रविवार, 18 अगस्त 2019

लालच विनाश का कारक

मनुष्य का लालच उसे केवल सारा समय भटकाता रहता है। वह उसे किसी लायक नहीं छोड़ता। वह किसी एक वस्तु को पाने का लालच करता है, तो उसे पाने के तुरन्त बाद ही दूसरा लालच उसे घेरकर खड़ा हो जाता है। वह लालच के इस मकड़जाल में फँसा हुआ, बेबस होकर बस उससे मुक्त होने का उपाय तलाशता रहता है। परन्तु इसके चँगुल से बच निकलना मनुष्य के लिए सरल नहीं होता।
        वर्षों पहले इस विषय में एक कथा पढ़ी थी या किसी कक्षा में पढ़ाई थी। इस कथा के लेखक का नाम अब याद नहीं है। यह कहानी हृदय में एक गहरी  छाप छोड़ गई है। इस कहानी में लालच करने पर एक व्यक्ति को अपने प्राणों से ही हाथ धोना पड़ जाता है। यह हृदयस्पर्शी कथा आप सुधीजनों ने भी पढ़ी होगी और इस विषय पर मन्थन भी किया होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
         किसी समय एक व्यक्ति राजा के पास गया और उसने कहा, "वह बहुत गरीब है, उसके पास कुछ भी नहीं, उसे मदद की आवश्यकता है।"
          राजा बहुत दयालु था। उसने पूछा, "तुम्हें क्या मदद चाहिए?"
        आदमी ने कहा, "थोड़ा-सी जमीन दे दीजिए।"
       राजा ने कहा, “कल सुबह सूर्योदय के समय तुम दरबार में आना और तुम्हें जमीन दिखाई जाएगी। उस पर तुम दौड़ना और जितनी दूर तक तुम वहाँ दौड़ सकोगे, वह पूरा भूखण्ड तुम्हारा हो जाएगा। परन्तु यह ध्यान रखना कि जहाँ से तुम दौड़ना शुरू करोगे, सूर्यास्त तक तुम्हें वहीं लौटकर वापिस आना होगा। अन्यथा तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा।"
          राजा की बात सुनकर वह आदमी प्रसन्न हो गया क्योंकि उसकी मनोकामना पूर्ण होने वाली थी। ज्योंहि सुबह हुई वह आदमी सूर्योदय के साथ दौड़ने लगा, वह दौड़ता रहा और बस दौड़ता ही रहा। सूरज सिर पर चढ़ आया था, पर उस आदमी का दौड़ना नहीं रुक। वह हाँफता रहा, पर रुका नहीं। उसे लग रहा था कि थोड़ी-सी और मेहनत कर ले, तो फिर उसकी पूरी जिन्दगी आराम से बीतेगी।
          अब शाम होने लगी थी। आदमी को याद आया कि लौटना भी है, नहीं तो फिर कुछ नहीं मिलेगा। उसने देखा कि वह बहुत दूर चला आया था, अब बस उसे लौट जाना चाहिए। सूरज पश्चिम की ओर जा चुका था। उस आदमी ने पूरा दम लगाया कि वह किसी तरह लौट सके, पर समय तो तेजी से व्यतीत हो रहा था। उसे थोड़ी ताकत और लगानी होगी, वह पूरी गति से दौड़ने लगा। अब उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। वह थककर गिर गया और उसके प्राणों ने उसका साथ नहीं दिया, वे उसे छोड़कर चले गए।
           राजा यह सब देख रहा था। अपने सहयोगियों के साथ वह वहाँ गया, जहाँ आदमी जमीन पर गिरा था। राजा ने उसे गौर से देखा, फिर सिर्फ इतना ही कहा, "इसे सिर्फ दो गज़ जमीन चाहिए थी। यह व्यर्थ ही इतना दौड़ रहा था। इस आदमी को लौटना था, पर लौट नहीं पाया। वह ऐसे स्थान पर लौट गया, जहाँ से लौटकर कोई वापिस नहीं आता।"
         मनुष्य को अपनी कामनाओं की सीमाओं का ज्ञान ही नहीं होता। उसकी आवश्यकताएँ तो सीमित होती हैं, परन्तु इच्छाएँ अनन्त होती हैं। उसकी ये इच्छाएँ कब लालच के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, उसे पता ही नहीं चलता। उनको पूरा करने के मोह में मनुष्य कभी वापिस लौटने की तैयारी नहीं कर पाता। यदि ऐसा करने में वह सफल हो जाता है, तो कहानी वाले उस युवक की तरह उसे बहुत देर हो चुकी होती है। तब तक वह अपना सब कुछ दाँव पर लगा चुका होता है। उसके  पास शेष कुछ भी नहीं बचता।
          हम सभी लोग अन्धी दौड़ में भाग ले रहे हैं। इसका कारण भी शायद किसी को नहीं पता। अपने जीवन के सूर्योदय यानी युवावस्था से लेकर, अपने जीवन के संध्याकाल यानी वृद्धावस्था तक हम सभी
बिना कुछ समझे हुए भागते जा रहे हैं। इस बारे में विचार ही नहीं करते कि सूर्य अपने समय पर लौट जाता है। उसी प्रकार मनुष्य भी इस दुनिया से खाली हाथ ही विदा ले लेता है।
       हम मनुष्य भी महाभारत काल के अभिमन्यु की भाँति इस लालच के चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो जानते हैं, पर वापिस लौटना नहीं जानते। इसीलिए चारों ओर से आने वाले प्रहारों को न चाहते हुए भी झेलते रहते है। जीवन का सत्य मात्र यही है कि जो मनुष्य अपने लालच पर विजय प्राप्त करके लौटना जानते हैं, वही वस्तुतः में जीवन को जीने का वास्तविक सूत्र जानते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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