बुधवार, 17 अप्रैल 2019

नया पाने की कामना

ऐसी कोई भी वस्तु जो हमारे पास नहीं होती, उसे हम बड़ी हसरत से देखते हैं और सोचते हैं कि काश फ़लाँ वस्तु हमारे पास भी होती। तब हम कितने भाग्यशाली होते। जब हम उसे देख लेते हैं तो बड़ी बेसब्री से उसे पाने की स्वयं से जिद करने लगते हैं। फिर जब यत्नपूर्वक उसे  प्राप्त कर लेते हैं, तब हमारे लिए उसकी उपादेयता ही नहीं रह जाती। उस समय वह वस्तु हमें बहुत साधारण-सी लगने लगती है।
          इसे इन्सानी फितरत ही कह सकते हैं कि जिस वस्तु को पाने के लिए वह मरा जा रहा होता है, उसे अपने पास किसी भी तरह पा लेने पर वह उसके लिए वही वस्तु खास न होकर आम बन जाती है। यह भी कोई बड़ी बात नहीं है कि थोड़े ही दिनों के बाद वही वस्तु मनुष्य की नजर से उतर जाए और वह उसकी ओर देखे ही नहीं। तब वह वस्तु घर के स्टोर रूम की शोभा बढ़ाने लगे। यह भी हो सकता है कि घर में आने-जाने वाले लोगों को वही वस्तु बहुत ही सुन्दर एवं विशेष प्रतीत हो, वे उसकी प्रशंसा भी करें।
          हम घर में बच्चों के व्यवहार को देखते हैं। वे जिस खिलौने को किसी दूसरे के पास या बाजार में देखते हैं, उसे खरीदने की जिद ठान लेते हैं। उनके पास घर पर चाहे कितने ही खिलौने क्यों न पड़े हों। जब तक वे उसे खरीद न लें तब तक उनका रोना-धोना चलता रहता है। जब वे उसे खरीद लेते हैं तो बहुत प्रसन्न हो जाते हैं। उस खिलौने से दो-चार दिन खेलते हैं, फिर उससे उनका मन भर जाता है। उस खिलौने से बोर होकर वे उसे फैंक देते हैं। उसी खिलौने को माता-पिता पीछे छिपाकर रख देते हैं। कुछ समय बीत जाने पर उसे देते हैं, ताकि वह बच्चा फिर कुछ दिन उसके साथ खेल सके।
          मनोविज्ञान की दृष्टि से समझें तो यही कहा जा सकता है कि मनुष्य उन्हीं वस्तुओं के पीछे पागलों की तरह भागता रहता है, जो उसके पास नहीं होतीं। जब उन्हें खरीद लेता है या अपने वश में कर लेता है तो वे मानो उसकी बपौती हो जाती हैं। फिर उनसे उसका दिल बच्चे के खिलौने की तरह भर जाता है और वे उसकी नजर से उतर जाती हैं। उसके बाद वह किसी औऱ वस्तु के पीछे भागने लगता है। यह मृगतृष्णा का खेल मानवजीवन में अनवरत चलता रहता है।
          कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपनी इच्छित वस्तु को मनुष्य अथक परिश्रम करके भी नहीं प्राप्त कर सकता। अथवा वह वस्तु उसकी सामर्थ्य या पहुँच से बाहर होती है। उस वस्तु को न खरीद सकने के मलाल उसे सारी आयु सालता रहता है। फिर उस दुख को वह अपनी नियति मान लेता है और अपने भगय को कोसता हुआ चुप लगा जाता है।
          सारा जीवन मनुष्य इसी उठापटक में लगा रहता है। उसे कभी सन्तोष नहीं मिल पाता, वह बस भटकता ही रहता है। मनुष्य की इच्छाएँ असीम होती हैं जो उसे कभी चैन से नहीं बैठने देतीं। एक कामना की वह पूर्ति कर लेता है, तो दूसरी को पाने की इच्छा पूर्ण करने की लालसा उसे सताने लगती है। यह क्रम तभी थम सकता है जब वह आपनी चाहतों पर लगाम लगाना सीख जाए।
        यही काम मनुष्य के लिए सबसे कठिन होता है। उसके लिए स्वयं पर नियन्त्रण रखना आवश्यक होता है, पर वह यह शुभ कार्य कर नहीं पाता। मनुष्य चाहे तो अपने मन को वश में करके उसे जीत सकता है और सदा सुखी रह सकता है। नहीं तो मन के वश में होकर मनुष्य, उसके अनुसार चलकर सारा जीवन हैरान और परेशान रहकर व्यतीत कर सकता है। अब यह तो मनुष्य की अपनी इच्छाशक्ति पर ही निर्भर करता है।
           मनुष्य का मन बहुत ही चञ्चल होता है। वह न स्वयं स्थिर रहता है और न मनुष्य को ही चैन लेने देता है। वह सदा ही उसे नाच नचाता रहता है और मनुष्य भी मन के इशारों पर चक्करघिन्नी की तरह नाचता रहता है। इस सारे प्रसंग से मनुष्य बहुत ही प्रसन्न रहता है। उसे लगता है कि मन के अनुसार चलकर मानो वह दुनिया को जीत लेगा। उसे मनचाही मुरादें मिल जाएँगी और वह अपना जीवन सुख-शान्ति से व्यतीत कर लेगा।
         परन्तु होता इसके बिल्कुल विपरीत है। मनुष्य को कितनी भी नेमते मिल जाएँ, फिर भी उसका हाथ याचना करने के लिए ही उठता है। एक के बाद एक वस्तुओं का संग्रह करने की प्रवृत्ति मनुष्य के दुख का कारण बनती है। इसलिए जहाँ तक हो सके अपनी कामनाओं पर अंकुश लगाने का प्रयास करना चाहिए। इससे मनुष्य अपने जीवन में भटकाव की स्थिति से बच जाता है व अपने लिए सुख-शान्ति के द्वार खोल देता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

दिल जवान

कुछ लोगों के लिए कथित तौर पर आयु कोई मायने नहीं रखती। इसलिए वे स्वयं को सदा जवान मानते रहते हैं। उनका तकिया कलाम होता है,
   'उम्र बढ़ रही है तो क्या हुआ,
    दिल तो अभी जवान है।'
मन को चाहे कितना ही जवान क्यों न कहा जाए पर जब शरीर ही साथ नहीं देगा, तब तक दिल की जवानी किस काम आएगी? बढ़ती आयु के कारण जब चलने-फिरने में कठिनाई होने लगे, खाना खाने का मन न करे या हजम न हो, ऊँचा सुनने लगे, दाँतों के स्थान पर नकली दाँत आ जाएँ, आँखें कमजोर होने लगें पर उनकी दिल की यह जवानी बरकरार रहेगी। ऐसे मनुष्य को आम भाषा में केवल आत्ममुग्ध ही कहा जा सकता है जो जानते-बुझते हुए भी भ्रम में जीना चाहता है।
        साठ वर्ष की आयु पार होने पर यदि मनुष्य स्वयं को फुर्तीला और शक्तिशाली समझता है तो यह सर्वथा अनुचित होगा। वास्तव में बढ़ती आयु के साथ मनुष्य का शरीर भी ढलने लगता है। उसमें युवावस्था की तरह की चुस्ती और फुर्ती नहीं रह जाती। शरीर जब ढलान पर होता है, तब मनुष्य के शरीर की हड्डियाँ और जोड़ कमजोर होने लगते हैं।
         मन फिर भी कभी-कभी यह भ्रम बनाए रखना चाहता है कि ‘ये भी कोई काम है, इसे तो मैं चुटकी में कर लूँगा’। परन्तु सच्चाई बहुत जल्दी मनुष्य के सामने आ जाती है। वह चाहकर भी उस कार्य विशेष को सम्पन्न नहीं कर पाता। फिर अनावश्यक ही झेंप मिटाने के लिए बगलें झाँकने लगता है। इसलिए अपनी स्थिति और आयु को देखते हुए मनुष्य को स्वयं ही समय रहते सम्हल जाना चाहिए। इसी में बेहतरी कही जा सकती है।
          आयु बढ़ने यानी सीनियर सिटीजन होने पर कुछ बातों का ध्यान मनुष्य को रखना चाहिए। मनुष्य को धोखा तभी होता है जब उसका मन सोचता है कि ‘मैं कर लूँगा’ पर शरीर उस कार्य को करने से ‘चूक’ जाता है। उस समय परिणामस्वरूप एक्सीडेंट हो सकता हैं और शारीरिक क्षति भी हो सकती है। ये क्षति फ्रैक्चर से लेकर ‘हेड इंज्यूरी’ तक हो सकती है। कभी-कभी ये शारिरिक हानि जानलेवा भी साबित हो जाती है।
          सड़क पर चलते समय पैर यदि ऊँची-नीची जगह पड़ जाए तो मनुष्य गिरकर चोटिल हो सकता है। इसी प्रकार अपने घर में हो जाने वाली असावधानी भी जानलेवा साबित हो सकती है। उठने-बैठने में या चलते-फिरते समय हड़बड़ाहट के स्थान पर मनुष्य को धैर्यपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। घर हो या बाहर, मनुष्य को हर समय चौकन्ना रहना चाहिए। उसे सदा यही प्रयास करना चाहिए कि हर कार्य को सावधनी से और तसल्ली से सम्पन्न किया जाए।
          इसलिए प्रयास यही करना चाहिए कि पहले की तरह हड़बड़ी में काम करने की जो आदत थी उसे अब बदल ही दिया जाए। अनावश्यक जोश का प्रदर्शन करने से बचा जाए। इस अवस्था में सावधानी बरतना बहुत जरूरी है क्योंकि अब शरीर की शक्ति दिन-प्रतिदिन कम होने लगती है। छोटी-से-छोटी भूल के कारण लेने के देने पड़ सकते है।
         इस आयु में आने पर मनुष्य को अपने आहार-व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिए। सादा और सुपाच्य भोजन करना चाहिए। भोजन उतनी ही मात्रा में खाना चाहिए जो आसानी से पच जाए। शारीरिक गतिविधियाँ इस अवस्था में कम होने लगती हैं। इसलिए स्वाद के चक्कर में पढ़कर यदि मनुष्य जरूरत के अधिक भोजन करता है तो यह हानिकारक हो सकता है।
          सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि मनुष्य को सबके साथ एडजस्ट करके चलना चाहिए। दूसरों से एडजस्टमेंट की आशा नहीं रखनी चाहिए। अपने परिवार, भाई-बन्धुओं, पत्नी या पति, मित्र, पड़ोसी या समाज सबके साथ सौहार्द बनाकर रखने का प्रयास करना चाहिए। वृद्धावस्था भी प्रभु का ही वरदान है, इसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं। प्रभु की इस कृपा को यूँ ही व्यर्थ न जाने दें। इस अवस्था में स्वयं को डालने की आदत बनानी चाहिए। इसे बोझ समझकर सदा घर-परिवार, समाज और ईश्वर को कोसने से बचना चाहिए।
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सोमवार, 15 अप्रैल 2019

घर को पिंजरा न बनाएँ

पिंजरा चाहे लोहे का हो अथवा चाँदी का या सोने का ही क्यों न हो, पर पक्षी को सदा यही स्मरण करवाता रहता है कि तुम्हारे पंखों को बाँध दिया गया है। अब तुम चाहो तो भी उन्मुक्त गगन में अपनी इच्छा से नहीं उड़ सकते। इसका कारण है कि अब वह मालिक की दया का मोहताज है। उस पक्षी को नित्य कितने ही बढ़िया पकवान खिला दिए जाएँ, पर स्वतन्त्रता की कड़वी निबौरी उसे अधिक प्रिय लगती है। बेशक उसे बड़े पक्षियों से डरकर रहना पड़ता है, फिर भी पक्षी को उसी लुका-छिपी में आनन्द आता है।
          इसी प्रकार घर चाहे महल हो, फार्म हाऊस हो, फ्लैट हो या फिर टूटी-फूटी झोंपड़ी हो, परन्तु उस घर के लोग यदि परस्पर एक-दूसरे से मिल करके या बात करके राजी नहीं होते तो सब बेकार हो जाता है। घर के लोगों में परस्पर छत्तीस का आँकड़ा हो तो वे आपस में किसी दूसरे सदस्य की शक्ल देखकर बौरा जाते हैं। ऐसे हालात में उस घर के सभी ऐशो-आराम धूल के समान लगने लगते हैं। ऐसे घर में किसी का मन नहीं लगता, वहाँ से भाग जाने का मन करता है। उस घर में नित्य प्रति बनने वाले बढ़िया-से-बढ़िया पकवानों में भी किसी को कोई आनन्द नहीं आता।
