बुधवार, 5 अगस्त 2020

मन का सयंम

 मन का संयम

मन को ध्यान के द्वारा एकाग्र किया जा सकता है। यद्यपि यह कार्य इतना सरल है नहीं, जितना कहने-सुनने में लगता है। एक ही बिन्दु, एक वस्तु या एक स्थान पर मन की वृत्ति को लगाया जा सकता है। ध्यान को धारणा के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है। इससे मन की सजगता को शून्यता की ओर लेकर जाने में सफलता प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने मन को एकाग्र करने की आवश्यकता है।
         मनुष्य के मन में अपरिमित शक्तियाँ छिपी रहती हैं। उनका आलोड़न करना पड़ता है क्योंकि ये इधर-उधर बिखरी रहती हैं। मनुष्य का मन बिना कुछ सोचे, बहुत कुछ विचरता रहता है। उसके लिए किसी भूमिका विशेष की आवश्यकता नहीं होती। वह अनायास ही यहाँ वहाँ भटकता रहता है। यह किसी एक विषय पर अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता। इसका कारण उसका चञ्चल होना है।
           सामान्य तौर पर यह मन अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करता। संयमी मन शक्तिशाली होता है। जबकि असंयमित मन दुर्बल होता है। मानसिकता शक्ति के लिए मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। मन के बिखरे विचारों को ध्यान या धारणा के अभ्यास से समेत सकते हैं। जब मनुष्य अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब वह सामने वाले के मन को प्रभावित करने में सक्षम हो जाता है।
           संयमित मन जो निर्णय लेता है, उसका पालन वह दूसरों से करवा सकता है। वह अपने कार्यों को टालता नहीं अपितु निश्चयपूर्वक कर लेता है। जब तक उसका उद्देश्य सफल नहीं होता, वह चैन की साँस नहीं लेता। इसीलिए सभी लोग उसके ही अनुसार चलने में कतराते नहीं हैं। ये लोग किसी भी क्षेत्र में हों, अपने इस मन के दृढ़ संकल्प के कारण ही महान बनते हैं। दूसरों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
          इसके विपरीत दुर्बल मन वाला स्वयं अपने ही निर्णय पर स्वयं अडिग नहीं रह पाता, तो उसकी बात को कौन सुनेगा? वह अपने कार्य कल पर टालता रहता है। फिर समय बीतते वह उसे भूल जाता है। ऐसी परिस्थितियों में उसे सफलता नहीं मिल पाती। वह रेस में पिछड़कर जगहँसाई करवाता है। अपने ऊपर यदि उसे क्रोध आ भी जाए, तो व्यर्थ है। अपनी आदतों को वह बदलता नहीं है।
          अपनी उन्नति चाहने वाले मनुष्य को सदा ही अपने मन को उन्नत रखना पड़ता है। तभी वह अपने कार्यों की गुणवत्ता बनाए रख सकता है। यदि मनुष्य का मन ही कमजोर हो जाएगा, तब उसका प्रत्येक कार्य निम्न कोटि का होगा। इस मन को संयमी या उच्चकोटि का बनाने के लिए अपने उद्देश्यों का  विश्लेषण करना पड़ता है। इसके लिए नियमित रूप से ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
         मनीषियों के द्वारा मन को संयमित करना बहुत सरल कार्य है। भुल्ले शाह जी ने कहा है-
         भुल्लया मन दा की पाना
         एत्थों पुटना ओत्थे लाना
अर्थात् मन को प्राप्त कर लेना बहुत सरल है। उसे इधर से उखाड़कर उधर लगाना होता है। बात यह है कि चावल को एक स्थान पर बोया जाता हैं और फिर वहाँ से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगा दिया जाता है। तब अच्छी फसल होती है।
          इस तरह अपने इस चञ्चल मन को भी एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाना होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मन के भटकाव को रोकने के लिए उसे स्थायित्व प्रदान करना होता है। यानी इस असार संसार के भौतिक कारोबार से हटाकर उस परमपिता परमात्मा की राह पर लगाना होता है। यह कोई सरल कार्य नहीं है, पर बार-बार अभ्यास करने पर यह नियन्त्रित हो जाता है।
          इस तरह अपने इस चञ्चल मन को भी एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाना होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मन के भटकाव को रोकने के लिए उसे स्थायित्व प्रदान करना होता है। यानी इस असार संसार के भौतिक कारोबार से हटाकर उस परमपिता परमात्मा की राह पर लगाना होता है। यह कोई सरल कार्य नहीं है, पर बार-बार अभ्यास करने पर यह नियन्त्रित हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें