शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

खिलौना लेकर सोते बच्चे

खिलौना लेकर सोते बच्चे

आधुनिकीकरण के कारण आज के एकल परिवारों में प्रायः बच्चों को कोई न कोई खिलौना या स्टफ टॉय यानी टेडी बियर या कोई गुड़िया आदि लेकर सोने की आदत हो जाती है। माता-पिता अपने बच्चों के लिए घर में एक सुन्दर-सा डिजाइनर बेडरूम बनवा देते हैं। उसमें उनकी आवश्यकता का सारा सामान रखवा देते हैं, ताकि छोटे बच्चे आकर्षित होकर उस कमरे में सोने के लिए तैयार हो जाएँ।
           दूसरे शब्दों में कहें तो माता-पिता बच्चे को अलग कमरे में रात को सोने के लिए एक प्रकार से रिश्वत देते हैं। हम कह सकते हैं कि पश्चिमी देशों के अँधानुकरण का ही यह परिणाम है कि माता-पिता द्वारा छोटे बच्चे को जबरदस्ती अलग कमरे में रात को सोने के लिए विवश किया जाता है। छोटी आयु में बच्चा माता-पिता के साथ ही सोने की जिद करता है। परन्तु वे उसे बहला फुसलाकर, लालच देकर वहाँ सोने के लिए तैयार करते हैं। 
           बहुत बार बच्चा उन्हें अपने पास सोने के लिए मजबूर करता है। उस समय माता या पिता उसके साथ सोने का नाटक करते हैं और बच्चे के सोते ही अपने कमरे में आ जाते हैं। बड़े ही दुख की बात है कि माता-पिता यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि बच्चा अलग क्यों नहीं सोना चाहता? वे बस अपने साथियों में अपनी शान बघारते नहीं थकते कि उन्होंने अपने छोटे बच्चे को सभी सुविधाओं से लैस एक सुन्दर-सा बेडरूम दिया हुआ है।
          कई बार ऐसा होता है कि बच्चा रात को टॉयलेट जाने के लिए उठता है, तब माता या पिता को अपने पास न पाकर रोने लगता है अथवा उनके कमरे में आकर उनके पास ही सो जाता है। बड़ी आयु के बच्चों को प्राइवेसी चाहिए होती है, वे बड़ी कक्ष में आ जाते हैं। तब उनकी पढ़ाई डिस्टर्ब न हो, इसलिए उन्हें अपना अलग कमरा चाहिए होता है। पर छोटे बच्चों के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती।
         एकल परिवार में प्रायः माता-पिता दोनों ही नौकरी अथवा व्यवसाय करते होते हैं। इसलिए उनके पास अपने बच्चों के लिए समय कम ही निकल पाता है। वे बच्चे के पास अधिक समय तक लेटकर या बैठकर उसे कहानी नहीं सुना सकते और न ही उसके साथ ज्यादा समय तक कुछ खेल सकते हैं। इसके लिए उन्हें कोई दोष नहीं दिया जा सकता। उनकी अपनी विवशता है कि वे चाहकर भी बच्चे को अधिक समय नहीं दे पाते।
         परन्तु एक सच्चाई यह भी है कि बच्चा उनसे मनचाहा समय पाना चाहता है, नहीं तो वह उदास हो जाता है। उस समय बच्चा खिलौने को ही अपने एकाकीपन का साथी बन लेता है। रात को जब उसे डर लगता है, तो वह कसकर उसे पकड़ लेता है। उसे यह अहसास होता है कि कोई उसके पास है, डरने की कोई बात नहीं है। उसे ऐसा लगता है कि कोई उसका साथी है, जो उसके साथ सो रहा है। 
           दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे के दुख और सुख का साथी वह खिलौना बन जाता है। वह उसी के साथ सोता है और उसी के साथ जागता है। उसी खिलौने से वह झगड़ा करता है, उसी से प्यार भी करता है। उससे मित्रवत बातें करके अपना मन बहलाता है। जब कभी उसे माता या पिता से डाँट पड़ती है, तब वह उसे ही जाकर बताता है। इस तरह वह अपने मन का गुबार निकल करके स्वस्थ हो जाता है।
          संयुक्त परिवारों के रहते बच्चों को इन सब समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता था। वहाँ उनकी देखभाल के लिए दादा-दादी या परिवार के अन्य सदस्य होते हैं। दादा-दादी की गोद उनका सबसे बड़ा सम्बल होती है। रात को उनसे कहानी सुनते, उनके साथ मस्ती करते हुए, सोते और जागते हुए बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, यह पता ही नहीं चल पाता। वहाँ रहने वाले माता-पिता भी बच्चों की ओर से निश्चिन्त रहते हैं।
           इस चर्चा का सार यही है कि बच्चे की सुरक्षा और भलाई के लिए माता-पिता कृतसंकल्प रहते हैं। उसकी छोटी-छोटी समस्याओं को समझने के लिए उन्हें अपने व्यस्त समय में से थोड़ा समय निकालना चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए। बच्चे के ऊपर जबर्दस्ती अपनी मर्जी नहीं थोपानी चाहिए, उसे सदा प्यार से समझना चाहिए। इससे बच्चे के मन में माता-पिता के लिए कडवाहट नहीं आती।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

चोरों से सावधान

 चोरों से सावधान

'अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करो।' या 'जेबकतरों से सावधान।' घूमने-फिरने के स्थान, फिल्म हाल, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि किसी भी स्थान पर चले जाओ वहाँ ये वाक्य लिखे रहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य चाहे घर पर है अथवा घर से बाहर है, उसे चोर-डाकुओं से सावधान रहने की आवश्यकता होती है। यदि कहीं थोड़ी-सी भी लापरवाही हो जाती है, तो उसे हानि उठानी पड़ जाती है।
        मनुष्य अपने घर को सुरक्षित बनाने का हर सम्भव प्रयास करता है। आज वह कच्चे घर में न रहकर सीमेंट, लोहे और ईंटों से अपना मजबूत घर बनाता है। अपनी सुरक्षा को और सुदृढ़ बनाने के लिए वह अपने घर के अन्दर और बाहर सीसीटीवी कैमरे लगवाता है। ताकि वह हर तरफ ध्यान दे सके। अपने धन को बैंक में जमा करता है। अपने खरीदे सोने, हीरे आदि के आभूषणों और आवश्यक कागजों को बैंक के लाकर में रखता है।
        चोरों, लुटेरों, जेबकतरों, गला काटने वालों, भ्रष्टाचारियों, चोरबाजारी करने वालों आदि को पकड़ने और सजा देने के लिए ही न्याय-व्यवस्था है। वह उन्हें उनके दोषों के अनुसार ही दण्ड दे देती है। इन लोगों पर वह अंकुश लगा सकने में पूर्णरूपेण सक्षम है। उन लोगों पर विशेष नजर रखने के लिए पुलिस भी सतर्क रहती है। इस तरह इन असामाजिक तत्त्वों पर नकेल कसने का प्रबन्ध किया जाता है।
          मनुष्य के मन में आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, नकारात्मक विचार आदि अनेक चोर डेरा जमाकर बैठ जाते हैं। ये सभी चोर मनुष्य का सुख और चैन सब हर लेते हैं। उसे किसी तरह से शान्त होकर नहीं बैठने देते। उन सबसे मनुष्य की रक्षा कौन कर सकता है? इन सबसे बचने के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच किस प्रकार बन सकेगा? ये प्रश्न वास्तव में विचारणीय हैं। जिनका हल खोजना ही होगा।
          ये सभी नकारात्मक विचार मनुष्य को असफलता की राह पर ले जाते हैं। वह आलसी बनकर आज का काम कल पर टालता रहता है। परन्तु वह कल कभी आ ही पाता। इस तरह मनुष्य जीवन की रेस में पिछड़ जाता है। उस पर नालायक होने या नाकामयाब होने पा ठप्पा लग जाता है। वह स्वयं भी अपनी इस आदत के कारण घर, दफ्तर हर स्थान पर पिछड़कर, तिरस्कृत होता रहता है। 
          ईर्ष्या और द्वेष आदि चोरों की तरह मनुष्य के अन्तस् में अपना घर बना लेते हैं। उसे हर समय परेशान करते रहते हैं। किसी की अच्छी पोशाक हो, उसका उच्च जीवन स्तर हो, उसका खान-पान अच्छा हो, उसके बच्चे संस्कारित हों, कोई सुन्दर हो, उसका घर, उसकी गाड़ी उनसे बेहतर हो यानी किसी व्यक्ति से ईर्ष्या करने का कोई भी कारण हो सकता है। 
            इससे दूसरे व्यक्ति का तो कुछ भी नहीं बिगड़ता क्योंकि उसे कुछ पता ही नहीं चलता। पर वह अनावश्यक जल-जलकर अपना नुकसान कर बैठता है। मनुष्यअपने ही मन में घुलता रहता है। अपने ही स्वास्थ्य की हानि कर बैठता है। जितना अपने पास है, उसमें उसे सन्तोष करना चाहिए। मनुष्य नाम का जो यह जीव है, वह दूसरों की होड़ में परेशान रहता है। इसका कारण है, वह सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहता है।
         अपनी अनावश्यक इच्छाओं को पूरा करने की आँधी दौड़ में वह कब गलत रास्ते पर चल पड़ता है, उसे पता ही नही चलता। फिर वह स्वयं को सिद्ध करने के लिए हिंसा का मार्ग अपना लेता है। सारी दुनिया पर हकूमत करने की उसकी प्रवृत्ति, अपने विरोध में उठने वाले किसी भी सिर को कुचलने के लिए तैयार हो जाती है। फिर उसका धीरे-धीरे पतन होने लगता है और तब व्यक्ति समाज की आँखों में खटकने लगता है।
             मानव की मानवता को दाँव पर लगाने वाले इन सब चोरों से जितना हो सके बचना चाहिए। इन्हें मन में प्रश्रय देने के स्थान पर इनसे किनारा करना बुद्धिमानी कहलाती है। मनुष्य इसीलिए संसार के सभी जीवों से अलग है कि उसके पास बुद्धि है, विवेक है। उसे सोच-विचार करके अपना कदम उठाना चाहिए। बिना विचारे कार्य करके वह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम

स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम

जीवन में स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम करना बहुत आवश्यक होता है। मानव शरीर प्रकृति की एक सुन्दर और परिपूर्ण रचना है।यह शरीर जितना चलता-फिरता रहता है, उतना ही स्वस्थ, मजबूत, और लचीला बना रहता है। इसीलिए आजकल जिम जाने का फैशन बढ़ता जा रहा है। वहाँ जाकर लोग वर्कआउट करते हैं। बहुत-सा धन देकर वे स्वयं के लिए प्रवेश पाते हैं। लड़की हो या लड़का यानी हर युवा जिम में जाकर अपनी बॉडी बनाकर फिट रहना चाहता है। नौजवान सिक्स पैक बनाने में गर्व का अनुभव करते हैं। जिम जाकर वे कई प्रकार की एक्सरसाइज करते हैं। 
      व्यायाम की रूपरेखा इंसान के स्वास्थ्य, जीवनपद्धति, व्यवसाय और आयु को ध्यान में रख कर निश्चित करनी चाहिए। किसी एक इंसान द्वारा किया जाने वाला व्यायाम दूसरे व्यक्ति को भी सूट कर जाएगा, यह आवश्यक नहीं है। कुछ युवा लोग सी डी चलाकर उसके साथ एक्सरसाइज करते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ लोग सैर करना स्वास्घ्य के लिए बहुत आवश्यक मानते हैं। कुछ लोग भागकर, वेट ट्रेनिंग लेकर, स्विमिंग करके, कोई खेल खेलकर या डांस करके द्वारा व्यायाम करते हैं। तरीका कोई भी अपनाया जा सकता है। 
        वास्तव में व्यायाम एक ऐसी गतिविधि है जो मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखती है और साथ ही उसके समग्र स्वास्थ्य को भी बढाती है। माँसपेशियों को मजबूत बनाने, हृदय प्रणाली को सुदृढ़ करने, एथलेटिक कौशल बढाने, वजन घटाने या फिर केवल मात्र आनन्द आदि किसी भी कारणवश इसे किया जा सकता है। कारण कोई भी हो सकता है, पर उद्देश्य एक ही है कि शरीर स्वस्थ रहना चाहिए, नीरोग रहना चाहिए।
          व्यायाम अथवा कसरत से जी चुराने वाले आलसी लोग तर्क देते हैं कि एक खरगोश अपने जीवनकाल में दौड़ता है, उछलता कूदता है, मस्ती करता है और फिर भी केवल पन्द्रह वर्ष तक ही जीवित रहता है। इसके विपरीत एक कछुआ है, जो न दौड़ता है और न ही कुछ करता है, फिर भी वह तीन सौ वर्ष तक जीवित रहता है। इसलिए एक्सरसाइज जाए भाड़ में, कौन शरीर को कष्ट दे। अतः निश्चिन्त होकर अच्छी गहरी नींद में सो लिया जाए। आराम से बढ़कर इस जीवन में और कुछ भी नहीं है।
        प्रतिदिन दौड़ लगाना भी एक व्यायाम है। दौड़ने से शरीर में बदलाव होते हैं। तनाव से दूर रहने में भी मदद मिलती है। शरीर में जमी वसा नष्ट होती है। इस कारण मोटापा घटाने में मदद मिलती है। इससे अच्छी नींद आती है, इन्सान प्रसन्न रहता है। तनाव से दूर रहने में भी मदद मिलती है और सकारात्मक मानसिकता तैयार होती है। मनुष्य दिन भर फ्रैश रहता है और उसे थकावट नहीं होती। नियमित रूप से दौड़ने से स्ट्रोक, रक्तचाप, डायबिटीज जैसी बीमारियों से दूर रहना संभव होता है।
        व्यायाम करते समय कुछ बिन्दुओं की ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक होता है। व्यायाम सदा विशेषज्ञ के मार्गदर्शन के बाद ही करना चाहिए। इस बात को समझना आवश्यक है कि व्यायाम की शुरुआत में बदनदर्द होता है, लेकिन बाद में लाभ होता है। व्यायाम हमेशा उतना ही किया जाना चाहिए, जिससे शरीर में थोड़ी थकावट बेशक हो जाए, पर अनावश्यक रूप से थककर चूर नहीं होना चाहिए। व्यायाम के बाद विश्राम करना बहुत आवश्यक होता है।
       व्यायाम हमेशा शुद्ध वायु में खाली पेट और शौच के बाद प्रातःकाल करना चाहिए। यदि सम्भव न हो तो भोजन के कम-से-कम चार घण्टे बाद इसे किया जा सकता है। शरीर पर मौसम के अनुसार ढीले वस्त्र होने चाहिए। व्यायाम के तुरन्त बाद पानी पिया जा सकता है, लेकिन उसके आधे घण्टे बाद ही कुछ खाना चाहिए। व्यायाम के पन्द्रह मिनट बाद गुनगुना दूध पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। तेज चलते हुए पंखे के सामने या उसके नीचे व्यायाम नहीं करना चाहिए। इससे अच्छा है कि पंखा धीमा कर दें और पसीना निकलने दें। व्यायाम करते वक्त पसीना पोंछने के लिए अपने पास सूती नैपकिन रखना चाहिए।
       झटके से कभी व्यायाम नहीं करना चाहिए। व्यायाम में विविधता बनाए रखनी चाहिए। लगातार एक ही तरह का व्यायाम करने से हमारे शरीर को  उसकी आदत होने लगती है। इसलिए धीरे-धीरे उसका सकारात्मक परिणाम दिखाई देना बन्द हो जाता है।  
        सबसे आवश्यक बात यह है कि व्यायाम में निरन्तरता बनाए रखना जरूरी होता है, अन्यथा सब बेकार हो जाता है। यदि लाभ लेना चाहते हैं, तो व्यायाम नियमित रूप से करना चाहिए। यदि कभी कोई समस्या आ जाए तो सप्ताह में कम-से-कम  पाँच दिन व्यायाम अवश्य करना चाहिए।
         कुछ लोग ऐसे भी हैं जो योगाभ्यास करके स्वयं को चुस्त और दुरुस्त रखने का प्रयास करते हैं। अधिकाँशत: लोग योगासन तथा व्यायाम दोनों को एक ही समझते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। दोनों ही विधाओं में बहुत अन्तर है और इन दोनों का ही अपना-अपना महत्व है। योग सिर्फ कसरत मात्र नहीं है। व्यायाम में केवल शारीरिक प्रक्रिया की जाती हैं ताकि शरीर स्वस्थ रहे। दूसरी ओर योग मनुष्य को शारीरिक, मानसिक एवं भावानात्मक रूप से सुदृढ़ बनाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

पाँच प्राण

पाँच प्राण

मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण रहते हैं, तब तक वह जीवन्त रहता है। इन प्राणों के शरीर से निकलते ही वह निष्प्राण हो जाता है। तब उसे लोग शव के नाम से पुकारते हैं। सभी बन्धु-बान्धव अपने उस प्रियजन को कुछ समय के लिए भी घर में नहीं रहने देते। श्मशान में ले जाकर उसका अन्तिम संस्कर कर देते हैं। मनीषी कहते हैं कि उसके बाद यह भौतिक शरीर पाँच तत्त्वों यानी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश में जाकर मिल जाता है।
          प्राण ऊर्जा और तेज है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है, जिसका अस्तित्व होता है। यह समस्त जीवन का आधार और सार है। प्राण भौतिक संसार, चेतना और मन के मध्य सम्पर्क सूत्र है। प्राण श्वास,ऑक्सीजन की आपूर्ति, पाचन, निष्कासन-अपसर्जन आदि बहुत से कार्य करता है। मनुष्य जब प्राण को नियन्त्रित करने का अभ्यास करता है, तब उसका शरीर और मन स्वास्थ्य व समन्वय को प्राप्त कर लेते हैं। 
            प्राण मुख्य रूप से पाँच कहे जाते हैं- प्राण, व्यान, अपन, उदान और समान। इनके विषय में चर्चा करते हैं-
प्राण -  प्राण मानव के शरीर को अनिवार्य ऑक्सीजन की आपूर्ति करता है। स्वच्छ वायु स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक होती है। दूषित वायु से कई बीमारियाँ हो जाती हैं। हमारा स्वास्थ्य केवल बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। स्वास्थ्य प्रतिरोधक शक्ति से अनुशासित होता है। दैनिक जीवन में योगाभ्यास हमारी जीवनी शक्ति को सुदृढ़ करता है। इसके लिए भस्त्रिका, नाड़ी शोधन और उज्जायी प्राणायाम किए जा सकते हैं।
अपान - यह नाभि से पैरों के तलवों तक यानी शरीर के निम्न-भाग को प्रभावित करता है। यह प्राण निष्कासन-प्रक्रिया को नियमित करता है। अपान पेट के निचले हिस्से को प्रभावित करता है- आंतों, गुर्दे, मूत्र मार्ग, टाँगों आदि सभी अपान प्राण की अवस्था का परिणाम होते हैं। अग्निसार क्रिया, नौलि, अश्विनी मुद्रा और मूलबन्ध विधियाँ अपान प्राण को मजबूत और शुद्ध करने का कार्य करती हैं।
व्यान - व्यान प्राण मानव शरीर के नाड़ी मार्ग से प्रवाहित होता है। इसका प्रभाव पूरे शरीर पर होता है। व्यान प्राण में कमी होने से रक्त प्रवाह में कमी, नाड़ी संचरण में खराबी और स्नायु सम्बन्धी गति हीनता होने लगती है। व्यान प्राण कुम्भक के अभ्यास से सुदृढ होता है। नाड़ी तन्त्र को प्रोत्साहित करता है। इस कुम्भक का अभ्यास करने के उपरान्त मनुष्य अच्छी तरह ध्यान लगा सकता है। 
उदान - उदान प्राण उच्च आरोही ऊर्जा है। यह हृदय से सिर और मस्तिष्क में प्रवाहित होती है। उदान प्राण कुण्डलिनि शक्ति के जाग्रत होने पर उसके साथ होता है। उदान प्राण के नियन्त्रित करने से शरीर इतना हल्का हो जाता है कि व्यक्ति में हवा में उठ जाने की योग्यता आ जाती है। जब उदान प्राण मनुष्य के नियन्त्रण में होता है, तब बाह्य बाधाएँ बाधा नहीं डाल सकती। श्वास व्यायाम का गहन अभ्यास जल पर चलने और आकाश में तैरने की स्थिति बन सकती है। यह व्यायाम नाडिय़ों और विचारों को शान्त करके एकाग्रता को बढ़ाता है तथा मनुष्य को स्व यानी आत्मा के सम्पर्क में ले जाता है।
समान - समान एक महत्त्वपूर्ण प्राण है। यह अनाहत एवं मणिपुर चक्रों को जोड़ता है।
यह आहार की ऊर्जा को सम्पूर्ण शरीर में वितरित करता है। जब योगी समान प्राण पर नियन्त्रण कर लेते हैं, तब उनके अन्दर शुद्ध ज्योति होती है। समान प्राण को पूर्ण करने से प्रभामण्डल से प्रदीप्त हो जाता है। यह अग्निसार क्रिया एवं नौलि के अभ्यास से सुदृढ़ होता है। संक्रमणशील बीमारी और कैंसर का प्रतिरोध करने की क्षमता को भी सुधारता है। समान प्राण को क्रिया योग से जाग्रत किया जा सकता है। इसका अभ्यास शरीर को गरम रखता है। 
          इसके अतिरिक्त पाँच उपप्राण कहे जाते हैं- नाग, कूर्म, देवदत्त, कृकल और धनञ्जय। ये शरीर के महत्त्वपूर्ण कार्यों को संचालित करते हैं। इन प्राणों का बिना मनुष्य का जीवन संचालित ही नहीं हो सकता। जब तक प्राण शरीर में रहते हैं, तब तक मनुष्य गतिशील बना रहता है। उसमें ऊर्जा व स्फूर्ति बने रहते हैं। इन प्राणों का बिना इस भौतिक शरीर का कोई मूल्य नहीं रह जाता। वह बस रख की ढेरी बनकर रह जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

त्रिगुणात्मक सृष्टि

 त्रिगुणात्मक सृष्टि

यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है, जो तीन गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण पर आधरित है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी तत्व ऐसा नहीं है, जो इन त्रिगुण तत्वों से परे हो। ये तीनों गुण इस संसार के समस्त प्राणियों में विद्यमान रहते हैं। मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा को छोड़कर किसी और प्रकार के शरीरधारी जीवात्मा को तीन गुणों वाली प्रकृति को जानने और समझने का अधिकार ही नहीं है।
          भगवान श्रीकृष्णजी अर्जुन को त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण धर्म के विषय में समझाते हुए गीता में कहते हैं-
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत। ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत।।
अर्थात् हे अर्जुन! सत्त्व गुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में लगाता है तथा ज्ञान को छोड़कर तमोगुण के कारण मनुष्य प्रमादी बन जाता है। 
           भगवान श्रीकृष्ण के कथन का यह तात्पर्य है कि प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, रज और तम स्थूल प्रकृति के हर अंश में विद्यमान हैं। परन्तु जब प्रकृति के सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म और स्थूल रूपों को एकसाथ जानने-समझने की बात आती है, तो केवल मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा ही इस रहस्य को समझ पाता है। अर्थात् प्रकृति का सम्पूर्ण ज्ञान हम मनुष्य शरीर के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। 
          मनुष्य जन्म से ही इन तीनों गुणों से प्रभावित होता है। कोई भी मनुष्य इन तीनों गुणों से बच नहीं पाया है। प्राणी में जिस गुण की प्रधानता होती है, उसका चरित्र भी उसी प्रकार का हो जाता है। मनुष्य को सदैव अपने तमोगुण यानी तामसी प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए। उसे रजोगुण यानी राजसी प्रवृत्ति को अपने अनुकूल करना चाहिए। सतोगुण या सात्त्विक प्रवृत्ति को ही जीवन भर अपनाना चाहिए।
           यद्यपि तीनों गुण सृष्टि में विद्यमान हैं, परन्तु सतोगुण के दर्शन बड़ी कठिनता से होते हैं। सत्त्वगुण को प्राप्त करके ही जीवात्मा को सुख की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति सुख भोग रहा है, तो यह समझ लेना चाहिये कि वह प्रकृति के सत्त्वगुण के प्रभुत्व में है। इस सत्त्वगुण के विकसित होने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य मोक्षगामी बन जाता है।
            राजसी प्रवृत्ति की कामना में मनुष्य सुख, ऐश्वर्य एवं अधिकाधिक धन प्राप्त करने में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति दुःख भोग रहा है, तो यह कह सकते हैं कि वह प्रकृति के रजगुण के अधीन हो चुका है। रजोगुणी व्यक्ति निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। रजोगुण का प्रधान लक्षण सक्रियता ही है। रजगुण विकसित होने पर ऐश्वर्य प्राप्ति की कामना बलवती होती है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख-सुविधा के साधनों का संग्रह करता है।
          तामसी प्रवृत्ति आलस्य, प्रमाद , क्रोध एवं नकारात्मकता को प्रकट करती है। आज यह अधिक देखने को मिल रही है। जब मनुष्य युवावस्था में प्रवेश करता है तो संगति-कुसंगति में पड़कर नकारात्मक होकर कर्म-कुकर्म करने लगता है। तब उसमें तमोगुण प्रभावी होते हैं। जीवन भर दुर्दान्त बनकर वह तमोगुण से घिरकर ही जीवन यापन करता है। यदि कोई व्यक्ति हमेशा आलस्य का अनुभव करता है; और आज का काम कल पर टालता रहता है तो ऐसी स्थिति में हमें यह समझ लेना चाहिये कि वह प्रकृति के तमगुण के प्रभाव में अपना जीवन-यापन कर रहा है। तमोगुण प्रधान व्यक्ति की बुद्धि उसे सुख में दुःख का और दुःख में सुख का अनुभव कराती है। 
           सतोगुण सुख का, रजोगुण दुःख का और तमोगुण मोह का प्रतिनिधित्व करता है। सतोगुण की न्यूनता चिन्ता का विषय कही जा सकती है। मनुष्य के जीवनकाल में तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। जिसकी जो इच्छा हो उसे अपना सकता है। लोग अपनी-अपनी बौद्धिक क्षमता से ही सुख प्राप्ति का प्रयास करते हैं। यद्यपि ये तीनों गुण एक ही शरीर में विद्यमान रहते हैं। फिर भी एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।
         मनुष्य इन तीनों गुणों को जानता हो या न जानता हो इस बात से त्रिगुणों के आपसी व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ता। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकृति के तीनों गुणों का सम्पूर्ण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति प्रकृति के तमोगुण और रजोगुण को नियन्त्रित करके सभी दुःखों से स्वयं को मुक्त कर सकता है और केवल सुख भोगते हुए ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। तभी मनुष्य अपने इस जीवन को सार्थक बना सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

विधि का विधान

 विधि का विधान बहुत कठोर है। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। विधि या होनी जो न कराए वही थोड़ा है, वह बहुत ही बलवान है। उसके प्रकोप से आज तक कोई भी नहीं बच सका। मनुष्य के कर्मों के अनुसार जो भी सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि उसे मिलते हैं, उनमें रत्ती भर की भी कटौती नहीं की जाती। मनुष्य को उनसे भोगकर ही छुटकारा मिलता है। इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता है।
             भगवान राम और भगवती सीता का विवाह और राम का राज्याभिषेक, दोनों कार्य शुभ मुहूर्त में किए गए थे। परन्तु  उनका सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन कष्टों से भरा रहा। प्रातः राज्याभिषेक होने को था, सब तैयारियाँ हो चुकी थीं। परन्तु रात ही रात में ऐसा कुछ घटित हो गया कि उन्हें सब कुछ त्याग देना पड़ा। राजसी ठाठबाट और वस्त्रों का परित्याग करके उन्हें मुनि वेश में ही वन में जाना पड़ गया।
           अयोध्या के राजगुरु मुनि वसिष्ठ से इन विषय मे पूछा गया, तो तुलसीदास जी के शब्दों में उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया-
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ।
लाभ हानि, जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।।
अर्थात् हे भरत सुनो! जो विधि ने निश्चित किया है वही होकर रहेगा। लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश सब भाग्य के अधीन हैं। 
          भगवान कृष्ण की चर्चा करते हैं। यह सर्वविदित है कि उनको जन्म माँ देवकी ने भाई कंस के कारगर में मथुरा में दिया था। उनके पैदा होते ही उन्हें पिता वासुदेव ने गोकुल में नन्द बाबा के घर पहुँचा दिया। वहाँ उनका लालन-पालन माता यशोदा ने किया। बचपन से ही अनेक अवाँछनीय स्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा। फिर उन्हें माँ यशोदा और पिता नन्द बाबा को भी छोड़कर मथुरा वापिस जाना पड़ा। 
           माता सती भगवान शिव के मना करने के बावजूद अपने पिता के यज्ञ में भाग लेने गईं। वहाँ पति का अपमान सहन न कर सकेने के कारण वे सती हो गईं। भगवान शिव माता सती की मृत्यु को टाल नहीं सके, जबकि महामृत्युंजय मन्त्र उन्ही का आह्वान करता है। भगवान शिव और भगवती पार्वती की जोड़ी को तोड़ा नहीं जा सकता।
          रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि तथाकथित स्वयंभू ईश्वर कहलाने वालों के पास समस्त शक्तियाँ थीं। फिर भी इन सबका दुखद अन्त हुआ। इनका और इन जैसे सभी लोग इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह को शर शैय्या पर शयन करने पड़ा। भक्ति काल में रानी मीराबाई को उसके देवर ने ही विष दे दिया। कृष्ण भक्ति में मस्त वे मन्दिर-मन्दिर भटकती रहीं।
           दानवीर राजा हरिश्चन्द्र को ऋषि विश्वामित्र को दान देने के कारण स्वयं को ही एक चाण्डाल के पास बेचना पड़ा। उन्हें उसके  पास श्मशान घाट पर नौकरी करनी पड़ी। उन्हें अपनी पत्नी को एक दासी के रूप में बेचना पड़ा। इससे बढ़कर और उनका दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए उन दोनों पति और पत्नी के पास कर देने तक के लिए धन नहीं था।
          आधुनिक काल में बहुत-सी घटनाएँ हृदय को विदीर्ण करती हैं। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द को उनके रसोइए के द्वारा विष दिया गया। ईसा मसीह को उनके शत्रुओं के द्वारा जीवित ही सूली पर लटका दिया गया, जिनके अनुयायी पूरे विश्व में विद्यमान हैं। महात्मा गांधी को गोली मार दी गई। इतिहास के पन्नों को खंगालने पर ऐसी अनेक घटनाएँ मिल जाएँगी।
          इस सारी चर्चा का सार यही है कि होनी बहुत बलवान है। उससे इस संसार का कोई भी जीव नहीं बच सकता। विधि के इस विधान की दृष्टि में साधु-सन्यासी, राजा-रंक, योगी-भोगी, अमीर-गरीब आदि सभी ही एक बराबर हैं। मनुष्य चाहे स्वयं को कितना ही तीसमारखाँ क्यों न समझ ले विधि के इस विधान के समक्ष उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। इसलिए मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 25 अक्तूबर 2020

पढ़ने से जी चुराते बच्चे

 पढ़ने से जी चुराते बच्चे

प्रायः माता-पिता परेशान रहते हैं कि बच्चे पढ़ने में मन नहीं लगाते। वे अपनी पुस्तकों को देखना भी नहीं चाहते। विद्यालय से मिले हुए गृहकार्य को जल्दबाजी में करके वे अपना पिंड छुड़ाते हैं। उन्हें किसी वस्तु की कमी माता-पिता नहीं रहने देते, फिर भी वे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। घूमने-फिरने, खेलने-कूदने, टी वी देखने और सारा दिन मोबाईल पर अपना समय व्यतीत करना चाहते हैं। 
           कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चे हर समय अपनी मनमानी करना चाहते हैं। क्या कभी इस बात का पता करने का यत्न किया है कि आखिर बच्चे मनमानी क्यों करते हैं? बच्चों का पढ़ने से जी चुराने का कारण क्या है? उनका ध्यान दूसरी ओर क्यों रहता है? वे आखिर खेल-कूद में क्यों लगे रहते हैं? टी वी और मोबाईल उन्हें क्यों अधिक अच्छे लगते हैं? बच्चे आखिर पढ़ने के लिए कहने पर अपने माता-पिता की अवहेलना क्यों करते हैं? 
            ये कुछ प्रश्न हैं, जिनके हल खोजे जाने चाहिए। आजकल बच्चों को खिलौनों से भी अधिक टीवी और मोबाईल पसन्द आते हैं। इसका बहुत बड़ा कारण है। बच्चा जब छोटा होता है, उस समय माँ उसे उसका मनपसन्द गाना या टीवी कार्यक्रम लगाकर बिठा देती है या मोबाईल दे देती है, ताकि उन्हें देखता हुआ बच्चा आराम से नाश्ता या खाना खा ले। उस समय बच्चे ने क्या खाया, कितना खाया, उसे पता ही नहीं चलता।
           इसके अतिरिक्त यदि माता-पिता कोई कार्य करना चाहते हैं और बच्चों की डिस्टरबेंस नहीं चाहते, तो उस समय वे बच्चों को टीवी चलाकर बैठने के लिए कह देते हैं या उन्हें व्यस्त रखने के लिए मोबाईल पकड़ा देते हैं। यही कारण हैं कि धीरे-धीरे बच्चे टीवी और मोबाईल के अभ्यस्त हो जाते हैं। उन्हें इनमें आनन्द आने लगता है। माता-पिता आवाज लगाते रहें, वे उसे अनसुना कर देते हैं। 
            यदि बच्चों से जबर्दस्ती उनसे टीवी बन्द करवाया जाए या उनसे मोबाईल ले लिया जाए, तो वे चीख-पुकार मचाते हैं। यह कुछ प्रमुख कारण हैं, जो बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए बाधक बन रहे हैं। इनके अतिरिक्त बच्चा घर में खिलौनों से खेलना पसन्द करते हैं। घर के बाहर जाना बहुत से बच्चों को अच्छा नहीं लगता। आजकल घर में एक या दो बच्चे होते हैं, उन्हें माता-पिता अनावश्यक लाड़-प्यार करके बिगाड़ देते हैं।
         बच्चों का पढ़ाई में मन न लगने का कारण भी टीवी, मोबाईल और खेलकूद है। बच्चे सारा दिन यदि टीवी और मोबाईल में व्यस्त रहेंगे, तो निश्चित है कि उन्हें पढ़ने का समय नहीं मिल पाएगा। वे जब पढ़ाई से जी चुराने लगते हैं, तब वे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं। इन सबमें उन्हें आनन्द आता है, पर पढ़ाई बहुत बोरिंग होती है। उन्हें अपनी पुस्तकें लेकर बैठने में अच्छा नहीं लगता, वे उससे बचने का बहाना ढूंढते रहते हैं।
          जब माता-पिता बच्चों को पढ़ने के लिए कहते हैं, उस समय उन्हें पानी की प्यास लग जाती है, भूख लगी है कुछ खाने को दो, टॉयलेट जाना या फिर कुछ और ऐसे बहाने याद आते हैं, जिन्हें रोक पाना सम्भव नहीं हो पाता। अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त कॉमिक्स, कहानी की पुस्तक या उपन्यास पढ़ने में उन्हें अधिक रुचिकर लगता है। इन पुस्तकों को पढ़ने में उन्हें मजा आता है।
          आजकल करोना काल में जब बच्चे विद्यालय नहीं जा सक रहे, तब उनकी ऑनलाइन क्लासेस चल रही हैं। उसी पर उनका गृहकार्य भी मिलता है। परीक्षाएँ भी ऑनलाइन हो रही हैं। इसलिए सारा दिन वे मोबाईल पर व्यस्त रहते हैं। यह स्थिति तो अपवाद काल की है, सदा रहने वाली नहीं है। यही आयु पढ़ने की होती है और यही आयु खेलने या मौज-मस्ती करने की भी होती है।
           माता-पिता का यह परम दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को टीवी और मोबाईल का एडिक्ट न बनने दें। टीवी और मोबाईल का समय निश्चित करें, जिससे बच्चे अनुशासित रहें। उन्हें पढ़ाई करने के लिए प्रोत्सहित करें। जीवन की ऊँच-नीच उन्हें इस प्रकार समझाएँ, जिससे उनके बच्चे समझदार बन जाएँ। एक जिम्मेदार नागरिक बनने का अपना दायित्व वे पूर्ण कर सकें।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

दुनिया का मेला

 दुनिया का मेला

ईश्वर की बनाई हुई यह सृष्टि बहुत खूबसूरत है। यहाँ चारों ओर चहल-पहल दिखाई देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ न समाप्त होने वाला कोई मेला लगा हुआ है। लोग इधर-उधर रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर अपनी मस्ती में चले जा रहे हैं। कहीं झूले सजे हुए हैं, कहीं बच्चे पशुओं की सवारी का आनन्द ले रहे हैं। लोकनर्तक यहाँ वहाँ नृत्य कर रहे हैं। दुकानों को सजाए दुकानदार आवाज लगाकर लोगों को आकर्षित कर रहे हैं।
          कहीं पर सर्कस दिखाई जा रही है। अनेक कार्टून चरित्रों के मुखौटे लगाकर कुछ लोग जन-साधारण का मनोरञ्जन कर रहे हैं। कहीं पर लोग निशानेबाजी कर रहे हैं। एक स्थान पर तो फिल्म दिखाई जा रही है। लोग किसी ज्योतिषी के पास बैठकर अपना भविष्य जानने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ लोग अपनी जरूरत के पशुओं का मोल भाव कर रहे हैं। खाने-पीने की दुकानों पर तो बहुत ही भीड़ है।
           कुल मिलाकर सर्वत्र आनन्द मनाते हुए लोग दिखाई दे रहे हैं। प्रकृति के सौन्दर्य को इस पृथ्वी पर निहारते ही बनता है। वन-उपवन में खिले हुए फूल अपनी और बरबस ही आकर्षित करते हैं। पशु-पक्षियों को देखो, तो उनसे नजर नहीं हटती। सदा से नदियाँ और समुद्र मनुष्य के मन को हर लेते हैं। पर्वतों की सुन्दरता देखते ही बनती है। लोग इन मनमोहक स्थानों पर जाकर प्रकृति से अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं।
           प्रातःकालीन और सायंकालीन सूर्य की आभा देखते ही बनती है। चाँद-सितारों से भरे आसमान की तो शान ही निराली होती है। बादलों की बाट जोहते हुए लोग उसकी एक फुहार पर मानो कुर्बान हो जाते हैं। छहों ऋतुओं का आनन्द मनुष्य इसी धरती पर ले सकते हैं। वर्षा ऋतु में चारों ओर बड़े-बड़े पेड़ और इमारतें नहाई हुई सी लगती हैं। वसन्त ऋतु की तो छटा निराली होती है। हरियाली और सुगन्धित बयार सबका मन मोह लेती है।
           मनुष्य चाहे अपने इस जीवन से चाहे कितना भी निराश हो, हताश हो, उसका शरीर बीमारियों के कारण साथ न दे रहा हो, यदि ऐसे व्यक्ति से पूछा जाए कि इस संसार को छोड़कर जाना चाहते हो, तो वह एकदम मना कर देगा। इसका कारण है कि दुनिया की खूबसूरती को कोई भी नहीं छोड़ना चाहता। संसार का आकर्षण उसे इतना बाँध लेता है कि वह इसे छोड़कर जाने की सोच भी नहीं सकता।
           मोह-माया के झूठे बन्धनों में मनुष्य इतना जकड़ा हुआ है कि अपने इन भौतिक रिश्तों से दूर जाने की कल्पना करना उसके लिए बहुत कठिन होता है। चाहे वह अपने बन्धु-बान्धवों से कितना भी पीड़ित किया जाता हो, फिर भी वह उनसे वियोग के विषय में सोच ही नहीं सकता। इसी आशा पर वह जीवित रहना चाहता है कि कभी तो सब ठीक हो जाएगा। वह उनके साथ पहले की तरह रह सकेगा।
           यह सृष्टि युगों-युगों से चली आ रही है और पता नहीं कब तक चलेगी। इस बात को यह मनुष्य समझना ही नहीं चाहता कि उसका जीवन पानी के बुलबुले की तरह है। वह उस तारे की तरह इस धरा पर रात को उदित होकर चमकता है, जो प्रातः होते ही छिप जाता है। यानी उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता। कोई उसके बारे में जान ही पाता। मनुष्य जब अपने अनुभव से ज्ञान का कोश बन जाता है, तब तक उसके विदा होने का समय आ जाता है।
          दुनिया के ऐसे वर्णनातीत मेले में हर किसी का मन रम जाता है। इसे छोड़कर जाने का किसी का भी मनुष्य का मन नहीं करता। परन्तु इस सृष्टि के नियम बहुत ही कठोर हैं। दुनिया के इस मेले को इन्सान को आखिर छोड़कर जाना ही पड़ता है। यह मेला केवल उसी व्यक्ति के लिए ही समाप्त हो जाता है, जो इस दुनिया से विदा लेकर परलोक की यात्रा के लिए प्रस्थान कर जाता है। 
           मनुष्य अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार जितनी आयु लेकर इस संसार में आता है, उसे भोगकर इस संसार से उसे जाना ही पड़ता है। यह संसार रूपी मेला ऐसे ही चलता रहता है। किसी के यहाँ से विदा हो जाने के उपरान्त कुछ भी नहीं बदलता। सब कुछ यथावत चलता रहता है। वैसे ही यहाँ मेला लगा रहता है, उसमें भाग लेने वाले लोगों की भीड़ भी वैसी ही बनी रहती है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

बहुरूपिया मन

 बहुरूपिया मन

हमारा मन एक बहुरूपिया है। बहुरूपिया उसे कहते हैं जो विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने में सक्षम होता है। बहुरूपिया व्यक्ति तरह-तरह के रूप धारण करके लोगों का दिल बहलाता है। लोग उसकी अदाकारी को बहुत समय तक स्मरण करते हैं। उसी प्रकार तरह-तरह के स्वाँग रचाकर मनुष्य का यह मन भी उसे नाना प्रकार से बहलाता रहता है। अपनी मोहिनी छवि से मनुष्य को अपने जाल में फँसाकर मोहित कर लेता है।
           मन सदा ही गतिमान रहता है। वह असंख्य स्थानों की सैर पल भर में करके आ जाता है। उसकी गति की सीमा को निर्धारित नहीं किया जा सकता। यदि कोई चाहे भी तो इसके उड़ान भरते पंखों को कोई नहीं काट सकता। मन को यदि किसी तरह से प्रवाह रहित कर दिया जाए, तब मनुष्य छोटे बच्चे की तरह विवेक शून्य हो जाएगा। उस समय मनुष्य सोचने-समझने की शक्ति ही खो देगा।
          यहाँ नदी का उदाहरण लेते हैं। नदी बिना रुके निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। रास्ते में अनेक चट्टानें उसका मार्ग अवरुद्ध करने के लिए पड़ी रहती हैं। परन्तु वे बड़ी-बड़ी चट्टानें उसके जल के प्रवाह को नहीं रोकने में समर्थ नहीं हो सकती। नदी का जल अपना मार्ग बना लेता है। वह उन  चट्टानों के अगल-बगल होकर बहने लगता है। इस प्रकार नदी का जल सदा गतिमान रहता है।
           नदी की तरह मनुष्य का यह मन सतत प्रवहमान रहता है। इसकी गति को कोई आजतक बाँध नहीं पाया है। कितने भी अवरोध लगा लो, यह अपने विचरने का मार्ग निकल लेता है। मनुष्य को तरह-तरह के सब्जबाग यह दिखाता ही रहता है। उसे भरमाता रहता है। उसे कभी भी चैन से नहीं बैठने देता। मनुष्य इसके बनाए भ्रमजाल में उलझकर रह जाता है, उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाता है।
           मनुष्य का मन उसे सतरंगी सपने दिखाता है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को प्रोत्साहित करता है। मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए उत्साहित करता है। उसे अशुभ कार्य करने पर डराता नहीं है बल्कि उकसाता है। उसके आलस्य को पोषित करता है। उसे निकम्मा बनने में सहायता करता है। जैसा मनुष्य करना चाहता है, वैसा करने में उसकी हाँ में हाँ मिलता रहता है।
           इस तरह अनेक रूप धारण करके यह मन एक ओर मनुष्य का मनोरंजन करता है और दूसरी ओर उसे विनाश के गर्त में धकेल देता है। इस प्रकार यह अपने अनेक रूपों से मनुष्य को प्रभावित करता है। जो मनुष्य इस मन को अपने वश में कर लेता है, तो मन उसके अनुसार चलता है। इसके विपरीत जो मनुष्य मन के अनुसार चलते हैं, वे दुखों और परेशानियों में घिर जाते हैं।
           यदि मनुष्य अपने इस जीवन में सुख-चैन से जीना चाहता है, तो उसे मन की बात को सुनकर अपने विवेक का भी सहारा लेना चाहिए। मन का सुझाया हुआ जो मार्ग उचित लगे, तो उसका अनुसरण करना चाहिए। जहाँ लगे कि मन का बताया हुआ मार्ग अनुचित प्रतीत हो रहा है अथवा वहाँ कुछ सन्देह हो रहा है, तब वहाँ अच्छे से सोच-विचार करके अपना कदम आगे बढ़ाना चाहिए।
          हमारा खुराफाती मन हमें विभिन्न प्रकार के नजारों में उलझाकर तमाशा देखता है। इस मन को मनुष्य किस प्रकार सीधे रास्ते पर लेकर आएँ? यह प्रश्न ऐसा है, जिसे सुलझा पाना बहुत ही टेड़ी खीर है। कितने ही ऋषि-मुनि इसे साधने में सफल हो गए और कितने ही हारकर मन के दास बन गए। मनुष्य की सफलता और असफलता का मुख्य कारण यह मन ही होता है।
           कर्म योग से यह मन विचलित नहीं होता। इसे साधने के लिए मनुष्य को अनवरत कर्म की साधना  करनी पड़ती है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपने कर्मों को पूर्णरूपेण से ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। जब वह अपने कर्म ईश्वर को समर्पित करेगा, तब निश्चित ही उसका ध्यान कर्मों की शुचिता की ओर जाएगा। वह अशुभ कर्म करने से बचेगा और शुभ कर्म करेगा।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2020

चुगलखोरी की लत

 चुगलखोरी की लत

चुगलखोरी एक विशेष कला है, जिसमें व्यक्ति निपुणता हासिल न ही करे तो अच्छा है। इस शब्द का प्रयोग सभी गाली के रूप में करते हैं। चमचा, बॉस का कुत्ता आदि कहकर लोग उनके सामने अथवा पीछे उनका उपहास उड़ाते हैं। इन चिकने घड़ों को इन विशेषणों से कोई भी अन्तर नहीं पड़ता। वे उल्टा खुश होते हैं। चुगलखोरी की इस नामुराद आदत को हम नकारात्मक सोच का नाम दे सकते हैं।
             प्राय: लोग चुगलखोरी की आदत को पसन्द नहीं करते। अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, ये चुगलखोर दूसरों की पीठ में छुरा भौंकने जैसा निकृष्ट कार्य करते हैं। ऐसा दुष्कृत्य करने वालों से लोग दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। उनके सामने ऐसी कोई भी बात करने से कतराते हैं, जिसको तोड़-मरोड़कर वे अपने ही लाभ के लिए उपयोग कर सकें और दूसरों की पीठ में छुरा घोंप सकें।
         जबान का यह कुटेव किसी इन्सान को सबकी नजरों से गिरा देता है। लोग सोचते हैं कि जब दूसरों की चुगली हमारे सामने करके यह वाहवाही लूटना चाहता है, तो फिर अन्यों के समक्ष अवश्य हमारी बुराई भी करता होगा। ऐसे लोग हमारे आसपास सर्वत्र ही उपलब्ध रहते हैं। कार्यालयों में कम्पनी के स्वामी अथवा बॉस ऐसे चुगलखोरों को पालते हैं, जो ऑफिस में बैठे हुए उन्हें अपने साथियों के विषय में बताते रहें।
        इस चुगलखोर के विषय में 'नर्ममाला' में कवि ने कहा है -
पिशुनेभ्य:नमस्तेभ्य: यत्प्रसादान्नियोगिन:।
दूरस्था अपि जायन्ते सहस्त्रश्रोत्रचक्षुष:॥
अर्थात् उन चुगलखोरों को नमस्कार है जिनकी कृपा से स्वामी दूर रहते हुए भी हजार आँखों और कानों वाले हो जाते हैं।
           इसका तात्पर्य यही है कि किसी भी कार्यालय में कार्य करने वाले स्वामी यदि दूर भी बैठे हों, तब भी उनको ऑफिस की खबरें देने वाले उनके चमचे वहाँ विद्यमान रहते हैं। वे उन्हें आँखों देखी सारी खबरें देते रहते हैं। वे नमक-मिर्च लगाकर उन सारी झूठी-सच्ची खबरों को बताने का अपना कार्य बड़ी कुशलता से निभाते हैं। इस प्रकार करके वे अपने साथियों का अहित कर बैठते हैं।
        इन चुगलखोरों को बॉस भी कोई महत्त्व नहीं देते। सिर्फ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ही बॉस इनको मुँहलगा बना लेते हैं। वे काम निकल जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह इन्हें निकाल फैंकने में भी परहेज नहीं करते। इस चुगलखोरी के दूरगामी परिणाम भयंकर होते हैं। ये लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिए भी बॉस के कान भरते हुए, अनजाने में ही अपने साथियों का अहित कर बैठते हैं।     
           'पञ्चतन्त्रम्' नामक पुस्तक में कवि ने इसी भाव को स्पष्ट किया है -
अहो खलभुजङ्गस्य विपरीतो वचक्रम:।
कर्णे लगति चैकस्य प्राणैरन्यो वियुज्यते॥
अर्थात् यह आश्चर्य की बात है कि इस चुगलखोर रूपी सर्प के मारने का उपाय ही विपरीत प्रकार का है। वह एक के कान में डसता है, पर प्राणों से कोई दूसरा वियुक्त होता है।
          कवि चुगलखोर को साँप की संज्ञा दे रहा है। वह कह रहा है कि इनको मारने का तरीका बहुत ही विचित्र है। यह किसी एक व्यक्ति के कान में अपनी चुगली का विष उगलता है और उससे किसी दूसरे व्यक्ति का विनाश होता है। चुगलखोर व्यक्ति दूसरे का अनजाने में कितना अहित कर जाता है, शायद वह स्वयं भी नहीं जानता। जिसका वह अहित करता है, उसे अपनी स्थिति को सुधारने में बहुत प्रयास करना पड़ता है।
           चुगलखोरी रूपी निन्दा पुराण दूसरे का अहित तो करता ही है, स्वयं अपने लिए भी गड्ढा खोदता है। दूसरों को नीचा दिखाने की होड़ में मनुष्य हर जगह अपनी ही हानि कर बैठता है। ऐसे व्यक्ति अविश्वसनीय होते हैं। अत: उन पर कोई विश्वास नहीं करता। ऐसा कुकृत्य करता हुआ मनुष्य अपने अन्तस् के विचारों को दूषित करता है। इस चुगली रूपी मल से अपने अन्त:करण की शुद्धि करना बहुत कठिन हो जाता है।
           जीवन के अन्त में अर्थात् मृत्यु के पश्चात ऐसे लोगों का नाम सभी हिकारत से लेते हैं। प्रयास यही करना चाहिए कि इस बुराई के घर से यथासम्भव दूर रहा जाए। क्षणिक तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति करते हुए अथवा अपने अहं को तुष्ट करने के लिए, किसी का अहित नहीं करना चाहिए। ऐसा करना स्वयं से दुश्मनी निभाना होता है। इस प्रकार करके मनुष्य को अपने लोक और परलोक को बिगड़ने नहीं देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

