शनिवार, 10 अगस्त 2019

मन को साधना

मन बच्चों की तरह अड़ियल या हठी होता है, जब चाहे वह जिद करने लगता है और वहीं अड़कर बैठ जाता है। इससे इन्सान को परेशानी का सामना करना पड़ जाता है। मनुष्य कुछ करना चाहता है, पर यह उसे किसी विचार विशेष पर अटका देता है। उसे वहाँ से आगे बढ़ने ही नहीं देता। बच्चे की तरह इस मन को जिस काम के लिए मना किया जाता है, वह उतना ही उस काम को करना चाहता है।
        इसलिए मन को मना मत करो। मन जो वह करना चाहता है, थोड़ी देर के लिए उसे मनमानी करने देनी चाहिए। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसकी हर गलत बात पर सही होने की मोहर लगा दी जाए। उसकी सोच यदि सही है, तो उस पर विचार कर लेने में कोई हानि नहीं होती। इसके विपरीत यदि उसकी सोच गलत है, तो उसके लिए उसे तत्क्षण डपट देना चाहिए। उस समय अपने मन को उन कुविचारों से हटाकर, अन्यत्र सुविचारों की ओर प्रवृत्त करना चाहिए।
          भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए, 'श्रीमद्भवद्गीता' में मन को साधने के उपाय बताए हैं -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा - हे महाबाहो! निःसन्देह यह मन बहुत चञ्चल है और कठिनता से वश में होता है। हे कुन्तीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा अपने वश में किया जा सकता है।
        मन को जीतना बहुत ही कठिन है। यह हर समय इधर-उधर भागता रहता है। हठयोग से यानी बलपूर्वक इसे साधा जा सकता है। हठयोग का अर्थ है कि मन बार-बार झाँसा देकर यहाँ वहाँ भागेगा। जैसे अड़ियल बच्चे की जिद पूरी न करते हुए, उसके माता-पिता उसे किसी भी तरह डाँट-डपट करके अथवा समझा-बुझाकर जबरदस्ती वापिस ले आते हैं। उसी प्रकार इस मन को सही मार्ग पर लौटाकर लाने के लिए उसके साथ भी बच्चे की तरह ही कठोर व्यवहार करना पड़ता है।
        बार-बार इस मन से हार मानकर हथियार डाल देने से मनुष्य का विनाश होता है। मन हमेशा मनुष्य को पतन की ओर जाता है, उसे गलत कामों और विषय वासनाओं में लिप्त कर देता है। मन को यदि दबाने या मारने का प्रयास किया जाएगा, तो वह और अधिक उपद्रवी बन जाएगा। इसलिए उसे सुधारने की आवश्यकता होती है। जब मन स्वच्छ होता है तब उसमें भक्ति, निष्ठा और प्रेम आदि गुणों का उदय होता है।
          उसे नियन्त्रित करना के लिए बार-बार ध्यान करने की आवश्यकता होती है। इससे मन शुद्ध व पवित्र होने लगता है। उसमें व्याप्त होने वाली सभी बुराइयों का धीरे-धीरे नाश होता है। यदि पानी गन्दा होता है या कंकर मारने से उसमें हलचल हो रही है, तो मनुष्य उसमें अपना  प्रतिबिम्ब नहीं देख सकता। उसी तरह यदि मन विचलित है या उसमें हलचल हो रही है, तो उस उद्वेलित होते हुए जल में मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप नहीं देख सकता।
        मन को साधने के लिए पुनः पुनः अभ्यास करना पड़ता है। अपने मार्ग से भटकने वाले इस मन को सीधे रास्ते पर लाने के लिए कठोर श्रम करना पड़ता है। यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। धान की फसल को एक बार बोने के उपरान्त किसान उसे वहाँ से उखाड़कर अन्यत्र बोता है। उसी प्रकार इस चञ्चल मन को सांसारिक वासनाओं से उन्मुख करके आत्मोन्नति या ईश्वर को पाने के मार्ग की ओर प्रवृत्त करना पड़ता है। जो मनुष्य अपने मन को साध लेता है, वही सफलता के सोपानों पर चढ़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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