बुधवार, 21 अगस्त 2019

बेटी को आत्मनिर्भर बनाइए

प्रत्येक माता-पिता का यह नैतिक दायित्व होता है कि वे अपनी प्यारी-दुलारी बिटिया को उच्च शिक्षा दिलाएँ। ताकि वह कोई नौकरी अथवा व्यवसाय करके आत्मनिर्भर बन सके। इससे वह आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी। स्वयं को किसी से हीन न समझे। इस प्रकार उसे किसी के भी सामने हाथ फैलाने नहीं पड़ेंगे। उसकी परेशानी का सबसे बड़ा कारण समाप्त हो जाएगा।
         यदि वह आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं रहेगी, तो उसे दिन-प्रतिदिन अपमानित नहीं होना पड़ेगा। चाहे अपना जीवन साथी ही क्यों न हो, उससे भी धनराशि माँगने पड़ती है, तो बहुत संकोच होता है। कई ऐसे पर्सनल खर्च होते हैं, जो हर महिला को करने पड़ते हैं, जिन्हें बताना उसे गवारा नहीं होता। उसके लिए वह घर खर्च के लिए मिली राशि से कुछ बचत करती रहती है।
           कई बार एक माँ को अपने बच्चों की छोटी-छोटी जरूरतों को भी पूरा करना पड़ता है, जो किसी हिसाब में नहीं आ पाते। यदि वह उन खर्चों की चर्चा पति से करती है, तो घर में महाभारत हो जाती है। तब पति द्वारा उसे बच्चों को बिगाड़ने का ताना दिया जाएगा। कभी-कभार दोस्तों के साथ उसे कुछ धन व्यय करना पड़ जाता है। अब उसके पास धन होगा, तभी तो वह खर्च करेगी।
        अपने घर से माँगेगी तो उसे भला-बुरा कहा जाएगा। उस पर फिजूलखर्ची करने का आरोप लगाया जाएगा। इससे भी बढ़कर यह कहा जाएगा कि घर के खर्चे पूरे नहीं होते तो उसके दोस्तों का खर्च कैसे उठाया जाए? यह एक घर की नहीं, सब घरों की कहानी है। पति अपने दोस्तों के साथ पैसा उड़ाए, व्यसनों में धन बर्बाद करे अथवा पैसे को कहीं भी खर्च करे, सब जायज है। उसे टोका जाए तो कहेगा मेरी अपनी कमाई है, मैं जहाँ मर्जी खर्च करूँ। पर पत्नी का जायज खर्च भी उसे नाजायज लगता है।
           घर-गृहस्थी में भी कई ऐसे खर्च हो जाते हैं, जो एक महिला को मजबूरी में करने होते हैं। यह पैसा ही सारे फसाद या झगड़े की जड़ है। इसके चक्कर में मनुष्य जानवर तक बन जाता है। इस कारण आपस में मारपीट और खूनखराबा तक हो जाता है। कई बार घर में झगड़ा इतना बढ़ जाता है कि पति और पत्नी में अबोलापन होने लगता है। और फिर बढ़ते-बढ़ते अलगाव की स्थिति बन जाती है।
             बेटी यदि पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं होगी, तो उसे इन समस्याओं से दो-चार नहीं होना पड़ेगा। कई बेटियाँ ऐसी भी होती है, जो अपने माता-पिता की खराब आर्थिक स्थिति के चलते छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी ओटना चाहती हैं। इस दायित्व को तभी निभा सकती हैं, यदि उनके पास अपनी कमाई होगी। हालाँकि उसके कमाते होने पा भी, इस कार्य के लिए भी बहुत से परिवार उसे ऐसा न करने के लिए बाध्य करते हैं।
          कुछ बेटियाँ अपने ससुराल और अपने पति का विरोध सहन करके भी मायके की सहायता करती हैं। वृद्धावस्था में अपने माता-पिता के लिए सदा ही चिन्तित रहने वाली बेटियाँ उनका सहारा बनती हैं। उनकी देखभाल करती हैं।