पल की खबर नहीं

 पल की खबर नहीं

जीवन में अगले पल क्या होने वाला है, इस विषय में मनुष्य को कुछ पता नहीं होता। जीवन उसका है, पर वही अपने भविष्य से अनभिज्ञ रहता है। इसका कारण है कि जो भी भविष्य के गर्भ में छुपा रहता है, उसके विषय में कोई नहीं बता सकता। भविष्य वक्ता केवल कयास लगा सकते हैं। उनकी बताई बात यथार्थ की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। केवल एक ईश्वर है, जो सब कुछ जानता है।
            मनुष्य अभी है, पर अगले पल रहेगा या नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अगला पल किसने देखा? मनुष्य के जीवन का पलभर का भी भरोसा नहीं है, पर वह इस तरह दुनिया भर का सामान इकट्ठा करता है, जैसे उसे सौ साल तक जीना है। इसी बात को किसी कवि ने कहा है-
   सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं।
इस संसार मे आकर मनुष्य अपने डेरा सदा के लिए डाल लेता है।
           यद्यपि हमारे ऋषि-मुनि ईश्वर से सौ वर्ष जीने की प्रार्थना करते थे। वे कहते थे कि सौ वर्षों तक वे स्वस्थ होकर इस संसार में जीवित रहें। पर फिर भी इस क्षणभंगुर जीवन के विषय में कोई कुछ भी नहीं कह सकता। मनुष्य कब तक जीवन का भोग करेगा, यह उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों पर निर्भर करता है। इन कर्मों के अनुसार उसे यह जीवन मिलता है। उसकी आयु समाप्त होते ही उसे इस दुनिया से विदा हो जाना पड़ता है।
             क्षणभंगुर मनुष्य के इस जीवन के विषय में कबीरदास जी कहते हैं-
पानी केर बुदबुदा अस मानस की जात।
देखत ही छुप जाएगा ज्यों तारा परभात।।
अर्थात् मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है, जो बनता है और पलभर में टूटकर बिखर जाता है। जिस प्रकार प्रातः होते ही तारे छुप जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी इस दुनिया से विदा ले लेता है।
           कहने का तात्पर्य यही है कि इस संसार में सभी लोग काल के बन्धन में बँधे हुए हैं। मनुष्य को मात्र थोड़ा-सा जीवन जीने के लिए मिला है और वह उसी में बहुत-से ठाठ-बाठ रचाता है। आराम और सुविधा से जीवन व्यतीत करना चाहता है। यदि मनुष्य अपने मन की आँखें खोलकर देखे, तो अमीर, गरीब, राजा, रंक, आदि सभी के ऊपर जन्म-मरण तथा आवागमन का चक्र मंडराता रहता है।
           मनुष्य की हवस है, जो उसे चैन नहीं लेने देती। एक घर खरीद लिया, वह कम है। नामी-बेनामी सम्पत्तियाँ मनुष्य खरीदता रहता है। एक गाड़ी से काम चल सकता है, पर मँहगी गाड़ियों का जखीरा उसके पास होना चाहिए। कोई कहता है कि उसके पास इतना धन है कि उसकी सात पीढ़ियाँ बैठकर खा सकती हैं। अरे भाई, कभी सोचा है कि तुमने तो परिश्रम कर लिया, बाकी आने वाली पीढ़ियाँ हाथ पर हाथ धरे निठल्ली बैठेंगी क्या?
         घर में अलमारियाँ कपड़ों से भरी हुई हैं, पर पहनने के लिए वस्त्र नहीं है। कितना विचित्र है न यह सब। अगले ही पल यदि भूकम्प आ गया या बाढ़ आ गयी, तो जोड़ा हुआ सब धन-वैभव कहाँ जाएगा? किसी को कुछ भी पता नहीं है। सब समय की रेत पर लिख दिया जाएगा। तब कोई भी मनुष्य दाने-दाने के लिए मोहताज हो सकता है। तब उसे समझ में नहीं आएगा कि वह अब क्या करे? उस समय कल का राजा आज का रंक बनकर रह जाता है।
           यह भी मनुष्य को खबर नहीं कि वह जो निवाला हाथ में पकड़कर बैठा है, उसे मुँह तक ले जा सकेगा या नहीं। चाय का जो कप लेकर बैठा है, उसे पी सकेगा अथवा वह लहराकर उसके हाथ से ही गिर जाएगा। मनुष्य चलते-फिरते, गाड़ी में बैठे या ऑफिस से ही सबको बिलखता हुआ छोड़कर, परलोक की यात्रा के लिए तो नहीं निकल जएगा। इसे ही कहते हैं कि मनुष्य को अगले पल के बारे में पता नहीं है।
           मृत्यु मनुष्य के जन्म के साथ से ही उसकी सखी बनकर उसके पास ही रहती है और इस संसार से अपने साथ ही लेकर जाती है। मनुष्य उसे अनदेखा करके दुनिया के भोग-विलास में मस्त रहता है। वह अपने किसी बन्धु-बान्धव की अन्तिम यात्रा के लिए श्मशान घाट पर भी जाता है। फिर भी वह सोचता है कि मृत्यु उसके पास नहीं आएगी। इसलिए वह फिर इस दुनिया के कारोबार में व्यस्त हो जाता है।
         मनुष्य को पल-पल अपनी ओर बढ़ रही मृत्यु को सदैव स्मरण रखना चाहिए। उसे जीवन के साथ-साथ मृत्यु का भी मूल्य समझना आना चाहिए। यदि वह उसे कभी न भूले, तो जीवन में गलत रास्ते पर नहीं जा सकेगा। वह अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देगा। अपना इहलोक और परलोक दोनों को सुधारने का भरसक प्रयत्न करेगा। ईश्वर की सच्चे मन से आराधना करता हुआ मनुष्य अपने जीवन को सफल बनाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2020

मन का खालीपन

 मन का खालीपन

बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य का मन बिना किसी कारण के परेशान हो जाता है। उस समय मनुष्य को लगता है कि वह संसार का सबसे अधिक दुखी प्राणी है। इसे दूसरे शब्दों में कहें, तो मनुष्य के मन में एक तरह का खालीपन समा जाता है। एक ही जैसा बोरियत वाला काम करते हुए मनुष्य उकता जाता है या ऊब जाता है। उस समय वह उससे भागकर कहीं चले जाना चाहता है, जो उसके लिए सम्भव नहीं होता।
           खालीपन का अर्थ है कोई काम न होना। वैसे यह खालीपन जीवन के लिए अच्छा नहीं होता। यदि मनुष्य के जीवन में कहीं कुछ खालीपन आ जाता है, तो उसे उसको अपनी इच्छानुसार भरने का प्रयास करना चाहिए। वैसे तो कोई भी मनुष्य नहीं चाहता कि उसके जीवन में किसी चीज की कोई कमी रह जाए। चाहे वह कमी घर की हो, गाड़ी की हो या अन्य सुख-सुविधा की हो, जिनसे लोग अक्सर अपने जीवन में वंचित रह जाते है।  
           खालीपन महसूस करने वाले सब लोग एक ही तरह से सोचते हैं। उन्हें सदा यही लगता है कि उनका जीवन अर्थहीन हो गया है। उनके पास कुछ भी करने के लिए नहीं है। मनुष्य से मानो उसके होने के अस्तित्व का अहसास छिन जाता है। वह स्वयं को अन्दर से खोखला महसूस करने लगता है। वह किसी से बात ही नहीं करना चाहता, पर अपने अकेलेपन से वह घबरा जाता है।
           सयाने कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। एक खाली घर में यदि कोई व्यक्ति अकेला रहता है, उसका वहाँ पर मन नहीं लगता। वह परेशान हो जाता है। उसमें उल्टे-पुल्टे विचार घर करने लगते हैं। इसी प्रकार जब मनुष्य का मन खाली हो जाता है, तो उसमें नकारात्मक विचार भरने लगते हैं। वे उसका सुख-चैन सब हर लेते हैं, उसे निराशा घेरने लगती है और वह छटपटाने लगता है।
            यदि जीवन में सब कुछ पहले से विद्यमान होता है, तो मनुष्य उन सब चीजों से ऊब जाता है। अभी तक जो चीजे उसे सुख देती थीं, वही उसके दुःख का कारण बनने लगती हैं। मनोचिकित्सकों का मानना है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य के खालीपन से मानसिक डिसऑर्डर या पर्सनैलिटी डिसऑर्डर हो सकता है, शराब या ड्रग्स की लत लग सकती है, अवसाद या डिप्रेशन में जा सकता है, उसे अस्तित्व सम्बन्धी संकट हो सकता है।
            मनुष्य को चाहिए कि किसी भी छोटी या बड़ी उपलब्धि पर उसे स्वयं को बधाई देनी चाहिए। अपनी पीठ थपथपानी चाहिए। इससे प्रसन्नता होती है। अपने विचारों को सकारात्मक बनाने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य जब अपने जीवित होने या अस्तित्व को स्वीकार करने लगता है, तो उसमें उत्सह आने लगता है। दूसरों की राय को अनावश्यक महत्त्व नहीं देना चाहिए। 
            मनुष्य के मन में जब किसी भी कारण से खालीपन समाने लगता है, उस स्थिति में वह आत्महत्या तक कर लेता है। यह स्थिति मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं होती। इस अवसादपूर्ण अवस्था से मनुष्य का बाहर निकलना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिए उसे अपनों के साथ की आवश्यकता होती है। परिवारी जनों को चाहिए कि ऐसे मनुष्य को अकेले न छोड़ें। सदा ही कोई न कोई उसके साथ रहना चाहिए।
            मन के खालीपन के कारणों के विषय में मनुष्य को विचार करना चाहिए। खालीपन को स्वीकार कर लेना चाहिए। इससे बचने के लिए टीवी देख सकते हैं या वीडियो गेम्स खेल सकते हैं। अपने विचारों और सपनों पर ध्यान देना चाहिए। इस समय योग करना चाहिए, किसी मनपसन्द साज को बजाना चाहिए। लेखन कार्य भी किया जा सकता है, बागवानी में समय बिताया जा सकता है। 
          मनुष्य को जिस काम में मजा आता हो या जो उसकी हॉबी हो, वह उस कार्य को कर सकता है। अपने बन्धु-बान्धवों से मिलकर मन को प्रसन्न कर सकता है। मन को बहलाने के लिए किसी मनोरम स्थान पर घूमने जा सकता है। इन सबसे बढ़कर वह अपनी रुचि की पुस्तकें पढ़ सकता है। ईश्वर की आराधना में अपना ध्यान लगा सकता है। इस तरह करने से कुछ समय बाद इस खालीपन के स्थान पर आनन्द का अनुभव होने लगेगा। 
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

जीवन चलने का नाम

जीवन चलने का नाम

मनुष्य का जीवन जब तक चलता रहता है, तभी तक उसमें जीवन्तता रहती है। इससे मनुष्य में कार्य करने का उत्साह एवं स्फूर्ति बनी रहती है। मानव जीवन की सफलता का मार्ग है, सही दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते जाना। उसके लिए मनुष्य को जागृत होकर निरन्तर आगे बढ़ना होता है। अपने भाग्य का मालिक मनुष्य स्वयं है, वह इसे बना सकता है। जब वह उठ खड़ा होता है, तो उसका भाग्य भी उन्नत होता है। 
            जब यह जीवन किसी कारण से निराश होकर अथवा हताश होकर चलने से इन्कार कर देता है या बैठ जाता है, तब यह जीवन मृतप्रायः हो जाता है। जब एक मनुष्य निष्क्रिय, आलसी और एक प्रकार से सोया हुआ होता है, तब उसकी सफलता को ग्रहण लग जाता है। यदि मनुष्य केवल बैठा रहता है, तो उसका भाग्य भी निष्क्रिय हो जाता है। मनुष्य के सो जाने पर उसका भाग्य भी सो जाता है।
           'ऐतरेय ब्राह्मण' में कहा गया है- 'चरैवेति चरैवेति।' अर्थात् मनुष्य को सदा चलते रहना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि सारी प्रकृति गतिशील है। वह अपने निश्चित समय पर बदलती है। सूर्य सभी के लिए प्रेरणा और ऊर्जा का स्त्रोत है। वह कभी निष्क्रिय नहीं बैठता, न ही वह आराम करता है और न ही सोता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने कार्य बिना किसी के कहे कुशलतापूर्वक करता है।
           नदी प्रवहमान रहती है, तो उसका जल शुद्ध और पीने योग्य होता है। यदि वह रुक जाए, तो उसका जल कीचड़युक्त हो जाता है। उसमें से दुर्गन्ध भी आने लगती है। इसी प्रकार वायु निरन्तर बहती रहती है, इसीलिए वह जीवों की प्राणशक्ति है। यदि वायु दूषित हो जाए, तो रोगों का कारण बन जाती है। इसी प्रकार सभी ग्रह-नक्षत्र अपने नियम से चलते रहते हैं, उनमें कहीं कोई रुकावट नहीं होती।
           मनुष्य एक बच्चे के रूप में जन्म लेता है। फिर अपने विकास के क्रम को पूर्ण करता हुआ अन्त में मृत्यु के आगोश में समा जाता है। मृत्यु जीवन का अन्त नहीं होती, अपितु नवजीवन का आरम्भ होती है। जीवन का यह क्रम अनवरत चलता रहता है। इसी प्रकार एक बीज क्रमानुसार वृक्ष बन जाता है। तब वह जीवों को छाया और फल देता है। इस क्रम में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता।
           अनुकूल या प्रतिकूल हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही आगे बढ़ते रहने का नाम जीवन है। जीवन में निराश और हताश होकर मनुष्य अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। जो बीत गया सो बीत गया, उसकी चिन्ता छोड़कर शेष बचे हुए जीवन के विषय में ही मनुष्य को विचार करना चाहिए। श्रेष्ठ पुरुष दौड़ लगाते हैं और रेस में आगे भागते हुए जीत जाते हैं। जो मनुष्य भागता है, उसी को ही लक्ष्य मिलने की सम्भावना होती है।
            जंगल का राजा शेर भी जब तक अपने भोजन के लिए स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, तब तक उसे भोजन प्राप्त नहीं होता। अपने आप तो कोई पशु उसके मुँह में आहार बनने के लिए नहीं चला जाता। इसी प्रकार भोजन की थाली चाहे मनुष्य के सामने क्यों न पड़ी रहे, जब तक वह स्वयं ग्रास तोड़कर मुँह में नहीं डालता, तब तक वह उस स्वादिष्ट भोजन का आनन्द नहीं ले सकता।
          मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करना है। उसे सदाचार और अनुग्रह करना चाहिए। शुभकर्म करना सन्तोषप्रद होता है। भाग्य को केवल आलसी और कामचोर लोग कोसा करते हैं। पुरुषार्थी व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझता है। जो जो ईश्वर पर विश्वास रखकर कर्म और पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें सफलता मिल जाती है। संसार का बनना-बिगड़ना सब ईश्वर के ही आधीन है। 
           इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को अपने जीवन में अनवरत चलते रहना होता है। अपने जीवन का निर्माण वह कर्म करके करता है। उसे किसी भी शर्त पर थक-हारकर या निराश होकर नहीं बैठना है, ऐसा करके वह रोगों का घर बन जाता है। वह जितना परिश्रम करता है, उतना ही सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है। अतः अपने स्वर्णिम भविष्य के लिए चलते जाना है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

चार लोग क्या कहेंगे?

 चार लोग क्या कहेंगे?