           घर के सदस्यों में यदि प्यार-मुहब्बत हो तो छोटे-से घर में या टूटी-फूटी झोंपड़ी में भी सुख-चैन रहता है। वहाँ पकने वाली रूखी-सूखी रोटी में भी छप्पन भोग जैसा आनन्द मिल जाता है, जिसे सब एकसाथ मिल-बैठकर प्यार से खाते हैं। घर में चाहे कितने ही अभाव या परेशानियाँ क्यों न आ जाएँ, पर मिल-जुलकर हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। सबके सहयोग से उनसे निपटने में भी सुविधा होती है।
          घर में युवावर्ग को कठिन परिश्रम करना पड़ता है। इसलिए उन्हें सवेरे से शाम तक अपनी नौकरी में व्यस्त रहने पड़ता हैं। घर में बुजुर्ग और बच्चे ही पीछे रहते हैं। माता-पिता का यह दायित्व है कि वे बच्चों को ऐसे संस्कार दें, जिससे बच्चे बुजुर्गो की बात मानें। उनके पास जाकर बैठें, उनके साथ अपने स्कूल और साथियों की बातों को साझा करें। उनके पास बैठकर अपने स्कूल का होमवर्क करें, टी वी देखें और कुछ इन्डोर खेल खेलें। इस तरह करने से बुजुर्गो का समय कट जाता है और उन्हें अकेलेपन का अहसास नहीं होता। बच्चों का दिन भी अच्छे से व्यतीत हो जाता है और वे बोर नहीं होते।
             पेट भरने के लिए समय पर भोजन मिल जाना ही वृद्धों के लिए पर्याप्त नहीं होता, उन्हें यह अहसास करवाना भी आवश्यक होता है कि वे परिवार पर बोझ नहीं हैं। उनकी उनके बच्चों को बहुत आवश्यकता है। आयु बढ़ने के कारण शरीर के शक्तिहीन हो जाने के कारण वे कोई कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। इसलिए समय बिताने की समस्या उन्हें सदा ही परेशान करती रहती है। वे प्रतीक्षा करते रहते हैं कि कब बच्चे स्कूल से आएँ और घर में चहल-पहल हो जाए। अपने अकेलेपन से घबराए हुए, बच्चों कर घर आने पर वे बहुत सहज अनुभव करते हैं।
          यह बात बहुत गलत है और इसे असभ्यता की श्रेणी में भी रखा जा सकता है कि घर में बैठे बड़े-बुजुर्ग बच्चों को बुलाएँ और वे उनके पास आने से मना कर दें या बहुत ही बेरुखी से उन्हें उत्तर दें। बुजुर्ग सारा दिन घर पर अकेले रहते हैं। यदि घर कर बच्चे भी अपने दादा-दादी कर पास नहीं जाएँगे तो वे निराश और हताश हो जाएँगे। वृद्धावस्था में यह अकेलापन किसी अभिशाप से कम नहीं होता। इसी अकेलेपन से घबराकर कुछ लोग आत्महत्या जैसा घृणिय कार्य तक कर बैठते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लोग अवसाद के शिकार भी हो जाते है।
         घर में रहने वाले बड़ों के मित्र या बन्धु-बान्धव उन्हें मिलने के लिए आएँगे। यदि उनकी आवभगत बच्चे नहीं करेंगे तो यह उनके संस्कारों को दर्शाएगा। इससे यह भी ज्ञात होगा कि वे बच्चे कितने हृदयहीन बनते जा रहे हैं। उन्हें बड़ों का मान-सम्मान करना नहीं आता।
          एक और बात जो बहुत महत्त्वपूर्ण है वह कहना चाहती हूँ। दिन के समय घर के सभी सदस्य अपनी व्यस्ताओं के कारण एकसाथ बैठकर भोजन नहीं कर सकते, परन्तु रात के समय उन सबको मिलकर भोजन करना चाहिए। इससे घर के सदस्यों में प्यार बना रहता है। यदि किसी सदस्य की कोई समस्या है तो वहाँ बैठे हुए उस पर भी विचार किया जा सकता है।
          घर को घर बनाने का प्रयास करना चाहिए। उसे पिंजरा या जेल बनने से बचना चाहिए। आज यदि बच्चों को संस्कारी न बनाया गया तो कल वे जिद्दी, मुँहजोर और चिड़चिड़े हो जाएँगे। इसका प्रभाव बुजुर्गों के साथ-साथ माता-पिता पर भी पड़ता है। घर के सभी सदस्यों का यह परम दायित्व है कि वे परस्पर मिलजुलकर रहें, भाईचारा बनाए रखें। इस प्रकार सामञ्जस्य होने की स्थापना में घर के किसी भी सदस्य को घुटन महसूस नहीं होगी। हँसते-खेलते जीवन के रास्ते काटने में सबको सुविधा होगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 14 अप्रैल 2019

नकारात्मक विचार से अवसाद

मनुष्य को मानसिक रोगी बनाने में उसके हृदय में बस जाने वाले नकारात्मक विचार बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। यदि मनुष्य इन नकारात्मक विचारों को समय-समय पर अपने अन्तस् से बाहर उलीचकर नहीं फेंकेगा तो ये विचार उसे उद्विग्न बनाते रहेंगे। ये उसके दिन-रात का चैन नष्ट कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति से सभी बन्धु-बान्धव परेशान रहते हैं। धीरे-धीरे वे उससे कन्नी काटने लगते हैं। इस तरह वह और भी परेशानी में घिर जाता है। उसे कुछ भी नहीं सूझता।
          फिर एक दिन ऐसा आता है कि इस संसार में वह व्यक्ति निपट अकेला हो जाता है। कोई उसके पास खड़ा होना भी पसन्द नहीं करता। यह स्थिति उसके लिए बहुत ही घातक सिद्ध होती है। ऐसे हालात बन जाने पर निश्चित ही एक दिन वह मनुष्य मानसिक रोगी बन जाता है। उस समय उसे न चाहते हुए भी डॉक्टरों के पास चक्कर लगाने पड़ते हैं। अपना अमूल्य समय और परिश्रम से कमाया हुआ धन भी अनावश्यक ही व्यय करना पड़ता है।
            नकारात्मक विचार कौन से होते हैं? इन पर विचार करते हैं। ये विचार हैं- ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा, असुरक्षा की भावना आदि। इन्हें मनुष्य अपने अन्तस् में दिनों, महीनों और सालों तक खजाने की तरह दबाकर रखता है। समय-समय पर इनका पिष्टपेषण करता रहता है। इसलिए एक छोटी-सी बात जिसे अनदेखा किया जा सकता था, समय बीतते वह पहाड़ जितनी बड़ी बन जाती है। वही बेकार या महत्त्वहीन बात मनुष्य की अशान्ति का मूल कारण बन जाती है।
          हमारे शरीर का ढाँचा ईश्वर ने ऐसा बनाया है, जिसमें अनावश्यक चीजों को बाहर निकलकर फेंकना होता है। अन्यथा वे बीमारी का कारण बन जाते हैं। जैसे खाना जो हम मनुष्य खाते हैं, चौबीस घण्टे के अन्दर वह शरीर से मल के रूप में बाहर निकल जाना चाहिए। अन्यथा कब्ज की बीमारी हो जाती है, पेट में गैस बनने लगती है, वह फूलने लगता है, बवासीर जैसी बीमारियाँ परेशान करने लगती हैं। इनके कारण मनुष्य बेचैन रहता है। तब मनुष्य को इलाज करवाना पड़ता है। फिर उसे दवाइयाँ खानी पड़ती हैं। तब कहीं जाकर उसे इस कष्ट से मुक्ति मिलती है।
           इसी प्रकार जो पानी हम मनुष्य पीते हैं, वह चार घण्टे के अन्दर शरीर से मूत्र के रूप में बाहर निकल जाना चाहिए। यदि दुर्भग्यवश वह किसी कारण से रुक जाए तो उसे निकलने के लिए डॉक्टर के पास जाना पड़ता है। यूरिन बैग लगवाना पड़ता है। समस्या अधिक बढ़ जाए तो ऑपरेशन तक करवाना पड़ जाता है। मूत्र के रुक जाने से मनुष्य तड़पता है। उसका उठना-बैठना मुहाल हो जाता है।
        ईश्वर ने हर क्षण-प्रतिक्षण मनुष्य के लिए श्वास लेने का प्रावधान किया है। जो साँस हम मनुष्य लेते हैं, वह कुछ सेकेण्ड में शरीर से बाहर निकल जानी चाहिए। यदि वह साँस किसी कारण से बाहर न निकल पाए तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। तब इस शरीर को कोई भी प्रियजन अपने घर नहीं रख सकता। इस शरीर से शीघ्र ही दुर्गन्ध आने लगती है। इससे बीमारियाँ होने का डर रहता है। इसलिए इस शरीर को बिना समय गंवाए अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है।
          इन उदाहरणों से एक ही बात समझ में आती है कि मनुष्य शरीर में रहने वाले अनावश्यक पदार्थों का यथासमय इससे बाहर निकल जाना ही लाभप्रद होता है। यदि ये शरीर से नहीं निकलेंगे तो परेशानी का कारण बन जाते हैं। उन्हें निकलवाने के लिए मनुष्य को अपने धन और समय को व्यय करना पड़ता है। इसलिए इनका प्राकृतिक उपचार यही होता है कि अपने आहार-विहार तथा स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाए। समय-समय पर स्वयं विचार करते रहना चाहिए और योग्य व्यक्ति से परामर्श लेते रहना चाहिए।
            मनुष्य को आत्म मन्थन करते रहना चाहिए। इससे उसके अन्तस् में नकारात्मक विचार अपना घर नहीं बना सकते। यदि किसी के प्रति कोई दुर्भावना मन में आने लगती है तो वह तत्क्षण दूर हो जाती है। इस प्रकार विचारों पर विवेक का अंकुश बना रहता है। जब नकारात्मक विचारों का मन में उदय ही नहीं हो सकेगा तो मनुष्य अवसाद की स्थिति से बच जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 13 अप्रैल 2019

सुख की चाह

सुख की कामना हर मनुष्य करता है। जीवन की भागदौड़ उसे बिल्कुल मशीन की तरह बना देती है। वह इतना परेशान रहता है कि हर समय बेचैनी उसे मथती रहती है। चाहकर भी जीवन में आए हुए सुख के पलों का वह आनन्द नहीं ले पाता। सुख के पल तो वैसे भी रेत में पड़ी मछली की तरह हाथ से फिसल जाते हैं  इसलिए उसे बस यही लगता है कि सुख उससे कन्नी काटकर मुँह मोड़ लेता है। उसके हिस्से में तो विधाता ने बस कष्ट और परेशानियाँ ही लिख दी हैं।
         यद्यपि ऐसा होता नहीं है। हर मनुष्य के पास सुख और दुख दोनों ही अपने समयानुसार आते हैं। यानी 'चक्रनेमि क्रम' अर्थात जैसे पहिए की तीलियाँ स्वभावतः ऊपर-नीचे होती रहती हैं, उसी प्रकार सुख और दुख मनुष्य के जीवन में आते हैं। मनुष्य के पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अपने समय से ही सुख और दुख उसके पास आते हैं। आम भाषा में हम कह देते हैं कि दुख अनचाहे मेहमान की तरह अचानक प्रकट हो जाते हैं।
          इन सब परिस्थितियों के चलते सुखी कौन रह सकता है? इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है। इस विषय पर किसी कवि ने बड़े सारगर्भित शब्दों में कहा है-
ये च मूढतमा: लोके ये च बुद्धे: परं गता:।
ते एव सुखं धार्यन्ते मध्यमा: क्लिश्यते जन:।।
अर्थात इस दुनिया में केवल दो प्रकार के लोग सुखी होते हैं। एक बुद्धिहीन हैं और दूसरे बुद्धिमान। इन दोनों के बीच के सभी लोग बहुत ही पीड़ित होते हैं।