           हमारे पुरुष प्रधान समाज की यह त्रासदी है कि पति चाहे धन का उपयोग करे या दुरुपयोग करे उसे खुली छूट दे दी जाती है, इसे उसका हक माना जाता है, परन्तु यदि पत्नी अपनी इच्छा से कुछ भी खर्च दे तो वह कटघरे में खड़ी कर दिया जाता है। उस पर दोषारोपण करके उसे तिरस्कृत किया जाता है।
           बेटी अपने घर में प्रसन्न रहती है, तभी उसके माता-पिता सन्तुष्ट होते हैं। अन्यथा बेटी के साथ उनका जीवन भी नरक बन जाता है। इन विकराल स्थितियों से अपनी बेटी को बचाने के लिए उसको स्वावलम्बी बनना बहुत आवश्यक है। हर माता-पिता को इस विषय में सजग रहने की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 20 अगस्त 2019

हवाई यात्रा

हवाई यात्राएँ बहुत बार की हैं पर कुछ समय पूर्व दिल्ली से उदयपुर जाते समय महाकवि कालिदास की याद बरबस आ गयी। उस दिन वर्षा हो रही थी। घने काले, सफेद और धूमिल बादलों से ढके हुए आकाश में ऊपर उड़ते हुए समझ में आया कि कालिदास ने इन बादलों को ही अपना दूत बनाकर 'मेघदूत' नामक खण्डकाव्य की रचना क्यों की होगी।
          ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बादलों पर उड़ते हुए जहाज के नीचे मानो किसी ने सफेद चादर बिछा दी हो। दूर-दूर तक जहाँ तक भी नजर जा रही थी, नीले आकाश पर बिछी हुई वह सफेद दूधिया चादर इतनी खूबसूरत लग रही थी, जिसका वर्णन करना गूँगे के गुड़ के स्वाद को बताने जैसा है। अनन्त आकाश को ढकते हुए बादलों ने वास्तव में मेरे इस मन को भी हर लिया। बादलों को यूँ भी मनसिज कहते हैं क्योंकि हमारे मन की कल्पना के अनुसार उनका रूप ढल जाता है।
          महाकवि कालिदास तो ईश्वर की उपासना और विद्वानों की संगति में रहकर महान कवि बने थे। सहृदय कवि को इन बादलों ने अपने जाल में निश्चित ही फंसा लिया था।
        कुबेर की सेवा करते नवविवाहित यक्ष के द्वारा पूजा के लिए बासे कमल के फूल लाने, पर राजा कुबेर ने उन्हें रामगिरि पर्वतों पर एक वर्ष तक अकेले रहने की सजा दी थी। हवाई जहाज की तरह यात्रा करते हुए बादलों को हिमगिरि पर्वत से उज्जयिनी का रास्ता बताते हुए जितना सजीव चित्रण कालिदास ने किया है, शायद ही किसी और ने किया होगा। इस वर्णन की सुन्दरता से मोहित परवर्ती कवियों ने अपने पाठकों के लिए, विश्व की अनेक भाषाओं में इस 'मेघदूत' खण्डकाव्य का अनुवाद किया।
        हवाई जहाज जब थोड़ी-सा नीचे आता है, तब बड़े-बड़े वृक्ष बोनसाई पौधों की तरह लगते हैं। सड़कों पर दौड़ती हुई गाड़ियाँ ऐसी लगती हैं, मानो बच्चे घर के फर्श पर या मेज पर अपनी गाड़ियाँ दौड़ा रहे हों। ऊँचे बहुमंजिला भवन ऐसे दिखाई देते हैं, मानो खेलते-खेलते बच्चों ने अपने ब्लाक्स थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रख दिए हों और कुछ ही पल बाद उन्हें उठाकर फिर कहीं और रख देंगे।   
          आसमान में जब हवाई जहाज बहुत ऊँचाई पर उड़ता है, तब उस समय बड़े-बड़े पेड़ों, नदियों, सड़कों, भवनों और प्रदेशों की सीमाएँ कहीं खो-सी जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो यहाँ पर सब कुछ एक-ही हैं। ऊँचे और नीचे के कोई भेदभाव नहीं, कोई अलगाव नहीं, बस सब बराबर। ऊपर से चाहो तो भी उन्हें किसी भी तरह बाँटना सम्भव नहीं होता।
          इसी प्रकार जो भी कोई व्यक्ति अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊँचाइयों को छू लेता है, उसे भी समद्रष्टा बन जाना चाहिए। अपने अधीनस्थों के साथ उसे सहृदयता पूर्वक समानता का व्यवहार करना चाहिए। घर-परिवार अथवा बन्धु-बान्धवों के साथ भी एक जैसा ही व्यवहार रखना चाहिए।
          देश के उच्च पदासीनस्थ लोगों को भी धर्म- जाति, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, रंग-रूप आदि की सभी सीमाओं को तोड़ देना चाहिए और सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। शासक वही सफल होता है जिससे प्रजा बिना डरे अपने मन की बात शेयर कर सके।
        हम सभी मनुष्य पक्षियों की तरह पंख लगाकर उड़ना चाहते हैं। नित्य नए-नए अनुभव संजोना चाहते हैं। इस हवाई यात्रा ने मेरे मन में भी उथल-पुथल मचाई है, उसे आप सभी सुधी मित्रों के साथ साझा करके मुझे बहुत आत्मसन्तोष हो रहा है। मुझे लगता है आप सब भी मेरे विचारों से एकमत होंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 19 अगस्त 2019

बेटी का जन्म भाग्य से

बेटी का जन्म किसी सद्गृहस्थ के घर उस समय पर होता है, जब उनके भाग्य में पुण्यकर्मों की अधिकता होती है अथवा उनका उदय होता है। कितने ही ऐसे लोग हैं, जो एक बेटी के लिए तरसते है। उसके लिए जगह-जगह जाकर मन्नतें माँगते हैं, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह उनकी झोली में बेटी को उपहार स्वरूप डाल दे। जब उनके घर बेटी का जन्म होता है, तो वे खुशियाँ मनाते हैं।
          वे बेटी के जन्म के उपलक्ष्य में पार्टी करते हैं, बन्धु-बान्धवों को उपहार देते हैं। उसके लिए शास्त्र सम्मत संस्कार करते हैं। उसकी हर इच्छा को पूर्ण करना अपना धर्म समझते हैं। अपनी हैसियत के अनुसार उसे अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। बेटी को उच्च शिक्षा दिलाकर वे उसका भविष्य सँवारने में लगे रहते हैं। जब उनकी बेटी पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है, तब वे अपने इस जीवन को धन्य हो गया मानते हैं।
            घर में बेटी सदा अपनी माता की सहायता के लिए तत्पर रहती है। वह घर की सार-सम्हाल करती है। उसे सजाकर रखने का प्रयास करती है। समय-समय उसके लिए माता-पिता को परामर्श देती रहती है और उनके साथ जाकर घर के लिए खरीददारी भी करती है। उसे यही लगता है कि घर पर आने-जाने वाले सभी लोग उनके सलीके से सजे हुए घर की प्रशंसा करें।
            बेटी उच्च शिक्षा ग्रहण करके जब उच्च पद पर कार्यरत होती है, तो उसके माता-पिता की प्रसन्नता का पारावार नहीं होता। यही बेटियाँ समय पड़ने पर अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में दिन-रात एक कर देती हैं। वे अपने नालायक भाइयों के भरोसे शारिरिक रूप से असहाय होते हुए माता-पिता को दर बदर की ठोकरें खाने के लिए कदापि अकेला नहीं छोड़तीं। अपितु उनके बुढ़ापे की लाठी बनकर उनकी सेवा करती हैं। उनकी जिम्मेदारी ओटती हैं।