उन चार लोगों का बहुत शिद्दत से इन्तजार है, जो हम सबके जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। मनुष्य को हर समय उनसे डर-डरकर जीना पड़ता है। उनकी नाराजगी की परवाह करनी पड़ती है। यह बात आज तक समझ में नहीं आ पाई कि मनुष्य अपने सारे जीवन में उनकी ओर आस लगाकर क्यों देखता है? ये चार लोग हौव्वा बनकर उसके सिर पर सवार रहते हैं। उनसे बचने का कोई रास्ता उसके पास नहीं है।
            ये चार लोग आखिर कौन से हैं? जो देखेंगे तो क्या कहेंगे? सुनेंगे तो क्या सोचेंगे? उन्हें सबके जीवन में ताक झाँक करने का अधिकार किसने दिया? ये चार लोग क्या इतने शक्तिशाली हैं, जो सबके जीवन को प्रभावित करते हैं? मनुष्य क्यों सोचे कि लोग क्या कहेंगे? ये लोग क्यों दूसरों की जिन्दगी में हस्तक्षेप करते रहते हैं? ये कुछ प्रश्न हैं, जिनके उत्तर खोजे जाने आवश्यक हैं।
            मम्मी हमेशा कहती है, बेटी है हर जिद पूरी मत करो, चार लोग क्या कहेंगे? लड़की जात है, ऐसे शहर से बाहर अकेले भेजेंगे तो चार लोग क्या सोचेंगे? बेटी का जोर से हँसना उन्हें परेशान करता है, वे कहती हैं कि अच्छे घरों की बेटियाँ ऐसे नहीं हँसती। कोई सुन लेगा तो चार लोग बातें करेेंगे। घर के पास वाले कॉलेज से ही पढ़ाई करेगी, तो घर के काम-काज सीख लेगी। इतनी दूर दूसरे शहर पढ़ने भेजा तो चार लोग क्या कहेंगेंं?
           घर-परिवार में यदा कदा झगड़े हो ही जाते हैं। पति-पत्नी का, पिता-पुत्र का, माता-बेटी का, सास-बहू का, भाई-भाई का  यानी किसी का झगड़ा किसी भी बात पर हो सकता है। तब यही कहा जाता है, कि चार लोग घर में मनमुटाव की बात सुनेंगे तो क्या कहेंगे? इसी प्रकार यदि कोई सदस्य ऊँचा बोलता है, तब भी यही कहा जाता है कि धीरे बोलो कोई सुन लेगा, तो चार लोग बात बनाएँगे।
            हम सभी बचपन से ही ये वाक्य सुनते आए हैं कि ऐसा मत करो चार लोग बातें करेंगे, ऐसे कपड़े मत पहनों, कोई देखेगा तो चार लोग क्या कहेंगे और हमें अभी तक पता नहीं लग पाया कि वो चार लोग कौन से हैं? यदि माँ से पूछा जाए कि ये चार लोग कौन हैं? जो हमारे हर काम में दखल देते हैं। तो उन्हें भी नहीं पता होगा। ब्रह्मवाक्य की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी यह वाक्य बोला जाता है।         
            मनुष्य को अपने जीवन के निर्णय स्वयं ही लेने आना चाहिए। उसे अपने ही सपनो को पहचानना आना चाहिए। उसे उन सपनों के सच होने की उम्मीद को अवश्य ही मजबूती देनी चाहिए। बिना यह सोचे कि लोग क्या सोचेंगे या क्या कहेंगे? मनुष्य को अपनी जिन्दगी, अपने तरीके से जीना आना चाहिए। उसे किसी भी कार्य के लिए दूसरों का मुँह देखने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। 
           हमारे समाज के अधिकतर लोग इन चार लोगों के चक्कर में अपने जीवन के जरूरी निर्णय समाज और परिस्थितियों के भरोसे ले रहे हैं। उन्हें अपने बूते पर जीवन चलाने की क्षमता होनी चाहिए। उन्हें किसी का मुँह नहीं देखना चाहिए। यदि वे हर कदम पर दूसरों की परवाह करते रहेंगे, तो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकेंगे। हर मनुष्य की प्राथमिकता उसके जीवन की सफलता होनी चाहिए।
             ये चार लोग वास्तव में मनुष्य के बेहद करीबी तथा शुभचिन्तक होते हैं। ये ही मनुष्य को जीवन की अन्तिम यात्रा के समय अपने कन्धों पर उठाकर श्मशान ले जाते हैं। ये चार लोग कोई नहीं हैं, केवल हमारे मन कि उपज है, जो हमारे अन्दर गहरे पैठ गए हैं। लोग तो कहते ही रहेंगे। उनका तो काम ही कहना है। मनुष्य जब अच्छा करता है, तब वे परेशान होते हैं और जब वह गलत करता है, तब वे हैरान हो जाते हैं। 
            मेरे विचार में 'चार लोग क्या कहेंगे' यह मुहावरा पूरे समाज का ही प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य पूरे समाज का नाम लेकर कोई चेतावनी नहीं दे सकता, इसलिए चार लोगों के नाम पर यह उत्तरदायित्व सौंप दिया गया है। ताकि इनसे डरकर लोग गलत कार्यों की ओर प्रवृत्त न हों। यदि विद्वज्जन को इसके अतिरिक्त कोई और अर्थ उचित प्रतीत हो रहा हो, तो वे अपने विचार रख सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

धर्म का अर्थ

धर्म का अर्थ

धर्म मनुष्य को घुट्टी में पिलाया जाता है। बच्चा जब बोलने लगता है, तब माता-पिता उसे अपने इष्ट देव की स्तुति स्मरण करवाने लगते हैं। जब बच्चा उसका शुद्ध उच्चारण करते हुए उसे कण्ठस्थ कर लेता है, तो वे फूले नहीं समाते। माना यही जाता है कि धर्म दिलों को जोड़ने के लिए एक पुल का कार्य करता है। विश्व का कोई भी धर्म आपस में वैमनस्यता फैलाने का कार्य नहीं करता। 
           धर्म के नाम पर यदि दंगे-फसाद या मारकाट होने लगे, तब इसके कारण और निवारण पर मनुष्य को अवश्य ही विचार कर लेना करना चाहिए। धर्म हर मनुष्य का बेशक व्यक्तिगत मामला होता है, परन्तु उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। यदि धर्म को हम मनुष्य का कर्त्तव्य मानते है, तो भी उसका व्यक्तिगत आचरण निस्सन्देह उसके अपनों तथा समाज पर अपना प्रभाव छोड़ता है।
          'देवी भागवत' नामक पुराण में महर्षि वेदव्यास ने कहा है-
परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ।
धर्मं चाप्यसुखोदर्कं  लोकनिकृष्टमेव च॥
अर्थात् जो धन-सम्पत्ति तथा मन की इच्छा धर्म के विपरीत हो, उसका त्याग करना चाहिए। जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है या किसी समाज के प्रतिकूल सिद्ध हो सकता है, उस धर्म में भी परिवर्तन करना आवश्यक है।
         इस श्लोक में यह समझाया गया है कि धन-वैभव या कोई कामना यदि धर्म के विरुद्ध हो, तो मनुष्य को चाहिए कि वह उनका त्याग कर दे। आने वाले समय में यदि धर्म से संकट उत्पन्न होने की आशंका हो, तो उस धर्म में परिवर्तन कर देना ही श्रेयस्कर होता है। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि धर्म जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का कार्य करने लगे, तो विद्वत सभा को उस पर विचार करके, उसमें परिवर्तन कर देना चाहिए। यही मानव जाति के लिए उत्थान के लिए आवश्यक होता है।
          'मनुस्मृति:' में मनु महाराज धर्म के विषय में कहते हैं-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
अर्थात् जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म रक्षा करता है। मरा हुआ धर्म हमें न मार डाले, इस भय से धर्म का त्याग कभी न करना चाहिए।
           महाराज मनु के अनुसार धर्म का आशय व्यक्ति के अपने कर्त्तव्य, नैतिक नियम, आचरण आदि से है। जो व्यक्ति इन सबका ईमानदारी से पालन करता है, वह धर्म की रक्षा करने वाला होता है। प्राचीन धर्मशास्त्रों में धर्म के स्वरुप का विभिन्न रूप से वर्णन किया गया है। मनुस्मृति ग्रन्थ में सामाजिक नियमों और वर्ण व्यवस्था के अनुरूप इन सभी कर्तव्यों या नियमों को बताया गया है। 
          मनुस्मृति में ब्राह्मण का कर्त्तव्य क्षत्रिय से सर्वथा अलग बताया गया है, वैश्य और शूद्र के कार्य भी यहाँ अलग-अलग बताए गए हैं। इसी तरह एक स्त्री के कर्त्तव्य भी पुरुष से भिन्न कहे गए हैं। ये सब कर्तव्य धर्म और विधान से जुड़े हुए हैं, इसलिए इस विधान को चुनौती देना धर्म सम्मत नहीं कहा गया, इसे धर्म की अवमानना करना समझा जाता था। इसके लिए मनुस्मृति में दण्ड का विधान भी किया गया था।
         भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भागवद्गीता' में अहिंसा को परम धर्म माना है-
   अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च
इस श्लोक के अनुसार अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं। परन्तु जब धर्म पर आंच आए तो यह नहीं कह सकते कि हम अहिंसक हैं, इसलिए कायर बनकर मार खाते रहेंगे। उस समय। धर्म की रक्षा करने के लिए प्रतिकार करना सबसे बड़ा धर्म होता हैं। 
           दूसरे शब्दों में कहें तो सदा अहिंसा का मार्ग मनुष्य को अपनाना चाहिए, परन्तु यदि उसके धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आए, तो पाण्डवों की तरह अहिंसा का मार्ग त्यागकर, डटकर शत्रु का मुकाबला करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी के परिवार को कोई हानि पहुँचता हैं, उसका उत्तर तो देना ही पड़ता है। मनुष्य का पहला कर्त्तव्य या धर्म अपने घर-परिवार, देश और समाज के हितार्थ होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

आश्चर्य की बात

आश्चर्य की बात

संसार में अनेक आश्चर्यजनक प्रतिदिन घटनाएँ घटती रहती हैं। जिन्हें देखकर और सुनकर लोग उन्हें अनदेखा और अनसुना कर देते हैं। उस समय मनुष्य यही सोचता है कि उसके साथ तो अमुक घटना नहीं घटी। वह इसलिए निश्चिन्त होकर रह जाता है। इसी कड़ी में एक जीवन सत्य की आज चर्चा करते हैं। अपने आसपास नित्य प्रति कई लोगों को मृत्यु का ग्रास बनते हुए सब लोग देखते हैं। फिर भी मनुष्य अपने में ही मस्त रहता है।
         महाभारत में एक प्रसंग आता हैं कि पाण्डव अपने तेरह-वर्षीय वनवास के दौरान एक वन में विचरण कर रहे थे। तब उन्होंने प्यास बुझाने के लिए एक बार पानी की तलाश की। उन्हें पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वे वहाँ पहुँचे। एक यक्ष उस जलाशय का स्वामी था। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव उस यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिए बिना ही जल पीने चाहते थे। यक्ष ने उन्हें चेतावनी दी पर वे नहीं माने, तब उसने उन्हें बेहोश कर दिया। 
           अन्त में युधिष्ठिर स्वयं उस तालाब पर गए। उन्होंने यक्ष के प्रश्नों के उत्तर दिए। उस समय यक्ष ने उनसे एक प्रश्न पूछा, "संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है?"
           युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "हर रोज आँखों के सामने कितने ही प्राणियों की मृत्यु हो जाती है, यह देखते हुए भी इन्सान अमरता के सपने देखता है। यही महान आश्चर्य है।"
           इस घटना का तात्पर्य यही है कि अपने सामने ही लोगों को मृत्यु के मुँह में जाते हुए देखते हैं। कुछ लोगों के संस्कार करने के लिए श्मशान घाट में भी जाते हैं। वहाँ पर कुछ समय के लिए ही मनुष्य को वैराग्य होता है, जिसे श्मशान वैराग्य कहते हैं। मनुष्य यह सोचता है कि उसका कुछ भी नहीं है। सब कुछ यहीं पर रह जाना है। मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता हैं और खाली हाथ ही इस दुनिया से विदा हो जाता है।
          यह वैराग्य मनुष्य को बस वहीं खड़े रहकर होता है। ज्योंहि वह श्मशान घाट से मृतक का संस्कार करके बाहर निकलता है, उसका ज्ञान कहीं खो जाता है। वह संसार की मोह-माया में भटक जाता है। वह अपने कार्य-व्यापार में सब कुछ भूलकर मस्त हो जाता है। उसे श्मशान की और वैराग्य की सारी बातें भूल जाती हैं। वह सोचता है कि जाने वाला तो चला गया है, पर वह यहाँ से नहीं जाएगा।
           मनुष्य सोचता है कि मानो वह इस संसार में अमर रहने के लिए ईश्वर से अपने लिए एक पट्टा लिखवाकर लाया है। वह इस संसार से कहीं नहीं जाने वाला। इसलिए वह दिन-रात अथक परिश्रम करके अकूत धन और वैभव का संग्रह करता है। हर प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है। किसी भी तरह सफल हो जाने की जुगत भिड़ाता है। स्वयं को सत्य सिद्ध करने के लिए वह तरह-तरह के बहाने गढ़ता रहता है। 
          मनुष्य तभी तक इस संसार में डेरा डालकर रह सकता है, जब तक उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उसकी आयु का निर्धारण ईश्वर ने किया है। न उससे एक पल अधिक और न ही उससे क्षण भर भी कम। मनुष्य को सदा यह सत्य याद रखना चाहिए। उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह सदा के लिए इस संसार में नहीं रहने वाला। एक दिन उसे यहाँ से विदा लेकर जाना ही होगा। 
           कबीरदास जी ने इस इस संसार की असारता के विषय में एक गीत लिखा है, जिसकी पहली पंक्ति है-
         रहना नहीं देश बीराना हैं।
मनुष्य जब इस अटल सत्य को आत्मसात कर लेता है, तब वह इस संसार में रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। वह मोह-माया के जाल में अनावश्यक नहीं फंसता। अपने सभी कार्यों को ईश्वर को ही समर्पित करता रहता है।
           मनुष्य का जीवन पल-पल करके घटता जाता है। वैसे तो मृत्यु के लिए किसी आयु विशेष की बात नहीं होती। पर फिर भी एक पीढ़ी इस संसार से विदा लेती है, तो पीछे नई पीढ़ी तैयार रहती है। रहीम जी के दोहे में यही बात समझाई गई है-
माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥
अर्थात् माली को आते देखकर कलियाँ कहती हैं कि आज तो उसने फूल चुन लिए, पर कल हमारी भी बारी भी आएगी क्योंकि कल हम भी खिलकर फूल हो जाएँगे।
         यही एक शाश्वत सत्य इस संसार के लोगों के लिए आश्चर्य का कारण है।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

सौतेली माँ

सौतेली माँ

मेरे विचार में माँ तो माँ होती है, चाहे वह अपनी सगी हो या सौतेली। मुझे दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता। सौतेली माँ वह होती है, जो बच्चे की अपनी जन्मदात्री सगी माँ की मृत्यु के उपरान्त पिता की पुनः शादी करने पर घर में आती है। वह भी वही सब कार्य करती है, जो बच्चे की अपनी सगी माँ किया करती थी। उन दोनों के कार्य व्यवहार में किसी तरह का कोई अन्तर नहीं होता है।
          सौतेली माँ का हौवा बच्चे के कोमल मन में इस तरह बिठा दिया जाता है कि वह उससे अनजाने में घृणा करने लगता है। उसे अपना शत्रु समझने लगता है। उसके हर काम में मीनमेख निकालने लगता है। जब भी उसे अवसर मिलता है, वह उसका अपमान कर देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सौतेली माँ और बच्चे के बीच एक खाई-सी बन जाती है। इस खाई को पटना बहुत कठिन कार्य हो जाता है।
         देखा जाए तो अपनी माँ भी बच्चे को गलती करने पर डाँट-डपट करती है। बहुत ज्यादा शरारत करने पर वह कभी-कभार उसकी पिटाई भी कर देती है। अनुशासन सिखाने के लिए या पढ़ने में कोताही करने पर उसे सजा भी दे देती है। बच्चे के इन्हीं दोषों के लिए यदि सौतेली माँ वैसा करती है, तो उसे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। यदि वह बच्चे की कमियों को अनदेखा कर दे, तो बच्चा बड़ा होकर हाथ से निकल जाता है। उस समय सारा दोष सौतेली माँ का ही माना जाता है।
           कुछ लोगों को दूसरों के घर में आग लगाकर तमाशा देखने में बहुत ही आनन्द आता है। ऐसे लोग उस मासूम से बच्चे को भड़काते हैं कि उसकी सौतेली माँ है, तो वह उसके साथ बुरा व्यवहार करेगी। उधर महिला को उल्टी पट्टी पढ़ाते हैं कि सौतेला बच्चा है, वह इस तरह बत्तमीजी करेगा ही। घर के लोगों ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है। तुम्हारे खिलाफ उसे भड़काते रहते हैं। घर के अन्य सदस्य अनावश्यक लाड़ लड़ाकर उसे बेचारा बना देते हैं।
           सौतेली माँ और बच्चे के बीच होने वाली कटुता के लिए घर-परिवार के लोग और आस-पड़ोस के लोग जिम्मेदार होते हैं। वे उन दोनों के बीच होने वाले सद् भाव को बनने से पहले ही बिगाड़ देते हैं। वे दूसरे के घर में सामञ्जस्य बना रहे, खुशहाली रहे यह उनको सहन नहीं होता। इसलिए वे उनके घर में दोनों को भड़काने का कार्य करते हैं। उनके आपसी वैमनस्य को हवा देते रहते हैं।
          कई बच्चे इतने अधिक भावुक होते हैं कि वे अपनी माँ की किसी भी वस्तु को सौतेली माँ को छूने नहीं देते। कोई भी उसे बच्चा समझकर क्षमा नहीं करता। कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं, जो विवाह इसी शर्त पर करते हैं कि उन्हें नई पत्नी से बच्चा नहीं चाहिए। वे केवल अपने बच्चों की परवरिश के लिए शादी कर रहे हैं। ऐसे में अपने बच्चे न हों और सौतेले बच्चे अपने न बनें, तब समस्या वाकई गम्भीर हो जाती है।
         सब जगह अच्छा-अच्छा ही नहीं होता। कभी कोई सौतेली माँ ऐसी भी होती है, जो सौतेले बच्चों से दुर्व्यवहार करती है। अपने बच्चों और सौतेले बच्चों में भेदभाव करती है। उनकी पढ़ाई और शादी आदि में भी एक समान व्यवहार नहीं रखती। धन और सम्पत्ति के विभाजन के समय वह अपने बच्चों को अधिक दिलवाती है। इन कारणों से भी यह सम्बन्ध हाशिए पर आ जाता है। उन दोनों के सम्बन्धों में मधुरता नहीं आ पाती।
          इसी कड़ी में हम सौतेले पिता के व्यवहार पर भी चर्चा कर लेते हैं। कहीं पति और पत्नी दोनों के ही बच्चे होते हैं और कहीं केवल पत्नी के बच्चे होते हैं। सौतेले पिता का सौतेली बेटी के शोषण के समाचार हम बहुधा समाचार पत्रों में पढ़ते हैं और टी वी में देखते हैं। सौतेले बेटों के साथ भी उसका व्यवहार कुछ सामञ्जस्य पूर्ण नहीं हो पाता। बहुत बार बच्चे अपने सौतेले पिता को स्वीकार नहीं कर पाते। वहाँ उनमें फिर झगड़े की स्थिति बनी ही रहती है।
            इस चर्चा का सार यही है कि सौतेली माता के साथ सभी बन्धु-बान्धवों का सौहार्दपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। घर के अन्य सदस्यों को माता और बच्चों को मिलाने वाली कड़ी बनना चाहिए, न कि उनमें दुर्भावना आने देनी चाहिए। यदि उनमें मधुर सम्बन्ध बनेंगे, तभी तो घर में सुख और शान्ति बनी रह सकेगी। अन्यथा घर में कलह-क्लेश होता रहता है। इससे घर के सभी सदस्य परेशान रहते हैं। बच्चे तो बच्चे होते हैं, सौतेली माता को अपना दायित्व समझकर उन्हें उनकी गलतियों के साथ, खुले दिल से अपनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

आत्महत्या हल नहीं

आत्महत्या हल नहीं

आजकल आत्महत्याएँ कुछ अधिक होने लगी हैं। समाचार पत्रों, टी वी, सोशल मीडिया पर इनकी चर्चा प्रायः होती रहती है। सभी वर्गों और आयु के लोग इस घृणित कृत्य को कर रहे हैं। किसान, व्यापारी वर्ग, नौकरी पेशा लोग, विद्यार्थी, नेता,अभिनेता, बच्चे, युवा, वृद्ध आदि सभी आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। उन सब लोगों को शायद अपनी समस्या या परेशानी से बचने का यही एक सरल-से मार्ग दिखाई दे रहा होता है।
          आत्महत्या करना समस्या से भागना कहलाता है। इतने शुभकर्मों के पश्चात प्राप्त इस मानव जीवन का ऐसा दुखद अन्त वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। पूर्वजन्मों में किए गए प्रारब्ध कर्मों के अनुसार ही जीवन देकर, ईश्वर जीव को इस संसार में भेजता है। आत्महत्या करना मानो ईश्वर के विधान को चुनौती देना कहलाता है। आत्महत्या करने को किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
            आखिर मनुष्य आत्महत्या क्योंकर करता है? इस आत्महत्या के पीछे उसका मनोविज्ञान क्या होता है? इन प्रश्नों के उत्तर में यही कह सकते हैं कि मनुष्य किसी भी कारण से जब अपने दुखों और परेशानियों को सहन नहीं कर सकता, तब वह टूटने लगता है। उसे लगता है कि उन दुखों से छूट जाने का एक ही मार्ग है। वह है केवल आत्महत्या कर लेना। इस तरह वह अपने असहनीय भीषण कष्टों से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा।
           'ईशोपनिषद्' के निम्न मन्त्र में ऋषि ने बताया है कि आत्महत्या करने वाले कहाँ जाते हैं-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।                                          
अर्थात् सर्वत्र व्याप्त ईश्वर को देखने की दृष्टि जिन लोगों के पास नही होती, जो अकर्मण्यता से ग्रस्त है, ऐसे ही लोग हैं जो आत्महत्या करते है। वे मरणोपरान्त ऐसे लोकों को प्राप्त करते हैं, जो अन्धकार से आच्छादित है ।
          मनीषी कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात मनुष्य को नया जन्म मिलता है। पर मृत्यु से पहले जीवन का आत्महत्या करके विनाश करने वाले लोग ऐसे लोकों में भटकते है, जो अन्धकार से युक्त होते हैं। जब तक प्रारब्ध के अनुसार उनके जीवन की निश्चित अवधि समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उन्हें नया जन्म नहीं मिल पाता। वहाँ पर भटकते हुए उन लोगों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
          जिन दुखों के कारण मनुष्य जीवन की बाजी हार जाता है, वे कष्ट अगले जन्म में भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। वे तो उसे भोगने ही पड़ते हैं, तभी उसे उनसे मुक्ति मिल सकती है। जो भी कर्म मनुष्य ने अपने पूर्वजन्मों में किए होते हैं, उनसे उसे तभी छुटकारा मिलता है, जब वह उन्हें भोग लेता है। यही ईश्वरीय विधान भी है। कर्म का यह सिद्धान्त बहुत ही जटिल है, जो हम मनुष्यों की समझ में नहीं आता।
           आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र है। परन्तु ऐसा दुष्कृत्य करके मनुष्य अपने प्रियजनों का अनजाने में अहित कर बैठता है। वह स्वयं तो अपने कष्टों से तथाकथित रूप से मुक्त हो जाता है, पर पीछे वालों को नरक की भट्टी में झौंक जाता है। अपने प्रियजन के बिछोह के साथ-साथ उन्हें समाज के तानों और उलाहनों का सामना करना पड़ता है। न्याय व्यवस्था के सवालों का भी उत्तर देना पड़ता है।
           मनुष्य यदि ईश्वर पर पूरा भरोसा रखे, तो वास्तव में उसके कठिन समय में वह उसकी सहायता कर रहा होता है। जिस प्रकार सांसारिक माता-पिता अपने बच्चे को दुखी नहीं देख सकते, उसी प्रकार वह परमपिता परमात्मा भी नहीं चाहता कि उसके बच्चे कभी दुखी रहें। यह हम मनुष्यों की गलतियाँ होती हैं, जिनके कारण उन अशुभ कर्मों का दण्ड हमें समयानुसार अवश्य ही भुगतना पड़ता है। 
          मनुष्य को अपने कष्टकारी समय में सहारा प्राप्त करने के लिए सज्जनों की संगति में जाना चाहिए। उसे मानसिक शान्ति पाने के लिए अपने घर में बैठकर सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। यदि अपने मन में परेशानियों से हारकर कभी आत्महत्या का विचार आ भी जाए, तो उस पर पुनः विचार करना चाहिए। परिवारी जनों से विचार-विमर्श करना चाहिए। कोई न कोई सकारात्मक हल अवश्य ही निकल आता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

जीवन एक हवन कुण्ड

जीवन एक हवन कुण्ड

संसार एक विशाल हवन कुण्ड के समान है। जिसमें यह हवन 24×7 यानी निरन्तर होता ही रहता है। इसमें सब कुछ होम हो जाना होता है। सभी लोग अपने घरों में किसी न किसी अवसर पर यज्ञ या हवन करवाते रहते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि हवन करने के लिए बहुत-सी सामग्री और शुद्ध घी की आवश्यकता होती है। हवन कुण्ड में अग्नि जलाकर मन्त्रोच्चारण करके इसमें सामग्री एवं घी की आहुति दी जाती है।
           हवन करते समय सामग्री को सही अनुपात में हवन कुण्ड में डाला जाना चाहिए, जिससे सामग्री समाप्त न हो और न वह शेष बची रहे। उसी प्रकार मनुष्य को अपनी लाइफ का मेनेजमेन्ट करना आना चाहिए। जिससे उसका जीवन बीत जाए और उसका अर्जित किया हुआ धन-वैभव भी बचा न रहे। परन्तु ऐसा होता नहीं है। मनुष्य जीवन भर अपने भविष्य के लिए कुछ कुछ संग्रह करता रहता है।
           जब हवन करते हैं, तब हर व्यक्ति उसमें थोड़ी-थोड़ी सामग्री डालता है। उसे यह आशंका रहती है कि कहीं हवन समाप्त होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। हवन कर्त्ता भी बूँद-बूँद करके घी डालता है कि कहीं घी खत्म न हो जाए। अन्त में सबके पास बहुत-सी हवन सामग्री बच जाती है और घी भी बच जाता है। हवन की समाप्ति पर बची हुई सारी सामग्री और घी अग्नि में डाल दी जाती है। यह जानते हुए कि सारी सामग्री हवन कुण्ड में डालनी है, पर फिर भी उसे बचाते हैं।
          इसी प्रकार हम मनुष्य भी जीवन के अन्तिम पड़ाव यानी अपनी वृद्धावस्था के लिए पाई-पाई करके धन-वैभव आदि बहुत कुछ बचाए रखते हैं, उन्हें किसी भी स्थिति में खर्च नहीं करते। मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि उसकी जमीन-जायदाद और उसका बैंक में पड़ा धन सब यहीं पड़ा रह जाता है।मनुष्य का धन-दौलत उसके काम नहीं आती, पर उसके पीछे वाले यानी सब कुछ उसकी सन्तानों के हवाले हो जाता है।  
          इस तरह पल-पल करके एक दिन उसके इस जीवन की पूजा भी समाप्त हो जाती है और हवन सामग्री रूपी उसकी धन-दौलत बची रह जाती है। जो उसके किसी काम नहीं आती। सारी आयु मनुष्य कंजूसी करता रहता है, ताकि उसे अपने अन्तिम काल में किसी के आगे हाथ न पसारने पड़ें। उसका जीवन सुचारू रूप से चल सके। उसकी आवश्यकताएँ पूरी होती रहें।        
          मनुष्य बचाने के चक्कर में इतना खो जाता है कि यह भी भूल जाता है कि उसका सब कुछ इस हवन कुण्ड के हवाले ही होना है, उसे बचाकर क्या करना है? जब जीवन का अन्तकाल आता है, तब यह मायने नहीं रखता कि मनुष्य ने जिन्दगी में कितनी साँसे ली हैं, बल्कि यह मायने रखता है कि मनुष्य ने उन साँसों में कितनी जिन्दगी जी है। मनुष्य को इस छोटे से जीवन में भरपूर जीना चाहिए।
          यजुर्वेद में मनुष्य शरीर के विषय में कहा गया है-     
             'भस्मान्तमिदं शरीरम्' 
अर्थात् यह शरीर भस्म होने वाला है।इसका कारण है कि यह नश्वर है। एक दिन इसे अग्नि के हवाले कर दिया जाना है। जिस दिन मनुष्य के प्राण उसकी देह को त्याग देते हैं, यह वही एक दिन होता है, जब उसके अपने ही प्रियजन अग्नि में उसका संस्कार कर देते हैं।
           दूसरे शब्दों में कहें तो एक दिन ऐसा आता है, जब मनुष्य का सब कुछ इस हवन कुण्ड में स्वाहा हो जाता है। वह कुछ नहीं कर सकता। अपने समयानुसार यानी पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिले हुए इस मनुष्य जीवन से विदा लेनी होती है। यहाँ से फिर वह अगले ने जन्म की तैयारी करता है। तब नए जन्म में फिर दुबारा से वही सारा कर्म मनुष्य के द्वारा दोहराया जाता है।
            हवन कुण्ड में डाली जाने वाली सामग्री से वातावरण सुगन्धित हो जाता है। मनुष्य को भी अपने दुर्गुणों को होम करके अपने सद् गुणों का विकास करने के लिए साधना करनी चाहिए। इससे उसकी सुगन्ध रूपी कीर्ति दूर-दूर तक प्रसारित हो जाती है। उसके पहुँचने से पहले ही उसका यश उसके स्वागत के लिए तैयार रहता है। इस प्रकार उसका यज्ञमय जीवन उसे सदा ही गौरवान्वित करता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

पाप-पुण्य की खेती

पाप-पुण्य की खेती

हमारा यह शरीर एक खेत के समान है, मन, वचन और कर्म तीनों किसान हैं। पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीज मनुष्य के पास हैं। अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने खेत में क्या बोना चाहता है? वह अपने लिए कैसी फसल की कामना करता है? क्योंकि जैसी फसल मनुष्य बोएगा, उसे देर-सवेर वैसे ही कड़वे-मीठे फल खाने के लिए मिलेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
          तुलसीदास जी निम्न दोहे में कह रहे हैं कि-
तुलसी काया खेत है,मनसा भये किसान।
पाप पुण्य दो बीज हैं, बुवै सो लिवे निदान।।
         तुलसीदास जी कहते हैं कि हमारा यह शरीर एक खेत है और हमारा मन एक किसान है। पाप व पुण्य दोनों बीज उसके पास हैं। खेत में जिस प्रकार का बीज बो कर खेती होती है, वैसी फसल प्राप्त होती है। उसी प्रकार शरीर रूपी खेत में मन रूपी किसान पाप या पुण्य दोनों में से जिसके बीज डालता है, उसी की फसल भी काटता है। अर्थात् मनुष्य का मन ही पाप व पुण्य दोनों में से किसी एक की ओर आकर्षित होता है। 
         मनुष्य जैसा बोयेगा, वैसा ही फल पायेगा अर्थात् अच्छे या पुण्य कर्मों का उसे अच्छा फल मिलता है और बुरे या पापकर्मों का उसे बुरा फल मिलता है। एक उक्ति अक्सर कही जाती है- 
'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय'
इसका अर्थ है कि मनुष्य यदि बबूल के पेड़ खेत में बोता है, तो उसे बबूल के दुखदायी काँटे ही मिलेंगे। उसे आम के मीठे फल खाने के लिए नहीं मिल सकते।
          मनुष्य को अपने कर्म करते समय बहुत सावधान रहना चाहिए। उसे ऐसे कर्म कभी नहीं करने चाहिए, जिससे उसे अपने जीवन में दुखों और परेशानियों का सामना करना पड़े। उसका जीवन नरक के समान दुखदायी बन जाए। उसे अपने कर्मों को करते समय बहुत ही सोच-विचार करना चाहिए। जब उसे लगे कि यह कार्य उसके लिए दुख का कारण नहीं बनेगा, तब ही उसमें हाथ डालना चाहिए।
         शुभकर्म मनुष्य को सुख-समृद्धि और शान्ति देते हैं। इन कर्मों को करते समय मनुष्य के मन में एक उत्साह बना रहता है। इसलिए ये कर्म उसे ऊर्जा प्रदान करते हैं। शुभकर्मों को करते करते मनुष्य को अशुभ कर्मों की ओर किसी भी शर्त पर प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। अपनी खुशियों को बनाए रखने के लिए मनुष्य को अपना हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। इसी में ही उसका भला होता है।
         पापकर्म का मार्ग बहुत ही आकर्षक होता है। वह शॉर्टकट का रास्ता होता है। इसलिए मनुष्य इस भ्रमजाल में फँसकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है। दलदल से भरे इस रास्ते की ओर जाना बहुत सरल है, परन्तु इससे वापसी का कोई मार्ग नहीं होता। यदि किसी कारण से मनुष्य उस मार्ग को छोड़ना चाहे, तो उसके साथी उसे वहाँ से निकलने नहीं देते। फिर मनुष्य न्याय व्यवस्था का दोषी बन जाता है।
         शुभकर्मां वाला रास्ता लम्बा और परेशानियों वाला होता है। इस मार्ग में बहुत सी परीक्षाएँ मनुष्य को देनी पड़ती हैं। जो इनसे घबराकर गलत राह चुन लेता है, उसका विनाश निश्चित होता है। पर जो कठिनाइयाँ सहन करके भी अपने मार्ग पर दृढ़ रहता है, वह अन्ततः जीत जाता है। उसे ही अपने जीवन में सुख-शान्ति प्राप्त होती है। उसे यह सन्तोष होता है कि उसने अपनी सच्चाई की राह नहीं छोड़ी।
          मनुष्य जो भी शुभाशुभ कर्म अपने इस जीवन में करता है। उनमें से कुछ को वह भोग लेता है, उसके शेष कर्म पूर्वजन्मों के बचे हुए कर्मों में जुड़ जाते हैं। यही कर्म मनुष्य का प्रारब्ध या भाग्य बनते हैं। इन्हीं कर्मों के अनुसार उसे अगला जन्म और सुख-दुख आदि मिलते हैं। सुख-समृद्धि के मिलने पर मनुष्य निहाल हो जाता है। परन्तु दुख-परेशानियों के मिलने पर वह टूट जाता है। उसका यह कष्ट का समय काटे नहीं कटता।
           मनीषी मनुष्य को हमेशा पुण्यकर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं और पापकर्मों से विमुख होने के लिए बल देते हैं। पाप या पुण्य जो भी कर्म मनुष्य करता है, उसका भोग उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है। उसका कोई बन्धु-बान्धव उस कर्म के भोग में साथी नहीं बनता। फिर किसके लिए मनुष्य पापकर्म करता है? जैसी भी खेती मनुष्य करना चाहता है उसमें वह स्वतन्त्र है। शेष उसे स्वयं विचार करना है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 11 अक्तूबर 2020

समय को पहचानिए

 समय को पहचानिए

मनुष्य वही समझदार कहलाता है, जो अपने कार्यों को समय पर पूर्ण करने का अभ्यास करता है। अपने कामों को कल पर टालकर निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाता। जिस भी कार्य या योजना को कल पर टाल दिया जाता है, उसके पूर्ण होने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है क्योंकि कल तो कभी आता ही नहीं है। समय है कि किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। कार्य पूर्ण हो गया है या अधूरा रह गया है, उसे कोई लेना देना नहीं होता।
            मनुष्य को ही सावधानी बरतनी चाहिए। उसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके विचारे हुए कार्य अपने समय पर पूरे हो जाएँ। अन्यथा उनके  पूरे होने की आशंका रह जाती है। मनुष्य के कार्य यदि किसी कारण से पूरे न हो सकें, तो उसकी असफलता निश्चित होती है। इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है। मनुष्य पता नहीं कितने समय तक इस संसार में जीवित रह पाता है।
           इसी भाव को महाभारत के शान्तिपर्व में महर्षि वेदव्यास जी समझते हुए कहते हैं-
श्व:कार्यमद्य कुर्वीत  पूर्वांण्हे चापराण्हिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम् ॥
अर्थात् कल के सारे काम आज कर लो, और आज के अभी क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं कब प्रलय हो जाये। इसलिए शुभ काम को कल पर मत टालो, फौरन कर डालो।
          इसी भाव को कबीरदास जी ने सरल शब्दों में निम्न दोहे में कहा है-
कल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होयगी, बहुरी करेगा कब।।
          महर्षि वेद व्यास और कबीरदास जी ने अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कही है। इसका अर्थ यही है कि यह चिरन्तन सत्य है कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। अपना कार्य कल पर टालने वाले लोग जीवन की रेस में कभी बाजी जीत नहीं सकते। दूसरे शब्दों में कहें, तो वे हार जाते हैं। कोई नहीं जानता कि प्रलय कब आने वाली है? यदि प्रलय आ जाएगी तो मनुष्य अपना सोचा हुआ कार्य नहीं कर सकता।
           समय को पकड़कर रखने वाले यानी समयानुसार कार्य करने वाले मनुष्य निश्चित ही आगे बढ़ जाते हैं। सफलता उनके कदम चूमती है। ऐसे ही लोग जीवन में चमत्कार करते हैं। अपनी इस आदत के कारण यही लोग विश्व वन्दनीय बन जाते हैं। लोग उनके उदाहरण देते हैं। ये संसार के दिग्दर्शक बन जाते हैं। समय के पाबन्द इन्हीं लोगों का नाम इतिहास के पन्नों में अमर हो जाता है।
           इस समय को व्यर्थ गँवाने वाले पिछड़ जाते हैं। दुनिया कहाँ की कहाँ पहुँच जाती है और वे वहीं बैठे रहकर ढोल पीटते रह जाते हैं। अपनी गलती की सजा वे स्वयं भुगतते है। उनके साथ किसी भी व्यक्ति को सहानुभूति नहीं होती। सभी लोग उनका उपहास करते हैं। वे सिर झुकाकर उनके तानों को सहन करते हैं। इसके अतिरिक्त उनके पास और कोई चारा भी तो नहीं होता।
           समय एक बहुत बड़ा बाजीगर है। यह सरलता से किसी के वश में नहीं आता।  इसे साधना हर किसी व्यक्ति के बस की बात नहीं है। समय के नाम की माला जपते रहने से किसी को भी कोई लाभ नहीं होता। जिस व्यक्ति ने समय की रग को पहचान लिया या समझ लिया, उसका बेड़ा पार हो जाता है। वह महान बन जाता है। वही इस दुनिया को झुकाने का साहस कर सकने में समर्थ होता है।
          समय की रेत पर वही लोग अपने पैरों के निशान छोड़ते हुए चल सकते हैं, जो मनचाहे ढंग से इस समय को चलाते हैं। यानी जो समय का महत्त्व पहचानते हैं और उसका सम्मान करते हैं। सम्मान करने का यह अर्थ कदापि नहीं कि वे फुलमालाएँ लेकर समय का स्वागत करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि वे समय का सदुपयोग करते हैं। अपने समय को व्यसनों अथवा हँसी-ठठ्ठे में व्यतीत नहीं करते।
           समय उन्हीं लोगों की कद्र करता है, जो उसके साथ कदमताल करते हुए चलते हैं। वे लोग उसे फूटी आँख भी नहीं सुहाते जो उसका महत्त्व नहीं समझ पाते।
यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह समय को पहचानकर अपना जीवन सफल बनाता है अथवा उससे पिछड़कर दुख-परेशानियों को मोल लेता है। समय कोई बाजार में बिकने वाली वस्तु नहीं है कि जाकर खरीद लाओ और उसे गुलाम बनाकर अपनी इच्छा से नचा लो।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा शब्द सुनते ही हमारे मस्तिष्क में यही विचार आता है कि पति अपनी पत्नी पर अत्याचार करता है अथवा फिर ससुराल वाले निरीह बहू को किसी भी कारण से प्रताड़ित करते हैं। घरेलू हिंसा महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा का एक जटिल और घिनौना स्वरूप है। घरेलू हिंसा की यह समस्या सार्वभौमिक है। इससे निपटने के लिए विभिन्न देशों में कानून बने हुए हैं।
           महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा एक बहु-आयामी मुद्दा है जिसके निजी, सामाजिक, सार्वजानिक और लैंगिक पहलू हैं। एक पहलू से निपटें, तो तुरन्त ही दूसरा पहलू नजर आने लगता है। घरेलू हिंसा की घटनाओं की व्यापकता तय कर पाना बहुत कठिन कार्य है। इस अपराध को अक्सर छुपाने का प्रयास किया जाता है, इसकी रिपोर्ट कम दर्ज की जाती है और कई बार तो इसे नकार ही दिया जाता है। 
          निजी रिश्तों में इस घरेलू हिंसा की घटना को स्वीकार करने को बहुधा रिश्तों के चरमराने से जोड़कर देखा जाता है। सामाजिक स्तर पर घरेलू हिंसा की सच्चाई को स्वीकार करने से यह माना जाता है कि विवाह और परिवार जैसे स्थापित सामाजिक ढाँचों में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है। इन सबके बावजूद घरेलू हिंसा के जितने केस दर्ज होते हैं, वे आँकड़े चौंकाने वाले हैं। भारत में हर पाँच मिनट पर घरेलू हिंसा की एक रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है।
           कानून के तहत घरेलू हिंसा के दायरे में अनेक प्रकार की हिंसा और दुर्व्यवहार आते हैं। किसी घरेलू सम्बन्ध या रिश्तेदारी में किसी प्रकार का व्यवहार, आचरण या बर्ताव जिससे स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन या किसी अंग को कोई क्षति पहुँचती है या फिर मानसिक या शारीरिक हानि होती है, वे सब घरेलू हिंसा के अन्तर्गत ही समाहित किए जाते है।
          यह बात हुई महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा की और कानून की। सबसे बड़ी त्रासदी है, इसका दुरुपयोग होना। कुछ महिलाएँ ससुराल से सम्बन्ध न रखने या विवाहेत्तर सम्बन्धों के कारण झूठे केस भी दर्ज करवा देती हैं। ऐसा करना वाकई कानून जुर्म या अपराध की श्रेणी में आता है। इसलिए केस पुलिस स्टेशन में दर्ज होते ही, अब गिरफ्तारी का प्रावधान हटा दिया गया है। पहले इन्वेस्टिगेशन होती है, तब केस आगे चलता है।
           अब हम चर्चा उस वर्ग पर हिंसा की चर्चा करेंगे, जिनके विषय में कोई कुछ नहीं बोलता। वह पीड़ित स्वयं भी इस विषय पर मौन रहता है। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ पुरुष वर्ग की। अनेक पुरुषों के साथ भी घरेलू हिंसा होती है यानी उनके साथ भी मारपीट की जाती है। वे पुरुष हैं इसलिए अपनी कमजोरी जग-जाहिर नहीं कर सकते। अतः उनके लिए कोई भी आवाज नहीं उठता।
           यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे किसी को भी अपने साथ हो रहे अत्याचार के विषय में नहीं बता सकते। वे यह नहीं बता सकते कि उनकी पत्नी उन पर हाथ उठाती है। अथवा उनकी पत्नी बच्चों के साथ मिलकर उनके साथ दुर्व्यवहार करती है। उन्हें लगता है कि उनकी बात को कोई सीरियसली नहीं लेगा। किसी को कहेंगे तो लोग उनका उपहास उड़ाएँगे, छींटाकशी करेंगे या ताने मारेंगे। इस डर से वे घुट-घुटकर जीते हैं, पर मुँह नहीं खोलते।
          मुझे ठीक से याद नहीं, परन्तु शायद 'पत्नी पीड़ित' नाम से एक संस्था बनी हुई है, जो शायद इन लोगों के लिए कुछ कर पाती होगी। आज के पुरुष प्रधान समाज में कोई भी व्यक्ति यह परिकल्पना नहीं कर सकता कि इस पुरुष नामक प्राणी पर घरेलू हिंसा हो सकती है। यदि कोई कानून इन लोगों के लिए भी बन जाए, तो शायद कुछ लोग इन्साफ पाने के लिए शिकायत दर्ज कर पाएँगे।
          घरेलू हिंसा चाहे महिला के साथ हो या पुरुष के साथ, असहनीय है। यह एक अपराध ही है। इसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। केवल कानून बनाने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इस बुराई को दूर करने के लिए सामाजिक संस्थाओं को आगे आना चाहिए। इसका विरोध करने के लिए सामाजिक जागरूकता का होना बहुत ही आवश्यक है। महिलाओं तथा पुरुषों दोनों का एक-दूसरे का सम्मान करना आना चाहिए। तब शायद इसमें कुछ सुधार किया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

जीवन का अनुभव

जीवन का अनुभव

मनुष्य ज्यों ज्यों आयु में वृद्ध होता जाता है, त्यों त्यों उसके अनुभव में वृद्धि होती रहती है। उस समय वह अपनी आने वाली पीढ़ी को दिशा-निर्देश देने का कार्य कर सकता है। उसके अनुभवों से जो लोग लाभ उठा लेते हैं, वे दुनिया में सफल हो जाते हैं। जो लोग उनके अनुभवों से कुछ सीखने के स्थान पर उनका उपहास करते हैं, वे समय बीतने पर उन्हें याद करते हुए पश्चाताप करते हैं। 
          सयाने कहते हैं कि अपनी आँखों देखी और कानों सुनी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। मनुष्य को कोई भी निर्णय लेने में सावधानी बरतनी चाहिए। अपने निर्णय में जल्दबाजी करने वालों को बाद में बहुत पछतावा करना पड़ता है। मनुष्य की आँखें जो कुछ देखती हैं और कान जो कुछ सुनते हैं, वह सदा सच नहीं होता यानी वह प्रायः पूरा सच नहीं होता। उसमें गलती की गुँजाइश रहती है।
          अधिकतर मनुष्य आधा सच देखकर या सुनकर उसे पूरा सच मानने की गलती कर बैठता है। उसी के अनुसार वह व्यक्ति विशेष के प्रति अपनी धारणा बना लेता है। जब उसका सामना वास्तविकता से होता है, तब उसे शर्मिन्दा होना पड़ता है। इसीलिए मनीषी समझाते हैं कि जब तक किसी व्यक्ति के विषय में पूरी जानकारी न हो, तब तक मौन रह जाना ही उचित होता है। पहले गहरी छानबीन करनी चाहिए तभी कोई धारण बनानी चाहिए।
           मनुष्य का अनुभव कहता है कि यदि इन्सान स्वार्थ को अपनी आदत बना लेता है, तो वह जीत कर भी हार जाता है। मनुष्य को हमेशा ही अपने अनुभवों पर  विश्वास नहीं करना चाहिए। कभी-कभी जीवन उसे धोखा दे सकता है या मनुष्य पर चाल चल सकता है। इसलिए स्थितियों से कभी अधिक परेशान या दुखी नहीं होना चाहिए, बस अपने अनुभव को एक सबक के रूप में समझना चाहिए। मनुष्य को अनुभव किसी भी पाठ्यपुस्तक से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
          मनुष्य को सदा याद रखना चाहिए कि जब वह भगवान पर सब कुछ छोड़ देता है, तब वह हमेशा उसके लिए सर्वोत्तम का चयन करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो भी कार्य मनुष्य करता है, उसका सारा श्रेय स्वयं न लेकर ईश्वर को देता है, तो उसके मन में कर्त्तापन का अहंकार नहीं आ पाता। ईश्वर तो सदा मनुष्य के लिए शुभ ही करता है। उसे उत्तम-उत्तम वस्तुएँ प्रदान करता है।
          अनुभव यह समझाता है कि जब मनुष्य दूसरों की भलाई के लिए सोचता है, तब उसका हित स्वयं ही हो जाता है। उस समय अच्छाई स्वाभाविक रूप से उसके साथ भी होती रहती हैं। यानी उसका साथ देने वाले कई हाथ आगे बढ़कर आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य स्वयं को कभी अकेला नहीं पाता। दूसरों का भला करते करते मनुष्य को परोपकार के कार्य करने की आदत-सी बन जाती है।
          अनुभवी बड़ों लोगों का सम्मान करते हुए उन्हें पहले मौका या स्थान देना चाहिए। यदि मनुष्य बड़ों का आदर-सम्मान करेगा, तो वह कभी भी खाली हाथ नही लौट सकता। उसे सदा ही कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य मिलता है। इन अनुभवी लोगों के अनुभव एवं मनुष्य की दृष्टि का जब ज्ञान तथा विवेक के साथ सामञ्जस्य स्थापित हो जाता है, तब यही मानव जीवन सार्थक कहलाता है। 
          बड़े-बुजुर्गों के पास दुनियावी ज्ञान या अनुभव बहुत होता है। उन्होनें दुनिया में रहते हुए अनेक उतार-चढ़ाव देखे होते हैं। अपेक्षाकृत अधिक लोगों से सम्पर्क साधा होता है। इसलिए उनके पास अनुभवों का खजाना होता है। वे चाहते हैं कि बच्चे या युवा पीढ़ी उनके उस अनुभव का भरपूर लाभ उठाए। वे ऐसी कोई भी गलती न करें, जिससे उन्हें अपने जीवन में कभी पछताना पड़ जाए।
          जीवन का अनुभव हर व्यक्ति प्राप्त करता रहता है। यह अनुभव किसी एक दिन में नहीं मिलता। इसकी एक प्रक्रिया होती है। हर आयु में मनुष्य कुछ न कुछ अनुभव एकत्र करता है। परन्तु एक आयु के पश्चात मनुष्य के पास अनुभवों का खजाना हो जाता है। जैसे धन-वैभव का बंटवारा बच्चों में किया जाता है, उस प्रकार इसे नहीं बाँटा जाता। यह ज्ञान केवल व्यक्ति विशेष के पास ही बैठकर ही लिया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

जन्म सफल

  जन्म सफल

परिवर्तन शील है यह संसार असार। इस संसार को मरणधर्मा भी कहते हैं। इसका अर्थ है कि जिस जीव का जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित होती है। कोई भी यहाँ सदा के लिए नहीं आता। अपने कर्मानुसार प्राप्त जीवन को भोगकर उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जीव का यहाँ पुनर्जन्म नहीं होता। अपना रूप बदल- बदलकर जीव बार-बार इस संसार के नियमानुसार जन्म लेता है।
           एक मनुष्य का जन्म होता है, फिर दूसरे का जन्म होता है। यानी यह श्रृंखला टूटती नहीं है, अपितु बढ़ती ही जाती है। अब तक इस संसार में पता नहीं कितने अरबों-खरबों लोग जन्म ले चुके हैं। कोई उनके विषय में कोई कुछ भी जान नहीं पता। कीड़े-मकोड़ों की तरह जीवन जीकर वे यहाँ से विदा हो जाते हैं। उनका इस संसार में होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। अर्थात् उनके आने-जाने से किसी को कोई अन्तर नहीं पड़ता।
           जन्म और मृत्यु के चल रहे इस अनवरत क्रम में कुछ लोग अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, जो इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो जाते हैं। उन्हें युगों तक स्मरण किया जाता है। उनके कार्य देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए होते हैं। अपनी परवाह किए बिना के सुधार या परोपकार के कार्यों में जुटे रहते हैं। कुछ लोग अपनी चरित्रगत खूबियों के कारण भी अमर हो जाते हैं। वास्तव में इनका जीना ही जीना कहलाता है।
           महाराज भर्तृहरि ने इस भाव को निम्न श्लोक में प्रकट किया है-
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥
अर्थात् इस परिवर्तनशील संसार में किसी एक की मृत्यु के पश्चात क्या कोई दूसरा जन्म नहीं लेता है अर्थात् जन्म लेना और मरना निरन्तर चलता रहता है। परन्तु जो व्यक्ति अपनी जाति तथा वंश को असीम ऊँचइयों तक ले जाता है, वास्तव में वही जन्म लेता है अर्थात् उसका ही जन्म लेना सार्थक है ।
         इस श्लोक के माध्यम से भर्तृहरि जी कहते हैं कि जीव निरन्तर एक के बाद एक जन्म लेते रहते हैं। एक जीव का जन्म होता है, फिर दूसरे जीव का। यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। जीवन उसी व्यक्ति का सफल माना जाता है, जो अपनी जाति और वंश को ऊँचाइयों की ओर लेकर जाता है। यह कार्य वही मनुष्य कर सकता है, जिसके हृदय में कुछ कर गुजरने की आग होती है। हर व्यक्ति इस प्रकार के कार्यों को करने की सामर्थ्य नहीं रखता।
           गीता में भगवान श्रीकृष्ण युद्धक्षेत्र में अपने बन्धु-बान्धवों को देखकर मोहग्रस्त अर्जुन को समझते हैं -
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ 
अर्थात् ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। 
          भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा जन्म कई बार हो चुका है, तुम्हारा जन्म भी पता नहीं कितनी बार हो चुका है, यहाँ खड़े राजा भी अनेक बार जन्म ले चुके हैं। यानी प्रत्येक जीव इस संसार में पुनः पुनः जन्म लेता है। परन्तु सोचने की बात यह है कि यह संसार कितने लोगों को स्मरण करता है। इस संसार की भलाई के कार्य करने वालों को वह श्रद्धा से याद करता है। संसार का बुरा करने वाले मनुष्यों से वह नफरत करता है।
          संसार में मनुष्यों का आवागमन लगा ही रहता है। जीवन उसी व्यक्ति का सफल माना जाता है, जी शान्तिपूर्वक यहाँ से मुस्कुराते हुए विदा लेता है और लोग उसके जाने पर शोक मनाते हैं। समाज उसे सम्मानपूर्वक याद करके उदास हो जाता है। देश, धर्म और समाज के प्रति दिन-रात सोचने वाले, कार्य करने वाले लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी यानी युगों तक स्मरण किया जाता है। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होती है।
          मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह किसी भी क्षेत्र में अपना विशेष योगदान दे। उसका जीवन दूसरों के लिए एक उदाहरण बन जाए। लोग उसके इस संसार से चले जाने के बाद, उसे भूलें नहीं। उसकी गाथाएँ, उसके किस्से-कहानियाँ बनकर सबके हृदयों में विद्यमान रहें, गहरी छाप छोड़ दें।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

