गुरुवार, 8 अगस्त 2019

मेरा पिता महान

सन्तान की नजर में उसके पापा किसी फिल्म के हीरो की तरह होते हैं। उसे लगता है कि पापा उसके पास फटकने वाली सारी कठिनाइयों को पलक झपकते ही सुपरमैन की तरह दूर कर देंगे। उसके पिता उसे हर चिन्ता से, हर परेशानी से मुक्त करने की क्षमता रखते हैं। इसीलिए वह अपने पिता पर पूरा भरोसा करता है। वास्तव में यह बात पूर्णरूपेण सत्य है। सन्तान को समाज में चारों ओर से सुरक्षित रखने का हर सम्भव प्रयास पिता करता है।
          बच्चा जब चलना आरम्भ करता है, तो वह पिता की अँगुली पकड़कर घूमने जाता है। अपने पिता के कन्धे पर चढ़कर वह अपना कद को नापने का यत्न करता है। फिर प्रसन्न होकर वह सबसे कहता है कि वह अपने पिता से बड़ा हो गया है। इस बात को सुनकर पिता का सीना चौड़ा हो जाता है।
        बच्चा जब चार वर्ष का हो जाता है, तो सबको यही बताता है कि उसके पापा बहुत महान् हैं। वह उसकी हर इच्छा को पूरा करते हैं। जब वह छह वर्ष का हो जाता है, तब वह सोचता है और गर्व करते हुए कहता है कि उसके पापा सब कुछ जानते व समझते हैं, उनके जैसा बुद्धिमान इस संसार में कोई ओर नहीं हो सकता। 
         दस वर्ष का होने पर बच्चा कहता है कि मेरे पापा बहुत अच्छे है, परन्तु पता नहीं उन्हें गुस्से बहुत आता है। बारह वर्ष का होने पर वह पिता के विषय में कहता है कि जब वह छोटा था, तब पाप उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे। अब हर समय कुछ-न-कुछ कहते रहते हैं।
         सोलह वर्ष की युवावस्था होने पर बच्चे को अपने पिता से शिकायत होने लगती है कि उसके पापा समय के साथ नही चलते। उसे लगता है कि वास्तव में उसके पिता को कुछ भी ज्ञान ही नही है। यानी बच्चे की नजर में अब उसका पिता आधुनिक न होकर दकियानूसी (बैकवर्ड) हो जाता हैं।
          अट्ठारह वर्ष के बच्चे को अपने पिता असामान्य से प्रतीत होते हैं। वे उसे दिन-प्रतिदिन चिड़चिड़े और अव्यवहारिक लगते होते हैं। युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते हुए बीस वर्ष के बच्चे को अपने पापा के साथ रहना असहनीय लगने लगता है। उसे यह बात समझ में नहीं आती कि उसकी मम्मी उनके साथ कैसे रह पाती हैं? वह अपनी माँ को भी इस बात का उलाहना देने से नहीं चूकता।
         पच्चीस वर्ष का बच्चा स्वयं को आवश्यकता से अधिक समझदार समझने लगता है। स्वयं को वह संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति समझता है। वह अपने आचार-व्यवहार को नहीं देखता, पर अपने पिता की शिकायत करता रहता है। उसे यही लगता है कि उसके पापा हर बात में उसका विरोध ही करते है, वे सदा उसकी गलतियाँ खोजते रहते हैं। न वे उसे समझ पाते हैं और न ही उन्हें दुनियादरी की समझ है। उन्हें तो बस हर समय उसे सबके सामने डाँटने के लिए बहाना चाहिए होता है।
         अपने जीवन में सेटल हो चुका तीस वर्ष का वैवाहिक और बच्चे का पिता बन चुका युवा सोचता है कि उसके लिए अपने छोटे बेटे को जो किसी से नहीं डरता, उसे सम्भालना मुश्किल होता जा रहा है। वह बचपन में अपने पापा से कितना डरा करता था? उनकी बात सिर झुकाकर मान लिया करता था।
         आयु बढ़ने के साथ उसे पिता के अनुशासन की समझ आने लगती है। तब चालीस वर्ष की अवस्था में वह सोचता है कि उसके पापा ने उसे बहुत अनुशासन से पाला था, इसीलिए वह इतना अनुशासित है। पर आजकल के बच्चों में तो अनुशासन और शिष्टाचार नाम की कोई बात ही नहीं है। वे दिन-प्रतिदिन उद्दण्ड बनते जा रहे है। उनकी नजर में छोटे-बड़े का कोई लिहाज ही नहीं रह गया है।
         दुनिया की ऊँच-नीच को समझकर पचास वर्ष की आयु में उसे आश्चर्य होता है की उसके पापा ने इतनी कठिनाइयों का सामना करके भाई-बहनों को पाल-पोसकर बड़ा किया था। आजकल तो एक सन्तान को बड़ा करने में ही दम निकल जाता है।
पचपन वर्ष की आयु तक पहुँचते हुए उसे फिर अपने पापा पर गर्व होने लगता है। उसे लगता है कि उसके पिता बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने सभी भाई-बहनो के लिये व्यवस्थित आयोजन किए थे। वृद्धावस्था में भी उनका जीवन संयमित है। जब वह स्वयं साठ वर्ष यानी रिटायरमेन्ट की आयु में आता है, तब उसे सचमुच लगता है कि उसके पापा बहुत महान् थे। जब तक जीवित रहे, तब तक उन्होंने  घर-परिवार में सबका पूरा ध्यान रखा। किसी को भी कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया। पर तब यह सुनने के लिए जब उसके पिता जीवित नहीं रहते। वे परलोक गमन कर चुके होते हैं।
         सच्चाई यह है कि अपने पिता को वास्तव में पूरी तरह समझने में बच्चों को सालों लग जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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