सोमवार, 31 अगस्त 2020

पिता-पुत्र का सम्बन्ध

  पिता-पुत्र का सम्बन्ध

पिता और पुत्र का रिश्ता इस संसार में बहुत गहन होता है। पिता अपने संस्कारों की थाती अपने पुत्र को सौंपता है। पुत्र उन्हें आत्मसात कर लेता है। पुत्र की हर इच्छा को पूरा करना पिता का दायित्व होता है। वह अपने मुँह का निवाला निकालकर पुत्र को देने में नहीं हिचकिचाता। हर पिता अपने पुत्र के लिए हीरो होता है, जो चुटकी बजाते ही उसकी सारी समस्याओं को हल कर देता है।
             यदि माता दैहिक साँसारिक यात्रा के आविर्भाव पर प्राण को चेतना प्रदान करती है, तो उस जड़ स्वरूप को पोषित करने वाला पिता होता है। पिता की अँगुली पकड़कर पुत्र स्वयं को सबसे भाग्यशाली इन्सान समझता है। वह अपने पिता के कन्धों पर चढ़कर स्वयं का कद बड़ा कर लेता है। उसके सारे सपनों को पूरा करने वाला, उसका पिता ही होता है।
           हर पिता अपने बेटे को गाली देता है, डाँटता है और मारता भी है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह उससे प्यार नहीं करता। बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह सब करना आवश्यक हो जाता है। बेटे ने कुछ माँग रखी तो आवश्यक नहीं कि उसे पूरा कर दिया जाए। बच्चे को न सुनने की आदत भी होनी चाहिए। बच्चे को यह पता होना चाहिए कि पिता वही वस्तु खरीदकर देंगे, जिसकी उसे आवश्यकता होगी। अनावश्यक वस्तु उसे नहीं मिलेगी।
            आचार्य चाणक्य अपनी पुस्तक 'चाणक्यनीति:' में कहते हैं-
लालयेत्पञ्च वर्षाणि दस वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।
अर्थात् पाँच वर्ष तक पुत्र को लाड-प्यार करना चाहिए। दस वर्ष तक ताडना-वर्जना करनी चाहिए और जब पुत्र सोलह वर्ष की अवस्था में पहुँच जाए, तब उसके साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए।
          चाणक्य के अनुसार पाँच वर्ष की बाल्यावस्था तक बेटे के साथ लाड़ लड़ाने चाहिए। उसके बाद दस वर्ष की अवस्था तक उसे अनुशासित करने के लिए, उसके साथ कठोरता का व्यवहार करना चाहिए। परन्तु जब पुत्र सोलह वर्ष का युवक हो जाए, यानी पिता का जूता पुत्र के पैरों में पूरा आने लगे, तब उसके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। उसके पश्चात उसे अपना मित्र ही मानना चाहिए। तब उससे विचार-विमर्श करना चाहिए।
           हर पिता चाहता है कि उसका पुत्र उससे अधिक योग्य बने। उससे अधिक तरक्की करे। वह पुत्र के बड़े होकर योग्य बनने का स्वप्न देखता है। जब उसका पुत्र पढ़-लिखकर, अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेता है, तो वह स्वयं को संसार का सबसे भाग्यशाली इन्सान समझता है। यदि वह व्यवसाय करता है, तो पुत्र को व्यापार में रुचि लेते देख और उसे बढ़ाते देखकर वह हर्षित होता है।
           पिता जब आयुप्राप्त होने लगता है, तब वह चाहता है कि उसका पुत्र अब सारी जिम्मेदारियाँ सम्हाले। उसके पास अपनी जो भी धन-सम्पत्ति होती है, उसे धीरे-धीरे अपने पुत्र को सौंपकर वह निश्चिन्त हो जाता है। पिता सदा अपने पुत्र को सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते देखना चाहता है। वह चाहता है कि उसके जीते जी उसका पुत्र और और उन्नति करता जाए। इसके लिए वह स्वयं भी प्रयास करता है।
          ऐसे पिता के ऋण से मनुष्य कभी उऋण नहीं हो सकता, जो उसे इस धरती पर लेकर आया है। उसी पिता से ही पुत्र का अस्तित्व होता है। इसीलिए पिता को देवता कहा जाता है। पुत्र का दायित्व बनता है कि ऐसे देवता की पूजा करे। यानी उसके मुँह से निकलने से पहले उसकी जरूरतों को समझकर पूरा करे, जैसे पिता उसके बचपन में किया करता था। इसमें बदले की भावना जैसी कोई बात नहीं है, अपितु यह बेटे का फर्ज है।
             जो बेटा अपना कर्त्तव्य मानकर अपने पिता की सेवा प्रसन्नता से करता है, उसकी सराहना सभी लोग करते हैं। ऐसे बेटे को लोग श्रवण पुत्र कहते हैं। उसका यश चहुँ दिशि प्रसारित होता है। उसका इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। जैसे बेटे को अपने पिता पर कभी मान होता था, वैसे ही अब पिता उस पर मान कर सके, ऐसा ही एक पुत्र का व्यवहार होना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 30 अगस्त 2020

पिता-पुत्री का प्यार

 पिता-पुत्री का प्यार

पुत्री या बेटी अपने पिता की बहुत लाडली होती है। पापा और बेटी का रिश्ता दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता होता है। हर पापा के लिए बेटी उसकी जिन्दगी होती है। हर बेटी के लिए उसका पापा उसके लिए दुनिया की सबसे बड़ी हिम्मत और मान होता है। जब तक उसके पापा जीवित रहते हैं, तब तक सब कुछ उसका अपना होता है। बेटी अपने पाप के दम पर ही अपनी हर जिद को पूरा करती है।
             छोटी बेटी जब तुतलाकर बोलती है, तो घर के सभी सदस्यों के साथ उसका पिता भी बहुत हर्षित होता है। जब वह अपने छोटे-छोटे हाथों से पिता के काम करती है, तब वह बेटी पर बलिहारी जाता है। उस समय उसे गर्व होता है, अपनी नन्ही-सी बेटी पर। बेटी जब फुर्सत के पलों में अपने पापा के साथ खेलती है, रूठती है, मानती है, तो तब मानो पिता को स्वर्गिक आनन्द मिल जाता है।
            बेटी को घर का कोई सदस्य यदि कुछ कहता है, तो वह अपने पिता पर गर्व करते हुए एकदम कह उठती है, शाम को पापा को ऑफिस से वापिस घर आने दो फिर बताती हूँ। बेटी अपने घर में माँ की ममता के आँचल की छाया में रहती है, पर उसकी शक्ति पापा के बलबूते पर ही होती है। वह अपने पापा की बस लाडली रानी बिटिया होती है और पाप भी हर समय उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं।
          बेटी को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाने का स्वप्न हर पिता देखता है। इस दायित्व को पिता बहुत प्रसन्नता से वहन करता है। वह अपनी बेटी की हर इच्छा को पूर्ण करने का भरसक प्रयास करता है। वह स्वयं अभावों में जी लेता है, पर अपनी बेटी के सपनों को पूरा करने में जी-जान लगा देता है। अपनी बेटी की हर छोटी-बड़ी सफलता को देखकर पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। 
           पिता अपनी बेटी की आँखों में कभी आँसू नहीं देख सकता। उसके उदास होने पर पिता परेशान हो जाता है। अपनी बेटी के आँखों में आँसू देखकर पिता स्वयं अन्दर से बिखर जाता है। उसके चहकने पर पिता खिल उठता है। पिता और पुत्री का प्यार ही कुछ इस प्रकार का होता है कि किसी को भी ईर्ष्या होने लग जाए। बेटी सारी आयु अपने माता और पिता की चिन्ता से मुक्त नहीं हो पाती। चाहे वह पास रहती हो अथवा दूर, उनके बारे में ही सोचगी रहती है।
            वह पिता स्वयं को इस दुनिया का सबसे अधिक भाग्यशाली इन्सान समझता है, जिसकी बेटी बड़ी होकर अपने पिता की आशानुरूप अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेती है और अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है। उसे ऑफिस जाते देख पिता अपने खुशी के आँसुओं को अपनी आँखों से बाहर नहीं आने देता। बेटी भी इस खुशी को भली भाँति समझती है। बेटी जब अपनी पहली तनख्वाह पिता के हाथ में रखती है, तो उसकी खुशी का पारावार नहीं रहता।
           हमारी भारतीय संस्कृति में बेटी का कन्यादान करना यानी विवाह करना बहुत सौभाग्य माना जाता है। पिता यथाशक्ति अपनी बेटी का विवाह करता है। वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। बेटी की विदाई का पल सबसे कठिन समय होता है। वह बेटी के बचपन से विदाई तक के सभी पलों को याद करके रोता है और बेटी की पीठ थापथपाकर हिम्मत देता है कि बेटा चार दिन बाद तुम्हें लेने आ जाऊँगा। 
          जब तक पिता जीवित रहता है बेटी बड़े हक से मायके में आती है। अपने पापा के दम पर घर में आकर जिद भी कर लेती है। पिता की मृत्यु के पश्चात बेटी हिम्मत हार जाती है। उसका मान-मनौव्वल करने वाला पिता उस घर में नहीं रहता। पिता के रहते जो अधिकार वह मायके घर पर समझती है, वह भाई के होते हुए नहीं रह जाता। चाहे भाई कितना भी अच्छा हो, पर उसे हक से वह कुछ नहीं कह पाती।
           बेटी जिस घर में होती है, वह घर सदा महकता रहता है। उसकी पायल की रुनझुन से वहाँ जीवन्तता रहती है। उसके होने से घर में एक प्रकार का अनुशासन रहता है। पिता-पुत्री का यह रिश्ता किसी अनजानी गहरी डोर से बँधा हुआ होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आयुपर्यन्त पिता अपनी बेटी के विषय में और बेटी अपने पिता के विषय में चिन्तित रहते हैं। दोनों के प्राण एक-दूसरे में बसते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 29 अगस्त 2020

असहायों की सेवा

असहायों की सेवा

किसी दिन-दुखी का सहायक बनना बहुत ही पुण्य का कार्य होता है। स्वार्थवश तो लोग एक-दूर से जुड़ते हैं, परन्तु बिना किसी स्वार्थ के रोगियों, असहायों और अनाथों की सहायता करना, वास्तव में एक महान कार्य कहलाता है। यदि समाज के इस वञ्चित वर्ग को ठुकरा दिया जाएगा, तो फिर कौन इनकी सुध लेगा? कौन इनका सहारा बनेगा? ये प्रश्न मन को मथने के लिए पर्याप्त हैं।
            निम्न श्लोक में महर्षि वेद व्यास महाभारत में कहते हैं-   
एकत: क्रतव: सर्वे सहस्त्रवरदक्षिणा।
अन्यतो रोगभीतानां प्रााणिनां प्रााणरक्षणम्।
अर्थात् यानी एक ओर विधिपूर्वक सब को अच्‍छी दक्षिणा दे करके किया गया यज्ञ कर्म और दूसरी तरफ दुखी और रोग से पीडि़त मनुष्‍य की सेवा करना, ये दोनों कर्म उतने ही पुण्‍यप्रद हैं। 
           महाभारत के इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि यज्ञ करना और दुखियारों की सेवा करना, दोनों की पवित्रता एक बराबर है। ये हमारे शास्‍त्रों ने हमें सिखाया है। किसी रोगी की सेवा करना, जरूरतमन्द की सहायता करना अथवा किसी के प्राण संकट में हों, उसकी मदद करना इत्यादि कार्य करने वाले को उतना ही पुण्य मिलता है, यज्ञ करने से मिलता है। ऐसे कार्य पुण्यकार्य कहलाते हैं।
          इतना सब समझाने पर भी लोग असहायों की सहायता करने से कतराते हैं। प्रायः लोग सोचते हैं कि यह उनका दायित्व नहीं है। पर वे भूल जाते हैं कि बूँद-बूँद से घट भर जाता है। थोड़ा-थोड़ा सहयोग सभी लोग करें तो बहुत कुछ हो सकता है। कई लोगों की जिन्दगी सँवर सकती है। वे योग्य बनकर समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सकते हैं। ऐसे वे समाज के योगदान को कभी नहीं भूलेंगे।
          दीनबन्धु एण्ड्रूज सच्चे अर्थों में गरीब, दुखी और बेसहारा तथा दुर्दशाग्रस्त लोगों के सच्चे मित्र थे। इसीलिए लोग उन्हें दीनबन्धु कहकर पुकारते थे। वे महात्मा गांधी के सहायक भी थे। असहाय भारतीयों के लिए त्याग करने वाले इस विदेशी महान आत्मा को भारत श्रद्धा से नमन करता है । उनके असहाय भारतीयों के लिए किये गए कार्य सचमुच ही महान थे। इनके अतिरिक्त मदर टेरेसा का नाम भी लोग बहुत श्रद्धा से लेते हैं। उन्होंने अनेक अनाथों, दुखियों और असहायों की निस्स्वार्थ सेवा की।
          कई सामाजिक संस्थाएँ इन लोगों की सहायता करती हैं। कुछ गिने चुने लोग भी इस शुभ कार्य हेतु प्रयासरत हैं। परन्तु उनकी गिनती अभी कम है। इन लोगों के लिए अभी बहुत कुछ करना शेष है। इनके उत्थान के लिए सरकारी योजनाएँ तो कई हैं। पर केवल सरकारी सहायता पर निर्भर नहीं रह जा सकता। सरकार के पास बहुत कार्य करने के लिए होते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं को आगे आकर इनके लिए कुछ करना होगा।
           मनुष्य का दुर्भाग्य होता है कि उसे दिन-हीन अवस्था में रहना पड़ता है। उसके पूर्वजन्म कृत कर्म उसकी इस हालत के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनका प्रारब्ध उनका साथ नहीं देता। उन्होंने जैसा किया है, उसका फल ये भोग रहे हैं कहकर हम अपने दायित्व से बच नहीं सकते। उन्होंने तो जो किया, वे उसे भोग रहे हैं परन्तु यदि उनकी इस अवस्था में उनके लिए कुछ भी कर सको, तो हर मनुष्य को योगदान करना चाहिए।
          ईश्वर का एक नाम दीनबन्धु भी है। वह दीनों की हर सम्भव सहायता करता है। उसके बनाए इन जीवों पर जो दया दिखाता है, ईश्वर उनसे प्रसन्न रहता है। वह चाहता है उसके बनाए किसी भी मनुष्य से लोग घृणा न करें बल्कि सहृदयता से पेश आएँ। जैसे वह सबको समान दृष्टि से देखता है, वैसा ही सब अनुसरण करें। इसीलिए वेद व्यास जी ने कहा है कि भरपूर दक्षिणा देकर पूर्ण हुए यज्ञ का जो फल होता है, वही असहायों की सेवा का पुण्य होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

नारी का सम्मान

 नारी का सम्मान

स्त्रियाँ समाज का एक विशिष्ट अंग हैं। वे घर-परिवार की धुरी हैं। उनका सम्मान हर स्थिति में होना चाहिए। किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह उनका तिरस्कार करे अथवा उन्हें अपशब्द कहे। स्त्री और पुरुष गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। उनमें से एक भी यदि बिगड़ जाए, तो गाड़ी ठीक तरह से नहीं चल सकती। इसलिए उन दोनों का समान रूप से चलायमान होना बहुत ही आवश्यक होता है।
           दुर्भाग्यवश मध्यकाल में नारी को पीछे छोड़कर पुरुषवर्ग ने अपना आधिपत्य जमा लिया। वह वर्ग अपने अहं के कारण स्त्री को दोयम दर्जे का समझने लगा। उस समय समाज पुरुष प्रधान समाज बन गया। स्त्री पर मनमाने अत्याचार होने लगे और उसे रूढ़ियों में जकड़ दिया गया। तब यह स्थिति बहुत ही कष्टकारी बन गई थी। समय बीतते कई समाज सुधारकों ने स्त्री के जीवन स्तर को ऊपर उठाने का प्रयास भी किया। अपने इस कार्य में वे काफी हद तक सफल हुए।
          यहाँ 'मनुस्मृति:' के दो श्लोकों को उदधृत करना चाहती हूँ। इन दोनों श्लोकों में भगवान मनु ने स्त्रियों के सम्मान के विषय कहा है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवत:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।।
अर्थात् जिस घर में नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ इनका आदर नही होता, वहाँ पर सभी प्रयोजन निष्फल हो जाते हैं।
                     तथा
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्  न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।
अर्थात् जिस कुल में स्त्रियाँ शोक-संतप्त रहती हैं, उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है या उसकी अवनति होने लगती है । जहाँ स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है।
            यह बात हमारी भारतीय संस्कृति में आदिकाल में ही मनु महाराज ने कही थी कि जिस कुल में स्त्रियाँ पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। जिस घर वा कुल में स्त्रियाँ शोकातुर होकर दुःख प्राप्त करती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है, वहाँ सारे कार्य असफल हो जाते हैं। जिस घर या कुल में स्त्रियाँ आनन्द, उत्साह और प्रसन्नता में भरी हुई रहती हैं, वह कुल सर्वदा उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है।
          स्त्रियों का घर में प्रसन्नचित रहना बहुत आवश्यक है। ये खुश रहती हैं, तो घर में प्रसन्नता का वातावरण रहता है। वहाँ मानो स्वर्ग जैसा माहौल रहता है। वह घर सदा चहकता रहता है। वहाँ रहने वाले सदस्यों को सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। वे अपने कार्यों को ठीक से कर पाते हैं। घर में आने वाले मेहमान भी प्रफुल्लित होकर वहाँ से जाते हैं। घर में यदि कोई अभाव भी हो, तो वह नगण्य हो जाता है।
         जिस घर में स्त्रियाँ उदास या मुरझाई हुई रहती हैं, उस घर में मुर्दनी छाई रहती है। वह घर नरक के समान बन जाता है। उस घर में अजीब-सा वातावरण रहता है। ऐसा घर काटने को दौड़ता है। वहाँ किसी भी सदस्य को ऊर्जा नहीं मिलती, बल्कि वहाँ सदैव नकारात्मक ऊर्जा का वास रहता है। उस घर में आने वाले भी प्रसन्न होकर वहाँ से नहीं जाते। सब कुछ होते हुए भी मानो, कुछ नहीं होता।
            आज स्त्रियों को घर और बाहर दोनों मोर्चों को सम्हालना होता है। वे खिली रहती हैं, तो वे दोनों मोर्चों पर सफल हो जाती है। अन्यथा हर स्थान पर निराश और परेशान रहती हैं। उनके व्यवहार का घर और बच्चों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उनकी खुशी उनके घर को महकाती है और उनकी उदासी उनके घर को बर्बाद कर देती है। इन दोनों का अन्तर घर में प्रवेश करने वालों को सहज ही हो जाता है।
           आज दुनिया के लोगों को स्त्रियों का महत्त्व समझ आ रहा है। स्त्री और पुरुष की समानता के लिए नियम और कानून बनाए जाने लगे हैं। इसके अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों ही एकसमान हैं। उनमें भेदभाव करना अथवा असमानता का व्यवहार करना कानूनन अपराध है। यहाँ स्त्रियों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा गया है। इस कानून का पालन न करने वालों के लिए यहाँ पर सजा का प्रावधान भी रखा गया है।
           अपने आप में यह विधान स्त्रियों के लिए बहुत अच्छा है। मेरे विचार से इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़नी चाहिए। घर, परिवार, समाज के सभी लोगों को मिलकर इस ओर ध्यान देना चाहिए। स्त्रियों पर अत्याचार न हों, उन्हें समाज में यथोचित मान-सम्मान मिलना चाहिए, जिसकी वे अधिकारिणी हैं। स्वस्थ समाज में नारी को उसकी गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

विश्व बन्धुत्व की भावना

  विश्व बन्धुत्व की भावना

भारतीय संस्कृति विश्व बन्धुत्व में विश्वास रखती है। इसका अर्थ यही है कि सारा विश्व अपना घर है। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। संसार के सभी लोग हमारे अपने बन्धुजनों के समान हैं। किसी से कोई वैर नहीं और किसी से कोई द्वेष नहीं। भारत में जो भी प्रार्थना ऋषियों द्वारा की जाती रही है, वह 'सर्वजनहिताय' और 'सर्वजनसुखाय' यानी सभी लोगों के हित के लिए और सभी लोगों के सुख के लिए की जाती रही है।
             निम्न मन्त्र में विश्व बन्धुत्व की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है-
      सर्वे भवन्तु सुखिनः 
               सर्वे सन्तु निरामया:।
        सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा 
               कश्चित् दुखभागभवेत्।।
अर्थात् सभी लोग सुखी रहें, सभी जन रोग रहित हों, सभी मनुष्य अच्छा देखें और किसी को दुख न हो।
          इस मन्त्र में ऋषि केवल अपने, अपने परिवार, गली-मोहल्ले, गाँव, नगर या देश के लिए नहीं, अपितु समस्त संसार के जीवों के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि सारा संसार सुखपूर्वक रहे और रोग से रहित होकर अपना जीवन व्यतीत करे। सब लोग अच्छाई का अनुसरण करें, ताकि उन्हें किसी प्रकार का कोई दुख और परेशानी कभी पीड़ित न कर सके। चारों ओर हमें अच्छाई का ही साम्राज्य दिखाई दे।
           उपनिषद के एक बहुत प्रसिद्ध मन्त्र है- 
   संगच्छध्वं संवध्वं संवो मनांसि जनताम्।
  देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥
अर्थात्‌ हम इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जाएँ।     
          इसका अर्थ है कि प्राचीनकाल से ही यह भावना हम भारतीयों के हृदयों में निवास कर रही है। सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। मनीषियों और तत्त्वचिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानवमात्र या प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है। यहाँ वैयक्तिक-सामाजिक, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय, राजनीतिक-नैतिक, धार्मिक-प्रगतिशील मूल्य विद्यमान हैं। जिन्हें हम एक शब्द में मानवीय मूल्य कह सकते हैं।
            'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' सूत्र के द्वारा भारतीय मनीषियों ने उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया है। उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना निहित है। यह अवधारणा देश और काल की परिधि से बहुत परे की बात है। और यह पारस्परिक सद्भाव, विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी हुई है। 'स्व' और 'पर' के मध्य जो एक खाई है, उसे पाटना सभी का कर्त्तव्य बनता है। इसी प्रकार व्यष्टि को समष्टि में आत्मसात करना आवश्यक हो जाता है।
          'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की इस विशाल भावना का विश्व में किसी से कोई विरोध नहीं है। यह अवधारणा शाश्वत, व्यापक एवं उदार नैतिक मानवीय मूल्यों पर आधारित है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई स्थान नहीं है। इस भावना को अपनाने की अनिवार्य शर्त मात्र सहिष्णुता है। यदि लोग असहिष्णु हो जाएँगे तो सर्वत्र मारकाट मच जाएगी। कोई किसी का चेहरा देखना पसन्द नहीं करेगा।
          भारत में कभी एक महाराजा हुए थे, उनका नाम था रन्तीदेव। वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि न उन्हें राज्य की इच्छा है, न उन्हें स्वर्ग कामना है और न उन्हें मोक्ष की अभिलाषा है। प्रभो आप बस आप इस संसार के सभी प्राणियों के दुःख दूर कर दीजीए। हमारे इस भारत देश में रन्तीदेव जैसे अनेक महापुरुष जन्म लेते रहे हैं । उन्होंने अपने सुख की कोई परवाह नहीं की, अपितु उनकी अनुरक्ती प्रजा के सुखी होने में ही रही है। 
           ऐसे महान व्यक्ति आज भी देखने के लिए मिल जाते हैं, जो विश्व के हित की कामना करते हैं। ऐसे लोग धर्म-जाति, रंग-रूप, अमीर-गरीब, छोटा-बड़े आदि के आधार पर लोगों को नहीं बाँटते। उनके लिए सभी लोग एकसमान हैं। वे ईश्वर की बनाई हुई सम्पूर्ण सृष्टि से यथावत प्यार करते हैं। किसी के प्रति, किसी भी कारण से नफरत का स्थान उनके हृदय में कभी नहीं आता।
            इन मानवीय मूल्यों को बिना किसी पूर्वाग्रह के सच्चे मन से अपनाए बिना ये मानवता, मनुष्य, धर्म और संस्कृति सब अधूरे हो जाते हैं तथा राष्ट्र और विश्व पंगु के समान हो जाते हैं। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, तो हमें विश्वबन्धुत्व की इस सुन्दर भावना को आत्मसात करना होगा। विश्वगुरु कहालाया जाने वाला हमारा भारत देश ही अग्रणी रहकर इस महान परम उदघोष को सत्य कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 26 अगस्त 2020

कठिन कार्य करना

कठिन कार्य करना

असम्भव-सा प्रतीत होने वाला कोई भी कार्य, सामर्थ्यवान के लिए बाएँ हाथ के खेल जैसा होता है। शक्तिशाली व्यक्ति किसी भी साहसिक कार्य को चुटकी बजाते ही सम्पन्न कर देता है। यह उसकी व्यवहार गत कुशलता का प्रमाण होता है। शक्ति का उपयोग वह परोपकार के लिए करता है, तब वह पूजनीय बन जाता है। उसके समक्ष कोई किसी असहाय पर अत्याचार करे, वह किसी भी शर्त पर इसे सहन नहीं कर सकता।
              'महाभारत' के उद्योग पर्व में महर्षि वेद व्यास ने निम्न श्लोक में बताया है कि तीन प्रकार के लोगों को यह पृथ्वी धन-धान्य देती है-
सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रय:।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम्।।
अर्थात् इस धरती पर तीन तरह के व्यक्ति सुवर्ण पुष्पों को चुनते हैं - शूरवीर, विद्वान और शक्ति को सेवार्थ लगाने वाले।
          महर्षि वेद व्यास समझाते हैं कि कठिन से कठिन कार्य करने वाले यानी  सुवर्ण पुष्प जो आम इन्सान की पहुँच से बहुत दूर होते हैं, उनको चुनने वाले विरले ही लोग होते हैं। यदि हर किसी को वे फूल सरलता से प्राप्त हो जाएँ, तो उनका मूल्य ही नहीं रह जाएगा। हम सब लोगों ने तो शायद उनके विषय में केवल किस्से कहानियों में ही पढ़ा है, उन्हें कभी देखा नहीं है। हम सब उनसे अनजान हैं।
           जो शूरवीर व्यक्ति हैं वे अपने शौर्य को कार्यान्वित करते हैं। उनकी वीरता देश, धर्म, घर-परिवार और समाज के लिए होती है। समय आने पर अपने इस दायित्व से वे मुँह नहीं मोड़ते, बल्कि डटकर सामना करते है। ऐसे लोग देश और समाज के लिए रत्न होते हैं। लोग आवश्यकता पड़ने पर इनकी ओर बड़ी आशा से देखते हैं। ये लोग भी उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरकर दिखाते हैं।
             विद्वान अपने ज्ञान को कार्य के रूप में परिवर्तित करते हैं। वे अपने ज्ञान के बल पर बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। उनके ज्ञान की परीक्षा यही होती है कि वे अपने ज्ञान का उपयोग समाज के हितार्थ करें। अनावश्यक वाद-वितण्डा नहीं करें। तभी उनके ज्ञान की सार्थकता होती है। यदि वे अपने ज्ञान से लोगों को विपरीत दिशा देते हैं, तो उनका ज्ञान निरर्थक हो जाता है। बहुत कठिनता से अर्जित किए गए ज्ञान का जीवन में क्रियान्वयन ही उसकी वास्तविक कसौटी होती है, जिसमें उनको खरा उतरना होता है।
          अपनी शक्ति को जो मनुष्य सेवार्थ लगाते हैं, वे उसका सदुपयोग करते हैं। उनकी शक्ति का उपयोग परोपकार के लिए करते हैं। अपनी शक्ति का प्रयोग वे दूसरों को सताने के लिए नहीं करते। असहायों और निर्बलों के सहायक बनकर वे समाज के दीनबन्धु बन जाते हैं। उनके जीवन का लक्ष्य यही होता है कि वे अपनी शक्ति का दुरूपयोग नहीं करेंगे। उसका उपयोग वे सदा सकारात्मक कार्यों के लिए करके महान बनते हैं।
           प्रत्येक मनुष्य पर समाज का कुछ ऋण होता है। वह समाज में रहते हुए उससे बहुत कुछ लेता है। इसलिए हर मनुष्य का दायित्व बनता है कि जो भी उसकी सामर्थ्य है, उसके अनुसार वह समाज को बदले में कुछ लौटाए। शूरवीर अपने शौर्य के बल पर देश की सुरक्षा कर सकता है। विद्वान अपने ज्ञान को अन्य लोगों में बाँटने का कार्य सकता है। शक्ति का उपयोग मनुष्य समाज के असहाय वर्ग का उपयोग किया जा सकता है।
           कहने का तात्पर्य यह है कि जो भी मनुष्य के पास है, उसे देश और समाज के हितार्थ उपयोग करना चाहिए। तभी मानव जीवन की सार्थकता होती है। अन्यथा मनुष्य का यह जीवन निष्फल या व्यर्थ हो जाता है। ऐसे सत्कार्य करने वाले ये महा मानव अपने कार्यों से कठिन फलों को चुनते हैं या प्राप्त करते हैं। हर व्यक्ति के वश की बात यह नहीं हो सकती। अतः मनुष्य को सदा जीवन उपयोगी इन बातों को स्मरण रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

मन की दूरी

  मन की दूरी

दिल मिलने की बात बड़ी होती है, समय या स्थान की दूरी मनुष्य के लिए कोई मायने नहीं रखती। अपना प्रियजन कहीं भी रहता हो, वह सदा मनुष्य के हृदय में निवास करता है, मानो वह आसपास ही होता है। इसके विपरीत जिस बन्धु-बान्धव से मनुष्य के मन जुड़ाव न हो और उससे सम्बन्ध न के बराबर हों, तो वह पड़ोस में रहकर भी दूर हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह अजनबी है।
            'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य ने बताया है-
         दूरस्थोऽपि न दूरस्थो 
              यो यस्य मनसि स्थित:। 
         यो यस्य हृदये नास्ति 
              समीपस्थोऽपि दूरत:॥
अर्थात् जो हृदय में बसता है, वह दूर होकर भी दूर नहीं होता और जिससे मन से सम्बन्ध नहीं होता, वह पास होकर भी दूर ही होता है।
          आचार्य चाणक्य का मत है कि सम्बन्धों में दूरी कोई मायने नहीं रखती। असल बात है प्यार की, खिंचाव की या कसक की। व्यक्ति के दिल में जो बसता है, वह भले ही कितनी ही दूरी पर क्यों न रहता हो, वह सदा अपने समीप ही रहता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति बिल्कुल पास रहता हो, पर उससे यदि दिल न मिले, तो वह कितना भी नजदीक क्यों न निवास करता हो, हो दूर ही होता है।
          मनुष्य के अपने बच्चे या प्रियजन आसपास रहते हों या अपने देश में कहीं भी रहते हों अथवा विश्व के किसी भी कोने में बसते हों, वे सदा समीप रहते हुए प्रतीत होते हैं। मनुष्य उनसे फोन पर प्रतिदिन बात कर लेता है। उसे वह दूरी बिल्कुल नहीं खटकती। वह सोचता है कि जब समय और परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी उनके यहाँ जाकर मिल लेंगे अथवा वे मिलने आ जाएँगे। इस तरह वे एक-दूसरे की प्रतीक्षा में समय व्यतीत कर लेते हैं।
          दूसरी ओर जिन बन्धु-बान्धवों से मनुष्य का दिल नहीं मिलता या किसी भी कारण से उनमें परस्पर मनमुटाव हो जाता है, वे यदि अपने से अगले घर में भी रहते हों, तो उनसे सम्पर्क नहीं साधा जाता। उन्हें बुलाना तो दूर की बात है, वे लोग यदि पास से भी निकल जाएँ, तो मनुष्य मुँह फेर लेता है। मनुष्य उन लोगों का चेहरा तक नहीं देखना चाहता। सुख-दुख में यदि उनका आमना-सामना हो जाए, तो वे कन्नी काट लेते हैं।
           सदा यही प्रयास करना चाहिए कि  रिश्तों को सहेजकर रखा जाए। वे सदा ही अपने मन के समीप रहें। उनमें दूरी न होने पाए, बल्कि इतना आकर्षण होना चाहिए कि एक-दूसरे के बिना रहने की वे कल्पना ही न कर सकें। यदि कोई छोटी-मोटी बात हो जाए, तो उसे अनदेखा कर देना चाहिए। इससे मन में आने वाला सारा कालुष्य मिट जाता है। रिश्ते फिर से पहले की तरह सहज हो जाते हैं।
         जब सभी बन्धुजन दूध में शक्कर की भाँति मिलजुलकर रहेंगे, तब वे किसी के दिल से नहीं उतर सकेंगे। मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों से ही सुशोभित होता है। वे तो मानो उसकी भुजाएँ होती हैं। वे सभी एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी होते हैं। अपनों के होते हुए कष्ट-परेशानियों के पल पलक झपकते दूर हो जाते हैं। मनुष्य की खुशियाँ मानो कई गुणा बढ़कर सुखदायी हो जाती हैं।
          आपसी सम्बन्धों में कटुता अथवा खटास न आने पाए, इसके लिए सभी बन्धु-बान्धवों को मिलकर प्रयास करना चाहिए। समय का कोई भरोसा नहीं है, वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। कौन इस संसार को पहले अलविदा कह जाएगा, किसी को कुछ पता नहीं। बाद में पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं होता। समय रहते सबको चेत जाना चाहिए। विचार भेद हों तो कोई बात नहीं, पर मन भेद नहीं होना चाहिए। सभी सम्बन्धों में दूरी रुकावट न बनने पाए, इससे बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 24 अगस्त 2020

शुभाशुभ कर्मों का फल

शुभाशुभ कर्मों का फल

मनुष्यता यही सिखाती है कि जहाँ तक हो सके दूसरों के दुख बाँटने चाहिए। इससे सामने वाले का दुख कम तो नहीं होता, पर उसका मन हल्का अवश्य हो जाता है। मनुष्य के दुख का बोझ कम होने से उसे उस समय सुखद अनुभूति होती है। परन्तु यदि मनुष्य भूख से व्याकुल हो रहा हो, तो उस भूख को कोई भी व्यक्ति बाँटकर उसका कष्ट कम नहीं कर सकता। कोरी सान्त्वना देने से भी उसकी वह पीड़ा कम नहीं हो पाती।
          किसी कवि ने उदाहरण सहित इसे समझाने का प्रयास किया है-
         मस्तकन्यस्तभारादे:   
                  दु:खमन्यैर्निवार्यते।
         क्षुदादिकृतदु:खं तु 
               विना स्वेन न केनचित्॥ 
अर्थात् सिर पर रखे हुए बोझ के दुःख को, अन्य लोग उस भार को बाँटकर उसके दुःख  का निवारण कर सकते हैं। लेकिन उसके भूख-प्यास के दुःख को दूसरों के खाने-पीने से नहीं मिटाया जा सकता, वह तो स्वयं को ही मिटानी होती है। 
           मनुष्य के वस्तुजन्य बोझ के दुख को दूसरे लोग बाँटकर दूर कर सकते हैं। पर इसके विपरीत यदि मनुष्य भूख और प्यास से व्याकुल है, तो जब तक वह स्वयं खाना नहीं खाएगा और पानी नहीं पिएगा, तब तक उन्हें मिटाया नहीं जा सकता। इस भार को कोई नहीं बाँट सकता। मनुष्य स्वयं ही इस दुख को समाप्त कर सकता है, अन्य कोई नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपने दुखों-परेशानियों को स्वयं ही भोगकर दूर करना होता है।
           वेदान्त शास्त्र 'विवेकचूड़ामणि:' में आदि शंकराचार्य ने कहा है-
          पथ्यमौषधसेवा च 
                 क्रियते येन रोगिणा। 
          आरोग्यसिद्धिर्दृष्टाऽस्य 
                   नान्यानुष्ठितकर्मणा॥ 
अर्थात् जो रोगी पथ्य और औषधि का सेवन करता है, उसी को ही आरोग्य की सिद्धि प्राप्त होती है, किसी और के द्वारा किए गए पथ्य कर्म से कोई दूसरा व्यक्ति नीरोग नहीं होता।
          इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति रोगी है, उसे ही पथ्य यानी जो भोजन उसके लिये लाभदायक हो, वही खाना चाहिए। इसी प्रकार यदि वह डॉक्टर द्वारा बताई गई औषधी का नियमित सेवन करता है, तभी वह स्वस्थ हो सकता है। इसके विपरीत यदि रोगी के स्थान पर दवाई कोई अन्य खा ले या परहेज कोई और कर ले और वह स्वस्थ हो जाए, ऐसा सम्भव नहीं हो सकता। 
          इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि जब तक मनुष्य स्वयं पुरुषार्थ न करे, तब तक वह सफल नहीं हो सकता। कोई दूसरा चाहकर भी उसके लिए साघ्य नहीं बन सकता। अपने हिस्से का कार्य मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है। यदि वह किसी सहारे की तलाश कर रहा है, तो यह उसका भ्रम है। कोई बन्धु-बान्धव अथवा कोई सहारा मनुष्य की सहायता नहीं कर सकता। यदि कोई ऐसा आश्वासन देता है, तो वह छल करता है।
         मनुष्य जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, उनका मीठा-कड़वा फल वही भोगता है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि अशुभ कार्य मनुष्य स्वयं करे और उनका दुखदायी फल कोई और चखे। इसी प्रकार शुभ कर्म कोई अन्य मनुष्य करे, पर उनका मधुर फल अन्य कोई व्यक्ति खा ले। ये तो नासमझ लोगों की बातें हैं। मनीषी लोग समय-समय पर मनुष्य को जगाने के प्रयास में दिन-रात लगे रहते हैं।
         अतः परमार्थ हेतु पुरुषार्थ व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है। यानी ब्रह्मज्ञान पाने के लिए किसी मनुष्य को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है। जो मनुष्य इस सत्य से अनजान रहते हैं, वे चौरासी लाख योनियों के मकड़जाल में जन्म-जन्मान्तरों तक उलझे रहते हैं। इसके विपरीत जो इस सार को समझकर उसका अनुसरण कर लेते हैं, वे इहलोक और परलोक दोनों को सँवार लेते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 23 अगस्त 2020

मोक्ष प्राप्ति का प्रयास

मोक्ष प्राप्ति का प्रयास

जब तक मनुष्य स्वयं प्रयास नहीं करता, वह अपनी मनचाही सफलता कदापि नहीं प्राप्त कर सकता। फिर चाहे मनुष्य की इहलौकिक कामना पूर्ति की चाहत हो या फिर पारलौकिक कामना की बात हो। वास्तव में जीवन की सच्चाई भी यही है कि जब तक इन्सान अपने हाथ-पैर नहीं चलाता, तब तक उसे बैठे-बिठाए कुछ भी नहीं मिल सकता। अतः कुछ भी पाने के लिए कष्ट तो उठाना पड़ता है।
             इसीलिए हमारे सयाने कहते हैं- 
   'आप न मरिए ते स्वर्ग कित्थे जाइए?'
अर्थात् जब तक मनुष्य स्वयं मृत्यु का वरण नहीं करेगा यानी मरेगा नहीं, तब तक वह स्वर्ग में नहीं जा सकता। स्वर्ग को पाना है, तो पहले मरना आवश्यक है। सशरीर कोई भी मनुष्य स्वर्ग में नहीं जा सकता, अन्यथा उसे त्रिशंकु बनना पड़ता है। यदि मनुष्य कुछ भी प्राप्त करना चहरा है, तो उसे पुरुषार्थ करना पड़ेगा।
         'विवेकचूड़ामणि:' ग्रन्थ में आदी गुरु शंकराचार्य जी ने की में बताया है-
      वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
             स्वेनैव वेद्यं न तु पण्डितेन।
     चन्द्रस्वरूपं निजचक्षुषैव
            ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम्॥
अर्थात् विवेकी पुरुष को किसी वस्तु का स्वरूप स्वयं अपने ज्ञाननेत्रों से ही जानना चाहिए, किसी अन्य के द्वारा नहीं। चन्द्रमा का स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरों के द्वारा क्या जाना जा सकता है? अर्थात् उसे नहीं जाना सकते।
           चाँद को देखने के लिए स्वयं की आँखों का उपयोग करना पड़ता है। तभी उसके आकार व चाँदनी का आनन्द ले सकते हैं, दूसरों की आँखों के माध्यम से मनुष्य को कुछ पता नहीं चलेगा। ठीक उसी प्रकार ज्ञानवान पुरुष वस्तु स्वरुप ब्रह्मतत्त्व को अपने ज्ञानचक्षुओं से देख सकता है, दूसरों के द्वारा प्रयत्न करने पर वह उस सारतत्त्व को नहीं जान सकता। अतः मोक्ष प्राप्ति का साधन स्वयं को ही करना होता है।
         'पञ्चरात्ररागम:' में कवि ने इसी प्रकार बताया है-
       अविद्याकामकर्मादि-
              पाशबन्धं विमोचितुम्। 
       कः शक्नुयाद्विनात्मानं 
             कल्पकोटिशतैरपि॥ 
अर्थात् जब तक व्यक्ति इस संसाररूपी अविद्या, कामना और कर्मादि के जाल से मुक्त नहीं होगा। तो वह कल्प-कल्पातर तक बन्धनों में फँसा ही रहेगा।
           इस श्लोक के माध्यम से कवि कह रहा है कि मनुष्य को संसारिक अविद्या, कामना और कर्म के बन्धन से मुक्त होना आवश्यक है। विद्या उसे कहते जो मोक्ष का मार्ग दिखाए यानी-
            या विद्या या विमुक्तये।
जिस विद्या या ज्ञान को मनुष्य अर्जित करता है, उसे अविद्या कहते हैं। वह मनुष्य को भौतिक ज्ञान से समृद्ध करती है। वह आत्मोन्नति का मार्ग नहीं दिखाती। इस अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में किया जाता है। इसके पर्याय भ्रम तथा अज्ञान कहे जाते हैं। 
          इस अवस्था को चेतन अवस्था कहा जा सकता है, परन्तु जिस वस्तु का भान इस स्थिति में होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक मनुष्य अहंकारवश अविद्या से ग्रस्त होकर रहता है। इस कारण वह इस जगत को ही सत्य मान लेता है। यानी मनुष्य विद्या और अविद्या में भेद नहीं कर सकता। इसीलिए वह वस्तु के वास्तविक स्वरूप, ब्रह्म अथवा आत्मा को अनुभव नहीं कर सकता। 
           भौतिक कामनाओं की पूर्ति करने में मनुष्य इतना उलझा रहता है कि वह वास्तविकता को भूल जाता है। उसे स्मरण ही नहीं रहता कि सारी भौतिक वस्तुएँ उसकी मृत्य के उपरान्त इसी संसार में रह जाती हैं, उसके साथ परलोक में नहीं जा सकतीं। यही उसकी अज्ञानता का मूल कारण होता है। इस मोह माया के बन्धन में बँधा मनुष्य पारलौकिक उन्नति के विषय से परे होता जाता है।
          मनुष्य को वही कर्म करने चाहिए जो उसके बन्धन का कारण न बनें। वह है कि अपनी अज्ञता के कारण शुभकर्मों को करने से चूक जाता है। अशुभ कर्म उसे बार-बार ललचाते हैं, अपने जाल में फँसाते हैं। वह उनके जाल में उलझकर रह जाता है। उनसे छूटने के लिए वह छटपटाता रहता है। शुभ कर्मों का मार्ग कठिन और लम्बा होता है, पर अन्ततः सुखदायी होता है। यही मनुष्य को सदा स्मरण रखना चाहिए।
           जिस व्यक्ति को आत्म कल्याण की कामना है, उसे उसके लिए खोज करनी अनिवार्य है। जब तक वह स्वयं मोक्ष हेतु प्रयत्न नहीं करेगा, उसे नहीं प्राप्त कर लेगा, तब तक वह मनुष्य चौरासी लाख योनियों के चक्र में फँसा हुआ जन्म-जन्मान्तरों तक इस संसार में भटकता रहता है। 
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 22 अगस्त 2020

सरलता से जीवन यापन

 सरलता से जीवन यापन

जन्म लिया है तो मनुष्य को जीवन यापन भी करना ही पड़ता है। उसके लिए उसे अनेक तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। सबसे पहले तो पढ़-लिखकर योग्य बनना पड़ता है। तब जाकर मनुष्य अच्छी नौकरी या व्यवसाय कर सकता है। जो बच्चे पढ़ने की आयु में मौज-मस्ती करते हैं, उन्हें उतनी अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती। इनके अतिरिक्त जो किसी भी कारण से बिल्कुल नहीं पढ़ पाते, वे प्रायः लेबर वर्क करते हैं। बहुत कठिनाई से अपनी गुजर-बसर करने लायक धन जुटा पाते हैं।
          निम्न श्लोक में कवि ने इस विषय में बताया है-
बुद्धि: प्रभाव: तेजश्च  सत्वमुत्थानमेव।
व्यवसायश्च यस्यास्ति तस्य वृत्तिभयं कुत:।।
अर्थात् जिसके पास बुद्धि, प्रभुत्व, तेज, सत्ता, उत्साह और कार्य करने की इच्छा हो, उसे जीवन-यापन करने के लिए चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं।
           इस श्लोक के कहने का अर्थ है कि जिस मनुष्य की बुद्धि तीव्र है, उसे ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई नहीं आती। वह विद्याध्ययन करके उच्च पद को प्राप्त करता है। समाज में सम्मननीय स्थान का अधिकारी बन जाता है। उसके भाग्य से कुछ लोग रश्क करते हैं। बुद्धि के बल पर मनुष्य जिस भी कार्य में हाथ डालता है, उसे सरलता से पूर्ण करके अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है। 
           जिस व्यक्ति का समाज में प्रभुत्व होता है, उसे किसी भी कार्य को करवाने में सफलता मिलती है। लोग अपने कार्यों के लिए प्रभावशाली व्यक्ति का सहारा खोजते हैं। जो मनुष्य अपने पास आए हुए इन्सान के कार्य सहजता से करवा सकता है, तो अपने लिए परेशान होने की आवश्यकता उसे नहीं होती। ऐसा व्यक्ति कभी भूखा नहीं रह सकता। उसे अपना जीवन यापन करने में सुगमता होती है।
         तेजस्वी व्यक्ति अपने तेज से सबको प्रभावित कर लेता है। अपने इस गुण के कारण उसे अपना जीवन यापन करने की समस्या कदापि नहीं आती। वह जिस कार्यक्षेत्र में अपना कदम रखता है, उसके लिए वहाँ के दरवाजे खुल जाते हैं। वह अपनी तेजस्विता के कारण हर क्षेत्र में विजयी रहता है। उसे रेस में पछाड़ना दूसरों के लिए दूर की कौड़ी होता है यानी कठिन कार्य होता है।
            सत्ता पर विराजमान लोग अपना जीवन यापन सुविधापूर्वक कर लेते हैं। सत्ता में रहते हुए उनके सम्बन्ध बहुत लोगों से बन जाते हैं। उनकी जान पहचान का दायरा नित्य-प्रति बढ़ता रहता है। वे दूसरों के कार्य भी आसानी से करवा लेते हैं, तो उनके कार्य सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं आ पाती। सत्ता में रहने के अन्य पार्टियों के साथ उनके मधुर सम्बन्ध बन जाते हैं। यदि वे सत्ता में न भी रह पाएँ, तो भी उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ता।
          उत्साह मनुष्य का ऐसा गुण है, जो उसे सदा कर्मयोगी बनाए रखता है। ऐसा मनुष्य कोई भी कार्य उत्साहपूर्वक करता है, जिससे उसे सफलता मिल जाती है। ऐसा व्यक्ति कभी निराश नहीं होता। जो भी छोटा या बड़ा काम उसे सौंपा जाए, उसे उत्साह से करता है। तभी वह मनुष्य अच्छे परिणाम लेकर आता है। ऐसा सफल व्यक्ति निस्सन्देह हर स्थान पर हाथों हाथ ले लिया जाता है।
           कार्य करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति कहीं भी मार नहीं खाता। उसे कैसा भी कठिन या सरल कार्य दे दिया जाए, वह उसे पूर्ण कारके ही चैन लेता है। ऐसा मनुष्य किसी काम को छोटा या बड़ा नहीं मानता। वह बस अपनी ईमानदारी से कार्य को करता रहता है। वह किसी भी कार्य को करने से हिचकिचाता नहीं है, इसलिए उस मनुष्य को जीवन यापन करने में कठिनाई नहीं आती।
            इस प्रकार बुद्धि की पखरता, प्रभुता, तेजस्विता, सत्ता में भागीदारी, उत्साही और कार्य करने की इच्छा रखने वाले मनुष्यों के समक्ष कभी जीवन यापन करने की समस्या नहीं आती। ये लोग अपने जीवन की नैया को सरलता से पार लगा लेते हैं। मनुष्य को स्वयं पर विश्वास होना चाहिए, तब वह संसार में कुछ भी कर सकने में समर्थ होता है। उसे पीछे मुड़कर देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