          गहनता से मनन करने पर यही समझ आता है कि बुद्धिहीन लोग समस्या को समझ नहीं पाते या समझना ही नहीं चाहते। इसलिए यह सब उनकी समझ से परे का विषय होता है। वे इसकी चिन्ता भी नहीं करते। वे यह कहकर मस्त रहते हैं कि जो होगा देखा जाएगा। देखा जाएगा कह देना बहुत सरल होता है परन्तु जब उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है तो उस समय नानी याद आने लगती है। सब झेलना बहुत कठिन हो जाता है। इसलिए वे सदा प्रसन्न रहते हैं। किसी भी स्थिति में टेंशन न लेकर हँसकर टाल देने वाले ये महानुभाव हर हाल में मस्त रहते हैं।
         दूसरी ओर बुद्धिमान हर समस्या का हल ढूंढ निकालते हैं। जब तक उन्हें कोई उपयुक्त हाल न मिल जाए वे चैन से नहीं बैठते। वे किसी भी समस्या को हल्के में नहीं लेते बल्कि उन समस्याओं से जूझते हुए उनसे पार पा लेते हैं। इस प्रकार वे सुख के साधन तक पहुँच जाते हैं। दूसरी बात यह है कि वे जानते हैं कि कोई भी कष्ट-परेशानी स्थाई नहीं होती। जैसे वह आती है, अपना समय पूर्ण हो जाने पर चली जाती है। इसलिए वे न तो घबराते हैं और न ही हार मानते हैं बल्कि डटकर उन स्थितियों का मुकाबला करते हैं। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश आदि द्वन्द्वों को सहजता से सहन करते हैं। अपने उद्देश्यों में सफल होकर उनका सुख लेते हैं।
          इन दोनों प्रकार के लोगों के मध्य अन्य शेष लोग समस्याओं को जानते-समझते तो हैं परन्तु उनका हल निकाल पाना उनके बूते से बाहर होता है। इसलिए अपनी समस्याओं में सदा घिरे रहते हैं। चाहकर भी उस मकड़जाल से बाहर नहीं निकल पाते। अतः सारा जीवन परेशान रहते हैं। ये लोग ऐसे महानुभावों की तलाश करते रहते हैं जो उन्हें मुक्ति दिला सकें। इसी चक्कर में उनमें से कुछ लोग गलत हाथों में पड़कर कुमार्गगामी भी हो जाते हैं। कुछ लोग तथाकथित धर्मगुरुओं, तान्त्रिकों या मन्त्रिकों के चंगुल में फँस जाते हैं।
          कवि इस श्लोक के माध्यम से संदेश देना चाहता है कि समयानुसार सभी स्थितियाँ जीवन में आती रहेंगी। उनसे डरकर परेशान नहीं होना चाहिए बल्कि उनका बहादुरी से सामना करके विद्वानों की तरह सुखी रहना चाहिए न कि बुद्धिहीनों की तरह लापरवाह बनना चाहिए।
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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

दुर्गाष्टमी

नवरात्र के इस पावन पर्व में हम माँ दुर्गा के नौ रूपों - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कन्धमाता, कात्यायनी  कालरात्री,  महागौरी और सिद्धिदात्री की क्रमश: आराधना करते हैं।
         हाँ, यहाँ तान्त्रिकों की तन्त्र साधना के विषय में चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है जो इन दिनों श्मशान में जाकर साधना करते हैं और फिर अपनी मनचाही सिद्धियाँ प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
        प्रश्न यह उठता है कि अपने जीवन में इन रूपों को ढालने की हमने कभी कोशिश की है क्या? मात्र नौ दिन माँ की पूजा करके हम अपने सभी कर्त्तव्यों से मुक्त हो पाएँगे क्या? दुष्टों का दलन करने वाली माँ के इस बलिदान को क्या हम यूँ ही व्यर्थ में गंवा देंगे?
