रविवार, 28 जुलाई 2019

अन्न ब्रह्म

अन्न को भरतीय संस्कार में ब्रह्म कहते हैं। 'अन्नं वै ब्रह्म' ऐसा कहकर इसके महत्त्व को प्रतिपादित किया है। वैसे भी हमारे बड़े-बजुर्ग कहा करते थे-  'अन्न भगवान होता है। इसे झूठा नहीं छोड़ते। यदि झूठा छोड़ो तो भगवान जी नाराज होते हैं।'
        उपनिषद कहती है- 'अन्न प्राण हैं। इसका अपमान न करो। अन्न से अन्न को बढ़ाओ।'
       यदि अन्न नष्ट करेंगे तो प्राणों का संकट हो जाएगा। प्राण नहीं रहेंगे तो फिर जीवन समाप्त हो जाएगा। यदि हम स्वार्थी बन जाएँ तो शायद अन्न को बरबाद होने से बचा सकते हैं। जो अन्न को नष्ट करता है, ईश्वर उसे क्षमा नहीं करता अपितु नष्ट कर देता है। वर्षा न होने पर अकाल पड़ना इसी अन्न की बरबादी का कारण होता है। ईश्वर हमें समझाना चाहता है, पर हम इतने नासमझ हैं, जो अनजान बन जाते हैं। अतः कष्ट सहन करते हैं।
          मुट्ठी भर अन्न के दानों से न जाने कितने क्विंटल अनाज पैदा होता है। जिस अन्न की हम बरबादी करते हैं वही दूसरों को खाने के लिए नहीं मिलता।
        यह सत्य है कि इस भोजन को पाने के लिए मनुष्य सारे कर्म-कुकर्म करता है, सच-झूठ करता है। वह दिन-रात अथक परिश्रम करके दो जून का खाना जुटाता है। हमारे देश में क्या विश्व में भी बहुत से लोग ऐसे भाग्यहीन लोग हैं जो जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी अपने परिवार के लिए दो समय का भोजन नहीं जुटा पाते। इनसे भी अधिक दुर्भाग्यशाली वे लोग हैं जिन्हें कई-कई दिन तक भोजन नसीब नहीं होता। वे और उनके बच्चे कुपोषण का शिकार होकर अनेक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं और अपने प्राणों तक से हाथ धो बैठते हैं। शायद हम में से बहुत से लोगों ने बच्चों को कचरे में से खाने के पदार्थ ढूँढकर या बाहर फैंके हुए अन्न को खाते हुए देखा होगा जो बड़े शर्म की बात है। यदि इन लोगों के बारे में हम एक बार भी सोच लें, तो अन्न की बरबादी नहीं कर सकेंगे।
      शादियों, पार्टियों एवं होटलों में जहाँ जाते हैं और वहाँ भोजन की थाली में झूठा छोड़ने को हम अपनी शान समझते हैं। कैसी सोच है हमारी कि घर में खाने का नुकसान नहीं करना क्योंकि वह अपने पैसे से खरीदा हुआ होता है। पर घर के बाहर जाते ही वही अन्न हमारी तथाकथित उच्च सोसाइटी के लिए प्रदर्शन का कारण बन जाता है। हम उस समय इस बात को भूल जाते हैं कि वहाँ भी किसी के गाढ़े पसीने की कमाई खर्च की गई है।
        यदि ईश्वर ने दौलत दी है तो कभी-कभार अनाथालयों में जाकर उन यतीम बच्चों को पेटभर भोजन खिलाइए। जिन लोगों को कई-कई दिन तक अन्न का एक भी दाना नसीब नहीं होता उनके लिए लंगर लगवा दीजिए। उनके पेट भरेंगे तो उनके मन से निकली दुआएँ आपको मिलेंगी। इससे लोक व परलोक दोनों सुधरेंगे। दान देने या सामाजिक दायित्व निभा पाने का सुख व संतोष भी मिलेगा जिसको कभी भी दुनियावी सिक्कों से नहीं तौल सकते।
         आजकल कुछ समाजसेवी ऐसा कर रहे हैं कि शादी-पार्टी आदि में बचे भोजन को खरीद कर जरूरतमन्दों को बाँट देते हैं।
अपने घर में हम सब कर सकते हैं कि घर में पार्टी आदि होने पर बचे हुए भोजन को किसी अनाथालय में जाकर दे आएँ या उन्हें बुलाकर दे दें। इसके अतिरिक्त अपने आसपास रहने वाले श्रमिकों या गरीबों को वह भोजन दे दें। इससे अन्न को बरबाद होने से हम बचा सकते हैं और उन लोगों को भी स्वादिष्ट भोजन खाने को मिल सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