संयम से जीत

संयम से जीत

मनुष्य के शरीर में श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं। उसकी श्रवण इन्द्रिय (कान) शब्द का ग्रहण करती है, उसकी त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है, उसके चक्षु (आँखें) सौन्दर्य का पान करते हैं, उसकी रसना (जिह्वा) रस का आस्वादन करती है और उसका घ्राण (नासिका) गन्ध को ग्रहण करता है। इस प्रकार मनुष्य इन पाँचों इन्द्रियों से विभिन्न कार्य करता हुआ जीवन के आनन्द का उपभोग करता है।
           मनुष्य को इन इन्द्रियों के वश में नहीं रहना चाहिए। उसे यथासम्भव इन इन्द्रियों को नियन्त्रित करना चाहिए। उसे प्रयास यही करना चाहिए कि वह इन विषय-वासनाओं के जाल में न फँसे, बल्कि इन सबसे दूरी बनाकर रहे। पाँच विषयों यानी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में जब मनुष्य आसक्त हो जाता है अथवा दुनिया को भूलकर उनमें ही उलझा रहता है, तब उसका विनाश निश्चित हो जाता है। तब कोई उसे बचा नहीं सकता।
            आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित 'विवेकचूड़ामणि:' में इस विषय को उदाहरण सहित समझाया है-
          शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च
                पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः।
         कुरंगमातंगपतंगमीन- 
                भृंगा नरः पञ्चभिरञ्चितः।।
अर्थात् हिरण शब्द, हाथी स्पर्श, पतंगा रूप, मछली रस और भँवरा सुगन्ध के वशीभूत होकर अपनी-अपनी जान गवाँ बैठते हैं। इन पाँचों की तो पाँच विषयों में से एक-एक विषय में अनुरक्ति के कारण यह दशा होती है। मनुष्य को तो पाँचों विषयों ने जकड़ रखा है। फिर वह मृत्यु से कैसे बच सकता है? अर्थात् पाँचों विषयों में आसक्त मनुष्य मृत्य से किसी तरह नहीं बच सकता।
           हिरण शिकारी की बाँसुरी के शब्द को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाता है। वह अपनी सुधबुध खो बैठता है। तब शिकारी उसका शिकार कर लेता है। हाथी का शिकार करने के लिए मादा हथिनी की मूर्ति गड्ढे में बनाकर खड़ी कर दी जाती है। फिर उसके स्पर्शसुख के कारण उसका शिकार किया जाता है। पतंगा दीपक की लौ पर मुग्ध होकर उस पर मण्डराता है, अन्ततः उसी में जलकर मर जाता है। 
        मछली रसना के चक्कर में काँटे में फँसे चारे को खाने का प्रयास करती है, तब वह काँटे में फँस जाती है और अपनी जान गँवा बैठती है। भँवरा प्रातःकालीन खिले हुए कमल के फूल की सुगन्ध में मदहोश हो जाता है। सायंकाल जब को सूर्यास्त होता है, तब वह कमल का फूल बन्द हो जाता है और उसमें बन्द होकर उस भँवरे की मृत्यु हो जाती है।
          इस प्रकार हिरण, हाथी, पतंगा, मछली और भँवरा पाँचों अपनी एक इन्द्रिय की वासना के वश में होकर या उलझकर अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। अब विचार यह करना है कि जो एकसाथ इन पाँचों इन्द्रियों के दास बन जाते हैं, उनकी क्या स्थिति होने वाली है? इनके वश में होने वाले मनुष्य की दुर्दशा तो निश्चित होनी ही है। उसे कोई नहीं बचा सकता। केवल वह स्वयं ही है, जो इनसे अपनी रक्षा करने में समर्थ है।
           इस श्लोक में शंकराचार्य जी ने मनुष्य को ज्ञान देते हुए समझाया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में से एक भी विषय में जब जीव जकड़ा जाता है, तब वह अपने अमूल्य प्राणों से हाथ धो बैठता हैं। इन विषयों की पकड़ बहुत ही मजबूत होती है। इन विषयों में फँसने के बाद जीव बस छटपटाता रह जाता है, उससे बचने का वह कोई उपाय नहीं कर पाता। फिर वही क्षणिक सुख उसकी मृत्यु का कारण बन जाता है।
           इसलिए ऋषि-मुनि मनुष्य को आत्मसंयम का पाठ पढ़ाते हैं। उनके अनुसार इस संसार में केवल एक मनुष्य ही है, जो अपनी इन इन्द्रियों को नियन्त्रित करके जितेन्द्रिय बन सकता है। तब मनुष्य उनके पीछे नहीं भागता, बल्कि ये सभी इन्द्रियाँ उसकी इच्छानुसार कार्य करती है। तब मनुष्य इनके कारण दुखी और परेशान नहीं होता। ऐसा संयमी मनुष्य ही इहलोक और परलोक में सभी प्रकार के सुखों को प्राप्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 19 अगस्त 2020

अपना-अपना दृष्टिकोण

  अपना अपना दृष्टिकोण

हर मनुष्य का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है। इसी प्रकार सुन्दरता के भी सबके पैमाने अलग-अलग हैं। यह आवश्यक नहीं कि एज व्यक्ति की नजर में जो सुन्दर है, वह दूसरे को भी उतना ही आकर्षित कर सके। केवल गौरा रंग सुन्दरता का कारण है, ऐसा नहीं है। काले रंग का व्यक्ति सुन्दर नहीं हो सकता, ऐसा भी नहीं है। यह सब व्यक्ति विशेष के सोचने और समझने का तरीका है।
            कुछ लोग शारीरिक सौन्दर्य को अधिक महत्त्व देते हैं। वे प्रथम दृष्टया व्यक्ति के रंग-रूप को ही देखते हैं। वे मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव को पीछे रखते हैं। सुन्दरता के पीछे भागने वालों को हो सकता है कि आने वाले समय में पछताना पड़ सकता है। चमड़ी का रंग बीमारी या आयु के साथ परिवर्तित हो सकता है। स्वभाव से यदि वह व्यक्ति कर्कश हो, उसकी आदतें उनके अनुकूल न हों, तो वह उनको अच्छा नहीं लगता। 
           ऐसे लोग बाद में पछताते हैं कि गोरी चमड़ी ने या सुन्दरता ने उन्हें धोखा दे दिया, कहीं का नहीं छोड़ा। उस समय वही बात हो जाती है- 'न उगलते बने और न निगलते बने।' यदि इन लोगों ने शारीरिक सुन्दरता के साथ उस व्यक्ति के आन्तरिक सौन्दर्य को भी परख लिया होता, तो अब यह स्थिति न बनती। इसीलिए सयाने कहता हैं- 'अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।'
            इनके विपरीत कुछ लोग मनुष्य की आन्तरिक सुन्दरता को परखते हैं। वे शारीरिक सौन्दर्य को अधिक महत्त्व नहीं देते। उनका मानना है कि मनुष्य में गुण होने चाहिए। वह अपने गुणों से पहचाना जाता है। यदि उसमें गुण होंगे तो वह सबके हृदयों पर राज कर लेगा। बालक अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था, परन्तु विद्वत्ता के कारण बड़े बड़े विद्वान उसका सम्मान करते थे।
        किसी कवि ने इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं-
        किमपि अस्ति स्वभावेन 
               सुन्दरं वा अप्यसुन्दरम्।
        यदेव रोचते यस्मै 
              भवेत्तत् तस्य सुन्दरम्॥
अर्थात् सुन्दरता और कुरूपता स्वभाव से किस में होती है अर्थात् किसी में नहीं होती। जिसे जो रुचिकर होता है, वही उसके लिए सुन्दर होता है।
          कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि सुन्दरता किसी वस्तु या व्यक्ति में नहीं होती कि जिसे हम देख रहे हैं, अपितु किसी मनुष्य विशेष के दृष्टिकोण में होती है। उदाहरणार्थ एक गन्दा, मैला-कुचैला बालक जिसकी नाक बह रही है, वह भी अपनी माँ को संसार का सबसे अच्छा बच्चा दिखाई देता है। वही उसे अपना राजा बेटा लगता है। उसे दुनिया की सुन्दरता से कोई लेना देना नहीं होता।
          जिन देशों की जलवायु ठण्डी होती है, वहाँ पर लोगों का रंग गोरा होता है। अतः वहाँ की सुन्दरता का पैमाना अलग होता है। इसके विपरीत जिन देशों में गर्मी अधिक होती है, वहाँ के लोगों का रंग काला होता है। इसलिए वहाँ के लिए सुन्दरता का मापदण्ड कुछ अलग होता है। कुछ देशों में मौसम के प्रभाव से लोगों का रंग गेहुआँ होता है। वहाँ सुन्दरता की कसौटी अलग ही होती है। 
            यानी देश और परिस्थितियों के अनुसार ही मनुष्य का रंग-रूप और उसकी सुन्दरता परखी जाती है। पूरे विश्व में जब एक ही रंग के लोग नहीं हो सकते, तब सब लोगों को एक ही तराजू से नहीं तौला जा सकता। इसमें विविधता तो रहेगी ही और हमें उसका सम्मान करना चाहिए। जो व्यक्ति इन सब बातों का ध्यान नहीं रखना चाहता अन्ततः उसे मुँह की खानी पड़ जाती है।
          इस चर्चा का सार यही निकलता है कि मनुष्य को व्यर्थ ही पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए। जिन्हें हम भगवान कहते हैं, वे भगवान राम और भगवान कृष्ण भी काले थे। सभी मनुष्य उस ईश्वर के बनाए हुए हैं। सबको उसी मालिक ने रंग-रूप से सजाया है। अतः मनुष्य को कोई भी अधिकार नहीं बनता कि वह उसकी बनाई सृष्टि में दोष निकाले अथवा लोगों की आलोचना करता फिरे।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

मेरा कुछ नहीं

 मेरा कुछ नही

मनुष्य को मेरा और तेरा आदि कुछ नहीं करना चाहिए। मनुष्य का इस संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह शरीर जिसे हर समय सजाता रहता है, वह भी तो उसका अपना नहीं है। जिस धन को कमाने के लिए अपना ऐशो आराम छोड़कर वह सारा समय पागल हुआ रहता है, वह भी उसके साथ अगले जन्म में नहीं जाता बल्कि इसी संसार मे रह जाता है। उसके माता-पिता, पति या पत्नी, बच्चे, बन्धु-बान्धव तक उसका साथ छोड़ देते हैं।
           मनुष्य इस असर संसार में मात्र एक भोक्ता है। जो कुछ भी यहाँ दृश्य या अदृश्य दिखाई देता है, वह सब परमपिता परमात्मा की कृपा का ही परिणाम है। वही इस सृष्टि की रचना करने वाला है, पालन करने वाला है और संहार करने वाला है। मनुष्य तो केवल मैं मैं करके व्यर्थ अहंकार करता रहता है। वह मालिक मनुष्य के झूठे दम्भ को देखकर बस मुस्कुराता रहता है और उसके सुधार जाने की प्रतीक्षा करता रहता है।
         'महाभारत' के शान्तिपर्व में महर्षि वेद व्यास कहते हैं-
द्वयक्षरस् तु भवेत् मृत्युः 
           त्रयक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
मम इति च भवेत् मॄत्युः 
           न मम इति च शाश्वतम्॥
अर्थात् मृत्यु दो अक्षरों का शब्द है जिससे अन्त होता है और ब्रह्म तीन अक्षरों का शब्द है जो शाश्वत है। इसी प्रकार 'मम' यानी मेरा मृत्यु की ओर ले जाता है और 'न मम' यानी मेरा नहीं शाश्वतता की ओर ले जाता है।
         इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि इस नश्वर संसार में मनुष्य का अपना कुछ भी नहीं है अर्थात् मैं यानी मनुष्य किसी वस्तु का स्वामी या सृजनकर्ता नहीं है अपितु अपने आधिपत्य में आने वाली उन सभी वस्तुओं का मात्र उपभोक्ता या देखभाल करने वाला रक्षक है। यही विचार मनुष्य को अपने मन में रखकर जीवन जीना चाहिए। इस प्रकार आचरण करने से मनुष्य स्वतः ही ब्रह्म तक पहुँचकर परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
           मनुष्य का जो भी है, उसका स्वामी भी ईश्वर है। वह ईश्वर मनुष्य को दी हुई कोई भी वस्तु वापिस ले लेता है, तो उसे बहुत कष्ट होता है। मनुष्य तो हर वस्तु पर अपने एकाधिकार समझता है। वह अपनी वस्तु किसी को नही देना चाहता, यदि कोई लेना चाहें, तो वह चीख-पुकार करता है। वह रोता है और चिल्लाता है। वह सहन नहीं कर सकता कि उसकी वस्तु कोई ले ले, फिर लेने वाला वह मालिक स्वयं ही क्यों न हो।
         जब मनुष्य में अपरिग्रह का भाव आ जाता है, तब वह अपने कर्त्तापन के भाव को छोड़कर, सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देता है, तो उस समय उसे कष्ट नहीं होता। जब वह स्वयं को कर्त्ता मानता ही नहीं तब उसमें छिपा हुआ अहं का भाव तिरोहित होने लगता है। वह समझ जाता है कि उसके पास जो भी वस्तु है, वह उस प्रभु की ही देन है। वह जब चाहे अपनी दी हुई वस्तु को लौटा सकता है। 
           इस भौतिक जगत में मनुष्यों का भी यही व्यवहार होता है। वे एक-दूसरे को वस्तुएँ देते रहते हैं और लेते रहते हैं। देते समय उन्हें दुख नहीं होता कि वस्तु उनके पास से जा रही है और जब वह वस्तु उन्हें वापिस मिल जाती है, वे उछलते नहीं। उन्हें पता होता है कि दी हुई वस्तु एक न एक दिन वापिस आनी ही है। इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में उनका व्यवहार एक समान रहता है।
           जो लोग मेरे-तेरे के इस मोह-माया के जाल में फँसे रहते हैं, वे परेशान होते रहते हैं। उनके कर्मों के अनुसार ईश्वर यदि उनसे उनकी कोई प्रिय वस्तु ले ले, तो वे चीखते-चिल्लाते हैं। ये मनुष्य उस ईश्वर को लानत-मलानत देते हैं। उसे दोष देते हुए नहीं थकते। अपने गिरेबान में झाँककर वे नहीं देखते। ऐसे लोगों का प्रतिशत दुनिया में अधिक है। वे समझना ही नहीं चाहते कि उनके पूर्वजन्मों के कृत कर्मों का फल उन्हें मिल रहा है।
            मनीषी इसीलिए समझाते हैं कि मनुष्य को मैं और मेरा करने से को बचना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि जो भी अच्छा या बुरा उसके साथ हो रहा है, वह उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों का ही फल है। जब मनुष्य इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, तो उस समय वह सुख-दुख आदि द्वन्द्वों के फेर से मुक्त होकर स्थितप्रज्ञ बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 17 अगस्त 2020

