाप करता है या मूर्खतापूर्ण कार्य करता है, तब उसके सभी साथी उसे गधा कहकर सम्बोधित करते हैं। इसी तरह उसे उल्लू भी कह देते हैं।
           यहाँ कौवे की चर्चा भी करना चाहती हूँ। उसकी मूर्खता तो जगत में प्रसिद्ध है। कोयल जैसा चालक पक्षी उसे बहुत सरलता से मूर्ख बना लेता है। कोयल कामचोर होती है, अपना घोंसला तक नहीं बनाती। जब बच्चों के जन्म का समय आता है, तो अपने अण्डे वह कहाँ रखे? यह समस्या उसके सामने आती है। कौवे और कोयल दोनों का रंग एक ही होता है। इसलिए कोयल अपने अण्डे कौवे के घौंसले में रख देती है। कौवा कोयल की चाल से अनजान उसके अण्डों की देखभाल करता है। बच्चों के निकलने पर भी एक जैसा होने के कारण भी कौवा कोयल के बच्चों को नहीं पहचान सकता। वर्षाकाल आने पर जब कोयल के बच्चे मधुर स्वर में गाते हैं, तब उनकी पहचान हो पाती है। बताइए इस कौवे से बड़ा मूर्ख और कौन हो सकता है?
          इस कौवे को प्रायः लोग उसकी कर्कश आवाज के लिए पसन्द नहीं करते। जब किसी के घर की मुँडेर पर वह काँव-काँव करता है, तब वे उसे कंकर मारकर उड़ा देते हैं। परन्तु कभी किसी प्रिय के आने की उम्मीद हो तो उसे रोटी डालते हैं। इस प्रकार सदा तिरस्कृत किए जाने वाले कौवे को भी मनुष्य आपनी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए प्रेमपूर्वक निमन्त्रण देता है। पितृपक्ष में अपने पितरों को भोजन पहुँचाने के लिए उसकी प्रतीक्षा करता है। बताइए ऐसे महामूर्ख को अपनी जरूरत के समय मनुष्य किस प्रकार आदर देता है, जबकि वैसे सदा उसे मारता रहता है।     
           कहने का तात्पर्य यह है कि केवल अपने विषय में ही सोचना उचित नहीं है। 'स्व' से ऊपर उठकर 'पर' की ओर भी ध्यान देना चाहिए। यदि सभी लोग अपने ही विषय में सोचते रहेंगे तो समाज में सभी लोग संकुचित प्रवृत्ति के हो जाएँगे। कोई किसी के बारे में नहीं सोचेगा तो समाज का पतन अवश्यम्भावी होगा। जिस समाज में हम रहते हैं, वहाँ कोई किसी की परवाह नहीं करेगा। यह स्थिति बहुत घातक हो जाएगी। इससे असामाजिक तत्त्वों को बढ़ावा मिलेगा। सबके अलग-अलग रहने से उनकी चाँदी हो जाएगी।
           समाज तो आदान-प्रदान से चलता है। कुछ हम समाज से लेते हैं और कुछ समाज हमें देता है। आपसी प्यार-मोहब्बत और भाईचारा होने पर ही समाज उन्नति करता है। इस प्रकार सामाजिक ताना-बाना या सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है। एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य के काम आता है। तभी परोपकार, सहृदयता, मानवता, भाईचारा आदि सद् गुणों का प्रसार-प्रचार होता है। अपने हृदय को विशाल बनाने से सामने वाले के हृदय पर भी उसका सुप्रभाव पड़ता है।
            मनुष्य को अपने तुच्छ स्वार्थ का त्याग करना चाहिए। तेरे या मेरे की संकुचित प्रवृत्ति को छोड़कर मनुष्य को अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए, जिसमें संसार के सभी जीवों के लिए दया, ममता की भावना बनी रहे।
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