अच्छा स्वास्थ्य

अच्छा स्वास्थ्य हर मनुष्य चाहता है। यह ईश्वर का वरदान है। इस शरीर का नीरोग रहना बहुत आवश्यक है। हमें महाकवि कालिदास ने समझाते हुए कहा है-
        'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'
अर्थात् धर्म का पालन करने के लिए साधन शरीर है।
         हम अपने धर्म या कर्त्तव्यों का पालन स्वस्थ रहकर ही कर सकते हैं। यदि मनुष्य अस्वस्थ हो जाएगा, तो उसे हर कार्य के लिए दूसरों का मुँह देखना पड़ता है। जब मनुष्य दूसरों के अधीन बन जाएगा, तो अपने दायित्वों का निर्वहण नहीं कर सकेगा। यह पीड़ा उसे और अधिक रोगी बना देती है।
         हम सभी लोग भली-भाँति अपने घर-परिवार के दायित्वों को पूरा करने के लिए अथक परिश्रम करते हैं। दिन-रात एक कर देते हैं। उसके लिए जो साधन रूपी ईश्वर ने हमें दिया है उसकी हम परवाह नहीं करते। आप शायद कहेंगे मैं गलत कह रही हूँ। हम तो बढ़िया खाना खाते हैं, अच्छे मंहगे मौसमी फल खाते हैं और मेवे भी खाते हैं। जब अस्वस्थ होते हैं, तो डाक्टर के पास जाकर इलाज भी करवाते हैं।
        फिर भी मैं यही कहूँगी कि हम अपना ध्यान नहीं रखते। एक नजर जरा अपनी दिनचर्या पर डालिए। हम प्रातःकाल उठने के पश्चात और रात सोने तक अपने घर और दफ्तर के कार्यों को निपटाने की धुन में लगे रहते हैं। न हमें खाने की चिन्ता रहती है और न ही समय की। ऐसे में हम समय-असमय खाना खाते हैं और कभी-कभी कार्य की अधिकता होने पर खाना भी नहीं खाते। दिनभर चाय-कॉफी पीकर गुजार देते हैं। रात को देर तक जाग-जाग कर काम करते हैं जिससे पूरी नींद भी नहीं ले पाते।
         हम समय पर खाना नहीं खाते और अगर खाते हैं, तो उल्टा-सीधा खाना जल्दी में ठूस कर भागने की करते हैं। न अपनी पूरी नींद सो पाते हैं तो फिर बताइए इस बेचारे स्वास्थ्य का क्या होगा?
       हमारी इस प्रकार की अव्यवस्थित दैनिकचर्या से  शरीर का चक्र डांवाडोल होने लगता है। शरीर में गैस बनने लगती है, इससे उल्टी भी हो सकती है, दिन-प्रतिदिन शरीर कमजोर होने लगता है व हम थके हुए रहते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कई रोग शरीर में घर बनाने लगते हैं। कभी-कभी काम के इस प्रेशर से ब्लडप्रेशर की समस्या हो जाती है। सबसे बढ़कर दिल का दौरा तक पड़ जाता है। फिर कवायद शुरू हो जाती है डाक्टरों के पास जाने की। उधर काम का प्रेशर और इधर डाक्टरों का चक्कर। इन दोनों के बीच में मनुष्य पिसता रहता है।  
         एक मोटर का रखरखाव यदि ठीक से न किया जाए या बिना आराम दिए उसकी क्षमता से अधिक काम उससे लिया जाए, तो वह भी बिगड़ जाती है। वह ठीक से काम करती रहे, इसके लिए उसमें ग्रीस आदि डाली जाती है और कुछ समय चलाने के बाद उसे आराम भी दिया जाता है ताकि वह लम्बे समय तक चलती रहे।
         गृहिणियाँ तो लापरवाही के मामले में बहुत आगे हैं। वे अपने पति व बच्चों के आगे सोच नहीं पातीं। प्रायः महिलाएँ अपने हिस्सा भी उन्हें दे देती हैं। चौबीसों घंटे घर-बाहर के कार्यों को समेटते हुए उन्हें अपने बारे में सोचने का समय नहीं मिलता। इससे भी अधिक जब तक बिस्तर पर पड़ जाने की नौबत न आ जाए तब तक वे अपनी बीमारियों को अनदेखा करती रहती हैं। जब वे बिस्तर पकड़ लेती हैं, तब घर वालों को पता चलता है कि उनकी हालत कैसी है?
         बच्चे जो हर घर की शोभा हैं उनका खानपान सबसे अधिक कष्टदायी है। वे मोबाइल व कंप्यूटर आदि से खेलने के कारण, शारीरिक खेलों से दूर होते जा रहे हैं। आज जंकफूड और शीतल पेयों के कारण बच्चे अल्पायु में ही मोटापा, शूगर, बीपी, आँख के रोग आदि बिमारियों का शिकार हो रहे हैं। उन्हें बचाने की बहुत आवश्यकता है।
          पुरुष हो या स्त्री दोनों का स्वस्थ रहना परिवार के लिए आवश्यक होता है। एक भी रोगी हो जाए तो घर अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसलिए घर के हर सदस्य का आहार-विहार सन्तुलित होना चाहिए ताकि स्वस्थ रहकर वह सभी कार्यो को सम्पादित किया जा सके।
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गुरुवार, 25 जुलाई 2019

सत्य का व्यवहार

इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि हम सब लोग असत्य या झूठ का व्यवहार करते हैं। इसके सहारे अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं। यह चौंकाने वाली बात नहीं है, बल्कि इसके पीछे के कारणों को ढूँढकर उनको हमें ही दूर करना होता है।
      अपने घर-परिवार में माता-पिता बच्चों से झूठ बोलते हैं और बच्चे माता-पिता से। पति अपनी पत्नी से झूठ बोलता है और पत्नी अपने पति से। मित्र अपने मित्र से झूठ बोलता रहता है। बच्चे स्कूल में अपने अध्यापकों से और घर में माता-पिता से झूठ बोलने में अपनी शान समझते हैं। बॉस या मालिक अपने अधीनस्थों से झूठ बोलते हैं और उसी तरह अधीनस्थ कर्मचारी भी अपने मालिक से। प्रायः धर्मगुरु अपने अनुयायियों से झूठ कहते हैं। व्यापारी, राजनेता आदि सभी इस असत्य के व्यापार में संलग्न हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी लोग असत्य के व्यवहार में दक्षता या योग्यता प्राप्त करना चाहते हैं।
         सभी जानते हैं कि असत्य बोलना अविश्वास का मूल है। इससे मन अपवित्र होता है। स्वयं को ईश्वर का सच्चा भक्त कहने वाले को तो कदापि असत्य भाषण नहीं करना चाहिए।
        इस असत्य के व्यवहार के विषय में गहराई से सोचने की आवश्यकता है। हम सब लोग सोचकर बहुत ही प्रसन्न होते हैं कि फलाँ व्यक्ति को हमने मूर्ख या उल्लू बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया। परन्तु वास्तव में उसकी अपनी हानि होती है या नहीं पर उसके चारित्रिक पतन की शुरूआत अवश्य हो जाती है। असत्य भाषण करने से मनुष्य का कल्याण उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे आँधी आने से बड़े-बड़े वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। 'योगशास्त्र' का कहना है-
असत्यवचनात् वैरविषादाप्रत्ययावय:।
प्रादु:षन्ति न के दोषा: कुपथ्याद्व्याधयो यथा॥
अर्थात् कुपथ्य का सेवन करने से व्याधियाँ या रोग उत्पन्न होते हैं। असत्य बोलने से वैर-विषाद और अविश्वास आदि कौन से दोष हैं, जो उत्पन्न नहीं होते? अर्थात् सभी दोष मनुष्य में आ जाते हैं।
     'सत्यमेव जयते नानृतम्' कहकर हमारे ऋषियों ने हमें समझाया है कि अन्तत: सत्य की ही विजय होती है झूठ की नहीं। चाहे सात परदों में सत्य को छुपा लो फिर भी वह कस्तूरी की तरह अपनी सुगन्ध बिखेरता हुआ मुस्कुराता हुआ हमारे समक्ष प्रकट हो जाता है। इसके विपरीत असत्य रूपी हींग को कितना ही मुल्लमा चढ़ा कर रख लें वह अपनी दुर्गन्ध छोड़ ही देता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि चाशनी में डूबा हुआ असत्य भी एक दिन सबके समक्ष प्रकट हो ही जाता है।
         सत्य खरे सोने की तरह होता है, जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती। असत्य को हम चाहे कितना भी गोल्ड प्लेटेड कर लें समय आने पर अपनी चमक खो देता है। तब फिर हम नकली वस्तुओं के पीछे क्यों भागें? खरा सोना ही खरीदकर अपनी पूँजी को बढ़ाने का प्रयत्न क्यों न किया जाएगा?
       असत्यवादी की जब पोल खुलती है, तब उसके सामने मृत्यु के समान कष्टदायी स्थितयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। यह सबसे बड़ा अधर्म है, जो जगत के पिता परमेश्वर को बिल्कुल पसंद नहीं है। 'वृहन्नारद पुराण' का मत है-
     असत्यनिरतश्चैव ब्रह्म हा परिकीर्तित:।
अर्थात् असत्य में लगा हुआ व्यक्ति ब्रह्म का हत्यारा कहलाता है।
       वाल्मीकि रामायण में इस विषय में कहा गया है-
      असत्य भाषी व्यक्ति से लोग
     उसी प्रकार डरते हैं जैसे साँप से।
        अपनी सुविधा या आदत के कारण चाहे बच्चा हो या कोई बड़ा व्यक्ति, किसी के भी झूठ की सराहना नहीं की जा सकती। यह भी एक ऐसा रोग है, जिससे छुटकारा पाना कठिन होता है। जिसने इस शत्रु को अपने वश में कर लिया वह संयमी महान् बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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