अपनों का साथ

अपनों का साथ

स्वजन अल्पज्ञ हों या गुणी, उनका साथ सदा सुखदायक होता है। जब कभी कोई आवश्यकता पड़ती है, तब अपने लोग ही काम आते हैं, वे ही सहारा देते हैं, पराए नहीं। पूरा शहर बसे, पर साथ अपनों का ही मिलता है, पूरे शहर का नहीं। अतः स्वजनों का साथ मनुष्य को कभी भी और किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ना चाहिए। उन अपने बन्धु-बान्धवों पर मनुष्य को मान करना चाहिए। 
           निम्न श्लोक में किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
गुणवान् वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा।
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान् य: पर: पर एव च।।
अर्थात् गुणीजनों से कम गुणों वाले स्वजन बेहतर हैं क्योंकि जरूरत पड़ने पर अपने निर्गुणी नजदीकी स्वजन ही श्रेयस्कर होते हैं या वही काम आते हैं, अनजान गुणी काम नहीं। अपना अपना ही होता है और पराया पराया ही होता है।
         इस श्लोक के कहने का अर्थ यही है कि गुणवान पराए से हजार गुणा श्रेष्ठ अपना बन्धु ही होता है, चाहे वह गुणहीन ही है। अपना यदि गुणहीन भी होगा तो हमारे हित के विषय में ही चिन्तन करेगा, परन्तु पराया यदि गुणवान् भी होगा तो अपने गुणों का प्रयोग हमारे अहित के लिए ही करेगा। इसलिए अपनों बन्धुजनों का साथ छोड़कर परायों से घुल-मिल जाना बुद्धिमानी नहीं कहलाती।
           सयाने कहते हैं- 'अपना यदि मरेगा तो छाया हैं फेंकेगा।' कहने का तात्पर्य यह है कि अपने किसी सम्बन्धी से यदि शत्रुता हो जाए और किसी बात पर कहा-सुनी हो जाए। तब मारपीट को नौबत आ जाए, तो वह धूप में नहीं छाया में फेंकेगा। वहाँ भी वह अपने सम्बन्ध को स्मरण करके, दया ही दिखाएगा। इसलिए सदा इस बात को स्मरण रखना चाहिए और सम्बन्धों में दरार नहीं आने देनी चाहिए।
          मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों से ही सुशोभित होता है। उनके बिना वह अकेला पड़ जाता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है। जिनते अधिक उसके सम्बन्धी होंगे, उतना ही मनुष्य स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। वे उसके सुख-दुख के साथी होता हैं। उन्हें उसकी भुजाएँ भी कहा जा सकता है। उन्हें खोने की मनुष्य को सोचना ही नहीं चाहिए।
          अपनों को खोकर या फिर उनसे बिछुड़कर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। यह मनुष्य की गलतफहमी होती है कि वह साधन-सम्पन्न है और अकेला जी सकता है। उसे किसी की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता। संसार में जीने के लिए मनुष्य को अपनों के सहारे या साथ की कदम-कदम पर जरूरत होती है। उनके बिना वह अधूरा रहता है।
           अपनों के साथ से रहित मनुष्य संसार सागर में खो सा जाता है। उससे बाहर निकलने के लिए अपनों का सहारा तो चाहिए ही। अपनों का सहारे की अहमियत उन लोगों से जाननी चाहिए जो किसी कारण से अकेले हो जाते हैं। कोई भी उनको सहारा देने वाला नहीं होता। वे बेचारे तरसते हैं कि काश, कोई तो उनका अपना होता, जिसके साथ वे अपने सुख और दुख साझा कर सकते।
           जितने अपने बन्धु-बान्धव होते हैं, उतनी ही मनुष्य की भुजाएँ होती हैं। उनके दम पर ही मनुष्य सिर उठाकर चलता है। अपनों के होते हुए उसे किसी बाहर वाले की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे मनुष्य का मनोबल हमेशा ऊँचा रहता है। वह संसार सागर के थपेड़ों को सरलता से सहन कर जाता है। इसलिए अपनों का साथ मिलता रहे, इसके लिए मनुष्य को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
         यदि रिश्तों को बचाने के लिए मनुष्य को थोड़ा झुकना भी पड़ जाए, तो यह सौदा मँहगा नहीं कहा जा सकता। अपनों के ज्ञान से अधिक उनके गुणों, अपनेपन और प्यार को महत्त्व देना चाहिए। जीवन जीने का यह एक महामन्त्र है। इसको अपनाकर कोई भी व्यक्ति निराश नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 16 अगस्त 2020

शुभकर्मों का संग्रह

शुभकर्मों का संग्रह

मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिनको करने से उसे सुख-समृद्धि मिले। उनके लिए उसे कभी प्रायश्चित न करना पड़े। प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य को कौन से कार्य करने चाहिए और कौन से नहीं? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि  देश, धर्म, परिवार और समाज के नियमानुसार किए जाने वाले सभी करणीय कार्य होते हैं। इन सभी कार्यों को मनुष्य को यत्नपूर्वक करना चाहिए, अन्य कार्यों को कदापि नहीं करना चाहिए।
           मनुष्य को यथासम्भव श्रेष्ठ कार्य ही करने चाहिए। ये कार्य मनुष्य को मानसिक सन्तोष देते हैं। वह इन कार्यों को करने से निश्चिन्त रहता है। उन्नति के पथ पर अग्रसर होने वालों के लिए इन नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक होता है। इसी से मनुष्य को समाज में सम्मननीय स्थान प्राप्त होता है। लोग अच्छे कार्य करने वालों की ही सदा प्रशंसा करते हैं और उन्हीं को ही चाहते हैं।
            देश, धर्म, परिवार और समाज के नियम के विरुद्ध किए जाने वाले सभी कार्य अकरणीय होते हैं। मनुष्य को यथासम्भव उन कार्यों का त्याग करना चाहिए। जो लोग स्वार्थवश या लालचवश ऐसे दुष्कृत्य करते हैं, समाज के लिए वे त्याज्य होते हैं। इन लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। समाज इन लोगों से किनारा करने में अपना भला समझता है। ऐसे लोगों को कहीं भी मान नहीं मिलता।
            'विदुरनीति:' में महात्मा विदुर ने निम्न श्लोक में यह कहा है-
दिवसेनैव तत् कुर्याद्येन रात्रौ सुखं वसेत्।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद्येन प्रेत्य सुखं वसेत्।।
अर्थात् दिन भर में मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे रात में अच्छी तरह से नींद आ जाए। ठीक उसी तरह से जीवन भर में मनुष्य को ऐसे कृत्य करने चाहिए, जिससे मरणोपरान्त आत्मा को शान्ति प्राप्त हो सके। 
           यही इस मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यदि मनुष्य दिन भर शुभ कर्म करेगा, तो उसे ग्लानि नहीं होती। उसका मन सन्तुष्ट रहता है। इसलिए उसे रात को अच्छी नींद आती है। इसके विपरीत दुष्कृत्य करने वाले सारा दिन मारामारी में व्यतीत करते हैं। उन्हें न्याय व्यवस्था का भय भी सताता रहता है। दिन भर परेशान रहते हैं, इसलिए रात को भी करवटें बदलते रहते हैं। 
           महात्मा विदुर का कथन है कि जिस प्रकार मनुष्य सत्कृत्य करता हुआ रात्रि को चैन की नींद सोता है। उसी प्रकार उसे अपने जीवन में ऐसे सुकृत्य कर लेने चाहिए, जिससे मरणोपरान्त उसकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो सके। इसका अर्थ यही है कि उसे जीवनभर किए गए शुभ कर्म, अन्त समय के लिए दुख का कारण न बनकर आत्म सन्तुष्टि दें। वह नए जन्म में सुखपूर्वक प्रवेश कर सके।
          यदि मनुष्य जीवनभर विरोधी कर्म करता है, तो उसे सारा समय दुख और कष्ट मिलते हैं। अन्त समय में उसका सुधरना कठिन होता है। उस समय उसे पश्चाताप होता है कि जीवन में उसने अच्छे काम क्यों नहीं किए। उसके मन पर यह बोझ रहता है। उस अन्तकाल में उसकी आत्मा उसे धिक्कारती है, पर उस समय कुछ भी नहीं किया जा सकता। अगले जन्म में जाते समय वह दुखी रहता है।
           मनुष्य चौरासी लाख योनियों के क्रम में भटकता हुआ श्रेष्ठ मानव चोला प्राप्त करता है। अपने अहं के कारण यदि मनुष्य इस जन्म में नेक कर्म नहीं करता, तो कोई गारण्टी नहीं कि पुनः उसे मानव जन्म ही मिलेगा। तब पता नहीं अपने कर्मों के अनुसार वह किस किस योनी में जाएगा और कब उसे फिर से मानव बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। यह सब मनुष्य के किए गए उन शुभाशुभ कर्मों पर निर्भर करता है।
          इस सम्पूर्ण चर्चा का सार यही है कि जहाँ तक हो सके मनुष्य को अपने जीवन में शुभकर्मों का संग्रह करना चाहिए। उसे अशुभकर्मों के फेर में जकड़े जाने से बचना चाहिए। इस संसार से विदा लेते समय उसके चेहरे पर विषाद के स्थान पर हर्ष होना चाहिए। उसके मन मे कोई पश्चाताप का भाव नहीं होना चाहिए। तभी मनुष्य इहलोक से विदा लेकर परलोक प्रसन्नता से जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 15 अगस्त 2020

गुणी की परख

 गुणी की परख

गुणों की परख उसके पारखी यानी गुणवान को होती है। जिस प्रकार हीरे का मूल्य एक जौहरी जानता है, अन्य कोई साधारण मनुष्य उसको नही पहचान सकता। आम जन के लिए हीरे और पत्थर में कोई अन्तर नहीं होता। उसी प्रकार एक गुणवान व्यक्ति की पहचान कोई गुणी व्यक्ति ही करने में समर्थ हो सकता है। अन्य कोई अल्पज्ञ मनुष्य उसका मूल्य कदापि नहीं जान सकता।
           कवि ने निम्न श्लोक में इसी बात को उदाहरण सहित समझाया है-
       गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो
             बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल:।
       पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: 
              करी च सिंहस्य बलं न मूषक:॥
अर्थात् एक गुणी ही दूसरे गुणवान व्यक्ति को समझने में समर्थ होता है, निर्गुणी या मूर्ख नहीं। बलवान ही बली की समझ सकता है, निर्बल नहीं। वसन्त-ऋतु की पहचान करने की सामर्थ्य एक कोयल में ही होता है न कि कौए में। इसी प्रकार एक शेर की शक्ति का अनुमान हाथी को होता है, चूहे को नहीं।
           इस श्लोक में बताया है कि गुणी व्यक्ति के ज्ञान को समझ पाना निर्गुण या अल्पज्ञ या मूर्ख इन्सान नहीं समझ सकता। गुणवान को जानने-पहचानने के लिए उसी के जैसा विद्वान होना चाहिए। अन्यथा आम मनुष्य के लिए उसकी विद्वत्ता कोई मायने नहीं रखती। उन्हें उसकी बातें ही समझ में नहीं आएँगी। 
           एक गुणवान को अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए एक विद्वत सभा की आवश्यकता होती है। जन-साधारण की सभा में वह असहज रहता है। वह कितनी भी सरल भाषा का प्रयोग करके लोगों को समझाने का प्रयास करे, व्यर्थ रहता है। यह तो वही बात हुई कि महात्मा जी के पास गए व्यक्ति से किसी ने पूछा, "महात्मा जी का भाषण सुनने गए थे? उन्होंने कैसा भाषण दिया?"
           श्रोता ने कहा, "महात्मा जी ने बहुत अच्छा भाषण दिया।" 
           फिर उससे पूछा,"महात्मा जी ने उपदेश में क्या कहा?"
           उसने उत्तर दिया "जो कहा था अच्छा कहा था, पर मुझे यह पता नहीं कि उन्होंने क्या कहा था?"
         इस श्लोक में आगे बलवान और निर्बल के विषय में बताया है। शक्तिशाली व्यक्ति किसी को भी उठाकर पटक सकता है। उसकी शक्ति का अनुमान निर्बल व्यक्ति नहीं लगा सकता। यदि दुर्भाग्यवश वह उसे ललकार देता है, तो अपने ही हाथ-पैर तुड़वा बैठता है। शक्तिशाली का सामना कोई दूसरा शक्तिशाली व्यक्ति ही करे, तो ठीक रहता है दोनों बराबर के पहलवान होंगे, तो मुकाबला उचित होगा।
         वसन्त ऋतु की पहचान कोयल को होती है, कौए को नहीं। ऋतुमस यानी वसन्त ऋतु के आते ही चारों ओर खिले हुए फूलों की सुगन्ध वातावरण में फैल जाती है। वायु सुगन्धित हो जाती है। प्रकृति की छटा इस मौसम में देखते ही बनती है। ऐसे में यदि कोयल का मीठा स्वर सुनाई दे जाए, तो सोने पर सुहागा हो जाता है। कौवे को तो प्रकृति के इस सौन्दर्य से कोई लेना देना नहीं होता। उसे तो बस कर्कश ध्वनि में काँव-काँव करना होता है। इस तरह कोयल को वसन्त ऋतु की पहचान होती है।
           शेर की शक्ति का अनुमान हाथी को होता है, पर चूहा उससे अनजान रहता है। शेर और हाथी दोनों ही शक्तिशाली होते हैं। एक-दूसरे की शक्ति को पहचानते हैं। चूहा तो बेचारा एक तुच्छ-से जीव होता है। वह उन दोनों की शक्ति के विषय में क्या जाने? यदि शेर और हाथी भिड़ जाएँ, तो कुछ परिणाम निकल सकता है। चूहा बेचारा उससे क्या टकराएगा? वह तो अपने प्राणों से ही हाथ धो बैठेगा।
           इस प्रकार समान गुणों वाले ही एक-दूसरे को समझने अथवा परखने की सामर्थ्य रखते हैं। तराजू का एक पलड़ा भारी हो और दूसरा हल्का, तो सौदा कभी बराबरी का नहीं हो सकता। उस समय एक पक्ष को हानि होती है और दूसरे पक्ष को लाभ होता है। इससे झगड़े की गुँजाइश बनी रहती है। अतः उन दोनों पक्षों का एकसमान होना आवश्यक होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

मोक्ष का अधिकारी

 मोक्ष का अधिकारी

विषय वासनाओं में जकड़ा मनुष्य सदा दुख ही प्राप्त करता है। विषय भोग सीमित समय के लिए उसे सुख दे सकते हैं, हमेशा के लिए नहीं। उनसे मनुष्य का मन कभी नहीं भरता। इसलिए मनुष्य बार-बार इन विषयों का आस्वादन करना चाहता है। जितना इन भोगों में फँसाता जाता है, वह उतना ही उस ईश्वर से दूर होता जाता है। जितना वह प्रभु से दूरी बना लेता है, उतना ही अशान्त रहता है। 
        'श्रीमद्भगवद्गीता' में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
       आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
              समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
      तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
             स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
अर्थात् जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में  समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थित प्रज्ञ पुरुष में सब काम्य-विषय विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, न कि भोगों को चाहने वाला।
         संयमी व्यक्ति समुद्र की तरह गम्भीर होता है। वह विषय वासनाओं के विचारों के प्रवाह को सहन करने में समर्थ होता है। वह अपनी मर्यादा का त्याग कदापि नहीं करता। अतः संयमी व्यक्ति को ही शान्ति मिलती है। इसके विपरीत वासनाओं के पीछे भागने वाले सदा आशान्त रहते हैं।  ऐसे ही लोग शान्ति की खोज में हमेशा  इधर-उधर भटकते रहते हैं। उन्हें शान्ति कभी नहीं मिल पाती।
         जल से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में सब ओर से आए हुए जल उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं। उसी प्रकार विषयों का संग होने पर भी जिस पुरुष में समस्त इच्छाएँ कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओर से प्रवेश कर जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसकी समस्त कामनाएँ आत्मा में लीन हो जाती हैं, उसको अपने वश में नहीं कर सकतीं।
          भगवान् श्रीकृष्ण ने नदियों से समुद्र में निरन्तर मिलने वाले पानी की तुलना विषयों के प्रति लगाव या विषय-वासना रूपी विचार के प्रवाह से की है। समुद्र में नदियों का जल प्रतिपल स्वाभाविक रूप से मिलता रहता है। इसी प्रकार ये सभी विषय वासनाएँ बिना रुके लगातार हमारे मन को मथती रहती हैं। धीर-गम्भीर सागर में मिलने वाली नदियाँ उसे उद्वेलित नहीं करतीं, बल्कि उसमें समाकर एकाकार हो जाती हैं।
          यदि ये वासनाएँ मनुष्य को किसी प्रकार जकड़ती नहीं हैं, तब मनुष्य सागर की तरह गम्भीर तथा संयमी बन जाता है।जिस व्यक्ति ने तीनों एषणाओं का परित्याग कर दिया हो, ऐसे स्थितप्रज्ञ विद्वान संन्यासी को ही परम शान्ति अथवा मोक्ष मिलता है। भोगों की कामना करने वाले मनुष्य को नहीं। इसी अभिप्राय को समुद्र के दृष्टान्त के द्वारा समझने का प्रयास भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में  किया गया है।      
           विषय-वासनाओं को नियन्त्रित करने पुरुष को शान्ति या मोक्ष मिलता है। भोगों की कामना करने वाले दूसरे लोगों को मोक्ष नहीं मिल पाता। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मनुष्य जिन्हें पाने के लिए कामना करता है, उन भोगों का नाम काम है। उन्हें पाने की इच्छा करना जिसका स्वभाव है, वह मनुष्य कामकामी कहलाता है। वह मनुष्य उस परम शान्ति को कभी नहीं प्राप्त कर सकता।
          भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार विषय वासनाओं के पीछे भागने वाला व्यक्ति कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। इसलिए वह भटक जाता है और अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। जिस संयमी व्यक्ति ने इन विषय वासनाओं को अपना दास बना लिया या वश में कर लिया, वह इनके पीछे नहीं भागता। वही सही मायने में परम शान्ति या मोक्ष को पाने का अधिकारी बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

जातियों में बटा मनुष्य

जातियों में बटा मनुष्य

बहुत दुर्भग्य की बात है कि मनुष्य समाज जातियों में बटा हुआ है। इन्सान-इन्सान में आज अन्तर किया जा रहा है। हम लोग इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं। एक ओर संसार चन्द्रमा आदि ग्रहों पर अपने कदम रख रहा है, तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य से भेदभाव कर रहा है। इसे दिन-प्रतिदिन बढ़ावा दिया जाता है। कहने को तो लोग जातियों में बटे हुए समाज की प्रत्यक्ष रूप से आलोचना करते हैं। 
             समय आने पर मनुष्य अपनी जाति पर गर्व करने से नहीं चूकते। जब शादी-ब्याह का समय आता है, वे गैर जाति में सम्बन्ध नहीं करना चाहते। समाचार पत्रों के साप्ताहिक मेट्रीमोनियल पृष्ठों पर तथा मेट्रीमोनियल साइड्स पर इसे प्रमुखता से देखा जा सकता है। वहाँ पर अपनी जाति का बखान पढ़ा जा सकता है। साथ ही अपनी जाति में सम्बन्ध करने की बात को प्रमुखता दी जाती है।
          रैदास जी ने इस जाति में बटे हुए समाज के विषय में अपने विचार रखते हुए कहा है-
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष न जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
अर्थात् रैदास जी कह रहे हैं कि केले के पेड़ में पत्ते के नीचे पत्ता और फिर पत्ता ही पाया जाता है। इस तरह छीलते रहने पर खोखला तना मिलता है और अन्त में पेड़ नष्ट हो जाता है। ठीक उसी तरह इन्सान भी जातियों में बँटा हुआ है, इन्सान का अन्त हो जाता है, लेकिन ये जातियाँ समाप्त नहीं होती। आगे रैदास जी कहते हैं कि मनुष्य तब तक एक-दूसरे से मिलकर अथवा एक होकर नहीं रह सकते, जब तक जाति का बन्धन समाप्त नहीं हो जाता अथवा जाति को समाप्त न किया जाता।
           इस लेख के माध्यम से मैं कोई राजनीति नहीं करना चाहती। राजनैतिक विषयों पर मेरी लेखनी नहीं चलती। इस दोहे में कवि के हृदय का दर्द छलकता है। इसके माध्यम से वे जातियों में बटे हुए समाज पर व्यंग्य करते हैं। जातियों में बटे हुए इस समाज का अन्त कब होगा? दूसरे शब्दों में कहें तो इस समाज से जाति प्रथा का अन्त कब होगा? यह प्रश्न बहुत ही कठिन है। 
           ब्राह्मणों की तो पूछो ही मत, वे तो अपने नशे में रहते हैं। वे सोचते हैं कि उनके बराबर कोई भी अन्य जाति नहीं हो सकती। उनकी सत्ता ही सर्वोच्च है। ईश्वर के बाद उनका ही स्थान आता है। इसलिए सब जातियों का शोषण करने का उन्हें जन्मसिद्ध अधिकार है। क्षत्रिय और वैश्य अपनी ही जाति का मान करते हैं। अपनी ही जाति में रच बसकर वे आत्ममुग्ध बने रहते हैं।
           अन्तिम जाति को शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब में बाँट दिया है। उन लोगों पर मनमाने अत्याचार धड़ल्ले से किए जाते हैं। वे बेचारे बस आरक्षण की लाठी पकड़कर संसार सागर को तर जाना चाहते हैं। परन्तु आरक्षण का झुनझुना उन्हें सामाज में स्थान नहीं दिला सकता। कई राजनीतिक पार्टियाँ उनके तथाकथित उत्थान के दिखावा करती हैं, पर वे केवल वोटबैंक बनकर ही रह जाते हैं। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष के उपरान्त भी उनकी स्थिति जस की तस है।
           हमारा भरतीय संविधान एक ओर जातिप्रथा का विरोध करता है, तो दूसरी और इन्हें प्रश्रय भी देता है। आरक्षण के नाम पर राजनीति इसी का ही परिणाम है। लोग आज भी कुछ लोगों को नीची जाति का कहकर तिरस्कार करते हैं। उनके साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहते। उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। टी वी, समाचारपत्रों और सोशल मीडिया पर इन पर होने वाले अत्याचारों के विषय में प्रकाशित होता रहता है।
         ईश्वर ने सभी इन्सानों को एक जैसा बनाया है। उसकी नजर में जाति का कोई भेद नहीं है। हम मनुष्यों को भी इस जाति भेद से ऊपर उठकर, हर इन्सान को एक समान समझना चाहिए। ईश्वर उन लोगों से रुष्ट होता है, जो उसके बनाए लोगों से भेदभाव करते हैं। उन्हें अपने से हीन या तुच्छ समझते है। जाति रहित समाज की परिकल्पना बड़ी सुखद है। इस विषय पर उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए, तभी हमारा यह समाज एकसूत्र में बँध सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 12 अगस्त 2020

अधम सदा दुसह्य

अधम सदा दुसह्य

अधम या दुर्जन व्यक्ति अपनी नीचता को त्याग नहीं पाता। इसलिए उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे कितना भी समझा लो, पर किसी दुर्जन को सज्जन बनाना सम्भव नहीं होता। अधम व्यक्ति अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आता। जैसे संस्कार देने पर भी लहसुन को सुगन्धित नहीं बनाया जा सकता। उसकी दुर्गन्ध बनी रहती है। उसी प्रकार दुर्जन की अपकीर्ति प्रसारित होती रहती है। 
       किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
       रविरपि न दहति तादृग् 
           यादृक् संदहति वालुकानिकर:।
      अन्यस्माल्लब्धपदो  नीच:
             प्रायेण दु:सहो भवति॥
अर्थात् रेती के कण सूर्य की धूप से गर्मी पाकर जितना जलाते हैं, उतना सूर्य भी नहीं जलाता। दूसरे के पास से उच्च पद प्राप्त करने वाला नीच सदैव दुःसह्य होता है। 
           यह श्लोक बता रहा है कि यदि अधम व्यक्ति को अपनी योग्यता से बढ़कर कुछ मिल जाता है, तो वह फूला नहीं समाता, उससे सहन करना असह्य हो जाता है। इस श्लोक में रेगिस्तान की रेत का उदाहरण दिया है। वह सूर्य की किरणों की गर्मी झुलसने लगती है, तपाने लगती है। इतना तो स्वयं सूर्य भी नहीं तपाता। ऐसा अधम व्यक्ति अकड़कर टेढ़ा-टेढ़ा चलने लगता है। 
         यहाँ मुझे रहीम जी का निम्न दोहा याद आ रहा है-
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥
अर्थात् रहीम कहते हैं कि ओछे लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत ही इतराते हैं। 
वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में जब प्यादा फरजी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
         मुझे तो शतरंज के खेल की अधिक जानकारी नहीं है। पर कहते हैं कि इस खेल में प्यादा जीवित होकर फरजी बन जाता है। पहले जब वह प्यादा होता है, तब चाल में सीधा चलता है। पर जब वही प्यादा फरजी बन जाता है, तब टेढ़ी चल चलने लगता है। यानी जब प्रोमोशन या तरक्की हो जाती है, तब तो उसकी चाल ही बदल जाती है। वह इतराने लग जाता है। शायद दुनिया में ऐसा ही होता है।
         ऐसे मनुष्य के लक्षण निम्न श्लोक में बताए गए हैं-
   मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला।
   हृदयं क्रोधसंयुक़्तं त्रिविधं धूर्तलक्षणम्॥
अर्थात् धूर्त मनुष्य का तरीका यह है कि उसका मुख पद्मदल के समान होता है, उसकी वाणी चन्दन जैसी होती है और उसका हृदय क्रोध से भरा होता है।
          कहने का तात्पर्य यह है कि ऊपर से अच्छा दिखने वाला होता है और सबके साथ मीठा बोलने वाला होता है, पर उसके दिल में सबके प्रति ही नफरत होती है। इसलिए वह किसी का भी अहित करने से नहीं चूकता। किसी का हित करने की मानो इनकी प्रकृति ही नहीं होती। वह तो केवल अवसर की तलाश में रहता है। ऐसे मौके इन अधम लोगों को मिल ही जाते हैं। इनके लिए मित्र और शत्रु में कोई भी अन्तर नहीं होता।
          ये अधम, दुर्जन या नीच व्यक्ति इस समाज में इधर-उधर घूमते हुए दिखाई दे जाते हैं। इनसे कभी न कभी मनुष्य का वास्ता पड़ ही जाता है। इनकी फितरत डंक मारने की होती है। इन लोगों के साथ चाहे कितना भी अच्छा कर लो, ये अवसर आने पर डस लेते हैं यानी अपना हित साधने के लिए दूसरे को नीचा दिखाने से नहीं चूकते। अपने अतिरिक्त इन लोगों को कुछ भी नहीं सूझता।
          जहाँ तक हो सके इन दुष्टों की पहचान करने का प्रयास करना चाहिए। इनका यथासम्भव शीघ्र परित्याग कर देना चाहिए। जैसे कोयले की दलाली में मुँह काला हो जाता है, उसी प्रकार इनके साथ दोस्ती करने का अर्थ है, अपना अहित करना। निस्सन्देह अपने हितार्थ इन लोगों से किनारा करने में ही मनुष्य का भला हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

कार्य की सफलता

कार्य की सफलता

अपना कोई भी नया कार्य आरम्भ करते समय मनुष्य को बहुत सावधान रहना चाहिए। पहले उसे भली भाँति विचार करके एक योजना बना लेनी चाहिए। उसके उपरान्त उसका क्रियान्वयन करना चाहिए। जब तक कार्य को व्यवहार में न लाया जाए, तब तक उसे अपने रहस्य को किसी के भी समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए। गुपचुप तरीके से मनुष्य को अपने कार्य का सम्पादन करना चाहिए।
          कार्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मनुष्य ने उसके लिए कितना परिश्रम किया है? उसकी बनाई गई योजना फलदायी होगी क्या? उसने पहले ही किसी को बताया तो नहीं? परिस्थितियाँ अनुकूल हैं या प्रतिकूल है, समय का बहाव कैसा है? उसे किस-किस से सहायता मिल सकती है? कौन उसके रास्ते में अड़चन बन सकता है? आदि कुछ प्रश्न मन में आना स्वाभाविक है।
           आचार्य चाणक्य ने 'चाणक्यनीति:' में इस विषय में समझाने का प्रयास निम्न श्लोक में किया है-
          क: काल: कानि मित्राणि 
                   को देश: को व्ययागमौ।
         कस्याहं का च मे शक्ति:  
                   इति चिन्त्यं मुहुर्मुहु:॥
अर्थात् मनुष्य का समय कैसा चल रहा है? कौन उसका मित्र और कौन उसका शत्रु है? उसका देश या निवास-स्थान कैसा है? उसकी आय कितनी है और व्यय कितना है? उसकी शक्ति कितनी है? इन सबके विषय में बार-बार विचार करना चाहिए।
         आचार्य चाणक्य ने कुछ बातों का ध्यान रखने के लिए कहा है। समझदार व्यक्ति को हर काम में सफलता मिलती है। वह विवाद और धन हानि से बच जाता है। मनुष्य जानता है कि उसका वर्तमान समय कैसा चल रहा है? अभी उसके सुख के दिन चल रहे हैं या दुख के दिन। इसी के आधार पर जब वह कार्य करता है, तो उसे अपने कार्य को सिद्ध करने में सफलता मिल जाती है।
          सफलता की कामना करने वाले मनुष्य को मित्र और शत्रु की परख करनी आनी चाहिए। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि उसका सच्चा मित्र कौन है और मित्र के वेश में शत्रु कौन हैं? मित्र के वेश में छिपे हुए शत्रु को पहचानना बहुत आवश्यक होता है। यदि मित्र की खाल में छिपे हुए शत्रु को मनुष्य नहीं पहचान पाएगा, तो उसे कदम-कदम पर कार्यों में असफलता का सामना करना पड़ेगा। 
         जिस देश में मनुष्य जा रहा है अथवा जहाँ वह रह रहा है, वह देश कैसा है? जहाँ वह काम आरम्भ करने जा रहा है, उस स्थान के हालात की पूरी जानकारी उसे ले लेनी चाहिए। कार्यस्थल पर काम करने वाले लोगों के बारे में भी उसे पता लगा लेना चाहिए। इन बातों को ध्यान रखते हुए कार्य करने पर मनुष्य के असफल होने की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं।
          मनुष्य को अपनी आय और व्यय का ठीक से ज्ञान होना चाहिए। किसी भी कार्य-व्यवसाय के लिए धन की बहुत आवश्यकता होती है। व्यक्ति को अपनी आय और व्यय में सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए। आय से अधिक खर्च करने पर कर्ज लेना पड़ता है। कभी कभी तो दिवाला निकल जाता है। आय से कम खर्च करने पर धन का संचय होता है और फिर उसकी पूँजी बढ़ती है।
             संस्थान का प्रबन्धन इतना सुचारु   होना चाहिए कि अधीनस्थ लोग ठीक वैसा ही काम करें, जिससे संस्थान को लाभ मिल सके। हानि की गुँजाइश ही न रहे। यदि संस्था लाभ कमाएगी, तभी तो वहाँ कार्यरत कर्मचारियों को भी लाभ मिलगा। वे सन्तुष्ट रहेंगे, तो व्यपार के प्रगति करने की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं।
          सबसे आवश्यक बात यह है कि मनुष्य को अपनी सामर्थ्य का ज्ञान होना चाहिए। उसे ज्ञात होना चाहिए कि वह क्या-क्या कार्य कर सकता है? उसे उन्हीं कार्यों को हाथ में लेना चाहिए, जिसे वह सरलता से सम्पन्न कर सकता है। यदि वह अपनी शक्ति से अधिक कार्य हाथ में ले लेगा, तो उन्हें पूरा नहीं कर सकेगा। इस तरह उसे असफलता का मुँह देखना पड़ सकता है।
           समझदार और सफल व्यक्ति वही है, जिसे अपने सभी प्रश्नों का उत्तर हमेशा मालूम रहता है। किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले ये सब बातें मनुष्य के चिन्तन और मनन का केन्द्रबिन्दु होनी चाहिए। इन सबका विश्लेषण कर लेने के उपरान्त कार्य करने वाले को ही सफलता पूर्णरूप से  सिद्ध होती है। यानी इन्हें ध्यान में रखकर आचरण करने वाला मनुष्य जीवन में कभी असफलता का मुख नहीं देखता। 
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 10 अगस्त 2020

बहू-बेटी का दायित्व

  बहू-बेटी का दायित्व

आज की युवा पीढ़ी में बहुत-सी ऐसी लड़कियाँ अपनेआस-पड़ौस में मिल जाती हैं, जो स्वार्थवश केवल अपने ही विषय में सोचती हैं। उनका विचार हैं कि उन्हें अच्छी नौकरी क्या मिल गई, वे सारी दुनिया पर अहसान कर रही हैं। जबकि उनकी यह सोच या भावना बिल्कुल गलत है। वे कमाती हैं, तो अपने लिए। घर के अन्य सदस्यों को उनकी कमाई से कुछ भी लेना देना नहीं होता। न ही वे अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अपने घर में खर्च करना चाहती हैं।
         अपने इसी अहं में रहने वाली ये लड़कियाँ घर के कामकाज में हाथ बटाना अपनी हेठी समझती हैं। अपने माता-पिता के घर में तो वे अपनी हेकड़ी में रहती हैं।  माता के अस्वस्थ होने की स्थिति में भी वे रौब चलाती हैं। खाना चाहे बाजार से आए या माँ बिचारी बीमारी में उठकर बनाए, उन्हें अपनी मौज-मस्ती से फुर्सत नहीं होती। माता-पिता बेचारे सोचते हैं कि कुछ दिन बाद बेटी की शादी हो जाएगी और वह अपनी ससुराल चली जाएगी। वहाँ जाकर स्वयं काम करने लगेगी। 
           अफसोस, उनकी यह धारणा धरी की धरी रह जाती है। उनकी बेटी के लक्षण ससुराल में जाकर भी गुल ही खिलाते हैं। वहाँ प्रातः देर से सोकर उठना, टेबल पर सब कुछ हाजिर हो जाए वाली उनकी पुरानी प्रवृत्ति बनी रहती है। छुट्टी वाले दिन भी उनकी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं होता, जो अधिक कष्टप्रद होता है। बहू बेटियों के घर में होते हुए बाजार से सारा समय मँगवाकर भी तो नहीं खाया जा सकता।
          घर में क्लेश न हो, यह सोचकर सास-ससुर चुप रह जाते हैं। पर यह स्थिति कब तक चल सकती है? आखिर बजुर्ग हो रही सासू माँ को भी थोड़ी सहायता की, थोड़े आराम की आवश्यकता होती है। ये लड़कियाँ पता नहीं किस मिट्टी की बनी होगी हैं कि इन्हें बजुर्गों को काम करते हुए देखकर भी जरा शर्म नहीं आती। ये बस अपना आराम ही देखती हैं। इन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान तो बहुत होता है, पर वे अपने कर्त्तव्य भूल जाती हैं।
           ऐसी बेटियों का वैवाहिक जीवन सुखमय कदापि नहीं हो सकता। सामने कोई कुछ नहीं बोलेगा, पर पीछे तो वे बात करते ही हैं। उनके घर आने वाले मेहमान भी उनके व्यवहार से दुखी होकर जाते हैं। माता ने लाड़ करने के साथ-साथ यदि बेटी को संस्कारी बनाया होता और घर का काम-काज सिखाया होता, तो उनकी बेटी के व्यवहार से उसके ससुराल वालों को उस प्रकार का कष्ट न झेलना पड़ता। न ही वे परेशान होते।
           समस्या तब और उलझ जाती है, जब सासू माँ अस्वस्थ हो जाती हैं और घर का कोई कार्य नहीं कर पाती। इसके अतिरिक्त घर का कोई सदस्य इतना अधिक अस्वस्थ हो जाता है और उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ जाता है। इस समय भी यदि घर की बहू न चेते तो घर बिखरने के कगार पर आ जाता है। कोई भी सदस्य घर के शोकेस में सजाकर रखने वाली बहू की कामना नहीं करता।
           आजकल पुराने जमाने की तरह चूल्हा-चक्की का काम घर में नहीं होता। और न ही गाँवों की तरह शहरों में मेहनत के काम होते हैं। घरों में प्रायः सफाई, बर्तन और डस्टिंग के लिए कामवाली होती ही है। कपड़े धोने के लिए फूली आटोमेटिक मशीन होती है। धोबी कपड़े प्रेस करने के लिए होते हैं। कई घरों में तो सब्जी भी कामवाली से कटवा ली जाती है। काम जो शेष बचता है, वह सिर्फ नाश्ता और खाना बनाने का होता है। इतना काम तो एक बहू को अपने घर में करना ही चाहिए।
          सबको बहू-बेटी वही अच्छी लगती है, जो ससुराल को अपना घर समझे। सास और ससुर को अपने माता और पिता के समान समझे। ननद और देवर को अपनी बहन व भाई समझे। घर के प्रति अपने दायित्व को समझकर, तदनुसार व्यवहार करे। बड़ों का यथोचित सम्मान करे और छोटों से प्यार करे। एक आयु के पश्चात बजुर्ग हो रही सासू माँ को आराम देने वाली बहू-बेटी सर्वत्र प्रशंसा का पात्र बनती है। शिक्षित होना और नौकरी करना स्त्री की व्यक्तिगत इच्छा है। घर को एकसूत्र में पिरोने की उसकी कला ही, उसकी सुघड़ता का प्रमाण होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 9 अगस्त 2020

बुरा करने वाले से व्यवहार

बुरा करने वाले से व्यवहार

अपने साथ बुरा करने वाले इन्सान से जब तक मनुष्य बदला नहीं ले लेता, उसके कलेजे में ठण्डक नहीं पड़ती। वह इस बात को पचा ही नहीं पता कि अमुक व्यक्ति ने उसका अहित क्यों और किसलिए किया? वह सोचता है कि उसने तो उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था। सब लोगों से अपनी सफाई देते हुए वह कहता फिरता है, "उस व्यक्ति विशेष की हिम्मत तो देखो, मेरे साथ उसने इतना बुरा किया।"
          यह वाक्य हर मनुष्य को सदा याद रहता है कि 'ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए।' इसी बात को संस्कृत भाषा में इस प्रकार कहते हैं-
          शठे शाठयं समाचरेत्।
                   तथा
     आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति:।
अर्थात् दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए। तथा दुष्टों का साथ सरलता का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
          अपने गिरेबान में कोई भी मनुष्य झाँककर नहीं देखना चाहता। हर इन्सान समझता है कि वह दूध का धुला हुआ है। वही एक ऐसा मनुष्य है, जो सबके साथ अच्छा व्यवहार करता है। बाकी सब लोग उससे और उसकी तरक्की से जलते हैं। इसीलिए उसका बुरा चाहते हैं और करते भी हैं। वास्तव में ऐसा हो नहीं सकता कि एक मनुष्य ठीक हो और बाकी सारी दुनिया गलत हो।
           जब कोई किसी मनुष्य के साथ बुरा व्यवहार करता है, तब उसे एकान्त में बैठकर गहन चिन्तन करना चाहिए। उसे सारी स्थिति को समझने का प्रयास करना चाहिए। उसे जानना चाहिए कि इसका कारण क्या है? दूसरे मनुष्य को आखिर उस सीमा तक जाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? कहीं गलती उसी की तरफ से तो नहीं हो गई? बात इस हद तक बढ़ी ही क्यों?
          मनुष्य को निश्चित ही समझ आ जाएगी कि गलती कहाँ पर हुई। यदि अपनी गलती हो, तो क्षमा याचना कर लेनी चाहिए। इससे अपने मन को शान्ति मिलती है। यदि दूसरे की गलती हो, तो उचित समय देखकर उसे अहसास करवा देना चाहिए। यदि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित होगा, तो अकड़ जएगा और अपनी गलती स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे मनुष्य से किनारा कर लेना श्रेयस्कर होता है।
           अपना अहित करने वाले का प्रतिकार करना हर मनुष्य अपना अधिकार समझता है। इसलिए उसके लिए योजना बनाने में वह जी जान से जुट जाता है। अनेक प्रकार से वह उसकी सफलता को परखता है। जब उसे विश्वास हो जाता है कि वह अपने विरोधी को मात दे देगा, तो वह आगे कदम बढ़ाता है। अब उसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सामने वाला कितना शक्तिशाली है?
           यहाँ मैं एक बात कहना चाहती हूँ कि मनुष्य पहले अपने मन को दुखी करता है। यानी वह बदला लेने के विभिन्न तरीकों को सोचेगा। दूसरे का बुरा तो वह समय आने पर ही करेगा, पर स्वयं को बार-बार परेशान करता है। जैसे माचिस की एक तीली पहले स्वयं को जलाती है, फिर दूसरी वस्तुओं को जलती है। उसी प्रकार मनुष्य पहले स्वयं को जलता है, फिर दूसरों को जलाने का कार्य करता है।
          मनुष्य को एक बात सदा याद रखनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं होता। कबीरदास द्वारा लिखत निम्न दोहा देखिए-
बुरा जो देखने मैं चला बुरा न मिलया कोय।
जो मन खोजा अपना मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थात्  जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
         मेरे विचार में बुरा करने वाले व्यक्ति से बदला लेना, समस्या का कोई हल नहीं है। दोष तो हर व्यक्ति में मिलते हैं। फिर किसी से शत्रुता मोल लेने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। शत्रुता का क्रम तो बहुत लम्बा  होता है। इसलिए उसे क्षमा करके उसे छोटेपन का अहसास करवा देना चाहिए। मनुष्य को पहल करके स्वयं को जलाने के स्थान पर महान बन जाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 8 अगस्त 2020

वन्दनीय व्यक्ति

वन्दनीय व्यक्ति 

वन्दनीय व्यक्ति समाज मे वही कहलाता है, जो स्व से ऊपर उठकर पर के विषय में सोचे। परोपकारी मनुष्य सबकी आँख का तारा होते हैं। उनके सारे कार्य कलाप देश और समाज के हितार्थ होते हैं। सबके साथ वे समानता का व्यवहार करते हैं। उनके लिए कोई मनुष्य छोटा-बड़ा, छूत-अछूत, काला-गोरा नहीं होता। वे धर्म और जाति से परे होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्य बिना भेदभाव के उनकी दृष्टि में एकसमान होते हैं।
         किसी कवि ने निम्न श्लोक में इन महानुभावों के विषय मे लिखा है-
          वदनं प्रसादसदनं 
                सदयं दयं सुधामुचो वाच:।
          करणं परोपकरणं 
                येषां केषां न ते वन्द्या:॥
अर्थात् जिसके मुख पर मुस्कान के साथ तेज हो, दिल दया से भरा हो, अमृत के समान वचन मुख से निकलते हों और वह परोपकार में तल्लीन हो। ऐसे  व्यक्ति किसके वन्दनीय नहीं होते यानी वे सबके वन्दनीय होते हैं।
         यदि मनुष्य इस व्यक्तित्व का बन जाए तो इस मानव-सभ्यता का वर्तमान बहुत बेहतर हो जाएगा। ऐसे महानुभाव जो सदा मधुर मुस्कान से स्वागत करें, दयालु हों, सबसे प्यार से बोलें, वे चिराग लेकर ढूंढने पर भी बड़ी कठिनता से मिलते हैं। समाज की भलाई के लिए इन लोगों को यत्नपूर्वक खोजना चाहिए। इन्हीं महान परोपकारी लोगों की बदौलत ही यह संसार गतिमान हो रहा है।
          'विदुरनीति:' के निम्न श्लोक में महात्मा विदुर पुण्यात्माओं के विषय में इस प्रकार कहते हैं-
     पुण्यं प्रज्ञा वर्धयति क्रियमाणं पुन:पुन:।
     वृद्ध प्रज्ञा पुण्यमेव नित्यमारभते नर:॥
अर्थात् बार बार पुण्य कार्य करने से बुद्धि  बढ़ती है। जिसकी विवेक बुद्धि बढ़ती है, वह व्यक्ति पुण्य ही करता है।
           विदुर जी का मत है कि बार बार पुण्य कार्यों के सम्पादन से मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है। ऐसी विवेकी बुद्धि वाला मनुष्य पुण्यात्मा होता है। कहने का अर्थ है कि मनुष्य पुण्यात्मा तभी बनता है, जव वह शुभ कर्म करता है। ऐसा मनुष्य स्वयं तो शुद्ध एवं पवित्र बनता है, साथ ही सब लोगों को भी उसी राह पर चलने की प्रेरणा देता है। लोग इस प्रेरक व्यक्ति के दिखाए मार्ग पर चलकर अपनेजीवन सफल कर लेते हैं।
            'मनुस्मृति:' में भगवान मनु साधू या सज्जन लोगों के विषय में इस श्लोक में कह रहे हैं-
न प्रहृष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्धः परुषं ब्रूयात् स वै साधूत्तमः स्मृतः॥
अर्थात् जो व्यक्ति सम्मानित किये जाने पर बहुत प्रसन्न नहीं होते हैं और अपमानित किये जाने पर क्रोधित नहीं होते, तथा क्रोधित होने पर भी अपशब्द या कठोर वचन नही बोलते हैं। ऐसे ही लोगों को महान साधु के रूप में सदैव याद किया जाता है।
           इस श्लोक में महान लोगों के बारे में यह कहा है कि वे सम्मानित किए जाने पर उछलते नहीं और अपमानित किए जाने पर क्रोध या उठा-पटक नहीं करते। क्रोध आने पर भी कड़वा नहीं बोलते। यह बहुत बड़ी विशेषताएँ हैं उनके जीवन की। यानी वे हर स्थिति में सम रहते हैं। वे अपनी कमियों को दूर करते हैं। उन्हें स्वयं पर नियन्त्रण रहता है। इसीलिए वे सब सहन कर पाते हैं।
         वास्तव में ये महानुभाव अपने दिव्य गुणों के कारण ही वन्दनीय होते हैं। इन्हें ही भगवान श्रीकृष्ण के शब्दों में स्थितप्रज्ञ की श्रेणी में रखा जा सकता है। सभी द्वन्द्वों को सहन करते हुए अपने जीवन को साधते हैं। मनुष्योचित कमजोरियों को दूर करके ही, समाज में विशेष स्थान प्राप्त करके ये लोग आम से खास बन जाते हैं। सम्माननीय बनकर ही ये समाज को दशा और दिशा प्रदान करते हैं।
          परोपकार करने वाले महान सज्जन सामने वाले से सहृदयतापूर्वक व्यवहार करके उसे जीत ही लेते हैं। इस प्रकार पुण्य कार्यों के करने से वे धीरे-धीरे पुण्यात्मा बन जाते हैं। अपने विवेक का सहारा लेते हुए ये निरन्तर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर होते रहते हैं। सबके साथ मधुर व्यवहार करने ओर दया-ममता रखने के कारण संसार में ये पूजनीय बन जाते हैं। इनके मार्ग का अनुगमन करने मनुष्य के कल्मष दूर हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

सख-दुख का खेल

सुख-दुख का खेल

सुख और दुख मनुष्य की दो भुजाओं की भाँति हैं, जिनमें से एक आगे बढ़ती है, तो दूसरी पीछे रहती है। यानी कभी दुख आगे बढ़कर मनुष्य को सताता है, रुलाता है और डराता है। कभी सुख आगे आकर मनुष्य को आशा देता है और हँसाता है। इस तरह दुख और सुख का यह खेल अनवरत ही चलता रहता है। मनुष्य चाहकर भी सुख और दुख के इस चक्र से बाहर नहीं निकल सकता।
           मनुष्य तराजू के दो पलड़ों पर सुख और दुख को रखकर तोलता रहता है। कभी उसके सुख का पलड़ा भारी हो जाता है, तो कभी उसके दुख का। मनुष्य सारा जीवन सुख के पलड़े को ही भारी होते हुए देखना चाहता है। परन्तु उसके चाहने मात्र से कुछ नहीं होता। एक बात तो निर्विवाद सत्य है कि दुख का अनुभव किए बिना, सुख का मूल्य मनुष्य को ज्ञात नहीं हो सकता।
            कवि ने बताया हैं कि सुख की अनुभूति कब सुखद होती है-   
     सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते
            यथान्धकारादिवदीपदर्शनम्।
      सुखात्तु यो याति दशांदरिद्रतां 
            धृतः शरीरेण मृतः स जीवति॥
अर्थात् वास्तव में दुखों का अनुभव करने के बाद ही सुख का अनुभव शोभा देता है। जैसे घने अँधेरे से निकलने के बाद दीपक का दर्शन अच्छा लगता है। सुख से रहने के बाद जो मनुष्य दरिद्र हो जाता है, वह शरीर के होते हुए भी मृतक की तरह जीवित रहता है।
             कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि दुख को भोगने के बाद ही सुख का आनन्द मिलता है। अँधेरे का सामना किए बिना प्रकाश की कीमत पता नहीं चलती। चाहे दीपक का ही प्रकाश हो, अँधेरे के उपरान्त वह भी सुखदायक प्रतीत होता है। कारण स्पष्ट है कि अँधकार किसी को रुचिकर नहीं लगता। उसमें मनुष्य को कुछ भी नहीं दिखाई देता, उससे मनुष्य डरता है और वहाँ ठोकर भी खा जाता है। इसलिए उसे प्रकाश चाहिए।
          मनुष्य की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह सुखपूर्वक रहने के बाद दरिद्र हो जाए। दरिद्रता के पश्चात सुख-समृद्धि मिले तो मनुष्य सारी पुरानी कठिनाइयाँ भूल जाता है और उस ऐश्वर्य का भोग करके आनन्दित होता है। परन्तु सुख के बाद आने वाली दरिद्रता को वह पचा नहीं पाता। उस समय वह टूटकर बिखर जाता है और वह निराशा के अँधकूप में डूब जाता है। वह मनुष्य अपने जीवन से हार जाता है। ऐसी स्थिति में उस मनुष्य का जीवन मृतप्रायः हो जाता है।
            पतझड़ ऋतु की उदासी के पश्चात आने वाली वसन्त ऋतु सबके हृदयों को आह्लादित करने वाली होती है। चारों ओर के निराशाजनक माहौल को फल-फूलों से लदे पेड़ बदल देते हैं। सर्वत्र ही सुगन्ध का साम्राज्य हो जाता है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु से होने वाले असह्य कष्टों से वर्षा ऋतु की रिमझिम बरसती फुहारें निजात दिलाती हैं। वे सम्पूर्ण प्रकृति में नवजीवन का संचार करती हैं।
            सुख-दुख का यह खेल धूप-छाँव की तरह चलता रहता है। ये दोनों चक्र के अरों की भाँति कभी ऊपर चले जाते हैं, तो कभी नीच आ जाते हैं। यह खेल लगातार इसी प्रकार चलता रहता है। मनुष्य को कभी भी, किसी भी स्थिति में हार नहीं माननी चाहिए। इसका अर्थ है कि मनुष्य को दुख आने पर रोना-चिल्लाना नहीं चाहिए और सुख आने पर अहंकारी बनकर हवा में उड़ना नहीं चाहिए।
           सुख और दुख दोनों ही मनुष्य की परीक्षा लेने के लिए आते हैं। इन स्थितियों में ही मनुष्य के धैर्य को परखा जाता है। जो इस निकष पर खरा उतरता है, वह अग्नि में तपाए गए सोने की तरह कुन्दन बनकर सफल हो जाता है। जो मनुष्य इस परीक्षा में असफल होता है, उसे दुबारा भट्टी में तपना पड़ता है। इसलिए मनुष्य को हर स्थिति में द्वन्द्वों को सहन करना पड़ता है और स्थितप्रज्ञ बनना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

पिता के प्रसन्न होने पर देवता प्रसन्न

पिता के प्रसन्न होने पर देवता प्रसन्न

पिता की महानता को वही मनुष्य समझ सकता है, जो सन्तान का पालन-पोषण करते हुए पिता की गई साधना को अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सन्तान का पोषण करते समय पिता अपना सुख-चैन होम कर देता है। उसकी दुनिया। अपने बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। उनकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वह कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात एक कर देता है। 
          पिता वह स्वयं भूखे रहकर अपने बच्चों के लिए भोजन का प्रबन्ध करता है। पिता अपनी सन्तान को कभी अभावग्रस्त नहीं देखना चाहता। अपनी शक्ति से भी बढ़कर एक पिता बच्चों के सुख के लिए परिश्रम करता है। वह अपने बच्चों को इतना योग्य बना देखना चाहता है कि वह अपने पैरों पर खड़ा होकर समाज में सिर उठकर चल सके और अपना स्थान प्राप्त कर सके। 
       जो व्यक्ति अपने पिता के इस तप का साक्षी बनता है और उसे समझता है, वह कभी उसका तिरस्कार नहीं कर सकता। वह निम श्लोक के भाव को आत्मसात कर सकता है। किसी कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में पिता के विषय में कहा है-
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।
अर्थात् पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है, पिता परम तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
          कवि के अनुसार पिता धर्म है, तप है और तप है। यानी जो अपने पिता की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म अथवा कर्त्तव्य समझता है, उसके लिए उससे बड़ा धर्म और कोई नहीं है। बच्चा जब युवा होकर कमाने-खाने लगता है। तब वह अपना परिवार बनाता है। उस समय उसका पिता आयुप्राप्त करने लगता है। यह उसके पिता की रिटायरमेण्ट की आयु कही जा सकती है।
          दूसरे शब्दों में पिता अपना कदम वृद्धावस्था में रखता है। यह वह समय होता है, जब मनुष्य का शरीर अशक्त होने लगता है। उसे बच्चों के मजबूत कन्धों के सहारे की आवश्यकता होती है। उस समय उनका ध्यान रखना, उनकी समुचित सेवा-सुश्रुषा करना, उनकी आज्ञा का पालन करना हर बच्चे का दायित्व बनता है। इन सबका पालन करना ही बच्चे का धर्म भी कहा जा सकता है।
          जो बच्चा अपना धर्म समझकर इनका पालन करता है, उसे किसी मन्दिर आदि में जाकर पूजा करने की आवश्यकता नहीं होती। वह अपने जीवित देवता यानी अपने माता-पिता की पूजा-अर्चना करता है। ऐसा करने से उसकी कीर्ति दूर-दूर तक प्रसारित होती है। उसके माता-पिता जब प्रसन्न होते हैं, तब उनका घर स्वर्ग के समान सुखदायक बन जाता है। माता-पिता के चरणों में ही स्वर्ग कहा जाता है।
          यह सब इसी तपश्चर्या से प्राप्त होता है। पिता के तप से बच्चा योग्य बनकर समाज में एक मुकाम प्राप्त करता है। पिता की तपस्या का ही परिणाम उसकी सन्तान होती है। उसकी सफलता उसके पिता के अथक परिश्रम की ही देन होती है। जो बच्चे इस बात को स्मरण रखते हैं, उनके घर में सुख-शान्ति का वास होता है। उनकी सुगन्ध को चारों ओर फैलने से कोई नहीं रोक सकता।
          इसके विपरीत जो बच्चे स्वार्थ में अन्धे हो जाते हैं, वे अपने माता-पिता की सुध नहीं लेते। वे बेचारे इस वृद्धावस्था में दर-बदर की ठोकरें खाते हैं, दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। उनकी सेवा नहीं होती और न ही दवा-दारू होती है। उनकी कोई जरूरत पूरी नहीं होती। ऐसे अवज्ञाकारी बच्चों के सभी धर्म-कर्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है क्योंकि उन्होनें अपने घर में बैठे हुए जीवित भगवान की पूजा नहीं की होती।
          पिता का स्थान आकाश से भी ऊँचा है। सन्तान को संसार में लाने के कारण उसे  देवता कहा जाता है। ऐसा पिता जब प्रसन्न होता है, तो सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। है न यह छोटा-सा गणित। बहुतों को खुश करने में इन्सान परेशान हो जाता है। एक खुश होता है, तो दूसरा नाराज हो जाता है। कवि कहता है कि केवल अपने पिता को प्रसन्न कर लो, सभी बन्धु-बान्धव, समाज और सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए उसकी प्रसन्नता का ध्यान प्रत्येक मनुष्य को यत्नपूर्वक करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 5 अगस्त 2020

मन का सयंम

 मन का संयम

मन को ध्यान के द्वारा एकाग्र किया जा सकता है। यद्यपि यह कार्य इतना सरल है नहीं, जितना कहने-सुनने में लगता है। एक ही बिन्दु, एक वस्तु या एक स्थान पर मन की वृत्ति को लगाया जा सकता है। ध्यान को धारणा के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है। इससे मन की सजगता को शून्यता की ओर लेकर जाने में सफलता प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने मन को एकाग्र करने की आवश्यकता है।
         मनुष्य के मन में अपरिमित शक्तियाँ छिपी रहती हैं। उनका आलोड़न करना पड़ता है क्योंकि ये इधर-उधर बिखरी रहती हैं। मनुष्य का मन बिना कुछ सोचे, बहुत कुछ विचरता रहता है। उसके लिए किसी भूमिका विशेष की आवश्यकता नहीं होती। वह अनायास ही यहाँ वहाँ भटकता रहता है। यह किसी एक विषय पर अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता। इसका कारण उसका चञ्चल होना है।
           सामान्य तौर पर यह मन अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करता। संयमी मन शक्तिशाली होता है। जबकि असंयमित मन दुर्बल होता है। मानसिकता शक्ति के लिए मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। मन के बिखरे विचारों को ध्यान या धारणा के अभ्यास से समेत सकते हैं। जब मनुष्य अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब वह सामने वाले के मन को प्रभावित करने में सक्षम हो जाता है।
           संयमित मन जो निर्णय लेता है, उसका पालन वह दूसरों से करवा सकता है। वह अपने कार्यों को टालता नहीं अपितु निश्चयपूर्वक कर लेता है। जब तक उसका उद्देश्य सफल नहीं होता, वह चैन की साँस नहीं लेता। इसीलिए सभी लोग उसके ही अनुसार चलने में कतराते नहीं हैं। ये लोग किसी भी क्षेत्र में हों, अपने इस मन के दृढ़ संकल्प के कारण ही महान बनते हैं। दूसरों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
          इसके विपरीत दुर्बल मन वाला स्वयं अपने ही निर्णय पर स्वयं अडिग नहीं रह पाता, तो उसकी बात को कौन सुनेगा? वह अपने कार्य कल पर टालता रहता है। फिर समय बीतते वह उसे भूल जाता है। ऐसी परिस्थितियों में उसे सफलता नहीं मिल पाती। वह रेस में पिछड़कर जगहँसाई करवाता है। अपने ऊपर यदि उसे क्रोध आ भी जाए, तो व्यर्थ है। अपनी आदतों को वह बदलता नहीं है।
          अपनी उन्नति चाहने वाले मनुष्य को सदा ही अपने मन को उन्नत रखना पड़ता है। तभी वह अपने कार्यों की गुणवत्ता बनाए रख सकता है। यदि मनुष्य का मन ही कमजोर हो जाएगा, तब उसका प्रत्येक कार्य निम्न कोटि का होगा। इस मन को संयमी या उच्चकोटि का बनाने के लिए अपने उद्देश्यों का  विश्लेषण करना पड़ता है। इसके लिए नियमित रूप से ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
         मनीषियों के द्वारा मन को संयमित करना बहुत सरल कार्य है। भुल्ले शाह जी ने कहा है-
         भुल्लया मन दा की पाना
         एत्थों पुटना ओत्थे लाना
अर्थात् मन को प्राप्त कर लेना बहुत सरल है। उसे इधर से उखाड़कर उधर लगाना होता है। बात यह है कि चावल को एक स्थान पर बोया जाता हैं और फिर वहाँ से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगा दिया जाता है। तब अच्छी फसल होती है।
          इस तरह अपने इस चञ्चल मन को भी एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाना होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मन के भटकाव को रोकने के लिए उसे स्थायित्व प्रदान करना होता है। यानी इस असार संसार के भौतिक कारोबार से हटाकर उस परमपिता परमात्मा की राह पर लगाना होता है। यह कोई सरल कार्य नहीं है, पर बार-बार अभ्यास करने पर यह नियन्त्रित हो जाता है।
          इस तरह अपने इस चञ्चल मन को भी एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाना होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मन के भटकाव को रोकने के लिए उसे स्थायित्व प्रदान करना होता है। यानी इस असार संसार के भौतिक कारोबार से हटाकर उस परमपिता परमात्मा की राह पर लगाना होता है। यह कोई सरल कार्य नहीं है, पर बार-बार अभ्यास करने पर यह नियन्त्रित हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

मन की शुद्धि

मनुष्य की शुद्धि

अपने तन और मन को शुद्ध करना ही शुद्धि कहलाता है। शरीर को शुद्ध करना बहुत सरल कार्य है। शरीर पर साबुन मला और जल लेकर स्नान कर लेने से मनुष्य का शरीर शुद्ध हो जाता है। परन्तु हमारा जो यह मन है, वह है कि शुद्ध और पवित्र होने का नाम ही नहीं लेता। इसे साबुन और जल से कदापि शुद्ध नहीं किया जा सकता। कितने ही जतन कर लो, पर यह धत्ता बता ही देता है। अब प्रश्न यह है कि मन को किस प्रकार शुद्ध किया जाए?
          'मनुस्मृति:' में भगवान मनु निम्न श्लोक में कहते हैं-
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्त मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥
अर्थात् जल से शरीर शुद्ध होता है, सत्य से मन पवित्र होता है। विद्या और तप से जीवात्मा की शुद्धि होती है। ज्ञान से बुद्धि निर्मल होती है।
           कहने का तात्पर्य यह हैं कि शरीर बहुत से स्थानों पर जाता है। वह पूजा के स्थान पर भी जाता है। श्मशान में जाकर अपवित्र माना जाता है। इसी प्रकार परिश्रम करके पसीने से तरबतर हो जाता है, गर्मी से परेशान हो जाता है। यानी किसी भी कारण से शरीर में से गन्ध आने लगती है। ऐसी स्थिति में जल से स्नान कर लो तो वह शुद्ध हो जाता है। उसके बाद स्वच्छ वस्त्र धारण कर लो तो उसकी गन्दगी दूर हो जाती है।
           मनुष्य का मन जन्म-जन्मान्तरों के मल को लिए हुए है। इस मन को शुद्ध करना असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य है। मनुष्य जितना सत्याचरण करता है, उतना ही यह शुद्ध होता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सत्य की साधना करने से ही यह तपकर कुन्दन बनता है। समस्या यह है कि मन बहुत चञ्चल है। वायु से भी तीव्र गति से कहीं भी भागता चला जाता है। मन की गति रोके नहीं रुकती।
          संसार के आकर्षण इसे आकर्षित करते रहते हैं और मनुष्य का यह मन है जो विषय वासनाओं और मोहमाया के जाल में उलझता रहता है। इस उलझन को सुलझाने में महान मनीषी और साधु-सन्त लगे रहते हैं। यह दुष्ट मन बहुत ही कठिनाई से वश में होता है। 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि इस मन को अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही वश में किया जा सकता है। 
           मनुष्य के शरीर में विद्यमान यह जीवात्मा विद्या और तप से शुद्ध होता है। परमात्मा का अंश आत्मा का ज्ञान विद्या से ही प्राप्त किया जा सकता है। तप से ही इसे साधा जा सकता है। जब तक मनुष्य अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित नहीं करता तब तक वह अपने लक्ष्य मोक्ष तक नहीं पहुँच सकता। यह सारा ज्ञान विद्या से ही प्राप्त होता है। इस बात को निम्न उदाहरण से समझते हैं।
           'कठोपनिषद' में आत्मा को यात्री बताया गया है, जिसका रथ यह शरीर है। इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं, मन इसकी लगाम है और बुद्धि सारथी है। जब सारथी रूपी बुद्धि मन रूपी लगाम से इन्द्रियों रूपी अश्वों को ठीक से नियन्त्रित करके, उचित मार्ग पर नहीं ले जाएगा, तब तक यात्री आत्मा अपने गन्तव्य मोक्ष तक नहीं पहुँच सकेगा। यह सब विद्या और तप से ही सम्भव हो सकता है।
          मनुष्य की बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। मनुष्य बाल्यकाल से युवावस्था तक विद्यार्जन करता है। उसका उद्देश्य योग्यता प्राप्त करना होता है। मनुष्य जितना ज्ञान अर्जित करता है, उतनी ही उसकी बुद्धि तीव्र होती है। यही बुद्धि की शुद्धता होती है। यदि मनुष्य ज्ञानार्जन न करे तो वह अज्ञ या मूर्ख कहलाता है। इस संसार का सार जानना आवश्यक है, जो केवल ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है।
           इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को इस शरीर, मन, आत्मा और बुद्धि को सदा शुद्ध रखना चाहिए। इन्हें शुद्ध करने के लिए जल, सत्य, विद्या, तप और ज्ञान की आवश्यकता होती है। शरीर के शुद्ध होने पर मनुष्य के पास बैठने वाले व्यक्ति को कठिनाई नहीं होती। मन शुद्ध हो जाए तो मनुष्य किसी से ईर्ष्या, द्वेष, घृणा नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वयं भी नहीं भटकता। 
            तप और विद्या से आत्मा के शुद्धिकरण से वह अपने मोक्ष के पथ पर अग्रसर होती है। तब उसे चौरासी लाख योनियों में आवागमन से छुट्टी मिल जाती है, अर्थात् उस समय आत्मा मुक्त हो जाती है। बुद्धि को ज्ञान के द्वारा शुद्ध किया जाता है, जिससे वह कुमार्ग का त्याग करके सदा सन्मार्ग पर चलती है। इसलिए इन चारों को मनुष्य को शुद्ध करते रहना चाहिए, ताकि इनमें विकार न आने पाए।
चन्द्र प्रभा सूद