          अनेक परिवारों में ऐसा देखा गया है, जहाँ सबसे बड़ी बेटी माता अथवा पिता की मृत्यु, घर की खस्ताहाल स्थिति आदि किसी भी कारण से अपने छोटे भाई-बहनों को पढ़ाने, उन्हें सेटल करने और उनके विवाह करने की जिम्मेदारी लेते हुए अपना सारा जीवन व्यतीत कर देती है। अपनी सारी खुशियों का बलिदान कर देती है। इन सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए, वह कब युवा से वृद्ध हो जाती है, उसे पता ही नहीं चलता।
          बेटी के माता-पिता की आर्थिक स्थिति जब उसके ससुराल के मुकाबले अच्छी नहीं होती, तब वह उनकी इज्जत रखती है। अपने पास से धन खर्च करके कह देती है कि उसे मायके से मिला है। बेटी की महानता इससे भी प्रकट होती है कि वह अपने माता-पिता के धन-दौलत को बिना माथे पर शिकन लाए, हँसते हुए अपने भाई के लिए छोड़ देती है। उसकी स्वयं की स्थिति चाहे कितनी ही खस्ता क्यों न हो।
       समाज में कुछ अपवाद अवश्य मिलते हैं, जहाँ बेटियाँ अपनी पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाती हैं। ऐसी बेटियों का मायके से अलगाव हो जाता है और उनका अपने भाई-बहनों से भी सम्बन्ध विच्छेद भी हो जाता है। इसके विपरीत कुछ गिने-चुने ही माता-पिता ऐसे हैं, जो स्वेच्छा से बेटियों को अपनी सम्पत्ति का कुछ भाग उपहार में देते हैं।
          चाहे बेटियाँ अपने माता-पिता के पास रहें या रोजी-रोटी के कारण अपने परिवार के साथ देश-विदेश में कहीं अन्यत्र रहें। उनकी चिन्ता बेटियों को सदा रहती है। वे बस यही चाहती हैं कि उनके भाई-भाभी माता-पिता की देखभाल अपना दायित्व समझकर करें। उन्हें बोझ मानकर उनकी अवहेलना न करें। अन्त में यही कहना चाहूँगी की बेटियाँ मनुष्य को सौभाग्य से ही मिलती हैं। उनका सदा ही सम्मान करना चाहिए।
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रविवार, 18 अगस्त 2019

लालच विनाश का कारक

मनुष्य का लालच उसे केवल सारा समय भटकाता रहता है। वह उसे किसी लायक नहीं छोड़ता। वह किसी एक वस्तु को पाने का लालच करता है, तो उसे पाने के तुरन्त बाद ही दूसरा लालच उसे घेरकर खड़ा हो जाता है। वह लालच के इस मकड़जाल में फँसा हुआ, बेबस होकर बस उससे मुक्त होने का उपाय तलाशता रहता है। परन्तु इसके चँगुल से बच निकलना मनुष्य के लिए सरल नहीं होता।
        वर्षों पहले इस विषय में एक कथा पढ़ी थी या किसी कक्षा में पढ़ाई थी। इस कथा के लेखक का नाम अब याद नहीं है। यह कहानी हृदय में एक गहरी  छाप छोड़ गई है। इस कहानी में लालच करने पर एक व्यक्ति को अपने प्राणों से ही हाथ धोना पड़ जाता है। यह हृदयस्पर्शी कथा आप सुधीजनों ने भी पढ़ी होगी और इस विषय पर मन्थन भी किया होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
         किसी समय एक व्यक्ति राजा के पास गया और उसने कहा, "वह बहुत गरीब है, उसके पास कुछ भी नहीं, उसे मदद की आवश्यकता है।"
          राजा बहुत दयालु था। उसने पूछा, "तुम्हें क्या मदद चाहिए?"
        आदमी ने कहा, "थोड़ा-सी जमीन दे दीजिए।"
       राजा ने कहा, “कल सुबह सूर्योदय के समय तुम दरबार में आना और तुम्हें जमीन दिखाई जाएगी। उस पर तुम दौड़ना और जितनी दूर तक तुम वहाँ दौड़ सकोगे, वह पूरा भूखण्ड तुम्हारा हो जाएगा। परन्तु यह ध्यान रखना कि जहाँ से तुम दौड़ना शुरू करोगे, सूर्यास्त तक तुम्हें वहीं लौटकर वापिस आना होगा। अन्यथा तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा।"
          राजा की बात सुनकर वह आदमी प्रसन्न हो गया क्योंकि उसकी मनोकामना पूर्ण होने वाली थी। ज्योंहि सुबह हुई वह आदमी सूर्योदय के साथ दौड़ने लगा, वह दौड़ता रहा और बस दौड़ता ही रहा। सूरज सिर पर चढ़ आया था, पर उस आदमी का दौड़ना नहीं रुक। वह हाँफता रहा, पर रुका नहीं। उसे लग रहा था कि थोड़ी-सी और मेहनत कर ले, तो फिर उसकी पूरी जिन्दगी आराम से बीतेगी।
          अब शाम होने लगी थी। आदमी को याद आया कि लौटना भी है, नहीं तो फिर कुछ नहीं मिलेगा। उसने देखा कि वह बहुत दूर चला आया था, अब बस उसे लौट जाना चाहिए। सूरज पश्चिम की ओर जा चुका था। उस आदमी ने पूरा दम लगाया कि वह किसी तरह लौट सके, पर समय तो तेजी से व्यतीत हो रहा था। उसे थोड़ी ताकत और लगानी होगी, वह पूरी गति से दौड़ने लगा। अब उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। वह थककर गिर गया और उसके प्राणों ने उसका साथ नहीं दिया, वे उसे छोड़कर चले गए।
           राजा यह सब देख रहा था। अपने सहयोगियों के साथ वह वहाँ गया, जहाँ आदमी जमीन पर गिरा था। राजा ने उसे गौर से देखा, फिर सिर्फ इतना ही कहा, "इसे सिर्फ दो गज़ जमीन चाहिए थी। यह व्यर्थ ही इतना दौड़ रहा था। इस आदमी को लौटना था, पर लौट नहीं पाया। वह ऐसे स्थान पर लौट गया, जहाँ से लौटकर कोई वापिस नहीं आता।"
         मनुष्य को अपनी कामनाओं की सीमाओं का ज्ञान ही नहीं होता। उसकी आवश्यकताएँ तो सीमित होती हैं, परन्तु इच्छाएँ अनन्त होती हैं। उसकी ये इच्छाएँ कब लालच के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, उसे पता ही नहीं चलता। उनको पूरा करने के मोह में मनुष्य कभी वापिस लौटने की तैयारी नहीं कर पाता। यदि ऐसा करने में वह सफल हो जाता है, तो कहानी वाले उस युवक की तरह उसे बहुत देर हो चुकी होती है। तब तक वह अपना सब कुछ दाँव पर लगा चुका होता है। उसके  पास शेष कुछ भी नहीं बचता।
          हम सभी लोग अन्धी दौड़ में भाग ले रहे हैं। इसका कारण भी शायद किसी को नहीं पता। अपने जीवन के सूर्योदय यानी युवावस्था से लेकर, अपने जीवन के संध्याकाल यानी वृद्धावस्था तक हम सभी
बिना कुछ समझे हुए भागते जा रहे हैं। इस बारे में विचार ही नहीं करते कि सूर्य अपने समय पर लौट जाता है। उसी प्रकार मनुष्य भी इस दुनिया से खाली हाथ ही विदा ले लेता है।
       हम मनुष्य भी महाभारत काल के अभिमन्यु की भाँति इस लालच के चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो जानते हैं, पर वापिस लौटना नहीं जानते। इसीलिए चारों ओर से आने वाले प्रहारों को न चाहते हुए भी झेलते रहते है। जीवन का सत्य मात्र यही है कि जो मनुष्य अपने लालच पर विजय प्राप्त करके लौटना जानते हैं, वही वस्तुतः में जीवन को जीने का वास्तविक सूत्र जानते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 17 अगस्त 2019

मेरा देश महान्

धन्य है वह देश, जहाँ के नागरिक अपने देश से प्रेम करने वाले होते हैं। ऐसे देश को उन्नति की ऊँचाइयों को छूने से कोई शक्ति नहीं रोक सकती। ऐसे देशप्रेमी अपने देश को महान् बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। देश के नेताओं से, उनकी कार्यप्रणाली से उन्हें रोष हो सकता है। परन्तु वे ऐसा कोई देश विरोधी कार्य नहीं करते, जिससे उनके देश का सिर विश्व में दूसरे राष्ट्रों के समक्ष झुक जाए।
         यहाँ मैं जापान देश की बात कर रही हूँ, जो विश्व में एक अनूठा उदाहरण है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय सन् 1945 में मित्रदेशों ने उनके दो प्रदेशों हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम्ब गिराए गए थे। फलस्वरूप जापान के अनेक निर्दोष नागरिक काल कवलित हो गए और अनेक लोग अपाहिज हो गए थे। इतना सब होने पर जापान के लोगों ने हार नहीं मानी। आज टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में यह देश अग्रणी है। इसलिए उसका लोहा पूरा विश्व मानता है। उनकी बनाई  हुई वस्तुएँ पूरे विश्व में प्रयोग की जाती हैं।
         अपने देश जापान को दूसरों के सामने न झुकने देने वाली यह कथा मैंने बहुत बार पढ़ी है। इसे पढ़कर, इस पर विचार करके उनकी देशभक्ति पर सचमुच गर्व होता है। आप सुधीजनों की नजर में भी यह घटना अवश्य आई होगी। यह घटना कुछ इस प्रकार है।
         जापान में ट्रेन की सीट फटी हुई थी, एक जापानी नागरिक ने अपने बैग में से सुई धागा निकाला और सीट की सिलाई करने लगा।
          एक भारतीय नागरिक भी उसी ट्रेन में था उसने पूछा, "क्या आप रेलवे के कर्मचारी हैं?"
         उसने कहा, "नहीं मैं एक शिक्षक हूँ, मैं इस ट्रेन से हर रोज अप-डाउन करता हूँ , जाते वक्त इस सीट की खस्ता हालत देखकर वापस आते वक्त बाजार से सुई धागा खरीद लाया हूँ।"
           मुझे लग रहा था, "यदि कोई विदेशी नागरिक इस फटी सीट को देखेगा, तो मेरे देश का अपमान होग। यह सोचकर मैं इस सीट की सिलाई कर रहा हूँ।"
       जो नागरिक देश की इज्जत अपनी इज्जत समझता हो, जिस देश के नागरिकों की सोच महान हो, वह देश विकसित और महान बन जाता है, जापान आज इतना विकसित हो गया है कि हम उससे बुलेट ट्रेन खरीद रहे है।
           इस घटना का उल्लेख करने का तात्पर्य यही है कि अपने देश को प्यार करने का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। जापान के लोग बहूत परिश्रमी होते हैं। वे लोग हमारे देशवासियों की तरह नित्य-प्रति हड़ताल करके काम नहीं रोकते या चक्का जाम नहीं करते। अपितु वे काली पट्टी बाँधकर और अधिक उत्पादन करते हैं। वे अपने नेताओं को इस प्रकार सकारात्मक चुनौती देते हैं।
           हमारे देश में हर समस्या को बड़े ही सामान्य तरीके से लिया जाता है। इसीलिए हमारे देशवासी मेरा भारत महान् का नारा लगाकर, इस विषय पर लेख लिखकर, भाषण देकर, टी.वी. डिबेट में हिस्सा लेकर या पोस्टर लगाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। वे यह सोच लेते हैं कि उन्होनें देश को महान् बना दिया है। बस इतने मात्र से ही वे अपना दायित्व पूर्ण हो गया समझ लेते है। यह सोच ही वास्तव में गलत है।
           देश को महान् बनाने के लिए इन सब टोटकों की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि अपनी सोच की अग्नि को भड़काना होता है। उसके लिए अथक प्रयास करने पड़ते हैं। केवल जबानी जमा खर्च कर देने से देश की उन्नति नहीं हो सकती। जब सभी देशवासी मिल-जुलकर साझा प्रयत्न करते हैं, तभी देश आसमान छूने के योग्य बन सकता है तथा विश्ववन्दनीय बन सकता है।
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गुरुवार, 15 अगस्त 2019

