शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

मर्यादा केवल बेटी के लिए

इक्कीसवीं सदी में हम लोग जी रहे हैं। जहाँ विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है, हम मंगल ग्रह तक पहुँच गए हैं। आज की दुनिया सिमटकर हमारी मुट्ठी में आ गई है। ऐसे समय में भी सारी नैतिकता और सारी मर्यादाएँ केवल बेटी के हिस्से में ही क्यों आती हैं? बेटे को इस सब की शिक्षा क्यों नहीं दी जाती? इस विषय पर गहनता से विचार करना हमारे लिए बहुत आवश्यक हो जाता है।        
            जब बेटी किसी मित्र की जन्मदिन की पार्टी के लिए या किसी और उद्देश्य के लिए घर से बाहर निकलती हैं, तो उसके माता-पिता प्रयास यही करते हैं कि वह अकेली न जाए। वे उसे उसकी सहेलियों के साथ भी घर से बाहर नहीं जाने देना चाहते। उसे पिता या भाई छोड़कर आएँ। यदि वे न जा सकें तो माँ ही उसके साथ चली जाए, वहाँ प्रतीक्षा कर और उसे वापिस लेकर आए।
       लड़कियों को ही सदा ये सब हिदायतें दी जाती हैं। उन्हें क्या करना चाहिए? कैसे रहना चाहिए? कैसे बोलना चाहिए? कैसे चलना चाहिए? कैसे उठना चाहिए? कैसे बैठना चाहिए? कहाँ जाना चाहिए? कहाँ नहीं जाना चाहिए? कैसी ड्रेस पहननी चाहिए? उसे घर पर कब तक वापिस लौट आना चाहिए? किन लोगों से मित्रता रखनी चाहिए? किन लोगों का बायकॉट करना चाहिए?
          बेटी की शादी हो जाने पर भी उस पर कई बन्धनों में रखने का प्रयास किया जाता है। शादी के बाद नित्य ही सिन्दूर लगाना, मंगलसूत्र पहनना और बिछिया पहनना आवश्यक हो जाते हैं। उस पर प्रातः जल्दी उठना पड़ता है। माँ-पापा की सर्वगुण सम्पन्न लाडली बेटी ससुराल में आने के बाद महत्त्वहीन हो जाती है। घर में नौकर होने के बाद भी काम करना उसकी मजबूरी बन जाती है।
         मुझे आज तक यह समझ नहीं आया  कि विवाह के उपरान्त उसे पति व सन्तान की दीर्घायु के लिए उसे इच्छा न रहते हुए भी व्रत रखने पड़ते हैं। ये सब धार्मिक कृत्य केवल उसकी पसन्द निर्भर होने चाहिए, उसके साथ किसी तरह की कोई भी जोर जबरदस्ती नही होनी चाहिए। जो लड़की इन सब रूढ़ियों को न माने उसे घर-परिवार में रहते हुए तरह तरह के अपमान और विरोध का सामना करना पड़ता है।
          आज लड़कियाँ उच्च शिक्षा ग्रहण करके उच्च पदों पर आसीन हो रही हैं। उनके पास इन सबके विषय में सोचने के लिए समय ही नहीं है और न ही वे इन पचड़ों में पड़ना चाहती हैं। कोई कुछ भी कहता रहे वे मस्त रहती हैं। किसी को उनका यह आचरण अच्छा लगे या नहीं, उन्हें इन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है। उनका यह रवैया हो सकता है कुछ लोगों को रुचिकर न लगे, पर वास्तव में यही उचित है।
          चाहे घर हो, बाहर हो अथवा चाहे विद्यालय, सर्वत्र लड़कियों को ही नैतिक शिक्षा (Moral education) दी जाती है। लड़कियाँ पढ़-लिखकर समझदार बन रही है। उन्हें लड़के और लड़की के बीच हो रहे भेदभाव पर वितृष्णा होती हैं। वे अन्याय को सहन नहीं कर पातीं। इसलिए वे मुखर होकर इसका विरोध करती हैं और अपनी बात को तर्कपूर्वक रखने का साहस करती हैं।
          माता-पिता यदि अपने लड़कों या बेटों को भी इस नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ा देते, तो आज हमारे इस समाज से हत्या, बलात्कार, एसिड अटैक जैसी कई बुराइयों का अन्त हो सकता था। उन्हें अपने बेटों पर भी प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। उनके बेटों को भी मर्यादा में रहने की बहुत जरूरत है। इस विषय पर ध्यान देने और सजग रहने की महती आवश्यकता है। इस तरह अपनी बेटियों पर माता-पिता को इतने अधिक प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें