शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

लोभ अपराधों का मूल

 लोभ अपराधों का मूल

लोभ या लालच सारे फसादों की जड़ है या कारण है। यह लालच मनुष्य को चैन से नहीं बैठने देता, उसे बस नाच नचाता रहता है। और और पाने की उसकी कामना उसे सदा आकुल बनाए रखती है। अपनी इन कामनाओं की तृप्ति के लिए मनुष्य कोल्हू का बैल बन जाता है। दिन-रात उन्हें पाने के लिए वह अनथक प्रयास करता रहता है। फिर भी उसकी यह लोभ की वृत्ति समाप्त नहीं होती, बल्कि निरन्तर बढ़ती ही चली जाती है।
          किसी कवि ने लोभ के विषय में कहा है-
लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति॥
अर्थात् लोभ सभी पापों और संकटों का मूल है। लोभ से वैर बढ़ते हैं। लोभ की अधिकता नष्ट कर देती है।
          कहने का तात्पर्य है कि यह लालसा सारे पापकर्मों की जड़ है तथा यही सभी संकटों को आमन्त्रित करती है। इसी के कारण ही मनुष्य के अनेक प्रकार के शत्रु उत्पन्न हो जाते हैं। जब यह लालसा बढने लगती है, तब वह मनुष्य के विनाश का कारण बन जाती है। मनुष्य को पता ही नहीं चलता कि कब वह इस लालच के मकड़जाल में फँसकर, तड़पने लगता है। फिर उससे बच निकलने का मार्ग खोजने लगता है।
          जब यह लोभ अति हो जाता है, तब मनुष्य का पतन निश्चित होता है। यहाँ एक राजा की कथा पर चर्चा करते हैं, जिसे बहुत अधिक स्वर्ण की लालसा थी। एक दिन उसके राज्य में एक महात्मा आए। उनसे राजा ने कहा, "मुझे बहुत अधिक सोना चाहिए। क्या आप मुझे वह दे सकते हो?"
           महात्मा जी ने कहा, "अवश्य दे सकता हूँ।"
            राजा ने प्रार्थना की, "मुझे बहुत सारा सोना दे दीजिए।"
            महात्मा ने उस राजा से कहा, "मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम जिस वस्तु को छुओगे, वह सोने की हो जाएगी।"
            राजा बहुत प्रसन्न हो गया। अब क्या था, जिस भी वस्तु को वह छू लेता, वह सोने की हो जाती। उसका महल, उसका सिंहासन, उसका बगीचा आदि सब उसके छूने से सोने के हो गए। इतना सारा सोना देखकर वह बहुत प्रसन्न हो गया। जब वह भोजन करने बैठा, तो उसे खा नहीं सका क्योकि छूने से वह भी सोने का हो गया। जब उसकी बेटी ने उसे छुआ, तो वह भी सोने की हो गई। 
          अब वह रोने लगा और चिल्लाने लगा, "मुझे सोना नहीं चाहिए। मेरा सब कुछ ले लो, पर मेरी प्यारी बेटी मुझे वापिस दे दो।"
           तब महात्मा जी ने आकर उसे शिक्षा दी कि लोभ से किसी का भला नही होता। अब राजा को समझ आ चुकी थी।इसलिए महात्मा जी ने उसे पहले की तरह बना दिया।
           कहने का तात्पर्य यह है कि अति लालच भी मनुष्य को पागल बना देता है। जब राजा को मनचाहा बहुत-सा सोना मिल गया, फिर भी वह अतृप्त रह गया। तब उसे पहले वाली स्थिति चाहिए थी। अब उसे  समझ आ गई थी कि मनुष्य को लालच करने से सुख नहीं मिल सकता।
           इस लोभ की प्रवृत्ति को पूर्ण करने के कारण बहुत से मनुष्यों में चोरी तक की आदत हो जाती है। वे कहीं जाते हैं तो जो वस्तु उसे पसन्द आती है, उसे चुराकर ले आते हैं। इस कारण मनुष्य न्याय-व्यवस्था का दोषी बन जाता है। शीघ्र ही मनुष्य की इस आदत का पता चल जाता है। तब कोई बन्धु-बान्धव उसे अपने घर नहीं आने देता। इस तरह वह समाज से कट जाता है व अलग-थलग पड़ जाता है।
          लोभ, लालच या लालसा सभी बुराइयों का मूल कारण है। लोभ करने से किसी का भला नहीं होता। हमारे मनीषी लोभ को मनुष्य का शत्रु मानते हैं। यह मनुष्य का आन्तरिक शत्रु है। इस पर विजय प्राप्त करना कठिन है, पर नामुमकिन नहीं हैं। मनुष्य अध्यात्म में जितना आगे बढ़ता है, वह इस शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है। मनुष्य के पास जो भी है, उसी में उसे सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रहना चाहिए। 
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

सुख के हजार कारण

सुख के हजार कारण

प्रसन्न रहना चाहे तो मनुष्य किसी भी तरह खुश होने का कारण खोज लेता है। वह दिन-प्रतिदिन की छोटी-छोटी घटनाओं से ही स्वयं को खुश रख सकता है। प्रातः दिन आरम्भ होता है और उसका अन्त रात्रि से होता है। इस बीच वह अनेकानेक कार्य कलाप करता है। उन्हीं कार्यों को करते हुए आनन्द के पलों को मनुष्यअपनी मुट्ठी में समेट सकता है। उसे कहीं बाहर जाकर उन्हें ढूंढने के आवश्यकता नहीं होती।
           इसके विपरीत जिस व्यक्ति ने दुख या निराशा को अपना साथी बना लिया हो, उसे वैसे बहाने सरलता से मिल जाते हैं।  उसे उनको तलाशने की आवश्यकता नहीं होती। वह सवेरे से शाम तक बिसूरता ही रहता है। इसलिए उसके कार्यों में गलतियाँ भी हो जाती हैं, जिसके लिए उसे पश्चाताप करना पड़ता है। ऐसे मनुष्य को उसके जैसे सदा दुखी रहने वाले मित्र आसानी से मिल जाते हैं।
           किसी कवि ने प्रसन्नता और दुख को खोजने वाले लोगों के विषय में हमें बताते हुए कहा है-
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।।
अर्थात् मनुष्य के पास प्रसन्न होने के लिए हजारों अवसर आते हैं और दुःखी होने या डरने के लिए सैकड़ों। प्रतिदिन मूर्खों पर इनका प्रभाव पड़ता है, परन्तु ज्ञानी व्यक्ति इन सबसे व्यथित नहीं होता।
          एक नादान मनुष्य को यदि खुश होने के सौ कारण मिलते हैं, तो वह दु:खी होने के लिए हजारों कारण ढूंढ लेता है। इसलिए उसे खुश कम मिलती है और वह दुखी अधिक रहता है। इसके विपरीत ज्ञानी या समझदार व्यक्ति अपने मन का सन्तुलन  बनाकर रखता है। वह छोटे-छोटे कारणों की वजह से अपना दिन खराब नहीं करता। वह हर हाल में, हर समय प्रसन्न रहने का प्रयास करता है।
         प्रसन्न रहना अथवा बिसूरते रहना दोनों ही मन की ही अवस्थाएँ है। यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि उसकी मन की अवस्था कैसी है? एक व्यक्ति के पास ईश्वर की दया से दुनिया के सारे ऐशोआराम हैं, धन-दौलत है, फिर भी वह हर समय किसी न किसी कारण से रोनी सूरत बनाए रहता है। किसी ने कभी उसे हँसते हुए नहीं देखा। ऐसे अकृतज्ञ व्यक्ति को क्या कहा जा सकता है?
          दूसरी ओर जीवन में यदि कमियाँ हैं भी तो उन्हें सहन करता हुआ मनुष्य सदा प्रसन्न रहता है। जितना उसके पास है, उसमें सन्तुष्ट रहता है। सारा समय ईश्वर का धन्यवाद करता है कि उसने उसे बहुत दिया है, उसका जीवन निर्वाह अच्छे से हो रहा है। किसी के सामने उसे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। वह हर किसी से प्रसन्नतापूर्वक मिलता है। लोग भी ऐसे मनुष्य को चाहते हैं, रोने वाले को नहीं।
           मनुष्य के इस जीवन में बहुत से चाहे-अनचाहे पल आते ही रहते हैं। कभी घर-परिवार के झमेले, कभी नौकरी या व्यवसाय की परेशानियाँ, तो फिर कभी बन्धु-बान्धवों से तकरार ये सब कारण उसे व्यथित करने के लिए बहुत होते हैं। उसके जीवन में उतार-चढ़ाव चक्र के अरों की भाँति आते रहते हैं। इन सबके बीच रहते हुए अपने मन को व्यवस्थित करना ही कला कहलाती है।
          ज्ञानी व्यक्ति वही है जो सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि द्वन्द्वों का सामना करते हुए स्वयं को संयमित रखे। ये सब उसके जीवन पर निश्चित ही प्रभाव डालते हैं, पर उनसे दो-चार होते हुए भी वह प्रसन्नता के पलों को गँवाता नहीं है। उन्हें थामने का प्रयास करता है। अज्ञ लोगों की भाँति समझदार मनुष्य अपना सन्तुलन खोकर हाय-तौबा नहीं मचाता। वह जानता है कि ये सब तो जीवन का हिस्सा हैं, इनसे घबराकर अपनी खुशियों को बर्बाद नहीं करना चाहिए।
         खुशियाँ मनुष्य को अपने भीतर से ही मिलती हैं। ये बाजार में बिकने वाली कोई वस्तु नहीं हैं कि जिन्हें खरीदकर लाया जा सके और घर-परिवार के लोगों में बाँट दिया जाए। प्रसन्न रहना एक कला ही कही जा सकती है। मनुष्य अपने मन को थोड़ा समझा ले, तो प्रसन्नता उसे सहज में ही उपलब्ध हो सकती है। जहाँ तक हो सके उसे अपने हाथ से गँवाना नहीं है, बल्कि हर हाल में उसे अपने पास सम्हालकर रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 29 जुलाई 2020

स्वार्थ से ऊपर उठो

स्वार्थ से ऊपर उठो

अपना पेट तो सभी जीव-जन्तु भर लेते हैं। तारीफ उसी में है कि मनुष्य अपने पेट को भरने के साथ-साथ दूसरों के विषय में भी सोचे। यदि मनुष्य केवल अपने ही विषय में सोचेगा तो उसमें और अन्य पशुओं में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके पड़ौस में कोई भी व्यक्ति भूखा न सोए। यदि दो रोटी किसी को प्रेम से खिला दी जाएँ, जिससे उसका पेट भर जाए, तो पता नहीं वह कितने आशीष देगा।
         'पञ्चतन्त्रम्' ग्रन्थ में पण्डित विष्णु शर्मा ने बताया है-
          यस्मिन् जीवति जीवन्ति 
                   बहव: स तु जीवति।
           काकोऽपि किं न कुरूते 
                   चञ्च्वा स्वोदरपूरणम्॥
अर्थात् जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीवित हुआ कहलाता है, क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता?       
            मनुष्य का जीवन तभी सार्थक माना जाता है, जब उसके जीवन से अन्य लोगों को अपने जीवन का आधार मिल सके। यानी जिस तरह से अन्य जीव जीवन जीते हैं, यदि हम मानव योनि पाकर भी उन्हीं की तरह से स्वयं का ही पेट भरने में ही सारा जीवन लगा दें, तो उसमें कोई विशेषता नहीं होती। कौआ अपनी चोंच द्वारा अपना ही पेट भरने में लगा रहता है । फिर उन जीवों और हम मनुष्यों में क्या अन्तर रह जाता है? 
           कहने का तात्पर्य है कि यह मानव योनि मनुष्य को परमार्थ के कार्य करने के लिए मिली है। इसका सदुपयोग हर मनुष्य को करना चाहिए। यदि मनुष्य अपने जीवन में स्वार्थी बन जाएगा, तो उसका यह जन्म व्यर्थ हो जाएगा। मनुष्य का स्वार्थ उसके परमार्थ के मार्ग की बाधा बन जाएगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। ऐसे स्वार्थी मनुष्य को समाज में यथोचित स्थान भी तो नहीं मिल पाता।
            'महाभारतम्' में वेद व्यास जी ने इस विषय में कहा है-
          द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ 
                गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्।
          धनवन्तम् अदातारम् 
                दरिद्रं च अतपस्विनम्॥
अर्थात् इस संसार में दो तरह के व्यक्तियों का जीवन व्यर्थ है। पहले वे हैं जो धनी होकर भी दान नहीं करते हैं, दूसरे वे हैं जो गरीब होते हुए भी परिश्रम नहीं करते हैं। व्यास जी का कथन है इन दोनों प्रकार के लोगों के गले में पत्थर बाँधकर जल में डूबा देना चाहिए।
           यानी धनवान व्यक्ति को दान या परोपकार के कार्य करते रहना चाहिए और गरीब की मेहनत करने में ही सार्थकता है। अन्यथा इनका जीवन व्यर्थ है। धन की उपयोगिता तभी है, जब वह किसी असहाय के काम आ सके। किसी जरूरतमन्द की सहायता कर सके। अपने द्वार पर आए किसी भूखे को रोटी खिला सके। ऐसे लोगों से घृणा करने के स्थान पर उनके लिए सहानुभूति रखे।
         आज कॅरोना महामारी के चलते कितने ही लोग तन, मन और धन से मजबूर लोगों की सहायता कर रहे हैं। लॉकडाउन के चलते बहुत से लोगों का काम छूट गया है, वे बेरोजगार हो गए हैं। उन्हें रोटी के लाले पड़ गए हैं। उन्हें भोजन खिलाने का पुण्य कार्य कर रहे हैं, अनाज खरीदकर दे रहे हैं, ताकि वे भोजन बनाकर कहा सकें। कुछ लोग अपनी जेब से पैसा खर्च करके उन्हें अपने घरों में पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं।
         वास्तव में महानता यही है कि एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य की सहायता के लिए सदा तत्पर रहे। अपने मन की स्वार्थ भावना को त्यागकर उसे थोड़ा उदार बना ले। यदि सब लोग दूसरों को मदद करने के लिए आगे हाथ बढ़ाएँ, तो मानवता का कल्याण हो जाए। किसी को रोटी के फाके नहीं करने पड़ेंगे। किसी को कूड़े में फैंके हुए भोजन को बीनकर नहीं खाना पड़ेगा। तब मनुष्य सच्चे अर्थों में दीनबन्धु बनकर मानव जाति का कल्याण करेगा।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

भाग्य और पुरुषार्थ

भाग्य और पुरुषार्थ

मनुष्य का भाग्य और उसका पुरुषार्थ दोनों की उसके जीवन में अहं भूमिका होती है। दोनों को एक सिक्के के दो पहलू कहा जा सकता है। भाग्य के बिना पुरुषार्थ फलदायी नहीं होता। इसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना मनुष्य का भाग्य सो जाता है। जब मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है, उस समय यदि वह पुरुषार्थ करने में आलस्य करता है, तब भाग्य मनचाहा फल नहीं दे पाता। मनीषी इसे ही जीवन में स्वर्णिम अवसर मिलना कहते हैं।
           इसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में कितना भी पुरुषार्थ कर ले, परन्तु यदि भाग्य उसके विपरीत है, तब भी उसे आशा के अनुरूप फल नहीं प्राप्त हो सकता। एक मजदूर सारा दिन हाड़तोड़ परिश्रम करता है, परन्तु उसे दो जून के भोजन बड़े ही कष्ट से नसीब होता है। उसका भाग्य साथ नहीं देता, तभी उसकी यह स्थिति बनती है। जब भाग्य मनुष्य का साथ देता है, तब कम मेहनत करने पर भी अच्छा उसे परिणाम मिलता है।
           हम यहाँ जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर भाग्य कहते किसे हैं और यह पुरुषार्थ क्या है? मनुष्य जन्म-जन्मान्तरों में शुभ और अशुभ कर्म करता रहता है। कुछ शुभाशुभ कर्मों का फल वह भोग लेता है। जो कर्म शेष बचते हैं, वे इकट्ठे होकर जुड़ते रहते हैं। वही कर्म मिलकर मनुष्य का प्रारब्ध बनते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही मनुष्य का भाग्य बनाते हैं। उन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्य को इहलोक में सुख-दुख आदि भोग मिलते हैं। 
           इन शुभाशुभ कर्मों को भोगकर ही मनुष्य उनसे मुक्त होता है। उन्हें भोगे बिना उसकी गति सम्भव नहीं होती। मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी सुख-दुख, सफलता-असफलता, उन्नति-अवनति आ द्वन्द्वदि इन्हीं कर्मों पर निर्भर करते हैं। यही भाग्य और पुरुषार्थ दोनों मिलकर मनुष्य जीवन की चलते हैं। इसीलिए चक्र के अरों की भाँति ये सब ऊपर-नीचे होते रहते हैं अथवा कर्मानुसार आते हैं।
           आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने 'वाल्मीकिरामायणम्' के अयोध्याकाण्ड में लिखा है-
    विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते।
   वीरा: संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते।।
अर्थात् बलहीन या कापुरुष ही भाग्य के भरोसे बैठा रहता है। स्वावलम्बी पुरुष कर्म के माध्यम से सब कुछ प्राप्त कर लेता है, वह केवल भाग्य के भरोसे नहीं बैठा रहता है।
         जिस मनुष्य को अपनी बुद्धि और शक्ति पर विश्वास होता है, निस्संदेह वह कर्म करता हुआ कुछ भी प्राप्त कर सकता है। वह आसमान में ऊँची उड़ान भर सकता है, समुद्र में गहरे पैठकर मोती ला सकता है, पर्वतों के सीना चीरकर मार्ग बना सकता है। ऐसा कौन-सा कार्य है, जो वह नहीं कर सकता? इन्हीं लोगों की बदौलत हम दुनिया के सारे सुख भोग रहे हैं। चन्दमा आदि नक्षत्रों पर आवागमन कर रहे हैं।
          इसके विपरीत भाग्य के भरोसे बैठा कायर व्यक्ति कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता। वह सारा समय अपने भाग्य को कोसता रहता है और ईश्वर को दोष देता रहता है। सफल पुरुषार्थी लोगों से ईर्ष्या करके अपना हृदय व्यथित करता रहता है। परन्तु वह अपने गिरेबान में झाँककर कभी नहीं देखता। वह आत्ममन्थन नहीं करता कि जीवन की रेस में उसके पिछड़ने का कारण क्या है?
            'दैवं देयमिति कपुरुषा वदन्ति' कहकर मनीषी समझाते हैं कि भाग्य देगा, ऐसा कहकर हाथ पर हाथ रखकर निठल्ले बैठने से किसी समस्या का समाधान नहीं होने वाला। भाग्य तो अपने समय से देगा ही। पुरुषार्थ करके अपने भाग्य को जगाना बहुत आवश्यक है। अन्यथा मनुष्य के साथ उसका भाग्य भी सोने चला जाता है। इसलिए मनुष्य को अपने जीवन में सफल होने के लिए भाग्य और पुरुषार्थ रूपी दोनों पहियों से अपने जीवन की गाड़ी को चलाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 27 जुलाई 2020

माँगना

माँगना

याचना करना अथवा माँगना स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन कार्य है। माँगने की प्रवृत्ति सदा से ही अहितकारी कही गई है। इसीलिए हमारी संस्कृति में त्याग का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। याचना करने से मनुष्य का सब कुछ क्षीण होता है, परन्तु त्याग से सब प्राप्त होता है। ईश्वर मनुष्य को पात्रता के अनुसार स्वतः ही देते हैं। इसलिए माँगने से परहेज करना चाहिए। कहते हैं-
 बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख। 
 और भी कहा है-
 माँगन गए सो मर गए, मरकर माँगन जाए।
अर्थात् माँगना सरल नहीं बहुत कठिन कार्य है। माँगने की स्थिति आ जाने पर एक स्वाभिमानी मनुष्य पता नहीं कितनी मौत मरता है। ईश्वर मनुष्य को बिना माँगे ही मालामाल कर देता है।
          कुछ लोगों की प्रवृत्ति ही माँगने की होती है यानी वे याचक वृत्ति के होते हैं। वे माँगकर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं। सारा समय उन्हें कुछ न कुछ माँगना ही होता है। कुछ व्यक्ति लापरवाह प्रकृति के होते हैं। इसलिए उनके पास आवश्यक वस्तुओं की कमी बनी रहती है। इसलिए उन्हें माँगना ही पड़ता है। कोई कितना भी तिरस्कार क्यों न करे, वे चिकने घड़े बने रहते हैं। 
           इसी प्रकार लोभी व्यक्ति भी सदैव कुछ न कुछ पाने की कामना करता रहता है। इसलिए वह सदा अतृप्त ही रहता है। उसके पास कितना ही क्यों न हो, उसकी दृष्टि में वह कम ही रहता है। इसलिए वह सदा और ही की कामना करता रहता है। यद्यपि मनुष्य को किसी से कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जब उसकी अपेक्षा पूर्ण नहीं होती, तब मनुष्य दु:खी रहता है। 
          'ब्रह्मपुराण' में इस विषय पर विचार व्यक्त करते हुए व्यास जी ने कहा है-
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता:।
तत्क्षणादेव लीयन्ते धीश्रीह्रीशान्तिकीर्तय:॥
अर्थात् 'कुछ दीजिए’ यह वचन कहते ही शरीर में विद्यमान पाँच देवता तत्क्षण देह को छोड़कर चले जाते हैं- बुद्धि, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति और कीर्ति।
           कहने का तात्पर्य यही है कि जब मनुष्य किसी से कुछ माँगने के लिए जाता है, तो उसकी बुद्धि, उसका विवेक उसका साथ छोड़ देते हैं। माँगने वाले को लज्जा त्याग देती है। लक्ष्मी उससे नाराज हो जाती है। मनुष्य उस समय कान्तिहीन हो जाता है और उसकी कीर्ति मानो कहीं खो सी जाती है। यानी माँगना किसी भी तरह से कोई फायदे का सौदा नहीं, उससे मनुष्य को हानि होती है।
          मनुष्य को यदि कुछ चाहिए तो उसे सदा परमपिता परमात्मा से याचना करनी चाहिए। वही एक ऐसा हो जो बिना माँगे ही सबकी झोलियाँ भरत रहता है। संसार के लोग तो माँगने पर दुत्कार सकते हैं, न देने के सौ बहाने बना सकते हैं। परन्तु उस परमेश्वर से सच्चे मन से प्रार्थना की जाए, तो वह व्यर्थ नहीं जाती। देर-सवेर वह मनुष्य की कामना को पूर्ण कर ही देता है। मनुष्य को इसलिए सदा उसकी शरण में ही जाना चाहिए। 
           जिस प्रकार भौतिक जगत के माता-पिता अपने बच्चों के माँगने अथवा न माँगने पर भी, उनकी सारी आवश्यकताएँ पूर्ण करते हैं। उसी प्रकार वह ईश्वर भी अपने बच्चों को कभी निराश नहीं करता। वह सदा ही उनकी जरूरतों का ध्यान रखता है। वही एकमात्र मनुष्य का ठौर है, उसकी शरण में ही जाना चाहिए। सबसे बड़ी बात वह किसी से चर्चा करके मनुष्य को अपमानित नहीं करता।
          जहाँ तक हो सके माँगने की प्रवृत्ति को टालना चाहिए। इसे आदत तो कदापि नहीं बनाना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि ईश्वर ने जितना दिया है, जो भी दिया है, उसी में सन्तोष करना चाहिए। उस मालिक को कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए, सदा उसी में अपना जीवन यापन करने का प्रयास करना चाहिए। 
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 26 जुलाई 2020

स्वावलम्बन

स्वावलम्बन

स्वावलम्बी होना मनुष्य का बहुत बड़ा गुण है। जो मनुष्य स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकता, वह जीवन में सफल नहीं हो पाता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मनुष्य सारे कार्य स्वयं करने की ठान ले। जो कार्य उसे करने चाहिए, उनके लिए किसी ओर का मुँह देखने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यह सत्य है कि जो कार्य मनुष्य स्वयं करता है, उसमें उसे सन्तुष्टि प्राप्त होती है। वह कार्य उसकी इच्छा के अनुरूप भी हो जाता है।
         मनुष्य को प्रयास यही करना चाहिए कि वह अपने कार्यों के सम्पादन के लिए दूसरों का मोहताज न बने। जो कार्य वह किसी दूसरे पर छोड़ देता है, वह उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हो पाता। कई बार उसमें विलम्ब भी हो जाता है, तो उसे कष्ट होता है। बाद में उसे पश्चाताप होता है कि काश उसने वह कार्य स्वयं कर लिया होता। इससे न कार्य में विलम्ब होता और न मन को कष्ट होता।
            निम्न श्लोक में सुभाषितकार हमें समझा रहे हैं-
          यद्यत् परवशं कर्मं 
                तत् तद् यत्नेन वर्जयेत् ।
          यद्यदात्मवशं तु स्यात्
                तत् तत् सेवेत यत्नत:॥
अर्थात् जो जो कार्य दूसरों के भरोसे करना पड़े, उसे यत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए। जो कार्य मनुष्य स्वयं कर सकता है, उसे शीघ्र कर लेना चाहिए।
           सुभाषितकार हमें स्वावलम्बी बनने का मन्त्र दे रहा है। हमें अपनी जिम्मेदारी के साथ काम करते रहना चाहिए ताकि हम स्वावलम्बी बने। परावलम्बी बनने से यानी दूसरों के सहारे रहने से कार्य अच्छी तरह से नहीं हो पाता है। इसलिए हमें उस कार्य का आनन्द नहीं प्राप्त होता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हमें किसी की सहायता लिए बिना ही सारे काम स्वयं ही कर लेने चाहिए।
          जीवन में मनुष्य को बहुत से लोगों से वास्ता पड़ता है। कदम-कदम पर उसे उनकी सेवाएँ भी लेनी पड़ती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कार्य मनुष्य के अपने वश में हैं, उनके लिए उसे किसी दूसरे के सहारे की उसे आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। यदि मनुष्य हर कार्य को करने के लिए परावलम्बी हो जाएगा, तब उसे कदम-कदम पर परेशानियों का सामना करना पड़ जाता है।
           स्वावलम्बी व्यक्ति में चुस्ती और स्फूर्ति बनी रहती है। उसका प्रयास यही रहता है कि वह अपने कार्य प्रतिदिन निपटा ले। उसकी सफलता का मूल मन्त्र यही है कि वह अपना कार्य कल पर नहीं टालता। वह जानता है कि जब कोई कार्य लटक जाता है, तो समय आने पर वह बहुत कष्ट देता है। इसलिए वह सावधान रहता है। अतः उसे कहीं भी नजरें चुराने की जरूरत नहीं पड़ती।
           इसके विपरीत परावलम्बी मनुष्य सदा आलस्य करता रहता है। वह दूसरों के भरोसे बैठा रहता है। वह चाहता है कि कोई आए और उसके कार्य कर दे। परन्तु हर समय ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। इसलिए जल्दबाजी में वह उल्टा-सीधा कार्य करता है। इससे उसके कार्य बिगड़ते रहते हैं और उसका अमूल्य समय भी बर्बाद होता है। इस प्रकार उस मनुष्य के कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
           परावलम्बी मनुष्य की आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति, उसके जी का जंजाल बन जाती है। तब घर में, ऑफिस में, दोस्तों में हर स्थान पर उसे अपमानित होना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति समय का मूल्य नहीं समझ पाता। इसलिए सर्वत्र आसफल रहता है। तब वह अपने भाग्य को कोसता है, ईश्वर को दोष देता है। किसी सफल व्यक्ति को देखता है, तो उससे ईर्ष्या करता है।
          मनुष्य को प्रयासपूर्वक स्वावलम्बी बनना चाहिए। इसी से उसे सर्वत्र सम्मान मिलता है। परावलम्बी होना एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। इससे मनुष्य को सदा ही बचना चाहिए। 'अपने हाथ जगन्नाथ' उक्ति इन्हीं स्वावलम्बी व्यक्तियों के लिए कही जाती है, जो दूसरों से अधिक स्वयं पर विश्वास करते हैं। इन लोगों के उदाहरण ही समाज में दिए जाते हैं। 
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 25 जुलाई 2020

शक्ति प्रदर्शन

शक्ति प्रदर्शन

शक्तिशाली मनुष्य को अपनी शक्ति का घमण्ड नहीं करना चाहिए, अपितु उससे असहायों की सुरक्षा करनी चाहिए। यह ऐसा महान कार्य है, जिससे लोग उसकी शक्ति को पहचानते हैं और प्रशंसा करते हैं। मनुष्य को अपनी शक्ति का प्रदर्शन यदा कदा कर लेना चाहिए, अन्यथा लोग उसकी शक्ति के महत्त्व को ही नहीं समझते। वे उसे कायर मानने की भूल करने लगते हैं। जब वह अपनी शक्ति को दिखता है, तब वे उससे डरने लगते हैं।        
          निम्न श्लोक में कवि ने इस बात पर बल दिया है कि अपनी शक्ति का लोहा मनुष्य को मनवाना चाहिए-
        अप्रकटीकृतशक्ति: शक्तोपि
                   जनस्तिरस्क्रियां लभते।
         निवसन्नन्तर्दारुणि 
                    लङ्घ्यो वह्नि तु ज्वलित:॥
अर्थात् शक्तिवान मनुष्य जब तक अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं करता, तब तक लोग उसका तिरस्कार करते हैं। जैसे लकड़ी से कोई नही डरता, परन्तु जब वही लकड़ी जल रही होती है, तब लोग उससे डरने लगते है। 
           कवि के कहने का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति को अपने सामर्थ्य एवं विवेक का परिचय समय-समय पर करवाते रहना चाहिए। तभी समाज में उसकी पूछ होती है। लोग उसके बल से डरकर, उससे दूर ही रहना पसन्द करते हैं। अतः जहाँ आवश्यक हो वहाँ अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना आवश्यक है। यहाँ लकड़ी का उदाहरण दिया है। जलती हुई लकड़ी से सब डरते हैं। कोई भी उसके पास जाने का साहस ही नहीं कर सकता।
          साँप के जहर के कारण सब लोग उससे डरते हैं। यही वह साँप किसी को काट ले तो उसकी मृत्यु निश्चित होती है। वही साँप यदि डंक मारना छोड़कर साधु बन जाए, तो कोई भी उससे नहीं डरेगा। तब तो बच्चे भी उसकी पूँछ मरोड़ने लगेंगे। वह यदि न भी काटे, तो उसकी फुफकार ही बहुत होती है, सबको डराने के लिए। इसी शक्तिशाली साँप की जब मृत्य हो जाती है, तब चींटियाँ भी उसके ऊपर से गुजरने लगती है।
          जलती हुई अग्नि से सब जीवों को भय लगता है। उस समय कोई भी मनुष्य या जीव-जन्तु उसके पास जाने, उसे छूने का साहस नहीं कर सकता। जब यही अग्नि क्रोध में आ जाती है, तो बड़े-बड़े जंगलों को भस्म कर देती है। इसी तरह यह अग्नि ऊँची-ऊँची इमारतों को जलाकर खाक कर देती है। परन्तु जब यही अग्नि ठण्डी हो जाती है या राख बन जाती है, तब चींटियाँ भी उसको रौंदने लगती हैं, वे भी उससे नहीं डरतीं।
         भगवान राम ने लंका पर आक्रमण करने के समय, समुद्र से रास्ता माँगने के लिए तीन दिन तक उसकी पूजा-अर्चना की थी। परन्तु समुद्र ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी और उन्हें मार्ग नहीं दिया। जब उन्होंने उसका जल सूखा देने के लिए धनुष पर अपनी प्रत्यञ्चा चढ़ाई, तो समुद्र ने बिना समय गँवाए उन्हें पार जाने के लिए मार्ग दे दिया। यानी भगवान राम को क्रोध करना पड़ा था या अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ा था, अपनी इच्छा को पूर्ण करवाने के लिए।
           मनीषी कहते हैं कि मनुष्य को स्वयं को किसी के समक्ष स्वयं को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए क्योंकि लोग समय आने पर उस मनुष्य की शक्ति का लोहा मान लेते हैं। पर समस्या यह है कि उस समय के आने की प्रतीक्षा कोई भी नहीं करना चाहता। शक्तिशाली मनुष्य भी शीघ्र ही अपनी पहचान एक बलशाली व्यक्ति के रूप में बना लेना चाहता है। वह किसी भी शर्त पर स्वयं को बलहीन नहीं कहलवाना चाहता। 
          कोई भी मनुष्य स्वयं को दूसरों के सामने कायर नहीं सिद्ध करना चाहता। वह सबके समक्ष अपनी एक पहचान बनाना चाहता है। समर्थ या शक्तिशाली ही संसार में जी सकता है। कहते हैं बड़ी मछली छोटी मछली की खाती है। कहने का तात्पर्य यही है कि जो शक्तिशाली होता है, वही संसार के किसी भी क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकता है।   
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

घर आए शत्रु का सम्मान

 घर आए शत्रु का सम्मान

शास्त्र जहाँ घर आए अतिथि का सत्कार करने के लिए कहते हैं, वहीं दूसरी ओर घर आए शत्रु का भी सत्कार करने के लिए भी समझाते हैं। यह हमारी भरतीय संस्कृति की विशेषता है, जो हमें इस प्रकार अनुशासित करती है। शत्रु का स्वागत मनुष्य को उसी प्रकार करना चाहिए, जैसे अतिथि का सत्कार करना चाहिए। उसका सत्कार करते समय मन में कटुता का भाव नहीं होना चाहिए और न ही चेहरे पर दुर्भावना की झलक होनी चाहिए। सामान्य रहते हुए उसका सत्कार करना चाहिए।
          निम्न श्लोक में कवि ने पेड़ का उदाहरण देते हुए समझया है कि घर आए शत्रु का आदर करना चाहिए-
अरौ अपि उचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते।
छेतु: पार्श्वमगतां छायां न उपसंहरते द्रुम:॥
अर्थात् अपने घर पर आए हुए शत्रु का सम्मान अतिथि की भाँति ही करना चाहिए। जो व्यक्ति पेड़ को काटनेे के लिए आता है, उसे भी वह अपनी शीतल छाया प्रदान करता है। पेड़ अपनी छाया उस काटने वाले व्यक्ति से दूर नहीं करता।
           कवि के कहने का यह तात्पर्य है कि पेड़ शत्रु और मित्र में कोई अन्तर नहीं करता। पेड़ अपने शत्रु से फल और छाया को दूर नहीं करता, बल्कि उसको अपनी छाया और अपने फल देकर तुष्ट करता है। यह वृक्ष की महानता है। कवि के अनुसार मनुष्य को भी पेड़ की भाँति विशलहृदय होना चाहिए। शत्रु को उसके व्यवहार से स्वयं ही ग्लानि हो जाएगी। वह विचार करने पर विवश हो जाएगा।
           मनुष्य का सावधान रहना बहुत आवश्यक है। शत्रु पर मनुष्य विश्वास नहीं कर सकता। पता नहीं शत्रु किस कारण से घर आया है? उससे बात करके जान लेना चाहिए। हो सकता है, वाकई किसी समस्या के चलते वह घर आया हो। उसे कदापि यह अनुभव नहीं होने देना चाहिए कि उसकी उपस्थिति असह्य है। मनुष्य को उसका सत्कार सामान्य अवस्था में रहकर करना चाहिए।
         जब उसे यह अहसास हो जाएगा कि जिस शत्रु के घर वह आया है, उसने उसका तिरस्कार नहीं किया। उसका सत्कार करने में पीछे नहीं रहा, तो उसके मन में सम्मान का भाव ही आएगा। वह अपनी बात या समस्या को बिना किसी झिझक के सामने रख सकता है। यदि उसकी समस्या का कोई निदान मनुष्य कर सकता है, तो कर देना चाहिए। यदि वह उसके लिए कुछ नहीं कर सकता, तो विनम्रतापूर्वक मना कर देना चाहिए।
           युद्ध का भी नियम है कि शत्रुपक्ष से आए हुए दूत का वध नहीं किया जाता, चाहे वह कितनी ही कटु बात क्यों न कहे। वह इसीलिए अवध्य होता है कि अपने स्वामी का सन्देश लेकर आया होता है। इसलिए शत्रु के घर आने पर उस शत्रु को शत्रु न समझकर अतिथि ही मानना चाहिए। उसी भाव से उसे देखना चाहिए। जब वह अपनी शरण में आ ही गया है, तो उसका यथायोग्य सत्कार करना मनुष्य का दायित्व बन जाता है।
          शत्रु यदि किसी के घर आया है, तो पता नहीं कितनी बार उसने विचार किया होगा, तब आया होगा। हो सकता है उसे कोई ओर उपाय नहीं सूझा होगा, तभी तो वह अपने शत्रु के घर पर आ गया है। उस समय उसके दोष को नगण्य कर देना चाहिए। सकारात्मक भाव मन में रखकर उससे व्यवहार करना चाहिए। इससे उस शत्रु के मन पर भी अच्छा प्रभाव पड़ेगा और जब वहाँ से जाएगा, तो अच्छी यादें ही लेकर जाएगा।
          इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य के घर पर मित्र आए अथवा शत्रु, सबके लिए उसके द्वार खुले रहने चाहिए। उसे अपनी तरफ से व्यवहारकुशल बनना चाहिए। शत्रु के सम्मान में कमी नहीं रखनी चाहिए। शत्रु यदि घर आया है, तो सोचकर आया होगा। उसे लगा होगा कि फलाँ घर पर जाने से उसे अपमानित नहीं किया जाएगा। उसकी बात को ध्यान से सुना जाएगा। इसलिए अपनी महानता का परिचय देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

नीरक्षीर विवेक

 नीरक्षीर विवेक

प्रत्येक मनुष्य को कोई विशेष गुण देकर ईश्वर इस धरती पर भेजता है। उसका यह कर्त्तव्य बनता है कि अपने निर्धारित कार्य को वह दक्षता से सम्पन्न करे। दिए गए अपने कार्य को यदि मनुष्य स्वयं पूर्ण नहीं करेगा, तो फिर उसके हिस्से का निर्धारित काम कौन करेगा? उसका कोई प्रिय उसके कार्य को नहीं कर सकता क्योंकि उसे भी तो अपना कार्य करना होता है। ऐसे तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी।
          निम्न श्लोक में कवि ने बताया है कि दूध में से पानी को अलग करने का विशेष कार्य ईश्वर ने हंस को दिया है। यदि वह अपना कार्य नहीं करेगा तो फिर उसे कौन करेगा?
      नीरक्षीरविवेके 
      हंस आलस्यं त्वमेव तनुषे चेत्।
       विश्वस्मिनधुना 
       अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क:। 
अर्थात् हंस नीरक्षीर विवेकी जीव है। यानी उसमें दूध में से पानी को अलग करने की क्षमता है। यदि वह आलस्य के कारण अपना कार्य नहीं करता, तो फिर दूसरा इस संसार में कौन है, जो हंस का कार्य करने में सक्षम है? अर्थात् कोई नहीं ।
           कवि के कहने का तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने कुछ विशेष गुणों के साथ इस पृथ्वी पर अवतरित किया है। इसलिए हर व्यक्ति में अद्भुत क्षमता होती है। मनुष्य किसी भी कार्य विशेष को करने में सक्षम है। इसलिए हर व्यक्ति को अपना-अपना निर्धारित कार्य बिना आलस्य के पूर्ण कर लेना चाहिए। तभी वह मनुष्य स्वयं का, अपने परिवार का, अपने समाज का और अपने देश का विकास करने में सक्षम हो सकता है।
          मनुष्य को भी नीरक्षीर विवेकी होना चाहिए। उसमें अच्छाई और बुराई को अलग करने की क्षमता होनी चाहिए। यदि उसमें अच्छे और बुरे को पहचानने की समझ नहीं होगी, तो उसे किस राह को ओर जाना चाहिए का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा। यदि वह आलस्यवश अथवा किसी लालचवश बुराई के रास्ते पर चल पड़ेगा, तो उस मनुष्य का सारा जीवन दुखों और परेशानियों में घिर जाएगा। 
        यदि मनुष्य सोच-विचार करके, सजग रहकर सन्मार्ग का चयन करेगा और उस पर चलेगा, तो उसका सारा जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होगा। उसके जीवन में प्रकाश का उदय होगा, जो उसके लिए खुशियों के द्वार खोल देगा। इसलिए सुख चाहने वाले मनुष्य को इस संसार में अपना हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। ताकि उससे किसी भी क्षण भूल न होने पाए।
          मनुष्य को इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए कि ईश्वर ने उसे किस विशेष कार्य के लिए इस संसार में भेज है। उसे अपना रोल या दायित्वअच्छी तरह निभाना चाहिए। यहाँ इस बात को उदाहरण से समझते हैं। रंगमंच के कलाकारों को उनका रोल दिया जाता है। यदि वे अपना किरदार ठीक तरह से नहीं निभा पाते, तो डायरेक्टर उन पर नाराज होता है। उसी प्रकार जो मनुष्य ईश्वर प्रदत्त अपना रोल ठीक से नही निभाता, उससे वह प्रभु नाराज होता है।
          जो लोग आलस्यवश अपने कार्य को टालते रहते हैं, उसे पूर्ण नहीं करने की आवश्यकता नहीं समझते, उनसे ईश्वर बहुत अधिक नाराज होता है। वह उन लोगों को क्षमा नहीं करता। सोचने वाली बात यह है कि उनके हिस्से का कार्य फिर कौन पूरा करेगा? कहने का अर्थ यही है कि सभी लोग अपने-अपने कार्यों के बोझ के नीचे दबे हुए हैं। इसलिए उनका कोई प्रिय व्यक्ति भी उनके हिस्से का काम कदापि नहीं कर सकता।
          हर व्यक्ति को चाहिए कि हंस की तरह अपने दायित्व को समझे। आलस्य बहुत बड़ा दुर्गुण है। इसलिए उसका त्याग करके पूरी सच्चाई और ईमानदारी से अपने लिए निर्धारित कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करे। तभी इस मानव जीवन को सफल हुआ माना जा सकता है। अन्यथा ईश्वर की दृष्टि में मनुष्य असफल माना जाता है। आखिर हिसाब तो उसे ही जाकर देना होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 22 जुलाई 2020

दृढ़ इच्छाशक्ति

 दृढ़ इच्छाशक्ति

मनुष्य शारीरिक रूप से शक्तिशाली न भी हो, परन्तु यदि उसकी इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो वह कैसा भी कठिन कार्य हो, कर गुजरता है। इसके विपरीत यदि उसमें शारीरिक बल बहुत है, पर इच्छाशक्ति की कमी हो तो, वह सरलतम कार्य करने में भी असमर्थ रहता है। कार्य करना तो दूर की बात है, वह अपने स्थान से उठना भी नहीं चाहेगा। मनुष्य की इच्छाशक्ति पर यह सब निर्भर करता है।
          इसी भाव को निन्म श्लोक में कवि ने बहुत खूबसूरती से लिखा है-
योजनानां सहस्त्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति॥
अर्थात् चींटी काफी धीरे चलती है, फिर भी लगातार चलने रहने से सहस्त्रों योजन दूर चली जाती है। गरुड़ पक्षी की उड़ने की गति बहुत तेज होती है। यदि उसकी उड़ने की इच्छा नहीं है, तो वह एक कदम भी नहीं उड़ सकता। 
         कवि हमें यह समझाना चाहते हैं कि किसी भी कार्य को करने के लिए मनुष्य के लिए शारीरिक बल के बजाय इच्छाशक्ति  का होना अधिक महत्वपूर्ण होता है। चींटी जैसा छोटा-सा जीव धीरे-धीरे सहस्त्रों योजन पार कर जाता है। तीव्र गति से उड़ने वाला गरुड़ इच्छा न होने पर कदम भर भी नहीं उड़ता। यानी मनुष्य की इच्छाशक्ति प्रमुख कारण है, जिससे वह चमत्कार कर सकता है।
            मनुष्य की इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो मनुष्य आसमान में ऊँची उड़ान भर सकता है। वह समुद्र में गहरे पैठ सकता है। वह विशाल पर्वतों का सीना चीर सकता है। वह शेर जैसे खूँखार और हाथी जैसे शक्तिशाली जीवों को अपने वश में कर सकता है। वह नदियों की धारा को अपनी इच्छा से मोड़ सकता है। वह भगीरथ की तरह आकाश से गंगा को भी धरती पर लेकर आ सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस धरती पर ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो वह नहीं कर सकता।
         यहाँ महात्मा गांधी का उदाहरण ले सकते हैं, जो इस विषय के लिए बिल्कुल सटीक है। शारीरिक शक्ति न होने पर भी अपने भारत देश को स्वतन्त्र करवाने की उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने अंग्रेजी सरकार ने घुटने टेक दिए। उन्होंने न हार नहीं मानी और स्वतन्त्रता का शंखनाद कर दिया। अन्ततः वीरों के बलिदान स्वरूप हमारा देश आज स्वतन्त्रता का मीठा फल खा रहा है।
           दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर आज हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक चमत्कार किए हैं। उनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप हम सब लोग सर्दी में गर्मी का आनन्द लेते हैं और गर्मी में ठंडक का मजा चखता है। आसमान में उड़ते हैं, समुद्र में आवागमन करते हैं। आज हम अनेक नक्षत्रों पर भी आवागमन कर रहे हैं। नदियों पर बाँध बनाकर, बिजली का उत्पादन करके रात्री में जगमग करते हैं। यानी सब प्रकार के सुखों का भोग कर रहे हैं।
          अपने चारों नजर दौड़ाने पर हमें मनुष्य की दृढ़ इच्छाशक्ति का अनुभव होता है। हर ओर होने वाली चहल-पहल, ऊँची-ऊँची इमारतें, हर प्रकार की गाड़ियों की आवाजाही उसकी जीवन्तता का ही प्रमाण देते हैं। उसकी इच्छाशक्ति के बल पर ही इस संसार का अस्तित्व है, नहीं तो सब कुछ सुस्त-सा और शक्तिहीन-सा दिखाई देता। इसमें जीवन का आनन्द ही समाप्त हो जाता।
         इच्छाशक्ति हो तो मनुष्य कुछ भी कर गुजरता है। शारीरिक बल का भी बहुत महत्त्व है, पर उससे भी बढ़कर इच्छाशक्ति का दृढ़ होना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो मनुष्य दुनिया के सारे कार्य-व्यवहारों को परे छोड़कर, ईश्वर को भी साध लेता है। फिर अपने लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। तब वह चौरासी लाख योनियों के कष्टकारी आवागमन से मुक्त हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 21 जुलाई 2020

विद्या का क्रियान्वयन

विद्या का क्रियान्वयन

मनीषी कहते हैं- 'ज्ञानं भार: क्रियां विना।' अर्थात् यदि ज्ञान का क्रियात्मक प्रयोग या एक्सपेरिमेंट न किया जाए, तो वह भार के समान होता है। विद्या को यदि मात्र रटा जाए, तो मनुष्य को कुछ भी समझ में नहीं आता। जब उसका प्रयोग करने का समय आता है, तो मनुष्य मूर्ख बनकर बगलें झाँकने लगता है। इसका यही कारण है कि उसने अपने ज्ञान का क्रियान्वयन कभी किया ही नहीं।
           निम्न श्लोक में कवि ने इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है-
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा 
         यस्तु क्रियावान् पुरुष: स विद्वान् ।सुचिन्तितं चौषधमातुराणां 
          न नाममात्रेण करोत्यरोगम्॥
अर्थात् शास्त्रों को पढ़कर भी वे लोग मूर्ख कहलाते हैं, जो उस ज्ञान को व्यवहारिक प्रयोग नहीं करते। वही व्यक्ति विद्वान होता है जो पढ़े हुए ज्ञान को कार्यान्वित करता है। एक बीमार-व्यक्ति को अच्छी से अच्छी दवाइयों का ज्ञान देने से या उसे दवाइयाँ दिखाने से उसका इलाज नहीं होता, अपितु दवाइयों का सेवन करने से ही रोगी स्वस्थ होता है ।
         इस श्लोक में कवि बताना चाहता है कि अनेक डिग्रियाँ या सर्टिफिकेट प्राप्त करने के उपरान्त भी मनुष्य ज्ञानी नहीं कहलाता, वह अज्ञ ही रहता है। इसका कारण है कि उसने पढ़ी हुई विद्या को व्यवहारिक तौर पर कार्यान्वित नहीं किया। हमें अपने ज्ञान या विद्या का जीवन में व्यवहार करते रहना चाहिए। तभी विद्या हमारे व्यक्तित्व को निरन्तर निखारती रहती है।
           श्लोक में कवि ने बहुत सटीक उदाहरण दिया है। केवल दवाइयों को दिखाने मात्र से या उनके बारे में बताने से रोगी का उपचार नहीं होता। जब उसे दवा खिलाई जाती है, तभी रोगी ठीक होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि डॉक्टर कितना भी पढ़ा-लिखा हो या अनुभवी क्यों न हो, वह तब तक योग्य नहीं कहा जाता, जब तक अपने रोगियों का उपचार करके उन्हें स्वस्थ नहीं कर देता।
          विद्या ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य तभी योग्य कहलाता है, जब वह अपने ज्ञान का समय-समय पर क्रियान्वयन करता रहे। हम सब कहते रहते हैं कि सदा सत्य बोलना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए। परन्तु समय आने पर हम असत्य बोलते हैं अथवा किसी अमूल्य वस्तु को देखकर, रह नहीं पाते और उसे चुरा लेते हैं। उस समय सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है। मनुष्य का ज्ञान वृथा हो जाता है।
           यदि मनुष्य कितने भी संकट में हो, उसकी जान पर भी बन आए, तब भी मनुष्य सत्य बोलने नहीं छोड़ता, तो वास्तव में उसने ज्ञान अर्जित किया है। इसी प्रकार कितना ही लालच सामने आ जाए और मनुष्य को उस वस्तु की आवश्यकता भी हो, तो भी यदि मनुष्य चोरी नहीं करता, तो वास्तव में वह ज्ञानी है। इसी प्रकार विद्या का अभ्यास किया जाता है। जो खरा उतर जाए वही विद्वान कहा जाता है।
          इसी प्रकार अन्य जीवन मूल्यों की जाँच भी की जानी चाहिए। जो वास्तव में ज्ञानी होते हैं, वे किसी भी कारण से जीवन की परीक्षा में असफल नहीं होते। वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सदा सफल होते हैं। उन्हें कोई लालच, कोई बुराई छू तक नहीं जाती क्योंकि जो भी विद्या उन्होंने ग्रहण की होती है, उसका उन्होंने पूर्णरूपेण अभ्यास और क्रियान्वयन किया होता हैं। तभी वे पूजनीय होते हैं।
          पढ़े हुए लोग तो बहुत मिल जाएँगे, परन्तु योग्यता की कसौटी पर खरा उतरने वाले लोग कम ही मिलते हैं। वर्षों लग जाते हैं, विद्या को सिद्ध करने में। जैसे बच्चे विद्यालय में पढ़ते हैं और साथ ही उसका प्रेक्टिकल भी करते हैं, तभी उन्हें पता चलता है कि वे अपने पढ़े हुए पाठ को कितना समझ पाए हैं। उसी प्रकार मनुष्य जो भी ज्ञानार्जन करे, उसका साथ ही साथ क्रियान्वयन भी कर लेना चाहिए। तभी मनुष्य वास्तव में ज्ञानवान कहलाता है। ऐसे विद्वान मनुष्य का समाज में उच्च स्थान होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 20 जुलाई 2020

प्रतिकूल समय होने पर

प्रतिकूल समय होने पर

मनुष्य को समय के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। जब उसका समय प्रतिकूल चल रहा हो यानी वह दुखों-परेशानियों में घिरा हुआ हो, तो उस समय मनुष्य को झुक जाना चाहिए। मनुष्य को छोटे-छोटे पेड़ों की तरह झुककर अपना समय व्यतीत करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तूफान आता है अथवा तेज आँधी चलती है, तब झुक जाने वाले पेड़ बच जाते हैं।
           इसके विपरीत आँधी-तूफान आने पर जो पेड़ तनकर सीधे खड़े होते हैं, वे टूटकर गिर जाते हैं। उनका विनाश हो जाता है। उस समय यदि वे भी थोड़ा झुक जाते, तो शायद उनका अन्त नहीं होता। इसी तरह जब समय अपना साथ न दे रहा हो, तब मनुष्य को अपने घमण्ड में नहीं रहना चाहिए। उस समय उसे आत्मचिन्तन करना चाहिए, अपने कष्टों को दूर करने का उपाय सोचना चाहिए और समय परिवर्तन होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
          किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में विश्लेषण किया है-
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्यय:।अथैवमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि॥
अर्थात् जब प्रतिकूल समय यानी विपरीत समय चल रहा हो, तो अपने दुश्मन को कन्धे पर बैठा कर रखना चाहिए। अनुकूल समय आने पर उसे वैसे ही नष्ट कर देना चाहिए, जैसे मटके को पत्थर पर फोडा जाता है।
          इस श्लोक का अर्थ है कि अपना समय जब साथ नहीं देता, तब शत्रु के साथ समझौता करना या उससे मधुर सम्बन्ध बनाकर रखना हितकर होता है। परन्तु इस बात का मन में हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि शत्रु आखिर शत्रु ही होता है। वह कभी भी डंक मार सकता है यानी वह मनुष्य का अप्रिय करके उसे हानि पहुँचा सकता है। इसलिए जब उचित अवसर मिल जाए, तो उसे पटकनी दे देनी चाहिए। 
           यहाँ उदाहरण देते हुए कवि ने कहते हैं कि मनुष्य को पता है कि गन्दे पानी से भरा मटका छलककर उसके कपड़ों को दूषित कर सकता है। फिर भी उस गन्दे पानी के मटके को तब तक अपने कन्धे पर उठाकर चलना चाहिए जब तक कोई मजबूत शिला न मिल जाए। जैसे ही पत्थर मिल जाए, उस मटके को तोड़ देने में चूक नहीं करनी चाहिए। यानी स्वयं को उस भार से मुक्त कर लेना चाहिए।
         इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि मनुष्य को अपने दुखों और परेशानियों के समय अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए, अपितु उनका डटकर सामना करना चाहिए। प्रतिकूल समय के बाद निश्चित ही अनुकूल समय भी आता है। दुख के दिन भी व्यतीत हो जाते हैं। इस कष्टदायी समय में मनुष्य को अपने ऊपर सदा विश्वास बनाए रखना चाहिए, उसे डिगने नहीं देना चाहिए। तभी वह जीत सकता है।
          यदि मनुष्य का आत्मविश्वास किसी भी कारण से डगमगा जाएगा, तो निश्चित ही वह जिन्दगी की रेस में हर जाएगा। उसे जीवन में हारना नहीं है, अपितु विजयी होने हैं। काले घने बादल जब सूर्य को आक्रान्त कर लेते हैं, तो धरती पर घटाटोप अन्धकार का साम्राज्य हो जाता है। ऐसे कठिन समय में बादलों के बरस जाने पर सूर्य फिर पहले की भाँति मुस्कुराता हुआ आसमान में चमकने लगता है।
        इसी प्रकार मनुष्य को भी अपना कठिन समय बीत जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। उसे धैर्य का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। अच्छा समय फिर आएगा ऐसी आशा बनाए रखनी चाहिए। उस समय अपने जीवन मूल्यों का त्याग करके मनुष्य को कुमार्ग की ओर कभी उन्मुख नहीं होना चाहिए। अपनी इस अवस्था के लिए ईश्वर को दोष कदापि नहीं देना चाहिए, बल्कि उसकी शरण में जाना चाहिए। इससे मन को शान्ति मिलती है और दुख सहने की शक्ति आती है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 19 जुलाई 2020

व्याकरण का अभ्यास

व्याकरण का अभ्यास

भाषा को शुद्ध लिखने तथा बोलने का निकष या कसौटी व्याकरण है। वह अपने हाथ में चाबुक लेकर खड़ा रहता है। जहाँ मनुष्य ने भाषा का अशुद्ध प्रयोग किया, वहीं उसका चाबुक चल जाता है। जब तक मनुष्य भाषा का शुद्ध प्रयोग नहीं करता, व्याकरण तब तक मौन नहीं रहता। यदि भाषा पर व्याकरण का अंकुश न हो, तो सभी मनुष्य कैसे भी तोड़-मरोड़कर भाषा का प्रयोग करने लगेंगे। तब भाषा की एकरूपता और उसका सौन्दर्य कहीं खो जाएँगे। हर मनुष्य की अपनी अलग भाषा बन जाएगी।
          वर्षों साधना करने पर व्याकरण को सिद्ध किया जाता है। तब जाकर भाषा का उचित रूप से ज्ञान हो पाता है। आजकल की पीढ़ी ऐसी उच्छृंखल है, जो रातोंरात महान साहित्यकार बन जाना चाहती है। अपनी महानता के झण्डे गाड़ना चाहती है। जैसे अन्य सामाजिक मर्यादाएँ चरमराती जा रही हैं, नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है, उसी प्रकार वे व्याकरण के नियमों को भी तोड़ देना चाहते हैं। 
            इसीलिए आज के तथाकथित साहित्यकारों को भाषा की शुद्धता की परवाह नहीं है। इसके साथ ही उन लोगों को न वाक्य विन्यास की चिन्ता है और न ही वर्तनी की शुद्धता की ओर ध्यान है। विराम चिह्न तो मानो उनके लिए दूर की कौड़ी हैं। छन्द और अलंकारों का तो बहुत लोगों को ज्ञान ही नहीं होगा। बहुत से रचनाकार आज ऐसे हैं जो चार पंक्तियाँ शुद्ध नहीं लिख सकते।
          किसी कवि ने उनकी इस दुरावस्था के विषय में व्यथित होकर लिखा है-
अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणीतरणम्।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम्।।
अर्थात् व्याकरण छोडकर किया हुआ अध्ययन, टूटी हुई नौका से नदी पार करना, और अयोग्य आहार के साथ ली हुई औषधी की भाँति होते हैं। ऐसे करने की अपेक्षा न करना ही बेहतर है।
          व्याकरण का अध्ययन किए बिना किसी भी भाषा का ज्ञान अधूरा कहलाता है। कवि ने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए दो उदाहरण लिखे हैं। पहला उदाहरण है कि छेद वाली नाव से नदी पार करना असम्भव है। नाव में पानी भर जाएगा और उसका डूबना निश्चित है। दूसरे उदाहरण में कवि कहते हैं कि डॉक्टर के निर्देशों के विरुद्ध दवा का सेवन करना हानिकारक होता है। इससे रोगी की जान जाने का खतरा बना रहता है।
           दोनों उदाहरण बहुत सटीक हैं। बिना विचारे इन दोनों में से कोई भी कार्य करना मनुष्य के लिए खतरे की घण्टी साबित हो सकता है। उसी प्रकार व्याकरण का अभ्यास किए बिना भाषा का ज्ञान नहीं हो सकता। साहित्यकार को बहुत सावधान रहने का आवश्यकता होती है। उसकी भाषा सुसंस्कृत, परिष्कृत और मर्मस्पर्शी होनी चाहिए। भाषा पर उसकी पकड़ मजबूत होनी चाहिए।
           इन सबसे बढ़कर हमारी मान्यता है। हमारे महान ग्रन्थ शब्द को ब्रह्म मानते हैं। शब्द का अशुद्ध उच्चारण तथा लेखन करने से ईश्वर का अपमान होता है। यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि शब्द बहुत समय तक ब्रह्माण्ड में रहता है। सबसे महत्त्वपूर्ण है कि मनुष्य जब अपने हित के लिए मन्त्र जाप करता है, तो उसके अशुद्ध उच्चारण के कारण उसका विनाश तक हो जाता है।
            भाषा के अशुद्ध प्रयोग से संस्कार भी दूषित होते हैं। सभी साहित्यकारों को चाहिए कि भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें। उसके लिए व्याकरण के नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक है। आने वाली पीढ़ी उनकी रचनाओं को पढ़कर उनके लिए दुख न करे। उसे अपने साहित्यकारों पर मान हो, वे उन्हें अपना आदर्श समझें, इसके लिए उन्हें ऐसा प्रयास करना चाहिए। 
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 18 जुलाई 2020

कुसंगति से मानहानि

कुसंगति से मानहानि

मान-सम्मान हर व्यक्ति को प्रिय होता है।एक छोटे बच्चे को भी यदि अपमानित किया जाए, तो वह भी उसे सहन नहीं कर पाता। वह रूठकर बैठ जाता है। फिर बड़ा व्यक्ति उसे कैसे आत्मसात कर सकता है? जिस व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना नहीं, वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं। उसे मनीषी मृत व्यक्ति के समान मानते हैं। मान मनुष्य का आभूषण है। अपने आत्मगौरव के लिए वह अपने प्राणों की बाजी तक लगा देता है।
          मनुष्य का मान तभी तक बना रहता है, जब तक वह अच्छी संगति में रहता है। यानी भले लोगों के साथ रहता है। जहाँ उसकी संगति बिगड़ी यानी किसी भी कारण से चाहे डर के कारण या लालचवश या किसी आकर्षण में फँसकर उसने कुसंगति की ओर अपना कदम बढ़ाया, वहीं उसका पतन आरम्भ हो जाता है। उस समय वह सज्जनों की छाया से भी परे भागने लगता है।
          किसी कवि ने उदाहरण देते हुए समझाने का प्रयास किया है कि दुर्जन की संगति से मनुष्य की कदम-कदम पर मानहानि होती है-
अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानि: पदे पदे।
पावको लोहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते॥
अर्थात् दुष्ट मनुष्य की संगति करने पर कदम-कदम पर मानहानि होती है। जब अग्नि लोहे के साथ मित्रता करती है, तो उसे लोहे के हथोड़े की चोट खानी ही पड़ती है।
        इसीलिए मनीषी हमें बारबार समझाते हैं कि कुसंगति का परिणाम हमेशा ही दुःखदायी होता है। संगति के बदल जाने से हर कदम पर मनुष्य को मानहानि का विष पीना पड़ता है । कवि ने यहाँ शक्तिशाली अग्नि का उदाहरण दिया है, जिसको छूने का भी कोई साहस नहीं कर पाता। ऐसी अग्नि की जब लोहे से मित्रता हो जाती है, तब उसे भी लोहे से बने हथौड़ी की मार झेलनी ही पड़ जाती है।
          इसीलिए मनीषी कहते हैं- 
           मानो ही महतां धनम्।
अर्थात् मान ही महान लोगों का धन है। और भी-
         एक मानधनो ही मनिन:।
अर्थात् मानी लोगों का एकमात्र धन मान है।
इन उक्तियों के अनुसार मान, आत्मसम्मान या स्वाभिमान मानी लोगों का एकमात्र धन है। वे लोग किसी भी मूल्य पर इसके साथ समझौता नहीं कर सकते। वे भूखे रहकर अपने प्राणों का बलिदान कर सकते हैं, परन्तु अपने स्वाभिमान का सौदा किसी शर्त पर नहीं कर सकते।
         यही कारण है कि वे अपनी संगति के प्रति सावधान रहते हैं। वे जानते हैं कि मनुष्य जिस संगति में रहता है, वह वैसा ही माना जाता है। यहाँ एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। दूध के मटके में यदि कोई शराब लेकर जाए तो लोग समझेंगे कि वह दूध बेचने जा रहा है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति शराब के मटके में दूध बेचने के लिए जाए, तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं करेगा कि वह सत्य कह रहा है।
          यह सत्य है कि जो लोग महापुरुषों के सम्पर्क में रहते हैं, उनके दोष धीरे-धीरे स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इसके विपरीत कुसंगति में रहने वाले अच्छे-भले लोगों में बुराइयाँ घर करने लग जाती हैं। यह सब संगति का प्रभाव ही कहा जा सकता है, इससे बच पाना किसी भी व्यक्ति के लिए असम्भव-सा प्रतीत होता है।
          अपने मान या स्वाभिमान को बचाए रखने के इच्छुक व्यक्ति के लिए सावधान रहना बहुत आवश्यक है। उसे अपनी संगति की ओर बारीकी से ध्यान रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके मनुष्य को सज्जनों के संसर्ग में ही रहना चाहिए। परिणामतः कोई भी व्यक्ति उस पर न तो अँगुली नहीं उठा सकता है और न ही उसे अपमानित कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

अन्न का प्रभाव

अन्न का प्रभाव

अन्न का मनुष्य के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अन्न और मन का गहरा सम्बन्ध है। मनीषी कहते हैं-
      जैसा खाओ अन्न वैसा बनता मन।
मन के संस्कार खाए गए अन्न के अनुसार ही बनते हैं। शुद्ध या सात्विक कमाई से खरीदकर खाए गए अन्न से मनुष्य का मन सात्विक बनता है। उसमें दया, ममता, करुणा, परोपकार आदि मानवीय गुण निवास करते हैं। उसके बच्चे आज्ञाकारी तथा सुसंस्कृत बनते हैं।
         इसके विपरीत जो धन चोरी, डकैती, लूटमार, भ्रष्टाचार, किसी का गला काटकर कमाया जाता है, उससे खरीदे गए अन्न से मन वैसा ही बन जाता है। उसमें क्रूरता, हिंसा, घृणा आदि के भाव रहते हैं। ऐसा मनुष्य किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं कर सकता। ऐसे लोगों के बच्चे अहंकारी, जिद्दी, किसी का कहना न मानने वाले होते हैं। उन पर किसी को मान नहीं होता। हर कोई उन्हें तिरस्कृत कर देता है।
           निम्न श्लोक में कवि ने मनुष्य पर भोजन के प्रभाव को बताते हुए बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है-
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यादृशं भक्षयेदन्नं जायते तादृशी प्रजा॥
अर्थात् दीपक अँधेरे रूपी भोज्य या खुराक को खाकर काजल पैदा करता है। ठीक उसी तरह जिस प्रकार का भोजन हम खाते हैं, उसका प्रभाव हमारी सन्तति पर पड़ता है। 
         कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम सात्विक भोजन खाते हैं, तो हमारी सन्तान में वे गुण प्रमुखता से दिखाई देंगे। यदि हम तामसिक भोजन का सेवन करते हैं, तो हमारी सन्तान तथावत होगी। उसमें वे अवगुण स्पष्ट रूप से दिखाई देंगे। कोई भी मनुष्य यह नहीं चाहता कि उसकी सन्तान उद्दण्ड बने, सबकी अवज्ञा करे, लोग उसे हिकारत की नजर से देखें।
            इस श्लोक में बताया गया है कि 'अँधेरे' और 'काजल' दोनों की प्रकृति समान है। यानी दोनों की प्रकृति एक-सी होती है। अँधेरा कालिमा का प्रतीक है, इससे बहुत से लोगों को डर लगता है। दूसरी ओर काजल काला होता है। जरा-सा भी कपड़ों या शरीर पर लग जाए, तो वे खराब हो जाते हैं। फिर उन्हें साबुन और पानी का प्रयोग करके साफ किया जाता है, पुनः पहले की तरह बनाने का प्रयास किया जाता है।
            कालिमा रूपी अपराधों को करते हुए भी लोग अपनी सफेदपोशी को बचाए रखने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे चाहते हैं कि किसी भी स्थिति में समाज को उनके काले कारनामों की न भनक लगे और न ही उनका तिरस्कृत हो। जब ऐसे अपराधों को करके धन कमाया जाएगा, तो उसका दुष्प्रभाव उनके परिवार पर पड़ेगा ही। और उस कमाई का अन्न भी इसी प्रकार परिवार पर अपना दुष्प्रभाव छोड़ेगा ही।
           हमारे मनीषी अन्न को ब्रह्म मानते हैं। इसका अर्थ है कि ईश्वर का ईर्ष्या रहित होकर सरल हृदय से श्रद्धापूर्वक स्मरण करना चाहिए, तभी मनुष्य उसका प्रिय बन सकता है। उसी प्रकार अन्न को भी शुद्ध कमाई से खरीदना चाहिए। उसमें पवित्रता का होना आवश्यक है। तभी मनुष्य अन्न का सम्मान कर सकता है। शुद्ध तथा सात्विक कमाई से खरीदकर खाए गए अन्न का मनुष्य के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। 
           मनुष्य चाहे माने या न माने, पर अन्न को खाकर वह पुष्ट होता है और उसमें रोगों का प्रतिरोध करने की क्षमता बढ़ती है। जो अशुद्ध कमाई का अन्न खाते हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक रोगी होते हैं। उनका धन डॉक्टरों के पास अधिक जाता है। इसके विपरीत शुद्ध कमाई का अन्न खाने वाले प्रायः स्वस्थ रहते हैं यानी वे कम बीमार पड़ते हैं, वे डॉक्टरों के पास कम चक्कर लगाते हैं। 
            इस कथन का अनुभव अपने आस-पास रहने वाले लोगों के साथ व्यवहार में रहकर पता लगाया जा सकता है। इस सारे कथन का सारांश यही है कि मनुष्य जितना शुभकर्मों में लगा रहता है, वह ईश्वर से डरता है। तभी वह अपनी कमाई पर भी ध्यान देता है। अशुभकर्मों को करने वाले किसी से नहीं डरते। इसीलिए उनकी कमाई भी दोषपूर्ण होती है। तभी कहा जाता है-'जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन।'
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

मृत्यु के चिह्न

मृत्य के चिह्न

हर मनुष्य अपना भविष्य जानने के लिए बहुत उत्सुक रहता है। वह चाहता है कि कोई उसे बता दे कि आने वाले समय में उसका स्वास्थ्य कैसा रहेगा? उसके पास धन की कमी तो नहीं होगी? उसकी मृत्यु कब होगी? वृद्धावस्था में उसकी स्थिति कैसी रहेगी? 
          ये सभी प्रश्न मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर हावी रहते हैं। जहाँ उसे अवसर मिलता है, इसके विषय में पूछने लगता है। परन्तु इन प्रश्नों के उत्तर उसे कोई नहीं दे सकता। इन सब प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपे रहते हैं। केवल ईश्वर ही इन सबके विषय में जनता है, कोई मनुष्य उसे नहीं बता सकता।
          ये प्रश्न उसे उद्वेलित करते रहते है। ईश्वर की उपासना भी उसे जीवन में करनी चाहिए, इस विषय पर वह मौन साध लेता है। तब उसे यह लगता है कि प्रभु के स्मरण का समय अभी नहीं आया है। अभी और दायित्व पूरे कर लें। ईश्वर का क्या है, उसे बुढ़ापे में जप लेंगे। वृद्धावस्था भी बीत जाती है और मृत्यु सिर पर आकर खड़ी हो जाती है। तब मनुष्य पश्चाताप करता है कि मैंने क्या कर डाला? उस समय कुछ नहीं हो सकता। यदि मनुष्य ईश्वर की उपासना निरन्तर करता रहे, तो उसे कभी घबराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
          'त्रिशिखब्रह्मनोपनिषद्' के मन्त्र 120 से 126 में बताया है कि मनुष्य के किन अंगों के कार्य न करने पर उसकी आयु कितनी शेष बच जाती है? उसके लिए उन्होंने कुछ चिह्न बताए हैं। 
अंगुष्ठादिसवावयवस्फुरनदशनेरपि।
अरिष्टैरजीवितस्यापि जानियात्क्षयमात्मन:।
ज्ञात्वा यतेत कैवलयप्राप्तये योगवित्तय:।
अर्थात् अँगूठे आदि अवयवों में स्फुरण न हो, तो जीवन का अन्त समझना चाहिए। यह जानकर मनुष्य को मोक्ष के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
पादांगुष्ठे करंगुष्ठे स्फुरणं यस्य न श्रुति:।।
तस्य संवत्सरादूर्ध्वं जीवितव्यक्षयो भवेत्।
अर्थात् हाथों और पैरों केअंगूठों में स्फुरण न हो, तो उसके जीवन का अन्त एक वर्ष में मानना चाहिए।
मणिबन्धे तथा गुल्फे स्फुरणं यस्य नास्ति।
षष्णमासवधिरेतस्य जीवितस्य स्थितिर्भवेत्
अर्थात् कलाई और टखने का स्फुरण समाप्त हो जाने पर मनुष्य छह मास तक जीवित रहता है।
कर्णस्फुरणं यस्य तस्य त्रैमासिकी स्थिति:।।
अर्थात् कर्ण में स्फुरण न हो तो तीन मास पश्चात मृत्यु हो जाती है।
कुक्षि मेहनपार्श्वे च स्फुरणानुपलम्भने।
मासावधिजीवित्सातु दर्शनेतदर्धस्य।।
अर्थात् कुक्षि और उपस्थेन्द्रिय में स्फुरण न हो तो जीवन की अवधि एक मास की शेष बचती है।
आश्रिते जठरे द्वारे दिनानि दश जीवितम्।
ज्योति: खधोतवद्यस्य तदर्ध तस्य जीवितम्।
अर्थात् जठर द्वार पर स्फुरण न हो तो दस दिनों में मृत्यु हो जाती है। ज्योति जुगनू के समान हो जाए तो पाँच दिनों में मृत्यु हो जाती है।
जिह्वाप्रादर्शने त्रीणि दिनानि स्थितिरात्मन:।
जवालायादर्शनान्ते मृत्युद्विदिने भवति ध्रुवम्
अर्थात् जिह्वा के न दिखाई देने पर तीन दिन में मृत्यु हो जाती है। ज्वाला के न दिखाई देने पर निश्चित ही दो दिनों में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
         इस सम्पूर्ण समीक्षा का अर्थ यही है कि जब मनुष्य को ऐसे लक्षण प्रकट होने लगें, उस समय उसे लापरवाह नहीं होना चाहिए। उसे सच्चे मन से विचार करना चाहिए। उसे अपना मन भगवद भजन में लगाना चाहिए। अन्तिम समय में भी यदि वह संसार से विमुख होकर ईश्वर की ओर उन्मुख होता है, तो भी उसका कुछ हद तक कल्याण सम्भव है।
         मृत्यु से तो कोई संसारी जीव बच नहीं सकता। उसे बस अपने कर्मों की शुचिता की ओर ध्यान देना चाहिए। अपना इहलोक और परलोक सुधारने के लिए मालिक का स्मरण अनवरत करते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 15 जुलाई 2020

गुणवान व्यक्ति

गुणवान व्यक्ति

गुणवान व्यक्ति संसार का आभूषण होता है। वह सर्वदा पूज्य होता है व समाज की पूँजी होता है। चाहे सौ मूर्खों की भीड़ क्यों न एकत्र हो जाए, वह एक गुणी मनुष्य के समक्ष असहाय हो जाती है। उसका कद बहुत छोटा हो जाता है। बहुत लोगों को पीछे छोड़कर वह गुणी व्यक्ति सबके सिरों पर विराजमान हो जाता है। उसकी विद्वत्ता के सामने लोगों को नतमस्तक होना ही पड़ता है।
         योग्य या गुणवान व्यक्ति का सान्निध्य प्राप्त करके कोई भी मनुष्य कुछ ही समय में अपने कार्यों में कुशल या दक्ष हो जाता है। गुणी के संसर्ग से मूर्ख मनुष्य की बुद्धि की जड़ता दूर होने लगती है। वह भी शीघ्र विद्वान बनने की प्रक्रिया में आने लगता है। कालिदास जैसा महामूर्ख विद्वनों की संगति में आकर विद्वान बन गया था। उसकी श्रेष्ठ कृतियों के कारण उसका नाम पूरे विश्व में श्रद्धा से लिया जाता है। 
           किसी गुणवान व्यक्ति की योग्यता के विषय में लेश मात्र भी सन्देह नहीं रह जाता। उसकी पहचान उसके गुणों के आधार पर होती है, उसकी शक्ल-सूरत के आधार पर कदापि नहीं। वह अपने जीवन में किस पद पर कार्यरत है, इस बात की कोई अहमियत नहीं होती। 
            किसी कवि ने इस विषय में निम्न श्लोक में कहा है-
        गुणैरुत्तमतांयाति 
                 नोच्चैरासनसंस्थित:।
        प्रासादशिखरस्थोपि 
                 काक: किं गरुडायते॥
अर्थात् एक व्यक्ति की पहचान एवं महत्त्व  उसके सद्गुणों से होती है, न कि वह किस कुर्सी (position or post) पर विराजमान है। उदाहरणार्थ यदि कौआ मन्दिर के शिखर पर बैठा हो, तो उसमें पक्षीराज गरुड़ जैसी गुणवत्ता नहीं आ जाती और न ही वह कभी गरुड़ बन सकता है। वह सिर्फ काँव-काँव करने वाला कौआ ही बना रहता है।
          कहने का तात्पर्य है कि मन्दिर जैसे पवित्र स्थान पर बैठा हुआ कौआ गरुड़ की तरह महान नहीं बन सकता। गरुड़ के गुणों को ग्रहण नहीं कर पाता। वह केवल कर्कश ध्वनि में काँव-काँव ही कर सकता है बस। जिससे सब लोग दुखी हो जाते हैं और फिर कंकर मारकर उसे भगा देते हैं।
          जब कोई मनुष्य गलत आदतों का शिकार हो जाता है, तब उन दुर्गुणों का त्याग करना सरल कार्य नहीं होता। किसी कवि ने इसी भाव को निम्न श्लोक में बहुत खूबसूरती से प्रकट किया है-
        य: स्वभावो हि यस्यास्ति 
                  स नित्यं दुरतिक्रम:। 
        श्वा यदि क्रियते राजा 
               तत् किं नाश्नात्युपानहम्॥
अर्थात् सुभाषितकार बताना चाहते हैं कि हमारे स्वभाव में जो गलत आदतें पड़ जाती हैं, उन्हें छोड़ना सरल कार्य नहीं होता। यहाँ उदाहरण देते हुए कहा है कि यदि किसी कुत्ते को सिंहासन पर विराजमान कर दिया जाए, तो भी वह अपनी आदतें (जूते चाटना, टाँग ऊँची करना इत्यादि) नहीं छोड़ पाता।
         कवि के अनुसार कुमार्गगामी व्यक्ति कितना भी स्वयं को दूध का धुला हुआ प्रमाणित करने का प्रयास करे, उसका प्रभाव दूसरों पर अधिक समय तक नहीं रह पाता। अपनी स्वभावगत आदतों को वह अधिक समय तक छोड़ नहीं सकता। फिर उसकी वास्तविकता स्वत: ही सबके सामने आ जाती है। उसकी जग हँसाई जो होती है, सो अलग। इसलिए दुर्जन कुछ ही काल तक उच्च स्थान पर रह पाता है। उसका अधोपतन निश्चित होता है। हींग को कितना भी छुपाकर रख लो उसकी दुर्गन्ध फैलती ही है। उसी प्रकार दुर्जन की अपकीर्ति उसके आगे-आगे चलती है।
         इसके विपरीत गुणवान व्यक्ति चाहे स्वयं को सौ पर्दों के पीछे छिपा ले, दुनिया की नजरों से बचता फिरे, फिर भी उसकी कीर्ति फैल ही जाती है। फूल चाहे जंगल में फलें अथवा शहर में, उनकी सुबास सर्वत्र फैलती है। उसे कोई रोक नहीं सकता। उसी प्रकार गुणवान की योग्यता और विद्वत्ता सबके सामने आ ही जाती है। उसे हीरे की तरह अपना मूल्य बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। गुणों के परखी लोग उसे अन्ततः ढूंढ ही लेते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

अधर्म का परित्याग

 अधर्म का परित्याग

धर्म की अनुपालना और अधर्म का परित्याग किए बिना, किसी मनुष्य के लिए जीवन में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं होती। धर्म किसी जाति या सम्प्नदाय के लिए नहीं होता, बल्कि इसके द्वार सभी मनुष्यों के लिए खुले रहते हैं। मन, वचन और कर्म यानी किसी भी प्रकार से मनुष्य को अधर्म के कार्य नहीं करने चाहिए। ऐसे कृत कार्य निश्चित ही दुखों का कारण होते हैं। 
          'मनुस्मृति:' में महाराज मनु ने अधर्म अथवा दुष्कर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। जिनमें तीन मानसिक अधर्म, चार वाचिक दुष्कर्म और तीन कायिक दुष्कर्म कहे गए हैं।
          मानसिक अधर्म के विषय में मनु महाराज कहते हैं-
परद्रव्येषु अभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।।अर्थात् दूसरे की धन-सम्पत्ति अथवा अन्य पदार्थों को अपने अधिकार में लेने का विचार या ध्यान करना, मन से अनिष्ट चिन्तन करना अर्थात् किसी दूसरे का बुरा करने के विषय में सोचना और तथ्य के विपरीत किसी मिथ्या विचार, संकल्प या सिद्धान्त को स्वीकार करना तीन मानसिक दुष्कर्म हैं।
          मन से भी यदि किसी के लिए गलत सोचना भी अनिष्ट का कारण बन जाता है। मनुष्य के मन में यदि किसी का, किसी विधि अनिष्ट करने की भावना जन्म ले लेती है, तो वह कभी-न-कभी वह दुष्कर्म कर ही देता है। इस प्रकार वह अपने जीवन में काँटे बोने का कार्य कर लेता है। इसका दुष्परिणाम उसे अपने जीवन में भोगना ही पड़ता है। इससे बचकर निकल जाना उसके लिए सम्भव नहीं होता।
         वचन या वाचिक अधर्म के विषय में महाराज मनु कहा है-
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असम्बद्ध प्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।
अर्थात् कठोर या कटु वचन बोलकर किसी को कष्ट पहुँचाना, झूठ बोलना, किसी प्रकार की चुगली करना तथा असम्बद्ध प्रलाप करना अथवा किसी पर दोषारोपण करना, चार प्रकार के वाचिक दुष्कर्म कहलाते हैं। 
           किसी को अनर्गल कहने से उसकी आत्मा को कष्ट होता है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि दूसरे के मन को पहुँचा हुआ कष्ट नष्ट कर देता है। यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि बिना प्राणों की धौंकनी जब चलती है, तब बड़ा और शक्तिशाली लोहा तक भस्म हो जाता है। शब्दों के बाण बहुत गहरा घाव करते हैं। झूठ बोलना और पर निन्दा करना भी मनुष्य को अपयश दिलाते हैं। उसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करवाते हैं।
         कायिक अधर्म के विषय में मनु महाराज कहते हैं -
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः। परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ।। 
अर्थात् किसीअप्रदत्त वस्तु को ले लेना अथवा चोरी करके, छीना-झपटी करके, अपहरण करके अथवा डाका डालकर लेना, अवैधानिक अथवा शास्त्र के विपरीत हिंसा करना अथवा कानून को अपने हाथ में लेते हुए निर्दोषों की हत्या करना और दूसरे की  स्त्री का सेवन करना या छेड़छाड़ करना, अपहरण करना, शारीरिक सम्बन्ध बनाना अथवा बलात्कार करना तीन प्रकार के शारीरिक दुष्कर्म कहे जाते हैं।
         शारीरिक दुष्कर्म करने वाला कभी महान नहीं बन पाता। शक्ति का उपयोग भलाई के कार्यों में करना चाहिए, न कि दूसरों को सताने अथवा परेशान करने के लिए करना चाहिए। हत्या करना, छेड़छाड़ करना, अपहरण करना, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वाला अपने लिए गड्डा खोदने का कार्य करता है। समाज विरोधी ये कार्य मनुष्य को न्याय व समाज का शत्रु बन देता है। इन दोषों का कोई प्रायश्चित नहीं होता, केवल सजा होती है।
         'न्याय-दर्शन' के भाष्यकार वात्सायन मुनि इन दोषों की व्याख्या करते हुए कहते हैं -                                                                             दोषै: प्रयुक्त: शरीरेण प्रवर्तमानो हिंसास्तेयप्रतिषिद्धमैथुनानि आचरति, वाचाऽनृतपरुषसूचनाऽसम्बद्धानि, 
मनसा परद्रोहं परद्रव्याभिप्सां नास्तिक्यं चेति। 
सेयं पापात्मिका प्रवृत्तिरधर्माय। 
अर्थात् व्यक्ति का राग-द्वेष से युक्त होकर शरीर के माध्यम से हिंसा करना, चोरी करना, व्यभिचार करना, वाणी के माध्यम से झूठ बोलना, कठोर बोलना, निन्दा करना और असम्बद्ध या व्यर्थ प्रलाप करना तथा मन के माध्यम से दूसरे के साथ द्रोह करना, स्पृहा करना अथवा दूसरे की सम्पत्ति को हथियाने की इच्छा करना और नास्तिकता का भाव होना इत्यादि प्रवृत्तियाँ पाप स्वरुप अथवा अधर्म का कारक होती हैं ।
           जितना-जितना मनुष्य अधर्माचरण करता है, उतना ही उसे दुःख भोगना पड़ता है। यदि वह दु:खों से बचना चाहता है और सुखों को भोगना चाहता है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वे अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान दे। मन, वचन और कर्म से मनुष्य को अधर्म के कार्य करने से बचना चाहिए। तभी उसे सद्गति प्राप्त होती है। विपरीत आचरण मनुष्य को जन्म-जन्मान्तरों तक भटकता रहता है।
         अब यह निर्णय व्यक्ति विशेष को स्वयं ही करना है कि वह अपने जीवन में सुख एवं समृद्धि की कामना करता है अथवा अधर्म के मार्ग पर चलकर अपने जीवन को नरक के समान दुखदायी बनाना चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 13 जुलाई 2020

धर्म के लक्षण

धर्म के लक्षण

हम जिसे धारण करते हैं वह धर्म कहलाता है। हमने religion के रूप में इसे रूढ़ कर दिया है। धर्म का अर्थ हम कर सकते हैं- हमारा कर्त्तव्य ही हमारा धर्म है। मुझे धर्म का यह अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। 'मनुस्मृति:' के इस श्लोक में महाराज मनु ने धर्म के विषय में बहुत अच्छी तरह से समझाया है-
धृति क्षमा दमोस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रह:।
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।
      अर्थात् धर्म के दस लक्षण हैं- धैर्य(धृति),  दूसरों को माफ करना(क्षमा), संयम(दम), चोरी न करना (अस्तेयम्), साफ-सफाई रखना(शोचम्), इन्द्रियों को वश में करना (इन्द्रियनिग्रह:), सद् बुद्धि(धी), विद्या ग्रहण करना(विद्या), सत्य बोलना (सत्यम्) और गुस्सा न करना (अक्रोध:)।
      ये सभी नियम जीवन में सफलता प्राप्त कराते हैं। इन सभी नियमों का मन, वचन तथा कर्म से पालन करना ही धर्म है। केवल कहने मात्र से या दिखावा करने से कुछ भी लाभ नहीं होता जब तक मन के विचारों में शुद्धता नहीं होगी। हमारे सौ बार कसमें खा लेने पर भी वाणी की सच्चाई पर विश्वास नहीं हो पाता। कार्य रूप में ढालने की बात तो बाद में आती है।
      हमारे धर्म ग्रन्थ हमेशा मन, वचन व कर्म की शुचिता पर बल देते हैं। उनके अनुसार आडम्बर की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारी कथनी-करनी का एक होना या उसमें अन्तर होना स्वयं ही उजागर हो जाते हैं, इसके लिए हमें श्रम करने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
      इसलिए हमें 'मनसा वाचा कर्मणा' अर्थात् मन, वचन और कर्म से एक होकर अपने धर्म का पालन करना होगा तभी तो हम जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करेंगे।
      भगवान कृष्ण ने भगवद् गीता में स्थान-स्थान पर अर्जुन को अपने धर्म (कर्त्तव्य) का पालन करने के लिए समझाया है और प्रेरित किया है। अपने धर्म से विमुख होने वाला इहलोक या परलोक कहीं भी शांति प्राप्त नहीं करता। उसे हर ओर से तिरस्कृत किया जाता है। इसलिए उसे कहीं शान्ति नहीं मिलती। गीता का यह ज्ञान यदि हम केवल आत्मसात न करके जीवन में चरितार्थ कर लें तो हमारा कल्याण निश्चित है।
    धर्म का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम उसके नाम पर आतंक या विद्वेष फैलाएँ अथवा रूढ़िवादी होकर अपनों का अहित कर बैठें। धर्म के लक्षण हमें सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं।
      अपने धर्म का पालन करते समय कितने प्रलोभन आएँ, कितनी कठिनाइयाँ रास्ता रोक कर खड़ी हों जाएँ, कितने भय दिखाए जाएँ तो भी बिना रुके अथवा बिना घबराए आगे बढ़ते रहना चाहिए। यदि परिश्रम पूर्वक ईमानदार यत्न करेंगे तो कोई कारण नहीं कि हम आकाश की ऊँचाई न छू सकें या सागर में गहरे पैठ कर मोती न ला सकें।
        हमारा लक्ष्य पलक पाँवड़े बिछा कर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। उसे बस कदम बढ़ा कर पाने की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 12 जुलाई 2020

धन कमाने के उपाय

 धन कमाने के उपाय

हमारे जीवन में धन की बहुत उपयोगिता होती है। मनुष्य के पास धन के न होने पर अथवा आवश्यकता से बहुत कम होने पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उस समय वह मनुष्य नारकीय जीवन व्यतीत करता है। उस धन को कमाने के लिए वह दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह खटता रहता है। उसका सुख-चैन समाप्त हो जाता है। हर समय वह खर्चों से डरता रहता है।
         'महाभारत' में महर्षि वेदव्यास बताते हैं कि किन-किन तरीकों से मनुष्य को धन नहीं कमाना चाहिए-
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च। आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै॥
अर्थात् आत्म-ग्लानि या अपनी आत्मा को मारकर, अधर्म से और दूसरों को सताकर कमाया हुआ धन कभी भी मनुष्य को खुशी नहीं देता। अतः यदि जीवन में खुशियाँ चाहिए, तो इन तीनों तरीकों से कभी भी धन अर्जित नहीं करना चाहिए। 
          इस श्लोक में महर्षि समझाते हैं कि अपनी आत्मा को मारकर कमाने का अर्थ है, नाजायज तरीके से या कुमार्ग से धन कमाना। इन तरीकों से कमाया हुआ धन कभी सुख और शान्ति का कारक नहीं बनता। मनुष्य हर समय व्यग्र रहता है। उसे हर समय न्याय-व्यवस्था का भय सताता रहता है। इसलिए वह सामान्य इन्सान की तरह व्यवहार नहीं कर पाता। उसकी रातों की नींद उड़ जाती है।
          अधर्म से धन को कमाना भी कोई उचित मार्ग नहीं कहलाता। जानते-बुझते हुए जो व्यक्ति धर्म और समाज के नियमों के विरुद्ध जाकर धन को कमाता है, वह समाज से ही बहिष्कृत कर दिया जाता है। यानी उसकी निन्दा सभी लोग करते हैं। कितने भी धन का संग्रह वह कर ले, पर समाज में उसे वह स्थान नहीं मिलता, जो उसे मिलना चाहिए। सब कुछ होते हुए भी वह पिछड़ जाता है।
          दूसरे लोगों को सताकर जो धन का अर्जन करता है, वह सदा निन्दनीय होता है। असहायों ही हाय उसे जीने नहीं देती। हर समय वह बेचैन रहता है। कितने भी लट्ठमार वह अपने पास रख ले, पर उसे यही डर रहता है कि कहीं उसका धन कोई हर न ले। वह मासूम लोगों को अपना शिकार बनाकर अपने जाल में फँसा लेता है। लोग अपनी विवशता के कारण उससे धन उधार लेते हैं, पर उसके मकड़जाल से निकलने में सफल नहीं हो पाते।
          धन को निम्न उपायों से न कमाकर सात्विक तरीके से कमाना चाहिए। मेहनत, ईमानदारी और सत्यवादिता से कमाए गए धन में बहुत बरकत होती है। ऐसा मनुष्य कभी परेशान नहीं रहता। उसे रात को चैन की नींद आती है। उसके बच्चे आज्ञाकारी एवं संस्कारी बनते हैं। उसके यहाँ सुख और समृद्धि का साम्राज्य रहता है। उसे कभी अपनी गर्दन झुकने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
          'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य कठिनता से कमाए गए धन की रक्षा करने के विषय में बताते हैं-
उपार्जितानां वित्तानांत्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थाना परीवाह इवाम्भसाम्।
अर्थात् सुभाषितकार ने हमें धन की रक्षा करने के लिए एक शाश्वत मार्ग दिखाया है। जिस तरह से तालाब में से निरन्तर पानी बाहर निकलते रहने से वह सुरक्षित रहता है अर्थात् उसके पानी का उपयोग होता रहता है। जो लोग उस पानी को काम में लेते हैं, वे सभी उस तालाब और पानी की सुरक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। ठीक उसी तरह से कमाए हुए धन का त्याग करने या दान देते रहने से धन की रक्षा स्वतः होती है।
          इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य कहते हैं कि धन को मनुष्य कठोर परिश्रम करके कमाता है। उसे सुरक्षित रखने के लिए समय समय पर उसका दान करते रहना चाहिए। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने तालाब का उदाहरण दिया है। उसके जल का उपयोग करने वाले लोग स्वयं ही उसकी सुरक्षा की भी चिन्ता करते हैं।
         कहने का तात्पर्य यही है कि धन की सुरक्षा दान देने से होती है। अपनी कमाई का कुछ अंश दान देने से वह धन घटता नहीं है। जिस प्रकार चिड़िया नदी से चोंच भरकर पानी ले जाती है। नदी के उस जल को कोई अन्तर नहीं पड़ता। वह उतना ही रहता है तथा पहले की तरह की प्रवाहित होता रहता है।
          धन को कमाने और उसे सुरक्षित रखने के उपायों को भली भाँति समझने की आवश्यकता है। जो देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के अनुसार चलता है, उसे कभी घाटा नहीं होता। वह सदा प्रफुल्लित रहता है। उसका यश स्वयं ही चारों ओर प्रसारित होता है। उसे किसी को बताने की आवश्यकता नहीं होती। उसका व्यापार उसकी सच्चाई और ईमानदारी के कारण स्वयं ही फलता-फूलता है।
          ऐसे व्यक्ति के पास बैठने वाले को सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। इसके विपरीत दूसरे लोगों के पास बैठने पर मनुष्य को नकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है। इसी प्रकार अपने ऐसे कमाए धन का दान करने से उसे आत्मतोष होता है। उसके धन का सदा सदुपयोग होता है। अधर्म से कमाने वाले व्यक्ति कितना भी दान कर लें, उसका पुण्य उन्हें नहीं मिल पाता।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 11 जुलाई 2020

ईश्वर से रिश्ता निभाना

 ईश्वर से रिश्ता निभाना

रिश्ते हमें ईश्वर की ओर से हमारे कर्मानुसार लेन और देन का भुगतान करने के लिए मिलते हैं। उन रिश्तों का साथ निभाना मनुष्य का कर्त्तव्य होता है। रिश्ते निभाने के लिए तन, मन और धन का उपयोग करना पड़ता है। तन यानी शरीर से रिश्तों के सुख-दुख में उपस्थित रहना पड़ता है। मन से उनकी शुभ की कामना करनी पड़ती है। यदि उन्हें कोई समस्या आ जाए तो धन से उनकी सहायता करनी पड़ती है। 
           इस तरह तन, मन और धन से रिश्तों को निभाया जाता है। इन रिश्तों के निर्वहण के लिए किसी वाया मीडिया की आवश्यकता नहीं होती। जैसे ताली दोनों हाथों से बजती है, उसी प्रकार रिश्ते भी दोनों तरफ से निभाए जाएँ, तो लम्बे समय तक बने रहते हैं। एकतरफा रिश्ता कभी भी नहीं निभाया जा सकता। इन रिश्तों की आयु बहुत छोटी होती है, ये शीघ्र ही मुरझा जाते हैं।
          यदि कोई मनुष्य कोताही करता है, तब रिश्तों में दरार आने की सम्भावना बनी रहती है। रिश्ते अपने होते हुए भी परायों की भाँति व्यवहार करने लगते हैं। 'इस हाथ ले और उस दे' के नियम पर रिश्ते निभाए जाते हैं। जितना प्यार का व्यवहार उनके साथ किया जाता है, उतने ही प्यार से दूसरे लोग रिश्ता निभाते हैं। उनमें विश्वास बनाए रखना पड़ता है। अन्यथा सब अपने-अपने में मस्त होकर दूसरे की परवाह करना छोड़ देते हैं।
        यानी रिश्तों को निभाना सरल कार्य नहीं होता। जरा-जरा सी बात पर लोग आहत हो जाते हैं और मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं। तब उस व्यक्ति को मनाने में नानी याद आ जाती है। उन्हें लगता है कि फलाँ व्यक्ति को उनकी परवाह नहीं है। वही क्यों उसके लिए मरे जाएँ। यह सोच रिश्तों को बिखेरकर रख देती है। एक बार रिश्ते जब बिखर जाते हैं, तो फिर उन्हें समेटना बहुत कठिन हो जाता है।
          यदि किसी लौकिक व्यक्ति यानी किसी सांसारिक व्यक्ति के साथ कोई रिश्ता बनाना होता है, तो उसके लिए अपना बहुमूल्य समय निकालना पड़ता है। उससे मिलना-जुलना होता है। उससे मन से प्यार निभाना पड़ता है, तब जा कर कहीं एक रिश्ता बनता है। उस रिश्ते में एक खिंचाव होता है। रिश्ते को बाँधे रखने के लिए पौधे की तरह उसे खाद और पानी देना पड़ता है। तब जाकर कहीं रिश्ता फलता-फूलता है।
          जब सांसारिक रिश्ते इतनी सरलता से नही जुड़ पाते, तो फिर हम कैसे सोच सकते हैं कि मन्दिर गए, घण्टी बजाई, प्रसाद ले लिया, तो चलो भगवान से हमारा पक्का रिश्ता जुड़ गया। उससे गहरी दोस्ती हो गई। ऐसा नहीं होता है। उस मालिक से यदि रिश्ता बनाना हो, तो उसकी आराधना के लिए समय निकालना पडता है। उसे सच्चे मन से याद करना पडता है। ईमानदारी से उससे प्यार करना पडता है। तब कहीं जाकर उससे मनुष्य के प्यार की पींग परवान चढ़ पाती है।
          ईश्वर से सम्बन्ध बनाना हो तो अपने शरीर को कष्ट देना पड़ता है। उठकर उसका जप या ध्यान करना पड़ता है। मन से उसके विषय में विचार करना पड़ता है। उसे अपने धन से कुछ दे नहीं सकते क्योंकि वह तो उसी का ही दिया हुआ है। वह केवल मनुष्य की भावना का भूखा होता है। उसे पाने के लिए किसी आडम्बर को करने की कोई भी आवश्यकता नहीं होती। जो सरल हृदय से उसे पुकार लेता है, तो वह उसी का हो जाता है।
         उसके साथ अन्य रिश्तों की तरह वरतने की अथवा उसे बार-बार याद दिलाने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। वह अपना एकतरफा रिश्ता सदा बहुत अच्छी तरह निभाता रहता है। हम मनुष्य उसके साथ रिश्ता निभाएँ या नहीं, तब भी वह सांसारिक रिश्तों की तरह हमसे कभी भी नाराज नहीं होता। न ही इस बात को लेकर वह हमें कभी उलाहना देता है। वह न बुरा मानता है और न ही वह कभी हमसे मुँह फुलाकर बैठ जाता है। वह हमसे कभी कोई गिला-शिकवा नहीं करता। 
         हम मनुष्य यदि उसका स्मरण नहीं करते, तब भी वह रूठकर हमसे दूर नहीं चला जाता। वह अपना दायित्व पूरी तरह से निभाता है। हमें पता भी नहीं लग पाता, पर वह हमारा हाथ पकड़कर चलता ही रहता है। यह हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम अपना रिश्ता उस मालिक के साथ प्रगाढ़ बनाएँ। हम ही मूर्ख हैं, जो उस मालिक से दूरी बनाकर रखते हैं। वह तो हर कदम पर बिना किसी पूर्वाग्रह के हमारे साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सदा खड़ा रहता है। 
         हम मनुष्यों का यह कर्त्तव्य है कि अहर्निश हमारा ध्यान रखने वाले परमपिता परमात्मा से हमें अपना मजबूत रिश्ता बनाना चाहिए। सारे सांसारिक रिश्ते मृत्यु लोक के नियमानुसार इस संसार से विदा ले लेते हैं। केवल वह परमात्मा ही अजर और अमर है। वह जन्म जन्मान्तरों तक हमारा साथ निभाता है। उसके साथ हमारा कोई लेन देन का सम्बन्ध नहीं है। हम उसी मालिक का ही अंश रूप हैं। इसलिए उससे हमारा रिश्ता अटूट है। उसी से सच्चा रिश्ता निभाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

पिता की सेवा

पिता की सेवा

पिता घर की रीढ़ यानी आधार होता है। उसका कार्य घर-परिवार की सुख-समृद्धि के लिए साधन जुटाना होता है। वह होता है तो बच्चों को मोरल सपोर्ट मिलती है। उसके मजबूत कन्धों पर चढ़कर बच्चे बड़े होते हैं। उसके न रहने पर घर पर मानो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। उसकी कमी को माँ पूरा करने का प्रयास करती है, पर उसके न होने की कसक सारी आयु बनी रहती है।
         पिता के होने से बच्चे को मान होता है। उसका सिर गर्व से तना रहता है। उसे लगता है कि यदि वह किसी भी परेशानी में घिर जाएगा, तो अवश्य ही पिता उसकी रक्षा करेगा। अपने पिता के सहारे वह कुछ भी कर गुजरता है। पिता भी आशा करता है कि बड़े होकर उसकी सन्तान योग्य बनकर, उसका नाम रौशन करेगी। इसी एक उम्मीद में वह अपना सारा जीवन गुजार देता है।
          पिता को इसलिए शास्त्र देवता मानते हैं क्योंकि वह सन्तान को इस दुनिया में लाता है। उसके इस ऋण से उऋण होना असम्भव है। ऐसे पिता की सेवा मनुष्य सारी आयु करता रहै, तो भी कम है। अपने पिता को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देना चाहिए। समझदार बच्चे अपने पिता की सेवा अपना दायित्व समझकर करते हैं, वे उन्हें भार नहीं मानते। 
       'शुक्रनीति:' हमें पिता की सेवा करने के लिए समझाती है-
   पितृसेवापरतिष्ठेत्कामवाङ्मानसै सदा।
   तत्कर्म नित्यं कुर्यात् येन तुष्टो भवेत्पिता।।
   तन्न कुर्याद्येन  पिता  मनागपि  विषीदति।
अर्थात् पुत्र को शरीर, वाणी और मन से सदा पिता की सेवा में तत्पर रहना चाहिए। जिस कार्य से पिता प्रसन्न हो, उसे नित्य वही कार्य करना चाहिए। वह कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे पिता के मन को कष्ट पहुँचे।
          इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यही है कि पिता की सेवा तन, मन और धन से करनी चाहिए। उसकी सेवा करने का कभी दिखावा नहीं करना चाहिए। पिता को सदा प्रसन्न रखना चाहिए, जैसा वह बाल्यकाल में अपने बच्चे को रखता है। सदा यही प्रयास करना चाहिए कि अपने पिता की इच्छा के अनुरूप ही कार्य किया जाए। ताकि उन्हें सन्तुष्टि मिल सके। पिता यदि प्रसन्न रहता है, तो घर का माहौल अच्छा रहता है। घर के लोगों को मिलजुलकर रहना आ जाता है।
           पिता को यदि कष्ट या परेशानी होती है, तो उस घर में अशान्ति का साम्राज्य हो जाता है। घर में एक अजीब तरह की शान्ति होती है। यदि पिता की सेवा न कि जाए तो शरीर अशक्त होंने के कारण वह चिल्लाने लगते हैं, गाली-गलौच भी कर सकते हैं। इससे पड़ोसियों को भी पता चल जाता है कि पिता की सेवा नहीं की जा रही। ऐसे में घर में एक तनाव-सा रहता है। फिर वही घर मनुष्य को काटने को दौड़ता है। घर का माहौल खराब हो जाता है। मन घर से भाग जाने का करता है। आने वाले मेहमान भी उस घर से परेशान होकर वापिस जाते हैं।
         निम्न श्लोक में पिता की सेवा करने वाले व्यक्ति को महान बताते हुए यह कहा है कि-
स गृही  स  मुनि: स च योगी  च  धार्मिक:।
पितृ सुश्रुषको नित्यं जन्तु: साधारणश्च य:।।
अर्थात् जो साधारण मनुष्य नित्य अपने पिता की सेवा-सश्रुषा करता है, वही उत्तम गृहस्थ है, मुनि या साधु है, योगी है और धार्मिक है।
          पिता की सेवा सुश्रुषा करने वाले मनुष्य को कवि उत्तम गृहस्थ बता रहा है। उनके अनुसार ऐसा व्यक्ति ही सबसे बड़ा धर्मिक है। उसे महान योगी तक कह दिया है। इसका सीधा-सा यही अर्थ है कि पिता की सेवा करने वाला व्यक्ति साधारण नहीं विशेष बन जाता है। उसे तपस्वी की संज्ञा से अभिहित किया गया है। ऐसे संस्कारी व्यक्ति को आस-पड़ोस और बन्धु-बान्धव सभी प्रशंसात्मक निगाहों से देखते हैं। उसका गुणगान करते हैं।
          पद्मपुराण में इससे भी बढ़कर बताया है कि पिता के प्रसन्न होने पर सभी देवता प्रसन्न होते हैं-
पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि  परमं तपः।पितरि प्रीतिमापन्ने  सर्वाः प्रीणन्ति देवताः।।
अर्थात् पिता स्वर्ग है, पिता धर्म है और पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है। जिस व्यक्ति के पिता के प्रसन्न हो जाते हैं, उस पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
          पद्मपुराण का यह श्लोक पिता को स्वर्ग, धर्म और महान तपस्या बताता है, जिसकी प्रसन्नता में सभी देवताओं का वास होता है। इसका सार यही हुआ कि पिता का आशीर्वाद यदि मनुष्य को मिल गया, तो मानो सभी देवताओं का आशीष उसे मिल जाता है। निस्सन्देह ऐसा व्यक्ति ईश्वर का प्रिय बन जाता है।
          पिता के चरणों मे स्वर्ग होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पिता के सुखी रहने पर घर में स्वर्ग के समान सुख आ जाते हैं। जिसकी ठण्डी बयार दूर-दूर तक बहने लगती है। उस घर में आने वाले अतिथि भी सन्तुष्ट और प्रसन्न होकर जाते हैं। वे ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा करते नहीं अघाते। लोग श्रवण पुत्र कहकर उसको सम्मनित करते हैं। इस तरह उस व्यक्ति का यश दूर दूर तक फैल जाता है।

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

कर्मों के प्रकार

 कर्मों के प्रकार

मनुष्य कभी खाली नहीं बैठ सकता। वह सारा समय उठापटक करता रहता है। कोई-न-कोई कार्य उसे करना होता है, चाहे वह शुभ कर्म हो या अशुभ। इन्हीं शुभाशुभ कर्मों के आधार पर ही उसका पुनर्जन्म निर्धारित होता है। उन्हीं के अनुसार वर्तमान जीवन में उसे घर-परिवार, सुख-समृद्धि, सुख-दुख, भाई-बन्धु, पड़ोसी इत्यादि मिलते हैं। 
            अपने जीवन काल में प्रत्येक मनुष्य मुख्यतः तीन प्रकार के कर्म करता है। ये कर्म हैं- सात्विक कर्म, राजसिक कर्म और तामसिक कर्म।
          सात्विक कर्म में परोपकार करना, सत्यभाषण करना, विद्याध्ययन में रत रहना, दान देना, दूसरों पर दया दिखना, सेवा के कार्य करना आदि आते हैं। इन्हें कर्म या सत्कर्म भी कहते हैं। सुकर्म कर्म मनुष्य को करने चाहिए लेकिन फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। इसी प्रकार जप करना चाहिए पर बिना फल की इच्छा रखे, एवँविध बिना किसी कामना के परोपकार करन चाहिए। यानी बिना आसक्ति के कर्म करना चाहिए।
         राजसिक कर्म मिथ्याभाषण करना, क्रीडा करना, स्वाद लोलुपता रखना, स्त्रीआकर्षण में फँसना, चलचित्र देखना आदि होते हैं। इन कर्मों को अकर्म भी कहते हैं। ये कर्म मनुष्य को बारम्बार ललचाते हैं और मनुष्य इनमें लिप्त होता चला जाता है। इन कर्मों को करने से उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो पाती। इनकी अधिकता हो जाने पर अनजाने में मनुष्य पतन के मार्ग की और अग्रसर होने लगता है।
       सात्विक और राजसिक कर्मों के मिले जुले प्रभाव से मानव शरीर मिलता है।  यदि  राजसिक कर्मों की अधिकता होती है और सात्विक कर्मों कम होते हैं, तो मानव शरीर प्राप्त होता है, परन्तु किसी नीच कुल में जीव का जन्म होता है। यदि सात्विक कर्म अधिक हों और राजसिक कर्म कम हों, तो जीव को उच्च कुल में जन्म मिलता है। वहाँ उसे धन-वैभव मिलता है। इन सबसे परे जिस जीव के सात्विक कर्म अधिक होते हैं, उसका जन्म किसी विद्वान व्यक्ति के घर में होता। हैं।
        तामसिक कर्म चोरी करना, जुआ खेलना, दूसरों को ठगने, लूट मार करना, अन्य लोगों के अधिकार का हनन करना आदि कहलाते हैं। इन कर्मो को विकर्म भी कहते हैं। इन कर्मों को करता हुआ मनुष्य पतन की ओर जाता है। ये उसके लिए विनाश का द्वार खोल देते हैं। ऐसे लोग धर्म और समाज के शत्रु कहलाते हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति इनसे मित्रता करना नहीं चाहता। सभी इनसे किनारा करने में अपनी भलाई समझते हैं।
        इन तीनों से परे दिव्य कर्म होते हैं, जो ऋषियों और मुनियों के द्वारा किए जाते हैं। इसी कारण वे गुणातीत कहलाते हैं। ईश्वर के समीप रहते हुए ये लोग आत्मोन्नति के लिए दिव्य कर्म करते हैं।
         कर्म का आरम्भ भी होता है और अन्त भी होता है। जो कर्म करते हैं, उसका भोग जीव करते हैं और भोगकर उससे मुक्त होते हैं। पापकर्म करने पर मनुष्य नारकीय जीवन जीता है अर्थात् अपना जीवन दुखों-परेशानियों में व्यतीत करता है। पुण्यकर्म करने पर मनुष्य सुख-समृद्धि से भरपूर जीवन जीता है। शुभाशुभ दोनों तरह के कर्म करने पर मनुष्य के जीवन में क्रम से सुख-दुःख दोनों ही आते रहते हैं। 
            प्रारब्ध कर्म, सञ्चित कर्म और क्रियमाण कर्म भी कर्म के ही प्रकार हैं। अपने कर्मों के बड़े संचय में से थोडे-से कर्मों को लेकर मनुष्य इस देह को धारण करता है। शेष सञ्चित कर्म संस्कार के रूप में पड़े रहते हैं। ये सञ्चित कर्म संस्कार रूप में जीव के साथ रहते हैं। ये संस्कार मनुष्य को समय-समय पर चेताते रहते हैं। उसे प्रेरणा देते रहते हैं, जिनको मानना अथवा न मानना मनुष्य के अपने हाथ मे होता है।
          प्रारब्ध कर्म पूर्वजन्मों के कर्मों का संग्रह होता है। इन्हीं से मनुष्य का भाग्य निर्धारित होता है। यही मनुष्य के जन्म, उसकी मृत्यु को निर्धारित करते हैं। इसके बीच उसके जीवन में क्या क्या घटेगा, ये सब तय करते हैं। प्रारब्ध कर्मों को भोगने में जीव स्वतन्त्र नहीं होता। ज्ञानी हो या अज्ञानी, भक्त हो या अभक्त, योगी हो या भोगी प्रारब्ध का प्रभाव सबके जीवन पर पड़ता है। ये प्रारब्ध कर्म जब भोग लिए जाते है, तब नष्ट हो जाते हैं।
         वर्तमान जन्म में जो कर्म मनुष्य कर रहा है, वे सभी क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों को करने में मनुष्य स्वतन्त्र होता है। जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म वह अपने जीवन काल में करता है, उसी के अनुरूप उसे फल भोगना पड़ता है। चाहे उसकी इच्छा हो चाहे न हो। यानी कर्म करने में मनुष्य स्वतन्त्र है, पर उसके फल भोगने में वह परतन्त्र है।
       ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है, वही सर्जनहार है और वही कर्मों का नियामक है, निर्वाहक एवं फल देने वाला है। वह आत्मरूप से सबके अन्तःकरण में विराजमान रहता है। मनुष्य कर्ताभाव से जैसे कर्म करता है उसी के अनुरूप उसे अच्छा या बुरा फल मिल जाता है। 
           भगवान श्रीकृष्ण गीता में इनके विषय में कहते हैं- 
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।
अर्थात् जैसे लकड़ी के ढेर को अग्नि जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि से जीव के सारे कर्म-बन्धन, संस्कार भस्मीभूत हो जाते हैं। जो सञ्चित कर्म हैं वे भी भस्म हो जाते हैं। क्रियमाण कर्म जिन्हें मनुष्य कर्ताभाव से नहीं करता, उसे उन कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ता है और प्रारब्ध कर्म भी बीत जाते हैं। 
          अज्ञानी मनुष्य अपना प्रारब्ध प्रतिकूल होने पर रोता है, चिल्लाता  है। दुःख-कष्ट मिलने पर वह परम न्यायकारी परमात्मा पर दोषारोपण करता है, उसे भला-बुरा कहता है। जब अनुकूल प्रारब्ध होता है यानी उसे सुख-समृद्धि मिलती है, तो वह खुश होकर उसे भोगता है। उस समय वह स्वयं को संसार का भाग्यशाली मनुष्य समझता है। इसके विपरीत ज्ञानी मनुष्य हर परिस्थिति मे एकसमान रहते हुए ईश्वर का धन्यवाद करता है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 8 जुलाई 2020