          इन प्रश्नों का सीधा-सा उत्तर है नहीं। केवल कथन मात्र से समस्याओं का अन्त नहीं होगा। जब तक हम माँ के इन रूपों को अपने में आत्मसात नहीं करेंगे अथवा उस पर आचरण नहीं करेंगे तब तक सब अधूरा ही रहेगा।
          माँ दुर्गा ने संसार की भलाई करने के लिए कठोर कदम उठाया था। अपना सुख-चैन सब छोड़कर उसने उन असुरों से युद्ध करने की ठानी थी। उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त करके माँ ने हम सबके समक्ष एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया था। माँ भगवती ने जनसाधारण की भलाई के लिए दुष्टों का संहार करके हमें चमत्कृत किया हैं।
          उस सबके विषय में बस किस्से-कहानियों की तरह पढ़कर हम चटखारे नहीं ले सकते। उसकी शूरवीरता को हमें अपने अंतस में अनुभव करना होगा। उचित समय आने पर उसी तरह आचरण भी करना होगा।
          आज मैं अपनी सभी बहनों से आग्रह करना चाहती हूँ एक माँ के करुणा, कोमलता, दयालुता आदि सभी गुणों के साथ-साथ माँ दुर्गा के वीरता और दुष्टदलन वाले गुणों को आगे बढ़कर अपनाएँ। इस प्रकार करके हर प्रकार के अत्याचार का मुँहतोड़ जवाब देने की सामर्थ्य माँ स्वयं ही हम सबको देगी।
         माँ दुर्गा के त्रिशूल, शंख, तलवार, धनुष-बाण, चक्र, गदा आदि अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग करते समय साम, दाम, दण्ड और भेद का सहारा लेने में किञ्चित भी हिचकिचाना नहीं है।
         हमारे भारत देश में एक ओर जहाँ नवरात्र आदि धर्मिक उत्सवों के समय कन्याओं की देवी के रूप में पूजा की जाती है, वहीं दूसरी ओर जन्म से पूर्व ही कन्या भ्रूण की हत्या का दी जाती है। बहुत दुर्भाग्य की बात है कि अपने जीवन में हम दोहरा चरित्र जीते हैं। एक तरफ उसके चरणों का प्रक्षालन करके, उसे टीका लगाकर, उसे उपहार देकर, उसे भोजन करवाकर हम स्वयं को धन्य मानते हैं और दूसरी तरफ उसी कन्या से इतनी घृणा करते हैं कि उसके जन्म पर ही पाबन्दी लगाने के लिए उद्यत हो जाते हैं। वाह रे इन्सान! कैसी है तेरी फितरत?
         हमें स्वयं ही अपने मनोबल को ऊपर उठाते हुए स्वेच्छा से यह प्रण लेना होगा कि माँ दुर्गा की तरह बुराई व अत्याचार के कारण को जड़ से उखाड़कर फैंकना है। तभी नवरात्र को मनाने की सार्थकता है अन्यथा अन्य रस्मों अथवा उत्सवों की तरह यह पूजन भी मात्र एक दिखावे की रस्म बनकर निरर्थक रह जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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