दर्द ही दवा

मनुष्य जब बहुत अधिक दर्द सहन करने के लिए विवश हो जाता है, तब एक समय ऐसा भी आता है, जब वही दर्द उसकी दवा बन जाता है। उस दर्द को सहन करते-करते मनुष्य के मन में उस कष्ट को बर्दाश्त करने की शक्ति आ जाती है। तब वह दुख शायद उसके जीवन का एक अहं अंग बन जाता है, मानो यह दर्द उस मनुष्य का अभिन्न मित्र बन गया हो। उसके बिना जीने की कल्पना करना उस मनुष्य के लिए कठिन हो जाता है।
         एक उदाहरण लेते हैं, कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य अपने किसी प्रियजन की प्रतिदिन प्रतीक्षा करता रहता है। उसका इन्तजार करते करते उसकी आँखें पथराने लगती हैं या थक जाती हैं। फिर धीरे-धीरे उसे इसकी आदत होने लगती है। उस समय की जाने वाली यही लम्बी प्रतीक्षा उसके जीवन का एक अहं हिस्सा बन जाती है। तब वास्तव में उसे उस इन्तजार को करने में ही एक प्रकार का आनन्द आने लगता है।
          कहने का तात्पर्य यह है कि काले घने बादलों के समान दुख-कष्ट अनायास ही बिनबुलाए मेहमान की तरह किसी मनुष्य के जीवन में डेरा जमा लेते हैं। बादलों की तरह बरसकर वे चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वातावरण से अन्धकार की चादर हट जाती है और प्रकाश हो जाता है। मनुष्य को ये दुख जब भोगने पड़ते हैं, उस समय वह दुखी होता है, रोता है। उससे उसे तभी मुक्ति मिलती है, जब उन कष्टों को वह भोग लेता है।
           यदा कदा ऐसे कष्ट भी जीवन में आ जाते हैं, जिनकी अवधि लम्बी होती है। अथवा अपने किसी प्रियजन का वियोग हो जाता है। उस कष्ट से उबर पाने में उसे वर्षों लग जाते हैं। इसी प्रकार व्यापार में हानि हो जाती है। जिसकी भरपाई करने में पूरा जीवन भी लग सकता है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाद, सुनामी, भूकम्प आदि दैवी आपदाओं के कारण मनुष्य असहाय हो जाता है।
           इन दैवी आपदाओं के कारण मनुष्य को लम्बे समय तक दुखों और परेशानियों को झेलना पड़ता है। मनुष्य इसे अपनी नियति मानकर सन्तोष कर लेता है। उसके पास और कोई उपाय भी तो नहीं होता। वह नियति के हाथों की कठपुतली बना बस अपने भविष्य को सुधारने का अथक प्रयास करता रहता है। कभी वह इस यत्न में सफल हो जाता है और कभी जीवन पर्यन्त उसे त्रासदी सहन करनी पड़ती है।
         इन्सान को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि उसका सपना क्यों पूरा नहीं हो रहा? यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि साहसी लोगों के इरादा कभी अधूरे नहीं रहते। देर-सवेर ईश्वर उन्हें अवश्य पूर्ण करता है। ईश्वर मनुष्य को उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही फल देता है। जिस इन्सान के कर्म अच्छे होते है, उसके जीवन में कभी अँधेरा नहीं हो सकता। जिस जीव ने अपने पूर्वजन्मों में कुकर्म किए होते हैं, उसे उनका दुष्परिणाम इस जन्म में भुगतना ही पड़ता है।
           पूर्वजन्मों में जीव ने क्या शुभाशुभ कर्म किए, इस विषय में वह नहीं जानता। उसके पास इसे जानने का कोई तरीका भी नहीं है। इतनी सावधानी उसे बरतनी चाहिए। इस जन्म में उसे ऐसे कर्म कर लेने चाहिए, जिससे आगामी जन्मों में उसके ऊपर कष्टों और परेशानियों की छाया न पड़े। तब उसके जीवन में सुख का प्रकाश दीर्घकाल तक रहे। उस समय उसे स्वयं को एक भाग्यशाली इन्सान समझकर ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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