किसे दान न दें

किसे दान न दें

हमारे शास्त्र दान देने पर बल देते हैं। सभी धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए इसकी बहुत उपयोगिता होती है। शास्त्रों का कथन है कि दान सदा ही सुपात्र को देना चाहिए अन्यथा दिए हुए दान का सुफल मनुष्य को नहीं मिल पाता। मनुष्य बहुत ही कठोर परिश्रम करके धन कमाता है। उसके कमाए हुए धन का दुरुपयोग न होने पाए, उसे सदा इसका ध्यान रखना चाहिए।
        दान किसको नहीं देना चाहिए, इस विषय में आचार्य चाणक्य का स्पष्ट कथन यह है- 
वृथा वृष्टि: समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च॥
अर्थात् समुद्र पर वर्षा का बरसना, जिसका पेट भरा हो उसे खाना देना, धनवान को धन का दान देना और सूर्य के प्रकाश में दीपक जलाकर रोशनी करना इत्यादि व्यर्थ में शक्ति का ह्रास करना होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति  को अपनी शक्ति का यथा योग्य स्थान और समयानुसार उपयोग करना चाहिए।
            इस श्लोक के अनुसार दान उसे देने का कोई लाभ नहीं होता, जिसके पास बहुत है। जैसे समुद्र अथाह जलराशि समेटे हुए हैं। उसमें चार-पाँच बाल्टी पानी डालने से उसे कोई अन्तर नहीं होगा। पता ही नहीं चलेगा कि वह जल किधर गया। इसलिए समुद्र में जल डालना व्यर्थ होता है। जल वहाँ डालिए जहाँ पौधे न मुरझाएँ और वे बड़े होकर फल और छाया देने वाले बनें। वे आने वाले यात्रियों के सुख का कारण बन सकें।
          जिस व्यक्ति के पास करोड़ों-अरबों रुपए हों, उसे दो-चार हजार रुपए दिए जाएँ तो उसे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा क्योंकि उसे उस धन की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे स्थान पर दिया गया दान व्यर्थ होता है। ऐसे व्यक्ति को यदि वही राशि दी जाए, जिसे उसकी सचमुच आवश्यकता है, तो उसकी जरूरत पूरी हो जाएगी और उसका  काम चल जाएगा। वह आशीष भी देगा और कृतज्ञ भी रहेगा।
         जिसका पेट पहले से ही भरा हो, उसे पुनः खाना खिलाने का प्रयास किया जाए, तो वह खा ही नहीं सकेगा। उसके सामने परोसे गए छप्पन व्यन्जन भी बेकार हो जाते हैं। उसके स्थान पर ऐसे व्यक्ति को भोजन खिलाया जाए जो वास्तव में भूखा है। उसे भोजन की कीमत पता होती है। उसे खिलाने उसका पेट भर जाएगा और आपको उस सद्कार्य के लिए पुण्य भी मिलेगा।
          सूर्य सारी पृथ्वी को प्रकाशित करता है। यदि दिन के समय दीपक जला दिया जाए, तो उसके प्रकाश की कोई अहमियत ही नहीं होगी। उसके जलने की कोई भी उपयोगिता नहीं होगी। हाँ, रात्रि के समय यदि उसे जलाया जाए तो वह प्रकाश देगा। मार्गदर्शक बनकर लोगों को ठोकर खाने से बचाने वाला बनेगा। इस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने दीपक का जलना किसी के काम नहीं आता।
           इसी दान की प्रवृत्ति को मद्देनजर रखते हुए तथाकथित धर्मगुरु जन साधारण को मूर्ख बनाते हैं। लोगों को दान देने तथा अपरिग्रह का उपदेश देते हैं और स्वयं ऐश करते हैं। अपने लिए सम्पत्तियाँ खरीदते हैं और मंहगी गाड़ियों का काफिला तैयार करते हैं। ऐसे स्थान पर दिए गए दान की कोई उपयोगिता नहीं होती। उनको दिया गया वह दान पुण्य देने वाला नहीं होता, अपितु व्यर्थ जाता है।
          'पद्मपुराण' का स्पष्ट निर्देश है कि कैसे ब्राह्मण को दान न दिया जाए -
धूम्रपानरते विप्रे दानं कुर्वन्ति ये नराः।
ते नरा नरकं यान्ति ब्राह्मणा ग्रामशूकरा:।।                           
अर्थात् धूम्रपान (तम्बाकू, गांजा, भांग, चरस, बीड़ी, गुटखा, शराब इत्यादि मादक पदार्थ का सेवन) करने वाले ब्राह्मण को दान देने वाला नरक का अधिकारी होता है और उन ब्राह्मणों का तो कहा ही क्या जाए? उन अभागों को ग्रामशूकर बनकर विष्ठा-भोजन करना पड़ता है।
        पद्मपुराण के अनुसार व्यसन करने वाले ब्राह्मण को कभी भी दान नहीं देना चाहिए। वह आपके दिए हुए दान का उपयोग व्यसनों में ही करेगा। इस तरह ऐसे ब्राह्मण को दिया गया दान यानी परिश्रम से कमाया गया धन नाली में जाने के समान हो जाएगा। अच्छी भावना से दान देने वाला व्यक्ति नरकगामी बन जाता है। पुण्य और यश के स्थान पर उसे अपयश और पाप ही मिलता है।
        इस प्रकार अयोग्य व्यक्ति को दान देने से हमारे दान देने की उपयोगिता ही नहीं रहती। हमारा दिया गया दान व्यर्थ तो होता ही है, साथ में मानसिक सन्ताप भी होता हैं। सुपात्र को दिया गया दान पुण्य और यश देता है। इसका कारण है कि उसे धन की अहमियत पता होती है। वह धन उसके अभावग्रस्त जीवन में खुशियाँ और प्रकाश लाता है। मनुष्य को समय और योग्य पात्र को सुनिश्चित करके ही दान देना चाहिए ताकि उसके धन का दुरूपयोग न होकर सदुपयोग हो।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

भूख क्या नहीं करवाती

 भूख क्या नहीं करवाती

मनुष्य की भूख जब असह्य यानी बर्दाश्त के बाहर हो जाती है, तब वह अपने सारे आदर्शों को भूल जाता है। उस समय उसे अपने पेट की ज्वाला को शान्त करने की अतिरिक्त और कुछ भी नहीं सूझता। यही वह समय होता है, जब वह किसी भी कुकर्म को करने से नहीं घबराता। वह भीख माँगने के लिए निकल पड़ता है। परन्तु वहाँ से दुत्कारे जाने पर वह चोरी-डकैती और लूटमार करने का रास्ता अपनाने से भी परहेज नहीं करता। 
        'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य स्पष्ट लिखते हैं कि-
        त्यजेत् क्षुधार्ताः जननी स्वपुत्रं
        खादेत् क्षुधार्ताः भुजगी स्वमण्डम् ।
        बुभुक्षितः किं न  करोति पापं
       क्षीणा जनाः निष्करुणा भवन्ति।।
अर्थात् भूख से व्याकुल एक माँ अपने प्राण बचाने के लिए अपने पुत्र को भी त्याग देती है। एक भूखी साँपिणी स्वयं अपने ही अण्डो को खा जाती है। इसीलिए कहा गया है कि एक भूखा व्यक्ति कोई भी पाप अथवा निषिद्ध कार्य कर सकता है। इसी प्रकार एक कमजोर व्यक्ति भी ऐसी परिस्थिति में निर्दय हो जाता है।
          अपने पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए एक माँ अपने बच्चे को त्याग देती है। कई बार टी वी पर, समाचारपत्रों में एवं सोशल मीडिया में इस प्रकार के समाचार आते हैं कि किन्ही माता-पिता ने चन्द रुपयों के लिए अपनी सन्तान को बेच दिया। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है यह सब। पर भूख की आग जो न करवाए वही थोड़ा। जिन बच्चों को माता-पिता अपने कलेजे से लगाकर रखते हैं, उन्हें गर्म हवा तक नहीं लगने देते, उन्हें ही चन्द रुपयों के लिए बेच देना अमानवीय कृत्य है।
         साँपिणी जब अपने अण्डों को सेती है, तब उसे भूख लगती है, उस समय वह अपने ही अण्डों को खा जाती है। यानी अपने बच्चों को दुनिया में आने से ही रोक देती है। कितना क्रूरतापूर्ण कार्य है यह? प्रकृति की विडम्बना देखिए।
        बिहार में एक जाती है मुसहर। वे अपनी भूख की ज्वाला को शान्त करने के लिए चूहों को मारकर खा जाते हैं। जिन चूहों को देखकर जन साधारण को घिन आती है, उसका शिकार करके वे लोग खाते हैं।
         इस भूख की आँधी के वश में न आ पाने के कारण कुछ लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं। कुछ लोगों को आपने अपने आसपास देखा होगा, जो कचरे में से बीनकर खाते हैं। उनके पास और कोई चारा नहीं होता। इससे बढ़कर दुर्भगय और क्या होगा कि एक वर्ग अन्न को झूठा छोड़ता है, उसे कूड़े में फैंकता है और दूसरी ओर उस कचरे में से बीनकर कुछ लोग अपनी इस ज्वाला को शान्त करते हैं तथा कुछ लोग बड़ी कठिनता से मिले अपने इस जीवन को ही समाप्त कर देते हैं।
         एक कमजोर व्यक्ति इस परिस्थिति में जब जूझ नहीं सकता, तो वह निर्दय बन जाता है। वह किसी की जेब भी काट सकता है और किसी का गला भी काट सकता है। उसे बस भोजन चाहिए खाने के लिए। उसके लिए किसी भी तरह धन को कमाना उसकी प्राथमिकता बन जाता है। इसका कारण है कि वह अपने पत्नी और बच्चों को भूख से बिलखता हुआ नहीं देख सकता।
        भूखा बगुला जिस प्रकार तालाब में भक्त बनकर मछलियों का शिकार करता है। उसी प्रकार कुछ लोग बगुला भक्त बनकर लोगों को ठगते हैं। कुछ लोग 'पञ्चतन्त्र' के भूखे बूढे शेर की तरह सोने का कंगन हाथ में लेकर मासूम बनकर, वह पशुओं को खाता था। उसी प्रकार कुछ भूखे व्यक्ति लालच दिखाकर, झाँसा देकर लोगों को धोखा देते हैं।
         कई घटनाएँ ऐसी पढ़ी और सुनी हैं कि भूखे होने पर मनुष्य डाकू बन जाते हैं। राहजनी करते हैं। जेबकतरे बनकर लोगों की जेब काटते हैं। यानी किसी भी दुष्कर्म को करने में सकुचाते नहीं हैं। वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उन्हें बस रोटी चाहिए, वह चाहे किसी भी तरीके से मिले, वह बस मिलनी चाहिए।
         पेट की आग किसी भी मनुष्य को समाजविरोधी गतिविधियों में धकेलने का कार्य करती है। मनुष्य के मन में इन सब कुकृत्यों को करते समय समाज और न्याय व्यवस्था का भी डर नहीं रहता। उसे अपनी भूख के आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता। भूख को मिटाने के लिए वह हवालात में जाने से भी परहेज नहीं करता। उसे लगता है कि जेल में कम से कम दो समय का खाना तो मिल जाएगा। इस तरह उसे भूख की असहनीय पीड़ा से राहत तो मिल ही जाएगी।
          भूखे व्यक्ति को केवल मात्र खाने के लिए भोजन चाहिए होता है। उस समय उसे कोई उपदेश सुनना अच्छा नहीं लगता। इसिलए किसी ने कहा है-
        भूखे भजन न होई गोपाल
         ले ले अपनी कण्ठी माला।
यानी ईश्वर का भजन भी मनुष्य तभी कर सकता है, जब उसका पेट भरा हो, वह भूखा न हो।
         पूरे विश्व में बहुत से लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता। भारत में भी अनेक लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, जिन्हें दो जून के भोजन नसीब नहीं होता। यह हमारा दुर्भगय है कि अभी तक हमारे देश में इतनी गरीबी है और लोग भूखे पेट सोते हैं। कई कई दिन उन बेचारों को अन्न के दर्शन नहीं होते।
          मैं यह नहीं कहती कि भोजन के लिए मनुष्य गलत काम करे, पर यदि उनके विषय में मानवीयता से विचार करें, तो हम पाएँगे कि कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से गलत कार्य नहीं करना चाहता। परन्तु वह परिस्थितियों के वश में आकर शॉर्टकट अपना लेता है।
          बहुत-सी सामाजिक संस्थाएँ इन भूखे लोगों के लिए रोटी का प्रबन्ध करने का प्रयास कर रही हैं, पर इसकी अभी और अधिक की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 6 जुलाई 2020

जीवन की उलझनें

जीवन की उलझनें

धागे चाहे ऊन के हों या रेशम के अथवा फिर कोई और, सब उलझ जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी अपने जीवन में किसी न किसी उलझन में उलझा रहता है। धागों की भाँति वह उन्हें भी सुलझाने में लगा रहता है। एक सीमा तक उन्हें सुलझा भी लेता है, फिर कुछ समय पश्चात उसे कोई अन्य उलझन घेर लेती है। यह मनुष्य जीवन की त्रासदी है कि उसे सुख और शान्ति थोड़े ही समय के लिए मिल पाती है। कोई न कोई परेशानी मुँह बाये उसके सामने खड़ी ही रहती है।
         मनुष्य जितना अपनी उलझनों को सुलझाने में व्यस्त रहता है, उतना ही वह मानसिक तौर पर अस्वस्थ रहता है। उसे मानसिक सुख-चैन तभी मिल सकता है, जब अपने जीवन की समस्याओं से दो-चार न हो ले। जब तक उसकी उलझनें या परेशानियाँ उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बनी रहती हैं, तब तक वह बेचैन रहता है। उनसे दूर भागने का हरसम्भव प्रयास भी करता है। पर ये हैं कि मुँह चिढ़ाती हुई, मनुष्य को लाचार बनाकर दम लेती हैं।
          मनुष्य अपनी इन सभी मुसीबतों से छुटकारा तभी पा सकता है, जब वह अपने परिवार के साथ मिल-बैठकर, उनके साथ सब साझा करें। अपने पास रहने वाले सज्जनों से परामर्श ले और ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखे। उसके इधर-उधर भटकने यानी तथाकथित गुरुओं के पास जाने, तन्त्र-मन्त्र का सहारा लेने या तीर्थों एवं जंगलों में वह भटकते रहने से तो उसे कोई भी लाभ नहीं होने वाला। ये सब उसका परिश्रम से कमाया हुआ धन व समय नष्ट करने वाले हैं।
           अपने घर में बैठकर, शान्त मन से विचार करे या ध्यान करे, तो अवश्य ही उसे कोई न कोई समाधान मिल जाता है। धागों को सुलझाने के लिए भी सहनशीलता की आवश्यकता होती है। अफरा-तफरी करने से वे कोमल धागे टूट जाते हैं। यदि मनुष्य अपने झूठे अहं के कारण शान्ति नहीं बनाए रख सकता, तो उसका कुछ भी नहीं हो सकता। फिर यदि वह अनावश्यक ही परेशान रहता है तो रहे। यह तो उसका स्वभाव ही कहा जाएगा।
          मनुष्य का जीवन सदा ही उलझनों से घिरा रहता है। बड़ी कठिनाई से एक उलझन सुलझती है, तो दूसरी मुस्कुराते हुए मुँह चिढ़ाने लगती है यानी सामने आकर खड़ी हो जाती है। फिर उसे सुलझाने के लिए मनुष्य को अथक परिश्रम करना पड़ता है। उसे दिन-रात एक करके उपाय खोजना पड़ता हैं। तब जाकर कहीं उसे चैन की साँस आती है। इस प्रकार परेशानियों की आँख-मिचौली का यह खेल अनवरत चलता रहता है।
          दुख-परेशानियाँ या उलझने मनुष्य के पास अपने कर्मों के अनुसार आती रहती हैं। पूर्व जन्मों में यदि अच्छे कर्म अधिक किए हैं, तो उलझनें कम सताती हैं। परन्तु यदि पूर्वजन्मों में अपेक्षाकृत अधिक दुष्कर्म अधिक किए हैं, तो ये अधिक दुख देती हैं। इन उलझनों के मकड़जाल में मनुष्य तभी उलझकर जकड़ जाता है, जब वह पूर्व जन्मों में सद्कर्म करने में कंजूसी करता है और अपनी इच्छा से दुष्कर्म हँस-हँसकर करता है। 
         पता नहीं किस जन्म में मनुष्य दुखों और परेशानियों के बीज बोता है और किस जन्म में आकर उस पेड़ के कड़वे फल काटकर खाता है। ईश्वर का न्याय  तो सबके लिए एकसमान है। उसकी अदालत में किसी के साथ भी पक्षपात नहीं होता। और न ही वहाँ किसी प्रकार की कोई रिश्वत ही चलती है। अपनी उलझनों से मनुष्य को तभी मुक्ति मिल पाती है, जब कोई मनुष्य इन दुखों और परेशानियों की भट्टी से तपकर निकलता है।
           मनुष्य को सदा अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। उसे देश, धर्म, समाज और परिवार के विपरीत जाकर  कोई भी कर्म नहीं करने चाहिए। उसे अपने धर्म यानी अपने कर्त्तव्यों का पालन ईमानदारी और सच्चाई से करना चाहिए। ताकि इस जीवन में और आने वाले जीवन में उसे कभी कड़वे फलों का स्वाद न चखना पड़े। और न ही उसे अपने जीवन में असफलता का कभी मुँह देखना पड़े। उसे अतीत के कटु अनुभवों को स्मरण करके व्यथित न होना पड़े।
        यह सब तभी सम्भव हो सकता है, जब मनुष्य जागरूक बन जाए और अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने से बचे। उसके द्वारा बरती गई थोड़ी-सी सावधानी उसे इन सभी उलझनों और परेशानियों से निश्चित ही बच सकती है। सबसे बड़ा मन्त्र यही है कि मनुष्य को अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देना चाहिए। जाने-अनजाने में भी अपने से कोई ऐसा कार्य न होने पाए, जो किसी का अहित कर दे।
         अब यह मनुष्य विशेष पर निर्भर करता है कि उसे क्या रुचिकर है? वह उलझनों के उधेड़ बुन में फँसा रहना चाहता है या इनसे मुक्ति प्राप्त करके अपने जीवन में सुख-शान्ति की कामना करता है। उसे अपने रास्ते का चयन स्वयं ही करना है। कोई अन्य उसे सन्मार्ग सुझा तो सकता है, परन्तु जबर्दस्ती चला नहीं सकता। इसलिए मनुष्य को स्वयं ही सही मार्ग को चुनकर उस पर चलना है, ताकि उसके जीवन में उलझने कम से कम आ सकें।
चन्द्र प्रभा सूद