सेवक की सजा मालिक को नहीं

 सेवक की सजा मालिक को नहीं

मनुष्य को उसके किए गए दोषपूर्ण कार्य की सजा अवश्य मिलती है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि दोष कोई और व्यक्ति करे, परन्तु उसकी सजा किसी अन्य को मिल जाए। इस प्रकार का चलन यदि हो जाए, तब सर्वत्र अराजकता का माहौल बन जाएगा। गलत काम करने वाला यदि बच जाए और उसके स्थान पर किसी निर्दोष को नाप नहीं सकते। अपने-अपने हिस्से की सजा ही मनुष्य को मिलती है।
         निम्न श्लोक में कवि ने इसी विषय पर कहा है-
       धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
             न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः।
       यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभिः
            न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः॥
अर्थात् बुद्धि आत्मा की उपाधि है। बुद्धि जो भी इस जगत में व्यवहार (कार्य) करती है, आत्मा उस कर्म की साक्षी होती है। आत्मा बुद्धि द्वारा किये गये कर्मों को देखती है लेकिन उन कर्मों में लेशमात्र भी लिप्त नहीं होती। क्योंकि उपाधि द्वारा किये गये कर्म मूल को नहीं बाँध सकते। 
          इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर में रहने वाली आत्मा केवल द्रष्टा मात्र है। आत्मा बुद्धि के द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्मों की साक्षी होती है। बुद्धि जो भी गलत या सही कर्म करती है, उससे उसका कुछ भी लेना देना नहीं होता। उपाधि यानी बुद्धि के कर्म मूल यानी आत्मा को नहीं बाँध सकते। यह सत्य है कि आत्मा उन कर्मों के लिए उत्तरदायी कदापि नहीं हो सकती। 
          कोई व्यक्ति अपने घर में यदि नौकर रखता है और उसने किसी प्रकार का कोई अपराध कर्म किया है। तब उस कर्म के लिए सजा उसे ही मिलेगी, उसका मालिक उसके लिए बिल्कुल जिम्मेदार नहीं होता। यदि नौकर ने गलती की है तो उसकी सजा उसी को ही मिलेगी, उसके मालिक को कदापि नहीं। इसका अर्थ यही हुआ कि वह मालिक किसी भी तरह दोषी नहीं माना जाएगा।
          कालजयी रामायण की कथा के रचयिता महर्षि वाल्मीकि अपने जीवन के।पूर्वकाल में राहजनी करते थे। यानी वे डाकू थे। उनका नाम रत्नाकर था। एक बार साधुओं की टोली वहाँ से जाने लगी, तो स्वभाव के अनुसार उन्होनें अपने साथियों के साथ लूटने के उद्देश्य से उन्हें रोका। साधुओं ने उनसे पूछा, "यह पापकर्म तुम किसलिए कर रहे हो?"
          रत्नाकर ने उत्तर दिया, "अपने परिवार का पालन करने के लिए।"
          साधु ने उनसे पूछा, "यह पापकर्म तुम जिन लोगों के लिए कर रहे हो, क्या वे इस कर्म में भागीदार होंगे?"
          उन्होंने कहा, "अवश्य ही मेरी पत्नी, मेरे माता-पिता और मेरे बच्चे साथ देंगे।"
           साधु ने कहा, "जाओ उनसे पूछकर आओ।"
           रत्नाकर ने हँसते हुए कहा, "मैं घर जाँऊ और तुम चले जाओ। तुमने मुझे मूर्ख समझा है क्या?"
            साधु ने कहा कि वे उन्हें रस्सी से बाँधकर चले जाएँ। रत्नाकर ने उनकी बात मान ली और घर चले गए। घर जाकर अपनी पत्नी से पूछा, तो उसने उत्तर दिया, "मेरा भरण-पोषण करना तुम्हारा दायित्व है। तुम पैसा कमाते हो, मुझे कोई लेना देना नहीं। मैं तुम्हारे पापकर्म में भागीदार नहीं बनूँगी।"
           रत्नाकर के माता-पिता और बच्चों ने भी उन्हें ऐसा ही कड़वा उत्तर दिया कि केवल वही अकेला अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार है, वे सब नहीं। उनकी आँखें खुल गईं और वे साधुओं के चरणों में जाकर गिर गए। फिर वे पश्चाताप करने लगे और तप करने लगे।
           इस घटना को लिखने का उद्देश्य मात्र यही है कि मनुष्य जो भी स्याह-सफेद करता है, उसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी होता है। कोई अन्य उसके शुभाशुभ कर्म में भागीदार नहीं बन सकता। चाहे वे उसके माता-पिता हों, चाहे पति या पत्नी हो, चाहे उसके बच्चे या फिर उसके बन्धु-बान्धव कोई भी क्यों न हो, उसके कर्मों के फल से परे रहते हैं। यह भोग अकेले मनुष्य का ही होता है, जो उसे करता है।
           इस चर्चा का सार यही है कि जब मनुष्य के माता-पिता, बच्चे और पत्नी उसके दुष्कर्मों में भागीदार नहीं होते, तो एक सेवक का मालिक उसके पापकर्म का उत्तरदायी कदापि नहीं हो सकता। उस सेवक को अपने दोष की सजा स्वयं ही भोगनी पड़ती है। उसकी पत्नी और बच्चे भी जब उसके कर्मों के फल में हिस्सेदारी नहीं करते, तो उसका मालिक कैसे सजा पा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

चुगलखोर आँसू

चुगलखोर आँसू

खुशी का समय हो अथवा दुख से परेशानी हो, ये आँसू बिना कहे मनुष्य की आँखों से अनायास ही बहने लगते हैं। हर मनुष्य के जीवन में कुछ उत्तेजित करने वाली चीजें या घटनाएँ होती है, जो उसे यदा कदा रुला देती हैं। मनुष्य को किस कारण से रोना आता है, इसके उत्तर बहुत अलग-अलग हो सकते हैं। रोने के उदगम के बारे में बातें बहुत-सी हैं और अनिश्चित भी हैं। यह एक अनुसन्धान का विषय है।
          जब कभी मनुष्य को चोट लगती है, तो उसकी आँखों से आँसू आ जाते हैं। जब वह किसी भी कारण से दुखी होता है, तब भी ये आँसू आते हैं। जब मनुष्य शरीरिक रूप से या मानसिक रूप से परेशान होता है, तब भी आँसू उसके साथी बन जाते हैं।वृद्धावस्था में जब मनुष्य अशक्त हो जाता है, कोई कार्य करने की स्थिति में नहीं रहता, तब भी ये आँसू उसका दामन नहीं छोड़ते। 
          जब विवशता में किसी से अपनी सेवा करवानी पड़ जाए, तब भी ये आँसू नहीं थमते। जो मनुष्य बहुत अधिक भावुक होता है, जरा-सी बात हो जाने पर उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। उदास करने वाला संगीत बजाया जाए तो आँसू आ धमकते हैं। किसी फिल्म का कोई सीन दिल को छू जाए, तब भी आँसू आ जाते हैं। इसी प्रकार पुस्तक पढ़ते-पढ़ते भी आँसू मनुष्य के साथी बन जाते हैं।
          मनुष्य कभी-कभी किसी भी कारण से बहुत दुखी होता है, उस समय उसका कोई प्रियजन उसके सिर पर या कन्धे पर सान्त्वना प्रदर्शित करने के लिए हाथ रखता है, तो उसका गला रुँध जाता है और आँखों से आँसू ढलक जाते हैं। अपने किसी प्रिय के वियोग में ये आँसू थमने का नाम नहीं लेते। अपने से दूर गए यानी परदेस गए या परलोक गए बन्धु-बान्धवों को याद करते समय आँसू साथ निभाते हैं।
          जब मनुष्य जीवन में हताश या निराश होता है और उसे उस परेशानी से उबरने के कोई रास्ता नहीं दिखाई देता, तब दुखी होकर रोता है, परमपिता परमात्मा से वह गिला-शिकवा करता है। व्यवसाय में या नौकरी पर काले बादल मण्डराने लगते हैं, तब कोई उपाय न सूझने पर वह रोता और बिलखता है। असफलता या पराजय का सामना होने पर भी मनुष्य की आँसू आँखों से निकले बिना नहीं रहते।
          बहुत समय से माँगी गई किसी मन्नत के पूर्ण होने पर आँसू छलक जाते हैं। खेल या किसी अन्य प्रतियोगिता में सफल होने पर भी आँखें नम हुए बिना नहीं रह पातीं। जब मनुष्य को उसके परिश्रम का मनचाहा फल मिल जाता है, तब भी आँखों से निकलने वाले ये आँसू चुप नहीं रहते। अपने किसी प्रियजन से बहुत समय के पश्चात मिलने पर भी खुशी के मारे आँसू निकल जाते हैं। 
          वास्तविक जीवन  में रोना बहुत अलग तरह का होता है। मगरमच्छ वाले आँसुओं से किसी भी सज्जन व्यक्ति को सहजता से धोखा दिया जा सकता है और मनुष्य अपना न बनता हुआ काम उससे सरलता से निकलवा सकता है। वैसे तो यह बात मानवीय मूल्यों के अनुसार गलत सोच है, परन्तु स्वार्थवश कुछ लोग ऐसे काम करते हैं। किसी की गई गलती का अहसास होने पर पश्चाताप स्वरूप मनुष्य की आँखों से आँसू निकल जाते हैं।
           कभी-कभी शारिरिक रोग मायूसी का कारण बन जाते हैं। विटामिन की कमी, स्ट्रोक, थायरॉयड समस्या, लो बल्ड शुगर लेवल के कारण भी रोना आता है। रोने के पीछे एक अहं कारण डिप्रेशन भी होता है। उसमें मनुष्य ऋण लगता है, तो रोता ही चला जाता है। उसे अपने ऊपर नियन्त्रण ही नहीं रहता। कभी-कभी लोग थोड़े समय में ही डिप्रेशन से बाहर आ जाते हैं तो कभी तनाव कम ही नहीं होता है।
          आँसुओं के चुगलखोरी करने के बहुत से कारणों को यहाँ सार रूप से लिखा है। इनके अतिरिक्त भी और कई कारण हो सकते हैं, जब ये आँसू मनुष्य की आँखों से बाहर निकलकर गंगा-यमुना बहाने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे मनुष्य का सुख-समृद्धि का समय हो या फिर दुख-परेशानी का काल, दोनों ही अवस्थाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने से ये आँसू नहीं चूकते। आँसू रूपी ये मोती अवसर मिलते ही मनुष्य की आँखों से बाहर निकलने की फिराक में रहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

जीवन का शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष

 जीवन का शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शुक्लपक्ष यानी उजला अंश और कृष्णपक्ष यानी काला अंश दोनों ही होते हैं। इन दोनों को मिलाकर ही किसी मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व बनता है। यदि मनुष्य के विषय में समग्र जानकारी प्राप्त करनी हो, तो उसके दोनों पक्षों पर विचार करना अनिवार्य होता है। अन्यथा उसके विषय में एकत्र की गई जानकारी को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। वह अधूरी रह जाती है।
          मनुष्य जब घर-परिवार, देश, धर्म, समाज और राष्ट्र के हित के कार्य करता है, तो वह उसके जीवन का शुक्लपक्ष होता है। जब वह इनके विपरीत कार्य करता है, तो वह उसके जीवन का कृष्णपक्ष होता है। इस पक्ष में मनुष्य किसी भी कारण से आ तो जाता है, पर इसमें से बाहर निकल पाना असम्भव होता है। ये कार्य तो कोयले की दलाली जैसे होते हैं, जो भी इन्हे छू लेता है, उसका दामन दागदार हो जाता है।
          मनुष्य केवल अपना शुक्लपक्ष यानी अच्छा-अच्छा ही सबको दिखाना चाहता है। अपना कृष्णपक्ष यानी काला अथवा बदसूरत हिस्सा सारी दुनिया से छिपाकर रखना चाहता है। वह चाहता है कि लोग उसके जीवन के शुक्लपक्ष को ही देखकर उसके बारे में अच्छी-अच्छी धारणा बनाएँ। वह कभी नहीं चाहता कि उसके जीवन के कृष्णपक्ष को देखकर लोग उसे तिरस्कृत करें या अनदेखा करें।
         मनुष्य भूल जाता है कि चिरस्थायी रामकथा को लिखने वाले महर्षि वाल्मीकि के पहले डाकू होने की बात को लोग भूल नहीं पाते। महात्मा बुद्ध के प्रिय शिष्य अँगुलीमाल का पूर्वकाल में डाकू होना लोग याद करते रहते हैं। संस्कृत भाषा के विश्व में सुप्रसिद्ध महाकवि कालिदास का पूर्व में महामूर्ख होना लोग विस्मृत नहीं कर पाते। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास को खोजने पर मिल जाते हैं।
          मनुष्य अपनी सफेदपोशी बनाए रखना चाहता है। मनुष्य चाहता है कि वह जायज या नाजायज किसी भी तरह से धन को कमा ले, किसी को कानोकान उसकी भनक भी नहीं लगनी चाहिए। एक बार पर्याप्त धन कमा लेने के बाद कौन पूछता है कि उसने धन कैसे कमाया? वह सोचता है कि उस धन का दान करके या अपने नाम के पत्थर लगवाकर वह महान बन जाएगा। परन्तु वास्तविक जीवन में ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। 
           मनुष्य का यश या अपयश, उसके शुभाशुभ कर्मों का लेखा-जोखा होता है, जो उससे पहले ही उस स्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ वह जा रहा होता है। मुँह के सामने शायद उसका लिहाज करके कोई कुछ न कहे, पर उसकी पीठ के पीछे सब लोग उसके कर्मों पर चर्चा करते हैं, उनका पिष्टपेषण कर डालते हैं। दुनिया तो किसी से नहीं डरती, वह सच्चाई का पोषक होती है, नीर-क्षीर विवेकी होती है। लोगों को किसी के फटे में टाँग अड़ाने की बुरी आदत होती है। 
           उजले या शुभकर्म करने वाले लोगों को घर-परिवार, समाज और ईश्वर का डर होता है। इसलिए वे कभी गलत काम करने की सोचते भी नहीं हैं। शुभकार्यों को करते हुए वे अपने जीवन में मस्त रहते हैं। जीवन में यदि किसी वस्तु की कमी भी हो, तो उसके लिए परेशान नहीं होते। उन्हें ईश्वर पर भरोसा होता है कि वह सब ठीक कर देगा। यही उनकी मस्ती का प्रमुख कारण होता है।
          काले कारनामे करने वाले मनुष्य घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के विरुद्ध कार्य करते हैं। ये लोग कहते हैं कि वे किसी से भी नहीं डरते। परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत होती है। इन लोगों को दिन के उजाले में भी डर लगता है। ये लोग न्याय-व्यवस्था के दोषी होते हैं, जो कभी भी उसके हत्थे चढ़ जाते हैं। तब उनकी सारी होशियारी धरी की धरी रह जाती है।
            मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह दुनिया को अपना कौन-सा पक्ष दिखाना चाहता है? मेरे विचार में यदि मनुष्य का कोई कृष्णपक्ष है भी, तो वह कभी उसे नहीं दिखाना चाहता। वह केवल अपना शुक्लपक्ष ही दुनिया को दिखाकर वाहवाही लूटना चाहता है। सार रूप में मैं यही कहना चाहती हूँ कि मनुष्य समाज के समक्ष अपना जो भी रूप प्रकट करना चाहता है, उसके अनुरूप उसे कर्म भी करने चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद